ब्लाग के पाठकों के लिए शिवमूर्ति की कहानियों पर वरिष्ट आलोचक वीरेन्द्र मोहन के आलेख के कुछ अंश-
शिवमूर्ति की कहानियाँ भारतीय ग्राम समाज व्यवस्था के भीतर विकसित हो रहे नये संरचनात्मक सम्बन्धों के साथ पारम्परिक संरचना के सम्बन्ध सूत्रों को आधार बना कर नये वैषम्य और नये अन्तर्विरोधों को खोजने का उपक्रम करती हैं। भारतीय समाज की ग्रामीण संरचना में वर्ण, जाति और सम्प्रदाय के तत्व गहरे तक बद्धमूल हैं। उनमें परस्पर विरोध,..संघर्ष और शत्रुता के बीज विघटनकारी शक्तियों द्वारा बोय जाते रहे हैं। वहीं विघटनकारी शक्तियाँ नयी परिस्थितियों में नया रूप धारण करने की तरकीब खोज लेती हैं। इस ग्राम समाज में स्त्री और बर्बर स्थितियों से गुजरना पड़ा है, शिवमूर्ति की कहानियाँ उनका खुलासा करती हैं। तनिक भी अतिरंजित न होने के बावजूद वे अविश्वसनीय भी लग सकती हैं कि मनुष्य समाज इतना निर्मम, निष्करूण और बर्बर तक हो सकता है, रहम इतना मर सकता है। पर ऐसा होता रहा है, यह सच्चाई भी है।
शिवमूर्ति की कहानियों को दलित समाज और नारी जीवन की बदहाली के रूप में देखा जा सकता है। एक ओर जहाँ दलित समाज और नारी जीवन की रक्षा और उत्थान के नाम पर अनेक तरह की योजनाएं और प्रयास किए जा रहे हैं,..वहीं उनका जीवन त्रासद और नारकीय भी उन्ही योजनाओं और प्रयासों की कोख से पैदा होने वाले कारकों से किया जा रहा है। सत्ता समीकरण और अन्याय से जुड़ी ऐसी शक्तियाँ उन्हें न जीने देती हैं और न मरने। कसाईबाड़ा,..अकालदण्ड और तिरियाचरित्तर जैसी कहानियों में सत्ता और शक्ति सम्पन्न वर्ग की यही नीति है। यह दुखद है कि समाज का बड़ा भाग आज न्याय से भी वंचित है। तिरियाचरित्तर की विमली या कसाईबाड़ा की शनिचरी के साथ समाज कौन सा न्याय करता है। हरिजन थाना और महिला थाना क्या कर रहे हैं,.यह छिपा नहीं है। अनुसूचित और पिछड़ी जातियों पर अत्याचार कौन कर रहा है। शनिचरी को गाँव का प्रधान जहर देकर मार डालता है। उसकी लड़की को गाँव प्रधान वैश्यावृत्ति के लिए बेच देता है और 'नेताजी उसकी जमीन सादे कागज पर अंगूठा लगवा कर अपने नाम करवा लेता है। तिरिया चरित्तर की विमली से उसी का ससुर छल से बलात्कार करता है और न्याय के नाम गरम करछुल से उसका मस्तक दाग कर जीवन भर के लिए कलंकिनी बना देता है। अकालदण्ड की सुरजी के साथ सिकरेटरी कौन सा न्याय करता है। आज आदर्श और नैतिक कहे जाने वाले मूल्य क्यों अप्रासंगिक हो गये हैं। विकृतियों को कौन जन्म दे रहा है। केशर कस्तूरी की केशर की यातना को कौन जाने समझेगा।
शिवमूर्ति की कहानियाँ उत्तर भारत के ग्रामीण जीवन को जानने का न केवल एक मुहाना है,.बल्कि तस्वीर भी है। यह तस्वीर पिछले पचास सालों की छवियों की है। यह एक बदरंग तस्वीर है। यहाँ पारिवारिक और सामाजिक विघटन तो है ही,...वर्ग और जातिभेद के चलते उच्चवर्गीय जुल्मों को सहते निम्न वर्ग की दास्तान भी है। गाँव का वातावरण सामूहिक जीवन की परम्परा से सम्पृक्त रहा है। लेखक की पीढ़ी ने जिस गाँव को देखा और जिया है,...वह आजादी के बाद का गाँव है। साधन सम्पन्नता और साधनहीनता के गहरे विभेदों के रहते हुए भी वहाँ की मर्यादाएँ उसे जीवन्त बनाये रहीं। आधुनिकीकरण और औद्योगीकरण की विकासात्मक नीतियों ने गाँव की उपेक्षा की। पुराना ढांचा चरमराया और फिर कुछ ऐसा हुआ कि पता ही नहीं चला और गाँव का वातावरण धीरे-धीर विषाक्त होने लगा। विकास के नाम पंचवर्षीय योजनाओं ने गाँव का दोहन किया और नगरीय जीवन को अधिक विकसित किया गया। गाँव जो स्वयं सम्पूर्ण इकाई थे,...शहर पर आश्रित हो गये। जीवन की मूलभूत सुविधाओं से वंचित गाँव जबरिया जोर जुल्म से मुक्त नहीं हो सके। विकास के इसी अर्थशास्त्रीय मॉडल के चलते देश की सत्तर प्रतिशत आबादी का बड़ा भाग अंधेरे में गुमनाम है। सत्ता, पद और नये अर्थ सम्बन्ध ने नये विकारों को पनपने का अवसर दिया,...पुरानी विकृतियाँ और अधिक घातक होती चली गयीं। गाँव की अच्छी परम्पराएँ देखते-देखते लुप्त हो गयीं। पंचायती राजव्यवस्था तथा शासन की अनेक कल्याणकारी योजनाओं ने समाज के विघटन में भूमिका निभाई और गाँव में दलबन्दी अपने विकराल रूप में विकसित हुई। इसका शिकार गरीब वर्ग हुआ। गाँव का अमन चैन खत्म हो गया। ऐसा पहली बार नहीं हुआ, पर जुल्म करने वालों की मानसिकता निरन्तर क्रर होती गयी। शिवमूर्ति की सभी कहानियाँ गाँव के जीवन के दुखद गाथाएँ हैं। नारी जीवन की त्रासदी से सम्बन्धित इन कहानियों में तीखा आक्रोश व्यंजित होता है और करूणा भी.।
शिवमूर्ति की कहानियों में गरीबी की मार झेलते समाज को भीतर से जाना जा सकता है। जहाँ घर-घर की तरह नहीं, गृहस्थी गृहस्थी की तरह नहीं, वहाँ भोजन, वस्त्र और चिकित्सा आदि की क्या स्थिति होगी। जरूरी से जरूरी और कम से कम आवश्यकताएँ भी जहाँ पूरी नहीं होती,..वहाँ कुपोषण, बीमारी, कमरतोड़ मंहगाई और हाड़तोड़ श्रम के चलते असमय बूढ़े हो गये समाज के लिए जैसे मानव जन्म ही अभिशाप बन गया हो। पर ऐसे समाज में उस तरह की दुर्घटनाएँ नहीं होती जैसी सम्पन्न समाज में होती हैं। जीने की ललक यहाँ किसी भी कीमत में बची रहती है.........
नारी अपनी स्वाधीनता और समानता के लिए जितना संघर्ष कर रही है, उसका जीवन उतना की असुरक्षित और सस्ता होता जा रहा है। उसके श्रम, संघर्ष और त्याग के मूल्य का अवमूल्यन किया जा रहा है। पुरूष के भीतर बैठा पशु उसे झिंझोड़-झिंझोड़ कर नोच रहा है। कसाईबाड़ा की शनिचरी, अकालदण्ड की सुरजी, सिरी उपमा जोग की लालू की माई, तिरिया चरित्तर की विमली, केशर कस्तूरी की केशर तथा अन्य अनेक स्त्री चरित्र शिवमूर्ति की कहानियों में जिन विकराल स्थितियों से गुजरे हैं, वे मानवीय संवेदना को कंपा देने वाली हैं। संवेदनहीन होते समाज की पतनशील संस्कृति में कोई हरकत नहीं होती,..इस चिन्ता को लेखक शिद्दत से महसूस करता है। नारी विमर्श के अन्तर्गत बाल विवाह, अशिक्षा और विपन्नता का उसके जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है,..यह जानना महत्वपूर्ण है। कानूनन जुर्म होते हुए भी क्या बाल विवाह नहीं हो रहे हैं। क्या कानून बना देना ही पर्याप्त है और क्या सामाजिक विवके और जागरण को विकसित करने का प्रयास किया गया। क्या इसके कारण अनमेल विवाहों को बढ़ावा नहीं मिला। इन सभी प्रश्नों को सिलसिलेवार ढंग से शिवमूर्ति ने अपनी कहानियों में उठाया है। यही बात शिक्षा के विषय में भी कही जा सकती है। शिवमूर्ति की कहानियों के अधिकांश स्त्री पात्रों का बाल विवाह हुआ है। सुरजी (अकाल दण्ड), लालू की माँ (सिरी उपमा जोग), ज्ञान की पत्नी (भरत नाट्यम), विमली (तिरिया चरित्तर), केशर (केशर कस्तूरी) के जीवन की अनेक समस्याएं बाल बिवाह के कारण उत्पन्न हुई हैं।.
केशर कस्तूरी की केशर का बाल विवाह हुआ है। तिरिया चरित्तर की विमली बाल विवाहिता है। सिरी उपमा जोग की लालू की माँ बाल विवाहिता है। भरतनाट्यम की ज्ञान की पत्नी बालविवाहिता है। पता चलात है कि बाल विवाह का कारण सामाजिक असुरक्षा और जातीय द्वेष है। बढ़ती दहेज प्रथा को भी इसका कारण माना जाता है.......
निरक्षरता और पिछड़ेपन के इस वातावरण में नारी बहुविध शोषण का शिकार होती है। उस पर अत्याचार किए जाते हैं। इसी अनाचार के चलते नारी विद्रोह भी करती है। शिवमूर्ति की कहानियों के नारी पात्र संघर्ष और विद्रोह की शुरूआत करते हैं। कसाईबाड़ा की शनिचरी संघर्ष को स्वीकार करती है। अकालदण्ड की सुरजी और तिरियाचरित्तर की विमली संघर्ष की जीवन्त मिसाल हैं। वे आदर्शवाद के पाखण्ड की वास्तविकता को समझने लगी है। कसाईबाड़ा की सुगनी शनिचरी को बताती है 'काकी अपना परधान कसाई है। इसने पैसा लेकर हम सबको बेच दिया है। शादी की बात धोखा थी। हम सबको पेशा करना पड़ता है, रूपमती को भी। अमीरों के घर सोने भेजा जाता है।'
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शिवमूर्ति की कहानियों में संयुक्त परिवार और संयुक्त परिवार के विघटन तथा उससे उत्पन्न कारकों की पहचान मिलती है। भरतनाट्यम, सिरी उपमा जोग तथा केशर कस्तूरी में पारिवारिक विघटन कमजोर पक्ष को और अधिक दयनीय बना देता है। लेखक ने संयुक्त परिवार और विघटित परिवार में आर्थिक आधार और उससे उत्पन्न सम्बन्धों को पहचाना है। शिवमूर्ति की प्राय: सभी कहानियों में यह केन्द्रीय विचार है। शिक्षा के आदर्श और जीवन के यथार्थ के बीच जो फासला है, अनेक विसंगतियों और समस्याओं का कारण यह भी है। इस सत्य को लेखक व्यंगरूप में स्वीकार करता है। इससे मानवीय और पारिवारिक सम्बन्ध प्रभावित होते हैं। यही कारण है कि आज का युवक जिसका निर्माण आदर्श और नैतिकता की बुनियाद पर हुआ है, जब जीवन संग्राम में उतरता है तो गर्हित यथार्थ के साथ स्वयं को समायोजित करने के दौरान भीषण मानसिक यंत्रणा से गुजरता है। भरतनाट्यम के ज्ञान की यही स्थिति है.........
शिवमूर्ति की कहानियों का समाज गरीबी और भूख से जूझता हुआ पिछड़ा समाज है। अकाल और भुखमरी की स्थितियाँ श्रम संस्कृति का ही सबसे अधिक अवमूल्यन करती हैं। गरीबी सबसे बड़ा अभिशाप बन कर आती है। अकाल का दण्ड गरीब और श्रमरत समाज को ही भोगना पड़ता है। अकालदण्ड जैसी कहानियाँ वस्तु स्थितियों की पहचान करने में कहीं भी चूक नहीं करती। अकाल के समय शासन द्वारा चलाये जाने वाले राहत कार्यो की आड़ में कितनी अनैतिकताएं होती हैं। कितना भ्रष्टाचार होता है,..अकाल दण्ड से इसका भी खुलासा होता है। अकाल राहत भी लूट और कालाबाजारी का एक व्यवसाय है। सिकरेटरी और रंगी बाबू की नापाक संगति आकाल राहत के अनाज की कालाबाजारी करती है। आधी मजदूरी देकर काम कराया जाता है। स्त्रीयों का शारीरिक शोषण किया जाता है। बलशाली सम्पन्न वर्ग अकाल का सबसे अधिक फायदा उठाता है। प्रोफेसर अमरत्य सेन ने अकाल को उत्पादन-वितरण तथा सामाजिक आर्थिक कारकों के संदर्भ में विश्लेषित किया है। उन्होंने बताया है कि आकाल-उत्पादन में प्रत्यक्ष कमी की वजह से कम,,..बल्कि उसके वितरण एवं अन्य सामाजिक-आर्थिक कारकों से अधिक प्रभावित होते हैं। प्रो..सेन की दृष्टि में अकाल जैसे प्राकृतिक विपदा भी सामाजिक-आर्थिक कारकों से पैदा होती है। शिवमूर्ति की अकालदण्ड कहानी अकाल के ऐसे ही दर्दनाक मंजर से हमारा परिचय कराती है। यहाँ अकाल से उत्पन्न विभीषिका के साथ मुनष्य का संघर्ष कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। सुरजी इस संघर्ष की जीवन्त पात्र है, जिसका पति परदेश में है और बूढ़ी अपाहिज तथा बीमार सास की जिम्मेदारी उस पर है। अकाल राहत कार्य के नाम पर बलशाली उच्च वर्ग मनमानी करता है। वह भ्रष्टाचार को बढ़ावा देता है। कालाबाजारी से बिकने वाला अनाज गरीब की क्रय शक्ति से बाहर है। ऊपर से काम न मिलने और अनाचार के कारण गाँवों से मेहनतकश वर्ग पलायन करता है। अकालदण्ड का सिकरेटरी भ्रष्टाचार, विलासिता और अन्याय का प्रतीक चरित्र है और उसका सहायक है रंगी बाबू, जिसे लुटेरा और अपराधी कहना ज्यारा उपयुक्त है। सुरजी को अपने शील की रक्षा के लिए सिकरेटरी के साथ कठिन संघर्ष से गुजरना पड़ता है। उसे यातना, अपमान और लांछन की स्थितियों से गुरना पड़ता है। क्योंकि सिकरेटरी काम वासना से अंधा हो सुरजी को पाने के लिए नये-नये पाखण्ड रचता है। तिरिया चरित्तर की विमली को भी इस संघर्ष से गुजरना पड़ता है।
आकालदण्ड की सुरजी श्रम संस्कृति की अनोखी मिसाल है। इस श्रमरत समाज को ही अत्याचारों और यातनाओं से गुजरना पड़ता है.........
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शिवमूर्ति की कहानियाँ नैतिकता के प्रश्न से बार-बार टकराती हैं। इस नैतिकता के अन्तर्गत वे काम भावना और कामवासना का भी मूल्यांकन करते हैं। स्त्री के संदर्भ में वे इस काम वासना को अपराध बोध से जोड़ देते हैं। लेकिन केवल स्त्री के संदर्भ में इन प्रश्नों को नहीं देखा जा सकता। पूरे वातावरण और परम्परा तथा स्थिति के संदर्भ में इन प्रश्नों पर विचार किया जाना चाहिए........
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धार्मिक पाखण्ड के भीतर पलने वाले अनाचार और भोग विलास को महिमामण्डित नहीं किया जा सकता। शिवमूर्ति की कहानियों में धर्म और र्इश्वर के पाखण्ड की कोख में होने वाले अनाचार और दुष्कर्म को पहचाना गया है। तीर्थो और धार्मिक स्थलों में होने वाले ऐसे कारनामे अब जग जाहिर होने लगे हैं। अकालदण्ड की सरजूपारी चाची का वृत्तान्त इसी का संकेत करता है। तिरियाचरित्तर का विसराम अपने पाप को छिपाने के लिए धार्मिक पाखण्ड का सहारा लेता है और अकालदण्ड का सिकरेटरी पाप कर सन्तों की शरण में जाता है..........
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शिवमूर्ति की कहानियों में शासनतंत्र की बनावट और कार्य पद्धति का भी वर्णन किया गया है। एक यांत्रिक और संवेदनहीन जीवन का नजारा सरकारी दफ्तरों में देखने को मिलता है। यहाँ न्याय और नियम केवल एक दिखावा है। सरकारी विभागों में होने वाले भ्रष्टाचार और घुसखोरी को अब पाप और अचरज के साथ नहीं, बल्कि एक नेय स्वीकृत अलिखित विधान की तरह देखा जाता है। भरतनाट्यम में शिक्षित बेरोजगार ज्ञान को सस्ते गल्ले का लायसेंस पाने के लिए घूस देना पड़ता है। लूट का यह काम अनेक तरह से और अनेक स्तरों पर होता है कसाईबाड़ा अकालदण्ड, भरतनाट्यम और सिरी उपमा जोग जैसी कहानियों में सरकारी दफ्तरों का नजारा देखने को मिलता है। सरकार का कोई भी विभाग इससे अछूता नहीं है। प्राइवेट प्रबन्धन में भी शोषण और भ्रष्टाचार जाति और सम्प्रदायवाद अपना विकास कर रहा है। अनेक प्रकार की अनैतिकताएं सरकारी विभागों का धर्म बन गयी हैं। अकाल दण्ड में दरोगा कहता है 'दूराचारी भ्रष्टाचारी नहीं तो क्या सदाचारी ब्रम्हचारी कर सकेंगे सरकारी नौकरी? सरकारी नौकरी करना कोई खिलवाड़ है?.........
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