Tuesday, June 23, 2015

शिवमूर्ति की रचनाओं पर अन्य लेखकों के मत

शिवमूर्ति की रचनाओं पर अन्य लेखकों के मत
1- भाषा पर शिवमूर्ति की पकड़ गजब की है। अपनी भाषा से वे पूरा दृश्य पैदा कर देते हैं। उनके बिंब इतने सजीव होते हैं कि कहानियां पढ़ते हुए आप पुस्तक से निकल कर उनके द्वारा वर्णित गांव में टहल रहे होते हैं। जब वे लिखते हैं कि घर्र....घर्र.... करके ट्रक स्टार्ट हुआ तो ऐसा लगता है कि ट्रक हमारी आंखों के सामने से निकला है। भाषा से दृष्य बनाने की ऐसी क्षमता बहुत कम लोगों में होती है। 
शिवमूर्ति की छवि प्रबन्धक लेखक की नहीं है। वे अपने आप को प्रक्षेपित नहीं करते। यही कारण है कि उन्हें पुरस्कार भी कम मिले हैं और उनकी चर्चा भी अपेक्षाकृत कम हुर्इ है। लेकिन उनका पाठक वर्ग इतना मजबूत है कि वे शिवमूर्ति को ढूंढ़-ढूंढ़ कर पढ़ते हैं। अपनी दो तीन रचनाओं के साथ ही उन्होंने प्रसिद्धि का शिखर छू लिया। 
ममता कालिया - लमही, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 पृष्ठ 246
2- शिवमूर्ति के पास अनुभवों का जो जटिल यथार्थ है उससे उनकी यह समझ मजबूत होती है कि रचना में किसके प्रति संवेदनसशील होना है और किसके प्रति क्रूर या सरस। यहां शिवमूर्ति कुछ उसी तरह का सन्तुलन साधते हैं जैसी रस्सी पर बांस लेकर चलने वाला नट अपने हुनर से साधता है। उनकी रचनाओं में तमाम शेडस हैं। जिससे उनकी लेखकीय छवि व्यापक बनती है। मैं शिवमूर्ति की रचनाओं की फैन हूं और मुझे उनसे और भी उम्दा रचनाओं की उम्मीद है। 
चित्रा मुदगल - लमही, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 पृष्ठ 248

3- शिवमूर्ति की रचनाओं में कथावस्तु और चरित्र इतने प्रबल हैं कि वे भाषा के किसी भी ऊपरी तामझाम और छलावे के बिना अपने को पाठकों के बची धमाकेदार तरीके से स्थापित कर लेते हैं। शिवमूर्ति ने बहुत कम लिखा है लेकिन बहुत अच्छा लिखा है।
दूधनाथ सिंह - लमही, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 पृष्ठ 243
4 - शिवमूर्ति की सबसे बड़ी ताकत यह है कि वे अपनी जड़ों को कभी भूलते नहीं। उन्हें बड़े ही पारदर्शी तरीके से प्रस्तुत करते हैं। कहानियों के अतिरिक्त शिवमूर्ति की जो जीवन परक रचनाएं हैं वह भी काफी स्पष्ट व अपीलिंग हैं। बिल्कुल पारदर्शी। इतने बडे़ पद पर होने के वावजूद वह अपने बचपन या लड़कपन का जिक्र करते हैं तो किसी तरह का घालमेल नहीं करते। शिवमूर्ति का आत्म विश्वास इतना प्रबल है कि वह कुछ छिपाते नहीं। उनकी व्यापक स्वीकृति की यही वजहें हैं। 
शेखर जोशी  - लमही, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 पृष्ठ 242
5 - शिवमूर्ति का लेखन विशिष्ट है। उन्हें प्रेमचंद और रेणु के साथ रखना ठीक नहीं होगा। उनका अपना स्थान है। अच्छे लेखक हमेशा ही पाठकों और आलोचकों के बीच सराहे जाते हैं। शिवमूर्ति इसके अपवाद नहीं हैं। अपनी कहानियों से उन्होंने अच्छा स्थान बनाया है इसलिए सराहे जाते हैं।... एक ऐसा लेखक जो अच्छा और सार्थक लिखता है। 
मुद्राराक्षस - लमही, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 पृष्ठ 241
6 - शिवमूर्ति किसान जीवन को अच्छे से जानते हैं। जानने का मतलब ग्राम्य संस्कृति को, वहां के समाज को, परिवार को, वहां के राजनैतिक तंत्र और ढांचे को भली भांति समझते हैं। वह किसानों की कहानियां लिख रहे हैं, पर समृद्ध की नहीं, वंचित की, शोषित की लिख रहे हैं। वह शोषण की नहीं, शोषित किसानों के जीवन की चुनौतियां लिख रहे हैं।... उन्होंने ग्रामीण जीवन में दलित स्त्री के शोषण को जिस तरह अपनी कहानियों में रेखांकित किया है वह दुर्लभ है। उन्होंने स्त्री के शोषण को कर्इ स्तरों पर देखा है। उन्होंने उसके शोषण की वह पीड़ा भी लिखी है जिसे वह अपने ही परिवार में अपने ही लोगों के कारण झेल रही हैं। इसलिए मैं कहूंगा कि उनकी कहानियों के स्त्री चरित्र बहुत प्रभावशाली हैं जिसमें 'तिरिया चरित्तर की नायिका को भुलाया नहीं जा सकता।... शिवमूर्ति के पास बहुत अच्छी भाषा है। ग्राम्य जीवन की, किसान जीवन की ऐसी भाषा इस समय किसी के पास नहीं है। उनके पास तदभव शब्दों का भंडार है। उनकी कहानियों में पद ही पदार्थ का रूप ग्रहण कर लेता है। यही उनकी भाषा का जादू है। 
डा. विश्वनाथ त्रिपाठी - लमही, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 पृष्ठ 240-241
7 - वरिष्ट हिन्दी लेखक शिवमूर्ति ने अपने सन 2004 में लिखित उपन्यास तर्पण द्वारा कर्इ मायनों में दलित शोषण केनिद्रत लेखन को एक नये मुकाम तक पहुंचा दिया है। वक्त और बदलते राजनीतिक सामाजिक परिवेश को देखते हुए इसकी सख्त जरूरत भी थी। साहित्य में दलित वर्ग को केवल निहायत लाचार और निरीह शोषित शिकार के रूप में चित्रित करने के दिन अब लद गये। संभवत: तर्पण वह चिर प्रतीक्षित उपन्यास है जिसने दलितों को इस एकांगी भूमिका से मुक्त किया है। 
जर्मन इन्डोलिस्ट इनेश फारनेल - लमही, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 पृष्ठ 126
8 - शिवमूर्ति का उपन्यास 'आखिरी छलांग कल्पना से कहीं अधिक भयावह यथार्थ को पकड़ने की र्इमानदार कोशिश है। शिवमूर्ति के कथा साहित्य में ग्रामीण जीवन के भरोसेमंद दृष्य मिलते हैं। कायदे से देखा जाय तो ग्रामीण परिवेश की जीवंत दृष्यात्मकता में पुनर्रचना करना शिवमूर्ति की ऐसी खासियत है जो समकालीन कथाकारों को उनसे रश्क करने पर बाध्य कर सकती है।
प्रखर आलोचक प्रियम अंकित - लमही, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 पृष्ठ 139
9 - आजादी के बाद का भारत, वह भी ग्रामीण भारत अपनी तमाम विद्रूपताओं और जटिलताओं के साथ यदि किसी कथाकार के कथा साहित्य में संजीदगी और व्यापकता के साथ अभिव्यक्त हुआ है तो वह कथाकार हैं शिवमूर्ति। शिवमूर्ति मन के मनोविज्ञान को बखूबी समझते हैं। उन्हें मन की पकड़ है और आस-पास की परिसिथतियों का अनुभव। किसी भी कहानी में व्यक्त परिवेश का चप्पा-चप्पा जैसे उनका देखा हुआ और जिया हुआ लगता है। 
शिवमूर्ति की कहानियों में कथ्य जितना प्रभावशाली और मारक है, उनकी भाषा उससे भी ज्यादा बेधक। आदमी की अच्छार्इ बुरार्इ को पकड़ना और उसे उन्हीं की भाषा में व्यक्त करना उनके जैसा अनुभवी और उस भाषा को गहरायी से जानने वाला विलक्षण कथाकार ही कर सकता है। 
वरिष्ठ कथाकार उर्मिला शिरीश  - लमही, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 पृष्ठ 71 व 75
10 - शिवमूर्ति की कर्इ कहानियां अपनी पठनीयता के बल पर लम्बे समय तक स्मृति में अपना स्थान बनाए रखती हैं। गांवों को लेकर ऐसी पठनीय कथायें हिन्दी साहित्य जगत में सचमुच बेहद दुर्लभ हैं।... शिवमूर्ति का साहित्य स्वतंत्रयोत्तर भारत के वर्ण और जाति के पंक में आकंठ धंसे गांवों की हकीकत से परिचित कराने वाला साहित्य है। उनके गांव रहस्यमय कल्पनाओं से आवृत्त भी नहीं हैं जहां इन्सान से ज्यादा ध्यान चिडि़या की टीं टीं-टूं टूं पर जाय। उनकी कहानियों में चित्रित गांव मेंं हर तरफ आतंक है और यह आतंक सीधी गोलाबारी या हिंसा से नहीं बलिक महीन स्तरों पर सरकार-राजनीति और सामंती संस्कृति के बीच से पैदा षड़यंत्रों के सहारे फैलाया गया है। 
प्रसिद्ध आलोचक वैभव सिंह - लमही, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 पृष्ठ 53
11 - 'सिरी उपमा जोग कहानी में ऐसा क्या है जो यह कहानी लगभग तीस साल के अंतराल को पाटते हुए आज भी उसी प्रकार ताजा की ताजा है। कहानी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह एक सहज सरल और तरल कहानी है।... कहानी को भूल जाओ, लेखक को भूल जाओ लेकिन (इस कहानी की) लालू की मार्इ को कैसे भूला जाय। जहां तक मुझे याद है, इस कहानी को मैने कर्इ-कर्इ बार कर्इ-कर्इ प्रत्रिकाओं या इंटरनेट पर पढ़ा। जब भी पढ़ा तो लालू की मार्इ उसी प्रकार सामने खड़ी थी। अपने प्रश्न लेकर। लालू के बप्पा ने भले ही लालू की मार्इ को भुला दिया लेकिन मैं उसके बाद फिर लालू की मार्इ को नहीं भुला पाया। 
चर्चित कथाकार पंकज सुवीर - लमही, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 पृष्ठ 95
12 - 'त्रिशूल' भारतीय वर्ण व्यवस्था वाले हिन्दू समाज की जातिवादिता, धार्मिकता और सामंती मानसिकता को तार-तार कर देता है। त्रिशूल की सफलता और सार्थकता इस बात में भी है कि वह मुसिलम दलित पिछड़ों के माध्यम से प्रतिरोध और विद्रोह का परिप्रेक्ष्य निर्मित कर जनजागृति का सर्जनात्मक कार्य करता है। इनकी यही जागृति, यही चेतना समानता, मानवीय अधिकारों और मूल्यों के लिए प्रतिरोध का परिप्रेक्ष्य निर्मित करता है जिसे त्रिशूल की घटनाओं और पात्रों के माध्यम से देखा जा सकता है। ऊंची जाति के जनार्दन तिवारी यदि छोटी जाति के बाबा को प्रमाण नहीं करते हैं तो बाबा ही उन्हें कहां प्रणाम करते हैं। 
त्रिशूल भारतीय साहित्य और समाज का ऐसा 'टेक्स्ट' है जिसमें वर्ण जाति, धर्म समप्रदाय राजनीति, अर्थनीति और संस्कृति की भेद-मूलक संरचनाएं आपस में इस तरह गुंथी हुर्इ हैं कि भारतीय लोकतंत्र भी उन्हीं के सहारे 'सरवाइव' कर रहा है, 'भेद' को बनाए रखकर। लेकिन जब तक भेद रहेगा तब तक अन्याय भी रहेगा। 
दुर्गाप्रसाद गुप्त - लमही, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 पृष्ठ 224-125
13 - शिवमूर्ति शब्दों के पारखी हैं। शब्दों को चुनने की और उसे अपनी कथा में बरतने की उनकी तमीज काबिले तारीफ है। शिवमूर्ति की भाषा में निहित बेधकता, सम्प्रेषणीयता, सांगीतिकता, चित्रात्मकता सांकेतिकता, ध्वन्यात्मकता आदि गुणों के मूल में उनकी 'शब्द शक्ति' को सूंघने महसूसने की क्षमता है। वे एक साथ अभिधा, लक्षणा और व्यंजना का मारक इस्तेमाल करने वाले कथाकार हैं।... अपने सुदीर्घ रचनाकाल में अत्यन्त संक्षिप्त रचनाओं की सूची प्रस्तुत करने वाले शिवमूर्ति के कथासाहित्य ने आज के दौर में एक दुर्लभ सी लगने वाली ख्याति और विश्वसनीयता दोनों अर्जित किया है। यही कारण है कि अल्प लेखन के बावजूद शिवमूर्ति हिन्दी कथा साहित्य में विश्वसनीयता के किसी 'हालमार्क की तरह हैं। 
प्रसिद्ध आलोचक राहुल सिंह - लमही, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 पृष्ठ 40
14- शिवमूर्ति हिन्दी कथा साहित्य में एक ऐसा नाम है जिसकी अपनी एक अलग पहचान ही नहीं बलिक जो सामाजिक जीवन के गंभार सरोकारों और संवेदनाओं की एक विशिष्ट निर्मिति के चिंतक भी हैं। शिवमूर्ति की कहानियों में ग्रामीण जीवन की विषमताएं और अन्र्तविरोध नग्न यथार्थ के रूप में अभिव्यकित पाते हैं। जहां जाति व्यवस्था की गहरी जडे़ं मानवीय सम्बन्धों को छिन्न-भिन्न करती दिखायी देती हैं। जहां स्त्री और दलित को लगातार गहन यातना और विवशता में जीना पड़ता है। शिवमूर्ति ग्रामीण जीवन की जटिलताओं और विषमताओं को अभिव्यक्त करने में सिद्धहस्त कथाकार हैं। 
वरिष्ट दलित चिंतक और कथाकार ओम प्रकाshshr वाल्मीकि - लमही, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 पृष्ठ 42
15 - शिवमूर्ति की कहानियों को पढ़ते समय उनके स्त्री पात्रों की मनोदशा को हम उनके साथ घटित हो रही घटनाओं के सन्दर्भ में जिस बेचैनी, उत्सुकता व संवेदना के साथ महसूस करते हैं वह अदभुत है। किसी भी अन्य कथाकार की कहानियां पढ़ते समय ऐसा महसूस नहीं होता। प्रेमचंद की कहानियां पढ़ते समय भी नहीं। इसका मुख्य कारण है शिवमूर्ति द्वारा इन कथापात्रों के संवादों में आम बोलचाल की खाटी अवधी भाषा का इस्तेमाल। इस भाषा में अभद्र गालियों, मुहावरों व आक्षेपों का नैसर्गिक व भरपूर इस्तेमाल होता है। कलात्मक आलोचना की दृषिट से देखा जाय तो शिवमूर्ति एक नया ही सौन्दर्य शास्त्र गढ़ते नजर आते हैं। वे अपने स्त्री कथा पात्रों को उतने ही सुन्दर अथवा दीन हीन रूप में हमारे सामने लाकर खड़ा कर देते हैं जैसे वे वास्तविक जगत में होते हैं। इन कथा पात्रों में बाल-विवाह की त्रासदी व कुपोषण तथा गरीबी की शिकार बहुएं हैं, पतिनयां हैं, मायें हैं, वृद्धायें हैं। 
शिवमूर्ति की कहानियां स्त्री विमर्श की कहानियां हैं।... उनका स्त्री विमर्श समाज की उन निम्नवर्गीय औरतों के शारीरिक व आत्मीय सौन्दर्य, दैहिक ताप व उत्पीड़न जिजीविशा, प्रतिरोध, राग द्वेश परिवारिक क्लेश आदि पर केनिद्रत हैं जो दूर दराज के गांवों में घर जवार की सीमाओं में कैद होकर अपना जीवन गुजार रही हैं। इनमें अनपढ़, गरीब, विस्थापित बाल ब्याहता, श्रमिक शोशित व उपेक्षित वर्ग की साधारण स्त्रियों  का जिंदगीनामा है, जिसमें न हार की फिक्र है, न जीत की। बस संघर्ष ही संघर्ष है, वेदना ही वेदना है। 
प्रसिद्ध कवि व आलोचक उमेश चौहान - लमही, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 पृष्ठ 57-64
16 - शिवमूर्ति पाठकों को इसलिए रूचते हैं क्योंकि उनके यहां शिल्प है, शिल्प सजगता नहीं, कला भरपूर है लेकिन कलाबाजी नहीं। विचार है लेकिन विचारधारा का आतंक नहीं। जीवन दर्शन है लेकिन दार्शनिकता का घटाटोप नहीं। जाति असिमता की चेतना है लेकिन जातिवादी जहर नहीं। वे पाठकों से बातियाते हैं उन्हें बतलाते नहीं।... शिवमूर्ति में पर्यवेक्षण गजब का है।... उनके पास असंख्य लोकगीत, लोककथाएं लोकवार्ताएं और कहावतें हैं। 
प्रसिद्ध कथाकार सृंजय - लमही, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 पृष्ठ 163
17 - शिवमूर्ति की कहानियां दलित असिमता को र्पुनपरिभाषित करती हैं। वे दलित असिमता के बारे में कहते ही नहीं, उसे सिद्ध भी करते हैं। शब्द दर शब्द, पंकित दर पंकित, कहानी दर कहानी, वह निरन्तर दलित और वंचित वर्ग की असिमता का साहित्य रचते रहे हैं।... शिवमूर्ति ने कम लिखा है लेकिन थोडे़ में ही बहुत लिखा है। जरूरत है, उसमें गुंथे हुए सूत्रों को बिलगाने की, उन्हें समझने की। वह अपनी बिल्कुल अलग तरह की कहानियों की दुनिया के फक्कड़ और बिना पगड़ी के सरदार हैं। 
कथाकार विवेक मिश्र - लमही, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 पृष्ठ 162
18 - शिवमूर्ति ग्रामीण जीवन के विश्वसनीय कथाकार है। किसान जीवन को अपनी रचना का विषय उन्होंने किसी साहितियक प्रवृतित या साहित्यक आकांक्षा के तहत नहीं अपनाया है। वे ग्रामीण और किसान जीवन के सहज जानकार हैं। उनका व्यकितत्व रहन सहन बोली बानी- सब कुछ ग्रामीण और किसानी है, एक आंतरिक ठसक के साथ। जितने विनम्र हैं उतने ही दृढ़। यह भी लगता है कि उन्हें अपने लेखन के प्रति आत्मविश्वास है। इस आत्मविश्वास का आधार रचित वस्तु की गहरी सूक्ष्म और व्यापक जानकारी है। निजी फर्स्ट हैंड जानकारी। 

मरण फांस से पार जाने की छलांग

प्रसिद्ध आलोचक डा. विश्वनाथ त्रिपाठी - मंच जनवरी - मार्च 2011 पृष्ठ 32
19 - 'कसार्इ बाड़ा' और 'तिरिया चरित्तर से लेकर 'आखिरी छलांग तक का जो परिदृष्य है वह समकालीन भारत का यथार्थ रूप है। परिवार, थाना, कोर्ट, कचेहरी, स्त्री, दलित, किसान, धर्म, साम्प्रदायिकता, खेती, नौकरी सबसे जो एक समग्र चित्र निर्मित होता है, वह असुन्दर और दागदार है। 'रंगे सियार' भरे पडे़ हैं। थाना दारोगा के वास्तविक चित्र कर्इ कहानियों में हैं। शिवमूर्ति ने झूठ को कर्इ रूपों में चित्रित कर यह बताया है कि यह सर्वत्र फैला हुआ है।
शिवमूर्ति का कथा संसार
प्रख्यात आलोचक रविभूषण - मंच जनवरी - मार्च 2011 पृष्ठ 43
20 - जब वे (शिवमूर्ति) गोष्ठियों में बोलते हैं तो उनका सीधे सादे पूरबी गंवर्इ मानुष का चोला उतर जाता है और हम अपने एक जहीन और सुलझे हुए बुद्धिजीवी को पाते हैं जिसका अध्ययन मनन और चिंतन दो टूक और वस्तुनिष्ठ है। हां, कटु आलोचना, पीठ पीछे निन्दा और किसी को भी नीची नजर से देखने का व्यसन उनमें नहीं है। वैसे भी साहित्यकारों के सभी फितरती ब्यसनों से वे दूर हैं, सिवाय एक के। इस हातिमतार्इ में बस एक ही कमजोरी है- नारी सौन्दर्य के प्रति अदम्य आकर्षण। सुन्दर स्त्री को देख कर वे मन ही मन प्रणाम करते हैं। विधाता की किसी भी अनुपम कृति की सहराहना न करना इनकी दृष्टि में अक्षम्य अपराध है। 
कसार्इबाडे़ में बुद्ध
वरिष्ठ कथाकार राजेन्द्र राव - मंच जनवरी - मार्च 2011 पृष्ठ 103

21 - शिवमूर्ति की कहानियां अपनी अन्तर्वस्तु और कथारस के लिए ज्यादा प्रशंसित हुर्इ हैं।... शिवमूर्ति ने अपनी कहानियों से सिद्ध किया कि कथारस वह चीज है जिसके साथ रचबस कर अन्तर्वस्तु पाठक की आत्मा तक उतर जाय और उसे रोमांच और सौन्दर्य से भर दे। या पाठक को ऐसी बेचैनी और तनाव में ले जाय कि उसकी नींद ही उड़ जाय। आप यकीन करिए, 'तिरिया चरित्तर' कहानी पढ़ने के बाद मैं और मेरी पत्नी उस रात ठीक से सो नहीं पाये थे। 
दलित यथार्थ और स्त्री संवेदना के अप्रतिम कथाकार 
वरिष्ठ कथाकर मदन मोहन  - मंच जनवरी - मार्च 2011 पृष्ठ 105
22 - शिवमूर्ति में प्यार और अनुराग का वह गहरा भाव ही रहा है जो उनकी कहानियों में न केवल मनुष्य के प्रति छलकता दिखायी पड़ता है बलिक मनुष्येतर जीव जंतुओं के प्रति भी ममत्व और नेह में कोर्इ कमी दिखलायी नहीं पड़ती। इस सन्दर्भ में अपने समकालीनों के बीच शिवमूर्ति एक ऐसे विलक्षण कथाकार हैं जिनमें संवेदना की अनंत गहरायी है। इसके अनेक साक्ष्य उनकी कहानियों में सहज ही उपलब्ध हैं। 
दलित यथार्थ और स्त्री संवेदना के अप्रतिम कथाकार 
वरिष्ठ कथाकार मदन मोहन - मंच जनवरी - मार्च 2011 पृष्ठ 104
23 - शिवमूर्ति भले किसी खास संगठन से न जुडे़ हों लेकिन उनके लेखन में विचारधारा सुस्पष्ट है। आप उन्हें पढ़िये। उनकी कहानियों में एक विशेष प्रकार का कथारस है जो आप को बांधे रखता है। शिवमूर्ति की रचनाओं से यह साबित होता है कि किसी संगठन विशेष से न जुड़ कर भी विचारवान या विचारयुक्त लेखक बनना सम्भव है। शिवमूर्ति एक विचारवान लेखक के रूप में ही सामने आते हैं।... और एक अजीब बात मुझे लगी जो किसी बडे़ अधिकारी में नहीं होती। जिस पद पर वे कार्यरत थे वहां तमाम प्रकार की सुख सुविधाएं हर प्रकार की सम्पन्नता थी, उसके बावजूद उनके अंदर एक साधारणता थी। मैंने देखा, शिवमूर्ति के अंदर एक बहुत ही सहज और सामान्य व्यकित है। उनकी साधारणता की असाधारणता ने मुझे बहुत आकर्षित किया। 
वरिष्ट कथाकार अब्दुल बिसमिल्लाह
मंच जनवरी - मार्च 2011 पृष्ठ 239
24 - शिवमूर्ति हमारे समय के अत्यन्त महत्वपूर्ण कथाकार हैं। किसी भी नये हिन्दी पाठक या अहिन्दी भाषी पाठक को हिन्दी साहित्य से स्नेह हो जायेगा यदि उसे शुरू में शिवमूर्ति की कहानियां पढ़ने को मिल जाये। उनकी सभी कहानियां जीवन के अनुभवों से छन कर निकली हुर्इ हैं इसलिए उन्हें पढ़कर आप एक साथ भौचक आहत, उदास और स्पनिदत होते हैं तथा निखर जाते हैं। आप भौचक होते हैं क्योंकि वे जिस संवेदना को प्रशस्त करते हैं उसका मर्म आपके भीतर गड़ जाता है। आप निखर जाते हैं क्योंकि साहित्य, कला आपको उदात्त कर देती है। उनकी कहानियों से आप अपने समकालीन समाज, राजनीति, गरीबी, जातिवाद, छलप्रपंच और शोषण के अनेकानेक रंग और तरीकों से वाकिफ हो जाते हैं। 
कथाकार ओमा शर्मा
संवेद अंक 73-75 पृष्ठ 234
25 - जिस कथाक्षेत्र से शिवमूर्ति आते हैं वहां उनका किसी से कोर्इ मुकाबला है ही नहीं। वहां फिलहाल वे अकेले राज करते नजर आ रहे हैं। 
कथाकार राजकुमार गौतम - संवेद अंक 73-75 पृष्ठ 235
26 - शिवमूर्ति के उपन्यासों और कहानियों से यह साबित होता है कि हिन्दी कथा साहित्य प्रेमचंद की परम्परा को भूला नहीं है। भारतीय ग्रामीण जीवन की अनेक त्रासदियों के कथाकार हैं शिवमूर्ति, एक ओर उनकी कहानियों में गांव की स्त्रियों की अपार यातना का दर्द है तो दूसरी ओर उपन्यास में किसान जीवन की तबाही के कारणों और रूपों की पहचान। किसानों की आत्महत्या की समस्या उनके उपन्यास 'आखिरी छलांग' की केन्द्रीय समस्या है। 
वरिष्ठ आलोचक मैनेजर पांडे, वागर्थ जून 2014 पेज 24
27 - गहरी अंतर्दृष्टि एवं उचित परिप्रेक्ष्य के अभाव में जहां समाज व राजनीति के बडे़ मुददे भी सरलीकृत होकर रह जाते है। वहीं सरल सी दिखने वाली सतह की सच्चाइयां कैसे राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य प्राप्त करती हैं, इसका एक उदाहरण शिवमूर्ति का उपन्यास 'त्रिशूल' प्रस्तुत करता है। कलेवर में क्षीणकाय होने के बावजूद साम्प्रदायिकता और सामाजिक न्याय के मुद्दे को रोजमर्रा की घटनाओं के माध्यम से शिवमूर्ति ने प्रामाणित अभिव्यकित दी है। उपन्यास में महमूद की त्रासदी भारतीय समाज के सेकुलर माडल की त्रासदी है।... बाबरी मिस्जिद से जुड़ी घटनाओं एवं मंडल कमीशन की पृष्ठभूमि पर केनिद्रत यह औपन्यासिक कथा भारतीय जीवन में साझी संस्कृति एवं सामुदायिक जीवन में आती दरार को अत्यन्त बेबाकी के साथ उद्घाटित करती है। वर्णाश्रम व्यवस्था एवं व्राह्मणवादी संस्कृति की नग्न सच्चाइयों का खुलासा करने के साथ-साथ उपन्यासकार ने नयी शक्तियों के उभार के संकेत भी दिए हैं। शिवमूर्ति की लोकभाषा, लोकमुहावरे व लोकजीवन में गहरी पैठ है। उनकी ये सारी खूबियां नर्इ अर्थछवियों के साथ 'त्रिशूल में उपस्थित हैं। 
वीरेन्द्र यादव - 'नवें दशक में औपन्यासिक परिदृष्य' पहल पुसितका मार्च 1998 पृष्ठ 38 
28 - उपवमूर्ति ने नवे दशक में जिन गांवों को स्थापित किया वे नास्टेलिजया के गांव नहीं हैं। वे आज के गांव हैं। वहां के लोगों की निराशा, संघर्ष, जिजीविशा और रागद्वेष उनकी कहानियों में वास्तविक रूप में आये हैं, जैसा बहुत कम लेखकों के कथा साहित्य में पाया जाता है।... उपवमूर्ति का कथा साहित्य किसी सिफारिस का मोहताज नहीं है। उनका योगदान ग्रामीण और निम्नवर्ग के पात्रों को उठाने में है, जिन्हें और लोगों ने नहीं उठाया। 
प्रख्यात कथाकार मैत्रेयी पुष्पा : मंच जनवरी-मार्च 2011 पृष्ठ 237
29 - शिवमूर्ति का कथा साहित्य कर्इ साहितियक धाराओं से अन्त:सम्बद्ध है। पारम्परिक आंचलिक कथा साहित्य, दलित लेखन, अमरीकी डर्टी रियलिज्म और अफ्रीकी अमेरिकी ब्लैक साहित्य से। डर्टी रियलिज्म वास्तव में यथार्थवाद का ही एक उपवर्ग और साहितियक मिनिमलिज्म का एक प्रभेद है। उस पीढ़ी के कुछ लेखकों को चिन्हित करते हुए 'ग्रान्टा के सम्पादक बिल ब्रफोर्ड ने उनके लेखन को 'बेलिसाइड' (पेट की भूख का लेखन ) बताते हुए उसकी कुछ विशेषताएं निर्दिष्ट की थीं- कामेडी की छोर छूते हुए व्यंग्य, हिंस्त्र कोप अथवा गहरे अवसाद से विरूपित पात्रों के बिगाड़ के खुलासे, अनलंकृत किन्तु करूणा पर बल देती हुर्इ भाषा, सिथतियों के विवरण और उनके प्रति आत्मीयता की एक प्रच्छन्न धारा। शिवमूर्ति की कहानियां अकालदण्ड, कसार्इबाड़ा तथा भरतनाटयम मुझे इन्ही विशेषताओं से भरपूर लगती हैं। 'भरतनाट्यम' के उस बेरोजगार युवक के बारे में उसके पिता का वह भयावह कथन किसे याद नहीं रहेगा- साला चलता कैसे है, शोहदों की तरह। चलता है तो चलता है, साथ में सारी देंह क्यों ऐंठे डालता है। दरिद्रता के लक्षण हैं ए, घोर दरिद्रता के। और देखता कैसे है, शनिचरहा। इसकी पुतली पर शनीचर वास करता है। सोने पर नजर डालेगा तो मिट्टी कर देगा। 
इस युवक का वृतान्त हमें चार्ल्स ब्रकोवस्की के उपन्यास फैक्टोटम के नायक की याद दिलाता है। इस सन्दर्भ में मैं रेमंड कार्वर का नाम लेना चाहती हूं जिन्हे 'मिनिमलिज्म का उस्ताद माना जाता है। निचले दर्जे के मजदूर पात्रों को चित्रित करते हुए वे उन्हें ऐसे वाक्य दे डालते थे जो उनके पाठकों पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं : डोन्ट कम्पलेन, डोन्ट एक्सप्लेन (फरियाद मत करना। सफार्इ मत देना।) या- वी न्यू अवर डेज आर नम्बर्ड, वी हैड फाउल्ड अप अवर लाइव्ज (हम जानते थे कि हमारे दिन गिने चुने हैं। और हम अपने जीवन को उलझा चुके हैं) अपने कथा साहित्य में शिवमूर्ति ऐसी ही कुछ फाउल्ड अप लाइव्ज लाया करते हैं जो अपने उलझे हुए जीवन में परिवर्तन चाहते हैं या प्रतिशोध।
वरिष्ट कथा लेखिका दीपक शर्मा
संवेद 73-75 पृष्ठ 40-41
30 - शिवमूर्ति जमीन से जुड़े रचनाकार हैं। जनजीवन से जुडे़ होने के कारण उनके पास व्यापक जीवन अनुभव हैं। इस कारण उनकी रचनाओं में हमे हमारे समाज का बदलता हुआ चेहरा दिखायी देता है। अगर हमारे समय और समाज को समझना है तो शिवमूर्ति जी इसके लिए आवश्यक कहानीकार हैं। शिवमूर्ति का दर्जा काफी ऊंचा है। वे शीर्ष रचनाकारों में से एक हैं। हिन्दी साहित्य उन्हें उसी रूप में याद रखेगा। 
असगर वजाहत (वरिष्ठ उपन्यासकार तथा नाटककार) संवेद 73-75 अंक पृष्ठ 231 पर 
31 - शिवमूर्ति की 'तिरिया चरित्तर' पढ़ कर शेक्सपियर की याद आती है। शिवमूर्ति की कहानियों की जो बनावट है वह भी शेक्सपीयर जैसी है। उनके अंदर क्लासिक हाइट है जो ग्रीक नाटकों में होती है। उन्होंने कम लिखा और महान लिखा। 
वरिष्ठ कवि इब्वार रब्बी, संवेद 73-75 अंक पृष्ठ 231

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शिवमूर्ति के कुछ कथन
1. सिद्धान्तों से जीवन नहीं बना, जीवन से सिद्धान्त बने हैं। जैसे हाइड्रोजन और आक्सीजन एक खास अनुपात में मिलकर पानी बनाते हैं लेकिन पानी का गुण धर्म इन दोनों गैसों से बिल्कुल अलग हो जाता है। जिसे सृजन कहते हैं वह इस आनुपातिक योग का प्राप्य होता है। जैसे मुर्गी अण्डे को सेती है तभी अंडे के अंदर का पदार्थ जीवन मेंं बदलता है, उसी तरह सृजन की प्रक्रिया है।
2. कहानी लेखन आर्ट तो है ही साथ ही यह क्राप्ट भी है। कहानी में प्रभावी कन्ट्रास्ट पैदा करने के लिए आपको भिन्न गुण धर्म वाले शेड्स और करैक्टर पैदा करने होते हैं। सीधे सादे चरित्रों से कहानी कैसे निकलेगी। ड्रामा कैसे निकलेगा। 
3. सामप्रदायिकता और जातिवाद दोनों प्रमुख सामाजिक बीमारियां हैं। एक नागनाथ है तो दूसरा सांपनाथ। लेकिन जातिवाद साम्प्रदायिकता से ज्यादा विभाजनकारी है। सामप्रदायिकता समाज को दो हिस्सों में बाटती है लेकिन जातिवाद उसे खंड-खंड कर देता है। जातिवाद हमारे साथ पैदा होने के दिन से चिपक जाता है और मरने तक नहीं छोड़ता।
4. आदमी की संकीर्णता और स्वार्थ ने मार्क्सवाद की मूल संकल्पना का मटियामेट कर दिया है। हम अभी तक प्रजातंत्र से बेहतर शासनप्रणाली र्इजाद नहीं कर सके। उसी तरह मार्क्सवाद से बेहतर समतामूलक बैचारिकी का विकल्प नहीं मिला। उम्मीद करते है  कि हम आगे ऐसी कोर्इ प्रविधि खोज सकें जिससे प्रजातंत्र और मार्क्सवाद की कमियों और क्रियान्वयन की खामियों पर नियंत्रण किया जा सके। 
5. कभी-कभी मुझे लेखन की एब्सर्डिटी भी महसूस होती है... कि ज्यादा लिख करके भी क्या होगा? इसलिए वही लिखूं जिसे लिखते हुए सुख मिलता है। धीरे-धीरे लिखता हूं तो यह सुख लम्बा चलता है। लेखन में ही नहीं, मेरे जीवन के हर क्षेत्र में यह धीमापन मौजूद है। एक कप चाय पीने में मुझे आधे घंटे लग जाते हैं। कहानी का एक ड्राफ्ट करने में तीन महीने लग जाते हैं। मेरे मिजाज मे यह धीमापन कहां से आ गया? मेरी हृदयगति, मेरा सूगर लेबल, मेरी स्वासगति तीनों सामान्य से कम हैं। शायद यही कारण हो मेरे धीमेपन का।
6. कहानी लिखना मेरे लिए कबाड़खाने से पुर्जे खोज कर साइकिल कसने जैसा है। फ्रेम खोजा, रिम खोजी, हैंडिल खोजा, टायर खोजा और असंब्ल करके साइकिल तैयार कर दी। पता नहीं कुछ लोग एक सिटिंग में पूरी कहानी कैसे लिख डालते हैं। ऐसे लोग जीनियस होते होंगे। 
7. लेखन मैराथन दौड़ है। इसमें जल्दबाजी में कुछ नहीं हो सकता। तुरंत यानी इस्टैंट मे तो नूडल्स ही बन सकता है। सिरका के फर्मेटेशन में समय लगता है।  
8. लेखक जनोन्मुख हो और स्वतंत्रचेता होकर लिखे। जनपक्षधरता ही मेरी नजर में एक लेखक की राजनैतिक पक्षधरता है। 
कथाकार ओमा शर्मा को दिए साक्षात्कार में 
लमही अक्टूबर दिसम्बर 2012 पृष्ठ 13
9. अक्सर लोग पूछते हैं कि कहानी के लिए कला ज्यादा जरूरी है या प्रतिबद्धता? यह ऐसा ही है जैसे कोर्इ पूछे कि दायीं आंख ज्यादा जरूरी है या बायीं। कहानी माने लड़की, स्त्री। उसमें कला नहीं है तो वह निर्वसन है और प्रतिबद्धता या दृष्टि नहीं है तो अन्धी है। प्रतिबद्धता किसके प्रति? यदि कहानी को किसी स्थूल राजनैतिक विचारधारा का भोंपू बना देंगे तो भी साहित्य का महत्तर उद्देश्य क्षरित होगा। प्रतिबद्धता आमजन के कल्याण के प्रति होनी चाहिए। 
15-   -1997 की डायरी का अंश - लमही पृष्ठ 126
10. प्रकृति को एक खेल करना चाहिए। हर मरने वाले को एक मौका देना चाहिए, हजार दो हजार साल बाद वापस आकर इस दुनिया को, इसमें आये परिवर्तनों को देखने का। हर एक को नहीं तो कम से कम महान माने गये लोगों को। फराऊन को, बुद्ध को, र्इसा को, मोहम्मद साहब को, अरस्तू को, सिकन्दर को, गैलीलियो और न्यूटन को, तैमूर लंग को, कोलम्बस वगैरह को। यह महसूस करने के लिए कि कैसी दुनिया छोड़कर वे गये थे और कैसी हो गयी। 
12 दिसम्बर 2004 की डायरी से- लमही पृष्ठ 218
1. कहानी निबन्ध नहीं है। निबन्ध में सब कुछ लेखक बोलता है लेकिन कहानी में जब बोलने के लिए उसने पात्रों की पूरी फौज खड़ी कर दी तो फिर लेखक को बीच में बोलने की जरूरत क्यों पड़े ? इसका मतलब उसने गूंगे पात्र खड़े किए। उनके मुंह में जबान नहीं दिया। तभी तो लेखक को उनके पीछे खड़े होकर प्राम्पटिंग करनी पड़ रही है। यह कथाकार की असफलता है। 
सृजन का रसायन पृष्ठ .......
2. साहित्य का मूल आधार संवेदना है। किसी को रेडिक्यूल करना या किसी विचारधारा के पक्ष में स्थूल नारेबाजी करना रचना का मूल स्वर नहीं होना चाहिए। विचारधारा रचना में उसी तरह समाहित होनी चाहिए जैसे पानी में घुली हुर्इ चीनी। उसकी मिठास का स्वाद मिले लेकिन वह दिखे नहीं। जब तक चीनी दिखायी देती रहेगी, पानी में घुल कर अदृष्य नहीं हो जायेगी तब तक वह मिठास नहीं दे सकती। रचना में भी विचारधारा अलग से दर्ज नहीं होनी चाहिए। वह कहानी में अनुस्यूत होनी चाहिए। 
वृजेश यादव से बातचीत : संवेद 73-75 फरवरी-अप्रैल 2014 पृष्ठ 217 
3. यह कहना बहुत कठिन है कि कौन सा आलोचक किसी रचना को पूरा-पूरा समझता है। बाप बेटे को पूरी तरह नहीं समझता। पत्नी पति को पूरी तरह नहीं समझती। किसी के द्वारा पूरी तरह समझे जाने की अपेक्षा व्यावहारिक नहीं है। कोर्इ आलोचक किसी रचना को कितना समझ सकेगा यह इस बात पर निर्भर करता है कि उस आलोचक का वर्ण्य विषय से कितना तादात्म्य रहा है। उसका अनुभव क्षेत्र क्या है? उसकी दृष्टि क्या है? वर्गीय और वर्णीय दृष्टिकोण का भी असर पड़ता है।
वृजेश यादव से बातचीत : संवेद 73-75 फरवरी-अप्रैल 2014 पृष्ठ 217 
4. कथा के आलोचक को उसकी सृजन प्रक्रिया का ज्ञान होना चाहिए। कैसे कोर्इ विचार, घटना, दृष्य या बिंब रचना के रूप में परिवर्तित होता है, यह जानकारी हो। आलोचक से भी पहले वह रसज्ञ पाठक हो। कथा आलोचक कथाकार का दुश्मन या कम्पटीटर नहीं है। लेकिन उसे कथा क्षेत्र का हलाकू या तैमूर लंग भी नहीं होना चाहिए।
वृजेश यादव से बातचीत : संवेद 73-75 फरवरी-अप्रैल 2014 पृष्ठ 220 
5. लेखक की भूमिका योगी और भोगी की साथ-साथ होती है। सबसे सम्पृक्त और सबसे संवेदित। भोगी नहीं होगा तो अंदर तक धंसेगा कैसे? और योगी नहीं होगा, साधक नहीं होगा, एकाग्र नहीं होगा तो अपनी चित्वृत्तियों को चारों तरफ से मोड़कर अपने भीतर उतरेगा कैसे? दूरी बना कर नहीं रखेगा तो नि:संग होकर लिखेगा कैसे?
सृजन का रसायन पृष्ठ .........
6. कथा लेखक को आकड़ेबाज तो नहीं ही होना चाहिए, विशेषज्ञ भी नहीं होना चाहिए। विशेषज्ञता सहज बोध की दुश्मन है। आलोचक तो विशेषज्ञता अफोर्ड कर सकता है, कथा लेखक नहीं। विशेषज्ञता उसके 'लेखक के सिर पर चढ़ कर बैठ जायेगी। जैसे किसी पुजारी की डील या देंह पर देवता या भूत सवार हो जाता है। तब उस सवारी की जबान से देवता या भूत बोलने लगता है। लेखक को किसी की सवारी नहीं बनना चाहिए, उसे सावधान रहना चाहिए कि कोर्इ उस पर सवारी न गांठ सके। 
सृजन का रसायन पृष्ठ .........
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सहजता बातचीत को सार्थक व जीवन्त बनाती है

पुस्तक समीक्षा

सहजता बातचीत को सार्थक व जीवन्त बनाती है

कथाकार स्वाति तिवारी

साक्षात्कार मानवीय अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है। साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में यह विधा भेंटवार्ता, इंटरव्यू, बातचीत, मुलाकात और भेंट के रूप में खासी लोकप्रिय है। कह सकते हैं कि साक्षात्कार मतलब दो व्यक्तियों के बीच प्रश्न और उत्तर के माध्यम से विचारों का आदान-प्रदान या यूँ कहें किसी एक विशिष्ट व्यक्ति को जानना। किताबघर प्रकाशन ने प्रतिनिधि कहानियों की तरह हिन्दी सहित्य को समृद्ध करने वाले कालजयी रचनाकारों के साक्षात्कारों की भी एक श्रृंखला शुरू की है। यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण श्रृंखला इसलिए कही जा सकती है क्योंकि यह साहित्य विवेचन में रचनाकार के अंतर्साक्ष्य और बहिर्साक्ष्य दोनों ही से समान रूप से पाठकों की जिज्ञासाओं का समाधान करती है। साक्षात्कार लेने वाला देने वाले के दोनों साक्ष्यों से मिलता है फिर वह एक मिलाजुला साक्ष्य पाठक के सामने रखता है जो कहने को तो अन्तः साक्ष्य होता है पर वह उस व्यक्ति का एक बिम्ब पाठक के मन में शब्दों से गढ़ देता है। पाठक उस व्यक्तित्व से रू-ब-रू होता है। वे उसके व्यक्त्वि की एक परिकल्पना भी करने लगते हैं। 

संवेद ७३-७५ (कथाकार शिवमूर्ति पर एकाग्र)


Saturday, June 13, 2015

शिवमूर्ति के गाँव में - बलराम

शिवमूर्ति के गाँव में - बलराम 
     दिल्ली से चल कर लखनऊ के गोमती नगर स्थित विकास खंड-2 में बाबा महाबीर दास की कुटी पर टिकान और वहां से सीधे सुलतानपुर-अमेठी के गांव कुरंग में रात्रि विश्राम। राहुल गांधी के क्षेत्र अमेठी के गांव कुरंग से अगले दिन सुलतानपुर के प्रेस क्लब में पहुंचकर सोमेशशेखर चंद्र के उपन्यास ‘गंवई गंध गुमान’ की संगोष्ठी में भाग लिया और फिर अमेठी के जन जीवन और स्मारकों को देखने निकल पड़े। जायसी की मजार ही नहीं, उनका जन्म स्थान भी देखा। फिर उनके नाम पर बने शोधपीठ और पुस्तकालय को देखने गए, जिनकी हालत देखकर मन दुखी हो गया। 
गांव कुरंग में शिवमूर्ति के पुश्तैनी कुएं की जगत पर उनके साथ कुछ देर बैठकर कैशोर्य की बातें करते रहे। उस कुएं का ही पानी पीते-पीते शिवमूर्ति देश के सिद्ध-प्रसिद्ध कथाकार हो गए। ककई ईंटों और खपरैल वाला शिवमूर्ति का पुश्तैनी घर तब की याद दिलाता है, जब उसे छोड़कर उनके पिता महावीर साधु हो गए। तब दस-ग्यारह बरस के किशोर शिवमूर्ति के लचकते कंधों पर आ टिकी थी परिवार की जिम्मेदारी। बचपन मेें ही शादी हो जाने से जल्दी ही वे पति और फिर पहली बेटी रेखा के पिता बन गए तो पढ़-लिखकर कुछ करने-धरने के उनके सपने टूटने-टूटने को हो गए? लेकिन सरिता जैसी ग्रामीण पत्नी के अथक श्रम और आगे बढ़ने-बढ़ाने के हौंसले ने सन् 1972 में शिवमूर्ति को पहले तो गांव के पास पीपरपुर के आसलदेव माध्यमिक विद्यालय में मास्टर बनवाया। फिर रेलवे में नौकरी पाकर ढाई साल वे पंजाब में रहे। और फिर पीएससी की परीक्षा पास कर अफसर हुए और उत्तर प्रदेश शासन में काफी ऊंचे ओहदे तक पहुंचे। 
गांव में पुश्तैनी घर और सब कुछ को जस का तस सहेज-संभालकर रखते हुए ससुर के बनाए गए घर को सरिता ने शहरी सुविधाओं से युक्त कर दोमंजिला करवा लिया। लखनऊ के गोमती नगर की भव्य कोठी में रहने की बजाय गांव में रहना उन्हें ज्यादा रास आता है। बीसियों बीघे जमीन पर खेती-बाड़ी का काम खुद ही देखने-भालने वाली सरिता चाहतीं हैं कि शिवमूर्ति जमकर लिखें-पढे़ और फणीश्वरनाथ रेणु की तरह खूब नाम कमाएं, लेकिन शिवमूर्ति हैं कि लिखने में उनका मन ही नहीं नगता। बहुत हांके जाने पर साल दो साल में कभी-कभार एकाध कहानी लिखकर लंबी तान लेते हैं। हां, देशी-विदेशी लेखकों को पढ़ते खूब हैं और सभा-गोष्ठियों में जाते हैं तो वक्तृता के अपने अनोखे अंदाज में सबकी छुट्टी कर देते हैं। गालिब की तरह उनका अंदाजे बयां कुछ और ही, एकदम अलग होता हैं अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के आयोजन में हमने देखा था कि बडे़-बड़े विचारकों-चिंतकों की ग्रामीण जीवन संबंधी हवाई बातें सुनकर उत्तेजित हो गए और सीधी-सच्ची बातें कहते हुए श्रोताओं से खूब तालियां बटोरीं और चिंतक-विचारक हाथ मलते रह गए। प्रेमचंद के बारे में तो पता नहीं, लेकिन रेणु जब गांव जाते तो रिवाल्वर अपने पास रखते थे और कुरंग जाने पर शिवमूर्ति की जेब में भी हमने रिवाल्वर देखा तो पूछ लिया कि इसकी क्या जरूरत पड़ती है तो बोले, ‘क्या गांव और क्या शहर, हर जगह जड़ और जमीन हमेशा खतरे में रहती है। इसलिए सावधानी जरूरी होती है।’
सरिता भले ही वनस्पति विज्ञान की स्नातक न हों, लेकिन लखनऊ वाली कोठी से लेकर गांव कुरंग के अपने बाग तक सैकड़ों प्रजातियों के देशी-विदेशी पेड़-पौधों को पालते-पोसते हुए जब उनके हिंदी-अंग्रेजी नाम उच्चारती हैं तो विज्ञान के बडे़-बड़े प्रोफेसर तक दांतों तले अंगुली दबा लेते हैं। ऐसा कौन-सा अनाज है, जो अपने खेतों में उपजा नहीं लेतीं सरिता। अनेक सब्जियां और ज्यादातर फल उनके खेतों और बगीचे में उपजते हैं। गाय-भैंस से दूध-दही भी मिल जाता है। बड़ा-सा इनवर्टर भी घर में है, जो बिजली कटौती होने पर भी घर को रोशन रखता है। बीस-तीस लोग भी अचानक आ जाएं तो कुरंग स्थित सरिता-शिवमूर्ति के घर में सहज रूप से रह सकते हैं। सरिता को गांव-घर और शहर, सब एक साथ संभालते देखकर कोई भी कह सकता है कि हर सफल आदमी के पीछे सरिता जैसी कोई औरत जरूर होती है। 
लखनऊ में कई पिल्ले सहसा कार की चपेट में आकर मां समेत मारे गए। अकेला बचा पिल्ला आंसू बहाते हुए रो-रोकर हलकान हो रहा था कि सरिता की नजर पड़ गयी। उन्होंने उसके लिए दूध और पानी का इंतजाम ही नहीं किया, जतन से छायादार जगह में रखकर देखभाल करते हुए उसे बचा लिया। घर के सामने एक पेड़ बड़ा हो रहा है और वे चाहतीं हैं कि गांव के बाग में स्थानांतरित कर दिया जाए, पर डरती हैं कि उखाड़नें में कहीं जडें टूटने से वह सूख न जाए। एक लेखक की पत्नी का पेड़-पौधों और पशु--पक्षियों के प्रति ऐसा लगाव दुर्लभ है। लखनऊ तो लखनऊ, कुरंग में बूढे़ और खजहे कुत्ते को शहरी महिलाएं हाथ तक न लगाएं। गाय, भैंस, बछडे़, यहां तक कि बिल्लियां, जलमुर्गियां, मोर, तीतर, बटेर, नीलकंठ, महोक, बया, नेवले और सांप तक उनके घर के परिसर में पूरे अधिकार से रहते हुए प्यार-दुलार पाते हैं। गढ़ई किनारे घात लगाकर बैठे सांप महाशय धूप खाने के लिए बाहर निकले मेढक मोशाय का शिकार करने के बाद चुपचाप अपने बिल में चले जाते हैं। कुरंग में शिवमूर्ति के घर के आसपास ऐसे दृश्य आम हैं। 
शिवमूर्ति के पिता महावीर दास अपने जीवन काल में परिसर के कोने में एक जगह इंगित कर गए थे, जहां न रहने पर भी बने रहने का उनका बड़ा मन था। शिवमूर्ति के लाख मना करने पर भी सरिता ने उसी जगह ससुर की समाधि बनवा दी तो आने-जाने वाले लोग सहज श्रद्धा से वहां फूल चढ़ाने लगे। इस तरह शिवमूर्ति के घर में शिव की नहीं, पार्वती की चलती है। उम्र में थोड़ी बड़ी सरिता ने मां-बाप से टूटे-छूटे शिव (मूर्ति) को पाल-पोसकर बड़ा कर दिया। सो, एक दिन हमने उनका नाम शिव पाल रख दिया, सरिता शिवपाल। शिवमूर्ति हिंदी की बड़ी शख्सियत हैं तो होते रहें, हमें तो सरिता उनसे भी बड़ी, बहुत बड़ी शख्सियत लगती हैं। वे बड़ी न होतीं तो शिवमूर्ति भी इतने बड़े न हो पाते! हमने भी शिवमूर्ति के बड़ा होने में किंचित सहयोग उनके लेखन के आरंभ में किया। यह वह समय था, जब अकालदंड, सिरी उपमा जोग, कसाईबाड़ा और भरतनाट्यम जैसी अपनी कहानियों का पुलिंदा हमें सौंपते हुए अपने नाम से छपा लेने की बात कहकर शिवमूर्ति कानपुर से कहीं दूर, शायद बस्ती चले गये थे! फिर काफी समय तक उनसे हमारा कोई संपर्क न रहा। अगर उनकी उन कहानियों को हम अपने नाम से छपा लेते तो दुनिया उन्हें कथाकार शिवमूर्ति के रूप में शायद ही देख पाती, जैसे काफ्का को भी हम इस रूप में कहां देख पाते! माक्स ब्राॅड ने जलाने की बजाय काफ्का की रचनाएं प्रकाशित करवा दीं और हमने शिवमूर्ति की रचानाएं उन्हीं के नाम से छाप और छपवाकर एक बार फिर उन्हें लिखने-पढ़ने के झमेले में फंसा दिया। शिवमूर्ति का वश चले तो वे कभी कुछ लिखें ही नहीं, लेकिन अखिलेश और हरिनारायण जैसे मित्र उन्हें चैन ही नहीं लेने देते। उन्हीं के कारण शिवमूर्ति ने ‘ख्वाजा ओ मेरे पीर’ तथा ‘बनाना रिपब्लिक‘ जैसे कहानियों लिखीं और रवींद्र कालिया ने उन्हें ‘नया ज्ञानोदय‘ में ‘आखिरी छलांग’ लगाने के जिए विवश किया। 
तोल्स्ताॅय से शिवमूर्ति की कोई तुलना नहीं, सिवाय दोनों में एक जैसे फक्कड़पने के। तोल्स्ताॅय रूस के बहुत बड़े जमींदार थे, किंतु शिवमूर्ति उतने बडे़ नहीं हैं, लेकिन कुरंग में उनका गांव-घर, उनकी जमीन-जायदाद देखकर सहसा तोल्स्ताॅय के यास्नाया पोल्याना को देखने का मन हो आया। जिज्ञासा हुई कि तोल्स्ताॅय का घर भी क्या ऐसा ही रहा होगा, शिवमूर्ति के घर जैसा! ऐसा तो हो सकता है, लेकिन सरिता जैसी दिव्य नायिका तोल्स्ताॅय के घर और जीवन में कहां कोई थी?
शिवमूर्ति बड़ी कथा शख्सियत हैं तो होते रहें, हमें तो सरिता जी उनसे भी बड़ी, बहुत बड़ी शख्सियत लगती हैं। वे ऐसी न होतीं तो शिवमूर्ति भी आज ऐसे न होते। भरतनाट्यम, कसाईबाड़ा और अकालदंड जैसी अपनी कहानियों का पुलिंदा देकर मुझे अपने नाम से छपा लेने की इच्छा जाहिर कर शिवमूर्ति चले गए थ! अगर उनकी उन कहानियों को हम अपने नाम से छपा लेते तो दुनिया उन्हें कथाकार शिवमूर्ति के रूप में शायद ही देख पाती, जिस तरह काफ्का की इच्छानुसार उनके मित्र माक्स ब्राॅड ने उनकी रचानाएं जलाकर राख कर दी होतीं तो काफ्का को भी दुनिया इस रूप में कहां देख पाती। माक्स ब्राॅड ने काफ्का की रचानाएं जलाने की बजाय प्रकाशित करवा दीं और हमने शिवमूर्ति की रचनाएं अपने बजाय उन्हीं के नाम से छाप और छपवाकर लिखने के झमेले में उन्हें फिर से फंसा दिया। शिवमूर्ति का वश चले तो वे अभी भी कुछ न लिखें, लेकिन अखिलेश और हरिनायण जैसे मित्र उन्हें चैन ही नहीं लेने देते। उन्हीं के कारण शिवमूर्ति ने पिछले दिनों ’ख्वाजा ओ मेरे पीर’ तथा ‘बनाना रिपब्लिक’ जैसी कहानियां लिखीं और रवींद्र कालिया ने उन्हें ‘आखिरी छलांग' लगाने के लिए मजबूर किया, जो ‘तद्भव’, 'कथादेश’ और 'नया ज्ञानोदय’ में प्रकाशित होकर इस दिनों शहरी कथाकारों के सिर पर होरा भून रहीं हैं। खुदा खैर करे!

( लोकायत १६-३० अप्रैल २०१३ से साभार) 



Pride of Lucknow Award In Lucknow Leterary Festival


Sunday, May 17, 2015

जुल्मी

    'जुल्मी' मेरी शुरूआती कहानियों में से एक है लेकिन कब लिखी गयी, ठीक-ठीक याद नहीं। एक अन्य शुरूआती कहानी 'उड़ि जाओ पंछी' खोजते हुए पुरानी फाइल में यह मिल गयी। आज पढ़ते हुए यह बहुत बचकानी लगती है, लेकिन कहां से चलते हुए यहां तक पहुंचे, इसे जानने का यह उपयुक्त श्रोत है। कथा प्रत्रिका 'निकट' ने इसे अपने जनवरी 14 के अंक में प्रकाशित किया है। अब ब्लाग के पाठकों के लिए यहां प्रस्तुत है- 

जुल्मी

                                                                'शिवमूर्ति'
नहर की नाली पर घास छीलते हुए कोइली की नजर सामने दिख रहे अपने दुआर पर गयी। 
यह कौन है सफेद कपड़ों वाला? साइकिल लेकर पैदल चलता हुआ। दुआर वाले नीम के पेड़ की ओर बढ़ रहा है। उसके बप्पा ओसारे से निकल कर उसकी ओर जा रहे हैं। सायकिल खड़ी करके वह शायद बप्पा के पैर छूने के लिए झुका। 
उसकी नजरें वहीं जम गयीं। 
अब बप्पा ओसारे से खटिया निकाल कर नीम के पेड़ की छाया में ला रहे हैं। वह आदमी खटिया पर बैठ रहा है। 
बप्पा घर के अंदर गये। 
थोड़ी देर में अंदर से माँ निकली और उस आदमी को पंखा झलने लगी। वह शायद माँ का पैर छूने के लिये झुका। बप्पा बाल्टी लेकर कुएं की ओर जा रहे हैं।
कौन है यह आदमी? मेहमान।
इतना स्वागत तो मेहमान-खास मेहमान का ही होता है। और उसका जी 'धक' से रह गया। कहीं कामापुर वाला उसका भोला भंडारी तो नहीं। 
इतने दिन बल्कि इतने वर्षों बाद। सोचते ही उसके हाथ पैर कांपने लगे। तलुवे सुन्न होने लगे। पसीने-पसीने उसने मेड़ की टेक ले ली। 
इतने दिनों बाद सुध आयी? क्या जरूरत थी? वह मायके में ही उम्र काट देती। कौन यहां लडऩे के लिये कोई भौजाई बैठी है जो दिन काटना पहाड़ हो जायेगा। वह माँ से साफ-साफ कह देगी- नहीं जाऊँगी। जीते जी उनकी ड्योढ़ी नहीं लाघूँगी। आधी जवानी तो कट ही गयी। बाकी भी कट जायेगी। 
आंखे मुंदने लगीं। खुरपा हाथ से छूट गया। वह आंसुओं की बाढ़ में डूबती चली गयी। 
आठ साल बीत गये जब बिना अनवार के वह रोते हुये ससुराल से मायके आयी थी। उसका एकलौता भाई पेड़ से गिर कर बेहाश था और अस्पताल में भर्ती था। मां और बाबू जी उसके साथ अस्पताल में थे। घर पर दस-साल की छोटी बहन भर थी। बाप ने पड़ोसी के बेटे से उसकी ससुराल संदेश भेजा था- घर पर जानवरों को संभालने वाला कोई नहीं है। समधी भाई, इसी लड़के के साथ तुरंत बिदायी कर दें। या खुद पहुंचा जायें। 
पर ससुर ने इंकार कर दिया- आज कैसे भेज सकते हैं? कल घर में कथा-पूजन है। इसके बाद लिवा जायें। 
उसके पति ने अपने पिता से कहा भी- क्या पता ऊपर वाला कल तक की मोहलत न दें। आज जाने पर भाई का मुंह देख लेगी दादा। 
सास ने आकर ससुर को समझाया-जाने दीजिए। जब से सुना है, बहू का रोते-रोते बुरा हाल है। कहीं कुछ हो हवा गया तो अपजस लगेगा कि बहिन को भाई का मुंह भी नहीं देखने दिये हम लोग। 
पर नहीं माने बुढ़ऊ। पड़ोसी लड़का लौट पड़ा। 
उसने आँगन में पति के कुरते की टोंक पकड़ी-क्या कहते हो? बोलो!
पति 'महासिधवा'। बोला- बाबू की मरजी के खिलाफ मैं कैसे बोल सकता हूँ? वे घर के मालिक हैं। वह बाहर आकर ससुर के पैरों पर गिर पड़ी- बाबू। इतने 'कठकरेजी' मत बनिये। एक ही तो भाई है मेरा। 
-देखो बहू। तुम्हें जाना है तो जाओ। लेकिन जैसे बिना 'पठये' जा रही हो वैसे ही बिना 'आनने' का इंतजार किये लौट आना।
इतनी इजाजत भी बहुत थी। बस तैयार होने में जितनी देर लगे। पर वह लड़का तो जा चुका। 
उसने फिर पति से बिनती की-पाँच कोस जमीन है और सिर्फ घड़ी भर दिन बाकी है। अँधेरा हो जायेगा। चलिए छोड़ आइये। 
-बाबू जी गुस्सा होंगे। 
-किस माटी से सिरजा है आप लोगों को विधाता ने? मेरा भाई 'मरन सेज' पर है और आप लागों के मन में तनिक भी 'दरद-दरेग' नहीं उठता। 
वे फुसफुसाये थे- तुम 'पक्की' पकड़ कर चलना। मैं पीछे से नब्बू इक्केवान को भेजता हूँ। लेकिन यह बात बाबू जी न जानने पावें कभी। 
और ऊपर वाले की ऐसी मरजी कि नब्बू इक्केवान ही वापसी में संदेश ले गया- अपने दुलारे भइया का साला नहीं रहा। रीढ़ की हड्डी टूट गयी थी। नाक से भी खून निकला था। अगले शनीचर को तेरही है।
भाई की तेरही में आये बुढ़ऊ (ससुर)। दाढ़ी, मूँछ, सिर मुंड़वाया लेकिन मन के गुस्से को नहीं निकाल सके। बिना बिदायी की बात किये लौट गये। दुख की घड़ी में बिदायी के बारे में मायके में भी किसी ने नहीं सोचा। 
लेकिन कई महीने बाद जब सास ने बहू की बिदायी के लिये जाने को याद दिलाया तो बुढ़ऊ ने साफ-साफ सुना दिया- मैंने तो जाते समय ही कह दिया था, जैसे अपने पैरों गयी है वैसे ही लौटना भी होगा। मैं आनने नहीं जाने वाला। 
तब तक बुढ़ऊ को बेटे द्वारा नब्बू के इक्के से बहू को भेजने की बात पता चल गयी थी इसलिए कुछ दूर पर बैठे बेटे को सुना कर कहा था-इनसे मेहरिया का मुंह देखे बगैर न रहा जाता हो तो जैसे अपने भाड़े किराये से भेजा है वैसे ही जाकर लिवा लावें। लेकिन जाने के पहले अपना चूल्हा चौका अलग करते जायें। 
-तो क्या वे जिन्दगी भर अपनी बेटी को मायेकें में बैठाये रहेंगे? आप नहीं लायेंगे तो उनको दूसरा घर वर खोजने से कैसे रोकेंगे?
-कौन रोकता है? खोजें। उनको बीसों लड़के मिलेंगे हमको बीसों लड़कियाँ। पर इस घर में आना है तो खुद आवे। कोई लिवाने न जायेगा। 
यह बातें एक बार बाजार में मिलने पर नब्बू ने ही बतायी थी। उसकी माँ से फिर कहा था- काकी, आप ही एक जबान कह दें कि बेटी को उसकी ससुराल पहुँचा दो तो पहुँचा दूँगा। भाड़ा किराया भी न लूँगा। पर कोई कहे तो। 
हम अपने मुँह से आपको कैसे कह दें भइया? उनके घर में कोई मर्द मानुष न होता तो दूसरी बात थी। भला बेटी भी कभी माँ बाप पर भारी होती है। पर बहू की शोभा तो उसकी ससुराल में ही है। बुढ़ऊ नहीं आना चाहते न सही। एक बार नाऊ से, नहीं कूकुर से संदेश भेजवा दें कि उनकी बहू उनके घर भेजवा दो तो देखिये हम साड़ी-पिछौरी, कूंडा-दौरी और गठरी-मोटरी के साथ भेजवाते हैं या नहीं? इतना मान-गुमान भी ठीक नहीं। भगवान बड़े-बड़ों का गुमान तोड़ देते हैं। भाई का मुँह देखने के लिये आकर कौन सा गुनाह कर दिया मेरी बेटी ने। न आती तो जनम भर का पछतावा बना रहता। भगवान ने हम लोगों की जिंदगी में हमेशा-हमेशा के लिए अँधेरा भर दिया। उस घड़ी में बहू का आना उन्हें बुरा भी लगा हो तो हमारा दु:ख देख कर उन्हें माफ कर देना चाहिये था।
जमाई को अलग से समझाना- उनकी 'बियही' है। सात फेरा डाल कर अपनाया है। खेलने खाने की उमर में इतना 'बियोग' ठीक नहीं। 
समधिन से कहना- हम मूरख आदमी ठहरे। किस विधि से समझायें? पाँच-पाँच साल बीत गये। जवान जहान अहिबाती बेटी रांड की तरह दिन काट रही है। यह देखा नहीं जाता। गले के नीचे कौर नहीं उतरता। बुढ़ऊ तो लगता है खटिया पकड़ लेंगे। एक ओर बेटे के जाने का दुख दूसरी ओर बेटी के न जाने का। अकेले में पता नहीं क्या-क्या बुदबुदाते रहते हैं। 
शुरू में उसने खुद भी कम कोशिश नहीं की अपने 'मरद' और ससुर की मति पलटने की। अपनी सखी से कहकर ओझा से मुर्गे की बलि दिलवायी थी। माँ से कह कर सत्य नारायण की कथा करवायी थी। अगर बिना 'प्रसाद' लिये चले आने के कारण सत्य नारायण स्वामी नाराज हुये हैं तो कथा से प्रसन्न हो जायेंगे और जैसे कन्या कलावती के 'दिन बहुरे' वैसे ही उसके भी 'बहुर' जायेंगे। 
लेकिन उधर से कोई संदेश नहीं आया।
लोगों ने समझाना शुरू किया- सौ बेटियों में एक बेटी है आपकी। सुदर, स्वस्थ, कमासुत, लम्बी-तगड़ी, मेहनती। कब तक उन मूर्खों के आस में घर में बैठाए रहिएगा। इतने दिन हो गये। 'मनई' की चाहत होती तो इस तरह मुँह फेरे रहते? 'खेह डारिये' उन पर। बिदा कर दीजिए किसी खाते-पीते घर में। राज करे। नहीं तो कहीं ऊँचे नीचे पैर पड़ गया, दाग लग गया तो सात पुस्त तक नहीं छूटेगा। उनका तो बेटा है। कुछ कर भी गुजरा तो भोज-भात देकर बरी हो जायेगा।
माँ को समझाने की भला क्या जरूरत थी। उसने बप्पा की नाक में दम करना शुरू किया- बेटी को घर में बैठाये-बैठाये बूढ़ी कर डालना है क्या? कितनी तेजी से उसके बाल पक और झड़ रहे हैं, मालूम है। कल को हम दोनों की आँख मुॅद गयी तो उसेे किस कुएँ तालाब की शरण मिलेगी? उठाइये अपनी लाठी पनही। जाइये, पता लगाइये। बहुत लड़के मिलेंगे। 
बेटी को भी समझाया- क्या रखा है उस रिश्ते में। सोने जैसी जवानी गला कर रांगा कर रही हो, किसके लिये? लेकिन नहीं मानी बेटी- नहीं माई नहीं! मुझे दूसरे दुआर की लालसा नहीं है। तेरी ड्योढी पर ही जिंदगी काट दूँगी और तेरे जाने के बाद आग लगा कर 'भसम' हो जाऊँगी। 
थोड़े दिन पहले उसे नब्बू की मार्फत ही पता चला था कि बाप बेटे में उसे आनने को लेकर तकरार हुई है। नब्बू का कहना था कि अगर 'भात' खा लिये होते तो वे खुद ही लिवाने आ जाते। इस इलाके में दूल्हा तभी ससुराल आना जाना शुरू करता है जब एक बार उसे औपचारिक रूप से ससुराल से बुलावा आता है। उसके साथ दो एक नजदीकी रिश्तेदार आते हैं। सबको यथाशक्ति कोई नेग दिया जाता है- गाय, भैस, घड़ी, अँगूठी या साइकिल। इसे भात खाने की रस्म कहते हैं। बिना भात खाये ससुराल जाने वालों की बड़ी जग-हंसाई होती है। 
और वही हो गया। बिना भात खाये ही उसे उसके 'भोला भंडारी' को ससुराल आना पड़ा। उसने अपनी देह में नयी ताकत, नयी गुदगुदी का एहसास किया। उसने देखा, नीम के पेड़ के नीचे दो और चारपाइयाँ बिछ गयी हैं। चार-पाँच लोग आ गये हैं। बड़ी लानत मलामत हो रही होगी उसके आदमी की। उसे पति का भोला गंभीर जवान चेहरा याद आया। दो कछी धोती, नंगे बदन। गले में काले धागे में लटकी पीतल की ताबीज। पतली नरम रोयें वाली तनिक भूरी मूंछे। यही रूप पिछले आठ सालों से लगातार उसके मन पर छाया रहा है। 
-बहुत सिधवा है। एक भी बात का जवाब नहीं दे पा रहा होगा। 
सुहागरात में उसके अंदर आते ही वह खटिया से उठकर खड़ी हो गयी थी। कोने में मिट्टी के तेल की ढिबरी जल रही थी। रिश्ते की बुआओं और जेठानियों ने जब उन्हें अंदर ठेलते हुये कहा था- लेव। संभालो अपना धन और बाहर से जंजीर लगा कर चली गयी थीं तो वे आकर उसके बगल में खड़े हो गये थे। कंधे पर हाथ रखते हुए कहा था- खड़ी क्यों हो गयी। बैठो। 
बाँह थाम कर उन्होंने उसे खटिया पर बैठाया था। फिर खुद बैठे थे। वह लेटने को तैयार नहीं हुई तो खुद भी बैठे रह गये थे। रह-रह कर उसे अंकवार में भरते। उसका घूँघट खोलने का प्रयास करते और उसे काँपती पाकर छोड़ देते- जाड़ा लग रहा है क्या? अभी तो अगहन का महीना है।
मुँह देखे बिना ही एक जोड़ी पायल टेंट से निकाल कर 'मुँह-देखायी' में दिया था। अपने हाथ से पहनाया था। गोड़हरों के ऊपर। सच, इन पैरों को अपने हाथ से छुआ था उन्होंने। अपनी गोद में रखा था। वह छुअन कैसे भूल सकती थी। उसने हाथ बढ़ाकर पैर में पड़ी पायलों को सहलाया। 
कुल तीन ही बार का तो साथ रहा- दो साल के दौरान। पहली बार दो रातों का? दूसरी बार पन्द्रह और तीसरी बार दो महीने का, पर वे दिन कैसे मन पर आज तक छाये हुये हैं। 
खिलवाड़ी भी कम नहीं थे। पहली होली उसकी ससुराल में ही पड़ी थी। दिन में पिछवाड़े वाले आंगन में खूब भिगोया था और रात में 'फगुआ' सुनकर लौटे तो हरी-हरी गोलियां लाये थे। अपने हाथ से खिलाया था। मुझे क्या पता की भांग है। नशा करेगी। मीठी लगी। खाती गयी। थोड़ी देर में सिर चक्कर काटने लगा। बोलना कुछ चाहूँ और मुँह से निकले कुछ। बिना बात के हँसी छूटे। सास को पकड़ कर बार बार भींचू और गले लगाकर हँसू। 
सास ने उन्हें डॉटा- क्या खिला दिया तूने बहू को रे? सास ने गुड़ निकाल कर दिया- खा ले। नशा उतर जायेगा। पर उन्होंने गुड़ नहीं खाने दिया। ले लिया। माँ से कहा- इसे बाहर ठंडी चांदनी में घुमा देता हूँ। उतर जायेगी। 
बाहर लाकर उन्होंने उसे गोद में उठा लिया और थोड़ी दूर स्थित खलिहान में लाये थे। मड़ाई किये जाने वाले गेहूँ की पयार पर ही वह रात कटी थी। भूसे की सेज। उसे लगा वह आसमान में उड़ रही है। सारी रात उड़ती रही थी। 
भोर में सास के किवाड़ खोलने की चरमराहट सुनकर वह भागी आयी थी और सास की मीठी झिड़की खाकर अंदर भाग गयी थी। बालों में भूसा ही भूसा। कहाँ नहीं था भूसा। 
वैसे तो उसे चिढ़ाते थे- ढाई मन की धोबन। और उस रात कितनी आसानी से गोद में उठाकर भागे थे। 'बौरा' गये थे। 
-बुआ। दादी बुला रही है। 
 उसकी तन्द्रा टूटी। पड़ोसी की छह साल की बेटी सामने खड़ी थी। 
-काहें रे? 
-मेहमान आये हैं। रोटी बनानी है।
उसने लड़की को गोद में भर लिया और बार-बार उसका मुँह चूमने लगी। आँचल से उसकी आँख और मुँह पोंछा। छीली हुई घास खाँची में भरते हुये उसके पैर एक बार फिर काँपने लगे। आँखे धुँधलाने लगी। इस बार गुस्से और माख से। ये इतने 'लजकोंकर' क्यों हैं कि अपने परानी की हाल खबर लेने में आठ साल लगा दिये। ऐसे ही नहीं चली जायेगी वह। चार आदमी बैठाकर 'पद' करायेगी। उमड़ती जवानी माटी कर डाला। अपनी भी मेरी भी। 
घास की खांची उसने सिर पर रखा और लड़की को गोद में लेकर चली। अरे, खुरपा तो भूली ही जा रही है। उसके दुआर पर मेला जैसा लग गया है। पास पड़ोस के बीसों आदमी घेरे हैं। कैसे उन्हें देख पायेगी?
-लड़की थोड़ी समझदार होती तो उसी से पूछती। उसने लोगों की भीड़ के बीच एक झलक पाने की कोशिश की। पास से गुजरते हुए तो नजर उठ न पायेगी। उसे लगा कि पीठ की जो एक हल्की झलक मिली है वह उन्हीं की है। बहुत 'दुर्बल' हो गये हैं। सास ठीक से रोटी पानी न कर पाती होंगी। उसे तरस आने लगा। एक गीत की पंक्ति याद आयी-
घरवा मा खाया सामी सूखी भउरिया 
अउत्या हमरे नइहरे 
घिउ खिचरिया तोहैं खियउतिउं 
अउत्या हमरे नैहरे। 
सूखी 'भउरी' खा कर दुबराये हुए 'स्वामी' मेरे नैहर आओ। घी, खिचड़ी खिला कर तुम्हें फिर 'तैयार' कर लूँगी।
 आज आये हैं 'घी-खिचड़ी' खाने। समझो 'भात' खाने आये हैं। बाबू से कहूँगी भात खाने के नेग में भुअरी भैंस भी हंकवा दें साथ-साथ, बिदायी में। 
दुआर के नजदीक पहुँच कर उसने सिर का आंचल माथे पर खींच लिया। भीड़ के बगल से गुजरते हुये उसकी नजरे भले झुकी हैं पर 'वे' तो देख ही रहे होंगे। गोद की लड़की को देखकर पता नहीं क्या क्या सोच डालें भोले बाबा? वह लजा गयी। लड़की को वहीं उतारा और सिर की खाँची ओसारे में पटक कर आँचल से आँख-मुँह का पानी पसीना पोछते हुये आँगन में भाग गयी। कोने में खटोला बिछा था। वह उसी पर ढ़ह गयी। 
खटोले के बगल में पीढ़े पर बैठकर माँ ने उसका माथा सहलाना शुरू किया तो आँसुओं की बाढ़ नये सिरे से उमड़ आयी। 
माँ घबरा गयी- क्या हुआ रे? रोती काहे है? 
-तनिक दम लेकर नहा ले बेटी। ढंग के कपड़े पहल ले। रसोई करनी होगी। 
माँ मेहमान के बारे में कोई बात नहीं करती। क्यों नहीं बताती?
खाना बनाकर, ढंक कर वह रसोई से बाहर आ गयी- माँ, तू जाकर परस। 
-क्यों? तू क्यों नहीं परसती? 
-नहीं। कह कर उसने सामने की कोठरी में घुसकर किवांड़ बंद कर लिये। 
खाना खाने के लिये बाबू जी के साथ आँगन में बैठे मेहमान की एक झलक लेने के लिये दबे पाँव आकर उसने किंवाड़ की झिरी में आँख लगाया और 'झटका' खा गयी।
-यह कौन? खिचड़ी मूछों और झुके कंधो वाला। उसे दूसरे ढंग की झुरझुरी छूटी। वह मुड़ी और 'मूड़ोमूड़' करके खटिया पर पड़ गयी। 
मेहमान को खिलाकर माँ ने उसकी कोठरी के किवांड़ खटखटाये- खोल। आ तू भी खा ले। 
किंवाड़ खोलकर वह फिर लेट गयी- मुझे भूख नहीं है माँ।
-क्या हुआ? धूप लग गयी क्या? सिर दबा दूँ?
-नहीं यह बता, यह मेहमान कौन है? किसलिये आया है?
-कैसा लगा?
-क्या? उसकी शंका ने फन काढ़ लिये।
-बेटी कब तक हम लोग तुझे घर में बैठाये रहेंगे? बाप का अकेला बेटा है। औरत दो साल पहले मर गयी। कुल तीन 'परानी' हैं। आदमी की 'चाहत' रहेगी। सुखी रहेगी।
-मेरी रोटी इतनी भारी हो गयी माँ?
-सो बात नहीं बेटी। लेकिन हम बूढ़े-बूढ़ी कितने दिन के मेहमान हैं? हमारे आंख मूँदने के बाद तेरी कैसे कटेगी? और जब तक तू मेरी ड्योढ़ी छेंक कर बैठी रहेगी- मैं क्या चैन से मर सकूँगी। 
-अपने चैन के लिये तू अपने हाथ से फाँसी लगा दे माँ पर किसी और के लिये दुबारा घर से न निकाल। तू कहे और बप्पा की हेठी न हो तो मैं अकेले ही अपनी ससुराल चली जाऊँ।
-उन लोगों ने इसका भी मौका नहीं छोड़ा बेटी। तेरी 'गद्दी' संभालने कोई और आ चुकी है।
उसकी चीख निकलते-निकलते बची।
-हाँ बिटिया। छ: महीने हुये। उसके बाद ही तेरे बप्पा ने दौड़ धूप शुरू की तेरे लिए।
माँ ने पास पड़ोस की सहेलियों को बुलवा लिया- पास बैठ लो बेटी। उसका मन बहल जाय।
सहेलियों ने मजाक शुरू किया। साथ-साथ कंघी-चोटी।
-बहुत सेवा करनी पड़ेगी तुझे। भर कातिक जोते गये बैल की तरह टूटे हुये हैं जीजा जी।
-अरे ए छह महीने में 'तैयार' कर लेगी।
-तीन ही महीने में।
सामूहिक हँसी। चुहल।
-इस बार उसे आँचल के टोंक में ठीक से बाँध कर रखना। और जाते ही सबसे पहले सास-ससुर को कब्जे में करना।
उसे देखने के लिये मेहमान आँगन में आया तो उसकी पलकें बंद थीं और सांस तेज।
उसके मानस पर एक दो बार खिचड़ी बालों का अक्स उभरा लेकिन हर बार जल्दी ही उस पर नरम भूरे बालों की पतली मूँछों का रूप हावी हो गया।
ससुरू भेजा डोलिया कहरवां
हम गवनवा अउबै ना।
ससुर जी, हम गौने लायक हो गये हैं। जल्दी डोली कहार भेजिए।
डोली कहार तो आये लेकिन वहां से नहीं जहां से इंतजार था।
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चैत नवरात्रि के पहले मंगल को लगने वाला गूदर बाबा का मेला इलाके का मशहूर मेला है। आसपास के दस-पंद्रह कोस के ग्रामीण यहां लपसी, सोहारी चढ़ाने आते हैं। खासकर महिलाएँ। गूदर बाबा कौन थे? कब थे? कुछ पता नहीं। पर धीर-धीरे उन्होंने लोक मानस में महादेव का स्थान ले दिया है। 
पीर, डीह, और देवी-देवताओं की हैसियत उनके भक्तों की हैसियत के अनुसार ही घटती-बढ़ती है। गूदर बाबा लपसी, सोहारी के भोग से ही प्रसन्न हो जाते हैं। लपसी माने हलुआ का जनता संस्करण। आटा, गुड़ और पानी का अवलेह। सोहारी माने पूड़ी। जनता का पकवान। यही पकवान पाकर गूदर बाबा कुछ भी देने को तैयार हो जाते हैं।  
घर गृहस्थी चलाने की धुरी हैं औरतें। सोहारी, लपसी चढ़ाने का काम भी उन्हीं को। इसलिए इस मेले में औरतों और बच्चों की बहुतायत रहती है। पति, बेटे या बाप, सहयोगी के रूप में शामिल होते हैं। साइकिल के कैरियर या सिर पर जलौनी लकड़ी और आटा, गुड़, तेल की गठरी या छोटे बच्चों को कंधे पर लादने, संभालने के लिये। रंग-बिरंगी साड़िय़ों कपड़ों में लदी फंदी औरतों का गीत गाता हुआ झुंड एक के पीछे एक। चारों ओर से गूदर बाबा के धाम की ओर प्रस्थान करता हुआ। 
-मांग। क्या 'मांगन' माँगती है?
-बैल बीमार है बाबा। पति गंजेड़ी हो गया है। दूसरी औरत से 'अरझ' गया है या भविष्य सॅवारने वाले सपने। बेटा चाहिये बाबा। गोद नहीं भरी अभी तक। अगले जनम में भी मानुष जोनि मिले। सुअर कौआ होकर न जन्मना पड़े। 
कौन है जिसके पास कोई दुख न हो। कोई सपना न हो। पूरा इलाका उमड़ पड़ता है। कितनों की मनोकामना बाबा लगे हाथ पूरी कर देते हैं। नया मचनाहा साथी दे देते हैं। वे माँ-बाप, गाँव-देश का मोह छोड़कर यही से सीधे कलकत्ता, बम्बई, दिल्ली, लुधियाना की गाड़ी पकड़ लेते हैं। पार करें गूदर बाबा।
कोईली अपने दोनों बच्चों और पति के साथ भोर में गूदर बाबा के मेले के लिये निकली। गूदर बाबा का धाम उसके घर से तीन कोस पड़ता है। सबेरे पहुँचिये तो 'कराही' चढ़ाने में भीड़ का सामना नहीं करना पड़ता। दोपहर से भीड़ बढ़ जाती है। एक बड़ी गठरी पति के सिर पर। तीन साल की बेटी उसकी गोद में और तेल की शीशी हाथ में। आठ साल का बेटा कभी पैदल कभी बाप के कंधों पर। 
थान के चारों तरफ कई बीघे में आम और महुए का बाग फैला है। हर गाँव का मेला अलग-अलग पेड़ के नीचे डेरा डालता है। चार-चार पाँच-पाँच के समूह में जमीन खोद कर चूल्हे बन जाते हैं। कड़ाही चढ़ जाती है। तेल, घी, और गुड़ की महक! धुँआ। पूरा क्षेत्र महकने लगता है।
थान पर टिकरी चढ़ाकर उसने दोनों बच्चों का माथा टेकाया। पति को माथा टेकने के लिये कहा। फिर खुद सिर को आँचल से ढक, आँचल का खूँट दाँत से पकड़, माथा टेक कर माँगन माँगा। -इसी तरह कल्यान से रखो बाबा। अगले जन्म में भी यही पति यही बच्चे मिलें, सात जनम तक। लौटकर पति, बेटे को खिलाकर वह बेटी को गोद में डालकर 'परसाद' पाने बैठी। पति, बेटे को लेकर पिपिहरी भोंगारा खरीदने चले गये। 
अचानक दिल्लू बुआ प्रकट हुई।
-का हो धेरिया। कब से खोज रहे हैं? 
उसने उठकर जूठे हाथों आँचल का खूँट पकड़ा और बुआ के पैर छूकर तीन बार माथे से लगाया। 
दिल्लू बुआ उसे बहुत मानती थीं। उसकी पहली ससुराल कामापुर के पड़ोस में ब्याही हैं। जब वह गौने नहीं गयी थी बच्ची ही थीं तो अपनी ससुराल से लौटने पर दिल्लू बुआ उसकी सास के झूठे किस्से सुनाकर उसे चिढ़ाया करती थीं। उनकी एक बात उसे अभी तक याद है। बताया कि कोइली की सास की इतनी लम्बी पूँछ है कि उससे वह एक ही जगह बैठे-बैठे सारे घर में झाड़ू लगा देती है। और भी कई बातें...
-लगता है सब निबटा दिया? 
-हाँ बुआ! आप भी परसाद लीजिए।
-अभी नहीं। अभी हमारी टिकरी नहीं चढ़ी। 
बहुत दिन, दस-बारह साल बाद मिली थी बुआ। उसका हाल-चाल पूछती, अपना बताती रही। उसके खा लेने के बाद बोलीं- चल तुझे एक 'पहचानी' से मिला लाऊँ।
-किससे बुआ?
खुद ही देख और पहचान।
-पराना बुआ आयी हैं क्या?
पराना बुआ गवने गयीं तो कभी लौटकर मायके नहीं आयी। ससुराल वालों ने कभी बिदा ही नहीं किया। यहीं कहीं ब्याही गयी हैं। अब तो बूढ़ी हो गयी होंगी। बहुत पुरानी बात हो गयी। लेकिन उसके मायके में उनकी चर्चा होती रहती थी क्योंकि जब भी पराना बुआ को मायके का कोई आदमी मिलता वे एक-एक आदमी, रूख, बिरिछ, ताल, तलायी तक का हाल पूछती थीं। इस मेले में उनसे मिलने की संभावना बनती थी।
-चल, उठ।
कोइली ने अपनी कड़ाही, झोला बगल की औरत को सौंपा और बुआ के पीछे-पीछे चल पड़ी। बुआ उसे लेकर मेले के बाहर आयी और थोड़ी दूर के एक पेड़ की ओर ऊँगली उठा कर कहा- उस पेड़ के नीचे जा। 
उसने देखा, पेड़ के एक तरफ दो लद्दू घोड़े बंधे थे। एक तरफ एक खुली बैलगाड़ी खड़ी थी। उसके सामने दो सफेद ऊँचे बैल बोरे पर रखा भूसा खा रहे थे।
वहाँ तो कुछ दिखता नहीं बुआ। बताओ ना, कौन?
-तू अंदाज लगा।
-आप तो बुझौवल बुझाने लगीं। आप भी आइये। उसने बुआ का हाथ पकड़ कर साथ ले लिया। 
बैलगाड़ी की आड़ में एक आदमी खड़ा था। अकेला। कुरता-धोती। गले में मटमैला गमछा।
पास पहुँच कर बुआ ने उसकी गोद से बेटी को ले लिया। अब दोनों आमने सामने थे।
कामापुर वाला उसका भोला भंडारी।
दोनों ने भर नजर एक दूसरे को देखा फिर आदमी आगे बढ़ा। उसके ठीक सामने। दोनों की नजरें धुँधला गयीं। वे एक दूसरे के गले लग गये।
फिर कोइली ने कारन करके रोना शुरू किया। सुर ताल में रोना। रोना गाना, उलाहना साथ-साथ।
कौने कसुरवा ना, जुन्मी कौने कसुरवा ना।
देहला चित से तू उतारी, जुल्मी कौन कसुरवा ना। 
(ऐ जुल्मी! क्या था मेरा कसूर जो इस तरह चित से उतार दिया?)
दिल्लू बुआ ने आकर दोनों को अलग किया। दोनों ने अपने-अपने आंसू पोंछे और खर्च हो चुके पिछले पन्द्रह बरस की जिंदगी का हिसाब करने लगे।
-:0:-

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गोमती नगर, लखनऊ
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Saturday, February 28, 2015

मेरी पुस्तक 'सृजन का रसायन' पर एक टिप्पणी



चीन में दूसरा दिन


चीन में दूसरा दिन
                                                                'शिवमूर्ति'
     कल की थकान इतनी ज्यादा थी कि सोये तो ऐसे सोये कि सबेरे 6 बजे वेेकअप काल की घंटी बजी तो लगा सपने में बज रही है। पत्नी ने उठते ही उबलने के लिए केतली में पानी रख दिया। कल रेस्टोरेंट से एक स्प्राइट की दो लीटर वाली खाली बोतल लायी हैं। उबला हुआ पानी ठंडा करके इसी में भर कर रास्ते में पीने के लिए साथ ले चलेंगी। कल बस का ड्राइबर एक डालर में 750 एमएल की दो बोतलें दे रहा था। यही रेट बाहर भी होगा। यानी 61 रूपये में डेढ़ लीटर पानी। मेरी मानसिकता वाले व्यकित के लिए यह बहुत मंहगा लग रहा है। दरिद्र मानसिकता मरते दम तक साथ नहीं छोड़ने वाली।
चीन  की दीवार के बेस कैम्प पैर

चीन  की दीवार पर 
      रास्ते में पड़ने वाली नग तराशने की एक फैक्टरी और मोती बनाने वाली एक इकार्इ को देखते हुए आज चीन की दीवार देखने जाना है। चीन की दीवार के लिए मेरे मन में दुर्निवार आकर्षण है। किशोरावस्था में एक पत्रिका में उसके बारे में पढ़ा था- चिन नाम के बादशाह ने 221 र्इ. पूर्व मंगोल आक्रमण से देश को बचाने के लिए इस दीवार का निर्माण शुरू कराया था। फिर अगले, फिर अगले राजा, इसका निर्माण कार्य निरन्तर कराते रहे अगले हजार बारह सौ साल तक। तब नहीं सोचा था कि कभी इसे साक्षात अपनी आखों से देख सकूगा। कहते हैं यह ग्यारहवी शताब्दी तक बनती रही। 6 हजार किमी से ज्यादा लम्बी। यानी पचास साठ पीढि़यां पैदा होती रहीं, बनाती रहीं और मरती रहीं। इस बीच राजवंश बदल गये लेकिन निर्माण नहीं रूका। एक अपने यहां का इतिहास है कि एक ने बनाया तो दूसरे ने तोड़ा और लूटा। बनवाया भी कुछ तो पुल और सड़क नहीं, महल या मंदिर बनवाया। हमारे यहां आदमी के हाथ में परलोक रूपी ऐसा झुनझुना पकड़ा दिया गया कि पैदा होने से मरने तक उसी को बजाने में मंगन रहो। ब्रहम सत्यं जगत मिथ्या। जो सच है, नजरों के सामने है उसे मिथ्या मानते रहे और जो मिथ्या है, काल्पनिक है उसे सच। मिथ्या सच के सिर पर इस तरह चढ़कर बैठ गया कि सच का दम घुट गया। वह आज तक मिथ्या के चंगुल से मुक्त नहीं हो पाया। 
       नास्ता करके 8:30 बजे बस में सवार हो जाना है। कल की चिल्लपों का असर यह हुआ कि आज नास्ते की गुणवत्ता सुधर गयी। उसमें कार्नफ्लेस, दूध, केला, आमलेट और अंगूर तथा संतरे का जूस शामिल हो गया। नास्ता करते करते गाइड सिन्डी अपनी झंडी लिए हाजिर हो गयी।
       पत्नी जल्दी-जल्दी नास्ता करके बस की खोज में निकल गयीं। पिछली सारी विदेश यात्राओं के दौरान मैंने देखा कि वे बस में सबसे आगे की सीट हथियाती हैं। मैं पूछता हूँ- सबसे आगे बैठने की इतनी ललक क्यों? बगल से भी सब कुछ दिखायी देता है। आगे बैठने पर तो आपका ज्यादा समय सामने सड़क निहारने में चला जाता है। फिर, दूसरे लोग भी तो आगे की सीट पर बैठने की इच्छा रखते होंगे। उन्हें भी मौका मिलना चाहिए। पर वे नहीं मानती। उनका तर्क है कि जो पहले आये वह अपनी मनपसंद सीट पर बैठे। अमेरिका यात्रा में 'स्टेचू आफ लिबर्टी देखने जाने के दौरान बोट के दाहिने हाथ की सीट पर बैठने को लेकर उनकी एक लम्बी चौड़ी लकदक गुजराती महिला से लड़ार्इ हो गयी। दरअसल बोट पर सवार होने के दौरान टूर मैनेजर मिस्टर सावक ने ब्रीफ कर दिया कि फोटोग्राफी के लिहाज से खुली बोट के दाहिने भाग के किनारे की सीटें उपयुक्त रहेंगी। बस सब दाहिने किनारे की ओर भागे। मैं तो दूसरे लोगों के हाव भाव, कपड़े लत्ते, रोब रूतबा देख कर किनारा कर लेता हूँ लेकिन यही चीजें उन्हें भड़का देती हैं। कुछ गलत देखती हैं या उन्हें लगता है कि कोर्इ उन्हें दबा रहा है या धौंस में लेने की कोशिश कर रहा है तो हत्थे से उखड़ जाती हैं।
          मोती बनाने वाली इकार्इ का शो रूम दस हजार वर्ग फीट से कम क्या होगा। मोती जड़े गहनों के शो केस, मालायें, अंगूठियां, नेकलेस और भी जाने क्या क्या। करोड़ो का माल। प्रवेश द्वार पर ही बडे़ बड़े जार रखे थे। पानी भरे इन जारों की पेंदी में बड़ी बड़ी सीपियां, बुलबुले छोड़ती हुर्इ। एक आदमी एक बाल्टी लेकर आया और इनमें से 10-12 सीपियां निकाल कर बाल्टी में डाल लिया। फिर एक लड़की आर्इ। उसने आवाज देकर सबको पास बुलाया और मोती निर्माण की प्रक्रिया बताने लगी। एक सीप को उठा कर उसका मुँह चाकू से फैलाया और उसके पेट में सिथत अंडे की सफेदी जैसी तरल बूंद को दिखाते हुए बताया- यही बूंद निर्माण की प्रक्रिया से गुजर रहा मोती है। उसने कर्इ सीपियों को फाड़कर निर्माण के अलग-अलग स्टेज दिखाये फिर फाड़ी गर्इ सीपियों को उसी बाल्टी में फेक कर सबको लेकर हाल में चल गयी। मैं उन फाड़कर फेंकी गयी सीपियों को देखता रहा। अभी कुछ क्षण पहले तक उनमें जीवन था। अब वे कटी फटी दशा में कूड़े के ढेर की तरह पड़ी थीं। मैं सिहर गया। क्या सिर्फ हम पर्यटकों को निर्माण की प्रक्रिया दिखाने के लिए इन्हें फाड़ कर फेंक दिया गया। आठ दस अर्धनिर्मित मोती फेंक दिए। इतना नुकशान। यह सच नहीं हो सकता। पर सीपियों की जान चली गयी यह तो प्रत्यक्ष था। मैंने मन को समझाया- जरूर कुछ नजर का धोखा होगा। 
      वहां से चलकर हम नग बनाने वाली एक फैक्टरी में आये। सैकड़ों शो केस। बिजली की रोशनी में जगमगाते। सैकड़ों लाफिंग बुद्धा। एक किनारे लगी हल्के हरे पत्थर की चटटाने। मुझे एक कोने में एक साधारण सी मेज पर बडे़ खरबूजे के आकार की गोल हरी आकृति ने आकृष्ट किया। इस गोले में चारों तरफ एक डेढ़ सेमी व्यास के दस बारह छेद बने थे। इन छेदों से गोले के अंदर बना एक और गोला दिख रहा था। पहले से पूरी तरह स्वतंत्र और आसानी से चलायमान। उसकी सतह पर भी उसी तरह छेद थे और उन छेदों के अन्दर एक अन्य गोला दिख रहा था। एक के अंदर एक कुल चार गोले और सभी निर्बाध गतिशील। मैं आष्चर्य में पड़ गया। कैसे कारीगर ने एक बडे़ पत्थर को तराश कर इस तरह एक के अंदर एक गोले बनाए? लेकिन शिल्पी कौन है, यह कहीं दर्ज नहीं था। सेल्सगर्ल ने बताया कि देहात के कारीगर बना कर दे जाते हैं बिकने पर उन्हें इसका मूल्य दे दिया जायेगा। पता नहीं यह कब बिकेगा और कब इसका कितना मूल्य उस बेचारे को मिल पायेगा। सेल्सगर्ल ने कहा कि हो सकता है महीने भर में बिक जाये। हो सकता है साल भर लग जाये। 
      मामूली से दिखने वाले पत्थरों की आभा तराशने से निखर गयी थी। वे निर्जीव माडलों के गले में शोभायमान थे, हजार, डेढ़ हजार डालर के प्राइस टैग के साथ। चीन में अब विदेशी कम्पनियों को भी निर्माण का लायसेंस दिया जा रहा है। यह विदेषी कम्पनी ही थी। पहले ऐसा नहीं होता था। 
          यहां से चीन की दीवार करीब बीस किमी दूर है। थोड़ी दूर चलते ही पहाड़ की चोटी पर उसकी झलक दिखने लगी। दूर तक किसी डै्रगन की तरह ही बलखाती पसरी हुर्इ। खड़ी चढ़ार्इ वाले नुकीले ऊँचे पहाड़ों के सिर पर चढ़ कर बैठी थी यह। जैसे जैसे पास पहुंचते गये रोमांच बढ़ता गया। हमारी बस जिस सड़क से होकर गुजर रही थी उसके दोनों ओर पहाड़ की श्रृंखला फैली थी और उन पर चढ़ी दिख रही थी यह दीवार। इस पर भी, उस पर भी। बेस तक पहुंच कर बस रूकी। हम नीचे उतरे। देखा ठीक बायीं तरफ के पहाड़ पर चींटी की तरह नीचे से ऊपर चोटी की ओर बीस फीट की चौड़ार्इ में खड़ी चढ़ार्इ की सीढि़यों पर रेंगती भीड़। बाप रे! इतनी खड़ी चढ़ार्इ पर कैसे इतनी ऊँची चौड़ी दीवार बना दिया इन लोगों ने। वह भी ढ़ार्इ हजार साल पहले। कैसे चढ़ाये होंगे निर्माण सामग्री। आगे टिकट घर के पास से बायीं तरफ भी एक दीवार जा रही थी। गाइड ने बताया कि यह अपेक्षाकृत कम चढ़ार्इ वाली है। इस पर वह जो तीसरा ब्लाक दिख रहा है वहाँ तक तो यूरोपियन ही चढ़ पाते हैं। एशियार्इ मूल के लोग दूसरे ब्लाक तक चढ़ते हैं। चढ़ने को तो आप में से भी कुछ लोग हो सकता है चढ़ जायें लेकिन वापस लौटना कठिन हो जायेगा। जांघे भर आयेंगी। पैर कांपने लगेंगे। चढ़ने से ज्यादा उतरना पहाड़ हो जायेगा। जिन्हें हार्ट की समस्या हो या हार्इ ब्लड प्रेसर हो, बेहतर होगा वे जोखिम न उठायें। 
         पत्नी को यह सुनकर अच्छा नहीं लगा कि केवल यूरोपियन ही इतने सक्षम माने जा रहे हैं जो तीसरे ब्लाक तक चढ़ सकते हैं। उन्होंने मेरा हाथ दबाते हुए कहा- मैं भी तीसरे ब्लाक तक चढ़ूंगी। 
         -तुम मंगोलिया तक क्यों नहीं चली जातीं, तीसरा चौथा सब पार करते हुए। मैंने नाराजगी दिखायी- ब्लड पे्रशर की दवा खाती हो और आगे-आगे कूदती रहती हो। 
        -कूदूंगी, कूदूंगी। मुझे डराओ नहीं। खाने पीने का झोला और पानी लिए हुए, मेरा हाथ छोड़ वे तीन चार कदम आगे बढ़ गयीं। कैमरा और वीडियो संभालते हुए मैं। पीछे पीछे चला। दाहिने हाथ की चढ़ार्इ वास्तव में बायें की तुलना में समतल थी। हमने यही राह पकड़ी। 
        क्या तो दमदार पत्थरों को काट कर बनायी गयी है यह दीवार। दीवार भी और सड़क भी। वह भी सीढ़ीदार। किनारे किनारे पत्थर की ही रेलिंग। 4-5 इंच से लेकर 8-10 इंच तक के स्टेप। डेढ़-दो सौ सीढ़ी के बाद बगल में विश्राम के लिए बनाया गया कमरा और करीब पौन किमी पर एक बड़ा ब्लाक या हाल जिसमें सौ डेढ़ सौ सैनिक आसानी से विश्राम कर सकते हैं। (सही दूरी और नाप अब आप गूगल पर देख सकते हैं।) रेलिंग पकड़ कर चढ़ने उतरने वाले ज्यादा रहते हैं इसलिए रेलिंग से सटी सीढि़यां कहीं कहीं घिस गयी हैं। बाकी अंगद के पांव की तरह जस की तस। कभी इन पर घुड़सवार पहरेदार सैनिक चला करते थे। बिना इन पर चढे़ इनकी भव्यता और भयावहता का अनुमान लगाना संभव नहीं। कुछ उतरे आ रहे हैं, कुछ चढ़े जा रहे हैं, कुछ आसपास की रेलिंग पर अपना नाम अंकित करने पर लगे हैं। रूकते रूकाते लाग डाट में हम दो ब्लाक तक चढ़ गये। थकान आ गयी। मैं एक समतल रेलिंग के पत्थर पर बैठ गया। फोटोग्राफी, वीडियोग्राफी करने लगा। पत्नी कुछ देर तक पोज देती रहीं फिर धीरे धीरे चढ़ कर पचास साठ सीढ़ी ऊपर गयीं। मैंने सावधान किया- मदद के लिए पुकारोगी तो नहीं आ सकूँगा। लौट आओ। 
         -अकेली स्त्री को मददगारों की क्या कमी। कहकर वे हंसी और आगे बढ़ने लगीं। अगले मोड़ पर आंखों से ओझल हो गयीं। तेज गुस्सा आया। लेकिन क्या फायदा जब गुस्सा झेलने वाला ही कोर्इ नहीं है। सोचा मैं भी चलूं पर हिम्मत न हुर्इ। कहीं ऊपर ही न रह जाऊं। अंतत: करीब आधे घंटे बाद वे वापस लौटती दिखीं। साथ में दो अन्य विदेशी पहनावे वाली महिलायें। पता चला वे दोनों हरियाणा मूल की हैं और तीस पैंतीस साल से कनाडा में बस गयी हैं। वापसी में सचमुच पैर कांप रहे थें। बेस पर बने एक प्लेटफार्म पर खडे़ होकर लोग फोटो खिंचा रहे थे, यादगार के लिए। किसी भी झुंड में किसी के भी साथ। नाम, पता, फोन नम्बर लिखा दीजिए। पैसा जमा कर दीजिए। फोटो आप के पते पर पहुंच जायेगा। हमने भी फोटो खिंचार्इ। बस में पहुंचने वाले हम दोनों अंतिम यात्री थे। 
        यहां से चल कर एक विशाल रेस्टोरेंट में खाना खाने के लिए रूके। बाहर टूरिस्ट बसों की लाइन लगी थी। कर्इ मंजिल का रेस्टोरेंट। हर मंजिल पर 60-70 बड़ी मेजें। खाने के साथ बियर मुफ्त थी। पानी नहीं मिलेगा। स्प्राइट, कोकाकोला या बियर। हर प्रकार का खाना। हर प्रकार के खाने वाले। एशियार्इ, यूरोपियन, अफ्रीकन। विभिन्न पहनावे, विभिन्न बोलियां।
        यहां से हम समर पैलेस देखने गये। चीन के सम्राट की गर्मी के महीने की अराम गाह। लम्बी चौड़ी कुनमिंग लेक के किनारे लागिविटी हिल पर बना पैलेस। कर्इ सारे भवन। बारहवीं सदी में बना। यूरोपियन फौजों ने रौंदा जलाया। फिर बना। गर्मी के महीने में राजा 'फारबिडेन सिटी का महल छोड़कर अपनी सारी रानियों और 'कान्क्यूबाइन माने रखैलों के साथ यहां आ जाता था। यहां के कुछ महल बहुत खास हैं, जैसे- लांगिविटी पैलेस, ट्रानिक्वलिटी पैलेस, वीगर पैलेस। इनके मूल चीनी नाम तो जो होंगे सो होंगे। हिन्दी अनुवाद में हम दीर्घायु भवन कह सकते हैं जिसमें रहने से आयु बढ़ जाती है। बुढ़ापे को दूर भगाने का इंतजाम। प्रशानित भवन, चिन्ता उद्विग्नता या भय को दूर भगाने वाला। और पौरूष भवन, जिसमें रहने से पौरूष बढे़ या कम से कम जितना पौरूष बचा रह गया हो वह कायम रहे। भार्इ, पुरूष तभी तक पुरूष है जब तक उसका पौरूष बरकरार हैं। पौरूष गया तो वह कूडे़दान में फेंकने की चीज हो गया। मैंने एक बार टी.वी. पर देखा था, एक युवा शेरनी गुर्रा गुर्रा कर बूढे़ शेर को भगा रही थी। बेचारा कैसे पूंछ दबाए, अपमान के बोझ से सिर झुकाए, थके कदमों से चला जा रहा था। हारे हुए राजा की तरह पड़ रहे थे उसके कदम। विशाल कुनमिंग झील में एक भी चिडि़या नहीं थी। किनारे आठ दस पाली हुर्इ बत्तखें डक्क डक्क कर रहीं थीं।
            वहां से लौटते हुए हम ओलमिपक स्टेडियम पर रूके। यहीं पर 2008 के ओलमिपक खेल हुए थे। लगभग एक किमी लम्बे रास्ते पर ऊंचे ऊंचे खम्बों पर नियान लाइट चमक रही थी। विशाल स्पाती ढांचा बीच मैदान में खड़ा था। हजारों पर्यटक टहल रहे थे। देर तक फोटोग्राफी करने के बाद हम डिनर के लिए उत्सव होटल आये। सवेरे जियांग के लिए बारह बजे की फ्लाइट पकड़नी थी इसलिए इत्मीनान से उठे। नहाये धोए नास्ता किये। 9:30 पर होटल से निकले। आज सिन्डी से विदार्इ का दिन था। वह हम लोगों को लेकर एअरपोर्ट पर आयी। पैक्ड लंच दिया। चेक इन कराया और कहा सुना माफ की स्टाइल में किसी सम्भावित भूल के लिए सारी कह कर विदा ली। लेकिन उसकी आंखों में कोर्इ तरलता नहीं दिखी। सब कुछ रस्मी रस्मी। बार बार मिलने और बिछुड़ने की प्रक्रिया में ऐसा हो ही जाता होगा। 
          पत्नी द्वारा पर्स में सेब काटने के लिए छिपाकर रखा गया छोटा चाकू सिक्यूरिटी चेक में निकलवाया गया तो दुखी हो गयीं। मान लिया कि उसे लगेज में न डाल कर बेवकूफी किया। करीब फर्लांग भर आगे आ गयी थीं तो सिक्यूरिटी चेक की लड़की ने पीछे से आकर उनका पर्स खींचा। अब क्या गड़बड़ हो गयी? लेकिन कोर्इ गड़बड़ नहीं थी। वह सिक्यूरिटी चेक के दौरान छूट गया कैमरे का कवर देने आयी थी। बाप रे! इतनी दूर तक दौड़कर कवर देने आयी। और इतनी भीड़ में कैसे पहचाना कि यह कवर हमने छोड़ा था? थैक्यू भी उसी ने कहा। हम तो मूक खडे़ रह गये। 
          चाइनीज एअर होस्टेस देखकर एक बार फिर मन मुदित हुआ। साढे़ पांच फीट से कोर्इ कम नहीं। गोरी नहीं गुलाबी। ऊंची नासिका और ऊंची सैंडिल वाली। कहां से छांट छांट कर भर्ती किया है इन चीनियों ने भार्इ। प्लेन सम पर आया तो हमने अपना पैक्ड लंच खोला। चावल और रायता। साथ में भरवां पराठा। फिर फ्लाइट का लंच भी आ गया। कुछ खाया कुछ छोड़ा। 
          जियांग एअरपोर्ट पर सोफिया अपनी सौम्य मुस्कराहट के साथ मौजूद थी। सिन्डी 40 की थी लेकिन यह तीस से ज्यादा नहीं होगी। भोली सूरत, बिना मेकअप का चेहरा और राख के रंग वाली पैंट सर्ट पहने मझोले कद की धीमे धीमे मुस्कराकर (और शायद बहुत हल्की सी तुतलाहट के साथ) बोलने वाली सोफिया ने मुग्ध किया। न कोर्इ र्इगो, न कोर्इ आडम्बर, न कोर्इ दिखावा। बातचीत से पढ़ी लिखी लगी। बस के चलने के साथ उसने जिआंग शहर का परिचय देना शुरू किया। बताया की पहले जियांग ही चीन की राजधानी था। पेकिंग, जिंयाग ल्हासा, काठमांडू और दिल्ली एक सीधी रेखा में हैं। यहां 26 सम्राटों की कब्रें हैं। यहां की जमीन बहुत उपजाऊ है। यहां चावल की तुलना में गेहूँ ज्यादा पैदा होता है जिससे 108 प्रकार के व्यंजन बनाये जाते हैं। यह इलाका ब्यूटीफुल लेडीज और बहादुर सिपाही पैदा करने के लिए जाना जाता है। हर बहादुर सिपाही को एक ब्यूटीफुल वाइफ चाहिए ही चाहिए। ब्यूटीफूल पर उसका खास जोर था। उसने बताया कि शहर में दो मार्केट हैं। 'र्इस्ट एन्ड और 'वेस्ट एन्ड। एक शापिंग के लिए और दूसरा 'ब्यूटीफुल लेडीज को देखने के लिए। उसने बताया कि आस पास के इलाके में जो लोग पैसे वाले हो जाते हैं वे पहले मार्केट में जाकर ब्यूटीफुल लेडीज या गर्ल पसंद करते हैं। उससे उसकी च्वाइस पूछते हैं। वह कहती है कि मुझे फला अपार्टमेंट का फलां मंजिल का फ्लैट पसंद है। वह पैसे वाला उस फ्लैट को खरीद कर उसकी चाभी उस 'गर्ल को थमा देता है। तब वह उस पैसे वाले के साथ चली जाती है। चाहे 'वाइफ के रूप में या 'मिस्ट्रेस के रूप में। सुन कर बड़ा अच्छा लगा। क्या व्यवस्था है। यहीं रह जाने का मन हो रहा है। मैंने पत्नी की ओर देखा। वे बोलीं- रह जाइये। ऐसी जगह फिर न मिलेगी। 
         क्या तो मधु की तरह मीटी आवाज और सपना दिखाने वाली आंखे हैं सोफिया की? नाक कान एकदम सादे। न कोर्इ छेद न कोर्इ आभूषण। मुझे लगा कि यदि इसको गलती से आभूषण पहना दिए गये तो इसकी सुन्दरता घट जायेगी। रात का डिनर 'दिल्ली दरबार नाम के रेस्टोरेंट में था। वहां ले जाने के लिए मिस्टर राक नाम का एक अन्य गाइड आया। रास्ते में उसने बताया कि जिस इलाके में कल आपको ले चलेंगे वहां एक जगह ऐसी है जहां आज भी शादी के पहले वर वधू एक दूसरे को नहीं देखते। उनके मां बाप ही यह रिस्ता पसंद और तय करते हैं। जैसा कि कुछ समय पहले आपके इंडिया में होता था। उसने बताया कि यहां के पुरूष अपनी सित्रयों के पैर को बांधने के लिए एक खास तरह की पैकिंग का इस्तेमाल करते हैं। यह मान्यता है कि स्त्री के पैरों को बांध कर रखने से ही कोर्इ पुरूष उस स्त्री को काबू में रख सकता है अन्यथा स्त्री को काबू में रखना बहुत कठिन। वह किसी के काबू में रहने वाली शै ही नहीं है। एक ही उपाय है कि उसके पैरों को बांध कर रखो। जो लड़की अपने पैरों में यह बंधन नहीं स्वीकारती उसकी शादी होना मुशिकल। कौन पसंद करने का जोखिम लेगा ऐसी बन्धनहीन स्त्री को। और भी बहुत सी लन्तरानियां सुनार्इ उसने रेस्टोरेंट पहुंचने तक। पता नहीं कितनी सच कितनी झूठ। उसकी आवाज उसके शरीर की तरह ही मोटी और भौय भांय करने वाली थी। इसलिए बहुत कुछ समझने से रह गया। लेकिन जिस वजह से मैंने बीच में उसकी चर्चा छेड़ी उसका कारण दूसरा है। पता चला कि यह राक सोफिया का मंगेतर है। हे भगवान! तेरा करिश्मा तू ही जाने। कहां भों भों करके बोलने वाला यह मोटा बेडौल राक और कहां कोयल सी कूकने वाली चिकनी तन्वंगी सोफिया।
        मेरे सहकर्मी मोहम्मद अहद एक शेर सुनाते थे-
        जाख की चोंच में अंगूर, खुदा की कुदरत
        पहलुए हूर में लंगूर खुदा की कुदरत।

        जाख का मतलब पूछने पर उन्होंने बताया था- कौआ।
        अब आज आगे और कुछ न लिखा जायेगा। 

लू शुन के देश में


चीन यात्रा का यह संस्मरण वर्तमान साहित्य के  फरवरी २०१५ अंक में प्रकाशित हुआ है ब्लॉग के पाठकों के लिए यहाँ प्रस्तुत 

लू शुन के देश में


शिवमूर्ति
    जब बचपन में पढ़ता था-
इस पार हमारा भारत है, उस पार चीन जापान देश।
मध्यस्थ खड़ा है दोनों के एशिया खंड का यह नगेश।।
    तो सोचता था कि बडे़ होकर किसी दिन इस नगेश हिमालय पर चढ़ कर उस पार बसे चीनियों का जनजीवन देखूँगा। जैसे-जैसे बड़ा होता गया, चीनियों के बारे में जानने की उत्कंठा बढ़ती गयी। बडे़ बूढे़ कहते थे कि हमारे देश से ही बौद्ध धर्म चीन, जापान, थाईलैण्ड आदि देशों में गया है। दर्जा 6 में था तभी सन् 62 में भारत चीन युद्ध हुआ। तब से कभी-कभी लगाया जाने वाला नारा- ’हिन्दी चीनी भाई भाई’ बंद हो गया। और बड़ा हुआ तो, चीनी यात्रियों फाहियान और हवेनसाॅग के बारे में पढ़ा। बाद में चेयरमैन माओ और चीन की महान दीवार आकर्षण का केन्द्र बने। 
    लू शुन को पढ़ा तो चीन के प्रति नजदीकी महसूस होने लगी। थियानमान चैक पर बीते दिनो हुआ छात्रों का नरसंहार चीन की छवि उसके प्रतीक फॅुफकारते ड्रैगन जैसा भयकारी बनाने लगा। सोचा, इस बार यथासंभव चीन को भीतर से देखने समझने की कोशिश की जाय।
    विगत वर्षाें में जो लोग अमेरिका यूरोप या साउथ अफ्रीका आदि की यात्रा में साथी बने थे उनका मन टटोला। लेकिन चीन की यात्रा के लिए किसी ने भी उत्सुकता नहीं दिखायी। लोगों का कहना था कि चलना ही होगा तो सिंगापुर, थाईलैंड, मकाऊ या हाॅगकाॅग चलेंगे। चीन में क्या है? अंत में हम पति पत्नी ने अकेले जाने का मन बनाया। दिल्ली से हम चाइना ईस्टर्न एअरलाइन्स की उड़ान संख्या 564 से 9 व 10 मई की रात्रि में
चीन के अंतिम बादशाह पू ई 
2ः30 बजे संघाई के लिए उड़े। चीनी आदमी की कल्पना करने पर मेरे दिमाग में अबतक पाँच सवा पाँच फीट की स्थूल आकृति ही उभरती थी लेकिन फ्लाइट में जो युवा चीनी अभिवादन और सार सॅभाल करते मिले उनमें से कोई भी पौने छः-छः फीट से कम नहीं था। लम्बे छरहरे सुदर्शन। स्थूलता का नामोनिशान नहीं। और एअर होस्टेस कोई भी साढे़ 5 फीट से कम नहीं। तन्वंगी और गोरी नहीं, गुलाबी। नासिका भी चपटी नहीं ऊॅची। कहाॅ से ले आये चीनी लोग इन्हें छाॅटकर। अपने जीन्स में भी क्रान्ति कर डाला क्या? बाद में चीन घूमते हुए लगा कि सचमुच चीनियों की औसत ऊँचाई बहुत बढ़ गयी है। मैं तो चीन के पारम्परिक गाँवों में भी गया। इक्का दुक्का बूढे़ पुरानो को छोड़कर कहीं भी नाटे आदमी नहीं दिखे।
 
    विमान के उड़ते ही लोगों को जल्दी जल्दी लाइट बुझाकर सो जाने की हड़बड़ी थी। लेकिन मेरी नींद तो उड़ चुकी थी। अगर मैं दस साढे़ दस बजे, हद से हद ग्यारह बजे तक सो न जाऊँ तो मेरी नींद गयी। अब जागरण ही करना होना। अच्छा है, मैंने सोचा। दिल्ली से चलते समय चित्रकार मित्र लाल रत्नाकर ने चीन से गिफ्ट के रूप में अपने लिए तीन चीजें लाने के लिए कहा है, जिन्हें मैंने कागज के एक टुकड़े पर नोट कर लिया था। अब सिर के ऊपर लगी रीडिंग लाईट जलाकर मंैने उसे डायरी में नोट किया। पहली चीज, चाइनीज ब्लैक इंक। बताया कि इसका कोई जवाब नहीं। पेंटिग में प्रयोग की जाती है। दूसरी, सैबल हेयर (गिलहरी की पूँछ के बाल) से बना पेंटिंग ब्रश जो खास चीन में ही मिलता है और तीसरी, कोई चाइनीज पेंटिंग जो यादगार बना जाय। लिखकर मंैने भी लाइट बंद कर दी। खिड़कियाॅ पहले ही बंद थीं। नीम अंधेरे में सारे यात्री बेखबर बेखौफ सो रहे थे। विमान मानों आकाश में स्थिर हो गया था। मेरी सीट खिड़की के पार दाहिनी तरफ थी। कुछ देर आॅखे बंद करने के बाद मैंने धीरे से खिड़की का ढक्कन थोड़ा सा उठाया। पूरब में लोहा लगने लगा था। बचपन में पिताजी भोर में उठाते थे- उठो, लोहा लग गया। मतलब पूर्वी क्षितिज पर ऊषा की लाली फैलनी शुरू हो गयी। किसानों के हल बैल लेकर खेत मे जाने का समय हो गया। गृहणियों के जाँत पीसने का समय हो गया। विद्यार्थियों की पढ़ाई का समय हो गया। ऋषियों मुनियों के स्नान ध्यान का समय हो गया। तब उठाये से नहीं उठता था। बहुत दिनों बाद आज लोहा लगना देख रहा था। धीरे-धीरे सारा पूर्वी आकाश लाल हो गया। हम लोग हिमालय पार कर रहे होंगे।
    थोड़ी देर में जाग हो गयी। चाय, जूस़... नास्ता सर्व होने लगा। 11 बजे हम शंघाई उतरेंगे। वहाँ से प्लेन चेंज करके 12ः30 बजे चलेंगे तो 3ः30 बजे वीजिंग पहंुचंेगे। संघाई के बारे में कहते है कि न्यूर्याक से भी बड़ा और शानदार है। इस टूर में चीन के उत्तरी मध्य और पूर्वी तीनों क्षेत्रों को देखने की योजना है। शहर के साथ गाँव भी घूमने का मन बनाया है। इसके लिए आखिर के दो दिन खासतौर पर रखा है, जब बाकी साथी मकाऊ या हाॅगकाॅग के लिये उड़ जायेंगे, हम पति पत्नी चीन के सुदूर स्थित गाॅवों के भ्रमण पर जायेंगे। मेरा विश्वास है कि वहाॅ के किसानों का जीवन अभी भी उसी तरह का होगा जैसा हमारे यहाॅ भारत में है। और भारत में भी क्या उत्तर दक्षिण पूरब, हर जगह एक सा है? इतनी विविधता तो वहाॅ भी होगी । 
    वीजिंग हवाई अड्डे पर उतर कर हम होटल के लिए चले। लगभग पचास मिनट की यात्रा। इस यात्रा के दौरान मैं सड़क के दोनो तरफ नजर दौड़ाता रहा कि हमारे मुल्क का कोई पेड़ पालव दिखायी पड़ जाये लेकिन अपने परिचय का कोई न मिला। न नीम, न जामुन, न महुआ, न इमली। पीपल, पाकड़, बरगद भी नहीं। हाॅ आम के तीन चार छोटे कद के पेड़ जरूर दिखे जो सड़क से दूरी बनाए एक जगह खडे़ थे। इस बीच एक नदी भी मिली। पर बालू के किनारों वाली नहींे। कीचड़ मिट्टी में लिथड़ी। पानी घटा हुआ था। यानी बगुलों के लिए मछली के शिकार का उत्तम योग। लेकिन यहाँ तो एक भी बगुला न था। आसमान में भी नहीं। ध्यान दिया तो पाया कि किसी भी प्रजाति की चिड़िया नहीं दिख रही है। बाद में हमारी लोकल चाइनीज गाइड सिन्डी ने बताया- यह कहते हुए मुझे बड़ी शर्म महसूस हो रही है कि हमारे देश की सारी चिड़िया हमारे पूर्वजों के पेट में चली गयीं। अब हम उन्हें देखने, उनकी बोली सुनने के लिए तरसते हैं। अपने बच्चों को किताबों में उनके चित्र दिखाते हैं। अगर आपको हमारे देश में कहीं कोई चिड़िया दिख जाय तो समझिए अपनी जान जोखिम में डाल कर वह चीन में रह रही है। 
    सिन्डी ने सही कहा था। आगे की अपनी यात्रा में मुझे जियांग के एक बडे़ और फूलों से लदे पार्क में केवल एक गौरैया फुदकती दिखी और पूरब का वेनिस कहलाने वाले ‘वाटर विलेज’ जाने के रास्ते में एक कत्थई कौआ। दोनो ही अकेले। सिन्डी ने एक दिन बताया कि उनके यहाॅ तलाक का प्रतिशत 35 से 40 तक है। मैने सोचा कि यह गौरैया या कौआ भी कहीं तलाक शुदा तो नहीं है। नहीं, ए विधुर या विधवा होंगे। इनका जोड़ीदार किसी चीनी द्वारा उदरस्थ कर लिया गया होगा। तितलियाँ भी नहीं दिखी। इतने फूल खिलने का क्या मतलब कि जिनके लिए ए खिले हैं वे ही नहीं हैं इनका रसपान करने के लिए।
    हमारे होटल का नाम है- डे इन ज्वाइस्ट। लेकिन कमरे में न हेयर ड्रायर है न प्रेस। न चाय के लिए दूध या चीनी। पत्नी किसी भी होटल में पहुंचने पर पहले हेयर ड्रायर खोजती हैं फिर बाथरूप देखती हैं। उन्होंने सारी सम्भावित जगहें खोज डालीं। हेयर ड्रायर न मिला। उनका मुँह लटक गया। मिनरल वाटर की बोतल तक नहींे है। सिर्फ पानी गर्म करने वाली केतली भर है। बेड टी देने का यहाँ रिवाज ही नहीं है। तब इसका नाम ज्वाइस्ट कैसे हुआ?
कमरा और बाथरूम तो बड़ा था लेकिन नहाने के लिए बनाया गया शीशे का केबिन इतना छोटा कि उसमें खडे़ होने के बाद झुकना मुश्किल । कैसे होटल में इन्तजाम किया है इन लोगों ने । मेरी आदत पीढे़ पर इत्मीनान से बैठ कर नहाने की है। खडे़-खडे़ नहाना भी कोई नहाना हुआ। यह तो उसी तरह मजबूरी में निबटाना हुआ जैसे भूतकाल में कभी समयाभाव या स्थानाभाव के चलते एकाध आनंददायक काम खडे़ खडे़ निपटा लिए जाते थे। नहाने में वैसा दुर्निवार आकर्षण मेरा कभी नहीं रहा कि किसी भी तरह निपटाने की चाहत जगे। थोड़ी ठंड भी थी इसलिए शाम का स्नान मैने मुल्तवी कर दिया। 
    सबेरे नास्ते में न दूध था न कार्नफ्लैक्स। न मेवे न शहद न फल। सेब के कुछ टुकड़े रखे गये थे। मक्खन की क्वालिटी भी बहुत मामूली। छाछ से निकाले गये कच्चे मक्खन की तरह। बिना गर्मी के ही गला जा रहा था। अंडा केवल उबले रूप में था। उसके भुजिया आमलेट जैसे रूप नदारत थे। योरोप और अमेरिका में मिलने वाले नास्ते की तुलना में यह नास्ता एकदम सूखी बासी रोटी जैसा था। अपनी आदत के मुताबिक मैने थोड़ा शोर शराबा शुरू किया। एक दो समर्थक तैयार किए। मैनेजर आया। ‘सारी’ बोला। केला, सेब, कार्नफ्लेक्स और दूध का इंतजाम हुआ। 
रिसेप्शन के हाल में हमारी लोकल गाइड सिन्डी हाथ में एक झंडी लिए अवतरित हुईं। उसने दोनों हाथ जोड़कर बौद्ध ढंग से सिर झुकाते हुए स्वागत किया- नी हाउ!  यानी चीन में आपका स्वागत और अभिवादन है। नी हाउ कहकर किसी का स्वागत अभिवादन करते हैं चीन में। यदि सामने वाला आप से कुछ रूष्ट भी है तो नी हाउ कहते ही वह सामान्य हो जायेगा, ऐसा बताया। स्वागत के साथ ही उसने अपना परिचय दिया। तेज तेज नहीं बल्कि जल्दी जल्दी बोलने वाली बाला सिन्डी चालीस के आस पास की होंगी। गोरा रंग, चैड़ा चेहरा। बाबकट। पौने पाॅंच फीट की लम्बाई ‘प’ को ‘च’ बोलने वाली।  जैसे पेन को चेन। डालर को शालर या चालर। उसने बताया कि उच्चारण की अपनी सीमा के कारण जिस भाषा में बात करेगी उसे इंगलिश नहीं चिंगलिश कह सकते हैं। बताया कि यद्यपि उसने अमेरिका से इंगलिश स्पीकिंग का कोर्स किया है पर लाख कोशिश के बावजूद ‘च’ से पिंड छुड़ाने में कामयाब नहीं हो पायी, सो बियर विद मी। 
सिन्डी ने बताया की उसका चीनी नाम तो कुछ और है लेकिन उसकी अमेरिकन टीचर ने उसका नाम रख दिया सिन्डी और उसने गुरूदक्षिणा के रूप में ‘सिन्डी’ स्वीकार कर लिया। सिन्डी का मतलब होता है लिली। इसलिए आप इंडियन लोग मुझे लिली भी कह सकते हैं। जब उसे बताया गया कि गुरू दक्षिणा में शिष्य गुरू को भेंट या मोमेंटो देता है न कि गुरू से लेता है। यह तो चीनी ही होंगे जो उल्टे गुरू से दक्षिणा लेते होंगे, जैसे तुमने लिया। उसे पूरी बात समझने मंे थोड़ी देर लगी लेकिन जब समझी तो जोर से हॅसी और बोली- हम चीनी लोग देने में कम लेने में ज्यादा यकीन करते हैं। 
    सिन्डी ने सावधान किया- चीन में आपकी यात्रा निरापद बीते और कोई दुर्घटना न घटे इसके लिए जरूरी है कि हमेशा कुछ सावधानियाँ बरतें। यद्यपि हमारे यहाँ कम्यूनिस्ट पार्टी का शासन है और रेड लाइट एरिया बंद कर दिया गया है। कसीनोे भी नहीं है लेकिन मैं यह कहते हुए शर्मिन्दा हूँ कि हमारे देश में  जेबकतरे, ठग और नकली नोट के करोबारी बहुत सक्रिय हैं। अपना पासपोर्ट होटल के रिसेप्शन पर या अपने कमरे के लाकर में रख कर ही चलें अन्यथा पर्स छिन जाने या जेब कट जाने पर पासपोर्ट के अभाव में परेशानी हो जायेगी। पर्स में ज्यादा धन न रखें और चंेज लेकर चले। किसी वस्तु के खरीदने पर उतना ही धन पर्स से बाहर निकाले जितनी कीमत देने के लिए जरूरी है। बडे़ नोट का प्रदर्शन हरगिज मत करें। अनजान व्यक्ति से मनी एक्सचेंज न करें वरना वे फेक करेंसी पकड़ा देंगे या किसी ऐसे मुल्क की करेंसी दे देंगे जिसकी मौद्रिक कीमत घटी हुई होगी जैसे आजकल ‘रियाल‘ है। वापसी के नोट ठीक से जाॅच लें। महिलाये अपनी चेन ढक कर चलें। गले में डाले ही नहीं तो सबसे अच्छा है। अपने पर्स और मोबाइल पर सदैव नजर रखें। वर्ना ए चीजें पलक झपकते गायब हो सकतीं हैं। और अंत में, होटल का एक कार्ड तथा पानी की छोटी बोतल सदैव साथ रखें। 
    बाप रे! इतने खतरे। इतनी सावधानी। 
    (यह और बात है कि इतना सावधान किये जाने के बावजूद आगे हम लुटे भी और नकली करेंसी के शिकार भी हुए) 
    पूरी तरह सावधान होकर, गर्म कपड़े पहन कर, जूता मोजा डाट कर हम थियानमान चैक लिए बस में बैठे। सिन्डी ने हाथ में ली हुई झंडी को हिलाते हुए कमांड दिया- आलवेज फालो मी। फालो माई फ्लैग। अपने झुंड से बिछड़ जायें तो पुलिस के पास जायें और होटल का कार्ड दिखायें। 
    घटाएँ तो सबेरे से घिरी थीं, बस के चलते ही बरसात शुरू हो गयी। बाप रे! छाता लेने की तो याद ही न रही। बहुत कम लोग ही छाता लेकर चले थे। बस के रूकते ही बरसाती और छाता बेचने वाली महिलाओं ने बस को घेर लिया। वही छाता पहले दो से तीन डालर में दिया फिर एक डालर यानी 60-62 रूपये में और अंत में 5 युवान यानी 50 रूपये तक में। बस से उतरने से लेकर छाता खरीदने तक आधा भीग गये। 
    पता नहीं क्या कारण था कि थियानमान चैक पर आज अपार जन-समूह उमड़ पड़ा था। देहात से आये बच्चे महिलायें। कन्धे से कन्धा छिल रहा था। गनीमत थी कि सब लाइन में थे। लम्बी लम्बी लाइनें। आधे लोग बिना छाते के और छकाछक बरसता पानी। कहते हैं इस चैक पर पाँच लाख लोग समा सकते हैं। सचमुच बहुत बड़ा। बड़ी देर बाद हम लोग स्मारक के सामने से गुजर पाये। कई वर्ष पहले यहाँ हुए भीषण नरसंहार का दृश्य आँखों में समोते रहे फिर उस स्मारक से होकर गुजरे जहाँ चेयरमैन माओ का शव सुरक्षित रखा गया है।
    पुलिस यहाॅ चाक चैबन्द दिखी। हमारे समूह के एक वृद्ध दम्पति भीड़ में छिटक कर अलग हो गये। तेज हवा ने उनके छाते की कमाचियां उलट दीं। वह उन्हें भीगने से बचाने लायक न रहा। वे एक किनारे खडे़ काॅपने लगे। किसी से कोई बात करना या मदद लेना संभव न था। भाषा का संकट था। तब पुलिस आयी। उनके होटल का कार्ड देखकर, टैक्सी का इन्तजाम किया । पचास युवान यानी 500/- में टैक्सी वोले ने उन्हें एक किमी दूर होटल तक पहुंचाया। 
    चीन में सारी चीजें भारत से मंहगी हैं। फिर चीन में बनी चीजें विदेशों में इतनी सस्ती कैसे बिकती हैं? दो वर्ष पहले में टोरंटो के एक माल में घूम रहा था। सारी चीजों पर मेड इन चाइना दर्ज था। रिबन, पर्स या गुड़िया से लेकर सूटकेस तक पर। पूछने पर दुकानदार ने कहा- हम कुछ नहीं बनाते। सिर्फ बेचते हैं। पूरा बाजार, पूरा कनाडा चाइनीज माल से पटा पड़ा है। 
    चाइना का माल ही नहीं चाइना का आदमी भी। अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान मैं प्रसिद्ध अमेरिकी कथाकार जैक लण्डन का स्मारक देखने सान फ्रान्सिस्को गया। वहाॅ का एक बड़ा हिस्सा चाइना बाजार ही है जिसकी दुकानों पर लगे साइन बोर्ड में सबसे ऊपर चीनी (मंदारिन) भाषा के बडे़ बडे़ अक्षर विराजमान थे और उनके नीचे छोटे कद के अँग्रेजी अक्षर। पता चला कि सान फ्रान्सिस्को शहर की मेयर एक चाइनीज लेडी थीं। कोइ बता रहा था कि चीन की सरकार अपने निर्यातकों को भारी मात्रा में सब्सिडी देती है जिससे चीनी माल पूरी दुनिया में सस्ता बिकने के बावजूद चीनी निर्माताओं को घाटा नहीं होता। मेरी समझ में यह समीकरण अभी तक नहीं आया।
    थियानमान चैक पर जिस चीज ने सबसे ज्यादा ध्यान आकर्षित किया वह थे फूलों से बने करीब पचीस तीस फीट लम्बे तथा 5-6 फीट चैड़ाई वाले वर्गाकर स्तम्भ और मैदान के किनारे किनारे रंग बिरंगे फूलों के बार्डर। ताजे खिले फूलों की अल्पना। सचमुच सुरूचिपूर्ण सजावट। भीगती और ठंड से काॅपती देंह के अंदर मन पुलकित होता रहा। 
    यहाॅ से लंच के लिए गये उत्सव रेस्टोरेंट। रास्ते में हम ऐसी सड़क से गुजरे जिसके एक तरफ अपेक्षाकृत बडे़, साफ सुथरे, रंग रोगन युक्त दुमंजिले मकान या फ्लैट थे और दूसरी ओर पुराने पारम्परिक एक मंजिले बुझे रंग रोगन वाले। सिन्डी ने ध्यानकर्षित करते हुए बताया कि चाइना को यहाँ से देखिए। चीन में अब आपके इंडिया की तरह संयुक्त परिवार की अवधारणा नहीं रह गयी है। सड़क के इस तरफ इन बडे़ घरों में युवा पीढ़ी रहती है और दूसरी तरफ के पुराने घरों में बूढ़ी पीढ़ी। बूढ़ों को बातचीत के लिए साथी चाहिए और युुवाओं केे इन बूढ़ों की पुरानी यादों को सुनने के लिए न धैर्य है न इसकी जरूरत। इसलिए दोनों को ही एक दूसरे के साथ रहना पसन्द नहीं है। कभी कभार छुट्टी में बच्चे बूढे़ माॅ बाप के पास या माॅ बाप बच्चों के पास मिलने चले गये, इतना ही काफी है। सड़क के दोनों ओर जीवन जीने की रफ्तार अलग है। युवा चीनी अपने पड़ोसियों तक को नहीं जानता। वह बैंक बैलेंस बढ़ाने में जुटा रहता है। मैं खुद अपने सामने वाले फ्लैट के पड़ोसी को नहीं जानती। मैं और मेरा पति सबेर 7ः30-8ः00 बजे घर छोड़ देते हैं और आठ साढे़ आठ तक थके थकाए घर लौटते हैं। पड़ोसी को कब और क्यों जाने? पड़ोसी को तो छोड़िए, इसी एकल परिवार की अवधारणा तथा दोनों लोगों के कामकाजी होने के चलते हम अपने बच्चे को ही नहीं जान पाये। चैदह साल की उम्र में ही वह विगड़ गया। ड्रग एडिक्ट हो गया। हम उसे अच्छी शिक्षा देकर सुधारना चाहते हैं लेकिन वह हम लोगों से कोई लगाव ही नहीं रखता। उसे हास्टल में रखने को मजबूर हैं लेकिन हम पति पत्नी बारी बारी उसके हास्टल का खर्च उठाते हैं। ऐसी व्यवस्था कर दिए है कि मेरे व मेरे हस्वैंड के एकाउन्ट से उसके हास्टल की फीस आटोमेटिकली डिपाजिट होती रहती है।
    -बारी-बारी, अलग-अलग एकाउन्ट से फीस जमा करने की बात समझ में नहीं आयी।
    सिन्डी ने समझाया- ऐसा है, हमारे यहाॅ पति पत्नी अपना अलग एकाउन्ट रखते हैं। अपनी कमाई अपने एकाउन्ट में। हमारे यहाॅ तलाक की दर बहुत अधिक है। कब किसका तलाक हो जाय, कहना मुश्किल। इसिलए हर व्यक्ति अपनी कमाई अपने पास रखता है। परिवार में होने वाला खर्च आधा आधा बांट लिया जाता है।
    सब लोग थोड़ी देर तक चुप रह गये। फिर सिन्डी ने ही बात आगे बढ़ाई- मेरे बच्चे के बिगड़ने का एक कारण सिंगल चाइल्ड फेमिली का होना भी है। परिवार में दो या तीन बच्चे होते तो उनका सोसलाइजेशन ज्यादा अच्छे ढंग से होता लेकिन तब हम दूसरा बच्चा पैदा नहीं कर सकते थे। 
    -क्यों?
    -क्योंकि चीन में कुछ समय पहले तक एक ही बच्चा पैदा करने का कानून था। वर्ष 2008 के पहले अगर आप दूसरा बच्चा पैदा करना चाहते तो आपको सरकारी खजाने में में 8 से 20 हजार युवान जमा करने पड़ते। आम आदमी के लिए यह सौदा मंहगा पड़ता था। ऐसा सौदा चंद अमीर लोग ही कर सकते थे। कुछ पैसे वालेे लोग तो सिर्फ अगला बच्चा पैदा करने के लिए कुछ समय के लिए विदेश चले जाते थे। अब यह कानून बन गया है कि यदि आपका पहला बच्चा गर्ल चाइल्ड है और सात साल का हो गया है तो आप दूसरा बच्चा पैदा कर सकते हैं। 
    -गर्ल चाइल्ड वाले ही क्यांे?
    - चीन पारम्परिक रूप से किसानों का देश रहा है जहाँ पिता की जगह खेती का काम करने के लिए लड़के की जरूरत महसूस की जाती रही है। इसी के चलते लड़का प्राप्त करने की प्रबल इच्छा चीन में आज भी बरकरार है। इसी के चलते चीन में लड़का और लड़की का अनुपात 3ः2 हो गया है। इस अनुपात ने अपना जीवन साथी चुनने के काम में लड़कियों की स्थिति लड़कों की तुलना में बेहतर कर दी है। यहाॅं की लड़कियाँ अपने लिए वर का चुनाव करने में दिल से नहीं दिमाग से काम लेती हैं। वे अपने भावी पति में दस गुणों का होना आवश्यक मानती हैं। यथा- वह कम से कम 1.75 मीटर लम्बा हो। वह ठीक ठाक पढ़ा लिखा हो। वह मैनेजीरियल नौकरी में हो। वह बीड़ी, सिगरेट, शराब न पीता हो। वह पत्नी की माॅ का भी भरण पोषण व सम्मान करने को राजी हो। उसकी कोई स्वीट हार्ट यानी प्रेमिका न हो। वह वेतन का पैसा परिवार पर खर्च करने का वचन दे। वह बच्चों को उच्च शिक्षा देने के लिए कृत संकल्प हो।
    लेकिन यह तो कुल आठ ही शर्तें हुईं। बाकी दो क्या थीं, बहुत याद करने पर भी मुझे याद नहीं आ रही है। 
    सिन्डी ने बताया कि सुन्दर लड़की चीनी युवक की सबसे बड़ी चाहत होती है। लड़की के पीछे वे लाइन लगाये रहते हैं। उसको पाने के लिए कोई भी शर्त मानने को तैयार रहते हैं। भले बाद में वे इन शर्ताें को भूलने लगें। 
    उसने बताया कि चीनी आदमी पूरी तरह वर्तमान मंे जीता है। जब चीनी आदमी के पास पैसा आता है तो वह पहले गाड़ी बदलता ह,ै फिर बीबी बदलता है, फिर मकान बदलता है। 
    -और, चीनी औरत के पास पैसा आता है तो?
    -तो उसका जोर मर्द बदलने पर चाहे उतना ज्यादा न रहे पर वह एक हार्ड बाॅस जरूर बन जाती है। तब सारा घर का काम हस्वैंड के जिम्मे आ जाता है। खासकर कुकिंग, क्लीनिंग एन्ड डिश वाशिंग। 
    -और वाइफ के जिम्मे?
    -सिर्फ मेकअप, आफिस, शापिंग एंड स्लीपिंग।
    बस में बैठी हिन्दुस्तानी ‘वाइफें’ खुलकर मुस्करायी। एकाध ने अपने हस्बैंड के चेहरे की ओर भी देखा। 
    उत्सव रेस्टोरेंट का खाना अच्छा था। चावल की क्वालिटी उतनी अच्छी भले नहीं थी लेकिन खूब सफेद, रीझा हुआ और मीठा था। तन्दूरी रोटी, मूँग की दाल, आलू मटर की सब्जी, पापड़, दही, अचार और सलाद। चिकन करी और फ्राइड फिश का तो जवाब नहीं। अंत में सफेद रसगुल्ला और आइसक्रीम। बस पीने के लिए पानी नहीं था। पानी की जगह हर टेबल पर दो लीटर की पैक्ड कोका कोला तथा स्प्राइट की चार पाॅच बोतलें और डिस्पोजेबल गिलास। पानी की जगह इसी को पीजिए और जितना चाहे पीजिए। बस पानी मत माॅगिए। मिनरल वाटर लेंगे तो उसका पैसा अलग लगेगा। खाना जितना मर्जी खाइये। 
    उत्सव रेस्टेरोरेंट का मारवाड़ी मालिक 35-36 वर्षीय दीपक है। दीपक हर टेबल पर पहुंचकर पूछ रहा था- कुछ और चाहिए?  खाना कैसा बना है? कोई कमी? और क्या इम्प्रूव कर सकते हैं? उसका उत्साह और मिलनसारिता देखकर लग रहा था कि जल्दी ही यह अरबपति हो जायेगा। करोड़पति तो वह हो ही गया है। 
    दीपक अपने पंजाबी दोस्त के साथ ग्यारह साल पहले कलकत्ते से बीजिंग आया था। एक दो साल भटकने समझने के बाद दोनों ने चीनी लड़कियों से विवाह किया फिर इस दुकान को उन्हीं के नाम से किराये पर लेकर होटल खोला। तीन साल पहले इसे खरीद लिया। दोनो मित्र मिलकर इसे चला रहे हैं। दोनों के ससुराली जन इसे चलाने में सहयोग करते हैं। दीपक के साले बैरे का काम करते हैं। यह रेस्टोरेंट दिन में एक बजे से रात 9ः00 बजे तक खुलता है। अब उसका पंजाबी खत्री मित्र अलग रेस्टोरेंट खोलने जा रहा है।
     दीपक की पतली पीली सुन्दर चीनी पत्नी एक दम भारतीय गृहणी की तरह मुस्कराना और शरमाना सीख गयी है। दीपक की 6-7 वर्ष की बेटी एकदम मारवाड़ी बच्ची लग रही थी, स्वस्थ और गदबदी। रंगरूप सब पिता का। 
    लंच लेकर हम ’टेंपल आफ हेवन’ देखने गये। यह एक बहुत ऊंचे व लम्बे चैडे़ आधार पर बनाया गया स्तूप है जिसमें अपेक्षा कृत कम चैड़ाई और ऊँचाई का प्रवेश द्वार बना है। अंदर कोई मूर्ति नहीं है। खाली स्थान। गाइड ने बताया कि पहले यहाॅ केवल सम्राट ही पूजा करता था। आमजन को पूजा करने का अधिकार नहीं था। अंतिम सम्राट जिन्होंने यहाॅ पूजा की उनका नाम ‘पु इ’ था। पू इ माॅचू राजवंश का अंतिम शासक थे जो मात्र दो वर्ष की उम्र में 1908 में गद्दी पर बैठे । इनका जीवन बडे़ उतार चढ़ाव में बीता। चढ़ाव क्या, उतार ही उतार में। यद्यपि इनके पास तीन हजार रानियाॅ और रखैलें थी लेकिन कोई संतान नहीं थी। कुछ दिन तक ए जापान के कब्जे में रहे फिर द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान रूस द्वारा बंदी बना लिए गये। चीन के रिपब्लिक बनने पर रूस ने इन्हें चीन के हवाले कर दिया। चीन की जेल में इन्होंने कैदी नम्बर 981 के रूप में कई वर्ष बिताए। जेल में ये माली का काम करते थे। सन् 1959 में चीन की आजादी की दसवीं वर्षगाॅठ के अवसर पर इन्हें मुक्त किया गया। वृद्ध और अशक्त हो जाने पर इनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं था तो तत्कालीन प्रधानमंत्री चाउ एन लाई ने इनकी सेवा के लिए एक नर्श की व्यवस्था करा दी थी। यह दारूण कथा सुनकर मन अजीब सा हो गया। कितना बदकिस्मत बादशाह था। बिलकुल मुगल खानदान के अंतिम वंशज बहादुर शाह जफर की तरह। 
    यहाॅ से होटल लौटे तो सूरज डूबने की तैयारी कर रहा था। सात बजे डिनर के लिए होटल की लाबी में पहुँचना था। थक कर चूर थे। अगर अभी ऊपर कमरे में गये और विस्तर पर पड़ गये तो क्या पता डिनर के लिए नीचे उतरने की हिम्मत भी रहे या नहीं। होटल के बगल से एक गली अंदर की पुरानी बस्ती में जाती दिख रही थी। पत्नी ने कहा कि चलिए शहरी चीन का दूसरा चेहरा देख आया जाय। 
    गली में थोड़ा आगे बढ़ते ही पुराने लखनऊ या बनारस की तंग गलियों का नजारा दिखने लगा। वहीं खपरैल या टीन की छत। कहीं कहीं प्लास्टिक सीट की ढलवाॅ छत जिसके ऊपर दीवार की सीध में ठीक ऊपर ईंट या पत्थर रख कर उसे आॅधी में उड़ने से बचाने का जुगाड़ किया गया था। छोटे छोटे एक मंजिले दुमंजिले घर। घर या दड़बे। छत तक पहुंचने के लिए लकड़ी की सीढ़ियाॅ। मोटी मोटी भौंहो और होंठों वाले रोते मचलते मोटे गदबदे गोरे गंदे बच्चे।     धूसर कपड़ों में लिपटी पीले काले दाॅतों वाली घरेलू काम निबटाती औरतें। अंगीठी या चूल्हे से उठता धुॅआ। गन्दगी और कूड़ा। बेतरतीब खड़ी साइकिलें, ठेले, दौड़ती भागती कुड़कुड़ करतीं पालतू मुर्गियाॅं। बस कुत्ते नहीं थे। कुत्ते कहीं नहीं दिखे। कुत्ते भी शायद चीनी पूर्वजों के पेट में जा चुके हैं। एकाध जगह घर के बाहर टाट या प्लास्टिक के पर्दे भी दिखे। एकाध जगह, जहाॅ तक मैं समझ सका, उठौवा पाखाना भी। या यह मेरा भ्रम होगा। किसी से पूछने जानने का कोई जारिया नहीं था। भाषा का संकट। लोग हम अजनबियों को अजीब नजरों से देख रहे थे। खासकर औरतें। अंधेरा होने लगा था। गली में बिजली के खंभे दूर दूर पर थे और उन पर जलती रोशनी बहुत मंद थी। गाइड सिन्डी की हिदायत याद आयी- अपना पर्स और मोबाइल सॅभालकर.. लगता है हम लोग धीर धीरे एकाध किमी तक अंदर चले गये थे। पत्नी तो अभी जाने क्या क्या देख लेना चाहती थीं। आगे ही आगे बढ़ी जा रही थी। किसी स्त्री से अपनी देहाती अवधी में कुछ पूंछ भी लेती और भौचक चेहरा देकर खुद ही झेंप कर आगे बढ़ जाती। मैंने आवाज देकर उन्हें रोका। फिर ठेले साइकिलों, कोयले, चैलियों के ढ़ेर और बर्तन भाड़ों से बचते बचाते होटल लौटे। 
पानी में भीगने तथा कई किमी तक दिन भर चलने के कारण बहुत थकान थी। मोजे धीरे-धीरे जूते के अंदर ही सूख गये थे। लगभग यही हाल जर्सी का था। हमने डिनर के बाद ही कमरे में जाने का निश्चय कया। डिनर बहुत फकीरी था। रोटी त्रिभुज चतुर्भुज जैसी व चीमड़ थी। सूखी सब्जी मंे क्या क्या था पता नहीं चल सका सिवा आलू और लोबिया जैसी पतली फली के। चावल खिचड़ी जैसा गीला। लेकिन भूख बहुत तेज थी। कुछ ज्यादा ही खा गये। कमरे में जाकर किसी तरह जूते मोजे उतारे और लुढ़क गये। सबेरे चीन की दीवार देखने जाना था। इसके लिए जल्दी उठना था। नींद बहुत गाढ़ी आयी लेकिन इसी बीच चीन के अंतिम सम्राट पु इ सपने में आये। दुबले पतले लम्बे संम्राट खाकी हाफ पैंट और सफेद सैंडो बनियान पहने थे। उनके सिर पर मुकुट बंधा था। वे नंगे पैर थे और थोड़ा झुक कर हजारे से जेलर के गमले में लगे फूलों की सिंचाई कर रहे थे। दूर से उनका चेहरा मुझे अपने बड़के मौसिया जैसा लगा । मैं उनका हाल चाल पूछने के लिए आगे बढ़ने ही वाला था कि फोन की घंटी घनघनाने लगी । यह सबेरे छः बजे की ‘वेक-अप’ काल थी जो थोड़ी देर तक मुझे सपने का हिस्सा ही लगती रही । 

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