Friday, October 21, 2011

शिवमूर्ति की कहानियों पर वरिष्ट आलोचक वीरेन्द्र मोहन के आलेख के कुछ अंश-

ब्लाग के पाठकों के लिए शिवमूर्ति की कहानियों पर वरिष्ट आलोचक वीरेन्द्र मोहन के आलेख के कुछ अंश-

        शिवमूर्ति की कहानियाँ भारतीय ग्राम समाज व्यवस्था के भीतर विकसित हो रहे नये संरचनात्मक सम्बन्धों के साथ पारम्परिक संरचना के सम्बन्ध सूत्रों को आधार बना कर नये वैषम्य और नये अन्तर्विरोधों को खोजने का उपक्रम करती हैं। भारतीय समाज की ग्रामीण संरचना में वर्ण, जाति और सम्प्रदाय के तत्व गहरे तक बद्धमूल हैं। उनमें परस्पर विरोध,..संघर्ष और शत्रुता के बीज विघटनकारी शक्तियों द्वारा बोय जाते रहे हैं। वहीं विघटनकारी शक्तियाँ नयी परिस्थितियों में नया रूप धारण करने की तरकीब खोज लेती हैं। इस ग्राम समाज में स्त्री और बर्बर स्थितियों से गुजरना पड़ा है, शिवमूर्ति की कहानियाँ उनका खुलासा करती हैं। तनिक भी अतिरंजित न होने के बावजूद वे अविश्वसनीय भी लग सकती हैं कि मनुष्य समाज इतना निर्मम, निष्करूण और बर्बर तक हो सकता है, रहम इतना मर सकता है। पर ऐसा होता रहा है, यह सच्चाई  भी है।

         शिवमूर्ति की कहानियों को दलित समाज और नारी जीवन की बदहाली के रूप में देखा जा सकता है। एक ओर जहाँ दलित समाज और नारी जीवन की रक्षा और उत्थान के नाम पर अनेक तरह की योजनाएं और प्रयास किए जा रहे हैं,..वहीं उनका जीवन त्रासद और नारकीय भी उन्ही योजनाओं और प्रयासों की कोख से पैदा होने वाले कारकों से किया जा रहा है। सत्ता समीकरण और अन्याय से जुड़ी ऐसी शक्तियाँ उन्हें न जीने देती हैं और न मरने। कसाबाड़ा,..अकालदण्ड और तिरियाचरित्तर जैसी कहानियों में सत्ता और शक्ति सम्पन्न वर्ग की यही नीति है। यह दुखद है कि समाज का बड़ा भाग आज न्याय से भी वंचित है। तिरियाचरित्तर की विमली या कसाबाड़ा की शनिचरी के साथ समाज कौन सा न्याय करता है। हरिजन थाना और महिला थाना क्या कर रहे हैं,.यह छिपा नहीं है। अनुसूचित और पिछड़ी जातियों पर अत्याचार कौन कर रहा है। शनिचरी को गाँव का प्रधान जहर देकर मार डालता है। उसकी लड़की को गाँव प्रधान वैश्यावृत्ति के लिए बेच देता है और 'नेताजी उसकी जमीन सादे कागज पर अंगूठा लगवा कर अपने नाम करवा लेता है। तिरिया चरित्तर की विमली से उसी का ससुर छल से बलात्कार करता है और न्याय के नाम गरम करछुल से उसका मस्तक दाग कर जीवन भर के लिए कलंकिनी बना देता है। अकालदण्ड की सुरजी के साथ सिकरेटरी कौन सा न्याय करता है। आज आदर्श और नैतिक कहे जाने वाले मूल्य क्यों अप्रासंगिक हो गये हैं। विकृतियों को कौन जन्म दे रहा है। केशर कस्तूरी की केशर की यातना को कौन जाने समझेगा।

        शिवमूर्ति की कहानियाँ उत्तर भारत के ग्रामीण जीवन को जानने का न केवल एक मुहाना है,.बल्कि तस्वीर भी है। यह तस्वीर पिछले पचास सालों की छवियों की है। यह एक बदरंग तस्वीर है। यहाँ पारिवारिक और सामाजिक विघटन तो है ही,...वर्ग और जातिभेद के चलते उच्चवर्गीय जुल्मों को सहते निम्न वर्ग की दास्तान भी है। गाँव का वातावरण सामूहिक जीवन की परम्परा से सम्पृक्त रहा है। लेखक की पीढ़ी ने जिस गाँव को देखा और जिया है,...वह आजादी के बाद का गाँव है। साधन सम्पन्नता और साधनहीनता के गहरे विभेदों के रहते हुए भी वहाँ की मर्यादाएँ उसे जीवन्त बनाये रहीं। आधुनिकीकरण और औद्योगीकरण की विकासात्मक नीतियों ने गाँव की उपेक्षा की। पुराना ढांचा चरमराया और फिर कुछ ऐसा हुआ कि पता ही नहीं चला और गाँव का वातावरण धीरे-धीर विषाक्त होने लगा। विकास के नाम पंचवर्षीय योजनाओं ने गाँव का दोहन किया और नगरीय जीवन को अधिक विकसित किया गया। गाँव जो स्वयं सम्पूर्ण इका थे,...शहर पर आश्रित हो गये। जीवन की मूलभूत सुविधाओं से वंचित गाँव जबरिया जोर जुल्म से मुक्त नहीं हो सके। विकास के इसी अर्थशास्त्रीय मॉडल के चलते देश की सत्तर प्रतिशत आबादी का बड़ा भाग अंधेरे में गुमनाम है। सत्ता, पद और नये अर्थ सम्बन्ध ने नये विकारों को पनपने का अवसर दिया,...पुरानी विकृतियाँ और अधिक घातक होती चली गयीं। गाँव की अच्छी परम्पराएँ देखते-देखते लुप्त हो गयीं। पंचायती राजव्यवस्था तथा शासन की अनेक कल्याणकारी योजनाओं ने समाज के विघटन में भूमिका निभा और गाँव में दलबन्दी अपने विकराल रूप में विकसित हु। इसका शिकार गरीब वर्ग हुआ। गाँव का अमन चैन खत्म हो गया। ऐसा पहली बार नहीं हुआ, पर जुल्म करने वालों की मानसिकता निरन्तर क्रर होती गयी। शिवमूर्ति की सभी कहानियाँ गाँव के जीवन के दुखद गाथाएँ हैं। नारी जीवन की त्रासदी से सम्बन्धित इन कहानियों में तीखा आक्रोश व्यंजित होता है और करूणा भी.।

       शिवमूर्ति की कहानियों में गरीबी की मार झेलते समाज को भीतर से जाना जा सकता है। जहाँ घर-घर की तरह नहीं, गृहस्थी गृहस्थी की तरह नहीं, वहाँ भोजन, वस्त्र और चिकित्सा आदि की क्या स्थिति होगी। जरूरी से जरूरी और कम से कम आवश्यकताएँ भी जहाँ पूरी नहीं होती,..वहाँ कुपोषण, बीमारी, कमरतोड़ मंहगा और हाड़तोड़ श्रम के चलते असमय बूढ़े हो गये समाज के लिए जैसे मानव जन्म ही अभिशाप बन गया हो। पर ऐसे समाज में उस तरह की दुर्घटनाएँ नहीं होती जैसी सम्पन्न समाज में होती हैं। जीने की ललक यहाँ किसी भी कीमत में बची रहती है.........

       नारी अपनी स्वाधीनता और समानता के लिए जितना संघर्ष कर रही है, उसका जीवन उतना की असुरक्षित और सस्ता होता जा रहा है। उसके श्रम, संघर्ष और त्याग के मूल्य का अवमूल्यन किया जा रहा है। पुरूष के भीतर बैठा पशु उसे झिंझोड़-झिंझोड़ कर नोच रहा है। कसाबाड़ा की शनिचरी, अकालदण्ड की सुरजी, सिरी उपमा जोग की लालू की मा, तिरिया चरित्तर की विमली, केशर कस्तूरी की केशर तथा अन्य अनेक स्त्री चरित्र शिवमूर्ति की कहानियों में जिन विकराल स्थितियों से गुजरे हैं, वे मानवीय संवेदना को कंपा देने वाली हैं। संवेदनहीन होते समाज की पतनशील संस्कृति में को हरकत नहीं होती,..इस चिन्ता को लेखक शिद्‌दत से महसूस करता है। नारी विमर्श के अन्तर्गत बाल विवाह, अशिक्षा और विपन्नता का उसके जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है,..यह जानना महत्वपूर्ण है। कानूनन जुर्म होते हुए भी क्या बाल विवाह नहीं हो रहे हैं। क्या कानून बना देना ही पर्याप्त है और क्या सामाजिक विवके और जागरण को विकसित करने का प्रयास किया गया। क्या इसके कारण अनमेल विवाहों को बढ़ावा नहीं मिला। इन सभी प्रश्नों को सिलसिलेवार ढंग से शिवमूर्ति ने अपनी कहानियों में उठाया है। यही बात शिक्षा के विषय में भी कही जा सकती है। शिवमूर्ति की कहानियों के अधिकांश स्त्री पात्रों का बाल विवाह हुआ है। सुरजी (अकाल दण्ड), लालू की माँ (सिरी उपमा जोग), ज्ञान की पत्नी (भरत नाट्‌यम), विमली (तिरिया चरित्तर), केशर (केशर कस्तूरी) के जीवन की अनेक समस्याएं बाल बिवाह के कारण उत्पन्न हु हैं।.

        केशर कस्तूरी की केशर का बाल विवाह हुआ है। तिरिया चरित्तर की विमली बाल विवाहिता है। सिरी उपमा जोग की लालू की माँ बाल विवाहिता है। भरतनाट्‌यम की ज्ञान की पत्नी बालविवाहिता है। पता चलात है कि बाल विवाह का कारण सामाजिक असुरक्षा और जातीय द्वेष है। बढ़ती दहेज प्रथा को भी इसका कारण माना जाता है.......

        निरक्षरता और पिछड़ेपन के इस वातावरण में नारी बहुविध शोषण का शिकार होती है। उस पर अत्याचार किए जाते हैं। इसी अनाचार के चलते नारी विद्रोह भी करती है। शिवमूर्ति की कहानियों के नारी पात्र संघर्ष और विद्रोह की शुरूआत करते हैं। कसाबाड़ा की शनिचरी संघर्ष को स्वीकार करती है। अकालदण्ड की सुरजी और तिरियाचरित्तर की विमली संघर्ष की जीवन्त मिसाल हैं। वे आदर्शवाद के पाखण्ड की वास्तविकता को समझने लगी है। कसाबाड़ा की सुगनी शनिचरी को बताती है 'काकी अपना परधान कसा है। इसने पैसा लेकर हम सबको बेच दिया है। शादी की बात धोखा थी। हम सबको पेशा करना पड़ता है, रूपमती को भी। अमीरों के घर सोने भेजा जाता है।'
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         शिवमूर्ति की कहानियों में संयुक्त परिवार और संयुक्त परिवार के विघटन तथा उससे उत्पन्न कारकों की पहचान मिलती है। भरतनाट्‌यम, सिरी उपमा जोग तथा केशर कस्तूरी में पारिवारिक विघटन कमजोर पक्ष को और अधिक दयनीय बना देता है। लेखक ने संयुक्त परिवार और विघटित परिवार में आर्थिक आधार और उससे उत्पन्न सम्बन्धों को पहचाना है। शिवमूर्ति की प्राय: सभी कहानियों में यह केन्द्रीय विचार है। शिक्षा के आदर्श और जीवन के यथार्थ के बीच जो फासला है, अनेक विसंगतियों और समस्याओं का कारण यह भी है। इस सत्य को लेखक व्यंगरूप में स्वीकार करता है। इससे मानवीय और पारिवारिक सम्बन्ध प्रभावित होते हैं। यही कारण है कि आज का युवक जिसका निर्माण आदर्श और नैतिकता की बुनियाद पर हुआ है, जब जीवन संग्राम में उतरता है तो गर्हित यथार्थ के साथ स्वयं को समायोजित करने के दौरान भीषण मानसिक यंत्रणा से गुजरता है। भरतनाट्‌यम के ज्ञान की यही स्थिति है.........
  
          शिवमूर्ति की कहानियों का समाज गरीबी और भूख से जूझता हुआ पिछड़ा समाज है। अकाल और भुखमरी की स्थितियाँ श्रम संस्कृति का ही सबसे अधिक अवमूल्यन करती हैं। गरीबी सबसे बड़ा अभिशाप बन कर आती है। अकाल का दण्ड गरीब और श्रमरत समाज को ही भोगना पड़ता है। अकालदण्ड जैसी कहानियाँ वस्तु स्थितियों की पहचान करने में कहीं भी चूक नहीं करती। अकाल के समय शासन द्वारा चलाये जाने वाले राहत कार्यो की आड़ में कितनी अनैतिकताएं होती हैं। कितना भ्रष्टाचार होता है,..अकाल दण्ड से इसका भी खुलासा होता है। अकाल राहत भी लूट और कालाबाजारी का एक व्यवसाय है। सिकरेटरी और रंगी बाबू की नापाक संगति आकाल राहत के अनाज की कालाबाजारी करती है। आधी मजदूरी देकर काम कराया जाता है। स्त्रीयों का शारीरिक शोषण किया जाता है। बलशाली सम्पन्न वर्ग अकाल का सबसे अधिक फायदा उठाता है। प्रोफेसर अमरत्य सेन ने अकाल को उत्पादन-वितरण तथा सामाजिक आर्थिक कारकों के संदर्भ में विश्लेषित किया है। उन्होंने बताया है कि आकाल-उत्पादन में प्रत्यक्ष कमी की वजह से कम,,..बल्कि उसके वितरण एवं अन्य सामाजिक-आर्थिक कारकों से अधिक प्रभावित होते हैं। प्रो..सेन की दृष्टि में अकाल जैसे प्राकृतिक विपदा भी सामाजिक-आर्थिक कारकों से पैदा होती है। शिवमूर्ति की अकालदण्ड कहानी अकाल के ऐसे ही दर्दनाक मंजर से हमारा परिचय कराती है। यहाँ अकाल से उत्पन्न विभीषिका के साथ मुनष्य का संघर्ष कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। सुरजी इस संघर्ष की जीवन्त पात्र है, जिसका पति परदेश में है और बूढ़ी अपाहिज तथा बीमार सास की जिम्मेदारी उस पर है। अकाल राहत कार्य के नाम पर बलशाली उच्च वर्ग मनमानी करता है। वह भ्रष्टाचार को बढ़ावा देता है। कालाबाजारी से बिकने वाला अनाज गरीब की क्रय शक्ति से बाहर है। ऊपर से काम न मिलने और अनाचार के कारण गाँवों से मेहनतकश वर्ग पलायन करता है। अकालदण्ड का सिकरेटरी भ्रष्टाचार, विलासिता और अन्याय का प्रतीक चरित्र है और उसका सहायक है रंगी बाबू, जिसे लुटेरा और अपराधी कहना ज्यारा उपयुक्त है। सुरजी को अपने शील की रक्षा के लिए सिकरेटरी के साथ कठिन संघर्ष से गुजरना पड़ता है। उसे यातना, अपमान और लांछन की स्थितियों से गुरना पड़ता है। क्योंकि सिकरेटरी काम वासना से अंधा हो सुरजी को पाने के लिए नये-नये पाखण्ड रचता है। तिरिया चरित्तर की विमली को भी इस संघर्ष से गुजरना पड़ता है।

        आकालदण्ड की सुरजी श्रम संस्कृति की अनोखी मिसाल है। इस श्रमरत समाज को ही अत्याचारों और यातनाओं से गुजरना पड़ता है.........
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         शिवमूर्ति की कहानियाँ नैतिकता के प्रश्न से बार-बार टकराती हैं। इस नैतिकता के अन्तर्गत वे काम भावना और कामवासना का भी मूल्यांकन करते हैं। स्त्री के संदर्भ में वे इस काम वासना को अपराध बोध से जोड़ देते हैं। लेकिन केवल स्त्री के संदर्भ में इन प्रश्नों को नहीं देखा जा सकता। पूरे वातावरण और परम्परा तथा स्थिति के संदर्भ में इन प्रश्नों पर विचार किया जाना चाहिए........
  
        धार्मिक पाखण्ड के भीतर पलने वाले अनाचार और भोग विलास को महिमामण्डित नहीं किया जा सकता। शिवमूर्ति की कहानियों में धर्म और र्इश्वर के पाखण्ड की कोख में होने वाले अनाचार और दुष्कर्म को पहचाना गया है। तीर्थो और धार्मिक स्थलों में होने वाले ऐसे कारनामे अब जग जाहिर होने लगे हैं। अकालदण्ड की सरजूपारी चाची का वृत्तान्त इसी का संकेत करता है। तिरियाचरित्तर का विसराम अपने पाप को छिपाने के लिए धार्मिक पाखण्ड का सहारा लेता है और अकालदण्ड का सिकरेटरी पाप कर सन्तों की शरण में जाता है..........
          शिवमूर्ति की कहानियों में शासनतंत्र की बनावट और कार्य पद्धति का भी वर्णन किया गया है। एक यांत्रिक और संवेदनहीन जीवन का नजारा सरकारी दफ्तरों में देखने को मिलता है। यहाँ न्याय और नियम केवल एक दिखावा है। सरकारी विभागों में होने वाले भ्रष्टाचार और घुसखोरी को अब पाप और अचरज के साथ नहीं, बल्कि एक नेय स्वीकृत अलिखित विधान की तरह देखा जाता है। भरतनाट्‌यम में शिक्षित बेरोजगार ज्ञान को सस्ते गल्ले का लायसेंस पाने के लिए घूस देना पड़ता है। लूट का यह काम अनेक तरह से और अनेक स्तरों पर होता है कसाईबाड़ा अकालदण्ड, भरतनाट्‌यम और सिरी उपमा जोग जैसी कहानियों में सरकारी दफ्तरों का नजारा देखने को मिलता है। सरकार का कोई भी विभाग इससे अछूता नहीं है। प्राइवेट प्रबन्धन में भी शोषण और भ्रष्टाचार जाति और सम्प्रदायवाद अपना विकास कर रहा है। अनेक प्रकार की अनैतिकताएं सरकारी विभागों का धर्म बन गयी हैं। अकाल दण्ड में दरोगा कहता है 'दूराचारी भ्रष्टाचारी नहीं तो क्या सदाचारी ब्रम्हचारी कर सकेंगे सरकारी नौकरी? सरकारी नौकरी करना कोई खिलवाड़ है?.........

Monday, October 17, 2011

शिवमूर्ति के उपन्यास 'त्रिशूल' पर वरिष्ठ आलोचक वीरेन्द्र मोहन के आलेख के कुछ अंश

   ब्लाग के पाठकों के लिए शिवमूर्ति के उपन्यास 'त्रिशूल' पर 
वरिष्ठ आलोचक वीरेन्द्र मोहन के आलेख के कुछ अंश :-

        त्रिशूल की कहानी एक ओर हिन्दु-मूस्लिम साम्प्रदायिकता के अनेक पक्षों का उद्‌घाटन करती है तो दूसरी ओर हिन्दू समाज के जातिवादी ओर बिरादरीवादी मुखौटे का उद्‌घाटन करती है। जातिवाद की अनेक पर्तें यहाँ एक-एक कर खुलती जाती हैं। ऊँची और नीच कही जाने वाली जातियों के बीच घुस जाने वाली साम्प्रदायिक शक्तियाँ कैसे पूरे समाज का अमन-चैन छीन लेती हैं और कैसे साम्प्रदायिक शक्तियाँ हिंसा और रक्तपात का ताण्डव रचती हैं, इसको लेखक ने भीतर से पहचाना है। ऐसी हिंसक शक्तियाँ वस्तुत: व्यक्तिवादी होती हैं और अपनी सनक में कहीं तक भी जा सकती हैं। जातिवादी का जहर गुण्डों और अपराधियों का गिरोह बनाकर समाज को ही तहस-नहस करता है।
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       त्रिशूल की कहानी महमूद और लोक गायक पाले की कहानी मात्र नहीं है और न ही शास्त्रीजी जैसे रामवादी पार्टी के एक व्यक्ति की कहानी है। पाल साहब जैसे साम्प्रदायिक सद्‌भाव और भाईचारे की भावना को विकसित करने वाले लोग अभी भी समाज में हैं जो धर्म को व्यक्तिगत आस्था का प्रश्न मानते हैं और इसीलिए वे महमूद को पारिवारिक सदस्य की तरह अपने साथ रखते हैं। उनके लिए महमूद न तो नौकर है और न ही कट्‌टरवादी मुसलमान। महमूद तो वस्तुत: इन बातों से परिचित भी नहीं है। हिन्दू और मुसलमान इस देश में सदियों से जिस भाईचारे के साथ रहते आये हैं और खुद पाल साहब जिस तरह से सम्प्रदाय निरपेक्ष सम्बन्धों का निर्वाह करते आये हैं, वे खुद नहीं सोच पाते हैं कि महमूद का मुसलमान होना ही हिन्दू सम्प्रदायवादियों के लिए सब से बड़ा अपराध है। शास्त्रीजी जैसे लोग हिन्दू साम्प्रदायिकता का झण्डा लेकर चलते हैं। पाल साहब से पहली मुलाकात में वे कहते हैं- 'गाय पाल कर आप सच्चे हिन्दू धर्म निबाह रहे हैं। गो ब्राम्हण की सेवा। आप को देखकर ही लगता है कि आप आस्थावान व्यक्ति हैं। और जीवन का मूल है आस्था।'
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         शास्त्रीजी साम्प्रदायिकता का जहर फैलाने के लिए तरह-तरह के विधान रचते हैं। राम मंदिर के निर्माण के लिए चन्दा इकट्‌ठा करना, राम भक्तों को अयोध्या भेजना, अस्थि  कलशों का आयोजन, मुसलमानों की सम्पत्ति पर कब्जा और महमूद के खिलाफ अपने पोते के अपहरण की फर्जी रिपोर्ट तक वे करते हैं। उत्तेजक नारे और भाषणों के कैसेट समाज के वातावरण को जहरीला बनाते हैं। जब तक महमूद के धर्म को वे नहीं जानते तब तक वह उनका प्रिय चेला और तमाम कार्य करने वाला महत्वपूर्ण लड़का है। उसके हाथ की चाय पीने या प्रसाद के लड्‌डू घर-घर पहुंचाने से शास्त्रीजी तथा अन्य हिन्दूवादियों का धर्म नष्ट नहीं होता, पर जैसे ही उसके मुसलमान होने का पता चलता है तमान गुनाह उन्हें दिखाई  देने लगते हैं। महमूद हिन्दू साम्प्रदायिकता का शिकार होकर पुलिस के जुल्म सहता है और प्रतिक्रिया स्वरूप वह खुद मुसलमान बिरादरी को अपना रक्षक समझ पाल साहब का घर छोड़ कर चला जाता है।
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        मण्डल आयोग की रिपोर्ट लागू होने की घोषणा होने के साथ शास्त्रीजी का पचासी प्रतिशत हिन्दू समाज आरक्षण समर्थक और आरक्षण विरोधियों के बीच, ऊँची और नीची जातियों के बीच शत्रुतापूर्ण ढंग से विभाजित हो जाता है। जो शास्त्रीजी पूरे हिन्दू समाज का दावा करते हैं, उन्ही से पाल साहब कहते हैं 'जब से मण्डल आयोग की सिफारिशें लागू किये जाने की घोषणा हुई  है, उसके समर्थक और विरोधियों के रूप में पूरा हिन्दू समाज दो फांकों में बँटता चला जा रहा है। रामवादी शास्त्रीजी की फितरत से ही हरिजन लोकगायक पाले की हत्या की जाती है। यह जातिवादी राजनीति का हिंसक रूप है। क्योंकि पाले ऊँची जाति के हिन्दुओं की वास्तविकता को, उनके द्वारा नीची जातियों पर किए जाने वाले अत्याचारों को बिना भय के सार्वजनिक रूप से व्यक्त करता है।
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       सम्प्रदायवाद और जातिवाद किसी भी समाज की उन्नति को रोकता है। हिन्दू साम्प्रदायिकता की प्रतिक्रिया स्वरूप मुस्लिम साम्प्रदायिकता भी उतने ही विकराल और हिंसक रूप में जन्म लेती है। अचानक धर्म-सम्प्रदाय प्रदर्शन की कला हो जाते हैं। काला पहाड़ जैसे मुस्लिम कट्‌टरवादी अपराधी पैदा होते हैं। जिसके विषय में कहा जाता है कि 'मलियाना हत्याकाण्ड का बदला चुकाने के लिए सन 87 वाले दंगे में इसने अकेले ही सत्रह लोगों को काटा था। एक दिन में। बल्कि कुछ घण्टों में। इसके शागिर्दो की संख्या सैकड़ों में है। ऐसे शागिर्द जो एक इशारे पर कटने-काटने को तैयार रहते हैं।' हिन्दू समाज जातिगत आधार पर बुरी तरह से विभाजित है। यह विभाजन खान-पान और शादी-विवाह तथा चूल्हे चौके तक प्रवेश कर गया है। जातीय दर्प और ऊँच-नीच की विकसित होती भावना के कारण लोग अपनी जातियां बदल रहे हैं। ऊँची जाति के गौरव का पाखण्ड कर रहे हैं। रामवादी पार्टी के शास्त्रीजी खुद ही अपनी जाति बदल कर बी.सी.यानी पिछड़ी जाति से राजपूत बन गये हैं। क्लब का बूढ़ा चौकीदार जो पिछड़ी जाति का है, शास्त्रीजी के विषय में बहुत सी बातें पाल साहब को बताता है।
 
        त्रिशूल में लेखक ने मानवेतर प्राणियों को उपस्थित कर उनकी संवेदना को पकड़ने का काम किया है। गाय, बछड़ा और कुत्ता पाल साहब के पालतू जानवर हैं और महमूद उनकी सेवा करता है। लेखक ने इन पशुओं का ऐसा चित्र प्रस्तुत किया है जो पाठकीय संवेदना को प्रभावित करता है। शास्त्रीजी के प्रति उनका व्यवहार और महमूद के प्रति गाय बछडे़ का व्यवहार हमारी संवेदना को ओर सघन करता है। वे त्रिशूल के कथा के महत्वपूर्ण चरित्रों की तरह हैं। गाय, बछड़ा और कुत्ता झबुआ महमूद के दुख को समझते हैं।
        शिवमूर्ति की रचनाशीलता वस्तु स्थितियों को पहचान कर उनका सटीक विश्लेषण भी करती है। वे ग्रामीण परिवेश के गहरे जानकार तो हैं ही, प्रस्तुतिकरण में उतने ही बेबाक भी। ऐसे कहानीकारों से ही आशा की जा सकती है कि कहानी को उसकी धुरी से हटने नहीं देंगे और सामाजिक बदलावों को भी अलक्षित नहीं करेंगे।  

Wednesday, October 12, 2011

कथाकार शिवमूर्ति से सुशील सिद्धार्थ की बातचीत


हमारा होना स्त्री के होने से जुड़ा है
कथाकार शिवमूर्ति से सुशील सिद्धार्थ की बातचीत

आपके संस्मरणात्मक आलेख 'मैं और मेरा समय' को पढ़ने से कोई भी जान सकता है कि आपकी शुरूआती जि़न्दगी कितनी बीहड़ और बेढब रही है। अभाव, दुख, असुरक्षा और स्थानीय सामन्ती आतंक-- क्या-क्या नहीं सहा आपने! हुत स्वाभाविक और सम्भव था कि आपका लेखन विष और कटुता से भर जाता है। .....फिर भी आप इससे उबरें।
      पहली बात तो यह कि शायद ही किसी लेखक का उद्‌देश्य लेखन के माध्यम से विष परोसने का रहता हो। जहाँ तक कठिनाइयों में जीवन गुजारने की बात है, हमारे आस-पास के नब्बे प्रतिशत लोगों का जीवन इन्हीं परिस्थितियों में बीत रहा था। इसलिए  तो यह बात मन में ही नहीं आती थी कि हम कठिनाई या आतंक के साये में जी रहे हैं। उन परिस्थितियों से उबरने के लिए मैंने दर्जीगीरी सीखने या मजमा लगाने का तरीका अपनाया दूसरे लोगों ने दूसरे तरीके अपनाये होंगे। यह तो अब पता चल रहा है उन परिस्थितियों से उबर कर..... दूर से देखने और वर्तमान से तुलना करने पर, कि वह जिन्दगी बीड़ थी।..... अभी तक मैंने अपनी व्यक्तिगत जिन्दगी की कटुता या तल्ख़ी को कहानियों का विषय बनाया भी नहीं है। पता नहीं क्यों नहीं बनाया! हो सकता है आगे के लेखमें वह सब रूप बदल कर आये।
एक यथार्थ वह था जो आपके शुरूआती जीवन के आसपास था। एक अथार्थ आपका वर्तमान है। बदलते यथार्थ के साथ आपका नज़रिया किस तरह बदल रहा है?
       यथार्थ जैसा रहेगा, वैसा ही दिखाई देगा। हमको भी और आप सबको भी। और वह जैसा होगा, उसी तरह रचना में आयेगा। मेरा नजरिया किसी पूर्वनिर्धारित सोच या विचारधारा से नियन्त्रित नहीं होता। जीवन को उसकी सघनता और निश्छलता में जीते हुए ही मेरे रचनात्मक सरोकार आकार ग्रहण करते हैं। पहले का यथार्थ यह था कि 'कसाईबाड़ा' की हरिजन स्त्री सनीचरी धोखे/जबरदस्ती से मार दी जाती थी.....उसकी खेती-बारी हड़प ली जाती थी। आज का यथार्थ 'तर्पण' में है। सनीचरी जैसे चरित्रों की अगली पीढ़ी रजपतिया के साथ जबरदस्ती का प्रयास होता है तो गाँव के सारे दलित इकट्‌ठा हो जाते हैं। सिर्फ इकट्‌ठा नहीं, बल्कि उस लड़ाई में वे संकट का समाना करते हैं। वे लड़ाई जीतने के लिए हर चीज़ का सहारा लेते हैं। उसमें उचित या अनुचित का सवाल भी इतना प्रासंगिक नहीं लगता। उनके लिए र वह सहारा उचित है जो उनके संघर्ष को धार दे सके। पहले थोड़ा अमूर्तन भी था। अब टोले का विभाजन दो प्रतिद्वन्द्वियों के रूप में सानमे खड़ा है। जातियों के समीकरण पहली कतार में गये हैं। 1980 से 2000 तक जो परिवर्तन आया वह मेरी रचनाओं में साफ दिखता है। .....मैं 'तर्पण' को ध्यान में रखकर कह रहा हूँ। इससे आगे का यथार्थ भी मेरी रचनाओं में रहा है..... और उससे आप मेरा नजरिया समझ सकते हैं। 'भरतनाट्‌यम' के लिखे जाने का समय एक दूसरी तरह की समझदारी का था। तब यह स्वर नहीं उठता था कि जो दुख-दर्द घेरे है, उसके आँकडे़ क्या हैं! कारण क्या है! पैदावार और लागत का जो अनमेल अनुपात है उसके पीछे कैसे-कैसे षडयन्त्र हैं! यानी परदे के पीछे चल रहा खेल क्या है? .....आज इन सब पर नजर जा रही है। दुखी-दलित लोग संगठन बना रहे हैं। एका बनाकर सामने रहे हैं।
तब तो गाँव के यथार्थ को परखना आसान हो रहा है।
      जी नहीं। यथार्थ को उसके यथासम्भव  आयामों में पकड़ना हमेशा कठिन काम रहा है। गाँव  पर लिखना कठिन होता जा रहा है। जितना नजदीक जाइये, उतना ही यह अनुभव गहराता है कि जो सोचा था वह कितना सतही है कल्पना ने जितना देखा था, यह तो उससे कहीं अधिक भयावह है। तब डर लगता है कि इतने सन्त्रास..... इतनी भयावहता को वे पाठक/आलोचक कैसे समझ पाएँगे जो इस दुनिया से सीधे नहीं जुडे़ हैं। यकीन मानिए.....कई बार जो यथार्थ है उसे रचना में लाते समय हल्का करना पड़ता है।
'तिरिया चरित्तर' का यथार्थ जाने कितनी बिडम्बनाओं और अमानवीयताओं से घिर गया है!
      बिलकुल सही कहा आपने। जीवन में, प्रेम में पंच, सरपंच, पंचायत, बिरादरी, धर्म, समप्रदाय का इतना दखल होता जा रहा है कि शिक्षा या सभ्यता के सारे दावे खोखले जर आते हैं। आज ऐसे समाचार अपवाद नहीं रहे कि एक प्रेमी जोडे़ के साथ कैसा कबीलाई बर्ताव हुआ। या किसी लड़की पर कैसे वहशियाना आरोप मढे़ गये। कई घटनाओं में तो माँ-बाप की भी सहमति हो जाती है कि लड़का/लड़की को काट डालो। कई बार पिता के हाथों लड़का/लड़की को फाँसी दिलवाई जाती है। पंचों में वहशीपन दिख रहा है। फैनेटिज्म या नासमझी पहले से कहीं ज्यादा है। यह विकास है? इन सच्चाइयों को परखना हो तो ऐसी जिन्दगी के बीच में आना पडे़गा।
 
आप जिस विकास या सभ्यता पर तरस खा रहे हैं, उसका एक रूप स्त्रियों से जुडे़ सवालों में देखा जा सकता है।
     क्यों नहीं। हमारा समाज स्त्रियों के प्रति ज्यादा न्यायसंगत या मानवीय नहीं रहा है। इसलिए मैं बसे ज्यादा इस बात में भरोसा रखता हूँ कि खुद स्त्रियों द्वारा... लड़कियों द्वारा जो जागरूकता रही है, वह ज्यादा महत्वपूर्ण या आशापूर्ण है। अब इस स्त्री-यथार्थ के भी कई पहलू हैं। स्त्रियाँ जितनी सचेत हो रही हैं, प्रतिहिंन्सा में पुरूष बर्चस्व उतना ही असहिष्णु हो रहा है। प्रतिक्रिया में पुरूष उत्पीड़न के नये-नये हरबा हथियार आजमा रहे हैं। यानी स्त्रियों के जागरूक होने पर जो होना चाहिए था, विडम्बना यह कि उसका उलटा हो रहा है।
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लेकिन स्त्री-विमर्श के अगुवा तो बड़ी-बड़ी बातें ऐसे कर हरे हैं जैसे अब जानने के लिए कुछ बचा ही नहीं?
      स्त्री-विमर्श का क्षेत्र बहुत व्यापक है। स्त्री विमर्श की जिन्हें सबसे ज्यादा जरूरत है वे हैं किसान, मजदूर, स्त्रियाँ। चाहे गाँव में रह रही हों या शहर में, लेकिन खुद उनमें उतनी जागरूकता नहीं है, उनके बीच से कोई लेखिका नहीं है और जो शहरी बेल्ट की लेखिकाएँ हैं, उन्हें उन नब्बे प्रतिशत की जानकारी नहीं है। अपवाद स्वरूप चित्रा जी, मैत्रेयी जी जैसी कुछ लेखिकाएँ हैं जा उनके सरोकार से खुद को जोड़ती हैं।
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फिर भी, पहले वाले प्रश्न का यह जरूरी पहलू है कि स्त्री-विमर्श के लिए सबसे ज्यादा जान खपाने वाले - राजेन्द्र यादव शहरी बेल्ट की लेखिकाओं को ही बार-बार रेखांकित कर रहे हैं।
      यादव जी ने वह दुनिया देखी ही नहीं है, मैं जिसकी बात कर रहा हूँ। उनको शायद अवसर ही नहीं मिला।
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लेकिन, जो स्त्री दलित विमर्श पर घड़ियाली आँसू बहा रहे हैं, उनके लिए आप क्या कहना चाह रहे हैं?
     घड़ियाली आँसू तो घड़ियाली ही होता है। ब वह किसी शिकार को जबड़े में दबोचता है तो दबाव से उसकी आँखों से पानी निकलने लगता है। आपका उसे आँसू समझना ड़ियाल के पक्ष में जाता है।
 
स्त्रियों की दुनिया से जितना वास्ता आपका पड़ता रहा है, उतना बहुत कम लेखकों को नसीब होगा। ऐसा आपके साक्षात्कारों और अन्य लेखन से पता चलता है। आपके जीवन में कई तरह की स्त्रियाँ आई हैं। व्यक्तित और लेखक के तौर पर आपके लिए स्त्री का अर्थ क्या है।
     यह सही है कि मेरी जिन्दगी में बहुत-सी स्त्रियाँ आई हैं, विविध प्रकार की। विविध क्षेत्रों की। पढ़ी-लिखी तो बहुत कम, अनपढ़ अधिक। लेकिन और कौन आयेगा हमारे जीवन में? हमारा होना ही स्त्री के होने से जुड़ा है। हमारी नाल ही स्त्री से जुड़ी है। वह हो तो हम कहाँ हों! अगर किसी के जीवन का रस आधी राह में ही नहीं सूख जाता है तो निश्चय ही उसके पीछे कोई स्त्री होगी। जवानी में विधुर हुए बहुत कम लोग बुढ़ापा देख पाते हैं।
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बुढ़ापे तक साथ मिलने के बाद भी बहुत से लोग प्रेम-प्रीति का सही मतलब ही नहीं जानते।
     कैसे जानेंगे पार्टनर! ज्यादातर लोग पचीस-तीस फीट तक की बोरिंग वाले हैण्डपम्प का पानी जीवन भर पीते रह जाते हैं। कभी 'इंडिया मार्का' हैण्डपम्प से सवा सौ डेढ़ सौ फीट की गहराई से निकला हुआ पानी पीकर देखें, तब अन्तर का पता चलेगा। यानी मन में उतरिए- गहराई तक। तभी अमृतपान कर सकेंगे। ऐसे लोग भी कम नहीं है। अभी मैने डाo विश्वनाथ त्रिपाठी की पुस्तक पढ़ी- 'नंगातलाई का गाँव' उससे पता चलता है कि पंडित जी के जी में आईं स्त्रियों में कितनी विविधता और गहराई है। यह पुस्तक मेरी पत्नी ने पढ़ी है। फिर पंडित जी से फोन पर कहा- आप कितने भाग्यशाली हैं कि उन्हें याद रख पाये और वे कितनी भाग्यशाली हैं कि याद रह ईं
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दरअसल मैं  आपके भाग्य और दूसरे पक्ष के भाग्य के बारे में जानना चाहता था।
       मैं आपका आशय, आपका संकेत समझ रहा हूँ। 'मैं और मेरा समय' में ही मैंने जाति से बेड़िनी और पेशे से बेश्या अपनी मित्र शिवकुमारी के सम्बन्ध में लिखते हुए कहा है कि कुलटा, भ्रष्टा या पतिता कही जाने वाली स्त्रियों को देखने की मेरी दृष्टि में जो परिष्कार हुआ है, वह शिवकुमारी के सान्निध्य के अभाव में कभी नहीं हो सकता था। इतनी स्त्रियाँ मिलीं जीवन में लेकिन जिन्हें कुलटा या पतिता कहते हैं, ऐसी एक भी स्त्री से अभी तक मेरा परिचय नहीं हुआ। अन्दर उतर कर देखिए तो एक से एक नायाब मोती की चकाचौंध आपको विस्मय-विमूढ़ कर जाती है। मैं पहले भी कई जगह कह चुका हूँ, किसी की प्रेयसी होना भी जरूरी है किसी की पत्नी होने के साथ-साथ। यही बात पुरूष के लिए भी। जो इन दोनो रूपों को जी सका, उसी का जीवन पूर्ण है।
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तो क्या आपका जीवन पूर्ण है?
    (एक मौन के बाद).....और जहाँ तक लेखन में इनके आने की बात है, मेरी लगभग सारी कहानियाँ नायिका प्रधान हैं। चाहे 'तिरिया चरित्तर' हो या 'सिरी उपमा जोग' 'कसाई बाड़ा हो', 'केशर कस्तूरी' हो, 'अकालदण्ड' हो। मेरे उपन्यास 'तर्पण' की मुख्य पात्र भी लड़की है। और अकारण नहीं कि यह सभी मजदूर दलित या पिछड़ी स्त्रियाँ हैं।
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आपने कई जगह अपनी पत्नी (सरिता जी) की प्रशंसा की है। कुछ सरिता जी के बारे में।
      सरिता जी तो हमारी 'पितु मातु सहायक स्वामि सखा सब कुछ' हैं। उनके ही ठोकने पीटने से मैं एक जमाने में बेरोजगार से बा-रोजगर हुआ था। उन्हीं के पीछे पड़ने से लेखक बना रह गया। वे लेखन के लिए जरूरी कच्चे माल- कथानक संवाद और गीत- की सबसे बड़ी खान हैं, स्टोर हैं। एक राज की बात बताऊँ, लेखन की मेज पर बैठाने के लिए वे कभी-कभीण्डा भी उठा लेती हैं, इस उम्र में भी। और वे मेरी रचनाओं की पहली श्रोता/पाठक भी प्राय: होती हैं।
 
पाठकों की बात अच्छी गई। बहुत सारे लेखक पाठकों का रोना रोते हैं या उन पर कई तरह के ठीकरे फोड़ते रहते हैं। आपके अनुभव क्या हैं?
     मेरे अनुभव बहुत ही अच्छे हैं। मेरी रचनाओं से कितने पाठक जुड़ते हैं, यह बताने की जरूरत नहीं है। लेकिन ऐसा भी नहीं कि मेरे ऊपर पाठकीय अपेक्षाओं का दबाव रहता हो। जो विषय जिस रूप में हांट करता है उद्वेलित करता है, उसी को उठाता हूँ कोशिश करता हूँ कि विषय या समस्या स्पष्ट हो जाय। फिर निष्पति का ध्यान देता हूँ। उसी में कुछ अच्छा कुछ खराब बन जाता है। यह अपेक्षा नहीं करता कि हर बार पाठक प्रशंसा ही करेंगे। जैसे, जिन्होंने 'केशर कस्तूरी', 'सिरी उपमा जोग', 'भरत नाट्‌यम' वगैरह को सराहा, उन्हीं ने 'त्रिशूल' पर आपत्ति की। उन्हें जातिवाद की गन्ध आई। लेकिन बहुत सारे लोगों ने कहा कि यह हुई कोई बात! अब तक औरतों का रोना गाना लिखते रहे, अब ढँग की चीज़ लिखी है। दोनों ही तरह के पाठक सही लगते हैं, जब वर्गीय स्थिति पर नजर डालते हैं।
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और घोडे़ पर बैठी मक्खी यानी आलोचक के बारे में आप की राय?
     मेरी रचनाएँ आलोचकों द्वारा सामान्यत: पसन्द की जाती रही हैं। 'तिरिया चरित्तर' के सम्बन्ध में नामवर जी ने कहा था कि इसे उपन्यास क्यों नहीं बनाया? और खिलकर आता। इसी कहानी पर परमानन्द जी ने गोरखपुर में एक हंगामेदार गोष्ठी करवायी थी।..... लेकिन कई बार लगता है कि आलोचकों को दिल और दिमाग़ दोनों का प्रयोग करना चाहिए। कई बार आलोचक शरीर की लम्बाई तो नाप लेते हैं। लेकिन वाणी में जो भावना प्रकट होती है, आँखों में जो स्नेह चमकता है, उन बारीक तन्तुओं को बेकार समझकर छोड़ देते हैं। जबकि उन्हीं बारीक तन्तुओं में बडे़ सन्देश छिपे रहते हैं। यदि आलोचक अपने फन का उस्ताद होगा तो रचना के साथ उसका वही व्यवहार होगा जो पेड़-पौधों के साथ माली का होता है। जबकि हिन्दी में ज्यादातर आलोचक लकड़हारे की भूमिका में नजर आते हैं। बगली छाँटने की बजाय फुनगी ही छाँट देते हैं। कुछ तो शाही लकड़हारा कहलाने में गर्व का अनुभव करते हैं। पहुँचे हुए आलोचक भी साहित्येतर कारकों से प्रभावित होकर मुँह खोल रहे हैं.....और उपहास के पात्र बन रहे हैं।
 
एक बारीक तन्तु यह भी है कि आपके यहाँ संघर्ष करते पात्र नैतिकता की नयी तस्वीर भी बनाते हैं।
       सही है। लड़ाई ड़नी है तो सब चलेगा। जिस समाज में सौगन्ध लेकर झूठ बोलना परम्परा हो वहाँ सच कितना बेबस हो सकता है! दबे कुचले मारे पीटे जाते लोगों के लिए अहिंसा का क्या अर्थ है? 'हे दयानिधि' गाते हज़ारों साल गुज़रे। दयानिधि को दया नहीं आई। अनकी 'दया ब्रिगेड' काल बनकर टूटती रही है। अब इनके छल कपट के हथियारों से दलित भी लड़ रहे हैं तो बुरा क्या है। उन्हीं के हथियार से उनको परास्त करने का प्रयास बुरा नहीं है। बचपन में कोर्स में एक कविता पढ़ी थी 'अछूत की ' वियोगी हरि की-
            'हाय हमने भी कुलीनों की तरह
            जन्म पाया प्यार से पाले गये।
            किन्तु हे प्रभु! भूल क्या हमसे हुई
            कीट से भी नीचतम माने गये।।
            जो दयानिधि कुछ तुम्हें आये दया
            तो अछूतों की उमड़ती आह सुन।
            असर होवे यह कि हिन्दुस्तान में
            पाँव जम जाये परस्पर प्यार का।।''
      आज देख रहा हूँ ऐसी कविताओं का यथार्थ। किसी की शरण में जाकर अन्याय और शोषण से मुक्ति पाना सम्भव नहीं है। साधन की शुचिता जैसा गाँधीवादी दृष्टिकोण गाँधी जी द्वारा ही प्रयोग करने पर ही असर दिखा सकता है।
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शायद यथार्थ के गहरे विश्लेषण से यह बात निकल रही है।..... और इसीलिए आप गाँव के जीवन पर ही लिखते रहे हैं।
      जिस गाँव से मैं परिचित हूँ, वहाँ का जीवन इतना दारूण है कि शहर की को समस्या ही नहीं लगती। और अब तो... क्या कहूँ! मजूर किसान एका करके समस्याओं से जूझना चाहते हैं मगर क्या करें! अभी पश्चिम बंगाल में जो घटनाएँ घटी हैं, नक्सलवाड़ी से नन्दीग्राम तक की जो यात्रा है, सत्ता का दमन और बाज़ार का जो सर्वग्रासी रूप है, उससे मुझे फिर से सोचने की दृष्टि दी है। देखिये, किसान मजदूर का मजबूत एका कैसे हो सकता है! आर्थिक रूप से वे इतने विषम हैं कि कोई भी लम्बी लड़ाई उनके वश में नहीं है। ऐसे हालात हैं कि वे अपने आप मर रहे हैं। मरता हुआ आदमी क्या लडे़गा!
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आप एक तरह से लोकतन्त्र पर टिप्पणी कर रहे हैं।
      मैं भूख तन्त्र को देख रहा हूँ। सत्ता किसान-मजदूर को आसानी से घुटने टेकने पर विवश कर रही है। प्रजातान्त्रिक शासनप्रणाली में 'कल्याणकारी राज्य' की संकल्पना की गयी है। वही आज पूँजीपतियों के एजेन्ट या दलाल की भूमिका में उतर आई है। मैं तो राष्ट्रीय फलक पर देख रहा हूँ। पिछले साल में किसी भी सरकार ने भूमि की समस्या हल करने का ईमानदार प्रयास नहीं किया।.... और अब जो किसान के पास है, उस पर भी डकैती डाल रही है। जब सरकार ही किसी का उच्छेद करने में जुट जाय तो कौन बचायेगा? यह सरकारी आतंकवाद है। अफसोस, कि इस आवंकवाद पर लगाम लगाने का कारगर तरीका प्रजातान्त्रिक शासन प्रणाली में हम अभी तक विकसित नहीं कर पाये हैं।
इस तरह सोचते हुय तो लगता होगा कि अभी लिखा ही क्या है, इस जीवन पर!
     मैं दस प्रतिशत ही लिख पाऊँगा। अगले दो दशक गाँव पर लिखता रहूँ भी जाने कितना बचा रहेगा। यह मेरी प्राथमिकता है तो और कुछ सोचने का मौका ही नहीं मिल पाता।
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इतने सन्दर्भ सम्पन्न होने के कारण ही आपको लम्बी कहानी या लघु उपन्यास का शिल्प अच्छा लगता है।
     यह भी एक कारण हो सकता है। जो कहानी की पारम्परिक मान्यता है, उससे थोड़ा बाहर मेरी रचनाएँ आती हैं। और लम्बी कहानी होते-होते लघु उपन्यास तक पहुँचती हैं। 'अकाल दण्ड' छोटी लिखना चाहता था, बड़ी हो गई। एक वजह यह भी है कि मुझे उपन्यास लिखने का अवकाश जीवन ने नहीं दिया, इसलिए उपन्यास के विषय लम्बी कहानी में प्रकट हुए। फिर भी बहुत सारी बातें रह जाती हैं हो सकता है कि रिटायरमेन्ट के बाद इन बातों को लिखने का मौका मिले।
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'मैं और मेरा समय' में जैसा गद्य लिखा था आपने वैसा गद्य भी दुबारा नहीं लिखा। वर्णन की वह शैली बहुत पसन्द की गई थी।
    मुझे भी लगता है कि वह शैली लिखने पढ़ने वाले दोनों को बाँधती है। साथ ही लेखक को बहुत गहराई तक अपने आपको टटोलने का अवसर देती है मेरा अगला उपन्यास इसी शैली में लिखा जा रहा है।
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आपकी शैली तो विशिष्ठ है ही, आपकी भाषा भी अलग से पहचानी जाती है। भाषा को यह शक्ति कहाँ से मिलती है?
     भाषा की ताकत मैं लोकजीवन और लोकगीतों से बटोरता हूँ। लोकगीतों में लगभग बहुत कम पढे़ लोग, कम से कम शब्दों में अपनी बात कहते रहते हैं। मैं प्रचलित मुहावरों की शक्ति सँजोता रहता हूँ। मैं अपनी कहानियों में इस शक्ति को विस्तार देता हूँ मेरी कहानियों में लोकगीतों के अंश आते रहते हैं। रेणु को पढ़कर यह सच्चाई आप जान सकते हैं। देखिये इन शब्दों में कितनी मार्मिकता है-
                'सजनी वहि देसवा पै गाज गिरै।
                जौने देसवा के किसनवा राम भिखारी होय गये।।
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तो क्या लोकजीवन में केवल दुख गरीबी और सदन ही है!
      ऐसा नहीं है। 'नया ज्ञानोदय' के इसी अंक में जो मेरा उपन्यास 'आखिरी छलाँग' प्रकाशित हो रहा है, उसमें भी लोकरंग की छाप आप देख सकते हैं ग्रामीण जीवन इतनी विपरीत परिस्थितियों में बचा रह गया है तो इसका कारण भी उसकी आत्मा में बसी त्सवधर्मिता, उल्लास और गीत संगीत है।
जब अभिव्यक्तित की इतनी शक्ति है लोकजीवन में, तब गाँव से उपजे या उससे जुडे़ लेखक इससे क्यों विमुख हो रहे हैं?
      बात यह है कि जो गाँव में पैदा हुआ है, वहाँ की समस्याएँ झेलता भोगता है- वह कोशिश करके उस दुख तकलीफ की जिन्दगी से भागने का प्रयास करता है। जो भाग जाता है उसके लिए गाँव अतीत बन जाता है। इसलिए गाँव पर लिखते समय वह स्मृतिजीवी ही हो सकता है जो उसके लेखन की धार को कुन्द करेगा। और जो गाँव में ही पड़ा रह जाता है, वह उन्हीं समस्याओं का सामना करता है, उनमें डूब जाता है, तब उसके पास इतना वकाश ही नहीं रहता कि उन पर लिखने की सोचे।
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आपसी दृष्टि में ऐसे कौन लेखक हैं, जिन्होंने गाँ की जिन्दगी को प्रामिकता दी है?
     हैं, कई महत्वपूर्ण लोग हैं। प्रेमचन्द, रेणु, शिवप्रसाद सिंह, मार्कण्डेय... मगर मैं कुछ दूसरी तरह से सोचता हूँ। वास्विकताओं में तो रेणु भी पूरी तरह से नहीं उतरे। गाँव की जिन्दगी की रंगीनी, ध्वनि रूप, कौतूहल सब है। बच्चा साँप देखेगा, चिकनापन, लपलपाती जीभ... सम्मोहित हो जायेगा। मगर जहर? जहर की समझदारी भी होनी चाहिए। प्रेमचन्द के यहाँ भी खेती केर्चे, लागत, नफे मुनाफे का अर्थशास्त्र कहाँ है? सामान्यताओं का बढ़िया चित्रण है। जमीदारों का शोषण, किसानों का संघर्ष... पढ़ने को मिला क्या? मैं तरस गया। बहुत कुछ देखने को लिखने को था, उनके पास- जो रह गया।
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यह तो बहुत पुराने नाम हो गए..... इसके बाद!
    बाद के लोगों में मधुकर सिंह, संजीव, रामधारी सिंह दिवाकर, चन्द्रकिशोर जायसवाल, मैत्रेयी पुष्पा, पुन्नी सिंह, महेश कटारे आदि का नाम लेना चाहूँगा।
यह नाम फिर एकाध पीढ़ी पुराने हो चले हैं। जो युवतर पीढ़ी है, इसमें से कुछ का नाम लीजिए।
   आपका यह प्रश्न मुझे भी कभी-कभी चिन्तित करता है। कैलाश बनवासी, अरविन्द कुमार सिंह, सुभाषचन्द कुशवाहा, राकेश कुमार सिंह, गौरीनाथ जैसे लेखकों की कहानियाँ ध्यान आकर्षित करती हैं लेकिन... शैली और शिल्प की दृष्टि से अत्यन्त क्षमता लेकर आये एक दो नये लेखकों ने जरूर गाँव को अपना वर्ण्य वि बनाया है, लेकिन जिसे सरोकार कहते हैं वह तिरोहित नजर आता है। कैरियर की होड़ ने भी उन्हें उधर से नजर फेरने को मजबूर किया होगा। यह विश्वास करने का मन नहीं होता कि गाँव उनके मन से उतर गया होगा। जैसे खेत-खलिहान में बीज छिपे रहते हैं अनुकूल-मौसम आते ही अंकुरित हो उठते हैं। ऐसे ही अंकुरण के लिए कमर कसती नयी, फसल होगी जरूर। आने वाली होगी।
कमर कसने की जरूरत भी है। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के बाद तो गाँव की जिन्दगी पर जाने कैसी-कैसी छायाएँ मँडरा रही हैं!
   सही है। भूमि, जल, वनस्पति, बीज वगैरह के खिलाफ जो साजिशें चल रही हैं, वे सब भूमंडलीकरण में आती हैं। किसान को तो विलुप्तप्राय जीवों की श्रेणी में डाल देना चाहिए। परिवार के परिवार गायब हो रहे हैं। किसी भी गाँव में चले जाइये। गाँव छोड़कर जाते हुए दो-चार किसानों के खाली घर आपको मिल जाएँगे। खंडहर बचे हैं। इस विलुप्तीकरण पर किसी की दृष्टि नहीं है। तब ईस्ट इंडिया कम्पनी ने मारा था, गिरिमिटिया प्रथा ने मारा था, अब भूमंडलीकरण मार रहा है।
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इन स्थितियों का सामना करने के लिए तो लेखक संगठनों को नयी भूमिका में उतरना चाहिए। आप किस लेखक संगठन से जुडे़ हैं?
    सभी से एक उदाहरण दूँगा। बचपन में नाना के यहाँ जाता था। एक ही घर था, उसी में सारे मामा रहते थे। अब सारे मामा अलग हो गये हैं। अब पूछने पर बताना पड़ता है कि हम किस मामा के यहाँ गये थे। वही हाल लेखक संगठनों का है। पाँच छह संगठन हो गये चाहता हूँ बारी बारी से हर मामा के यहाँ जाऊँ। विचारधारा सभी की प्रगतिशील है।
 
फिर भी, क्या ऐसा नहीं लगता कि लेखक संगठनों की भूमिका क्षीण हो रही है? ऐसा इसलिए पूछ रहा हूँ कि संगठनों की तरफ से इधर कथा सम्मेलन आदि के आयोजन कम हो रहे हैं। ज्यादातर प्रयास व्यक्तिगत जैसे हो रहे हैं। जैसे कथाकुम्भ (कोलकाता), संगमन और कथाक्रम आदि। इन सबसे आप भी जुडे़ हैं?
    जैसे व्यक्तित बूढ़ा होता है, संगठन भी  बूढे़ होते हैं। मानसिकता बूढ़ी होती है। इसी का प्रभाव होगा। सम्मेलनों की भूमिका निश्चय ही उत्प्रेरक का काम करती है। नयी और पुरानी पीढ़ी को मिलने का संवाद करने का अवसर प्राप्त होता है इसके लिए विभिन्न संगठन/संस्थाएँ प्रयास करतीं, हर महीने कहीं कहीं इस तरह के आयोजन चलते रहते तो निश्चय ही यह बहुत उत्साहवर्धक होता। लोगों को अभी तक पुरानेथाकुम्भ की याद है। हाल में हुए कथाकुम्भ में भी कई पीढ़ियों को एक साथ मिलने का मौका मिला। संगमन और कथाक्रम के आयोजनों के द्वारा भी व्यक्तिगत रूप से इस तरह के संवाद कायम करने का प्रयास किया जा रहा है।
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संगठन की जिम्मेदारी लेखक की ओर मोड़ते हुए पूछा जा सकता कि क्या लेखक को एक्टिविस्ट होना चाहिए?
     लेखक जिस विषय को या समाज को अपनी रचना का कथ्य बनाता है उसके बारे में लेखक की 'फर्स्ट हैंड' जानकारी होनी चाहिए। उसकी समस्याएँ, उसका संघर्ष लेखक की अपनी समस्या, अपना संघर्ष हो जाना चाहिए। ऐसा तभी हो सकता है जब लेखक उसके साथ एक्टिविस्ट के रूप में जुडे़। इस नजरिये से उसका एक्टिविस्ट होना आवश्यक है। हिन्दी में ऐसा कम हो पा रहा है। इसका कारण यह है कि ज्यादातर लेखक अंशकालिक लेखक हैं। उन्हें आजीविका के लिए कहीं कहीं नौकरी-चाकरी करने की मजबूरी है।
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तो क्या इसी मजबूरी के कारण हिन्दी में ऐसी रचना नहीं रही जो दुनिया को हिला दे? या नोबेल पुरस्कार के लायक मानी जाय!
     एक कहावत है कि चटनी रोटी पर पहलवानी नहीं होती। या हड्‌डी पर कबड्‌डी नहीं खेली जाती। लेखन की उच्चता के लिए विषय की गहराई में डूबने का अवकाश और एकान्त चाहिए। हिन्दी का लेखक लेखन के सहारे जिन्दा नहीं रह सकता। उसे पेट के लिए कुछ कुछ करना पड़ता है। उसी से समय चुरा र वह लेखन करता है। ऐसी स्थिति में वह अपने लेखन को ज्यादा समय दे नहीं सकता। जितना विदेश के वे पूर्णकालिक लेखक देते हैं, जिनकी ओर आपका संकेत है।... अपनी बात करूँ, तो यही 'आखिरी छलाँग' आखिरकार सत्रह दिन में लिखना पड़ा। सत्तर दिन में लिखा जाता तो जाहिर है, बात कुछ और बनती।
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शायद इसीलिए 'आखिरी छलाँग' की पांडुलिपि देते हुए आपने कहा था कि इसके शिल्प पर आप अधिक ध्यान नहीं दे पाये हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि कथ्य के पक्ष पर आपका इतना ध्यान रहता है कि कला पक्ष की ओर से आप थोड़ा उदासीन हो जाते हैं। आपकी दृष्टि में क्या ज्यादा महत्त्वपूर्ण है!
      कथ्य और शिल्प दोनों महत्वपूर्ण हैं। एक आत्मा है तो दूसरा शरीर। कथ्य रूपी आत्मा हो तो शिल्प मुर्दे को सजाने का उपक्रम बनकर रह जाएगा। लेकिन शिल्प पर ध्यान दिया जाय और अनगढ़ रूप में चीज सामने आये, यह भी मेरी नजर में क्षम्य नहीं है। रस परिपाक में शिल्प का महत्वपूर्ण योगदान होता है।
अब आखिरी सवाल। आप भविष्य में क्या-क्या लिखने की तैयारी कर हरे हैं!
      लिखने को तो बहुत कुछ सोचा है। तीन उपन्यास अधूरे पडे़ हैं। सभी गाँव की जिन्दगी पर हैं एक आत्मकथात्मक उपन्यास है। मेरे विचार से गाँव पर तो इतना लिखने को है कि कई लोग लिखें तो भी पूरा हो। ऐसे समझ लीजिए कि 'सब धरती कागद करूँ लेखनि सब बनराय। सात समुद की मसि करूँ गुरू गुन लिखा जाय' वाली निहाद है।... लेकिन क्या लिख सकूँगा...? अभी से क्या बाताएँ क्या हमारे दिल में है!

               

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