Tuesday, June 23, 2015

शिवमूर्ति की रचनाओं पर अन्य लेखकों के मत

शिवमूर्ति की रचनाओं पर अन्य लेखकों के मत
1- भाषा पर शिवमूर्ति की पकड़ गजब की है। अपनी भाषा से वे पूरा दृश्य पैदा कर देते हैं। उनके बिंब इतने सजीव होते हैं कि कहानियां पढ़ते हुए आप पुस्तक से निकल कर उनके द्वारा वर्णित गांव में टहल रहे होते हैं। जब वे लिखते हैं कि घर्र....घर्र.... करके ट्रक स्टार्ट हुआ तो ऐसा लगता है कि ट्रक हमारी आंखों के सामने से निकला है। भाषा से दृष्य बनाने की ऐसी क्षमता बहुत कम लोगों में होती है। 
शिवमूर्ति की छवि प्रबन्धक लेखक की नहीं है। वे अपने आप को प्रक्षेपित नहीं करते। यही कारण है कि उन्हें पुरस्कार भी कम मिले हैं और उनकी चर्चा भी अपेक्षाकृत कम हुर्इ है। लेकिन उनका पाठक वर्ग इतना मजबूत है कि वे शिवमूर्ति को ढूंढ़-ढूंढ़ कर पढ़ते हैं। अपनी दो तीन रचनाओं के साथ ही उन्होंने प्रसिद्धि का शिखर छू लिया। 
ममता कालिया - लमही, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 पृष्ठ 246
2- शिवमूर्ति के पास अनुभवों का जो जटिल यथार्थ है उससे उनकी यह समझ मजबूत होती है कि रचना में किसके प्रति संवेदनसशील होना है और किसके प्रति क्रूर या सरस। यहां शिवमूर्ति कुछ उसी तरह का सन्तुलन साधते हैं जैसी रस्सी पर बांस लेकर चलने वाला नट अपने हुनर से साधता है। उनकी रचनाओं में तमाम शेडस हैं। जिससे उनकी लेखकीय छवि व्यापक बनती है। मैं शिवमूर्ति की रचनाओं की फैन हूं और मुझे उनसे और भी उम्दा रचनाओं की उम्मीद है। 
चित्रा मुदगल - लमही, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 पृष्ठ 248

3- शिवमूर्ति की रचनाओं में कथावस्तु और चरित्र इतने प्रबल हैं कि वे भाषा के किसी भी ऊपरी तामझाम और छलावे के बिना अपने को पाठकों के बची धमाकेदार तरीके से स्थापित कर लेते हैं। शिवमूर्ति ने बहुत कम लिखा है लेकिन बहुत अच्छा लिखा है।
दूधनाथ सिंह - लमही, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 पृष्ठ 243
4 - शिवमूर्ति की सबसे बड़ी ताकत यह है कि वे अपनी जड़ों को कभी भूलते नहीं। उन्हें बड़े ही पारदर्शी तरीके से प्रस्तुत करते हैं। कहानियों के अतिरिक्त शिवमूर्ति की जो जीवन परक रचनाएं हैं वह भी काफी स्पष्ट व अपीलिंग हैं। बिल्कुल पारदर्शी। इतने बडे़ पद पर होने के वावजूद वह अपने बचपन या लड़कपन का जिक्र करते हैं तो किसी तरह का घालमेल नहीं करते। शिवमूर्ति का आत्म विश्वास इतना प्रबल है कि वह कुछ छिपाते नहीं। उनकी व्यापक स्वीकृति की यही वजहें हैं। 
शेखर जोशी  - लमही, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 पृष्ठ 242
5 - शिवमूर्ति का लेखन विशिष्ट है। उन्हें प्रेमचंद और रेणु के साथ रखना ठीक नहीं होगा। उनका अपना स्थान है। अच्छे लेखक हमेशा ही पाठकों और आलोचकों के बीच सराहे जाते हैं। शिवमूर्ति इसके अपवाद नहीं हैं। अपनी कहानियों से उन्होंने अच्छा स्थान बनाया है इसलिए सराहे जाते हैं।... एक ऐसा लेखक जो अच्छा और सार्थक लिखता है। 
मुद्राराक्षस - लमही, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 पृष्ठ 241
6 - शिवमूर्ति किसान जीवन को अच्छे से जानते हैं। जानने का मतलब ग्राम्य संस्कृति को, वहां के समाज को, परिवार को, वहां के राजनैतिक तंत्र और ढांचे को भली भांति समझते हैं। वह किसानों की कहानियां लिख रहे हैं, पर समृद्ध की नहीं, वंचित की, शोषित की लिख रहे हैं। वह शोषण की नहीं, शोषित किसानों के जीवन की चुनौतियां लिख रहे हैं।... उन्होंने ग्रामीण जीवन में दलित स्त्री के शोषण को जिस तरह अपनी कहानियों में रेखांकित किया है वह दुर्लभ है। उन्होंने स्त्री के शोषण को कर्इ स्तरों पर देखा है। उन्होंने उसके शोषण की वह पीड़ा भी लिखी है जिसे वह अपने ही परिवार में अपने ही लोगों के कारण झेल रही हैं। इसलिए मैं कहूंगा कि उनकी कहानियों के स्त्री चरित्र बहुत प्रभावशाली हैं जिसमें 'तिरिया चरित्तर की नायिका को भुलाया नहीं जा सकता।... शिवमूर्ति के पास बहुत अच्छी भाषा है। ग्राम्य जीवन की, किसान जीवन की ऐसी भाषा इस समय किसी के पास नहीं है। उनके पास तदभव शब्दों का भंडार है। उनकी कहानियों में पद ही पदार्थ का रूप ग्रहण कर लेता है। यही उनकी भाषा का जादू है। 
डा. विश्वनाथ त्रिपाठी - लमही, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 पृष्ठ 240-241
7 - वरिष्ट हिन्दी लेखक शिवमूर्ति ने अपने सन 2004 में लिखित उपन्यास तर्पण द्वारा कर्इ मायनों में दलित शोषण केनिद्रत लेखन को एक नये मुकाम तक पहुंचा दिया है। वक्त और बदलते राजनीतिक सामाजिक परिवेश को देखते हुए इसकी सख्त जरूरत भी थी। साहित्य में दलित वर्ग को केवल निहायत लाचार और निरीह शोषित शिकार के रूप में चित्रित करने के दिन अब लद गये। संभवत: तर्पण वह चिर प्रतीक्षित उपन्यास है जिसने दलितों को इस एकांगी भूमिका से मुक्त किया है। 
जर्मन इन्डोलिस्ट इनेश फारनेल - लमही, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 पृष्ठ 126
8 - शिवमूर्ति का उपन्यास 'आखिरी छलांग कल्पना से कहीं अधिक भयावह यथार्थ को पकड़ने की र्इमानदार कोशिश है। शिवमूर्ति के कथा साहित्य में ग्रामीण जीवन के भरोसेमंद दृष्य मिलते हैं। कायदे से देखा जाय तो ग्रामीण परिवेश की जीवंत दृष्यात्मकता में पुनर्रचना करना शिवमूर्ति की ऐसी खासियत है जो समकालीन कथाकारों को उनसे रश्क करने पर बाध्य कर सकती है।
प्रखर आलोचक प्रियम अंकित - लमही, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 पृष्ठ 139
9 - आजादी के बाद का भारत, वह भी ग्रामीण भारत अपनी तमाम विद्रूपताओं और जटिलताओं के साथ यदि किसी कथाकार के कथा साहित्य में संजीदगी और व्यापकता के साथ अभिव्यक्त हुआ है तो वह कथाकार हैं शिवमूर्ति। शिवमूर्ति मन के मनोविज्ञान को बखूबी समझते हैं। उन्हें मन की पकड़ है और आस-पास की परिसिथतियों का अनुभव। किसी भी कहानी में व्यक्त परिवेश का चप्पा-चप्पा जैसे उनका देखा हुआ और जिया हुआ लगता है। 
शिवमूर्ति की कहानियों में कथ्य जितना प्रभावशाली और मारक है, उनकी भाषा उससे भी ज्यादा बेधक। आदमी की अच्छार्इ बुरार्इ को पकड़ना और उसे उन्हीं की भाषा में व्यक्त करना उनके जैसा अनुभवी और उस भाषा को गहरायी से जानने वाला विलक्षण कथाकार ही कर सकता है। 
वरिष्ठ कथाकार उर्मिला शिरीश  - लमही, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 पृष्ठ 71 व 75
10 - शिवमूर्ति की कर्इ कहानियां अपनी पठनीयता के बल पर लम्बे समय तक स्मृति में अपना स्थान बनाए रखती हैं। गांवों को लेकर ऐसी पठनीय कथायें हिन्दी साहित्य जगत में सचमुच बेहद दुर्लभ हैं।... शिवमूर्ति का साहित्य स्वतंत्रयोत्तर भारत के वर्ण और जाति के पंक में आकंठ धंसे गांवों की हकीकत से परिचित कराने वाला साहित्य है। उनके गांव रहस्यमय कल्पनाओं से आवृत्त भी नहीं हैं जहां इन्सान से ज्यादा ध्यान चिडि़या की टीं टीं-टूं टूं पर जाय। उनकी कहानियों में चित्रित गांव मेंं हर तरफ आतंक है और यह आतंक सीधी गोलाबारी या हिंसा से नहीं बलिक महीन स्तरों पर सरकार-राजनीति और सामंती संस्कृति के बीच से पैदा षड़यंत्रों के सहारे फैलाया गया है। 
प्रसिद्ध आलोचक वैभव सिंह - लमही, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 पृष्ठ 53
11 - 'सिरी उपमा जोग कहानी में ऐसा क्या है जो यह कहानी लगभग तीस साल के अंतराल को पाटते हुए आज भी उसी प्रकार ताजा की ताजा है। कहानी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह एक सहज सरल और तरल कहानी है।... कहानी को भूल जाओ, लेखक को भूल जाओ लेकिन (इस कहानी की) लालू की मार्इ को कैसे भूला जाय। जहां तक मुझे याद है, इस कहानी को मैने कर्इ-कर्इ बार कर्इ-कर्इ प्रत्रिकाओं या इंटरनेट पर पढ़ा। जब भी पढ़ा तो लालू की मार्इ उसी प्रकार सामने खड़ी थी। अपने प्रश्न लेकर। लालू के बप्पा ने भले ही लालू की मार्इ को भुला दिया लेकिन मैं उसके बाद फिर लालू की मार्इ को नहीं भुला पाया। 
चर्चित कथाकार पंकज सुवीर - लमही, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 पृष्ठ 95
12 - 'त्रिशूल' भारतीय वर्ण व्यवस्था वाले हिन्दू समाज की जातिवादिता, धार्मिकता और सामंती मानसिकता को तार-तार कर देता है। त्रिशूल की सफलता और सार्थकता इस बात में भी है कि वह मुसिलम दलित पिछड़ों के माध्यम से प्रतिरोध और विद्रोह का परिप्रेक्ष्य निर्मित कर जनजागृति का सर्जनात्मक कार्य करता है। इनकी यही जागृति, यही चेतना समानता, मानवीय अधिकारों और मूल्यों के लिए प्रतिरोध का परिप्रेक्ष्य निर्मित करता है जिसे त्रिशूल की घटनाओं और पात्रों के माध्यम से देखा जा सकता है। ऊंची जाति के जनार्दन तिवारी यदि छोटी जाति के बाबा को प्रमाण नहीं करते हैं तो बाबा ही उन्हें कहां प्रणाम करते हैं। 
त्रिशूल भारतीय साहित्य और समाज का ऐसा 'टेक्स्ट' है जिसमें वर्ण जाति, धर्म समप्रदाय राजनीति, अर्थनीति और संस्कृति की भेद-मूलक संरचनाएं आपस में इस तरह गुंथी हुर्इ हैं कि भारतीय लोकतंत्र भी उन्हीं के सहारे 'सरवाइव' कर रहा है, 'भेद' को बनाए रखकर। लेकिन जब तक भेद रहेगा तब तक अन्याय भी रहेगा। 
दुर्गाप्रसाद गुप्त - लमही, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 पृष्ठ 224-125
13 - शिवमूर्ति शब्दों के पारखी हैं। शब्दों को चुनने की और उसे अपनी कथा में बरतने की उनकी तमीज काबिले तारीफ है। शिवमूर्ति की भाषा में निहित बेधकता, सम्प्रेषणीयता, सांगीतिकता, चित्रात्मकता सांकेतिकता, ध्वन्यात्मकता आदि गुणों के मूल में उनकी 'शब्द शक्ति' को सूंघने महसूसने की क्षमता है। वे एक साथ अभिधा, लक्षणा और व्यंजना का मारक इस्तेमाल करने वाले कथाकार हैं।... अपने सुदीर्घ रचनाकाल में अत्यन्त संक्षिप्त रचनाओं की सूची प्रस्तुत करने वाले शिवमूर्ति के कथासाहित्य ने आज के दौर में एक दुर्लभ सी लगने वाली ख्याति और विश्वसनीयता दोनों अर्जित किया है। यही कारण है कि अल्प लेखन के बावजूद शिवमूर्ति हिन्दी कथा साहित्य में विश्वसनीयता के किसी 'हालमार्क की तरह हैं। 
प्रसिद्ध आलोचक राहुल सिंह - लमही, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 पृष्ठ 40
14- शिवमूर्ति हिन्दी कथा साहित्य में एक ऐसा नाम है जिसकी अपनी एक अलग पहचान ही नहीं बलिक जो सामाजिक जीवन के गंभार सरोकारों और संवेदनाओं की एक विशिष्ट निर्मिति के चिंतक भी हैं। शिवमूर्ति की कहानियों में ग्रामीण जीवन की विषमताएं और अन्र्तविरोध नग्न यथार्थ के रूप में अभिव्यकित पाते हैं। जहां जाति व्यवस्था की गहरी जडे़ं मानवीय सम्बन्धों को छिन्न-भिन्न करती दिखायी देती हैं। जहां स्त्री और दलित को लगातार गहन यातना और विवशता में जीना पड़ता है। शिवमूर्ति ग्रामीण जीवन की जटिलताओं और विषमताओं को अभिव्यक्त करने में सिद्धहस्त कथाकार हैं। 
वरिष्ट दलित चिंतक और कथाकार ओम प्रकाshshr वाल्मीकि - लमही, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 पृष्ठ 42
15 - शिवमूर्ति की कहानियों को पढ़ते समय उनके स्त्री पात्रों की मनोदशा को हम उनके साथ घटित हो रही घटनाओं के सन्दर्भ में जिस बेचैनी, उत्सुकता व संवेदना के साथ महसूस करते हैं वह अदभुत है। किसी भी अन्य कथाकार की कहानियां पढ़ते समय ऐसा महसूस नहीं होता। प्रेमचंद की कहानियां पढ़ते समय भी नहीं। इसका मुख्य कारण है शिवमूर्ति द्वारा इन कथापात्रों के संवादों में आम बोलचाल की खाटी अवधी भाषा का इस्तेमाल। इस भाषा में अभद्र गालियों, मुहावरों व आक्षेपों का नैसर्गिक व भरपूर इस्तेमाल होता है। कलात्मक आलोचना की दृषिट से देखा जाय तो शिवमूर्ति एक नया ही सौन्दर्य शास्त्र गढ़ते नजर आते हैं। वे अपने स्त्री कथा पात्रों को उतने ही सुन्दर अथवा दीन हीन रूप में हमारे सामने लाकर खड़ा कर देते हैं जैसे वे वास्तविक जगत में होते हैं। इन कथा पात्रों में बाल-विवाह की त्रासदी व कुपोषण तथा गरीबी की शिकार बहुएं हैं, पतिनयां हैं, मायें हैं, वृद्धायें हैं। 
शिवमूर्ति की कहानियां स्त्री विमर्श की कहानियां हैं।... उनका स्त्री विमर्श समाज की उन निम्नवर्गीय औरतों के शारीरिक व आत्मीय सौन्दर्य, दैहिक ताप व उत्पीड़न जिजीविशा, प्रतिरोध, राग द्वेश परिवारिक क्लेश आदि पर केनिद्रत हैं जो दूर दराज के गांवों में घर जवार की सीमाओं में कैद होकर अपना जीवन गुजार रही हैं। इनमें अनपढ़, गरीब, विस्थापित बाल ब्याहता, श्रमिक शोशित व उपेक्षित वर्ग की साधारण स्त्रियों  का जिंदगीनामा है, जिसमें न हार की फिक्र है, न जीत की। बस संघर्ष ही संघर्ष है, वेदना ही वेदना है। 
प्रसिद्ध कवि व आलोचक उमेश चौहान - लमही, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 पृष्ठ 57-64
16 - शिवमूर्ति पाठकों को इसलिए रूचते हैं क्योंकि उनके यहां शिल्प है, शिल्प सजगता नहीं, कला भरपूर है लेकिन कलाबाजी नहीं। विचार है लेकिन विचारधारा का आतंक नहीं। जीवन दर्शन है लेकिन दार्शनिकता का घटाटोप नहीं। जाति असिमता की चेतना है लेकिन जातिवादी जहर नहीं। वे पाठकों से बातियाते हैं उन्हें बतलाते नहीं।... शिवमूर्ति में पर्यवेक्षण गजब का है।... उनके पास असंख्य लोकगीत, लोककथाएं लोकवार्ताएं और कहावतें हैं। 
प्रसिद्ध कथाकार सृंजय - लमही, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 पृष्ठ 163
17 - शिवमूर्ति की कहानियां दलित असिमता को र्पुनपरिभाषित करती हैं। वे दलित असिमता के बारे में कहते ही नहीं, उसे सिद्ध भी करते हैं। शब्द दर शब्द, पंकित दर पंकित, कहानी दर कहानी, वह निरन्तर दलित और वंचित वर्ग की असिमता का साहित्य रचते रहे हैं।... शिवमूर्ति ने कम लिखा है लेकिन थोडे़ में ही बहुत लिखा है। जरूरत है, उसमें गुंथे हुए सूत्रों को बिलगाने की, उन्हें समझने की। वह अपनी बिल्कुल अलग तरह की कहानियों की दुनिया के फक्कड़ और बिना पगड़ी के सरदार हैं। 
कथाकार विवेक मिश्र - लमही, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 पृष्ठ 162
18 - शिवमूर्ति ग्रामीण जीवन के विश्वसनीय कथाकार है। किसान जीवन को अपनी रचना का विषय उन्होंने किसी साहितियक प्रवृतित या साहित्यक आकांक्षा के तहत नहीं अपनाया है। वे ग्रामीण और किसान जीवन के सहज जानकार हैं। उनका व्यकितत्व रहन सहन बोली बानी- सब कुछ ग्रामीण और किसानी है, एक आंतरिक ठसक के साथ। जितने विनम्र हैं उतने ही दृढ़। यह भी लगता है कि उन्हें अपने लेखन के प्रति आत्मविश्वास है। इस आत्मविश्वास का आधार रचित वस्तु की गहरी सूक्ष्म और व्यापक जानकारी है। निजी फर्स्ट हैंड जानकारी। 

मरण फांस से पार जाने की छलांग

प्रसिद्ध आलोचक डा. विश्वनाथ त्रिपाठी - मंच जनवरी - मार्च 2011 पृष्ठ 32
19 - 'कसार्इ बाड़ा' और 'तिरिया चरित्तर से लेकर 'आखिरी छलांग तक का जो परिदृष्य है वह समकालीन भारत का यथार्थ रूप है। परिवार, थाना, कोर्ट, कचेहरी, स्त्री, दलित, किसान, धर्म, साम्प्रदायिकता, खेती, नौकरी सबसे जो एक समग्र चित्र निर्मित होता है, वह असुन्दर और दागदार है। 'रंगे सियार' भरे पडे़ हैं। थाना दारोगा के वास्तविक चित्र कर्इ कहानियों में हैं। शिवमूर्ति ने झूठ को कर्इ रूपों में चित्रित कर यह बताया है कि यह सर्वत्र फैला हुआ है।
शिवमूर्ति का कथा संसार
प्रख्यात आलोचक रविभूषण - मंच जनवरी - मार्च 2011 पृष्ठ 43
20 - जब वे (शिवमूर्ति) गोष्ठियों में बोलते हैं तो उनका सीधे सादे पूरबी गंवर्इ मानुष का चोला उतर जाता है और हम अपने एक जहीन और सुलझे हुए बुद्धिजीवी को पाते हैं जिसका अध्ययन मनन और चिंतन दो टूक और वस्तुनिष्ठ है। हां, कटु आलोचना, पीठ पीछे निन्दा और किसी को भी नीची नजर से देखने का व्यसन उनमें नहीं है। वैसे भी साहित्यकारों के सभी फितरती ब्यसनों से वे दूर हैं, सिवाय एक के। इस हातिमतार्इ में बस एक ही कमजोरी है- नारी सौन्दर्य के प्रति अदम्य आकर्षण। सुन्दर स्त्री को देख कर वे मन ही मन प्रणाम करते हैं। विधाता की किसी भी अनुपम कृति की सहराहना न करना इनकी दृष्टि में अक्षम्य अपराध है। 
कसार्इबाडे़ में बुद्ध
वरिष्ठ कथाकार राजेन्द्र राव - मंच जनवरी - मार्च 2011 पृष्ठ 103

21 - शिवमूर्ति की कहानियां अपनी अन्तर्वस्तु और कथारस के लिए ज्यादा प्रशंसित हुर्इ हैं।... शिवमूर्ति ने अपनी कहानियों से सिद्ध किया कि कथारस वह चीज है जिसके साथ रचबस कर अन्तर्वस्तु पाठक की आत्मा तक उतर जाय और उसे रोमांच और सौन्दर्य से भर दे। या पाठक को ऐसी बेचैनी और तनाव में ले जाय कि उसकी नींद ही उड़ जाय। आप यकीन करिए, 'तिरिया चरित्तर' कहानी पढ़ने के बाद मैं और मेरी पत्नी उस रात ठीक से सो नहीं पाये थे। 
दलित यथार्थ और स्त्री संवेदना के अप्रतिम कथाकार 
वरिष्ठ कथाकर मदन मोहन  - मंच जनवरी - मार्च 2011 पृष्ठ 105
22 - शिवमूर्ति में प्यार और अनुराग का वह गहरा भाव ही रहा है जो उनकी कहानियों में न केवल मनुष्य के प्रति छलकता दिखायी पड़ता है बलिक मनुष्येतर जीव जंतुओं के प्रति भी ममत्व और नेह में कोर्इ कमी दिखलायी नहीं पड़ती। इस सन्दर्भ में अपने समकालीनों के बीच शिवमूर्ति एक ऐसे विलक्षण कथाकार हैं जिनमें संवेदना की अनंत गहरायी है। इसके अनेक साक्ष्य उनकी कहानियों में सहज ही उपलब्ध हैं। 
दलित यथार्थ और स्त्री संवेदना के अप्रतिम कथाकार 
वरिष्ठ कथाकार मदन मोहन - मंच जनवरी - मार्च 2011 पृष्ठ 104
23 - शिवमूर्ति भले किसी खास संगठन से न जुडे़ हों लेकिन उनके लेखन में विचारधारा सुस्पष्ट है। आप उन्हें पढ़िये। उनकी कहानियों में एक विशेष प्रकार का कथारस है जो आप को बांधे रखता है। शिवमूर्ति की रचनाओं से यह साबित होता है कि किसी संगठन विशेष से न जुड़ कर भी विचारवान या विचारयुक्त लेखक बनना सम्भव है। शिवमूर्ति एक विचारवान लेखक के रूप में ही सामने आते हैं।... और एक अजीब बात मुझे लगी जो किसी बडे़ अधिकारी में नहीं होती। जिस पद पर वे कार्यरत थे वहां तमाम प्रकार की सुख सुविधाएं हर प्रकार की सम्पन्नता थी, उसके बावजूद उनके अंदर एक साधारणता थी। मैंने देखा, शिवमूर्ति के अंदर एक बहुत ही सहज और सामान्य व्यकित है। उनकी साधारणता की असाधारणता ने मुझे बहुत आकर्षित किया। 
वरिष्ट कथाकार अब्दुल बिसमिल्लाह
मंच जनवरी - मार्च 2011 पृष्ठ 239
24 - शिवमूर्ति हमारे समय के अत्यन्त महत्वपूर्ण कथाकार हैं। किसी भी नये हिन्दी पाठक या अहिन्दी भाषी पाठक को हिन्दी साहित्य से स्नेह हो जायेगा यदि उसे शुरू में शिवमूर्ति की कहानियां पढ़ने को मिल जाये। उनकी सभी कहानियां जीवन के अनुभवों से छन कर निकली हुर्इ हैं इसलिए उन्हें पढ़कर आप एक साथ भौचक आहत, उदास और स्पनिदत होते हैं तथा निखर जाते हैं। आप भौचक होते हैं क्योंकि वे जिस संवेदना को प्रशस्त करते हैं उसका मर्म आपके भीतर गड़ जाता है। आप निखर जाते हैं क्योंकि साहित्य, कला आपको उदात्त कर देती है। उनकी कहानियों से आप अपने समकालीन समाज, राजनीति, गरीबी, जातिवाद, छलप्रपंच और शोषण के अनेकानेक रंग और तरीकों से वाकिफ हो जाते हैं। 
कथाकार ओमा शर्मा
संवेद अंक 73-75 पृष्ठ 234
25 - जिस कथाक्षेत्र से शिवमूर्ति आते हैं वहां उनका किसी से कोर्इ मुकाबला है ही नहीं। वहां फिलहाल वे अकेले राज करते नजर आ रहे हैं। 
कथाकार राजकुमार गौतम - संवेद अंक 73-75 पृष्ठ 235
26 - शिवमूर्ति के उपन्यासों और कहानियों से यह साबित होता है कि हिन्दी कथा साहित्य प्रेमचंद की परम्परा को भूला नहीं है। भारतीय ग्रामीण जीवन की अनेक त्रासदियों के कथाकार हैं शिवमूर्ति, एक ओर उनकी कहानियों में गांव की स्त्रियों की अपार यातना का दर्द है तो दूसरी ओर उपन्यास में किसान जीवन की तबाही के कारणों और रूपों की पहचान। किसानों की आत्महत्या की समस्या उनके उपन्यास 'आखिरी छलांग' की केन्द्रीय समस्या है। 
वरिष्ठ आलोचक मैनेजर पांडे, वागर्थ जून 2014 पेज 24
27 - गहरी अंतर्दृष्टि एवं उचित परिप्रेक्ष्य के अभाव में जहां समाज व राजनीति के बडे़ मुददे भी सरलीकृत होकर रह जाते है। वहीं सरल सी दिखने वाली सतह की सच्चाइयां कैसे राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य प्राप्त करती हैं, इसका एक उदाहरण शिवमूर्ति का उपन्यास 'त्रिशूल' प्रस्तुत करता है। कलेवर में क्षीणकाय होने के बावजूद साम्प्रदायिकता और सामाजिक न्याय के मुद्दे को रोजमर्रा की घटनाओं के माध्यम से शिवमूर्ति ने प्रामाणित अभिव्यकित दी है। उपन्यास में महमूद की त्रासदी भारतीय समाज के सेकुलर माडल की त्रासदी है।... बाबरी मिस्जिद से जुड़ी घटनाओं एवं मंडल कमीशन की पृष्ठभूमि पर केनिद्रत यह औपन्यासिक कथा भारतीय जीवन में साझी संस्कृति एवं सामुदायिक जीवन में आती दरार को अत्यन्त बेबाकी के साथ उद्घाटित करती है। वर्णाश्रम व्यवस्था एवं व्राह्मणवादी संस्कृति की नग्न सच्चाइयों का खुलासा करने के साथ-साथ उपन्यासकार ने नयी शक्तियों के उभार के संकेत भी दिए हैं। शिवमूर्ति की लोकभाषा, लोकमुहावरे व लोकजीवन में गहरी पैठ है। उनकी ये सारी खूबियां नर्इ अर्थछवियों के साथ 'त्रिशूल में उपस्थित हैं। 
वीरेन्द्र यादव - 'नवें दशक में औपन्यासिक परिदृष्य' पहल पुसितका मार्च 1998 पृष्ठ 38 
28 - उपवमूर्ति ने नवे दशक में जिन गांवों को स्थापित किया वे नास्टेलिजया के गांव नहीं हैं। वे आज के गांव हैं। वहां के लोगों की निराशा, संघर्ष, जिजीविशा और रागद्वेष उनकी कहानियों में वास्तविक रूप में आये हैं, जैसा बहुत कम लेखकों के कथा साहित्य में पाया जाता है।... उपवमूर्ति का कथा साहित्य किसी सिफारिस का मोहताज नहीं है। उनका योगदान ग्रामीण और निम्नवर्ग के पात्रों को उठाने में है, जिन्हें और लोगों ने नहीं उठाया। 
प्रख्यात कथाकार मैत्रेयी पुष्पा : मंच जनवरी-मार्च 2011 पृष्ठ 237
29 - शिवमूर्ति का कथा साहित्य कर्इ साहितियक धाराओं से अन्त:सम्बद्ध है। पारम्परिक आंचलिक कथा साहित्य, दलित लेखन, अमरीकी डर्टी रियलिज्म और अफ्रीकी अमेरिकी ब्लैक साहित्य से। डर्टी रियलिज्म वास्तव में यथार्थवाद का ही एक उपवर्ग और साहितियक मिनिमलिज्म का एक प्रभेद है। उस पीढ़ी के कुछ लेखकों को चिन्हित करते हुए 'ग्रान्टा के सम्पादक बिल ब्रफोर्ड ने उनके लेखन को 'बेलिसाइड' (पेट की भूख का लेखन ) बताते हुए उसकी कुछ विशेषताएं निर्दिष्ट की थीं- कामेडी की छोर छूते हुए व्यंग्य, हिंस्त्र कोप अथवा गहरे अवसाद से विरूपित पात्रों के बिगाड़ के खुलासे, अनलंकृत किन्तु करूणा पर बल देती हुर्इ भाषा, सिथतियों के विवरण और उनके प्रति आत्मीयता की एक प्रच्छन्न धारा। शिवमूर्ति की कहानियां अकालदण्ड, कसार्इबाड़ा तथा भरतनाटयम मुझे इन्ही विशेषताओं से भरपूर लगती हैं। 'भरतनाट्यम' के उस बेरोजगार युवक के बारे में उसके पिता का वह भयावह कथन किसे याद नहीं रहेगा- साला चलता कैसे है, शोहदों की तरह। चलता है तो चलता है, साथ में सारी देंह क्यों ऐंठे डालता है। दरिद्रता के लक्षण हैं ए, घोर दरिद्रता के। और देखता कैसे है, शनिचरहा। इसकी पुतली पर शनीचर वास करता है। सोने पर नजर डालेगा तो मिट्टी कर देगा। 
इस युवक का वृतान्त हमें चार्ल्स ब्रकोवस्की के उपन्यास फैक्टोटम के नायक की याद दिलाता है। इस सन्दर्भ में मैं रेमंड कार्वर का नाम लेना चाहती हूं जिन्हे 'मिनिमलिज्म का उस्ताद माना जाता है। निचले दर्जे के मजदूर पात्रों को चित्रित करते हुए वे उन्हें ऐसे वाक्य दे डालते थे जो उनके पाठकों पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं : डोन्ट कम्पलेन, डोन्ट एक्सप्लेन (फरियाद मत करना। सफार्इ मत देना।) या- वी न्यू अवर डेज आर नम्बर्ड, वी हैड फाउल्ड अप अवर लाइव्ज (हम जानते थे कि हमारे दिन गिने चुने हैं। और हम अपने जीवन को उलझा चुके हैं) अपने कथा साहित्य में शिवमूर्ति ऐसी ही कुछ फाउल्ड अप लाइव्ज लाया करते हैं जो अपने उलझे हुए जीवन में परिवर्तन चाहते हैं या प्रतिशोध।
वरिष्ट कथा लेखिका दीपक शर्मा
संवेद 73-75 पृष्ठ 40-41
30 - शिवमूर्ति जमीन से जुड़े रचनाकार हैं। जनजीवन से जुडे़ होने के कारण उनके पास व्यापक जीवन अनुभव हैं। इस कारण उनकी रचनाओं में हमे हमारे समाज का बदलता हुआ चेहरा दिखायी देता है। अगर हमारे समय और समाज को समझना है तो शिवमूर्ति जी इसके लिए आवश्यक कहानीकार हैं। शिवमूर्ति का दर्जा काफी ऊंचा है। वे शीर्ष रचनाकारों में से एक हैं। हिन्दी साहित्य उन्हें उसी रूप में याद रखेगा। 
असगर वजाहत (वरिष्ठ उपन्यासकार तथा नाटककार) संवेद 73-75 अंक पृष्ठ 231 पर 
31 - शिवमूर्ति की 'तिरिया चरित्तर' पढ़ कर शेक्सपियर की याद आती है। शिवमूर्ति की कहानियों की जो बनावट है वह भी शेक्सपीयर जैसी है। उनके अंदर क्लासिक हाइट है जो ग्रीक नाटकों में होती है। उन्होंने कम लिखा और महान लिखा। 
वरिष्ठ कवि इब्वार रब्बी, संवेद 73-75 अंक पृष्ठ 231

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शिवमूर्ति के कुछ कथन
1. सिद्धान्तों से जीवन नहीं बना, जीवन से सिद्धान्त बने हैं। जैसे हाइड्रोजन और आक्सीजन एक खास अनुपात में मिलकर पानी बनाते हैं लेकिन पानी का गुण धर्म इन दोनों गैसों से बिल्कुल अलग हो जाता है। जिसे सृजन कहते हैं वह इस आनुपातिक योग का प्राप्य होता है। जैसे मुर्गी अण्डे को सेती है तभी अंडे के अंदर का पदार्थ जीवन मेंं बदलता है, उसी तरह सृजन की प्रक्रिया है।
2. कहानी लेखन आर्ट तो है ही साथ ही यह क्राप्ट भी है। कहानी में प्रभावी कन्ट्रास्ट पैदा करने के लिए आपको भिन्न गुण धर्म वाले शेड्स और करैक्टर पैदा करने होते हैं। सीधे सादे चरित्रों से कहानी कैसे निकलेगी। ड्रामा कैसे निकलेगा। 
3. सामप्रदायिकता और जातिवाद दोनों प्रमुख सामाजिक बीमारियां हैं। एक नागनाथ है तो दूसरा सांपनाथ। लेकिन जातिवाद साम्प्रदायिकता से ज्यादा विभाजनकारी है। सामप्रदायिकता समाज को दो हिस्सों में बाटती है लेकिन जातिवाद उसे खंड-खंड कर देता है। जातिवाद हमारे साथ पैदा होने के दिन से चिपक जाता है और मरने तक नहीं छोड़ता।
4. आदमी की संकीर्णता और स्वार्थ ने मार्क्सवाद की मूल संकल्पना का मटियामेट कर दिया है। हम अभी तक प्रजातंत्र से बेहतर शासनप्रणाली र्इजाद नहीं कर सके। उसी तरह मार्क्सवाद से बेहतर समतामूलक बैचारिकी का विकल्प नहीं मिला। उम्मीद करते है  कि हम आगे ऐसी कोर्इ प्रविधि खोज सकें जिससे प्रजातंत्र और मार्क्सवाद की कमियों और क्रियान्वयन की खामियों पर नियंत्रण किया जा सके। 
5. कभी-कभी मुझे लेखन की एब्सर्डिटी भी महसूस होती है... कि ज्यादा लिख करके भी क्या होगा? इसलिए वही लिखूं जिसे लिखते हुए सुख मिलता है। धीरे-धीरे लिखता हूं तो यह सुख लम्बा चलता है। लेखन में ही नहीं, मेरे जीवन के हर क्षेत्र में यह धीमापन मौजूद है। एक कप चाय पीने में मुझे आधे घंटे लग जाते हैं। कहानी का एक ड्राफ्ट करने में तीन महीने लग जाते हैं। मेरे मिजाज मे यह धीमापन कहां से आ गया? मेरी हृदयगति, मेरा सूगर लेबल, मेरी स्वासगति तीनों सामान्य से कम हैं। शायद यही कारण हो मेरे धीमेपन का।
6. कहानी लिखना मेरे लिए कबाड़खाने से पुर्जे खोज कर साइकिल कसने जैसा है। फ्रेम खोजा, रिम खोजी, हैंडिल खोजा, टायर खोजा और असंब्ल करके साइकिल तैयार कर दी। पता नहीं कुछ लोग एक सिटिंग में पूरी कहानी कैसे लिख डालते हैं। ऐसे लोग जीनियस होते होंगे। 
7. लेखन मैराथन दौड़ है। इसमें जल्दबाजी में कुछ नहीं हो सकता। तुरंत यानी इस्टैंट मे तो नूडल्स ही बन सकता है। सिरका के फर्मेटेशन में समय लगता है।  
8. लेखक जनोन्मुख हो और स्वतंत्रचेता होकर लिखे। जनपक्षधरता ही मेरी नजर में एक लेखक की राजनैतिक पक्षधरता है। 
कथाकार ओमा शर्मा को दिए साक्षात्कार में 
लमही अक्टूबर दिसम्बर 2012 पृष्ठ 13
9. अक्सर लोग पूछते हैं कि कहानी के लिए कला ज्यादा जरूरी है या प्रतिबद्धता? यह ऐसा ही है जैसे कोर्इ पूछे कि दायीं आंख ज्यादा जरूरी है या बायीं। कहानी माने लड़की, स्त्री। उसमें कला नहीं है तो वह निर्वसन है और प्रतिबद्धता या दृष्टि नहीं है तो अन्धी है। प्रतिबद्धता किसके प्रति? यदि कहानी को किसी स्थूल राजनैतिक विचारधारा का भोंपू बना देंगे तो भी साहित्य का महत्तर उद्देश्य क्षरित होगा। प्रतिबद्धता आमजन के कल्याण के प्रति होनी चाहिए। 
15-   -1997 की डायरी का अंश - लमही पृष्ठ 126
10. प्रकृति को एक खेल करना चाहिए। हर मरने वाले को एक मौका देना चाहिए, हजार दो हजार साल बाद वापस आकर इस दुनिया को, इसमें आये परिवर्तनों को देखने का। हर एक को नहीं तो कम से कम महान माने गये लोगों को। फराऊन को, बुद्ध को, र्इसा को, मोहम्मद साहब को, अरस्तू को, सिकन्दर को, गैलीलियो और न्यूटन को, तैमूर लंग को, कोलम्बस वगैरह को। यह महसूस करने के लिए कि कैसी दुनिया छोड़कर वे गये थे और कैसी हो गयी। 
12 दिसम्बर 2004 की डायरी से- लमही पृष्ठ 218
1. कहानी निबन्ध नहीं है। निबन्ध में सब कुछ लेखक बोलता है लेकिन कहानी में जब बोलने के लिए उसने पात्रों की पूरी फौज खड़ी कर दी तो फिर लेखक को बीच में बोलने की जरूरत क्यों पड़े ? इसका मतलब उसने गूंगे पात्र खड़े किए। उनके मुंह में जबान नहीं दिया। तभी तो लेखक को उनके पीछे खड़े होकर प्राम्पटिंग करनी पड़ रही है। यह कथाकार की असफलता है। 
सृजन का रसायन पृष्ठ .......
2. साहित्य का मूल आधार संवेदना है। किसी को रेडिक्यूल करना या किसी विचारधारा के पक्ष में स्थूल नारेबाजी करना रचना का मूल स्वर नहीं होना चाहिए। विचारधारा रचना में उसी तरह समाहित होनी चाहिए जैसे पानी में घुली हुर्इ चीनी। उसकी मिठास का स्वाद मिले लेकिन वह दिखे नहीं। जब तक चीनी दिखायी देती रहेगी, पानी में घुल कर अदृष्य नहीं हो जायेगी तब तक वह मिठास नहीं दे सकती। रचना में भी विचारधारा अलग से दर्ज नहीं होनी चाहिए। वह कहानी में अनुस्यूत होनी चाहिए। 
वृजेश यादव से बातचीत : संवेद 73-75 फरवरी-अप्रैल 2014 पृष्ठ 217 
3. यह कहना बहुत कठिन है कि कौन सा आलोचक किसी रचना को पूरा-पूरा समझता है। बाप बेटे को पूरी तरह नहीं समझता। पत्नी पति को पूरी तरह नहीं समझती। किसी के द्वारा पूरी तरह समझे जाने की अपेक्षा व्यावहारिक नहीं है। कोर्इ आलोचक किसी रचना को कितना समझ सकेगा यह इस बात पर निर्भर करता है कि उस आलोचक का वर्ण्य विषय से कितना तादात्म्य रहा है। उसका अनुभव क्षेत्र क्या है? उसकी दृष्टि क्या है? वर्गीय और वर्णीय दृष्टिकोण का भी असर पड़ता है।
वृजेश यादव से बातचीत : संवेद 73-75 फरवरी-अप्रैल 2014 पृष्ठ 217 
4. कथा के आलोचक को उसकी सृजन प्रक्रिया का ज्ञान होना चाहिए। कैसे कोर्इ विचार, घटना, दृष्य या बिंब रचना के रूप में परिवर्तित होता है, यह जानकारी हो। आलोचक से भी पहले वह रसज्ञ पाठक हो। कथा आलोचक कथाकार का दुश्मन या कम्पटीटर नहीं है। लेकिन उसे कथा क्षेत्र का हलाकू या तैमूर लंग भी नहीं होना चाहिए।
वृजेश यादव से बातचीत : संवेद 73-75 फरवरी-अप्रैल 2014 पृष्ठ 220 
5. लेखक की भूमिका योगी और भोगी की साथ-साथ होती है। सबसे सम्पृक्त और सबसे संवेदित। भोगी नहीं होगा तो अंदर तक धंसेगा कैसे? और योगी नहीं होगा, साधक नहीं होगा, एकाग्र नहीं होगा तो अपनी चित्वृत्तियों को चारों तरफ से मोड़कर अपने भीतर उतरेगा कैसे? दूरी बना कर नहीं रखेगा तो नि:संग होकर लिखेगा कैसे?
सृजन का रसायन पृष्ठ .........
6. कथा लेखक को आकड़ेबाज तो नहीं ही होना चाहिए, विशेषज्ञ भी नहीं होना चाहिए। विशेषज्ञता सहज बोध की दुश्मन है। आलोचक तो विशेषज्ञता अफोर्ड कर सकता है, कथा लेखक नहीं। विशेषज्ञता उसके 'लेखक के सिर पर चढ़ कर बैठ जायेगी। जैसे किसी पुजारी की डील या देंह पर देवता या भूत सवार हो जाता है। तब उस सवारी की जबान से देवता या भूत बोलने लगता है। लेखक को किसी की सवारी नहीं बनना चाहिए, उसे सावधान रहना चाहिए कि कोर्इ उस पर सवारी न गांठ सके। 
सृजन का रसायन पृष्ठ .........
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