Saturday, February 28, 2015

मेरी पुस्तक 'सृजन का रसायन' पर एक टिप्पणी



चीन में दूसरा दिन


चीन में दूसरा दिन
                                                                'शिवमूर्ति'
     कल की थकान इतनी ज्यादा थी कि सोये तो ऐसे सोये कि सबेरे 6 बजे वेेकअप काल की घंटी बजी तो लगा सपने में बज रही है। पत्नी ने उठते ही उबलने के लिए केतली में पानी रख दिया। कल रेस्टोरेंट से एक स्प्राइट की दो लीटर वाली खाली बोतल लायी हैं। उबला हुआ पानी ठंडा करके इसी में भर कर रास्ते में पीने के लिए साथ ले चलेंगी। कल बस का ड्राइबर एक डालर में 750 एमएल की दो बोतलें दे रहा था। यही रेट बाहर भी होगा। यानी 61 रूपये में डेढ़ लीटर पानी। मेरी मानसिकता वाले व्यकित के लिए यह बहुत मंहगा लग रहा है। दरिद्र मानसिकता मरते दम तक साथ नहीं छोड़ने वाली।
चीन  की दीवार के बेस कैम्प पैर

चीन  की दीवार पर 
      रास्ते में पड़ने वाली नग तराशने की एक फैक्टरी और मोती बनाने वाली एक इकार्इ को देखते हुए आज चीन की दीवार देखने जाना है। चीन की दीवार के लिए मेरे मन में दुर्निवार आकर्षण है। किशोरावस्था में एक पत्रिका में उसके बारे में पढ़ा था- चिन नाम के बादशाह ने 221 र्इ. पूर्व मंगोल आक्रमण से देश को बचाने के लिए इस दीवार का निर्माण शुरू कराया था। फिर अगले, फिर अगले राजा, इसका निर्माण कार्य निरन्तर कराते रहे अगले हजार बारह सौ साल तक। तब नहीं सोचा था कि कभी इसे साक्षात अपनी आखों से देख सकूगा। कहते हैं यह ग्यारहवी शताब्दी तक बनती रही। 6 हजार किमी से ज्यादा लम्बी। यानी पचास साठ पीढि़यां पैदा होती रहीं, बनाती रहीं और मरती रहीं। इस बीच राजवंश बदल गये लेकिन निर्माण नहीं रूका। एक अपने यहां का इतिहास है कि एक ने बनाया तो दूसरे ने तोड़ा और लूटा। बनवाया भी कुछ तो पुल और सड़क नहीं, महल या मंदिर बनवाया। हमारे यहां आदमी के हाथ में परलोक रूपी ऐसा झुनझुना पकड़ा दिया गया कि पैदा होने से मरने तक उसी को बजाने में मंगन रहो। ब्रहम सत्यं जगत मिथ्या। जो सच है, नजरों के सामने है उसे मिथ्या मानते रहे और जो मिथ्या है, काल्पनिक है उसे सच। मिथ्या सच के सिर पर इस तरह चढ़कर बैठ गया कि सच का दम घुट गया। वह आज तक मिथ्या के चंगुल से मुक्त नहीं हो पाया। 
       नास्ता करके 8:30 बजे बस में सवार हो जाना है। कल की चिल्लपों का असर यह हुआ कि आज नास्ते की गुणवत्ता सुधर गयी। उसमें कार्नफ्लेस, दूध, केला, आमलेट और अंगूर तथा संतरे का जूस शामिल हो गया। नास्ता करते करते गाइड सिन्डी अपनी झंडी लिए हाजिर हो गयी।
       पत्नी जल्दी-जल्दी नास्ता करके बस की खोज में निकल गयीं। पिछली सारी विदेश यात्राओं के दौरान मैंने देखा कि वे बस में सबसे आगे की सीट हथियाती हैं। मैं पूछता हूँ- सबसे आगे बैठने की इतनी ललक क्यों? बगल से भी सब कुछ दिखायी देता है। आगे बैठने पर तो आपका ज्यादा समय सामने सड़क निहारने में चला जाता है। फिर, दूसरे लोग भी तो आगे की सीट पर बैठने की इच्छा रखते होंगे। उन्हें भी मौका मिलना चाहिए। पर वे नहीं मानती। उनका तर्क है कि जो पहले आये वह अपनी मनपसंद सीट पर बैठे। अमेरिका यात्रा में 'स्टेचू आफ लिबर्टी देखने जाने के दौरान बोट के दाहिने हाथ की सीट पर बैठने को लेकर उनकी एक लम्बी चौड़ी लकदक गुजराती महिला से लड़ार्इ हो गयी। दरअसल बोट पर सवार होने के दौरान टूर मैनेजर मिस्टर सावक ने ब्रीफ कर दिया कि फोटोग्राफी के लिहाज से खुली बोट के दाहिने भाग के किनारे की सीटें उपयुक्त रहेंगी। बस सब दाहिने किनारे की ओर भागे। मैं तो दूसरे लोगों के हाव भाव, कपड़े लत्ते, रोब रूतबा देख कर किनारा कर लेता हूँ लेकिन यही चीजें उन्हें भड़का देती हैं। कुछ गलत देखती हैं या उन्हें लगता है कि कोर्इ उन्हें दबा रहा है या धौंस में लेने की कोशिश कर रहा है तो हत्थे से उखड़ जाती हैं।
          मोती बनाने वाली इकार्इ का शो रूम दस हजार वर्ग फीट से कम क्या होगा। मोती जड़े गहनों के शो केस, मालायें, अंगूठियां, नेकलेस और भी जाने क्या क्या। करोड़ो का माल। प्रवेश द्वार पर ही बडे़ बड़े जार रखे थे। पानी भरे इन जारों की पेंदी में बड़ी बड़ी सीपियां, बुलबुले छोड़ती हुर्इ। एक आदमी एक बाल्टी लेकर आया और इनमें से 10-12 सीपियां निकाल कर बाल्टी में डाल लिया। फिर एक लड़की आर्इ। उसने आवाज देकर सबको पास बुलाया और मोती निर्माण की प्रक्रिया बताने लगी। एक सीप को उठा कर उसका मुँह चाकू से फैलाया और उसके पेट में सिथत अंडे की सफेदी जैसी तरल बूंद को दिखाते हुए बताया- यही बूंद निर्माण की प्रक्रिया से गुजर रहा मोती है। उसने कर्इ सीपियों को फाड़कर निर्माण के अलग-अलग स्टेज दिखाये फिर फाड़ी गर्इ सीपियों को उसी बाल्टी में फेक कर सबको लेकर हाल में चल गयी। मैं उन फाड़कर फेंकी गयी सीपियों को देखता रहा। अभी कुछ क्षण पहले तक उनमें जीवन था। अब वे कटी फटी दशा में कूड़े के ढेर की तरह पड़ी थीं। मैं सिहर गया। क्या सिर्फ हम पर्यटकों को निर्माण की प्रक्रिया दिखाने के लिए इन्हें फाड़ कर फेंक दिया गया। आठ दस अर्धनिर्मित मोती फेंक दिए। इतना नुकशान। यह सच नहीं हो सकता। पर सीपियों की जान चली गयी यह तो प्रत्यक्ष था। मैंने मन को समझाया- जरूर कुछ नजर का धोखा होगा। 
      वहां से चलकर हम नग बनाने वाली एक फैक्टरी में आये। सैकड़ों शो केस। बिजली की रोशनी में जगमगाते। सैकड़ों लाफिंग बुद्धा। एक किनारे लगी हल्के हरे पत्थर की चटटाने। मुझे एक कोने में एक साधारण सी मेज पर बडे़ खरबूजे के आकार की गोल हरी आकृति ने आकृष्ट किया। इस गोले में चारों तरफ एक डेढ़ सेमी व्यास के दस बारह छेद बने थे। इन छेदों से गोले के अंदर बना एक और गोला दिख रहा था। पहले से पूरी तरह स्वतंत्र और आसानी से चलायमान। उसकी सतह पर भी उसी तरह छेद थे और उन छेदों के अन्दर एक अन्य गोला दिख रहा था। एक के अंदर एक कुल चार गोले और सभी निर्बाध गतिशील। मैं आष्चर्य में पड़ गया। कैसे कारीगर ने एक बडे़ पत्थर को तराश कर इस तरह एक के अंदर एक गोले बनाए? लेकिन शिल्पी कौन है, यह कहीं दर्ज नहीं था। सेल्सगर्ल ने बताया कि देहात के कारीगर बना कर दे जाते हैं बिकने पर उन्हें इसका मूल्य दे दिया जायेगा। पता नहीं यह कब बिकेगा और कब इसका कितना मूल्य उस बेचारे को मिल पायेगा। सेल्सगर्ल ने कहा कि हो सकता है महीने भर में बिक जाये। हो सकता है साल भर लग जाये। 
      मामूली से दिखने वाले पत्थरों की आभा तराशने से निखर गयी थी। वे निर्जीव माडलों के गले में शोभायमान थे, हजार, डेढ़ हजार डालर के प्राइस टैग के साथ। चीन में अब विदेशी कम्पनियों को भी निर्माण का लायसेंस दिया जा रहा है। यह विदेषी कम्पनी ही थी। पहले ऐसा नहीं होता था। 
          यहां से चीन की दीवार करीब बीस किमी दूर है। थोड़ी दूर चलते ही पहाड़ की चोटी पर उसकी झलक दिखने लगी। दूर तक किसी डै्रगन की तरह ही बलखाती पसरी हुर्इ। खड़ी चढ़ार्इ वाले नुकीले ऊँचे पहाड़ों के सिर पर चढ़ कर बैठी थी यह। जैसे जैसे पास पहुंचते गये रोमांच बढ़ता गया। हमारी बस जिस सड़क से होकर गुजर रही थी उसके दोनों ओर पहाड़ की श्रृंखला फैली थी और उन पर चढ़ी दिख रही थी यह दीवार। इस पर भी, उस पर भी। बेस तक पहुंच कर बस रूकी। हम नीचे उतरे। देखा ठीक बायीं तरफ के पहाड़ पर चींटी की तरह नीचे से ऊपर चोटी की ओर बीस फीट की चौड़ार्इ में खड़ी चढ़ार्इ की सीढि़यों पर रेंगती भीड़। बाप रे! इतनी खड़ी चढ़ार्इ पर कैसे इतनी ऊँची चौड़ी दीवार बना दिया इन लोगों ने। वह भी ढ़ार्इ हजार साल पहले। कैसे चढ़ाये होंगे निर्माण सामग्री। आगे टिकट घर के पास से बायीं तरफ भी एक दीवार जा रही थी। गाइड ने बताया कि यह अपेक्षाकृत कम चढ़ार्इ वाली है। इस पर वह जो तीसरा ब्लाक दिख रहा है वहाँ तक तो यूरोपियन ही चढ़ पाते हैं। एशियार्इ मूल के लोग दूसरे ब्लाक तक चढ़ते हैं। चढ़ने को तो आप में से भी कुछ लोग हो सकता है चढ़ जायें लेकिन वापस लौटना कठिन हो जायेगा। जांघे भर आयेंगी। पैर कांपने लगेंगे। चढ़ने से ज्यादा उतरना पहाड़ हो जायेगा। जिन्हें हार्ट की समस्या हो या हार्इ ब्लड प्रेसर हो, बेहतर होगा वे जोखिम न उठायें। 
         पत्नी को यह सुनकर अच्छा नहीं लगा कि केवल यूरोपियन ही इतने सक्षम माने जा रहे हैं जो तीसरे ब्लाक तक चढ़ सकते हैं। उन्होंने मेरा हाथ दबाते हुए कहा- मैं भी तीसरे ब्लाक तक चढ़ूंगी। 
         -तुम मंगोलिया तक क्यों नहीं चली जातीं, तीसरा चौथा सब पार करते हुए। मैंने नाराजगी दिखायी- ब्लड पे्रशर की दवा खाती हो और आगे-आगे कूदती रहती हो। 
        -कूदूंगी, कूदूंगी। मुझे डराओ नहीं। खाने पीने का झोला और पानी लिए हुए, मेरा हाथ छोड़ वे तीन चार कदम आगे बढ़ गयीं। कैमरा और वीडियो संभालते हुए मैं। पीछे पीछे चला। दाहिने हाथ की चढ़ार्इ वास्तव में बायें की तुलना में समतल थी। हमने यही राह पकड़ी। 
        क्या तो दमदार पत्थरों को काट कर बनायी गयी है यह दीवार। दीवार भी और सड़क भी। वह भी सीढ़ीदार। किनारे किनारे पत्थर की ही रेलिंग। 4-5 इंच से लेकर 8-10 इंच तक के स्टेप। डेढ़-दो सौ सीढ़ी के बाद बगल में विश्राम के लिए बनाया गया कमरा और करीब पौन किमी पर एक बड़ा ब्लाक या हाल जिसमें सौ डेढ़ सौ सैनिक आसानी से विश्राम कर सकते हैं। (सही दूरी और नाप अब आप गूगल पर देख सकते हैं।) रेलिंग पकड़ कर चढ़ने उतरने वाले ज्यादा रहते हैं इसलिए रेलिंग से सटी सीढि़यां कहीं कहीं घिस गयी हैं। बाकी अंगद के पांव की तरह जस की तस। कभी इन पर घुड़सवार पहरेदार सैनिक चला करते थे। बिना इन पर चढे़ इनकी भव्यता और भयावहता का अनुमान लगाना संभव नहीं। कुछ उतरे आ रहे हैं, कुछ चढ़े जा रहे हैं, कुछ आसपास की रेलिंग पर अपना नाम अंकित करने पर लगे हैं। रूकते रूकाते लाग डाट में हम दो ब्लाक तक चढ़ गये। थकान आ गयी। मैं एक समतल रेलिंग के पत्थर पर बैठ गया। फोटोग्राफी, वीडियोग्राफी करने लगा। पत्नी कुछ देर तक पोज देती रहीं फिर धीरे धीरे चढ़ कर पचास साठ सीढ़ी ऊपर गयीं। मैंने सावधान किया- मदद के लिए पुकारोगी तो नहीं आ सकूँगा। लौट आओ। 
         -अकेली स्त्री को मददगारों की क्या कमी। कहकर वे हंसी और आगे बढ़ने लगीं। अगले मोड़ पर आंखों से ओझल हो गयीं। तेज गुस्सा आया। लेकिन क्या फायदा जब गुस्सा झेलने वाला ही कोर्इ नहीं है। सोचा मैं भी चलूं पर हिम्मत न हुर्इ। कहीं ऊपर ही न रह जाऊं। अंतत: करीब आधे घंटे बाद वे वापस लौटती दिखीं। साथ में दो अन्य विदेशी पहनावे वाली महिलायें। पता चला वे दोनों हरियाणा मूल की हैं और तीस पैंतीस साल से कनाडा में बस गयी हैं। वापसी में सचमुच पैर कांप रहे थें। बेस पर बने एक प्लेटफार्म पर खडे़ होकर लोग फोटो खिंचा रहे थे, यादगार के लिए। किसी भी झुंड में किसी के भी साथ। नाम, पता, फोन नम्बर लिखा दीजिए। पैसा जमा कर दीजिए। फोटो आप के पते पर पहुंच जायेगा। हमने भी फोटो खिंचार्इ। बस में पहुंचने वाले हम दोनों अंतिम यात्री थे। 
        यहां से चल कर एक विशाल रेस्टोरेंट में खाना खाने के लिए रूके। बाहर टूरिस्ट बसों की लाइन लगी थी। कर्इ मंजिल का रेस्टोरेंट। हर मंजिल पर 60-70 बड़ी मेजें। खाने के साथ बियर मुफ्त थी। पानी नहीं मिलेगा। स्प्राइट, कोकाकोला या बियर। हर प्रकार का खाना। हर प्रकार के खाने वाले। एशियार्इ, यूरोपियन, अफ्रीकन। विभिन्न पहनावे, विभिन्न बोलियां।
        यहां से हम समर पैलेस देखने गये। चीन के सम्राट की गर्मी के महीने की अराम गाह। लम्बी चौड़ी कुनमिंग लेक के किनारे लागिविटी हिल पर बना पैलेस। कर्इ सारे भवन। बारहवीं सदी में बना। यूरोपियन फौजों ने रौंदा जलाया। फिर बना। गर्मी के महीने में राजा 'फारबिडेन सिटी का महल छोड़कर अपनी सारी रानियों और 'कान्क्यूबाइन माने रखैलों के साथ यहां आ जाता था। यहां के कुछ महल बहुत खास हैं, जैसे- लांगिविटी पैलेस, ट्रानिक्वलिटी पैलेस, वीगर पैलेस। इनके मूल चीनी नाम तो जो होंगे सो होंगे। हिन्दी अनुवाद में हम दीर्घायु भवन कह सकते हैं जिसमें रहने से आयु बढ़ जाती है। बुढ़ापे को दूर भगाने का इंतजाम। प्रशानित भवन, चिन्ता उद्विग्नता या भय को दूर भगाने वाला। और पौरूष भवन, जिसमें रहने से पौरूष बढे़ या कम से कम जितना पौरूष बचा रह गया हो वह कायम रहे। भार्इ, पुरूष तभी तक पुरूष है जब तक उसका पौरूष बरकरार हैं। पौरूष गया तो वह कूडे़दान में फेंकने की चीज हो गया। मैंने एक बार टी.वी. पर देखा था, एक युवा शेरनी गुर्रा गुर्रा कर बूढे़ शेर को भगा रही थी। बेचारा कैसे पूंछ दबाए, अपमान के बोझ से सिर झुकाए, थके कदमों से चला जा रहा था। हारे हुए राजा की तरह पड़ रहे थे उसके कदम। विशाल कुनमिंग झील में एक भी चिडि़या नहीं थी। किनारे आठ दस पाली हुर्इ बत्तखें डक्क डक्क कर रहीं थीं।
            वहां से लौटते हुए हम ओलमिपक स्टेडियम पर रूके। यहीं पर 2008 के ओलमिपक खेल हुए थे। लगभग एक किमी लम्बे रास्ते पर ऊंचे ऊंचे खम्बों पर नियान लाइट चमक रही थी। विशाल स्पाती ढांचा बीच मैदान में खड़ा था। हजारों पर्यटक टहल रहे थे। देर तक फोटोग्राफी करने के बाद हम डिनर के लिए उत्सव होटल आये। सवेरे जियांग के लिए बारह बजे की फ्लाइट पकड़नी थी इसलिए इत्मीनान से उठे। नहाये धोए नास्ता किये। 9:30 पर होटल से निकले। आज सिन्डी से विदार्इ का दिन था। वह हम लोगों को लेकर एअरपोर्ट पर आयी। पैक्ड लंच दिया। चेक इन कराया और कहा सुना माफ की स्टाइल में किसी सम्भावित भूल के लिए सारी कह कर विदा ली। लेकिन उसकी आंखों में कोर्इ तरलता नहीं दिखी। सब कुछ रस्मी रस्मी। बार बार मिलने और बिछुड़ने की प्रक्रिया में ऐसा हो ही जाता होगा। 
          पत्नी द्वारा पर्स में सेब काटने के लिए छिपाकर रखा गया छोटा चाकू सिक्यूरिटी चेक में निकलवाया गया तो दुखी हो गयीं। मान लिया कि उसे लगेज में न डाल कर बेवकूफी किया। करीब फर्लांग भर आगे आ गयी थीं तो सिक्यूरिटी चेक की लड़की ने पीछे से आकर उनका पर्स खींचा। अब क्या गड़बड़ हो गयी? लेकिन कोर्इ गड़बड़ नहीं थी। वह सिक्यूरिटी चेक के दौरान छूट गया कैमरे का कवर देने आयी थी। बाप रे! इतनी दूर तक दौड़कर कवर देने आयी। और इतनी भीड़ में कैसे पहचाना कि यह कवर हमने छोड़ा था? थैक्यू भी उसी ने कहा। हम तो मूक खडे़ रह गये। 
          चाइनीज एअर होस्टेस देखकर एक बार फिर मन मुदित हुआ। साढे़ पांच फीट से कोर्इ कम नहीं। गोरी नहीं गुलाबी। ऊंची नासिका और ऊंची सैंडिल वाली। कहां से छांट छांट कर भर्ती किया है इन चीनियों ने भार्इ। प्लेन सम पर आया तो हमने अपना पैक्ड लंच खोला। चावल और रायता। साथ में भरवां पराठा। फिर फ्लाइट का लंच भी आ गया। कुछ खाया कुछ छोड़ा। 
          जियांग एअरपोर्ट पर सोफिया अपनी सौम्य मुस्कराहट के साथ मौजूद थी। सिन्डी 40 की थी लेकिन यह तीस से ज्यादा नहीं होगी। भोली सूरत, बिना मेकअप का चेहरा और राख के रंग वाली पैंट सर्ट पहने मझोले कद की धीमे धीमे मुस्कराकर (और शायद बहुत हल्की सी तुतलाहट के साथ) बोलने वाली सोफिया ने मुग्ध किया। न कोर्इ र्इगो, न कोर्इ आडम्बर, न कोर्इ दिखावा। बातचीत से पढ़ी लिखी लगी। बस के चलने के साथ उसने जिआंग शहर का परिचय देना शुरू किया। बताया की पहले जियांग ही चीन की राजधानी था। पेकिंग, जिंयाग ल्हासा, काठमांडू और दिल्ली एक सीधी रेखा में हैं। यहां 26 सम्राटों की कब्रें हैं। यहां की जमीन बहुत उपजाऊ है। यहां चावल की तुलना में गेहूँ ज्यादा पैदा होता है जिससे 108 प्रकार के व्यंजन बनाये जाते हैं। यह इलाका ब्यूटीफुल लेडीज और बहादुर सिपाही पैदा करने के लिए जाना जाता है। हर बहादुर सिपाही को एक ब्यूटीफुल वाइफ चाहिए ही चाहिए। ब्यूटीफूल पर उसका खास जोर था। उसने बताया कि शहर में दो मार्केट हैं। 'र्इस्ट एन्ड और 'वेस्ट एन्ड। एक शापिंग के लिए और दूसरा 'ब्यूटीफुल लेडीज को देखने के लिए। उसने बताया कि आस पास के इलाके में जो लोग पैसे वाले हो जाते हैं वे पहले मार्केट में जाकर ब्यूटीफुल लेडीज या गर्ल पसंद करते हैं। उससे उसकी च्वाइस पूछते हैं। वह कहती है कि मुझे फला अपार्टमेंट का फलां मंजिल का फ्लैट पसंद है। वह पैसे वाला उस फ्लैट को खरीद कर उसकी चाभी उस 'गर्ल को थमा देता है। तब वह उस पैसे वाले के साथ चली जाती है। चाहे 'वाइफ के रूप में या 'मिस्ट्रेस के रूप में। सुन कर बड़ा अच्छा लगा। क्या व्यवस्था है। यहीं रह जाने का मन हो रहा है। मैंने पत्नी की ओर देखा। वे बोलीं- रह जाइये। ऐसी जगह फिर न मिलेगी। 
         क्या तो मधु की तरह मीटी आवाज और सपना दिखाने वाली आंखे हैं सोफिया की? नाक कान एकदम सादे। न कोर्इ छेद न कोर्इ आभूषण। मुझे लगा कि यदि इसको गलती से आभूषण पहना दिए गये तो इसकी सुन्दरता घट जायेगी। रात का डिनर 'दिल्ली दरबार नाम के रेस्टोरेंट में था। वहां ले जाने के लिए मिस्टर राक नाम का एक अन्य गाइड आया। रास्ते में उसने बताया कि जिस इलाके में कल आपको ले चलेंगे वहां एक जगह ऐसी है जहां आज भी शादी के पहले वर वधू एक दूसरे को नहीं देखते। उनके मां बाप ही यह रिस्ता पसंद और तय करते हैं। जैसा कि कुछ समय पहले आपके इंडिया में होता था। उसने बताया कि यहां के पुरूष अपनी सित्रयों के पैर को बांधने के लिए एक खास तरह की पैकिंग का इस्तेमाल करते हैं। यह मान्यता है कि स्त्री के पैरों को बांध कर रखने से ही कोर्इ पुरूष उस स्त्री को काबू में रख सकता है अन्यथा स्त्री को काबू में रखना बहुत कठिन। वह किसी के काबू में रहने वाली शै ही नहीं है। एक ही उपाय है कि उसके पैरों को बांध कर रखो। जो लड़की अपने पैरों में यह बंधन नहीं स्वीकारती उसकी शादी होना मुशिकल। कौन पसंद करने का जोखिम लेगा ऐसी बन्धनहीन स्त्री को। और भी बहुत सी लन्तरानियां सुनार्इ उसने रेस्टोरेंट पहुंचने तक। पता नहीं कितनी सच कितनी झूठ। उसकी आवाज उसके शरीर की तरह ही मोटी और भौय भांय करने वाली थी। इसलिए बहुत कुछ समझने से रह गया। लेकिन जिस वजह से मैंने बीच में उसकी चर्चा छेड़ी उसका कारण दूसरा है। पता चला कि यह राक सोफिया का मंगेतर है। हे भगवान! तेरा करिश्मा तू ही जाने। कहां भों भों करके बोलने वाला यह मोटा बेडौल राक और कहां कोयल सी कूकने वाली चिकनी तन्वंगी सोफिया।
        मेरे सहकर्मी मोहम्मद अहद एक शेर सुनाते थे-
        जाख की चोंच में अंगूर, खुदा की कुदरत
        पहलुए हूर में लंगूर खुदा की कुदरत।

        जाख का मतलब पूछने पर उन्होंने बताया था- कौआ।
        अब आज आगे और कुछ न लिखा जायेगा। 

लू शुन के देश में


चीन यात्रा का यह संस्मरण वर्तमान साहित्य के  फरवरी २०१५ अंक में प्रकाशित हुआ है ब्लॉग के पाठकों के लिए यहाँ प्रस्तुत 

लू शुन के देश में


शिवमूर्ति
    जब बचपन में पढ़ता था-
इस पार हमारा भारत है, उस पार चीन जापान देश।
मध्यस्थ खड़ा है दोनों के एशिया खंड का यह नगेश।।
    तो सोचता था कि बडे़ होकर किसी दिन इस नगेश हिमालय पर चढ़ कर उस पार बसे चीनियों का जनजीवन देखूँगा। जैसे-जैसे बड़ा होता गया, चीनियों के बारे में जानने की उत्कंठा बढ़ती गयी। बडे़ बूढे़ कहते थे कि हमारे देश से ही बौद्ध धर्म चीन, जापान, थाईलैण्ड आदि देशों में गया है। दर्जा 6 में था तभी सन् 62 में भारत चीन युद्ध हुआ। तब से कभी-कभी लगाया जाने वाला नारा- ’हिन्दी चीनी भाई भाई’ बंद हो गया। और बड़ा हुआ तो, चीनी यात्रियों फाहियान और हवेनसाॅग के बारे में पढ़ा। बाद में चेयरमैन माओ और चीन की महान दीवार आकर्षण का केन्द्र बने। 
    लू शुन को पढ़ा तो चीन के प्रति नजदीकी महसूस होने लगी। थियानमान चैक पर बीते दिनो हुआ छात्रों का नरसंहार चीन की छवि उसके प्रतीक फॅुफकारते ड्रैगन जैसा भयकारी बनाने लगा। सोचा, इस बार यथासंभव चीन को भीतर से देखने समझने की कोशिश की जाय।
    विगत वर्षाें में जो लोग अमेरिका यूरोप या साउथ अफ्रीका आदि की यात्रा में साथी बने थे उनका मन टटोला। लेकिन चीन की यात्रा के लिए किसी ने भी उत्सुकता नहीं दिखायी। लोगों का कहना था कि चलना ही होगा तो सिंगापुर, थाईलैंड, मकाऊ या हाॅगकाॅग चलेंगे। चीन में क्या है? अंत में हम पति पत्नी ने अकेले जाने का मन बनाया। दिल्ली से हम चाइना ईस्टर्न एअरलाइन्स की उड़ान संख्या 564 से 9 व 10 मई की रात्रि में
चीन के अंतिम बादशाह पू ई 
2ः30 बजे संघाई के लिए उड़े। चीनी आदमी की कल्पना करने पर मेरे दिमाग में अबतक पाँच सवा पाँच फीट की स्थूल आकृति ही उभरती थी लेकिन फ्लाइट में जो युवा चीनी अभिवादन और सार सॅभाल करते मिले उनमें से कोई भी पौने छः-छः फीट से कम नहीं था। लम्बे छरहरे सुदर्शन। स्थूलता का नामोनिशान नहीं। और एअर होस्टेस कोई भी साढे़ 5 फीट से कम नहीं। तन्वंगी और गोरी नहीं, गुलाबी। नासिका भी चपटी नहीं ऊॅची। कहाॅ से ले आये चीनी लोग इन्हें छाॅटकर। अपने जीन्स में भी क्रान्ति कर डाला क्या? बाद में चीन घूमते हुए लगा कि सचमुच चीनियों की औसत ऊँचाई बहुत बढ़ गयी है। मैं तो चीन के पारम्परिक गाँवों में भी गया। इक्का दुक्का बूढे़ पुरानो को छोड़कर कहीं भी नाटे आदमी नहीं दिखे।
 
    विमान के उड़ते ही लोगों को जल्दी जल्दी लाइट बुझाकर सो जाने की हड़बड़ी थी। लेकिन मेरी नींद तो उड़ चुकी थी। अगर मैं दस साढे़ दस बजे, हद से हद ग्यारह बजे तक सो न जाऊँ तो मेरी नींद गयी। अब जागरण ही करना होना। अच्छा है, मैंने सोचा। दिल्ली से चलते समय चित्रकार मित्र लाल रत्नाकर ने चीन से गिफ्ट के रूप में अपने लिए तीन चीजें लाने के लिए कहा है, जिन्हें मैंने कागज के एक टुकड़े पर नोट कर लिया था। अब सिर के ऊपर लगी रीडिंग लाईट जलाकर मंैने उसे डायरी में नोट किया। पहली चीज, चाइनीज ब्लैक इंक। बताया कि इसका कोई जवाब नहीं। पेंटिग में प्रयोग की जाती है। दूसरी, सैबल हेयर (गिलहरी की पूँछ के बाल) से बना पेंटिंग ब्रश जो खास चीन में ही मिलता है और तीसरी, कोई चाइनीज पेंटिंग जो यादगार बना जाय। लिखकर मंैने भी लाइट बंद कर दी। खिड़कियाॅ पहले ही बंद थीं। नीम अंधेरे में सारे यात्री बेखबर बेखौफ सो रहे थे। विमान मानों आकाश में स्थिर हो गया था। मेरी सीट खिड़की के पार दाहिनी तरफ थी। कुछ देर आॅखे बंद करने के बाद मैंने धीरे से खिड़की का ढक्कन थोड़ा सा उठाया। पूरब में लोहा लगने लगा था। बचपन में पिताजी भोर में उठाते थे- उठो, लोहा लग गया। मतलब पूर्वी क्षितिज पर ऊषा की लाली फैलनी शुरू हो गयी। किसानों के हल बैल लेकर खेत मे जाने का समय हो गया। गृहणियों के जाँत पीसने का समय हो गया। विद्यार्थियों की पढ़ाई का समय हो गया। ऋषियों मुनियों के स्नान ध्यान का समय हो गया। तब उठाये से नहीं उठता था। बहुत दिनों बाद आज लोहा लगना देख रहा था। धीरे-धीरे सारा पूर्वी आकाश लाल हो गया। हम लोग हिमालय पार कर रहे होंगे।
    थोड़ी देर में जाग हो गयी। चाय, जूस़... नास्ता सर्व होने लगा। 11 बजे हम शंघाई उतरेंगे। वहाँ से प्लेन चेंज करके 12ः30 बजे चलेंगे तो 3ः30 बजे वीजिंग पहंुचंेगे। संघाई के बारे में कहते है कि न्यूर्याक से भी बड़ा और शानदार है। इस टूर में चीन के उत्तरी मध्य और पूर्वी तीनों क्षेत्रों को देखने की योजना है। शहर के साथ गाँव भी घूमने का मन बनाया है। इसके लिए आखिर के दो दिन खासतौर पर रखा है, जब बाकी साथी मकाऊ या हाॅगकाॅग के लिये उड़ जायेंगे, हम पति पत्नी चीन के सुदूर स्थित गाॅवों के भ्रमण पर जायेंगे। मेरा विश्वास है कि वहाॅ के किसानों का जीवन अभी भी उसी तरह का होगा जैसा हमारे यहाॅ भारत में है। और भारत में भी क्या उत्तर दक्षिण पूरब, हर जगह एक सा है? इतनी विविधता तो वहाॅ भी होगी । 
    वीजिंग हवाई अड्डे पर उतर कर हम होटल के लिए चले। लगभग पचास मिनट की यात्रा। इस यात्रा के दौरान मैं सड़क के दोनो तरफ नजर दौड़ाता रहा कि हमारे मुल्क का कोई पेड़ पालव दिखायी पड़ जाये लेकिन अपने परिचय का कोई न मिला। न नीम, न जामुन, न महुआ, न इमली। पीपल, पाकड़, बरगद भी नहीं। हाॅ आम के तीन चार छोटे कद के पेड़ जरूर दिखे जो सड़क से दूरी बनाए एक जगह खडे़ थे। इस बीच एक नदी भी मिली। पर बालू के किनारों वाली नहींे। कीचड़ मिट्टी में लिथड़ी। पानी घटा हुआ था। यानी बगुलों के लिए मछली के शिकार का उत्तम योग। लेकिन यहाँ तो एक भी बगुला न था। आसमान में भी नहीं। ध्यान दिया तो पाया कि किसी भी प्रजाति की चिड़िया नहीं दिख रही है। बाद में हमारी लोकल चाइनीज गाइड सिन्डी ने बताया- यह कहते हुए मुझे बड़ी शर्म महसूस हो रही है कि हमारे देश की सारी चिड़िया हमारे पूर्वजों के पेट में चली गयीं। अब हम उन्हें देखने, उनकी बोली सुनने के लिए तरसते हैं। अपने बच्चों को किताबों में उनके चित्र दिखाते हैं। अगर आपको हमारे देश में कहीं कोई चिड़िया दिख जाय तो समझिए अपनी जान जोखिम में डाल कर वह चीन में रह रही है। 
    सिन्डी ने सही कहा था। आगे की अपनी यात्रा में मुझे जियांग के एक बडे़ और फूलों से लदे पार्क में केवल एक गौरैया फुदकती दिखी और पूरब का वेनिस कहलाने वाले ‘वाटर विलेज’ जाने के रास्ते में एक कत्थई कौआ। दोनो ही अकेले। सिन्डी ने एक दिन बताया कि उनके यहाॅ तलाक का प्रतिशत 35 से 40 तक है। मैने सोचा कि यह गौरैया या कौआ भी कहीं तलाक शुदा तो नहीं है। नहीं, ए विधुर या विधवा होंगे। इनका जोड़ीदार किसी चीनी द्वारा उदरस्थ कर लिया गया होगा। तितलियाँ भी नहीं दिखी। इतने फूल खिलने का क्या मतलब कि जिनके लिए ए खिले हैं वे ही नहीं हैं इनका रसपान करने के लिए।
    हमारे होटल का नाम है- डे इन ज्वाइस्ट। लेकिन कमरे में न हेयर ड्रायर है न प्रेस। न चाय के लिए दूध या चीनी। पत्नी किसी भी होटल में पहुंचने पर पहले हेयर ड्रायर खोजती हैं फिर बाथरूप देखती हैं। उन्होंने सारी सम्भावित जगहें खोज डालीं। हेयर ड्रायर न मिला। उनका मुँह लटक गया। मिनरल वाटर की बोतल तक नहींे है। सिर्फ पानी गर्म करने वाली केतली भर है। बेड टी देने का यहाँ रिवाज ही नहीं है। तब इसका नाम ज्वाइस्ट कैसे हुआ?
कमरा और बाथरूम तो बड़ा था लेकिन नहाने के लिए बनाया गया शीशे का केबिन इतना छोटा कि उसमें खडे़ होने के बाद झुकना मुश्किल । कैसे होटल में इन्तजाम किया है इन लोगों ने । मेरी आदत पीढे़ पर इत्मीनान से बैठ कर नहाने की है। खडे़-खडे़ नहाना भी कोई नहाना हुआ। यह तो उसी तरह मजबूरी में निबटाना हुआ जैसे भूतकाल में कभी समयाभाव या स्थानाभाव के चलते एकाध आनंददायक काम खडे़ खडे़ निपटा लिए जाते थे। नहाने में वैसा दुर्निवार आकर्षण मेरा कभी नहीं रहा कि किसी भी तरह निपटाने की चाहत जगे। थोड़ी ठंड भी थी इसलिए शाम का स्नान मैने मुल्तवी कर दिया। 
    सबेरे नास्ते में न दूध था न कार्नफ्लैक्स। न मेवे न शहद न फल। सेब के कुछ टुकड़े रखे गये थे। मक्खन की क्वालिटी भी बहुत मामूली। छाछ से निकाले गये कच्चे मक्खन की तरह। बिना गर्मी के ही गला जा रहा था। अंडा केवल उबले रूप में था। उसके भुजिया आमलेट जैसे रूप नदारत थे। योरोप और अमेरिका में मिलने वाले नास्ते की तुलना में यह नास्ता एकदम सूखी बासी रोटी जैसा था। अपनी आदत के मुताबिक मैने थोड़ा शोर शराबा शुरू किया। एक दो समर्थक तैयार किए। मैनेजर आया। ‘सारी’ बोला। केला, सेब, कार्नफ्लेक्स और दूध का इंतजाम हुआ। 
रिसेप्शन के हाल में हमारी लोकल गाइड सिन्डी हाथ में एक झंडी लिए अवतरित हुईं। उसने दोनों हाथ जोड़कर बौद्ध ढंग से सिर झुकाते हुए स्वागत किया- नी हाउ!  यानी चीन में आपका स्वागत और अभिवादन है। नी हाउ कहकर किसी का स्वागत अभिवादन करते हैं चीन में। यदि सामने वाला आप से कुछ रूष्ट भी है तो नी हाउ कहते ही वह सामान्य हो जायेगा, ऐसा बताया। स्वागत के साथ ही उसने अपना परिचय दिया। तेज तेज नहीं बल्कि जल्दी जल्दी बोलने वाली बाला सिन्डी चालीस के आस पास की होंगी। गोरा रंग, चैड़ा चेहरा। बाबकट। पौने पाॅंच फीट की लम्बाई ‘प’ को ‘च’ बोलने वाली।  जैसे पेन को चेन। डालर को शालर या चालर। उसने बताया कि उच्चारण की अपनी सीमा के कारण जिस भाषा में बात करेगी उसे इंगलिश नहीं चिंगलिश कह सकते हैं। बताया कि यद्यपि उसने अमेरिका से इंगलिश स्पीकिंग का कोर्स किया है पर लाख कोशिश के बावजूद ‘च’ से पिंड छुड़ाने में कामयाब नहीं हो पायी, सो बियर विद मी। 
सिन्डी ने बताया की उसका चीनी नाम तो कुछ और है लेकिन उसकी अमेरिकन टीचर ने उसका नाम रख दिया सिन्डी और उसने गुरूदक्षिणा के रूप में ‘सिन्डी’ स्वीकार कर लिया। सिन्डी का मतलब होता है लिली। इसलिए आप इंडियन लोग मुझे लिली भी कह सकते हैं। जब उसे बताया गया कि गुरू दक्षिणा में शिष्य गुरू को भेंट या मोमेंटो देता है न कि गुरू से लेता है। यह तो चीनी ही होंगे जो उल्टे गुरू से दक्षिणा लेते होंगे, जैसे तुमने लिया। उसे पूरी बात समझने मंे थोड़ी देर लगी लेकिन जब समझी तो जोर से हॅसी और बोली- हम चीनी लोग देने में कम लेने में ज्यादा यकीन करते हैं। 
    सिन्डी ने सावधान किया- चीन में आपकी यात्रा निरापद बीते और कोई दुर्घटना न घटे इसके लिए जरूरी है कि हमेशा कुछ सावधानियाँ बरतें। यद्यपि हमारे यहाँ कम्यूनिस्ट पार्टी का शासन है और रेड लाइट एरिया बंद कर दिया गया है। कसीनोे भी नहीं है लेकिन मैं यह कहते हुए शर्मिन्दा हूँ कि हमारे देश में  जेबकतरे, ठग और नकली नोट के करोबारी बहुत सक्रिय हैं। अपना पासपोर्ट होटल के रिसेप्शन पर या अपने कमरे के लाकर में रख कर ही चलें अन्यथा पर्स छिन जाने या जेब कट जाने पर पासपोर्ट के अभाव में परेशानी हो जायेगी। पर्स में ज्यादा धन न रखें और चंेज लेकर चले। किसी वस्तु के खरीदने पर उतना ही धन पर्स से बाहर निकाले जितनी कीमत देने के लिए जरूरी है। बडे़ नोट का प्रदर्शन हरगिज मत करें। अनजान व्यक्ति से मनी एक्सचेंज न करें वरना वे फेक करेंसी पकड़ा देंगे या किसी ऐसे मुल्क की करेंसी दे देंगे जिसकी मौद्रिक कीमत घटी हुई होगी जैसे आजकल ‘रियाल‘ है। वापसी के नोट ठीक से जाॅच लें। महिलाये अपनी चेन ढक कर चलें। गले में डाले ही नहीं तो सबसे अच्छा है। अपने पर्स और मोबाइल पर सदैव नजर रखें। वर्ना ए चीजें पलक झपकते गायब हो सकतीं हैं। और अंत में, होटल का एक कार्ड तथा पानी की छोटी बोतल सदैव साथ रखें। 
    बाप रे! इतने खतरे। इतनी सावधानी। 
    (यह और बात है कि इतना सावधान किये जाने के बावजूद आगे हम लुटे भी और नकली करेंसी के शिकार भी हुए) 
    पूरी तरह सावधान होकर, गर्म कपड़े पहन कर, जूता मोजा डाट कर हम थियानमान चैक लिए बस में बैठे। सिन्डी ने हाथ में ली हुई झंडी को हिलाते हुए कमांड दिया- आलवेज फालो मी। फालो माई फ्लैग। अपने झुंड से बिछड़ जायें तो पुलिस के पास जायें और होटल का कार्ड दिखायें। 
    घटाएँ तो सबेरे से घिरी थीं, बस के चलते ही बरसात शुरू हो गयी। बाप रे! छाता लेने की तो याद ही न रही। बहुत कम लोग ही छाता लेकर चले थे। बस के रूकते ही बरसाती और छाता बेचने वाली महिलाओं ने बस को घेर लिया। वही छाता पहले दो से तीन डालर में दिया फिर एक डालर यानी 60-62 रूपये में और अंत में 5 युवान यानी 50 रूपये तक में। बस से उतरने से लेकर छाता खरीदने तक आधा भीग गये। 
    पता नहीं क्या कारण था कि थियानमान चैक पर आज अपार जन-समूह उमड़ पड़ा था। देहात से आये बच्चे महिलायें। कन्धे से कन्धा छिल रहा था। गनीमत थी कि सब लाइन में थे। लम्बी लम्बी लाइनें। आधे लोग बिना छाते के और छकाछक बरसता पानी। कहते हैं इस चैक पर पाँच लाख लोग समा सकते हैं। सचमुच बहुत बड़ा। बड़ी देर बाद हम लोग स्मारक के सामने से गुजर पाये। कई वर्ष पहले यहाँ हुए भीषण नरसंहार का दृश्य आँखों में समोते रहे फिर उस स्मारक से होकर गुजरे जहाँ चेयरमैन माओ का शव सुरक्षित रखा गया है।
    पुलिस यहाॅ चाक चैबन्द दिखी। हमारे समूह के एक वृद्ध दम्पति भीड़ में छिटक कर अलग हो गये। तेज हवा ने उनके छाते की कमाचियां उलट दीं। वह उन्हें भीगने से बचाने लायक न रहा। वे एक किनारे खडे़ काॅपने लगे। किसी से कोई बात करना या मदद लेना संभव न था। भाषा का संकट था। तब पुलिस आयी। उनके होटल का कार्ड देखकर, टैक्सी का इन्तजाम किया । पचास युवान यानी 500/- में टैक्सी वोले ने उन्हें एक किमी दूर होटल तक पहुंचाया। 
    चीन में सारी चीजें भारत से मंहगी हैं। फिर चीन में बनी चीजें विदेशों में इतनी सस्ती कैसे बिकती हैं? दो वर्ष पहले में टोरंटो के एक माल में घूम रहा था। सारी चीजों पर मेड इन चाइना दर्ज था। रिबन, पर्स या गुड़िया से लेकर सूटकेस तक पर। पूछने पर दुकानदार ने कहा- हम कुछ नहीं बनाते। सिर्फ बेचते हैं। पूरा बाजार, पूरा कनाडा चाइनीज माल से पटा पड़ा है। 
    चाइना का माल ही नहीं चाइना का आदमी भी। अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान मैं प्रसिद्ध अमेरिकी कथाकार जैक लण्डन का स्मारक देखने सान फ्रान्सिस्को गया। वहाॅ का एक बड़ा हिस्सा चाइना बाजार ही है जिसकी दुकानों पर लगे साइन बोर्ड में सबसे ऊपर चीनी (मंदारिन) भाषा के बडे़ बडे़ अक्षर विराजमान थे और उनके नीचे छोटे कद के अँग्रेजी अक्षर। पता चला कि सान फ्रान्सिस्को शहर की मेयर एक चाइनीज लेडी थीं। कोइ बता रहा था कि चीन की सरकार अपने निर्यातकों को भारी मात्रा में सब्सिडी देती है जिससे चीनी माल पूरी दुनिया में सस्ता बिकने के बावजूद चीनी निर्माताओं को घाटा नहीं होता। मेरी समझ में यह समीकरण अभी तक नहीं आया।
    थियानमान चैक पर जिस चीज ने सबसे ज्यादा ध्यान आकर्षित किया वह थे फूलों से बने करीब पचीस तीस फीट लम्बे तथा 5-6 फीट चैड़ाई वाले वर्गाकर स्तम्भ और मैदान के किनारे किनारे रंग बिरंगे फूलों के बार्डर। ताजे खिले फूलों की अल्पना। सचमुच सुरूचिपूर्ण सजावट। भीगती और ठंड से काॅपती देंह के अंदर मन पुलकित होता रहा। 
    यहाॅ से लंच के लिए गये उत्सव रेस्टोरेंट। रास्ते में हम ऐसी सड़क से गुजरे जिसके एक तरफ अपेक्षाकृत बडे़, साफ सुथरे, रंग रोगन युक्त दुमंजिले मकान या फ्लैट थे और दूसरी ओर पुराने पारम्परिक एक मंजिले बुझे रंग रोगन वाले। सिन्डी ने ध्यानकर्षित करते हुए बताया कि चाइना को यहाँ से देखिए। चीन में अब आपके इंडिया की तरह संयुक्त परिवार की अवधारणा नहीं रह गयी है। सड़क के इस तरफ इन बडे़ घरों में युवा पीढ़ी रहती है और दूसरी तरफ के पुराने घरों में बूढ़ी पीढ़ी। बूढ़ों को बातचीत के लिए साथी चाहिए और युुवाओं केे इन बूढ़ों की पुरानी यादों को सुनने के लिए न धैर्य है न इसकी जरूरत। इसलिए दोनों को ही एक दूसरे के साथ रहना पसन्द नहीं है। कभी कभार छुट्टी में बच्चे बूढे़ माॅ बाप के पास या माॅ बाप बच्चों के पास मिलने चले गये, इतना ही काफी है। सड़क के दोनों ओर जीवन जीने की रफ्तार अलग है। युवा चीनी अपने पड़ोसियों तक को नहीं जानता। वह बैंक बैलेंस बढ़ाने में जुटा रहता है। मैं खुद अपने सामने वाले फ्लैट के पड़ोसी को नहीं जानती। मैं और मेरा पति सबेर 7ः30-8ः00 बजे घर छोड़ देते हैं और आठ साढे़ आठ तक थके थकाए घर लौटते हैं। पड़ोसी को कब और क्यों जाने? पड़ोसी को तो छोड़िए, इसी एकल परिवार की अवधारणा तथा दोनों लोगों के कामकाजी होने के चलते हम अपने बच्चे को ही नहीं जान पाये। चैदह साल की उम्र में ही वह विगड़ गया। ड्रग एडिक्ट हो गया। हम उसे अच्छी शिक्षा देकर सुधारना चाहते हैं लेकिन वह हम लोगों से कोई लगाव ही नहीं रखता। उसे हास्टल में रखने को मजबूर हैं लेकिन हम पति पत्नी बारी बारी उसके हास्टल का खर्च उठाते हैं। ऐसी व्यवस्था कर दिए है कि मेरे व मेरे हस्वैंड के एकाउन्ट से उसके हास्टल की फीस आटोमेटिकली डिपाजिट होती रहती है।
    -बारी-बारी, अलग-अलग एकाउन्ट से फीस जमा करने की बात समझ में नहीं आयी।
    सिन्डी ने समझाया- ऐसा है, हमारे यहाॅ पति पत्नी अपना अलग एकाउन्ट रखते हैं। अपनी कमाई अपने एकाउन्ट में। हमारे यहाॅ तलाक की दर बहुत अधिक है। कब किसका तलाक हो जाय, कहना मुश्किल। इसिलए हर व्यक्ति अपनी कमाई अपने पास रखता है। परिवार में होने वाला खर्च आधा आधा बांट लिया जाता है।
    सब लोग थोड़ी देर तक चुप रह गये। फिर सिन्डी ने ही बात आगे बढ़ाई- मेरे बच्चे के बिगड़ने का एक कारण सिंगल चाइल्ड फेमिली का होना भी है। परिवार में दो या तीन बच्चे होते तो उनका सोसलाइजेशन ज्यादा अच्छे ढंग से होता लेकिन तब हम दूसरा बच्चा पैदा नहीं कर सकते थे। 
    -क्यों?
    -क्योंकि चीन में कुछ समय पहले तक एक ही बच्चा पैदा करने का कानून था। वर्ष 2008 के पहले अगर आप दूसरा बच्चा पैदा करना चाहते तो आपको सरकारी खजाने में में 8 से 20 हजार युवान जमा करने पड़ते। आम आदमी के लिए यह सौदा मंहगा पड़ता था। ऐसा सौदा चंद अमीर लोग ही कर सकते थे। कुछ पैसे वालेे लोग तो सिर्फ अगला बच्चा पैदा करने के लिए कुछ समय के लिए विदेश चले जाते थे। अब यह कानून बन गया है कि यदि आपका पहला बच्चा गर्ल चाइल्ड है और सात साल का हो गया है तो आप दूसरा बच्चा पैदा कर सकते हैं। 
    -गर्ल चाइल्ड वाले ही क्यांे?
    - चीन पारम्परिक रूप से किसानों का देश रहा है जहाँ पिता की जगह खेती का काम करने के लिए लड़के की जरूरत महसूस की जाती रही है। इसी के चलते लड़का प्राप्त करने की प्रबल इच्छा चीन में आज भी बरकरार है। इसी के चलते चीन में लड़का और लड़की का अनुपात 3ः2 हो गया है। इस अनुपात ने अपना जीवन साथी चुनने के काम में लड़कियों की स्थिति लड़कों की तुलना में बेहतर कर दी है। यहाॅं की लड़कियाँ अपने लिए वर का चुनाव करने में दिल से नहीं दिमाग से काम लेती हैं। वे अपने भावी पति में दस गुणों का होना आवश्यक मानती हैं। यथा- वह कम से कम 1.75 मीटर लम्बा हो। वह ठीक ठाक पढ़ा लिखा हो। वह मैनेजीरियल नौकरी में हो। वह बीड़ी, सिगरेट, शराब न पीता हो। वह पत्नी की माॅ का भी भरण पोषण व सम्मान करने को राजी हो। उसकी कोई स्वीट हार्ट यानी प्रेमिका न हो। वह वेतन का पैसा परिवार पर खर्च करने का वचन दे। वह बच्चों को उच्च शिक्षा देने के लिए कृत संकल्प हो।
    लेकिन यह तो कुल आठ ही शर्तें हुईं। बाकी दो क्या थीं, बहुत याद करने पर भी मुझे याद नहीं आ रही है। 
    सिन्डी ने बताया कि सुन्दर लड़की चीनी युवक की सबसे बड़ी चाहत होती है। लड़की के पीछे वे लाइन लगाये रहते हैं। उसको पाने के लिए कोई भी शर्त मानने को तैयार रहते हैं। भले बाद में वे इन शर्ताें को भूलने लगें। 
    उसने बताया कि चीनी आदमी पूरी तरह वर्तमान मंे जीता है। जब चीनी आदमी के पास पैसा आता है तो वह पहले गाड़ी बदलता ह,ै फिर बीबी बदलता है, फिर मकान बदलता है। 
    -और, चीनी औरत के पास पैसा आता है तो?
    -तो उसका जोर मर्द बदलने पर चाहे उतना ज्यादा न रहे पर वह एक हार्ड बाॅस जरूर बन जाती है। तब सारा घर का काम हस्वैंड के जिम्मे आ जाता है। खासकर कुकिंग, क्लीनिंग एन्ड डिश वाशिंग। 
    -और वाइफ के जिम्मे?
    -सिर्फ मेकअप, आफिस, शापिंग एंड स्लीपिंग।
    बस में बैठी हिन्दुस्तानी ‘वाइफें’ खुलकर मुस्करायी। एकाध ने अपने हस्बैंड के चेहरे की ओर भी देखा। 
    उत्सव रेस्टोरेंट का खाना अच्छा था। चावल की क्वालिटी उतनी अच्छी भले नहीं थी लेकिन खूब सफेद, रीझा हुआ और मीठा था। तन्दूरी रोटी, मूँग की दाल, आलू मटर की सब्जी, पापड़, दही, अचार और सलाद। चिकन करी और फ्राइड फिश का तो जवाब नहीं। अंत में सफेद रसगुल्ला और आइसक्रीम। बस पीने के लिए पानी नहीं था। पानी की जगह हर टेबल पर दो लीटर की पैक्ड कोका कोला तथा स्प्राइट की चार पाॅच बोतलें और डिस्पोजेबल गिलास। पानी की जगह इसी को पीजिए और जितना चाहे पीजिए। बस पानी मत माॅगिए। मिनरल वाटर लेंगे तो उसका पैसा अलग लगेगा। खाना जितना मर्जी खाइये। 
    उत्सव रेस्टेरोरेंट का मारवाड़ी मालिक 35-36 वर्षीय दीपक है। दीपक हर टेबल पर पहुंचकर पूछ रहा था- कुछ और चाहिए?  खाना कैसा बना है? कोई कमी? और क्या इम्प्रूव कर सकते हैं? उसका उत्साह और मिलनसारिता देखकर लग रहा था कि जल्दी ही यह अरबपति हो जायेगा। करोड़पति तो वह हो ही गया है। 
    दीपक अपने पंजाबी दोस्त के साथ ग्यारह साल पहले कलकत्ते से बीजिंग आया था। एक दो साल भटकने समझने के बाद दोनों ने चीनी लड़कियों से विवाह किया फिर इस दुकान को उन्हीं के नाम से किराये पर लेकर होटल खोला। तीन साल पहले इसे खरीद लिया। दोनो मित्र मिलकर इसे चला रहे हैं। दोनों के ससुराली जन इसे चलाने में सहयोग करते हैं। दीपक के साले बैरे का काम करते हैं। यह रेस्टोरेंट दिन में एक बजे से रात 9ः00 बजे तक खुलता है। अब उसका पंजाबी खत्री मित्र अलग रेस्टोरेंट खोलने जा रहा है।
     दीपक की पतली पीली सुन्दर चीनी पत्नी एक दम भारतीय गृहणी की तरह मुस्कराना और शरमाना सीख गयी है। दीपक की 6-7 वर्ष की बेटी एकदम मारवाड़ी बच्ची लग रही थी, स्वस्थ और गदबदी। रंगरूप सब पिता का। 
    लंच लेकर हम ’टेंपल आफ हेवन’ देखने गये। यह एक बहुत ऊंचे व लम्बे चैडे़ आधार पर बनाया गया स्तूप है जिसमें अपेक्षा कृत कम चैड़ाई और ऊँचाई का प्रवेश द्वार बना है। अंदर कोई मूर्ति नहीं है। खाली स्थान। गाइड ने बताया कि पहले यहाॅ केवल सम्राट ही पूजा करता था। आमजन को पूजा करने का अधिकार नहीं था। अंतिम सम्राट जिन्होंने यहाॅ पूजा की उनका नाम ‘पु इ’ था। पू इ माॅचू राजवंश का अंतिम शासक थे जो मात्र दो वर्ष की उम्र में 1908 में गद्दी पर बैठे । इनका जीवन बडे़ उतार चढ़ाव में बीता। चढ़ाव क्या, उतार ही उतार में। यद्यपि इनके पास तीन हजार रानियाॅ और रखैलें थी लेकिन कोई संतान नहीं थी। कुछ दिन तक ए जापान के कब्जे में रहे फिर द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान रूस द्वारा बंदी बना लिए गये। चीन के रिपब्लिक बनने पर रूस ने इन्हें चीन के हवाले कर दिया। चीन की जेल में इन्होंने कैदी नम्बर 981 के रूप में कई वर्ष बिताए। जेल में ये माली का काम करते थे। सन् 1959 में चीन की आजादी की दसवीं वर्षगाॅठ के अवसर पर इन्हें मुक्त किया गया। वृद्ध और अशक्त हो जाने पर इनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं था तो तत्कालीन प्रधानमंत्री चाउ एन लाई ने इनकी सेवा के लिए एक नर्श की व्यवस्था करा दी थी। यह दारूण कथा सुनकर मन अजीब सा हो गया। कितना बदकिस्मत बादशाह था। बिलकुल मुगल खानदान के अंतिम वंशज बहादुर शाह जफर की तरह। 
    यहाॅ से होटल लौटे तो सूरज डूबने की तैयारी कर रहा था। सात बजे डिनर के लिए होटल की लाबी में पहुँचना था। थक कर चूर थे। अगर अभी ऊपर कमरे में गये और विस्तर पर पड़ गये तो क्या पता डिनर के लिए नीचे उतरने की हिम्मत भी रहे या नहीं। होटल के बगल से एक गली अंदर की पुरानी बस्ती में जाती दिख रही थी। पत्नी ने कहा कि चलिए शहरी चीन का दूसरा चेहरा देख आया जाय। 
    गली में थोड़ा आगे बढ़ते ही पुराने लखनऊ या बनारस की तंग गलियों का नजारा दिखने लगा। वहीं खपरैल या टीन की छत। कहीं कहीं प्लास्टिक सीट की ढलवाॅ छत जिसके ऊपर दीवार की सीध में ठीक ऊपर ईंट या पत्थर रख कर उसे आॅधी में उड़ने से बचाने का जुगाड़ किया गया था। छोटे छोटे एक मंजिले दुमंजिले घर। घर या दड़बे। छत तक पहुंचने के लिए लकड़ी की सीढ़ियाॅ। मोटी मोटी भौंहो और होंठों वाले रोते मचलते मोटे गदबदे गोरे गंदे बच्चे।     धूसर कपड़ों में लिपटी पीले काले दाॅतों वाली घरेलू काम निबटाती औरतें। अंगीठी या चूल्हे से उठता धुॅआ। गन्दगी और कूड़ा। बेतरतीब खड़ी साइकिलें, ठेले, दौड़ती भागती कुड़कुड़ करतीं पालतू मुर्गियाॅं। बस कुत्ते नहीं थे। कुत्ते कहीं नहीं दिखे। कुत्ते भी शायद चीनी पूर्वजों के पेट में जा चुके हैं। एकाध जगह घर के बाहर टाट या प्लास्टिक के पर्दे भी दिखे। एकाध जगह, जहाॅ तक मैं समझ सका, उठौवा पाखाना भी। या यह मेरा भ्रम होगा। किसी से पूछने जानने का कोई जारिया नहीं था। भाषा का संकट। लोग हम अजनबियों को अजीब नजरों से देख रहे थे। खासकर औरतें। अंधेरा होने लगा था। गली में बिजली के खंभे दूर दूर पर थे और उन पर जलती रोशनी बहुत मंद थी। गाइड सिन्डी की हिदायत याद आयी- अपना पर्स और मोबाइल सॅभालकर.. लगता है हम लोग धीर धीरे एकाध किमी तक अंदर चले गये थे। पत्नी तो अभी जाने क्या क्या देख लेना चाहती थीं। आगे ही आगे बढ़ी जा रही थी। किसी स्त्री से अपनी देहाती अवधी में कुछ पूंछ भी लेती और भौचक चेहरा देकर खुद ही झेंप कर आगे बढ़ जाती। मैंने आवाज देकर उन्हें रोका। फिर ठेले साइकिलों, कोयले, चैलियों के ढ़ेर और बर्तन भाड़ों से बचते बचाते होटल लौटे। 
पानी में भीगने तथा कई किमी तक दिन भर चलने के कारण बहुत थकान थी। मोजे धीरे-धीरे जूते के अंदर ही सूख गये थे। लगभग यही हाल जर्सी का था। हमने डिनर के बाद ही कमरे में जाने का निश्चय कया। डिनर बहुत फकीरी था। रोटी त्रिभुज चतुर्भुज जैसी व चीमड़ थी। सूखी सब्जी मंे क्या क्या था पता नहीं चल सका सिवा आलू और लोबिया जैसी पतली फली के। चावल खिचड़ी जैसा गीला। लेकिन भूख बहुत तेज थी। कुछ ज्यादा ही खा गये। कमरे में जाकर किसी तरह जूते मोजे उतारे और लुढ़क गये। सबेरे चीन की दीवार देखने जाना था। इसके लिए जल्दी उठना था। नींद बहुत गाढ़ी आयी लेकिन इसी बीच चीन के अंतिम सम्राट पु इ सपने में आये। दुबले पतले लम्बे संम्राट खाकी हाफ पैंट और सफेद सैंडो बनियान पहने थे। उनके सिर पर मुकुट बंधा था। वे नंगे पैर थे और थोड़ा झुक कर हजारे से जेलर के गमले में लगे फूलों की सिंचाई कर रहे थे। दूर से उनका चेहरा मुझे अपने बड़के मौसिया जैसा लगा । मैं उनका हाल चाल पूछने के लिए आगे बढ़ने ही वाला था कि फोन की घंटी घनघनाने लगी । यह सबेरे छः बजे की ‘वेक-अप’ काल थी जो थोड़ी देर तक मुझे सपने का हिस्सा ही लगती रही । 

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