Sunday, September 27, 2009

संगमन की कथायात्रा

संगमन - 2

1 - 2 अक्टूबर 1994
कानपुर

संगमन - 2 भी कानपुर में ही मर्चेन्ट हॉल में आयोजित हुआ। इस दो दिवसीय कथाकार सम्मेलन में नई-पुरानी पीढी क़े कथाकार एक साथ उपस्थित थे। राजेन्द्र यादव, गिरिराज किशोर, मनोहर श्याम जोशी, शिवमूर्ति, महेश दर्पण, प्रेमकुमार मणि, ललित कार्तिकेय, महेश कटारे, ॠषिकेश सुलभ, अखिलेश तथा नवनीत मिश्र, जितेन्द्र ठाकुर, आनंद हर्षुल, सृंजय, तेजिन्दर, गिरीशचन्द्र श्रीवास्तव, शशांक, अवधेश प्रीत,विभांशु दिव्याल , कमल मुसद्दी इत्यादि।

संगमन - 2 चार सत्रों में विभाजित था।

1 अक्टूबर 1994, शनिवार

पहला सत्र (अपराह्न) : कल्पनाशीलता का विखण्डन - कथा साहित्य का भविष्य
दूसरा सत्र (सायं) : उपन्यास लेखन - नई पीढी क़ी निष्क्रियता

2 अक्टूबर 1994, रविवार
तीसरा सत्र
चतुर्थ सत्र ( प्रात: ) : कथा लेखक की अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के प्रति रचनात्मक संवेदनहीनता
पंचम सत्र (अपराह्न) : सामाजिक अर्न्तविरोध - कथा साहित्य की भूमिका

अख़बारों और पत्रिकाओं की रपट के कुछ अंश

1 संगमन - 2 के पहले दिन कथा के भविष्य और उपन्यास लेखन में नई पीढी क़ी उदासीनता पर चर्चा - अमर उजाला 1 अक्टूबर, 1994

उपशीर्षक - इस बाजार तन्त्र से निपटने के लिए नए औजार तलाशने होंगे।

2 आज का लेखक अन्तर्राष्ट्रीय घटनाक्रम के प्रति संवेदनहीन नहीं - सहारा समाचार 2 अक्टूबर, 1994
उपशीर्षक - रचनाकारों का अर्न्तविरोध उभरकर सामने आया

3 टी वी और युग बिना एक दूसरे की कल्पना नहीं - दैनिक जागरण 2 अक्टूबर, 1994

4 कथाकार सबसे पहले अपने पाखण्ड पर लिखे - आज समाचार सेवा 2 अक्टूबर, 1994
उपशीर्षक - कहानी ने नए समाज के अर्न्तविरोध को न पकडा तो उसका अन्त सुनिश्चित

5 वैश्विक बोध छलांग लगाने पर छद्म बन जाता है - अमर उजाला 2 अक्टूबर, 1994

6 कथा साहित्य की समस्याओं से जूझते कथाकार - आवाज ( रविवारीय, धनबाद) 6 नवम्बर 1994

झलकियां
अमर उजाला 2 अक्टूबर, 1994

कथाकार सम्मेलन संगमन दो के समापन दिवस पर आज देश के जाने माने कथाकारों ने साहित्य के सरोकारों पर व्यापक विचार मंथन किया। अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के प्रति लेखकीय संवेदनहीनता व कथा साहित्य की भूमिका के सन्दर्भ सामाजिक अर्न्तविरोध से शुरू हुई चर्चा व्यैक्तिक अर्न्तविरोध में उलझ गई। हालांकि चर्चा के दौरान कई महत्वपूर्ण तथ्य भी उभरे।

सहारा समाचार 2 अक्टूबर, 1994
कथाकार सम्मेलन संगमन दो में आज अंतिम दिन विभिन्न विषयों पर पक्ष और प्रतिपक्ष में अच्छी चर्चा हुई। सामाजिक अर्न्तविरोध भी एक विषय रखा था। वहां बहस के दौरान सामाजिक अर्न्तविरोध तो सामने आया ही साथ ही रचनाकारों का अर्न्तविरोध भी स्पष्ट हो रहा था।

मैत्रेयी पुष्पा की अनुपस्थिति के कारण उनका पर्चा पढा गया।


दैनिक जागरण 2 अक्टूबर, 1994

राष्ट्रीय स्तर के इस कथाकार सम्मेलन में आज पहले दिन अधिकतर वक्ता विषय से हट कर बोले विषय था 'कल्पनाशीलता का विखण्डन - कथा साहित्य का भविष्य' जहां एक तरफ शब्दों के जाल में कल्पनाशीलता का विखण्डन उलझ कर रह गया वहीं कथा साहित्य के भविष्य पर भी चर्चा आधी अथूरी रही। अधिकतर ने कल्पनाशीलता का विखण्डन के लिए टी वी को दोषी ठहराया तो जाने माने लेखक मनोहर श्याम जोशी ने कहा कि टीवी के बिना युग और युग के बिना टीवी की कल्पना कोरी है।

संगमन में बोले गए कुछ महत्वपूर्ण कथन/उपकथन

''परिवर्तन की बात कहने वालों के दरवाजे पर जब परिवर्तन आता है तो वे स्वयं ही उसका विरोध करते हैं।'' राजेन्द्र यादव

'' कल्पनाशीलता का विखण्डन नहीं बल्कि उसका लोप हुआ है।'' राजेन्द्र यादव

'' समानता को मानने वाले को आज क्रूर और बदतमीज क़हा जाता है।'' राजेन्द्र यादव
''
दूरदर्शन का गलत प्रयोग हो रहा है लेकिन भाषा का कोई संकट नहीं। '' राजेन्द्र यादव

'' लेखकों के लिए सबसे पहले अपने ही अर्न्तविरोधों और पाखण्ड से मुक्ति पाना अनिवार्य है। इसके बगैर वे रचनाशीलता के साथ न्याय नहीं कर सकते'' मनोहर श्याम जोशी

'' कोई भी रचनाकार अपने परिवेश, संस्कृति तथा संस्कारों से मुक्त होकर यदि रचना लिखता भी है तो वह चमत्कारिक दुराग्रहों में फंस जाता है।'' मनोहर श्याम जोशी

''अन्तर्राष्ट्रीय घटनाएं कहीं न कहीं लेखक को प्रभावित अवश्य करती हैं लेकिन रचनाकार किस सीमा तक इनसे प्रभावित होता है यह एक विचारणीय प्रश्न है।'' गिरिराज किशोर

'' नए संदर्भ में कल्पनाशीलता व कथा साहित्य का भविष्य एक दूसरे से जुडा है।'' गिरिराज किशोर

'' सृजन भीतरी दबाव से होता है।'' गिरिराज किशोर

'' कल्पना यथार्थ से बहुत आगे की चीज है। यदि शरीर यथार्थ है तो कल्पना उसकी आत्मा है।'' शिवमूर्ति

'' उपन्यास लेखन में निष्क्रियता समय का दुष्प्रभाव है।'' महेश कटारे

'' लेखक अन्तर्राष्ट्रीय परिवेश से उदासीन हो सकता है मगर वह अपने परिवेश से अलग थलग नहीं हो सकता।''

'' तेजी से बदलते यथार्थ को उपन्यास में पकडना लेखक के लिए चुनौती है।'' अखिलेश

''मीडिया के बढते दबावों के बावजूद किताबों का भविष्य खत्म नहीं होगा।'' आनन्द हर्षुल

'' जो अपेक्षा देश चलाने वालों से की जा रही है वही कथाकारों से क्यों। महेश दर्पण

'' कल्पनाशीलता का परिसीमन हुआ है विखण्डन नहीं।'' जितेन्द्र ठाकुर
''
त्वरित यथार्थ को पुराने औजारों से पकडना मुश्किल है।''
ललित कार्तिकेय

'' लेखक तथा पाठक दोनों की ही संवेदनशीलता का हास हो चुका है।'' नवनीत मिश्र

'' आज का लेखक जितना भी चाहे अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं से मुक्त नहीं हो सकता। अन्तर्राष्ट्रीय घटनाएं लेखक के लिए कच्चा माल हैं।''अवधेश प्रीत

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