Saturday, October 24, 2009

समकालीन हिंदी कहानीः दिशा और उसकी चुनौतियां / शिवमूर्ति

मैं पहले भी कह चुका हूं कि आलोचक की भूमिका माली की होती है, न कि लकड़हारे की। उसे बगीचे के पौधों की काट-छांट का अधिकार है, न कि उनका सिर कलम करने का। किंतु आज के अधिकांश आलोचक माली की नहीं, लकड़हारे की भूमिका अदा कर रहे हैं। .....और इस प्रकार कहानी की दिशा को भटकाने को अंजाम देते जा रहे हैं...

प्रेमचंद के बाद छठें और सातवें दशक में हिंदी कहानी में परिणामात्मकता और गुणात्मकता की दृष्टि से जो उपलब्धि हुई थी, उसकी तुलना आठवें और नौवें दशक की कहानियों की संख्या में भले ही बढ़ोत्तरी हुई है परंतु गुणात्मकता की दृष्टि से बाद की कहानियों को निर्विवाद रूप से आगे माना जा सके, ऐसी स्थिति शायद नहीं है। जहां शिल्प की दृष्टि से निश्चय ही आठवें और नौवें दशक की कहानियां कुछ आगे बढ़ी दिखाई देती हैं, वहीं अपनी संपूर्ण प्रभान्विति में आगे बढ़ी हुई कहानियों का प्रतिशत घटा है।
आज की हिंदी कहानी पढ़ने पर, विश्लेषण करने पर इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि हिंदी कहानी सामयिक परिवर्तनों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने की क्षमता अपने में पैदा नहीं कर पा रही है। जबकि उसे समसामयिक समस्याओं और चुनौतियों से दो कदम आगे बढ़ कर उसका निरूपण करते हुए यथासंभव उस चुनौती भरे अंधेरे रास्ते पर प्रकाश की कोई किरण डालना चाहिए था। प्रेमचंद ने जिसे राजनीति से संबंध की तुलना करते समय दो कदम आगे बढ़ कर चलने और जलने वाली मशाल की संज्ञा दी थी, क्या यह कहानी आज अपनी उस संज्ञा को सार्थक कर पा रही है? उत्तर शायद हम नकारात्मक ही दे पाएं!
आज मानव वैविध्यपूर्ण जीवन जी रहा है। जिंदगी में इतनी विभिन्नता है कि कहानी के बहुत से विषय हो सकते हैं। आदमी कितना परेशान है? रोज हत्याएं, आत्महत्याएं हो रही हैं। यानी रोज-रोज आदमी का मोह जिंदगी से टूट रहा है। वह मानसिकता कितनी दारुण, कितनी त्रासद है, जो जीवन जैसी अमूल्य वस्तु को रोज-रोज हमें त्यागने को मजबूर कर रही है। वह प्रतिशोध कितना भयानक है, जो बेहिचक अपनों की जान लेने पर उतारू है। कहां हैं ऐसी तरस खाने वाली मानसिकता को प्रथम पुरुष की अभिव्यक्ति देने वाली कहानियां? नहीं हैं तो क्यों नहीं हैं? आज हमें गांव के किसान-मजदूर, कारखाने के श्रमिक, कार्यालय के लिपिक, घूसखोर अफसर की वह प्रथम पुरुष के चित्रण जैसी उपलब्धि कहानियों में नहीं मिल पा रही है, जो मिल रही है, उसकी संवेदना आज की कहानियों से दस कदम पीछे की, बासी पड़ती गई संवेदनाओं की है।
जहां तक आज की कहानी की दिशा का प्रश्न है, मेरी नजर में कहानी उस दिशा में, उस परिमाण में नहीं रची गई, जिस दिशा में उसे रचा जाना चाहिए था। यह दिशा है- ग्रामीण क्षेत्र की समस्याओं, परेशानियों, व्यवस्थाओं एवं स्थितियों पर लिखी जाने वाली कहानियों का। अस्सी प्रतिशत ग्रामीण परिक्षेत्र की जनता के हिस्से में आज की कहानियों का मात्र पांच प्रतिशत ही आ रहा है और वह भी सीधे उनके बीच से नहीं। आज हमारे पास कितने कथा लेखक ऐसे हैं, जिनकी मूल आजीविका कृषि है। शायद ही कोई हो। आज का लेखक कोई अध्यापक है, कोई सरकारी कर्मचारी है और कोई व्यापारी है। लेकिन दिन में हल चलाने या ट्कैक्टर चलाने वाले या तबेला चलाने वाले और रात में कहानी लिखने वाले कितने लेखक हैं हमारे बीच? ऐसी स्थिति में खेतीबारी की, गांव की समस्याओं की प्रामाणिक रचना कैसे आयेगी हमारे बीच? ताजी-ताजी first hand information और धारदार संवेदना की। इसलिए हम कह सकते हैं, प्रगति, जो बहुआयामी होनी चाहिए थी, वह सीमित दिशा की ओर ही हो रही है। जो प्रतिनिधि दिशा कहानी को मिलनी चाहिए थी, वह नहीं मिल पा रही है।
जैसा कि हमने आलेख के प्रारंभ में जिक्र किया है, कहानियां बढ़ी हैं, पत्र-पत्रिकाओं की संख्या में वृद्धि हुई है। निश्चय ही कहानी लेखकों, रचनाकारों की संख्या में पहले की अपेक्षा अप्रत्याशित अभिवृद्धि हुई है और यदि प्रत्येक कथालेखक अधिक नहीं, विश्व स्तर की मात्र एक या दो कहानियां ही देता तो आज हमारे पास विश्व स्तर की हजारों उत्कृष्ट कहानियां होतीं। हम सभी मानेंगे कि ऐसा नहीं है। यह पूरे हिंदी कथा जगत के सामने एक चुनौती है। हम विश्व में न जाकर अड़ोस-पड़ोस को ही देखें। हमारे पड़ोस की भाषाएं बांगला, मराठी तक में उपलब्ध स्तरीय कहानियों का प्रतिशत हमसे अधिक है। स्तरीय कहानियों की संख्या अत्यंत न्यून होने का कारण क्या है, गौरतलब विषय है, सोचने-विचारने का विषय है।
जहां तक मेरा विचार है- आज लेखकों में अनुभव की कमी है। हम जहां, जिस वातावरण, जिस परिवेश में जी रहे हैं, उसमें जनसामान्य से जुड़ने का अवसर, दूसरे की समस्याओं में भागीदारी का अवसर कम है। यदा-कदा मिल भी जाय तो शायद ही कोई जुड़ना चाहे। कभी-कभी फैशन के तहत हमारा आग्रह होता है कि हम संघर्ष की, शोषण की, हड़ताल की, आंदोलन की, क्रांति, तख्ता पलट की कहानी लिखेंगे और जिंदगी जीते हैं- समझौते की, गद्दारी की, चुगली और टुच्चई की। तो जब हमारे पास गद्दारी और टुच्चई के वास्तविक अनुभव हैं तो हमें इसी को अपनी कहानी का विषय बनाना चाहिए। ऐसा न होने से विषय में हमारा अनुभव बहुत उथला होगा। इसमें कोई संदेह नहीं। फलस्वरूप कहानी वह मानक स्थापित नहीं कर पाती, जिसकी हमसे उम्मीद की जाती है। फैशन के तहत परोसी गई इन कहानियों में वो आकर्षण नहीं रहता, जो अनुभव से आता। जो चीज वास्तव में परोसी जाती है, कहानी नहीं, कहानी की लाश होती है, जिसमें जीवंतता खोजने के असफल प्रयास के बाद कहानी को या पत्रिका को पाठक उठाकर, झल्लाकर फेंक देता है।
एक अन्य कारण अपने यहां लेखकों का होलटाइमर न होना भी है। आज की जिंदगी की, पेट की समस्याएं हल करने में हमारा इतना समय निकल जाता है कि हम अपनी पूरी क्षमता अपने लेखन में प्रकट करने की स्थिति में नहीं आ पाते। एक बहुत बड़ा योगदान हमारे लेखक संघों ने भी कहानियों को स्तरीयता न प्राप्त करने की दिशा में दिया है। हम सभी देख रहे हैं कि अपने-अपने संघो से जुड़े लेखकों की औसत कहानी को भी दशक की उपलब्धि के रूप में संघबद्ध आलोचकों द्वारा प्रस्तुत किया जाता रहा है और उसमें ऐसे-ऐसे गुण देखे जाते रहे हैं, जो संभवतः उस कहानी के लेखक के मस्तिष्क में भी न आये रहे होंगे। इससे लेखन के क्षेत्र में कदम रखने वाली नयी पीढ़ी उसी औसत लेखन को अपना आदर्श मानती और दिग्भ्रमित होती है।
हमारे गांव में एक पंडित जी थे। जब 'बरदेखुआ' (शादी के लिए लड़का देखने वाले) गांव में आते थे तो लोग उन पंडित जी को बुला लेते थे। उनका काम था- शादी योग्य लड़के के गुणों का बखान। उस लड़के की माली हालत व पुरानी खानदानी इज्जत का सुंदर खाका खींचना। फीस थी- बरदेखुओं के साथ दिव्य भोजन और शादी पक्की हो जाने के बाद अंगोछा, धोती-कुर्ता आदि के साथ विदाई। जनम के काने, रंग के काले, अंगूठा छाप लड़के के गुणों का वे ऐसा शानदार बखान कर सकते थे कि सुनने वाले अपने भले-चंगे लड़के की आंख फोड़ कर उसे काना करने पर तुल जायें। यही काम कमोबेश आज के लेखक संगठनों में घुसे पंडितजी लोग (आलोचकगण) अपने-अपने यजमानों की 'कानी' कहानियों को लेकर कर रहे हैं। अब आलोचकों की भूमिका सबसे पीछे हो गई है।
एक बात और ध्यान देने की है। कुछ समय पहले तक हमारे जो आलोचक बंधु कहानियों के ढेर से प्रगतिवादी या जनवादी कहानियां छांटने में पसीने-पसीने होते थे, अब वे सभी 'स्वजनवादी कहानियां' खोजने लगे हैं। 'स्वजनों' द्वारा लिखी गयी कहानियां। वही पठनीय रह गयी हैं। उन्हें ही पढ़ना है। उन्हीं पर बोलना है। बाकी सारा संसार मिथ्या है। यह प्रवृत्ति भी कहानी की दिशा अवरुद्ध करने में आज महत्वपूर्ण योगदान दे रही है। साथ ही कहानी के समक्ष मौजूद खतरनाक चुनौतियों में से एक प्रमुख चुनौती है।
हमारी बहस केवल सैद्धांतिक समस्याओं और चुनौतियों पर ही ध्यान केंद्रित करने से पूरी नहीं होगी। व्यावहारिक पहलू पर सोचते हुए जब हम चुनौतियों की बात करते हैं तो यह पाते हैं कि हमारा लेखन व्यापक पाठक वर्ग से जुड़ नहीं पा रहा है। हमारा पाठकीय घेरा बढ़ने की बजाय दिनोदिन संकुचित होता जा रहा है। हमें इस विंदु पर भी विचार करना होगा कि क्या हमारी रचनाएं व्यापक पाठक वर्ग के पास पहुंच रही हैं?
जहां पाठकीय अभिरुचि में आता सस्तापन हमारी पत्रिकाओं की प्रसार संख्या को संकुचित कर रहा है, वहीं प्रकाशित पुस्तकों का आसमान पर चढ़ता मूल्य इसे पुस्तकालयों की आलमारियों में सुरक्षित रखता जा रहा है। यदि वास्तव में हमें अपना पाठक वर्ग को विशाल बनाना है तो ऐसा उपाय भी हमें करना होगा, जिससे हम अपनी रचना उचित मूल्य में पाठक तक पहुंचा सकें। लेखकों के संगठन बहुत सुविधा पूर्वक यह कार्य कर सकते थे/हैं। विभिन्न संगठन आपस में federation के member के तौर पर जुड़कर प्रसार व्यवस्था का कामयाब नेटवर्क पूरे देश में खड़ा कर सकते हैं। सहकारिता संगठन खड़े कर सकते हैं। दक्षिण की भाषाओं से हमें इसके सफल प्रयोग का उदाहरण भी उपलब्ध है, किंतु ऐसा नहीं हो सका है। जमशेदपुर में एक लेखक सम्मेलन में (1990) यह मुद्दा प्रमुखता के साथ उठाया गया था और इस बात की जरूरत महसूस की गई कि अलग से केवल इसी समस्या पर विचार करने के लिए सम्मेलन और गोष्ठियां आयोजित की जांय तथा किसी ठोस निर्णयात्मक समाधान पर पहुंचा जाय, क्योंकि इस व्यावहारिक समस्या का महत्व साहित्य की अन्य सैद्धांतिक समस्याओं से कमतर नहीं है।
दूसरी बात- व्यापक पाठक वर्ग को अपील करने वाली, उसमें पसंद की जाने वाली रचना तभी सामने आयेगी, जब हम जनसामान्य से जुड़ी विषयवस्तु को उसमें डूब कर, उसे आत्मसात कर अपने लेखन का विषय बनायें। हमारे लेखन का सच्चा आकलनकर्ता व अंतिम निर्णायक अंततः पाठक ही है। 'रेणु' को आलोचकों ने कभी उनका प्राप्य नहीं दिया, इसके बावजूद यह पाठक वर्ग ही था, जिसने रेणु को 'रेणु' बना दिया। हमें याद रखना होगा कि हम पाठकों के लिए लिख रहे हैं, आलोचकों के लिए नहीं।
'हंस' (1990) में एक लंबी बहस चली- 'न लिखने के कारण'। कहीं तो हम सामूहिक रूप से महसूस कर रहे हैं कि नहीं लिखा जा रहा है। चाहे यह सोच रहे हों कि परिमाण में नहीं लिखा जा रहा है। चाहे यह कि स्तरीयता नहीं मिल पा रही है। क्या है ऐसा सोचने का कारण? क्यों बंजर जैसा नजर आने लगा है हमारा साहित्यिक परिक्षेत्र। हम अपनी उर्वर परंपरा में उसी के अनुरूप उर्वर भविष्य जोड़ने में असमर्थता क्यों महसूस कर रहे हैं। इसके कारणों को सैद्धांतिक धरातल पर नहीं, शुद्ध व्यावहारिक स्तर पर आकर सोचना आज अनिवार्य हो रहा है। न केवल सोचना, बल्कि उसका समुचित उपाय, कारगर समाधान ढूंढने की इस चुनौती को मुक्त कंठ से स्वीकरना होगा। इसकी वास्तविकता से आंखें चुराकर हम नहीं बच सकते। हमें ऐसा समाधान ढूंढना होगा, ऐसा रास्ता जो हमारी परंपरा को, हमारे उर्वर अतीत को न केवल बचाये बल्कि उसके कद को ऊंचा करे।

(14-15 अप्रैल 1990 को उत्तर प्रदेश के जिला आजमगढ़ में एक गोष्ठी में व्यक्त किए गए विचार। इसी गोष्ठी से 'कथाक्रम' की शुरुआत हुई थी। यह आलेख एकेडमिक रचना नहीं है। एक पाठक, नवलिखुआ लेखक का अपने सहपाठकों/सहलेखकों के साथ हुआ वार्तालाप है। इसी इसी रूप में लें तथा प्रतिक्रियां दें। -शिवमूर्ति)

Tuesday, October 13, 2009

लेखक जन-आंदोलनों में भागीदारी निभाएं





उदयपुर में 'संगमन´ का 15वां आयोजनः कथा-साहित्य की जनपक्षधरता पर विमर्श

हिन्दी साहित्य में गंभीर पहचान बना चुके ´संगमन´ का 15वां आयोजन उदयपुर में 2 से 4 अक्टूबर 2009 को हुआ। नगर के समीप गांव बेदला स्थित आस्था प्रशिक्षण केन्द्र में आयोजित इस समारोह के सहयोगी जनार्दन राय नागर राजस्थान विद्यापीठ (डीम्ड विश्वविद्यालय) के जन शिक्षण व विस्तार कार्यक्रम निदेशालय, आस्था व राजस्थान साहित्य अकादमी थे। तीन दिन के इस जमावड़े में बाहर से आये लगभग 40 कथाकारों और साहित्यकारों के अलावा नगर के साहित्यकार, पाठक व युवा छात्र-छात्राओं की सक्रिय भागीदारी रही। नगर के आसपास के शहरों-कस्बों के साहित्यकारों-पाठकों की आवाजाही ने आयोजन को जीवंत बनाया। कथाकारों में सर्जनात्मक संवाद को सघन बनाने, युवा कथाकारों को मंच उपलब्ध करवाने और जन आन्दोलनों में साहित्यकारों की भागीदारी जैसे मुद्दों पर केंद्रित इस राष्ट्रीय संगोष्ठी ने साहित्यिक और सामाजिक सरोकारों में एक नया आयाम जोड़ा। पहले दिन के सत्र का विषय ´नयी सदी का यथार्थ और मेरी प्रिय पुस्तक´ था। चर्चा की शुरुआत आलोचक विजय कुमार के वक्तव्य से हुई जो पोलेण्ड की विश्व विख्यात कवयित्री शिम्बोर्सका पर केंद्रित था। विजय कुमार ने कहा कि लेखिका ने वर्तमान के यथार्थ को उभारने का जो प्रयास किया है, वह हमको आज के समाज की यथार्थता के बिम्बों और प्रतीकों के मूल में छिपी नग्नता तथा छद्म को जानने की दृष्टि देने वाला है। शिम्बोर्सका का जीवन यह भी दिखाता है कि एक रचनाकार किस तरह अपने समाज की विद्रूपताओं से जिरह करता हुआ समाज को वैचारिक ताकत देता है। विजय कुमार ने शिम्बोर्सका की कुछ महत्वपूर्ण कविताओं के अंशों को भी उद्धृत किया। चर्चित युवा कथाकार वन्दना राग ने राही मासूम रजा के प्रसिद्ध उपन्यास ´आधा गांव´ के माध्यम से व्यक्ति की सामाजिक मनोदशा को स्वरूप और दिशा देनेवाले कारणों की ओर इशारा किया। उन्होंने कहा कि यह उपन्यास इस तथ्य को उदघाटित करता है कि ´सत्ता´ किस तरह से सच्चाई से ज्यादा अफवाहों का आतंक फैलाकर अपना हित साधती है। बाहरी शक्तियों का असर हमारे अंदरूनी रिश्तों और समरसता की भावना को तोड़ता है। कवि-उपन्यासकार हरिराम मीणा ने ´आदि धर्म´ पुस्तक के माध्यम से आदिवासी जीवन-संस्कृति में पाये जाने वाले सकारात्मक पहलुओं को आत्मासात करते हुए आज के समाज में धर्म, पर्यावरण, वैचारिक संकीर्णता, अलगाव जैसी समस्याओं से निजात पाने की दृष्टि ग्रहण करने पर बल दिया। मीणा ने विकास के नाम पर आदिवासी समाज व जीवन पर आये संकटों की चर्चा करते हुए कहा कि सरकार की जन विरोधी नीतियों के कारण आदिवासी अस्मिता संकट में है। इस संकट से लड़ने में लेखकीय भागीदारी बहुत जरूरी हो गई है। समालोचक एवं गद्यकार दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने स्वयं प्रकाश के उपन्यास ´ईंधन´ की चर्चा की। उन्होंने ईंधन को आज के युवा वर्ग के जीवन मूल्यों में आ गये अन्तर्द्वन्द्व, सामाजिक मनोवृत्ति और व्यक्तिगत आकांक्षाओं के बीच नये अन्तर्विरोधों को समझने वाला आधारभूत उपन्यास बताया। उन्होंने उपन्यास से उदाहरण देकर स्पष्ट किया कि वैश्वीकरण और बाजारवाद का हमारे जीवन पर कितना गहरा असर पड़ा है। अग्रवाल ने इसे भारतीय परिदृश्य में हो रहे भूमण्डलीकरण पर लिखा गया पहला महत्वपूर्ण उपन्यास माना। इतिहास बोध के संपादक, इतिहासकार लाल बहादुर वर्मा ने अपने उदवोधन में सबसे पहले गांधी के व्यक्तित्व और कृतित्व की चर्चा की। उन्होंने गाँधी की सबसे बड़ी ताकत अपने पर गहरा विश्वास और साहस बताते हुये कहा कि आज की नई जनद्रोही स्थितियों से लड़ने में ऐसी ही ताकत की जरूरत है। उन्होंने अपनी प्रिय पुस्तक हार्वर्ड फास्ट की ´सिटीजन टोम्पेन´ के कथानक पर कहा कि सृजन और संघर्ष में एक अन्तर्द्वन्द्वात्मक रिश्ता होता है, जिसे समझना बेहद जरूरी है। हर सृजन जीवन के संघर्ष से उत्पन्न होता है तथा जीवन में ही अपनी सार्थकता को स्थापित करता है। उन्होंने यथार्थ के सर्जनात्मक पक्षों को उदघाटित करने के साहस और उसके साथ चलने को इस सदी की सबसे बड़ी चुनौती बताया। चर्चा में कथाकार लता शर्मा, कैलाश बनवासी, डॉ. सर्वतुन्निसा खान, अनुपमा सिसोदिया ने भाग लिया। इससे पहले कथाकार महेश कटारे ने संगमन के शुभारंभ की घोषणा की। सुप्रसिद्ध कवि हरीश भादानी के निधन का समाचार सत्र के प्रारंभ होने से पहले मिल गया था। अत: सभी ने दो मिनट का मौन रखकर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की। संगमन के स्थानीय संयोजक पल्लव ने सभी का स्वागत किया। सत्र का संयोजन कथाकार ओमा शर्मा ने किया। दूसरे दिन आयोजित कहानी पाठ सत्र में जयपुर के युवा कथाकार राम कुमार सिंह ने अपनी कहानी ´शराबी उर्फ हम तुझे वली समझते´ और मुम्बई से आये वरुण ग्रोवर ने ´डैन्यूब के पत्थर´ का पाठ किया। अलग-अलग शैलियों में लिखी गई इन कहानियों पर विशद चर्चा में यह बात मुखर हुई कि वरुण की कहानी प्रागैतिहासिक काल पर केंद्रित होते हुए भी समकालीन सवालों से टकराती है। रामकुमार की कहानी को भाषायी रचनात्मकता और परिवेश को जीवंत बनाने के लिए उल्लेखनीय माना गया। कथाकार योगेन्द्र आहूजा ने वरुण की कहानी के कथ्य को समकालीन मुद्दों से बचाव की युक्ति कहा तो वरिष्ठ लेखक लाल बहादुर वर्मा ने इसे असाधारण को साधारण बनाने का प्रयास बताया। उन्होंने भाषा के वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर वरुण की कहानी को दुस्साहसी बताया। सुभाषचन्द्र कुशवाहा ने कहा कि ये कहानियां मनुष्यता के संकट को हमारे सामने रखती हैं। युवा फिल्म समीक्षक मिहिर पंड्या ने वरुण की कहानी पर टिप्पणी में कहा कि इसके नायक और खलनायक एक ही पात्र में नजर आने से कहानी की सुन्दरता बढ़ी है। समालोचक प्रो. नवल किशोर, देवेन्द्र, ओमा शर्मा, सीमा शफक, जितेन्द्र भारती और पल्लव ने भी चर्चा में भागीदारी की। गालिब़ की पंक्ति के शीर्षक में प्रयोग पर हुई बहस पर लक्ष्मण व्यास ने कहा कि यह इस्तेमाल दादा-पोते के सम्बन्ध जैसा है, जिस पर आपत्ति करना उचित नहीं होगा। इस सत्र का संचालन कथाकार शिवमूर्ति ने किया। इस दिन की शाम उदयपुर भ्रमण की थी। सभी प्रतिभागी उदयपुर के समीप ऐतिहासिक स्थल सज्जनगढ़, बड़ी तालाब और फतहसागर गये। यहां की प्राकृतिक सुन्दरता ने लेखकों को मंत्रमुग्ध कर दिया। तीसरे दिन अन्तिम सत्र में ´प्रतिरोध, जन आन्दोलन और साहित्य´ विषय पर चर्चा का प्रवर्तन योगेन्द्र आहूजा के वक्तव्य से हुआ। कथाकार देवेन्द्र ने कहा कि कोई विचारधारा एक युग में महत्वपूर्ण होती है किन्तु वह अन्य युग में प्रभावहीन भी हो सकती है। इसलिए विचारधारा से ज्यादा जरूरी विजन है। कथाकार शिवमूर्ति ने जन आन्दोलनों से लेखकों का जुड़ाव और अपनी रचनाओं में कला के सन्तुलित उपयोग को जरूरी बताया। आलोचक डॉ. माधव हाडा ने कहा कि लेखक को मध्य वर्ग के बदलते सरोकार एवं प्राथमिकताओं की जानकारी होनी चाहिये। शोधार्थी प्रज्ञा जोशी ने लेखकों के जन आन्दोलनों से जुड़ाव न होने से रचनाओं के प्रभाव में आ रही कमी को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि दमन के बढ़ते स्वरूपों को देखकर हमें प्रतिरोध के नये तरीकों को खोजना होगा। वरुण ग्रोवर ने जन आन्दोलनों को वर्तमान पीढ़ी के लिए अमूर्त विचार कहा। उनका कहना था कि क्या सच कहना ही प्रतिरोध नहीं है। हिमांशु पंड्या ने कहा कि किसी और को जवाब देने से पहले जरूरी है अपने आप को जवाब देना। चर्चा में मधु कांकरिया, सुभाष चन्द्र कुशवाहा, रतन कुमार सांभरिया, मंजू चतुर्वेदी, मनीषा कुलश्रेष्ठ, डॉ. रईस अहमद, जितेन्द्र भारती, हबीब कैफी, विजय कुमार, कैलाश बनवासी और प्रो. नवल किशोर ने भाग लिया। समापन वक्तव्य में वरिष्ठ कथाकार गिरिराज किशोर ने कहा कि कथाकार वह है, जो अमूर्त को आकृति दे। किसी रचना के स्वरूप को अस्वीकार किया जा सकता है किन्तु रचनाकार की ईमानदारी पर अंगुली उठाना अनुचित है। उन्होंने कहा कि प्रतिबद्धता विरोध ही है। बाहरी दृष्टि से मूल्यांकन की प्रवृत्ति को अनुचित बताते हुए उन्होंने कहा कि रचनाकार उलझनों को सुलझाने का काम करता है। गिरिराज किशोर ने नामवर सिंह के आलोचना कर्म की द्विधा पर प्रहार कर इसे वैचारिक जकड़ बताया। सत्र का संयोजन महेश कटारे और ओमा शर्मा ने किया। हिमांशु पंड्या ने स्थानीय आयोजकों की ओर से आभार जताया। कथाकार प्रियंवद के संयोजन में हुए इस आयोजन के अन्य आकर्षणों में पंकज दीक्षित द्वारा लगाई गई कथा पोस्टर प्रदर्शनी, लघु पत्रिका प्रदर्शनी और पंडित जनार्दन राय नागर के साहित्य की प्रदर्शनी भी उल्लेखनीय रही। राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा आयोजन स्थल पर पुस्तक बिक्री की व्यवस्था गई थी। तीन दिन तक चले आयोजन में मूलचन्द्र पाठक, हरिनारायण, नवीन कुमार नैथानी, चरणसिंह पथिक, सुशील कुमार, अश्विनी पालीवाल, क़मर मेवाड़ी, ज्योतिपुंज, माधव नागदा, नन्द चतुर्वेदी, सत्यनारायण व्यास, अमरीक सिंह दीप, कनक जैन, जितेन्द्रसिंह, डी.एस. पालीवाल, गजेन्द्र मीणा, गणेशलाल मीणा सहित बड़ी संख्या में साहित्य प्रेमियों ने भागीदारी की। प्रस्तुतिः डॉ. सुधा चौधरी सी-2, दुगाZ नर्सरी रोड, उदयपुर-313001

Monday, October 12, 2009

समय ही असली स्रष्टा है / शिवमूर्ति

कहानी प्रत्रिका कथादेश  ने अपने परिवेश और रचना प्रक्रिया पर मैं और मेरा समय शीर्षक से विभिन्न लेखकों की लेखमाला शुरू किया था मेरा आलेख 'समय ही असली श्रष्टा है' शीर्षक से अगस्त, सितम्बर तथा अक्टूर २००३ में प्रकाशित हुआ था। ब्लाग के पाठकों के लिए पुनः प्रस्तुतः-
 
तब।
लेखक के 'मैं' में कम से कम दो व्यक्तित्व समाये होते हैं। एक वह जो साधारण जन की तरह अपने समय से सीधे दो-दो हाथ कर रहा होता है। सब कुछ भोगता, झेलता, सहता और प्रतिक्रिया कर रहा होता है, दूसरा वह जो हर झेले, भोगे, सहे हुए को तीसरे की तरह देखता, सुनता, धुनता और सहेजता चलता है। यह दूसरा 'परायों' के झेले, भोगे को भी उसी तल्लीनता और सरोकार के साथ आत्मसात करता है जैसे स्वयं झेल, भोग रहा हो। कालांतर में इस अपने और पराये की दूरी धीरे-धीरे खत्म होती जाती है।
जब यह दूसरा व्यक्तित्व अपने किसी पात्र में इस झेले, भोगे गये अनुभव को आरोपित करता है, तब तक यह अनुभव खुद लेखक का अनुभव बन चुका होता है। इसीलिए काल्पनिक पात्र के काल्पनिक दुख को चित्रित करते समय निकलने वाले उसके आंसू वास्तविक होते हैं।
कैसे पड़ता है लेखन का बीज किसी के मन में? किस उम्र में पड़ता है? क्या यह जन्मजात होता है? हो सकता है भविष्य के वैज्ञानिक इसका सही और सटीक हल खोजें। पर इतना तो तय है कि प्रत्येक रचनाकार को प्रकृति एक विशिष्ट उपहार देती है। अति सम्वेदनशीलता का, परदुखकातरता का। अतीन्द्रियता का भी, जिससे वह प्रत्येक घटना को अपने अलग नजरिए से देखने, प्रभावित होने और विश्लेषित करने में सक्षम होता है। यह विशिष्टता अभ्यास के साथ अपनी क्षमता बढ़ाती जाती है। मां की तरह या धरती की तरह लेखक की भी अपनी खास 'कोख' होती है, जिसमें वह उपयोगी, उद्वेलित करने वाली घटना या विम्ब को टांक लेता है, सुरक्षित कर लेता है, अनुकूल समय पर रचना के रूप में अंकुरित करने के लिए। जिन परिस्थितियों में शिशु विकसित होता है, वही उसकी जिंदगी की भी नियामक बनती हैं और उसके लेखन की भी। फसल की तरह लेखक भी अपनी 'जमीन' की उपज होता है। जब मेरी रचनाओं में गांव, गरीब, खेत, खलिहान, बाग, गाय, बैल, वर्ण संघर्ष, फौजदारी और मुकदमेबाजी आती हैं तो यह केवल मेरी मरजी या मेरे चुनाव से नहीं होता। मेरे समय ने जिन अनुभवों को प्राथमिकता देकर मेरे अंतःकरण में संजोया है, स्मृति के द्वार खुलते ही उन्हीं की भीड़ निकलकर पन्नों पर फैल जाती है।
मुझे कलम पकड़ने के लिए बाध्य करने वाले मेरे पात्र होते हैं। उन्हीं का दबाव होता है जो अन्य कामों को रोकर कागज-कलम की खोज शुरू होती है। जिंदगी के सफर में अलग-अलग समय पर इन पात्रों से मुलाकात हुई, परिचय हुआ। इनकी जीवंतता, जीवट, दुख या इन पर हुए जुल्म ने इनसे निकटता पैदा की। ऐसे पात्रों की पूरी भीड़ है। ये बाहर आने को उतावली में हैं। कितने दिनों तक इन्हें 'हाइवरनेशन' में रखा जा सकता है। लिखने की मेरी मंदगति इन्हें हिंसक बना रही है। कितने-कितने लोग हैं। कछ जीवित, कुछ मृत। कुछ कई चरित्रों के समुच्चय। सब एक-दूसरे को पीछे ढकेल कर आगे आ जाना चाहते हैं। हमारे उस्ताद जियावन दरजी, जिनसे 8-9 साल की उम्र में मैंने सिलाई सीखी थी। डाकू नरेश गड़ेरिया- बहिन के अपमान का बदला लेने के लिए डाली गयी डकैती में मैं जिसका साथ नहीं दे सका। जंगू, जो गरीबों, विधवाओं, बेसहारों के साथ जोर-जुल्म करने वालों को दिन-दहाड़े पकड़कर उनकी टांग पेड़ की जड़ में अटकाकर तोड़ देता है। हर अन्यायी के खिलाफ अनायास किसी भी पीड़ित के पक्ष में खड़े हो जाने वाले धन्नू बाबा। बीसों साल तक बिना निराश हुए और डरे इलाके के जुल्मी सामंत के विरुद्ध लड़ने वाले संतोषी काका। पूरी भीड़। मुझसे और मेरे समय से परिचित होने के लिए आपको भी उन पात्रों, चरित्रों, दृश्यों व बिम्बों से परिचित होना पड़ेगा। विस्तार से न सही, संक्षेप ही में सही। शायद यह मेरे व्यक्तित्व व लेखन को समझने में भी सहायक हों।
मेरा घर-गांव से काफी हटकर, टोले के तीन-चार घरों से भी अलग एकदम पूरबी सिरे पर है। बचपन में चारों तरफ बांस रुसहनी, कंटीली झाड़ियों का जंगल और घनी महुवारी थी। आम के बाग तो कमोबेश अभी भी बचे रह गये हैं। जंगल झाड़ के बराबर ही जगह घेरते थे। गांव के चारों तरफ फैले 10-12 तालाब-बालम तारा, तेवारी तारा, दुलहिन तारा, सिंघोरा तारा, पनवरिया तारा, गोलाही तारा आदि। इसी जंगल झाड़, महुआवारी-अमराई के बीच से आना-जाना। इन्हीं के बीच खेलना। यह परिवेश बचपन का संघाती बन गया। परिचित और आत्मस्थ। आज भी मुझे अंधेरी रात के वीराने से डर नहीं लगता। डर लगता है महानगर की नियान लाइट की चकाचौंध वाली लंबी सुनसान सड़क पर चलने में। अंधेरे में आपके पास कहीं भी छिप सकने का विकल्प होता है। उजाले में यह नहीं रहता। जाहिर है मेरे मन में खतरे के रूप में हमेशा आदमी होता है। सांप-बिच्छू नहीं। सांप-बिच्छू या भूत-प्रेत के लिए मन में डर का विकास ही नहीं हुआ। यही भाव पानी के साथ है। यद्यपि लभग डूब जाने या पानी के बहाव में बह जाने की घटनाएं जीवन में कई बार घटीं पर नहर, तालाब, और नदी के रूप में जल स्त्रोतों से बचपन से इतना परिचय रहा कि पानी से डर नहीं लगता। अथाह अगम जल स्त्रोत देखर उसमें उतर पड़ने के लिए मन ललक उठता है।
कुछ बड़े होने पर शेर के शिकार की कथाएं पढ़ता तो लगता कि यह शेर मेरे पिछवाड़े सिघोरा तारा के भीटे की उस बकाइन वाली झाड़ी के नीचे ही छिपा रहा होगा। महामाई के जंगल में बना काईदार सीढ़ियों वाला पक्का सागर तब भी इतना ही पुरातन और पुरातात्विक लगता था। इसका काला-हरा पानी सम्मोहित करता। लगता कि यक्ष ने इसी सागर का पानी पीने के पहले पांडवों से अपने प्रश्न का उत्तर देने की शर्त रखी होगी। जेठ में, जब सारे कच्चे तालाबों का पानी सूख जाता, बचे-खुचे हिरनों का छोटा झुंड जानवरों के लिए बनाये गये घाट से पानी पीने के लिए उसमें उतरता था। प्यास उन्हें निडर बना देती। तेवारी तारा के भीटे पर अपने बच्चों को बीच में लेकर बैठे झुंड के पास आ जाने पर हिरनी उठकर अपने बच्चे व आगंतुक के बीच खड़ी हो जाती। ज्यादा पास पहुंचने पर सिर झुकाकर सींग दिखाती। खबरदार...पिताजी बताते हैं कि जहां अब खेत बन गए हैं, वहां जमींदारी उन्मूलन के पहले तक कई मील में फैले निर्जन भू-भाग पर हजारों की संख्या में हिरन थे। कई बार भेड़ों के झुंड के बीच मिलकर चरते थे। जमींदारी समाप्त होते-होते शिकारियों ने अंधाधुंध शिकार करके इनका समूल नाश कर दिया। तेवारी तारा के भीटे पर रहने वाला झुंड गांव वालों द्वारा शिकारियों का विरोध करने के कारण काफी दिनों तक बचा रह गया था।
घर के सामने और दायें-बायें फैली विशाल जहाजी पेड़ों वाली महुआवारी के पेड़ों पर शाम का बसेरा लेने वाले तोते इतना शोर मचाते कि और कुछ सुनना मुश्किल हो जाता। सावन-भादों के महीने में चारों तरफ पानी भर जाता। तब चार-पांच हाथ लंबे हरे मटमैले सांप महुए की डालों पर बसेरा लेते और चिपके, छिपे इंतजार करते कि कोई तोता पास में आकर बैठे तो वे झपट्टा लगायें। कभी-कभी पकड़ में आये तोते की फड़फड़ाहट से असंतुलित सांप छपाक से नीचे पानी में गिरता। टांय-टांय का अंतर्नाद पूरे जंगल में छा जाता। चैत के महीने में इन्हीं पेड़ के कोटर में घुस-घुसकर इनके अंडे-बच्चे खाते। तोते शोर मचा-मचाकर आसमान गुंजा देते पर न कोई थाना न पुलिस। मर न मुकदमा। कोटर का मुंह संकरा हुआ तो कभी-कभी सांप अंदर तो चले जाते पर बच्चों को खाने के बाद पेट फूल जाने के कारण बाहर न निकल पाते। हाथ-डेढ़ हाथ शरीर कोटर से बाहर निकाल कर दायें-बायें हिलाकर जोर लगाते और असफल होकर फिर अंदर सरक जाते।
महामाई के जंगल में घने पेड़ों के बीच बने पक्के सागर में नहाने के लिए गांव की औरतें, बच्चे आते तो पीछे-पीछे कुत्ते भी चले आते। सामने तेवारी तारा के भीटे पर दुपहरिया काटते निश्चिंत बैठे हिरनों का झुंड देखकर कुत्तों का अहम फन काढ़ता। दिन दहाड़े आंखों के सामने यह निश्चिंतता। वे भूकते हुए दौड़ते। तेवारी तारा के पूरब सियरहवा टोले से सटकर ऊसर की एक लंबी पट्टी दूर तक चली गयी थी, जिसमें सफेद रेह फूली रहती। जाड़े में इस पर नंगे पैर चलने पर बताशे की तरह फूटती और ठंडक पहुंचाती। गर्मी में पैर झुलसाती। कुत्तों को आता देख हिरनों का झुंड इसी पट्टी पर भागता। गजब के खिलाड़ी थे वे हिरन। उतना ही भागते, जिससे उनके और कुत्तों के बीच एक न्यूनतम सुरक्षित दूरी बनी रहे। कुत्ते भला उन्हें क्या पाते। उनके थककर रुकने के साथ ही हिरन भी रुक जाते। बिना सिर घुमाये ही वे कुत्तों का रुकना देख लेते। कुत्ते फिर दौड़ते। बार-बार यही तमाशा। कुत्ते भूक-भूक कर, दौड़-दौड़कर बेदम हो जाते। जीभ लटकाये लौट पड़ते। हिरन भी तुरंत लौटते लेकिन तब कुत्ते जानकर भी अनजान बन जाते। पीछे मुड़कर देखना बंद कर देते।



मैं और मेरा समय
                                            समय ही असली स्रष्टा है

गतांक से आगे ...........

......दिमाग के कम्प्यूटर में कोई सेलेक्टर लगा रहता होगा। तभी तो एक ही दृश्य या अनुभव एक के लिए रोजमर्रा की सामान्य घटना होती है और दूसरा जिसे स्मृति में सुरक्षित कर लेता है। स्मृति का भाग बन चुके अनुभव या दृश्य में वक्त गुजरने के साथ मन अपनी इच्छा या कामना के अनुसार परिवर्तन करता रहता है। कालांतर में इस परिवर्तित दृश्य को ही वह खुद भी असली दृश्य मानने लगता है। आपको एक बार स्कूल में दो-तीन लड़कों ने घेर लिया था। आपके मुंह से एक शब्द नहीं निकला था। घिग्घी बंध गयी थी। आप डर कर कांपने लगे थे, लेकिन बाद में आपको लगा कि आपने भी उन्हें ललकारा था। बहुत बाद में कई बार सोचने पर आपको लगने लगा कि आपके तेवर देखकर ही तो वे लड़के डर कर पीछे हटे थे। बहुत सारे संवाद भी याद आते हैं, जो उस वक्त किसी ने नहीं सुने लेकिन अब आप गर्व से उन्हीं लड़कों को सुनाते हैं तो वे असमंजस में हुंकारी भरते हैं क्योंकि वे उस घटना को भूल चुके हैं।
बाद का देखा-सुना बहुत कुछ भूल जाता है लेकिन कोई खास दृश्य, कोई रंग, स्वाद, गंध, वाक्य, बिंब, मुस्कान, कनखी, चितवन, भंगिमा, चाल सुरक्षित रह जाती है। यह बस लेखकीय 'स्व' की पूंजी बनते चलते हैं। यह प्रक्रिया कभी-कभी दुर्घटना के रूप में भी सामने आती है। तब, जब किसी अन्य लेखक की पढ़ी हुई किसी रचना का प्रिय दृश्य या सोच कालांतर में अपना सोचा हुआ लगने लगता है। अवचेतन का अंश बन जाता है और बाद में अपनी किसी रचना में उतर आता है।
बचपन और किशोरावस्था में मन की स्लेट एकदम साफ और नयी-निकोरी रहती है। उस समय का देखा-सुना पूरी तरह जीवंत और चमकीले रूप में सुरक्षित रहता है। शायद यही उम्र होती है मन में लेखकीय बीज के पड़ने और अंकुरित होने की।
प्रेम, ममत्व, स्नेह और प्यार प्राप्ति के क्षण लंबी अवधि तक साथ देते हैं। एक मुराइन अइया (दादी) थीं। उनके द्वारा फूल के कटोरे में दी हुई मटर की गाढ़ी दाल (तब रोज-रोज दाल खाने को नहीं मिलती थी।) का रंग, स्वाद और गंध तीनों स्मृति में एकदम टटकी हैं। याद करते ही उनकी महक नासापुटों में महसूस होने लगती है। 'भूख लगी है? सिर्फ दाल ही तो है, ले।' कटोरा पकड़ाते हुए उनकी आंखों में उतरा ममत्व और तनिक हंसी के बीच दिखने वाले उनके सोने-मंढ़े दोनों दांत। एक तिवराइन (तिवारी का स्त्रीलिंग) अइया थीं। स्कूल से लौटने पर घर में खाने के लिए कुछ न होता या मां ताला लगाकर कहीं गयी होती तो मैं चारपाई के पाये में बस्ता लटकाकर तिवराइन अइया के घर की ओर सिधारता। बिना कुछ कहे-पूछे वे मेरी भूख देख लेतीं। रज्जू बुआ को आवाज लगातीं- एक मूठी दाना दै द्या बेटौना का। भुखान होये। फिर पूछतीं- बड़की (मेरी मां) नहीं है क्या घर में? अमीर नहीं थीं अइया। गरीबी के चलते ही तेवारी दादा का विवाह नहीं कर सकीं। पर दिल दरिया था। बड़े-से आंगन के कोने में स्थित फूस के ओसारे के नीचे पड़ी चारपाई पर बैठी उनकी बूढ़ी काया। बाहुमूल और कमर की लटकती झुर्रीदार चमड़ी। लंबे लटकते स्तन, जिन्हें ढंकने की उतनी तत्परता अब नहीं थी। जब इनमें दूध भरा रहता रहा होगा, तब ये कितने भारी रहे होंगे। इतना दूध पीने के चलते ही तेवारी दादा इतने भारी भरकम हैं। मेरी मां की छातियां इतनी बड़ी नहीं थीं। शायद तब मुझे इसका अफसोस भी रहा हो। मैंने एक बार उससे पूछा था- एक-एक सेर दूध होता रहा होगा तिवराइन अइया को, क्यों मां? मुझे तो अपनी वह जिज्ञासा भूल ही चुकी थी। अभी पिछले महीने मां आयी थी। मैं एकांत में फुरसत से उसके पास लेटा उसकी स्मृति से कुछ निकालने का प्रयत्न कर रहा था। तभी बातों-बातों में मां ने बताया। इतना तो मुझे याद है कि बचपन में जब भी किसी स्त्री को देखता, मन ही मन उसके स्तनों की तुलना मां के स्तनों से करता था। एकाध वरिष्ठ महिला लेखिकाओं के प्रति मेरे मन में इसलिए और भी ज्यादा आदरभाव है क्योंकि उन्हें देखकर इस संदर्भ में तिवराइन अइया की याद ताजा हो जाती है।
एक गाय थी। रात की रोटी उसे मैं ही देता था रोज। हम लोग एक-दूसरे को बहुत चाहते थे। एक दिन स्कूल से लौटा तो पता चला कि वह तो बिक गयी। गांव में ही बिकी थी। मैं बहुत रोया। शाम को रोटी लेकर उससे मिलने गया। उसने अंधेरे में भी दूर से पहचान लिया। हुं-हुं करने लगी। मैं उसके आगे बैठकर उसकी लिलरी (गले की नरम लटकती चमड़ी) सहलाने लगा। वह मेरे बाल चाटने लगी। सारे बाल गीले हो गये। बहुत दिन बीते। बयालीस साल बीत गये, लेकिन उस गोलेपन की ठंडक आज भी महसूस होती है।
अपमान, खतरा या आसन्न मृत्यु की स्मृतियां तो जीवन भर साथ देती हैं....एक बार हत्या करने के लिए पकड़ कर कोठरी में बंद कर दिया गया था। दोनों हाथ पीछे बंधे थे। पैर बंधे थे। मुंह में कपड़ा ठुंसा हुआ था। अंधेरी कोठरी में एक कोने में डाल दिया गया था कि रात गहरा जाये तो मारा जाय। इस अनुभव से गुजरे होने के कारण ही शायद कथाकार देवेंद्र के उसी उम्र के बेटे की हत्या से संबंधित कहानी 'क्षमा करो हे वत्स' पढ़ कर मैं उस दिन अपने कमरे से बाहर नहीं निकला। रोता ही रह गया था दिन भर।
उत्तर प्रदेश में अभी कुछ वर्ष पहले तक खसरा नामक भू-अभिलेख में यह प्रविष्टि करने का प्रावधान था कि किसके खेत पर किसका कब्जा है। लोक मानस में इसे 'वर्ग नौ' दर्ज करना कहते थे। जमींदारी उन्मूलन के पहले और बाद में भी खेत के मालिक बड़े किसान और छोटे जमींदार अपना खेत सालाना पोत या लगान लेकर भूमिहीन किसानों को जोतने के लिए दे दिया करते थे। ये भूमिहीन किसान प्रायः पिछड़ी अथवा अनुसूचित जाति के होते थे। यदि किसी खेत पर किसी जोतदार का कब्जा बारह वर्षों तक प्रमाणित हो जाय तो उस खेत पर कब्जेदार को स्वामित्तव प्राप्त हो जाता था। पर पटवारी को मिलाकर बड़े किसान कब्जेदारों का कब्जा खसरे पर दर्ज करने से प्रायः बचा लेते थे। जमींदारी उन्मूलन के बाद पोत-लगान देकर खेत जोतेने वालों का वास्तविक आंकड़ा निकालने तथा उन्हें स्वामित्व प्रदान करने के उद्देश्य से वर्ग-9 दर्ज करने के लिए विशेष अभियान चलाया गया। इसकी भनक लगने पर बड़े किसानों ने जोतदारों को खेतों से बेदखल करना शुरू कर दिया। बड़े किसान व जमींदार ज्यादातर ठाकुर थे। गांव में उनका दबदबा और आतंक था। उनकी तुलना में जोतदार हर प्रकार से कमजोर थे। इसलिए बेदखली का विरोध करने का किसी को साहस नहीं होता था। मेरे पिताजी भी गांव के एक ठाकुर के कुछ खेत पोतऊ (पोत पर) लेकर जोतते आ रहे थे। उस समय गेहूं की फसल बोयी गयी थी और खेत में महीने भर की डाभी हरियाई थी, जब ठाकुर ने इसमें हल चलवाकर खेत उलट दिया और अपना बीज बो दिया। साथ ही बड़े-बड़े थान बनाकर उनमें सिर से भी ऊंचे आम के पड़े लगवा दिये। इतने बड़े पेड़ इसलिए ताकि मुकदमेबाजी की नौबत आने पर इन पेड़ों की उम्र के आधार पर 10-12 साल पुराना कब्जा साबित किया जा सके।
पिता जी पुराने जमाने के सन 28-29 के चहारम पास थे। पहलवान, हैकड़, निडर और जवान थे। खसरे में उनका कब्जा दर्ज था। इसलिए लगातार घुड़की-धमकी मिलने के बावजूद वे इस अन्याय के खिलाफ खड़े हो गये। मुकदमा दायर कर दिया। गांव के ठाकुर के खिलाफ गांव का ही शूद्र, खुद अपना ही रियाया, 'मनई', जिसको- जमींदारी काल में अपनी जगह जमीन देकर बसाया गया था, मुकदमा लड़ेगा? अब तक, जमींदारी खत्म होने तक हम इलाके के राजा थे। सरकार ने धोखा किया तो इन कीड़े-मकोड़ों, भुनगों को भी सींग निकल आई है। पूरी ठाकुर बिरादरी की नाक काटने पर उतारू है यह आदमी। इतनी हिम्मत! धमकाया कि गांव छोड़कर भाग जाओ नहीं तो मारकर महामाई के सागर में डाल दिया जायेगा। एक-दो बार मारा-पीटा भी। पिताजी डटे रह गये। मुकदमेबाजी शुरू हो गयी। कुछ दिन बाद सब कुछ सामान्य-सा लगने लगा। एक शाम मैं गांव की दुकान से कोई सौदा लेने जा रहा था। गांव से पक्की सड़क को जोड़ने वाली पगडंडी के दोनों ओर ऊंची खाई थी और उस पर सरपत और उसकी ऊंची झाड़ियां। गोहटे वाली (जिस पर गोहटा या गोह रहती थी, पता नहीं अब रहती है या नहीं! ) ऐतिहासिक जामुन के पेड़ के नीचे फैले गाढ़े अंधेरे में पहुंचकर मन में डर की शुरुआत होने ही वाली थी कि किसी ने पीछे से कसकर दबोच लिया। वे दो थे। मुंह दबाकर दाहिने हाथ बाग की झाड़ी में ले गये और मुंह में कपड़ा ठूंसकर अंगोछे से बांध दिया। धमकाया- आवाज किए तो तुरंत रेत डालूंगा। पकड़ने और बांधने वाला कोई बाहर का बलिष्ठ आदमी था। धमकाने वाले वही थे, जिनसे मुकदमेबाजी चल रही थी। दोनों ने मिलकर एक चादर में मुझे गठरी की तरह बांधा और खांची में रखकर घर ले गये। एक कोठरी में पटका। चादर खोलकर रस्सी से हाथ पीछे करके बांधे। पैर बांधे औक कोठरी की सांकल लगाकर चले गये। निःशब्द आंसू बहाता मैं हाथ-पैर चलाकर बंधनमुक्त होने में जुट गया। आभास हो गया कि रात गहराने पर वे मारेंगे और गांव के पश्चिम से गुजरने वाली इलाहाबाद-फैजाबाद रेलवे लाइन पर डाल देंगे। शायद चैत का महीना था। भय से शरीर पसीने-पसीने हो रहा था। धड़कन तेज थी। सबसे पहले मुंह बंधनमुक्त हुआ। फिर मुंह का कपड़ा निकाला। शायद किसी खूंटी या जांत के हथौड़े की नोक में फंसाकर। फिर पैर छूटे। हाथ पीछे बंधे थे और बंधन इतना कसा था कि उंगलियां सुन्न पड़ रही थीं। कोई जोर नहीं चल रहा था। तभी किवाड़ों की सेंधि से प्रकाश की पतली रेखा अंदर आयी। सांकल खड़की। मैं किवाड़ के बगल की दीवार से चिपक गया। किवाड़ खुले। ठाकुर की पत्नी एक हाथ में ढिबरी और दूसरे में थाली लेकर अंदर आयीं। वह पकाने के लिए राशन निकालने आयी थीं। शायद उन्हें मेरे बारे में सावधान नहीं किया गया होगा। उनके आगे बढ़ते ही मैं दबे पांव आंगन में निकला। इस बखरी के भूगोल से मैं पूर्व परिचित था। कई बार खलिहान से धान ढोकर यहां ला चुका था। औरतों के दिशा-मैदान हेतु बाहर जाने के लिए आंगन के कोने में बनी खिड़की से मैं बाहर भागा। घर कैसे पहुंचा? मां ने हाथ का बंधन खोलते हुए क्या-क्या पूछा? मैंने क्या बताया? यह सब आज कुछ भी याद नहीं। पर वह पकड़, वह बंधन और काल कोठरी में बीते डेढ़-दो घंटे आज भी स्मृति पटल पर एकदम टटके हैं।
मृत्यु के मुख से होने वाली प्रत्येक वापसी आपकी जीवन-दृष्टि को गहराई तक प्रभावित करती है। आप वहीं नहीं रह जाते, जो पहले होते हैं। पिछले दिनों गांव गया। वही ठाकुर अपने नाती की मार्कसीट लेकर आये और उसे कहीं नौकरी दिलाने की चिरौरी करने लगे। मैं उनकी आंखों में आंखें डालकर यह जानने का प्रयास करने लगा कि क्या मुझे सामने पाकर वे अपनी उस दिन की असफलता पर अब भी दुखी होते होंगे। सोचता हूं कि एक दिन पूछ लूं? यह भी कि वह दूसरा कौन था? अब तो यह सब कहा-सुना जा सकता है।
एक और दृश्य भी मानस पटल पर उसी तरह सुरक्षित है। शायद अपहरण वाली घटना के पांच-छह महीने बाद की बात होगी। एक शाम खेतों की ओर से मुद्दई का हलवाहा प्रकट हुआ। पिताजी को एक तरफ ले जाकर कुछ फुसफुसाया और अंधेरे में गुम हो गया। हलवाहा दलित था और पिताजी से सहानुभूति रखता था। उसे खबर मिली तो आगाह करने के लिए आ गया। उसने बताया कि मुद्दई ने बाहर से बदमाश बुलाये हैं। आज रात मेरे घर डकैती पड़ेगी। डकैती तो दिखावे के लिए होगी। असली मकसद है पिताजी की हत्या। उसके जाने के बाद मां और पिताजी चिंतित हो गये। पिताजी सारे बर्तन-भांड़े एक खांची में रखकर कुछ दूर स्थित गन्ने के खेत में छिपा आये। मां ने अपने दो-चार गहनों और मुकदमे के कागजों की पोटली बनायी, साथ ले चलने के लिए। कथरी-गुदरी पिछवाड़े की झाड़ियों में छिपा दी। दो बैल थे। एक गाय और एक बकरी। किसी को न पाकर वे लोग गाय-बैल ही हांक कर बेंच सकते हैं। इसलिए गाय-बैलों का पगहा खोलकर महुआरी में हांक देना था। केवल बूढ़ी अंधी दादी बच रही थीं। वे मंड़हे में बिछी चारपाई पर पड़ी रहती थीं। बकरी उन्हीं की चारपाई के पीछे लकड़ियों की आड़ में बांध दी गयी। साथ ले चलने पर उसकी चिल्लाहट हम लोगों के लिए खतरा बन सकती थी। गाय-बैलों की तरह हांकने पर भेड़िए का शिकार हो जाने का खतरा था। यहां बंधी हुई चुप रह गयी तो बच जायेगी। चिल्लाई तभी मारे जाने का डर था। घर में ताला लगाकर दोनों बैलों और गाय को हांकते हुए करीब दो घंटा रात बीतते-बीतते हम लोग निकले। पिता जी के सिर पर एक बक्सा, हाथ में लाठी। मां के सिर पर एक बक्सा और गोद में सो चुकी छोटी बहन। मेरे सिर पर मां की पोटली और कंधे पर बस्ता। बे-आवाज निकलना था। फिर भी बकरी को आभास हो गया। नई जगह बांधते ही वह चिल्लाने लगी। झबुआ शाम को नहीं था। निकलते-निकलते वह भी आ गया।
मुझे लगा कि अपना घर-दुआर, पेड़-पालव, खासकर जीवित अंधी बूढ़ी दादी और असहाय बकरी को छोड़कर हम लोग हमेशा-हमेशा के लिए चले जा रहे हैं। मैं रोने लगा....अंधेरी रात की वह यात्रा...यह तो खुटना के बाग में पहुंचकर पता लगा कि मां हम भाई-बहनों को लेकर यहीं पेड़ के नीचे सोयेगी और पिताजी लौटकर घर के पास की झाड़ियों में छिपकर बैठेंगे ताकि जान सकें कि क्या कुछ हुआ। किसी के घर इसलिए नहीं गये ताकि डरकर घर छोड़ने की बात किकी को पता न चले। आततायी आये। हम लोगों को न पाकर किवाड़ तोड़ा। लाठी से घर की गगरी कुचुरी फोड़ा, बैलों की नांद हौदी फोड़ा। ओसारे का छप्पर पीटा और दादी को एक लाठी मारकर बकरी कंधेर पर लादकर चले गये। उनके जाने के बाद पिताजी बाग में आये। मां के साथ मैं भी जगा था। वापसी की यात्रा शुरू हुई। भोर होते-होते दोनों बैल और गाय भी पिताजी खोजकर हांक लाये। असुरक्षा और आतंक के ऐसे प्रसंगों ने, जो कई हैं और उम्र के अलग-अलग पड़ाव पर घटित हुए हैं, मुझे अपना पक्ष चुनने में निर्णायक भूमिका निभायी होगी।


मैं और मेरा समय
                                            समय ही असली स्रष्टा है

एक अन्य अंश ...........
प्रसंगतः, तत्कालीन लेखपाल के षड्यंत्र के कारण उस मुकदमे में पिताजी को आंशिक सफलता ही मिली। हमारा कब्जा आधे रकबे पर ही माना गया। पिछले दिनों गांव गया तो उस मुकदमे की पेचीदगी जानने के लिए मैंने तत्कालीन लेखपाल राम अंजोर को बुलवाया। उन्होंने बताया कि ठाकुरों के भारी दबाव और धमकी के चलते उन्होंने कब्जे वाले अभिलेख में एक के नीचे 'बटा दो' लगा दिया था। यानी पूरे रकबे पर नहीं बल्कि आधे पर कब्जा है। राम अंजोरजी ने कहा कि पूरी नौकरी में यही एक काम मैंने ऐसा किया, जिसके लिए आज तक पछताता हूं। भगत (मेरे पिताजी) की लड़ाई उन दिनों चर्चा में थी, जिसमें मेरी वजह से इन्हें आधी सफलता पर संतोष करना पड़ा। इसका मुझे दंड भी मिला। पूरे सेवाकाल का एकमात्र दंड। टेप किये गये राम अंजोरजी के शब्दों में ''मुझे 'बैड इंट्री' मिली और एक इंक्रीमेंट रोक दिया गया, हमेशा के लिए। क्योंकि बाद की जांच में नक्शे में की गयी यह ओवर राइटिंग पकड़ में आ गयी थी।''
उस दिन पिताजी को बताया कि राम अंजोर गुप्ता लेखपाल को बुलाया है तो छूटते ही बोले- 'उस बेईमान को? क्या जरूरत है? वही तो मेरे महाभारत का सकुनी है।' पर राम अंजोरजी के दंड-प्रणाम करते ही उनका मन निर्मल हो गया।
सांप-बिच्छू के काटने और पेड़ से गिरने के प्रसंग तो कई हैं। जहां मेरा घर सत्तर-पचहत्तर साल पहले बना, वहां जमीन थोड़ी ऊंची और कंकरीली थी। लगता है, वहां सांपों की बांबियां थीं। आज भी हर साल सावन-भादों के महीने में किवाड़ के बीच कोई-न-कोई सांप दबकर मरता है। पिताजी की गोनरी के नीचे बैठा हुआ या आंगन में टहलता हुआ दिखायी पड़ता है। किवाड़ में दबकर मरने वाले सांप की लंबाई व रंग हर साल आश्चर्यजनक रूप से एक-सा रहता है। पिछले दिनों अजगर का एक बच्चा निकल आया जाड़े में। संयोग से मैं भी पहुंच गया था। मारने से मना कर दिया। घर के बगल में पसरा धूप का आनंद लेता रहा कई दिनों तक। मेरे लौटने के बाद दूसरे गांव से काम पर आये मजदूरों ने डरकर मार दिया। घर में रहने वाले इन सांपों ने कभी किसी को नहीं काटा। दोनों बार मुझे काटने वाले सांप बाहरी थे। एक स्कूल में और दूसरी बार खेत में। अषढ़ियां थे। जहर नहीं चढ़ा। कई बार पेड़ से गिरना इसलिए स्वाभाविक था कि गर्मी का हमारा खेल पेड़ों पर चढ़ने और कूदने वाला था। एक खेल होता है हमारे यहां- चिल्हर पाती। टांगों के नीचे से लकड़ी का छोटा डंडा फेंका जाता है और जब तक 'चोर' लड़का उस डंडे को लाकर निर्धारित जगह पर रखे, तब तक सारे लड़कों को पेड़ पर चढ़ जाना होता है। चोर लड़का पेड़ पर चढ़कर लड़कों को छूने का प्रयास करता है। और लड़के इस प्रयास में रहते हैं कि छू जाने के पहले जमीन पर रखे उस डंडे को कूदकर अपने कब्जे में ले लें। यानी बंदर की तेजी से दौड़कर पेड़ पर चढ़ना और उतनी ही तेजी से डाल से कूदकर (तने की तरफ से उतरकर नहीं) डंडे तक पहुंचना। तो इसमें बहुत बार डाल टूट जाती है और आप डाल सहित नीचे। या हाथ से छूट जाती है और आपकी गति डाल से चूके बंदर वाली हो जाती है।
पानी में डूबने का अनुभव बहुत आतंकित और निराश करता है, क्योंकि आपको लगता है कि आपकी दुनिया छूट रही है और आप निरुपाय होते हैं। चैतन्यहीनता धीरे-धीरे हावी होती है, डूबने से भी कई बार बचा हूं पर ऐसे दो अनुभव दिमाग में एकदम चटक हैं। एक अपने उस्ताद द्वारा डुबाये जाने का, दूसरा मां के साथ डूबकर बहने का।
गांव में मेरे एक उस्ताद थे- जियावन दर्जी। पिताजी ने यह सोचकर आठ साल की उम्र में ही मुझे जियावन का शागिर्द बना दिया कि हाथ में एक हुनर हो जायेगा तो रोटी के लिए मोहताज नहीं रहेगा मेरा बेटा। जियावन मास्टर कानपुर से टेलरिंग सीखकर आये थे। बाईस-तेईस की उम्र। रंगीला स्वभाव। मशीन चलाते हुए फिल्मी गाने गाया करते। 'काज-बटन' के साथ मुझे भी बहुत से गीत याद हो गये। उस्ताद लेडीज कपड़ों के एक्सपर्ट माने जाने लगे। मुझे भी समझाना शुरू किया। पांच तक पढ़ लिये, बहुत है। अब पूरा समय सीखने में लगाओ। काम के अम्बार और हसीन चेहरों से जिंदगी भर घिरे रहोगे। वे कपड़ों की नाप बहुत सही और बहुत देर तक लेते थे। उस जमाने में भी ट्रायल के लिए बुलाते थे। इसी के चलते बाद में प्रेम में असफल होकर पागल हो गये। गले में लाल रूमाल बांधकर 'रेशमी सलवार' गाते हुए घूमते। एक बार में मुझे नहर में नहाते देख लिया। वे गुजर रहे थे तभी मैं नहर से निकल कर पुल से कूदने के लिए सड़क पर आया। अरे! उनका शागिर्द नंगे दौड़ रहा है। मेरे कूदने के साथ ही वे भी पानी में कूदे। डांटकर जांघिया पहनने को विवश किया। फिर खुद नहलाने लगे। इतनी मैल! अचानक डुबकियां लगवाना शुरू किया तो बंद न करें। दम घुटने लगा। चिल्लाने तक का मौका नहीं। किसी तरह छिटकर अलग हुआ तो भागने के लिए रास्ता गहरे पानी की ओर से मिला। आगे पुल की मोहड़ी (मुहाना)। मोहड़ी के निचले तल और पानी की सतह के बीच मात्र चार-पांच अंगुल की जगह। नाक बाहर निकालने तक की गुंजाइश नहीँ। बीस फीट की मोहड़ी पार करने भर का दम शेष नहीं। बेहाल हो गया। पानी पी लिया। ढीला पड़ गया। बहने लगा। बाप रे! गये आज! किसने पकड़ कर निकाला, याद नहीँ। औंधा करके पेट का पानी निकालना याद है। खटोले पर रखर लाया गया। खटोले का हिलना-डुलना याद है।
लेकिन दूसरी बार का बचना तो सचमुच चमत्कार था। जमीन वाला मुकदमा खत्म होने के साथ ही पिताजी का मन घर-गृहस्थी से उचट गया। मुकदमे के दौरान वे क्रमशः धार्मिक होते गए। हर मंगलवार को एक स्थानीय देवी 'चंद्रिकन' के दर्शन करने पांच कोस जाते। हर पूर्णिमा को पैदल पच्चीस कोस चलकर गंगा स्नान करने जाते। फिर एक बाबाजी की कुटी पर जाने लगे- सात कोस चलकर। गांजा पीने लगे। जब मैं दर्जा सात में था, उस साल कुटी पर गये तो लौटे ही नहीं। वहीं रम गये। दो महीने हो गये। खेती-बारी का नुकसान होने लगा। मामा उन्हें खोजते हुए पहुंचे तो उन्होंने दो टूक फैसला सुना दिया- अब हम घर-गृहस्थी के जंजाल में नहीं पड़ेंगे। भव सागर भी तो पार करना होगा। उसका उपाय कब करूंगा? बहुत समझाने-बुझाने पर लौटे लेकिन धान लगाने के बाद फिर चले गये। जाने के पहले वाली शाम को मुझे बुलाकर दूर खेतों में ले गये। अंधेरे में एक मेड़ पर बैठे। मुझे बगल में बैठाया, फिर धीमी आवाज में समझाया- देखो भाई, अभिमन्यु ने चौदह साल की उम्र में चक्रव्यूह का भेदन किया था। तुम भी चौदह के हो रहे हो। अब अपनी घर-गृहस्थी संभालो। मुझे मुक्त करो। भवसागर...
मैं चुप ही रहा। हम लोग मेड़ पर आगे-पीछे चलते हुए लौट आये। सबेरे उनकी चारपाई सूनी थी।
बरसात बीती, जाड़ा बीता, गर्मी बीती। फिर बरसात आयी। धान बोने का समय निकला जा रहा था। वे नहीं लौटे। लोगों ने मां को समझाया- तुम खुद बेटे के साथ जाओ। बाबा के सामने रोओ कि हमारी गृहस्थी बिगड़ी जा रही है। बेटे को उनके चरणों में डाल दो। वे भी देख लें कि अभी यह किस काम लायक है। बाबा वापस भेजेंगे तो उन्हें आना ही पड़ेगा।
बाबा की कुटी सात कोस दूर थी। हम मां-बेटे बड़े सवेरे निकले। सावन बीत रहा था। रास्ता नहर, ऊसर, बाहा और बागों से होकर जाता था। कुटी पर पहुंचते-पहुंचते दोपहर हो गयी। दिन लटक गया। थककर पस्त। आंखें भर आयीं। बाबा ने मां का रोना-गाना सुना। फिर अपना निर्णय सुनाया- न मैंने बुलाया है, न जाने के लिए कहूंगा। भगवान ने बुलाया है, भगवान ही जानें।
भगवान कुछ बोले नहीं। पिताजी माने नहीं। शायद रात में औरतों को कुटी पर रहने का निषेध था, या क्या कारण था, हम लोगों को लौटना पड़ा। कुटी से चले तो एक-डेढ़ घंटे दिन ही शेष था। रास्ते में पानी भी बरसने लगा। भूख लग आयी थी। बाबाजी की कुटी पर एक-एक टिक्कर और थोड़ी-सी खिचड़ी मिली थी दोपहर में। जो चावल हम लेकर गये थे, वे कुटी के भगवान को चढ़ा दिये थे। शिवगढ़ के बाहे तक पहुंचते-पहुंचते घुप्प अंधियरिया घिर आयी। आसमान बादलों से ढंका था। शिवगढ़ के बाहे पर पक्का पुल बनने की शुरुआत हो चुकी थी। पिलर्स की नींव पड़ गयी थी और मोटी लंबी लोहे की सरिया आसमान की ओर मुंह किये पुंज में पानी के बीच खड़ी थी- बरसात बीतने की प्रतीक्षा में। बहाव के चढ़ाव की तरफ, बगल में ग्रामीणों ने बांस का कामचलाऊ पुल बनाया था- चार बांस यानी डेढ़ फीट की चौड़ाई वाला- जिस पर बारी-बारी से एक-एक आदमी पार होता था। तनी हुई रस्सी पर चलने वाले नट से थोड़ी ही कम सावधानी के साथ। हम लोग बाहे पर पहुंचे तो थोड़ी देर पहले बरसे पानी के चलते बाहा उमड़ आया था। बांस का पुल डूब चुका था। अंधेरे में अंदाज से उसे खोजते हुए हम पानी में डूबी मेड़ पर संभल-संभल कर आगे बढ़ रहे थे। पानी कमर तक आ गया। बहाव तेज था। लगता था पुल दायें-बायें कहीं छूट रहा है। तभी मैं फिसला और गड़प की आवाज के साथ गायब हो गया। निर्माणाधीन पुल के दोनों सिरों पर मिट्टी डालने के लिए मेड़ के बगल में खंती खोदी गयी थी। पानी भरा होने और अंधेरे के कारण उसका पता नहीं चल रहा था। ठीक पीछे चलती हुई मां डरकर चीखी होगी। वह भी डगमगायी और खंती के पेट में समा गयी। पुल वाली जगह से गुजरने के बाद बाहा थोड़ा-सा बायीं और मुड़ता था। बहते-तैरते हुए मैं उसी घुमाव के दाहिने किनारे पर लगा तो मां को आवाज देने लगा। मां की आवाज आयी- बच गयी हूं। लोहे की सरियों के सहारे टिकी हूं। मां भी तैरना जानती थी, लेकिन घुप्प अंधेरा था। धार का, थाह का, विस्तार का अंदाज नहीं था। इसलिए मैंने उसे चिल्लाकर आगाह किया- सरिया छोड़ना नहीं।
बाहे के चारों तरफ डेढ़-दो मील तक कोई गांव-गिरांव नहीं था। चिल्लाना, गोहार लगाना बेकार था। शिवगढ़ की ओर दीये की मद्धिम टिमटिमाहट दिख रही थी। मैं उधर ही गया। पांच-छह लोग आये। तब तक बाढ़ भी कुछ घट गयी। उन लोगों ने मां को निकाला। शिवगढ़ और बेलसौना के बीच के महाऊसर का विस्तार पार करते-करते कपड़े सूख गये। हम लोग घर पहुंचे तो सूरज निकल रहा था।
उन दिनों के किसी प्राणी की सबसे ज्यादा याद आती है तो वह है मकरा बैल। जब पिताजी ने घर छोड़ा तो मैं कद में इतना छोटा था कि हल की मूठ मेरे कंधे तक आती थी। (सामान्यतः इसे कमर तक रहना चाहिए) हराई की समाप्ति के दौरान या फार में घास-दूब 'अरझ' जाने पर दस किलो का कुढ़ा उठाकर दूब गिराना मेरे बस में नहीं था। एक हाथ से कौन कहे, दोनों हाथों से कठिन था। अभ्यास न होने कारण पहली साल तो हराई फनाते समय हर का मुंह सीधा रखना ही कठिन था। ऐसे में मेरे 'मकरे' ने हलवाहे की भूमिका भी खुद ही निभायी। वह दाहिने चलता था। वह खुद ही निर्णय लेता था कि कहां मुड़ना है और कहां सीधे चलना है। बायें चलने वाला 'ललिया' सीधा और सचमुच थोड़ा 'बैल' था, लेकिन पूरी तरह मकरे का नियंत्रण मानता था। चारा देने, पानी पिलाने या रात में खवाई-पिवाई के बाद उनको मिलने वाली रोटी देने में देर होने पर तो वह हुंकार मारकर याद दिलाता ही था, एकाध बार तो ऐसा भी हुआ कि हल नाधने का समय हो गया, वह समय पर स्वयं उठकर खड़ा हो गया। पेशाब-गोबर किया। तब तक भी मैं जुवाठ लेकर उसके पास नहीं पहुंचा तो वह हुंकार भरकर सचेत करने लगा। मानो कह रहा हो, इतना आलस ठीक नहीं। आदमी को समय का ध्यान न रहा तो बरक्कत क्या खाक होगी। जुवाठ देखर तुरंत खड़ा होना और लपक कर गर्दन आगे करना तो उसकी पहले की आदत थी। उन दिनों मकरे ने मेरी जितनी मदद की, उतनी तो किसी आदमी ने नहीं की।
मकरा इतना चालाक और ज्ञानी था कि खूंटे से अपना पगहा दांतों से पकड़कर निकालता और पीठ पर फेंक देता। खासकर गर्मी के महीने में जब हरे चारे का अभाव हो जाता और सूखा भूसा खाते-खाते ऊब जाता। तब दिन में चरने के दौरान पह सांवा, गन्ना या उरद-मूंग के खेतों की पड़ताल किये रहता और रात को जाकर उन पर जीभ साफ करता। रास्ते में पड़ने वाले अपने खेत को छोड़ देता और दूर के दूसरे के खेत को चरता। पहचान में आ सके कि किसके जानवर ने यह सत्यानाश किया है, वह गीले खेत में न घुसकर उसकी मेड़ पकड़कर चलता। चर-खाकर वापस अपने खूंटे पर ही आकर बैठता। यदि आपके पास कभी इतना समझदार बैल नहीं रहा होगा तो आप हंस रहे होंगे कि अपने बैल की बड़ाई में मैं अविश्वनीय ब्योरे दे रहा हूं।
जिस समय मकरा खरीदकर लाया गया, वह उदंत था। या शायद दो दांत का रहा हो। खेत वाला मुकदमा जीतने के अगले साल की बात होगी। देखने-सुनने में चरफर और फुन्नैत। खूंटा बदलने की उदासी दो दिन से ज्यादा नहीं रही। घरबार पहचानने लगा। पास से गुजरने वाले अजनबी तक को हूं-हूं करके विश करता। पीठ सहलवाना पसंद नहीं करता था। हुंकार कर, पिछला पैर पटककर, पूंछ सटका कर मना कर देता। सहलाना ही है तो लिलरी सहलाइये। वह मुंह ऊपर उठा देता। चरने के लिए छूटता तो चरने से ज्यादा इस झुंड से उस झुंड में चर रहे जानवरों के बीच दौड़-दौड़कर पहुंचता। सूंघता, जान-पहचान करता या रण रोपता। गरम गाय के पीछे दौड़ने वाले झुंड में शामिल होता। झुंड में भारी भरकरम सांड और नुकीले सींग वाले मरकहे बैलों का दबदबा होता। मकरे जैसे मामूली कद-काठी वाले किस गिनती में। फिर भी अपने कौशल से वह एकाध हबार चढ़ने की जुगत भिड़ा लेता। सारे चरवाहे अपने-अपने बैलों-बछड़ों की सफलता पर ताली बजाते। मुझे विश्वास रहता कि मेरा मकरा मुझे भी ताली बजाने का मौका जरूर देगा, लेकिन मकरे के जीवन का यह 'स्वर्ण युग' एक ही साल रहा। किसान की मान्यता है कि अंडू बैल की ऊर्जा यौन-चिंतन और संसर्ग में खर्च होने के कारण उसके पास हल जोतने के लिए पर्याप्त शक्ति संचित नहीं रह पाती। वह जल्दी 'चुक' जाता है। उसका खाया-पीया देह में लगे, मांसपेशियां मजबूत हों, कम से कम दस माटी हल जोतने की शक्ति संचित हो सके, इसलिए उसका 'खुनाया' जाना आवश्यक है। खुनाना अर्थात उसके अंडकोश और लिंग को जोड़ने वाली नसों को हल्दी-तेल लगाकर पत्थर के लोढ़े से कूंचकर निर्जीव करना। ताकि वह गरम गाय के पीछे भागने लायक न रह जाये। यह दुर्घटना 'मघा' नक्षत्र में हुई। चार-पांच लोगों ने मकरे के चारों पैरों को मजबूत रस्से से बांधा। धड़ में रस्सा लपेटा। एक मजबूत आदमी ने सींग पकड़े। फिर सबने मिलकर उसे पटका। लोढ़े के प्रत्येक प्रहार पर मकरा अपनी लंबी जीभ निकाकर बां-बां करने लगा। उसकी आंखें आतंक से फैल गयीं। उसका आर्तनाद सुनकर पास बंधा दूसरा बैल और गाय होंकड़ने-डकरने लगे। मेरे रोंगटे खड़े हो गये। उधर देखा नहीं जा रहा था। बंधन खुलने के बाद भी वह शाम तक वहीं बैठा रह गया। उसकी आंखों में आतंक की जगह 'दीनता' उतर आयी। शाम को हल्दी-माठा पिलाने के बाद उसे लात मारकर उठाया गया। वह अपनी जगह से हिल तक नहीं पा हा था। सिकुड़ा खड़ा रह गया। इतना दर्द। इतनी बेचारगी। जैसे पूछता हो- क्यों की मेरे साथ इतनी घटियारी। किस जनम का बदला लिया?
पिताजी एक किस्सा सुनाते थे, सदन कसाई का। सदन कसाई के घर एक बार मेहमान आये तो पकाने के लिए घर में सालन नहीं था। पैसा भी नहीं था। परेशान हो गये तो पत्नी ने उपाय बताया- घर पर जो भैंसा बंधा है, उसे तो दो-चार दिन में कट ही जाना है। उसका अंडकोश अब उसके किस काम का। काट लाइए। एक किलो से कम क्या होगा? आज का काम चल जायेगा। सदन कसाई बांका लेकर गये। भैंसे को अपने आने का प्रयोजन बताया। भैंसा बोला- भइया सदन, हमारे आपके बीच मूंड़कटौवल तो पीढ़ियों से है पर अब यह नयी परंपरा? जीते जी पेल्हर-कटौवल। अरे वही तो भगवान ने बिना भेदभाव के एक सुख का साज दिया है हर जोनि के मर्द को। उसको भी मेहरिया के कहने से....अरे काटना ही है तो पहले मूंड़ काट लीजीए। फिर जो मरजी काटते रहिएगा।
और सदन कसाई सिर झुकाकर लौट आये। न सिर्फ लौट आये बल्कि बांका फेंक कर भगत हो गये। शबरी, अजामिल, गीध की तरह उन्हें श्रीराम ने 'तार' दिया। पिताजी तन्मय होकर गाते- शबरी का तारया, कसाई का तारया, राम, हमहूं का ना, ल्या सरनिया मा हलाई/राम, हमहूं का ना। यानी खुद पिताजी भी शबरी और सदन का हवाला देकर तरने की कामना करते थे। सोचता हूं, कई-कई बार इस किस्से को सुनाने वाले पिताजी मकरे की आंखों की याचना क्यों नहीं पढ़ सके? मकरे को इस हादसे से उबरने में हफ्तों लगे। वह धीरे-धीरे चरने-खाने लगा। हम लोगों को माफ कर दिया होगा, लेकिन उनका इस झुंड से उस झुंड में होंकड़ते-डकरते हुए दौड़ना छूट गया।
पिताजी गये तो मैं दर्जा सात में था और बहन दर्जा दो में। उनके गृहत्याग को हमने नियति का क्रूर मजाक मानकर स्वीकार कर लिया। नानी ने सहायता स्वरूप एक बकरी दी। उसका नाम भूल रहा हूं। उसके एक ही साथ तीन बच्चे हुए। तीनों मादा। नाम थे- खैली, निमरी और पुटकाही। फिर इन तीनों की संततियां आयीं। बहन पढ़ाई छोड़कर उन्हें चराने लगी। मैं स्कूल से लौटता तो इनके लिए पीपल, पाकड़ या महुए की पत्तियों का इंतजाम करता। रविवार के दिन इनके लिए विशेष रूप से बेर, बबूल, या नीम की डाल छिनगाता। इनका झुंड बड़ा होता गया। दस-बारह हो गयीं। जिस दिन कोई पाला-पोसा बकरा चिकवे के हाथ बेचा जाता और वह उसे साइकिल के फ्रेम के नीचे विशेष रूप से बनाये गये बोरे में बांधकर ले चलता, बकरे की चिल्लाहट से सारा माहौल गमगीन हो जाता। सारा घर रोने लगता। उस शाम बिना खाये हम तीनों प्राणी चुपचाप अपनी-अपनी चारपाइयों पर पड़ जाते। बकरियां उसकी याद में रातभर खोभार में अललाती रहतीं।

Saturday, October 10, 2009

लेखकों, आलोचकों ने मिलकर भगाया पाठकों को / शिवमूर्ति

किस्सागोई वाच्य-श्रवण विधा से निकलकर कथा-कहानी लेखन और पाठन परंपरा में प्रवेशित एवं संस्कारित हुई। व्यापकता और स्थिरता में वृद्धि हुई। राजा-रानी और हाथी-घोड़े के पटल को त्याग कथा-साहित्य ने एक ठोस और मुकम्मल जमीन तलाश किया। परी कथाओं के कल्पना-लोक से उतरकर इसने जमीन से अपना संबंध स्थापित किया, अपनों को स्पर्श किया। व्यापकता, स्थिरता के साथ-साथ गहराई भी बढ़ी। नई दिशा, एक नये सोच का विकास हुआ। कथा साहित्य एक ऐसी डगर पर चल पड़ा, जिसे लगा कि यह उच्च भूमि प्राप्त कर सकेगा। पर दूर जाती हुई सड़क जैसे दृष्टिपथ में क्षीण होती जाती है, वही अवस्था इस साहित्य-सड़क की हो गई। भूत और वर्तमान की साहित्यावस्था पर एक सापेक्ष दृष्टि डालने से ऐसा लगता है कि गुजरते समय के साथ जाता हुआ साहित्य क्षीण होता जा रहा, कुछ खोता जा रहा है। पूर्व कालिक साहित्य में ऐसा कुछ अवश्य था जो हमें अब नही मिल पा रहा है। दिन प्रतिदिन कुछ अवश्य छूटता जा रहा है। साहित्य का वह लोकप्रिय रूप अब क्यों नहीं रहा या बन पा रहा, यह विचारणीय प्रश्न है। होना तो यह चाहिए था कि जैसे-जैसे साक्षरता बढ़ी, मानव ने तथाकथित सभ्यता की सीढ़ियां चढ़ीं, संचार एवं प्रसार के माध्यम बढ़े, साहित्य के प्रति लोगों का रुझान बढ़ता पर पूर्वकालिक और तात्कालिक स्थिति को देखते हुए हम कह सकते हैं कि आज साहित्य के भविष्य पर प्रश्नचिह्न लगता दिखाई दे रहा है। जब साक्षरता और लोगों की माली हालत वर्तमान की अपेक्षा निम्न थी, प्रत्येक गांव में दस-पंद्रह सुधी पाठक अवश्य थे, व्यक्तिगत पुस्तकालय थे जो बिना किसी सरकारी सहायता के सीमित आर्थिक स्रोतों के बल पर चलते थे। मैंने अपने बचपन में उन पुस्तकालयों से पुस्तकें लेकर पढ़ी हैं। आज वैसे पुस्तकालय कहां और कितने मिलेंगे?
आज हिंदी साहित्य पर पाठकीय समस्या के संकट का जो बादल मंडरा रहा है, वह क्यों है? ऐसा भी नहीं है कि हिंदी कथा के पाठकों की संख्या घटी है (जैसा कि साहित्यकार बंधु रोना रोते हैं)। बाजारू उपन्यासों, सत्यकथाओं की संख्या का लगातार बढ़ना यह स्पष्ट करता है कि कथा विधा के प्रति पाठकों का रुझान कम नहीं हुआ है। माया, इंडिया टुडे आदि द्वारा प्रायोजित राजनैतिक कथाएं लोकप्रिय होने के पीछे भी यही कारण है। फिर क्या कारण है कि हमारा पुराना संस्कारी कथा-पाठक ही लुप्त हुआ अथवा उसका असंस्कारी बाजारू पठक के रूप में कायांतर हो गया।
इस समय पर विचार करने के लिए हमें कथा साहित्य के दोनों स्तंभों की भूमिका पर अलग-अलग विचार करना पड़ेगा।
कहानीकारः साहित्य स्वतःस्फूर्त और प्रेरित अंतरात्मा की आवाज है। साहित्यकार अपने साहित्य सृजन से पाठक को तभी आह्लादित कर सकता है, जब साहित्यकार ने स्वंय उस आह्लाद-स्रोत का पूर्णरूपेण रस पान किया हो। उससे एकाकार हुआ हो। आज जिन समस्याओं को लेकर कहानीकार अपनी कलम मांजता है, उस समस्या को भोगने-झेलने की कौन कहे, आत्मसात भी नहीं किए होता। समस्या या कथावस्तु का उसे प्रत्यक्ष अनुभव नहीं होता। अधिकांश लेखक ऐसे मिलेंगे जो सुनी-सुनाई और पढ़ी हुई समस्या को अपनी कथावस्तु के रूप में चुनते हैं। एअर कंडीशन रूम में डनलप के गद्दे पर स्कॉच और पैकेटों के बीच धंसकर कोई खेत-खलिहान, गांव की मचलती पुरुवा-पछुवा का सजीव चित्रण कैसे कर सकता है? यथार्थ की बात छोड़िये, कल्पना का भी कोई न कोई आधार होता है। आज अधिकांश साहित्य जो लिखा जा रहा, उसका आधार अनुवहीनता पर टिका है। शायद इसलिए आज के साहित्य में वह मौलिकता वह 'चामिंग पावर' नहीं आ पा रही है, जो पूर्व समय के साहित्य में विद्यमान रहती थी। हम पाते हैं कि ज्यादातर कहानीकारों की कहानियां रक्ताल्पता या हठवादी सिद्धांतवादिता की शिकार हैं। ये सिद्धांत और व्यवहार में सामंजस्य स्थापित करने की चेष्टा नहीं करते। इसमें जीवन रस नहीं दिखता, जीवन अनुभव नहीं दिखता। इन्हें पढ़ने से लगता है कि हमारे आज के लेखकों में अनुभव का दायरा अत्यंत संकीर्ण हो चुका है। जिस समाज में हमारे लेखक रहते हैं, उसकी समस्याओं, उन स्रोतों में अंतर्निहित जीवन रस को खींच सकने और उसे सशक्त ढंग से अभिव्यक्त करने की क्षमता में कमी आई है। आज हालत यह है कि पाठक अपने लेखकों से दुखी हो गया है। लेखक कहता है कि उसका दुख आलोचकों से है (इसके विपरीत भी कहा जा सकता है)। इसलिए एक बड़ा लेखक वर्ग अपने आकाओं (?) की अच्छी धारणाओं के लिए पाठक और उसकी प्रतिक्रिया को नजरअंदाज कर जाता है।
पुराने लेखक कथा-तत्व के महत्व को, शिल्प के महत्व को कथा की प्रासंगिकता के महत्व को और जिंदगी से जुड़ाव को जो महत्व देते थे, आज वैसा नहीं हो पा रहा है। अगर लुप्त प्राय संस्कारी पाठक पुनः पैदा करना है, असंस्कारी तथा मीडिया के चंगुल में फंसे पाठकों को मुक्त कराकर साहित्यिक क्षेत्र में लाना है तो लेखकों में उतनी ही निष्ठा जरूरी है, जितनी कछ कट्टर संगठनों के सदस्यों में देखी जा रही है। तभी तिल-तिल करके नामालूम ढंग से डूब रहा यह साहित्य का जहाज बचाया जा सकता है। आज कहानी में सिद्धांत रूपी 'कुनैन' इतनी ज्यादा कर दी गई है कि आम पाठक भड़क गया है। इन सिद्धांतवादी कथाकारों ने अपनी सिद्धांतवादी टिकिया को शुगर कोटेड करने की जरूरत भी नहीं महसूस की। इसी का परिणाम पाठकों के अभाव के रूप में हम भुगत रहे हैं।
यह तो रही आम पाठक की बात। हम लेखक लोग कितने सजग हैं पढ़ने के प्रति, यह भी विचारणीय है। हिंदी में नये-पुराने मिलाकर दस हजार लेखक तो होंगे ही (इनमें लेखक, कवि, आलोचक तथा सैकड़ों विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों के हिंदी की रोटी खाने वाले प्राध्यापकों को शामिल माना जा रहा है)। हिंदी की पत्रिकाओं, कथा संकलनों और उपन्यासों के किफायती संस्करणों (हार्ड बाउंड की जाने दीजिए) की कितनी प्रतियां इनके द्वारा खरीदी जा रही हैं/पढ़ी जा रही हैं? यदि केवल लेखकगण ही पत्रिकाएं खरीदने लगें तो भी पत्रिकाओं के समक्ष उपस्थित संकट समाप्त हो जाय। किंतु इतना भी आज हमसे नहीं हो पा रहा है।
आलोचकः आज के कुछ आलोचकों के क्रिया-कलाप और सोचने के तौर-तरीके देखकर यह संदेह शेष नहीं रह जाता कि आलोचक अपने को सुपर साहित्यकार मानने लगा है। ज्यादातर आलोचकों को यह मुगालता है कि वे लेखक निर्माता हैं। उनके गाड फादर हैं। जबकि हकीकत इसके विपरीत है। आज के आलोचकों का पढ़ने-लिखने से छत्तीस का रिश्ता बनता जा रहा है। व्यक्तिगत बातचीत में यह बात खुलकर सामने आयी है कि जब उन्हें किसी कहानी के बारे में कोई बताता है तो उसे देखते हैं और कभी-कभी तो बिना देखे (पढ़ने की कौन कहे) वह उसका नामोल्लेख सुनी-सुनाई प्रतिक्रिया अथवा अपने आग्रह के अनुरूप कर देते हैं। क्या आलोचक की यही जम्मेदार है?
कोढ़ में खाज की भूमिका निभा रही स्वजनवादी आलोचना की प्रवृत्ति। यह प्रवृत्ति बीते युग के चारणों की याद दिलाती है- बीसवीं सदी के चारण। इन आलोचकों ने स्वजनों की एक सूची बना रखी है। ये केवल उन्हें और उनकी रचनाओं पर अपनी जुबान खोलते हैं। अन्य लोग क्या लिख-पढ़ रहे हैं, इसको पढ़ने-जानने की उन्हें जरूरत नहीं महसूस होती। अन्य रचनाओं और रचनाकारों को तो बिना देखे कूड़ा-कबाड़ करार देते हैं।
क्या लिखना चाहिए- अधिकांश आलोचकों का इस पर ज्यादा जोर है बजाय इसके कि जो लिखा गया है, उसके गुण-दोष का विवेचन करें। चने के बेसन से सत्तू भी बनता है और लड्डू भी। दोनों ही लोकप्रिय हैं. लेकिन प्रायः आलोचक लड्ड खाते हुए सत्तू के फायदे बताते हैं और यदि लेखक ने सत्तू परोसा है तो लड्डू न खा सकने का विलाप करते हैं। यदि आलोचकों ने अपनी सही भूमिका निभाई होती तो पाठकों का संकट हल करने में कथा साहित्य काफी हद तक सफल हुआ होता।
आगे हमारे कथा साहित्य का भविष्य क्या होगा, यह बहुत हद तक हमारे लेखकों और कुछ हद तक हमारे आलोचकों की भूमिका पर निर्भर करता है। प्रकाशकों की जड़ में मट्ठा डालने वाली कुप्रवृत्ति पर अलग से आलेख आवश्यक है।

जंग जारी है / शिवमूर्ति




उपन्यास अंश............

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आज
गांवों में तेजी से परिवर्तन हो रहा है। पुराने मूल्यों, मान्यताओं और मान-मर्यादा के मानदंड बदल गए हैं, बदल रहे हैं। अर्थ-लिप्सा गांवों को भी अपने शिकंजे में कस रही है.... गांवों के नाम पर आने वाली सरकारी सहायता सड़क, अस्पताल, पंचायत भवन आदि के निर्माण की धनराशि की निर्लज्जतापूर्वक बंदरबांट की जा रही है। जातिगत विद्वेष की पार्टीबंदी कोढ़ में खाज बन रही है.....समूह में रहते हुए व्यक्ति का सोच एकाकी है। असुरक्षा, गरीबी, जहालत, अविश्वास और ईर्ष्या-द्वेष सब मिलकर दीमक की तरह गांवों को चाट रहे हैं। गांवों की इसी त्रासद स्थिति पर केंद्रित है 'जंग जारी है' की कथावस्तु।
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गांव में सन्नाटा व्याप्त है।
अभी-अभी एक जीप गांव की गलियों से होती हुई लौटन बाबू के घर की तरफ गई है। कोई कह रहा था- पीछे दो बंदूकधारी भी बैठे थे।
कई दिन से, जब से गांव के मजदूरों ने बड़े किसानों के विरुद्ध मजदूरी को मसले को लेकर कलक्ट्रेट में प्रदर्शन किया है, गांव में तनाव है। बड़े किसानों के कालेजों में पढ़ने वाले तथा पढ़ाई छोड़कर घर बैठ गए लड़के हमेशा कट्टे-तमंचे की बात करते हैं। गली-कूंचे तथा खेत-खलिहान में परोक्ष ढंग से मजदूरों को धमकी दी जा रही है। अभी तक एक भी मजदूर संघर्ष समिति के निर्णय के विपरीत मजदूरी करने के लिए खेतों में नहीं गया है। सब सवेरे की गाड़ी से या साइकिलों पर शहर जाते हैं। फिर शहर के चौराहे से, जहां काम मिलता है, चले जाते हैं।
मजदूरों को तोड़ने का पूरा प्रयास चल रहा है। गांव की गंध में तिताई है। कहीं कोई अनहोनी न घट जाए। प्रदर्शन में भाग लेने वाले एकाध लोगों के खेत से आलू के पौधे उखाड़ लिये किसी ने। एक किसान की पांच बिस्सा ईख काट कर ले गया कोई। पांच बिस्सा ईख पचाना आसान काम नहीं। कुछ लोगों ने गन्ने की कुट्टी कई बड़े किसानों के बैलों के नाद में देखी है। कल एक बड़े किसान के दो बैल चोरी चले गए। शाम को दरोगा आया था गांव में। किसान ने नामजद रिपोर्ट लिखायी है दो मजदूरों के खिलाफ। पुलिस दोनों को पकड़ कर ले गयी है। रात विद्रोही जी थाने गये थे। दरोगा ने कहा है कि वह 'मारपीट' नहीं करेगा। चुपचाप चालान कर देगा। जमानत का इंतजाम करिए, सभी जान गए हैं कि बैलों की चोरी फर्जी है। बैल कहीं दूर रिश्तेदारों के घर भेज कर रिपोर्ट लिखायी गयी है, मजदूरों को फंसाकर उनका संगठन तोड़ने के लिए।
सूरज डूबते-डूबते लोग अपने घरों में घुस जाते हैं। अंधेरा होते ही सियार गांव की सरहद पर आकर रोना शुरू करते हैं। गांव के कुत्तों ने उन पर भोंकना और उन्हें खदेड़ना छोड़ दिया है। क्या होगा इस गांव का?
विद्रोही जी सोच में पड़े हैं। प्रतिकार तो करना ही पड़ेगा। तटस्थ रहना, पलायन करना तो कायरता होगी। संघर्ष अवश्यंभावी लग रहा है। उनका विचार है कि इस मामले में दद्दन से सलाह लेना ठीक रहेगा। दद्दन सिंह बड़े भूपति हैं, लेकिन वक्त की नब्ज को वक्त से भी पहले समझने वाले। उन्होंने प्रदर्शन से भी पहले से नई दर से मजदूरी देना शुरू कर दिया है। सभी उनसे डरते हैं और उनका सम्मान करते हैं। वे सीधे-सीधे कभी किसी से झगड़ा मोल नहीं लेते, लेकिन लड़ने वाले दोनों फरीकों को बारी-बारी से लड़ने के ऐसे रास्ते बताते हैं कि दोनों उन्हें अपना संरक्षक मानते हैं। इसी गुण से वे विगत पचासों साल से पास-पड़ोस तक के गांवों को तिगनी का नाच नचा रहे हैं।
विद्रोही जी दद्दन सिंह के घर जाने के लिए बाहर निकलते हैं, तभी सामने से गजाधर आता दिखाई पड़ता है।
'नेता जी, आपको बीडीओ साहब याद कर रहे हैं। लौटन बाबू के दुआर पर बैठे हैं।'
'जाकर बीडीओ साहब से कह दो कि मेरे पास दुआर नहीं है बैठने के लिए क्या?'
'अरे पीने-खाने का भी परबंध है।' गजाधर मुस्कराता है, 'आपसे कुछ बतियावा चाहत हैं।'
विद्रोही जी लौटन बाबू की चाल खूब समझते हैं। एक बार दरवाजे पर बुला नहीं पाये कि सारे गांव में हल्ला करेंगे, 'विद्रोही जी डरकर माफी मांगने आये थे। साले विचाली।'
थोड़ी देर में बीडीओ साहब आते हैं। साथ में लौटन बाबू तथा दो बंदूकधारी।
'आइए।' विद्रोही जी उठकर स्वागत करते हैं और दोनों को अंदर दालान में लेजाकर बैठाते हैं। दोनों बंदूकधारी बाहर खड़े हो जाते हैं।
विद्रोही जी वहीं से पत्नी को आवाज लगाकर चाय बनाने के लिए कहते हैं और पूछते हैं, 'कहिए, क्या सेवा करूं?'
'सेवा तो आप बिना पूछे ही खूब कर रहे हैं। चारों तरफ मेरा नाम उजागर कर रहे हैं। जाने कब का बैर साध रहे हैं। मुझे तो पता भी नहीं चल पाया अभी तक कि मुझसे आपको शिकायत क्या है।' बीडीओ साहब मुस्करा-मुस्करा कर बोलते हैं।
'शिकायत मैंने अपने ज्ञापन में छपवा दिया है। आपने न देखा हो तो उसकी एक प्रति दे सकता हूं।'
'आप कहते हैं कि मेरे कारण संपर्क मार्ग नहीं बन पा रहा है। आपको शायद पता नहीं है कि....'
'मुझे सब पता है। जो काम आप कर चुके हैं, और जो करना चाहते हैं और कर नहीं पा रहे हैं, उसका भी।'
'मैंने कौन-सा गलत काम किया है?'
'एक हो तब न गिनाऊं? आपने लौटन बाबू को पुअरेस्ट एमंग पुअर मानते हुए ट्रैक्टर का लोन दिलवा दिया। फाइल पर लोन में हरिजनों को साझीदार बनवा दिया। उन्हीं हरिजनों को, जो लौटन बाबू की हरवाही-चरवाही करते हैं और सदा उनसे दबे रहेंगे। जिनके पास कुल मिलाकर इतनी भी जमीन नहीं है जितना एक ट्रैक्टर को एक दिन में जोतने के लिए चाहिए।'
लौटन बाबू मुंह की खैनी दालान के एक कोने में थूक कर बोलते हैं...'आखिर इसमें तुम्हारा क्या नुकसान है- तुम मेरे पीछे क्यों पड़े हो?'
'यह सिद्धांत की बात है। मैं न आपके पीछे पड़ा हूं, न बीडीओ साहब के। मैं सिद्धांत के पीछे पड़ा हूं। सरकार का पैसा गरीबों के खून का पैसा है। उसका दुरुपयोग कोई कैसे सह सकता है।?'
'गौरमिंट के पैसे का दुरुपयोग तो आपने भी किया है। बिना जानवरों की खरीद कराये उस मद में मिलने वाली छूट की रकम का बंदरबांट करवा दिया। जानते हैं- अखबार में आपकी इस तकनीक को 'खूंटा-बदल' नाम दिया है संवाददाता ने। बंदरबांट भी आपका सिद्धांत है?'
'उसमें सिद्धांत के खिलाफ जैसा कुछ नहीं है। सरकार का पैसा गरीबों के पास गया है। सही जगह गया है। टेक्निकल गलती कोई गलती नहीं होती।'
'लेकिन उसी पैसे सरकार के खिलाफ आपने प्रदर्शन किया है।'
'मैंने सरकार के खिलाफ नहीं, सरकारी मशीनरी में व्याप्त कोढ़ के खिलाफ प्रदर्शन किया है और गरीबों के पैसे से नहीं, चंदे के पैसे से किया है।'
'सौ बात की एक बात। आप प्रदर्शन कीजिए, ज्ञापन दीजिए, मजदूरी बढ़वाइए। मुझसे मतलब नहीं। लेकिन एक बार में एक ही नाव पर पैर रखिए। एक ही डिमांड पर अपनी ताक केंद्रित करिए। मजदूरी बढ़ाने की मांग का मैं भी सिद्धांत के तौर पर समर्थक हूं। मैं सिर्फ ये चाहता हूं कि आप मेरा प्रचार करना बंद कर दीजिए। मैं चुपचाप काम करने में यकीन करता हूं। मुझे काम करने दीजिए, मेरे रास्ते में मत आइए।'
'मैं सिर्फ अपना धर्म निभा रहा हूं।'
'आप अपना धर्म मेरे हाथों बेच दीजिए'- बीडीओ साहब उत्तेजित होकर कहते हैं- 'अच्छी कीमत दूंगा।'
'वरना?'
'वरना मुझे आपके सिर की कीमत लगानी पड़ेगी। पांच-सात हजार में तो आजकल आसानी से किसी का सिर खरीदा जा सकता है।'
'इतना लंबा-चौड़ा कारोबार हो गया आपका?'
'तुम्हारी समझ का फेर है फेरई उर्फ रामफेर उर्फ विद्रोही उर्फ चार सौ बीस जी।' लौटन बाबू दांत पीसते हुए कहते हैं- 'तुम्हारे आजा और बाप ने जितना कर्जा खाया है मेरे बाप-दादों का, अगर वही निकालकर जोड़ दिया जाए तो पूरी उमर 'उरिन' नहीं हो पाओगे। यह समय का फेर है जो आमने-सामने टिपिर-टिपिर बात कर रहे हो। चलिए बीडीओ साहब।' वे उठकर खड़े हो जाते हैं, 'मैं सब देख लूंगा।'
'अभी दस साल भी नहीं हुए आपको सिंधी के भट्ठे की मुंशीगीरी छोड़े हुए। आपके बाप उसी भट्ठे पर बैलगाड़ी हांकते हुए मरे, दुनिया जानती है। फिर कर्जा कहां से दिया तुम्हारे आजा ने। ये सब सुनाना है तो बीडीओ साहब को अकेले में सुनाओ। जाओ।'
तब तक विद्रोही जी का छोटा लड़का आकर बताता है- 'अम्मा कहिन हैं, चीनी खतम है। चाह ना मिली।'
लड़के की बात किसी को सुनाई नहीं पड़ती। वह डर कर बाहर चला जाता है- यहां तो झगड़ा हो रहा है।
बीडीओ साहब धीरे-धीरे कुर्सी से उठते हैं- 'विद्रोही जी एक बात आप अच्छी तरह जान लीजिए। प्रदर्शन, ज्ञापन और शिकायत से किसी अधिकारी का रोंवा तक टेढ़ा नहीं होता। हाथी चले जाते हैं, कुत्ते भौंकते रहते हैं। समझदार वह है, जो समझदारी का काम करे।'
'अच्छा तो अब मैं जूता उतारूंगा।' विद्रोही जी कहते हैं- 'मेरी समझदारी यही कहती है।'
'क्या?' बीडीओ साहब और लौटन जी दोनों हतप्रभ हो जाते हैं।
'हां, जब कील चुभती है तो दर्द होता है। ऐसे में दो ही रास्ते हैं, आप जूता उतारें या चुपचाप कील का दर्द बर्दाश्त करते रहें।' विद्रोही जी झुकते हैं।
जरा-सा भी टस-से-मस नहीं हो रहा है ये आदमी। बीडीओ साहब चिंतित हैं।
'देखिए, मैं सीरियसली बात करने के लिए आया हूं। दीवार, दीवार होती है, सिर, सिर होता है। सिर चाहे जितने बड़े घाघ का हो, दीवार से टकरायेगा तो उसे फूटना-ही-फूटना है। दीवार का कुछ नहीं होगा। हम हाथी हैं। दीवार हैं। सरकार हैं।'
'आपको गलतफहमी है बीडीओ साहब। दीवार भी हम हैं, सरकार भी हम हैं। हम- यानी किसान, मजदूर, आम जनता। आप सिर्फ कुत्ते हैं जो भूंक रहे हैं। घाघ के सिर हैं, जिसे फूटना-ही-फूटना है। भले देर लगे।'
लौटन सिंह से बर्दाश्त नहीं होता। इतनी बेइज्जती! क्या सोचेंगे बीडीओ साहब। वे गरजते हुए लपक कर विद्रोही जी का कुर्ता गले से पकड़ लेते हैं। दोनों गुत्थमगुत्था। बीडीओ साहब दोनों को छुड़ा रहे हैं।
तब तक बाहर हल्ला-गुल्ला मच जाता है। विद्रोही जी के लड़के ने थोड़ी देर पहले बाहर जाकर बता दिया कि अंदर लौटन सिंह और उनके आदमी बप्पा से झगड़ रहे हैं। देखते-देखते पचीस-तीस लोगों की भीड़ ने बाहर खड़े दोनों बंदूकधारियों को घेर लिया है।
लौटन सिंह- बाहर निकलो!
लौटन सिंह- मुर्दाबाद!
अंदर तीनों आदमी पूर्ण-विराम की तरह खड़े हैं।

Thursday, October 1, 2009

उपन्यास.....तर्पण / शिवमूर्ति

उपन्यास तर्पण पर एक टिप्पणीकार के विचारः
तर्पण भारतीय समाज में सहस्राब्दियों से शोषित, दलित और उत्पीड़ित समुदाय के प्रतिरोध एवं परिवर्तन की कथा है। इसमें एक तरफ कई-कई हजार वर्षों के दुःख, अभाव और अत्याचार का सनातन यथार्थ है तो दूसरी तरफ दलितों के स्वप्न, संघर्ष और मुक्ति चेतना की नई वास्तविकता। तर्पण में न तो दलित जीवन के चित्रण में भोगे गये यथार्थ की अतिशय भावुकता और अहंकार है, न ही अनुभव का अभाव। उत्कृष्ट रचनाशीलता के समस्त जरूरी उपकरणों से सम्पन्न तर्पण दलित यथार्थ को अचूक दृष्टिसम्पन्नता के साथ अभिव्यक्त करता है। गाँव में ब्राह्मण युवक चन्दर युवती रजपत्ती से बलात्कार की कोशिश करता है। रजपत्ती के साथ की अन्य स्त्रियों के विरोध के कारण वह सफल नहीं हो पाता। उसे भागना पड़ता है। लेकिन दलित, बलात्कार किये जाने की रिपोर्ट लिखते हैं। ‘झूठी रिपोर्ट’ के इस अर्द्धसत्य के जरिए शिवमूर्ति हिन्दू समाज की वर्णाश्रम व्यवस्था के घोर विखंडन का महासत्य प्रकट करते हैं। इस पृष्ठभूमि पर इतनी बेधकता, दक्षता और ईमान के साथ अन्य कोई रचना दुर्लभ है। समकालीन कथा साहित्य में शिवमूर्ति ग्रामीण वास्तविकता के सर्वाधिक समर्थ और विश्वनीय लेखकों में है। तर्पण इनकी क्षमताओं का शिखर है। रजपत्ती, भाईजी, मालकिन, धरमू पंडित जैसे अनेक चरित्रों के साथ अवध का एक गाँव अपनी पूरी सामाजिक, भौगोलिक संरचना के साथ यहाँ उपस्थित है। गाँव के लोग-बाग, प्रकृति, रीति-रिवाज, बोली-बानी-सब कुछ-शिवमूर्ति के जादू से जीवित-जाग्रत हो उठे हैं। इसे इस तरह भी कह सकते हैं कि उत्तर भारत का गँवई अवध यहाँ धड़क रहा है। संक्षेप में कहें तो तर्पण ऐसी औपन्यासिक कृति है जिसमें मनु की सामाजिक व्यवस्था का अमोघ संधान किया गया है। एक भारी उथल-पुथल से भरा यह उपन्यास भारतीय समय और राजनीति में दलितों की नई करवट का सचेत, समर्थ और सफल आख्यान है।

उपन्यास / तर्पण

(आंशिक)
दो बड़े बड़े गन्ने कन्धे पर रखे और कोंछ में पाँच किलो धान की मजदूरी सँभाले चलती हुई रजपत्ती का पैर इलाके के नम्बरी मेंड़कटा’ नत्थूसिंह की मेंड़ पर दो बार फिसला। कोंछ के उभार और वजन के चलते गर्भवती स्त्री की नकल करते हुए वह दो बार मुस्कराई।
आज की मजदूरी के अलावा चौधराइन ने उसे दो बड़े गन्ने घेलवा में पकड़ा दिए। जब से इलाके में मजदूरी बढ़ाने का आन्दोलन हुआ, खेतिहर मजदूरों को किसान खुश रखना चाहते हैं। पता नहीं किस बात पर नाराज होकर कब काम का ‘बाईकाट’ कर दें।

इस गाँव के ठाकुरों-बाभनों को अब मनमाफिक मजदूर कम मिलते हैं। पन्द्रह-सोलह घरों की चमरौटी में दो तीन घर ही इनकी मजदूरी करते हैं। बाकी औरतें ज्यादातर आसपास के गाँवों में मध्यवर्ती जाति के किसानों के खेत में काम करना पसन्द करती हैं और पुरुष शहर जाकर दिहाड़ी करना। चौधराइन औरतों को खुश रखना जानती हैं। कभी गन्ना, आलू या शकरकंद का ‘घेलवा’ देकर, कभी अपने टी. वी. में ‘महाभारत’ या ‘जै हनुमान’ दिखाकर।

लेकिन धरमू पंडित के गन्ने की बात ही और है। लाल छालवाला। मोटाई में भी दुगना। बड़े-बड़े रस भरे पोरोंवाला। नाखून से भी खुरच दो तो रस की बूँदें चू पड़ें। फैजाबाद के सरकारी फारम से बीज मँगाकर बोया है धरमू ने। परभुआ कहता, ‘‘बुलबुल गन्ना। गल्ला बनाने के लिए छिलके का सिरा दाँत से खींचो तो पेड़ी तक छिलता चला जाता है।’’

रजपतिया ने मेंड़ के बगल में लहराते सरसराते धरमू पंडित के गन्ने पर हसरत की नजर डाली। उसके मन में कई दिन से पाप बसा है-धरमू पंडित के गन्ने की चोरी करने का। गन्ना तो असली यही होता है। हरी छालवाली तो ‘ऊख’ है। आज ही उसका यह पाप फलित हो सकता था, अगर थोड़ा-सा अँधेरा हो गया होता।
सूरज भगवान लाली फेंककर डूबने जा रहे हैं।
एक तरफ बुलबुल गन्ने की सरसराती झूमती फसल। दूसरी तरफ पीली-पीली फूली लाही (अगैती सरसों) का विस्तार। बीच के खेत में बित्ते-बित्ते भर के सिर हिलाते मटर के पोल्ले। इन कोमल पोल्लों के स्वाद की बराबरी भला कोई और साग कर सकता है ? चाहे चने का ही क्यों न हो। ऐसी ही अचानक लगनेवाली ‘गौं’ के लिए वह नमक और हरी मिर्च आँचल के खूँट में बाँध कर चलती है।

नरम पोल्ले सिर हिलाकर खोंटने का न्यौता दे रहे हैं।
लाही के खेत में घुटने मोड़े सिर छिपाए देर से इन्तजार करता धरमू पंडित का बेटा चन्दर रह रहकर ऊँट की तरह गर्दन उठाकर देखता है। दूर खेतों की मेंड़ पर चली आ रही है रजपतिया। अब पहुँची उसके खेतों की मेंड़ पर अभी अगर वह उसके खेत से ‘कड़कड़ा’ कर दो गन्ने तोड़ ले तो रँगे हाथ पकड़ने का कितना बढ़िया ‘चानस’ हाथ लग जाए। फिर ना-नुकुर करने की हिम्मत नहीं पड़ सकती। पर आज तो यह पहले से ही दो गन्ने कन्धे पर लादे हुए है।

अगर थोड़ा-सा अँधेरा उतर आया होता...।
इस साल धान की लगवाही से ही पीछा करता आ रहा है रजपतिया का। पिछले साल का पीछा करना बेकार गया था। अगले साल तक अपनी ससुराल चली जाएगी। कितनी जल्दी रहती है इन लोगों को अपनी बेटियाँ ससुराल भेजने की। साल दो साल भी गाँव में ‘खेलने-खाने’ के लिए नहीं छोड़ते।
रजपतिया ने आस-पास देखा। कहीं कोई नहीं। सूरज भगवान डूब गए हैं।
वह मटर के खेत में उतरकर झुकी और ‘हबर-हबर’ नोचने लगी। बस पाँच मिनट का मौका चाहिए।

पहला कौर भी मुँह में नहीं गया था कि अधीर चन्दर अचानक जमदूत की तरह ‘परगट’ हुआ। देखकर खून सूख गया। गाँव के बबुआनों के लड़कों की मंशा तो वह बारह-तेरह साल की उमर से ही भाँपती आई है। और यह चन्दरवा। इसका चरित्तर तो अब तक दो तीन बच्चों की माँ बन चुकी गाँव की लड़कियाँ तक से बखानती आ रही हैं जब वह इन बातों का मतलब भी ठीक से समझने लायक नहीं हुई थी। कसकर दुरदुराना पड़ेगा।
चन्दर की आँखों में शैतान उतर आया है। वह शैतानी हँसी हँसता है-‘‘आज आई है पकड़ में। तभी मैं कहूँ कि कौन रोज मेरी मटर का सत्यानाश कर रहा है। घंटे भर से अगोर रहा हूँ।’’
‘‘अभी तो मैंने ठीक से खेत में पैर भी नहीं रखा। एक कौर भी मुँह से गया हो तो कहो। उसने मुँह फैला दिया-‘‘आँ ! देखो ।’’ उसकी धुकधुकी तेज होती जा रही थी।
‘‘और यह जो गठरी बाँध रखी है कोंछ में, सो।’’
‘‘यह तो मजूरी है।’’

‘‘मजूरी कि पोल्ले ? जरा देखूँ तो।’’ वह आगे बढ़ा।
‘‘खबरदार।’’ वह पिछड़ते हुए गुर्रायी, ‘‘दूर ही रहना। मैं खुद दिखाती हूँ।’’
खबरदार ? खबरदार बोलना कब सीख गईं इन ‘नान्हों’ की छोकरियाँ ? इतनी हिम्मत।
और रजपतिया का कोंछ खुलने से पहले चन्दर का हाथ बदमाशी के लिए चल गया। इस चले हुए हाथ को बीच में ही झटक कर वह गरजी-‘‘हरामजादे।’’ और पीछे हटने लगी।
झटके हुए हाथ की अँगूठी की नोक आँचल से अरझी तो आँचल फट गया। धान खेत में गिरने लगा। वह आँचल सँभालती इसके पहले ही चन्दर ने लपककर उसे कन्धों से पकड़ा और पैर में लंगी मार दिया। वह सँभल न पाई। गिर गई और ऊपर झुक आए चन्दर के बाल पकड़कर खींचती हुई चिल्लाई-‘‘अरे माई रे। गोहार लागा। धरमुआ कै पुतवा उधिरान बा रे।’’
‘‘का भवा रे ? कौन है रे ?’’ लाही के खेत के उस पार की मेंड़ पर घास छीलती परेमा की माई चिल्लाते हुए दौड़ी-‘‘आई गए। जाई न पावै। पहुँचि गए।’’

सुनकर रजपतिया को बल मिल गया। छुड़ाने की कोशिश कर रहे चन्दर के बालों को उसने और कसकर पकड़ लिया।
‘‘कौन हे रे, का भवा ?’’ परेमा की माँ पास आ गई। उसने चन्दर के बाल छोड़ दिए। वह उठकर खड़ा हुआ तो रजपतिया भी उठी। कपड़े ठीक करते हुए वह बताने लगी-‘‘इहैं मेहरंडा धरमुआ कै पुतवा। कैलासिया (चन्दर की बहन) कै भतरा। अन्नासै मारै लाग।’’
‘‘क्या कहा ? धरमुआ ? बहिन की गाली भी। नुकसान भी करेगी, चोरी भी करेगी और ऐसी बेपर्दगी वाली गाली भी। जबान में लगाम नहीं। साली चमाइन।’’
उसने नीचे पड़े गन्ने की अगोढ़ी तोड़कर गद्द-गद्द दो तीन अगोढ़ी रजपतिया की पीठ पर जमा दिया।

रजपतिया चिल्लाई। परेमा की माई ने लपककर रजपतिया को अपनी आड़ में लिया और सरापने लगी-‘‘अरे तुम लोगों की आँख का पानी एकदमै मर गया है ? आँख में ‘फूली’ पड़ गई है ? बिटिया-बहिन की पहचान नहीं रह गई है तो कैलसिया को काहे नहीं पकड़ लेता घरवै में। भतार के घर से गदही होकर लौटी है। पाँच साल से किसी के फुलाए नहीं फूल रही है।’’
‘खबरदार ! जो आगे फिर ‘जद्दबद्द’ निकाला। पहले अपनी करतूत नहीं देखती। बिगहा भर मटर हफ्ते भर से बूँची कर डाला। फारमी गन्ना एकदम ‘खंखड़’ हो गया। उस पर झूठ-मूठ हल्ला मचाती हो।’’

सिवार में चारों तरफ से का भवा ? का भवा ? की आवाजें पास आती जा रही हैं। मिस्त्री बहू हाथ में खुरपा लिये दौड़ती हुई सबसे आगे पहुँची और चन्दर को देखकर बिना बताये सारा माजरा समझ गई। ललकारने लगी-‘‘पकड़-पकड़ ! भगाने न पावै। ‘पोतवा’ पकड़ि के ऐंठ दे। हमेशा-हमेशा का ‘गरह’ कट जाय।’’
तीनों लपकीं तो लड़का डर गया। पकड़ में आ गया तो बच नहीं पाएगा। खुरपा...! वह पीछे हटा। फिर मुड़कर भाग खड़ा हुआ।
रजपतिया ने बताया, ‘‘जाने कहाँ से निकला और बोलब न चालब, सोझै मारै लाग। कहा हमार गन्ना तोरी हो। हमार मटर नोची हो। तलासी लेब। जब कि ई गन्ना चौधरी के घर से मिला है। देखने से ही पता चल जाता है कि इसके खेत का नहीं है।’’

‘‘ई हैजा काटा बौराई गवा है। जवान जहान बहिन-बिटिया को आड़-ओड़ में पाकर तलासी लेगा ? हाथ पकड़ेगा ? इसकी तरवार बहक गई है। इसको किसी की लाज-लिहाज नहीं है। डर, भय नहीं है। सारा गाँव इसकी करनी से गंधा रहा है और कोई इसे रोकने-छेंकनेवाला नहीं है।’’ मिस्त्री बहू गरज-गरियाकर बात को पूरे गाँव में फैला देना चाहती है। पाँच साल पहले उसकी ननद के साथ घटी घटना इसी रजपतिया की माई के चलते गाँव भर में फैली थी। अब उसे मौका मिला है तो वह क्यों दबने दे बात को ?
खेत में गिरा आधा-तीहा धान बटोरकर सब के साथ चली रजपतिया। इतना ‘कौवारोर’ सुनकर वह आतंकित हो गई है। मिस्त्री बहू बताती जा रही है-‘‘इहै चन्दरवा। अकेली लड़की देखकर गिरा दिया। वह तो कहो हम पहुँच गए। खुरपा लपलपा के धमकाया-छोड़ दे, नहीं काट लेंगे, तब भागा।’’

दुआर पर जुट आई भीड़ को हटाकर रजपतिया की माँ बेटी को अन्दर करके दरवाजा बन्द कर लेती है। अभी रजपतिया का बाप नहीं लौटा शहर से दिहाड़ी कमाकर। इस बीच वह जान लेना चाहती है कि असली मामला क्या है ?
‘‘सच-सच बताना। झूठ एक रत्ती नहीं।’’ पियार को गाँव में घुसते ही खबर मिलती है। सुनकर सन्न रह जाता है। जैसे पूरे शरीर का खून सूख गया हो। उसे तुरन्त अपनी बड़ी बेटी सूरसती की याद आती है। दस साल हो गए उसे कुएँ में कूदकर जान दिये हुए। आज तक पता नहीं चल पाया कि किसने उसका सत्यानाश किया था। और आज फिर...।’
बाहर अँधेरा है। साइकिल खड़ी करके वह अन्दर जाता है। रजपतिया धान कूट रही है। वह हवा में कुछ सूँघने की कोशिश करता है। फिर सीधे रजपतिया के सामने जाकर खड़ा हो जाता है। उसे आया जानकर रजपतिया की माँ भी आ जाती है।
‘‘क्या हुआ रे ? सही सही बोल।’’

‘‘उहै चन्दरवा। अन्नासै ढकेल दिहिस। मारे लाग।’’
‘‘ढकेल दिया ? मारने लगा ?’’ बबुआनों, सवर्णों के लड़कों द्वारा नान्हों, दलितों की जवान बहू-बेटियों का रास्ता साँझ के झुटपुटे में, निर्जन खेत-बाग में रोक लेने, ढकेल देने का क्या मतलब होता है, यह उसे खूब मालूम है। इससे अधिक न कोई बाप पूछ सकता है, न कोई बेटी बता सकती है। लगा उसके तन-बदन में धीरे धीरे अंगार भर रहा है। अधेड़ देह उत्तेजना से काँपने लगी है। अभी मिल जाए साला तो बोटी-बोटी कर डाले। फिर चाहे फाँसी लगे, चाहे दामुल।

वह बाहर की ओर लपकता है। रजपतिया की माँ पीछे से आवाज देती है-‘‘जरा सुनिए। पहले कान नहीं टोइएगा। कऊआ ही खदेड़िएगा। मैं कहती हूँ पूरी बात सुनकर जाइए।’’
‘‘क्या है पूरी बात ? क्या बाकी है सुनने को ?’’
‘‘अकेली नहीं थी बिटिया। परेमा की माँ थी। मिस्त्री बहू थी। उसने धक्का दिया लेकिन इसने भी तो उसका मुँह नोच लिया। बाल उखाड़ लिया। तीनों ने मिलकर खदेड़ा तो भागते भागा। जो तुम सोच रहे हो वैसी कोई बात नहीं हुई। फिर गलती तो इसी की है। जब हम लोग उनकी मजूरी का ‘बाईकाट’ किए हैं तो इसे उसके खेत में साग नोचने की क्या जरूरत थी ?’’
‘‘तो क्यों घुसी यह उसके खेत में ? किसने भेजा ? हरामजादी तेरी ही जीभ कब्जे में नहीं रहती। बहुत चटोरी हो गई है। क्यों भेजा लड़की को ?’’

पियारे उसका बाल पकड़ कर धमाधम चार-पाँच घूँसे पीठ पर लगाता है। पत्नी चिल्लाने लगती है-एकदम्मै सनक गया है ई आदमी तो। कहाँ का गुस्सा कहाँ उतार रहा है। अगर लड़की ने एक कौर साग नोच ही लिया तो क्या वह कसाई जान ले लेगा ? जवान जहान लड़की पर हाथ उठा देगा ?
ठीक बात। अभी चलकर वह धरमू पंडित से पूछता है लाठी लेकर दनदनाता हुआ वह धरमू के घर की ओर लपकता है। दालान से चारा मशीन चलने की आवाज आ रही है। पियारे झाँककर देखता है। ढिबरी भभक रही है। उनका नेपाली नौकर मशीन चला रहा है। नैपालिन चरी लगा रही है।
कम मजदूरी देने के चलते गाँव के चमारों द्वारा-पाँच साल पहले हलवाही बन्द करने के बाद धरमू कहीं से यह नेपाली जो़ड़ा खोज कर लाए हैं। बस इसे हल जोतना नहीं आता।
तभी धरमू हाथ में लालटेन लिये घर से बाहर निकलते हैं। पियारे दनदनाता हुआ उनके सामने पहुँचता है, ‘‘महाराज, आप ही के पास आए हैं। बता दीजिए कि इस गाँव में रहें कि निकल जाएँ ? आप लोगों की नजर में गरीब-गुरबा की कोई इज्जत नहीं है ?’’

धरमू को पियारे का पैलगी प्रणाम न करना बहुत अखरा लेकिन जाहिर नहीं होने दिया। अब तो यह आम रिवाज होता जा रहा है। वे शांत स्वर में बोलते हैं, ‘‘कुछ बताओगे भी, बात क्या है ? तुम तो लगता है फौजदारी करने आए हो।’’
‘‘बात ही ऐसी है महाराज ! जानकर अनजान मत बनिए। आपके चन्दर महाराज ने मेरी बेटी को अकेली पाकर सिवार में पकड़ लिया। बेइज्जत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सारे गाँव में हल्ला है।’’
‘‘देखो, हल्ला की मत कहो। इस गाँव में उड़ने को पइया तो लोग सूप उड़ा देते हैं। लेकिन सुना मैंने भी है कि किसी को उन्होंने साग नोचते या गन्ना तोड़ते पकड़ा है। अभी घर नहीं लौटे। लौटते हैं तो पूछता हूँ। लौण्डे-लपाड़े हैं। गलती किए हैं तो मैं समझा दूँगा।’’

‘‘लौण्डे-लपाड़े ? तीस के ऊपर पहुँच गए हैं। बियाह हुआ होता तो पाँच बच्चों के बाप होते।’’
‘‘ठीक है, लेकिन तुम भी तो सयानी बेटी के बाप हो पियारे। तुम्हें भी आँख, कान खोलकर रखना चाहिए। लौंडिया जवान हो गई तो बिदाई करके कंटक साफ करो। घर में बैठाने का क्या मतलब ?’’
पंडिताइन पता नहीं कब आकर पंडित के पीछे खड़ी हो गई थीं। सामने आते हुए बोलीं, ‘‘जवान बेटी को बिदा कर देगा तो उसकी कमाई कैसे खाएगा ? उतान होकर गली-गली अठिलाती घूमती है। गाँव भर के लड़कों को बरबाद कर रही है। वह तुमको नजर नहीं आता ? जहाँ गुड़ रहेगा वहाँ चिउँटा जाबै करेंगे। एक बार चमाइन का राज क्या आया, सारे चमार, पासी खोपड़ी पर मूतने लगे। इतनी हिम्मत कि लाठी लेकर घर पर ओरहन देने चढ़ आए।’’

‘‘तै चल अन्दर। हम कहते हैं चल।’’ धरमू पत्नी पर बिफरे।
पियारे भी गरम हो गया, ‘‘किसी गुमान में मत भूलिए। पंडिताइन। अब हम ऊ चमार नहीं हैं कि कान, पूँछ दबाकर सब सह, सुन लेंगे। चिउँटे को गुड़ का मजा लेना महँगा कर देंगे।’’
धरमू पियारे को बुलाकर आगे ले गए और तसल्ली देने लगे, ‘‘छोटा हो चाहे बड़ा। इज्जत सबकी बराबर है। इस कुल-कलंकी को आने दो आज। बिना दस लात लगाये घर में घुसने नहीं दूँगा। फिर आवाज दबाकर बोले-‘‘अब इस बात को बढ़ाने में कोई रस नहीं निकलेगा पियारे। समझदारी से काम लो।’’

थोड़ी देर तक दुविधा में खड़ा रहने के बाद पियारे लौट पड़ा। धरमू ने पंडिताइन को अन्दर ठेलते हुए हड़काया-‘‘पैदा किया है ऐसा कुल कलंकी और आग में पानी के बजाय खर डालना सीख कर आई हो बाप के घर से। अभी सारी चमरौटी आकर घेरेगी तो दाँत चियार दोगी।’’
‘‘कुल कलंकी हुआ है तुम्हारे लच्छन लेकर। जैसे बाप अभी तक दुआर-दुआर छुछुआते घूमता है वही तो बेटा भी सीखेगा।’’
‘‘चल अन्दर।’’ धरमू दहाड़े, ‘‘ज्यादा गचर-गचर किया तो अभी मारे जूतन के...कूकूरि...।’’
आधी रात तक आने के बाद पियारे को लगता है कि पंडित ने मीठी बातों से उसे उल्लू बना दिया। बिना कुछ किये घर लौटा आ रहा है। लगता है वह कुछ हारकर, कुछ गँवाकर लौट रहा है।
लेकिन क्या करे ? क्या कर सकता है ?
शहरों की वह नहीं जानता लेकिन गाँव में जवान बेटी का बाप होना, वह भी छोटी मेहनतकश जाति वालों के लिए महा मुश्किल। कितना धीरज, कितनी समवायी चाहिए, यह वह आदमी बिल्कुल नहीं समझ सकता जो किसी बेटी का बाप नहीं है।

वह चाहता था कि इस समय उसे किसी से मिलना न पड़े। किसी को कुछ बताना न पड़े। बिना खाए-पिए मुँह ढँककर मड़हे में सो जाना चाहता था। लेकिन दरवाजे पर तो पूरी चमरौटी इकट्ठी है। ढिबरी की मद्धिम रोशनी में उनकी परछाइयाँ हिलडुल रही हैं।

उसकी अनुपस्थिति में ही सब एकमत हो गए हैं कि थाने में रिपोर्ट लिखानी जरूरी है। मिस्त्री की बहन के साथ हुई घटना के चार-पाँच साल बाद फिर ऐसी वारदात हुई है। आसपास के चार-छह गाँव की बिरादरी में इस गाँव की बड़ी इज्जत है। भले ही मजदूरी बढ़ाने का झगड़ा दूसरे गाँव में शुरू हुआ लेकिन उसे सबसे पहले लागू करने को मजबूर किया था हमी लोगों ने। तब से कहीं कोई टेढ़ा मामला फँसता है तो बिरादरी के लोग यहीं सलाह-मशविरा लेने के लिए आते हैं।..एक दो रोज में बात चारों तरफ फैलेगी। एक आदमी की नहीं, पूरी जाति की बदनामी और बेइज्जती का मामला है।

पियारे बारी-बारी सबका मुँह देखता है। थाना, पुलिस में बात ले जाने का मतलब है दस गारी और सौ दो सौ का खर्चा। दस दिन का अकाज ऊपर से। नतीजा कुछ नहीं।
वह लोगों को समझाने की कोशिश करता है-लेकिन थाने पर लिखाएँगे क्या ? उसने धक्का दिया। और बदले में तीनों औरतों ने गरियाते हुए खदेड़ दिया। वह जान लेकर भागते भागा। इसमें लिखाने के लिए क्या है ?
लेकिन नौजवान तबका कुछ सुनने को तैयार नहीं।
-हम कहते हैं अगर दोनों औरतें न पहुँचतीं तब क्या होता ? क्या बचा था होने के लिए ?
-क्या हमें चेतने के लिए सब कुछ हो जाना जरूरी है ?
पियारे मानता है कि लड़के गलत नहीं कह रहे हैं। आज से नहीं होश सँभालवने के बाद से ही वह देख रहा है कि बड़ी जातियों के लोग उनकी इज्जत पर हाथ डालने में रत्ती भर भी संकोच नहीं करते। बल्कि इसे उनके मान-सम्मान पर चोट करने के लिए हथियार के रूप में इस्तेमाल करते हैं। ज्यादातर मामलों में उनके घर के मुखिया को भी इसमें कुछ नाजायज नहीं दिखाई पड़ता। आज ही किस तरह मालकिन उल्टे उसकी बेटी पर तोहमत लगाने लगीं।

वह खुद भी जाति-बिरादरी के मामलों में हमेशा आगे-आगे चलता रहा है क्या बोले ?
‘‘जैसी सबकी मर्जी। वैसे मैं तो खुद ही धरमू को दस बात सुना आया। लड़का मिल गया होता तो बिना मुँड़ फोड़े न लौटता। पंडित चिरौरी करने लगा कि लड़का है। गलती कर बैठा। अगला जब अपनी गलती मान रहा है...’’
‘‘गलती मान रहा है तो भरी पंचायत में माफी माँगे।’’
‘‘कहाँ रहते हो ? वह बाभन होकर तुम्हारी पंचायत में माफी माँगने आवेगा।’’ मिस्त्री का बी.ए. में पढ़नेवाला लड़का विक्रम कहता है, ‘‘दो दिन की मोहलत पा गया तो आपस में ही लड़ा देगा। फिर करते रहिए पंचायत। कसम तो खाई थी सबने पंचायत में कि इस गाँव के किसी ठाकुर, बाभन की हलवाही नहीं करेंगे। फिर कैसे धरमू ने फोड़ लिया बग्गड़ को। दो जने ठाकुरों की हलवाही करने लगे। बिना थाना पुलिस किए, ये ठीक नहीं हो सकते।’’




Monday, September 28, 2009

'न रुका, न चुका हूँ' / संजीव

कहानीकार संजीव से बातचीत

संजीव हमारे दौर के उन कथाकारों में से हैं जिन्होंने यथार्थ को 'जादू-टोने' से नहीं सामने से मुठभेड़ करते हुए पकड़ने की सपफल कोशिश की है। सामाजिक यथार्थ को साधने वाले गाँव-कस्बे के कहानीकारों में प्रेमचंद की परंपरा को वे आगे बढ़ाते हैं। नक्सली भूमि से संब( कहानी 'अपराध' से उन्हें पहचान मिलती है। मरते संबंधों की समरभूमि में खुद्दारी को जीने की खुराक समझने वालों की कहानी 'आरोहण' ने उन्हें पर्वत की ऊँचाइयाँ दीं। 'सागर सीमांत', 'मानपत्रा', 'डेढ़ सौ सालों की तन्हाई' ने व्यापकता
अपने उपन्यासों पर शोधपरक श्रम करने वाले संजीव कहानियों से जुड़े तथ्य जुटाने के लिए भी कम मेहनत नहीं करते। अपनी कथा रचना पर इतना परिश्रम और शोध कर्म करने वाले वे हिन्दी के विरल रचनाकार हैं। यह परंपरा आगे बढ़ती नहीं दिखती। ऐसा बहुत कम होता है कि लेखक का लेखन वही हो जो उसका जीवन है। संजीव इसके अपवाद हैं। यह अतिशयोक्ति नहीं है कि इनके पास एक दर्जन से ज्यादा कालजयी कहानियाँ हैं। बावजूद इसके हिन्दी के शीर्ष आलोचकों के प्रिय लेखकों की सूची में इनका नाम नहीं है। इनके दौर के दूसरे महत्वपूर्ण लेखक और उनकी मंडली इन्हें इसलिए भी महत्व नहीं देती, क्योंकि वे महत्वहीन हो जाएँगे। 'पाखी' से बातचीत में संजीव ने कुछ भी छिपाने या खुद को बचाने की कोशिश नहीं की। जो भी कहा खुलकर कहा, दिल से कहा


अपूर्व जोशी : सुल्तानपुर, उ.प्र. के गाँव बाँगरकला में आप का जन्म हुआ। वहाँ से जुड़ी कुछ बचपन की बातें, कुछ स्मृतियाँ साझा करें?

संजीव जी : राजेन्द्र यादव जी की टिप्पणी या व्यंग्य से बात शुरू करें तो मेरा जन्म लगता है कई जगहों पर हुआ है। लेकिन बचपन की स्मृतियों के संबंध् में जहाँ सुल्तानपुर, मेरा जन्म हुआ, उसका अपना एक विशेष प्रकार का आकर्षण रहा है। इसे आप नॉस्टेल्जिया कहिए या कुछ और। बचपन में जब लोग मुझे गोद में खिलाते थे, सियार या नील गाय दिखाते, बहलाते थे तो मुझे उस समय तक की स्मृतियाँ हैं। सुल्तानपुर में माँ रहती थी इसलिए मेरे लिए यह आकर्षणीय है। मैं पं. बंगाल में पढ़ता था तब भी वहीं से जुड़ा था। मैं जुदा हो ही नहीं सकता। मुझे कभी-कभी पं. बंगाल से भी अधिक सुल्तानपुर अपील करता है हालाँकि उसने मुझे ऐसा कुछ दिया नहीं सिवाय जन्म, माँ, पत्नी, रिश्तों और मित्राों को छोड़कर।

अपूर्व जोशी : सर्कस की भूमिका में आपने एक मित्रा सूरज का जिक्र किया है लेकिन बहुत स्पष्ट नहीं किया है। आपने लिखा है कि सूरज से ही प्रेरणा मिली साहित्यकार बनने की।

संजीव : सूर्य नारायण शर्मा नाम है उनका। हम दोनों में बचपन से ही दुनिया बदल डालने की प्रवृत्ति रही। हम दोनों बचपन में अच्छे-अच्छे कागज लाकर प्रधानमंत्राी जवाहरलाल नेहरू को पत्रा लिखते थे कि यहाँ ये हो रहा है, वहाँ वो हो रहा है। हमारे पास बहुत कम पैसे होते थे। किसी भी तरह उस चिट्ठी को हम भेजते थे कि शायद कुछ बदल जाएगा। लेकिन कभी उनका जवाब नहीं आया। सूर्य नारायण शर्मा ने बाद में नक्सलबाड़ी मूवमेंट की ओर रुखकर लिया और मैं बहुत बाद में इसमें आया उस मूवमेंट के सिम्पेथाइजर के रूप में।

अपूर्व जोशी : आपने लिखा है सूरज नक्सलबाड़ी आंदोलन में शहीद हो गये।

संजीव : उसके बाद शहीद हुए, उसमें नहीं। भगतसिंह के जन्म दिन पर वे अकेले रिक्शा पर माइक लेकर शहर में द्घूमते थे। वह समर्पित थे। उनमें एक चिन्गारी थी कि क्या करें। ऐसे बहुत सारे मित्रा हैं जिन्होंने मुझे बहुत कुछ दिया। सूर्य नारायण शर्मा का तो आपने नाम सुन रखा है। बाकियों का नहीं।

अपूर्व जोशी : ओझा जी का जिक्र किया है आपने।

संजीव : उनका देहान्त डेढ़ साल पहले हो गया। नरेन्द्र नाथ ओझा एक तरह से मेरे गुरु थे। बचपन में उन्होंने बहुत सारी चीजें मुझे सिखाईं। उस समय बहुत पुराने-पुराने ढंग की तुकांत कविताएँ हुआ करती थीं। लेकिन उनसे जो तृप्ति मिलती थी, जो अस्वाद था, वह भयंकर था। उस समय 'सरस्वती' पत्रिाका चलती थी। कुछ और पत्रिाकाएँ भी चल रही थीं। निराला की अंतिम दिनों की कविताएँ आई थीं। एक तरह से नरेन्द्र नाथ ओझा मुझे शुरूआती दौर में अलिपफ-बे सिखाने वाले थे। लेकिन हर चीज की एक सीमा होती है। ओझा जी 'सूत्राधार' पढ़कर बहुत गुस्से में थे। बोले-यह तुमने क्या नाश कर दिया है। यह संयोग है कि उनके एक पुत्रा रामचन्द्र ओझा, होमगार्ड में बड़े अपफसर हैं। इस समय झारखंड में हैं, मेरी बहुत सारी कहानियों के नायक के मॉडल हैं। शिवमूर्तिजी की तरह इन पिता-पुत्रा का मेरे जीवन में बहुत योगदान है। 'अपराध' कहानी नरेन्द्र नाथ ओझा को मैं सुनाने गया, चार बार वे सोये। रात के ११ः३० बजे जब मैं जाने लगा तो मैंने पूछा कि कहानी पर आपकी प्रतिक्रिया क्या है? तो बोले-कि और कुछ द्घास-भूसा नहीं था जो उसमें भर देते। मैंने उन्हें प्रणाम किया और चला आया। बाद में जब 'अपराध' को सारिका की कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार मिला तब उन्होंने उसे पिफर से पढ़ा। तब वह मुझसे बोले कि हम सो गये थे क्या जी उस दिन? तो यह वो आत्मीयता है जो मुझे वहाँ मिली। ओझा जी, देवनाथ सिंह, मनोज कुमार शुक्ल, दिनेश लाल, मिलिन्द कश्यप, सूर्य नारायण शर्मा, सृंजय, भोलानाथ सिंह, नरेन, शिव कुमार यादव, गौतम सान्याल बहुत सारे मित्रा थे। जो आत्मीयता मुझे इन सभी से मिली वह मुझे यहाँ ;दिल्ली मेंद्ध नहीं मिलती। मेरे कुछ मित्रा बिल्कुल मुझे डाँट देते हैं। रविशंकर सिंह ने 'आकाश चम्पा' को देखने के बाद कहा कि इसे कौन पढ़ेगा? मैंने कहा-आप। उन्होंने कहा-'मैं क्यों पढूँ, मुझे कुत्ते ने काटा है? इसमें क्या है जो मैं पढूँ।' इसके बाद मुझे अपनी धारणा बदलनी पड़ी और इस उपन्यास को मैंने पिफर नए सिरे से लिखा।

प्रेम भारद्वाज : पिफर दुबारा लिखा?

संजीव : हाँ लगभग दुबारा लिखा। यह मित्राों का अवदान है। छोटी जगहों की सौगात।

अपूर्व जोशी : यहाँ एक निश्छल आत्मीयता का भाव है।

संजीव : बहुत सारी कहानियाँ हमारे द्घर से निकलीं। वह ऐसे कि सभी मित्रा मेरे द्घर पर बैठते। जो भी साधारण खाना खिचड़ी, दाल-चावल, आलू-चोखा बनता वह सभी खाते और कहानी, कविता, उपन्यास अंश का पाठ करते। सभी निर्द्व्रन्द्व होकर अपनी राय देते थे, जो यहाँ संभव नहीं है। उन दिनाें सभी हमारे द्घर पर आते थे। उनमें क्रांतिकारी भी थे। आश्चर्य नहीं कि उनमें से कोई अमिताभ बच्चन को चिकोटी काटकर या कोई और ही कारनामा करके आ गया है तो वह भी हमारे द्घर में आता था। बाबा नागार्जुन, अरुण प्रकाश, नरेन, बी. के. शर्मा, मनमोहन पाठक, नारायण सिंह, समीर, रविभूषण सभी आते थे।

प्रेम भारद्वाज : किस चीज ने आपको लेखक या कहानीकार बनने के लिए प्रेरित किया। वह क्या सोच, रचना या जज्बा था जिसके चलते आपने लेखक बनने का पफैसला किया?

संजीव : आदमी ऐसा कुछ सोचकर तो आता नहीं है। जहाँ तक मेरा सवाल है तो मुझे कुछ खास परिस्थितियों में यहाँ आना पड़ा। एक बार अंताक्षरी के लिए तुकांत कविताएँ चाहिए थीं, उस समय मैं पाँचवीं क्लास में था। मैंने तुकबंदी कर कविताएँ लिखीं और इसका चैम्पियन भी बना। तो तुकांत कविताओं के माध्यम से मेरा प्रवेश हुआ ड्रील पर कविता लिखने के बहाने भी...। पंतजी ने मुझे शब्दों की बाजीगरी सिखाई। मेरा उनके साथ पत्रााचार होता था। मैं बहुत छोटा और पंत जी बहुत बड़े थे। 'पद्म' के नाम से मैं कविताएँ लिखता था।

प्रेम भारद्वाज : माना भी जाता है कि हर लेखक की शुरूआत जो होती है वह कवित्व से होती है।

अपूर्व जोशी : आप कुल्टी ;प. बंगालद्ध कैसे पहुँचे? वहाँ जो समय बिताया, जो साहित्य सृजन किया उसे बताएं।
संजीव : कुल्टी मेरे काका ले गए थे। उन्हें लगा कि लड़का दो अक्षर पढ़ लेगा वहाँ। कहते थे कि गाँव में रहेगा तो गाय चराएगा, वहाँ जायेगा तो पढ़ लेगा। उस समय मैं तीन वर्ष का था। गाड़ी मैंने पहली बार देखी थी। उस समय मुझे पेट्रोल की गंध बहुत अच्छी लगी।

अपूर्व जोशी : अच्छा! तो आपने जो अभी मित्राों की बात की वह सुल्तानपुर के नहीं, कुल्टी के थे।
संजीव : हाँ! सुल्तानपुर के मित्रा अलग हैं। वे राम शिरोमणि पांडे, लालू सिंह थे जो गाय चराते थे। और भी बहुत से मित्रा थे सुल्तानपुर में। लेखन में तो अवदान कुल्टी के मित्राों का रहा जो पढ़ते-लिखते थे। मैं उन्हीं से सब शेयर करता था।

अपूर्व जोशी : जब आपातकाल लगा तब आप २८ वर्ष के रहे होंगे। क्या अनुभव रहे उस दौर के?

संजीव : उस समय मैं 'सारिका' पढ़ता था। 'सारिका' के पन्ने काले होते थे। ये 'एंटी गवर्नमेंट' प्रोटेस्ट करने का तरीका था। एक अजीब-सा आतंक भरा रहता था।

अपूर्व जोशी : उस दौर में सारिका का संपादन कौन कर रहे थे?

संजीव : कमलेश्वर। कमलेश्वर हमारे कथा-गुरु भी थे। 'समांतर लेखक संद्घ' चल रहा था। 'आँधी' में उन्होंने कुछ अप्रिय लिख दिया था तो मैडम ;इंदिरा गाँधीद्ध नाराज हो गयी थीं। इसके लिए उन्होंने बाद में क्षमा भी माँगी।

अपूर्व जोशी : 'आँधी' के लिए कमलेश्वर जी ने बाद में क्षमा माँगी?

संजीव : हाँ, पिफर बाद में सुना, कमलेश्वर जी ने इंदिरा गाँधी पर केंद्रित पिफल्म भी लिखी। इस तरह फ्रलक्चुएटिंग नेचर था उनका।

प्रेम भारद्वाज : आपका इस दौर का क्या अनुभव रहा?

संजीव : कोई भी नहीं। मैं तो उस समय शुरू कर रहा था।

प्रेम भारद्वाज : कुछ कहानी या उपन्यास छप गया था आपका?

संजीव : कहानी '३० साल का सपफरनामा' छपी थी। लेकिन कोई खास रिएक्शन नहीं हुआ था। रिएक्शन तो तब हुआ जब 'अपराध' छपी और पुलिस मेरे पीछे पड़ गयी थी। तब मित्राों ने जान बचाई। उन्होंने बताया कि मेरा नाम राम संजीवन प्रसाद है, संजीव नहीं है। संजीव नाम का हमारे ऑपिफस में कोई नहीं था इसलिए मैं पुलिस के पफंदे से बच गया।

प्रेम भारद्वाज : राम संजीवन प्रसाद से 'संजीव' नाम आपका रखा हुआ है या किसी और ने रखा?

संजीव : कमलेश्वर जी ने। उन्होंने कहा कि संजीवन क्या करोगे, संजीव ही रहने दो।

अपूर्व जोशी : हिन्दी के कई दिग्गज लेखक/संपादकों ने इंदिरा जी की निरंकुश सत्ता के समक्ष द्घुटने टेक दिए थे। धर्मवीर भारती, रद्घुवीर सहाय आदि सभी ने सेंसरशिप का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष समर्थन किया।

संजीव : वह दमन का दौर था जिसमें जान बचाने एवं नौकरी बचाने के लिए बहुतों ने मापफी मांगी। मैं यह समझता हूँ कि यह लेखक की भीरुता भी है, क्योंकि लेखक बहुत बोल्ड नहीं हो सकता। जो बहुत बोल्ड होते हैं वह क्रांतिकारी होते हैं और ऐसे लोग जलकर खत्म हो जाते हैं। लेखक, कलाकार, वैज्ञानिक नाम के जीव अक्सर, अगर कुछ अपवाद छोड़ दिए जाएँ तो मापफी मांग लेते हैं। जैसे-गैलिलियो ने चर्च के दबाव के आगे मापफी मांगी थी और अंत में वह द्घुट-द्घुटकर मरा था। गणितज्ञ आर्यभट्ट ने जब कहा कि पृथ्वी द्घूमती है तब उस समय जो राजा लोग थे उनके दबाव में ब्रह्मगुप्त ने कहा, नहीं ये गलत है। एक साइंटिस्ट को दूसरे साइंटिस्ट ने काटा। हमारे यहाँ उस समय तो साइंस चल रही थी बाद में तो चली ही नहीं। एक श्लोक है इस पर, मुझे अभी याद नहीं आ रहा, उसका अर्थ है कि 'अगर ऐसा होता तो उड़ती हुयी चील अपना द्घोंसला भूल जाती।' तो इस तरह आर्यभट्ट को चुप हो जाना पड़ा। इसी तरह लेखक को भी कभी-कभी चुप हो जाना पड़ता है।

अपूर्व जोशी : पर लेखक तो हमेशा लेखन के जरिए क्रांति की बात करता है?

संजीव : इसीलिए कहता हूँ लेखक को अपनी सीमा पता होनी चाहिए।

अपूर्व जोशी : विरोधाभास रहा है?

संजीव : अब जैसे लिखा जाता है कि 'जिस गेहूँ के दाने से इंसान का पेट न भरे उस गोहूँ या खेत को जला दो।' लेकिन क्या हम ऐसा वास्तव में कर सकते हैं? तो ये कुछ बातें हैं साहित्य की जो लक्षणा-व्यंजना में कही जाती हैं जो नया-नया आयाम रचती हैं। लेखक क्रांतिकारी बनता है कि नहीं, यह अलग बात है। हमने स्टीपफेन स्वाइग, रिल्के, रोम्या रोलां को पढ़ा था। हिटलर के जमाने के जो लेखक थे वे क्रांति की बातें लिखते थे, जब दमन का दौर आया तब सभी निर्वासन में चले गए या चुप करा दिए गए।

अपूर्व जोशी : तो आप क्या कहना चाह रहे हैं कि अगर अपवाद छोड़ दें तो लेखक क्रांतिकारी नहीं हो सकता?
प्रेम भारद्वाज : क्या भीरू होता है?

संजीव : ज्यादातर परिस्थितियों में लेखक कायर होता है।

अपूर्व जोशी : यह देखा गया है कि जहाँ भी दमन हुआ है वहाँ सबसे पहले बु(जिीवियों ने ही द्घुटने टेक दिए हैं।

संजीव : यह अलग बात है पर ऐसा नहीं है कि सारे के सारे ऐसे थे। लेकिन वे लिखना बंद कर देते हैं, क्षमा मांग लेते हैं। जहर खा लेते हैं या समझौता करके सत्ता-सुख भी स्वीकार लेते हैं।

प्रेम भारद्वाज : कई वरिष्ठ आलोचक मानते हैं कि आप ब्यौरों में, माहौल की डिटेल में बहुत गहरे चले जाते हैं जिससे रचना का प्रवाह प्रभावित होता है। हम आपकी रचना-प्रक्रिया के बारे में जानना चाहते हैं।

संजीव : रचना-प्रक्रिया को समझा पाना बहुत मुश्किल है। जैसे गर्भ में पल रहे बच्चे के बारे में एक माँ को कुछ चीजें पता होती हैं और कुछ नहीं भी पता होती हैं। बहुत सी द्घटनाएँ हमारे अवचेतन में रह जाती हैं। तो जब हम पिफल्म देखते हैं, बातचीत कर रहे होते हैं, पढ़ते हैं तब ये द्घटनाएँ हमें पुनः दिखाई देती हैं। तब इनका पुनर्जन्म होता है। इस पुनर्जन्म के बाद लेखक को लगता है कि यह मूल्यवान चीज है इसको शेयर करना चाहिए। कोई जरूरी नहीं है कि उसका कथानक, संवाद अदायगी, चरित्रा ये जो विभिन्न द्घटक हैं उसकी रचना के एक ही तरह से आये हैं। उनमें से कौन सी चीज ने कब अपील किया, कब उसका पुनर्जन्म हुआ, यह कहना मुश्किल होता है। उसके बाद उसकी शोधपरकता अलग-अलग होती है कि कौन कितना शोध कर सकता है।

कितना श्रम कर सकता है। आप में जिज्ञासा कितनी है। मैं चूंकि विज्ञान का विद्यार्थी हूँ इसलिए मैंने सीखा कि किसी चीज को अगर जानना है तो उसके अंतिम सिरे तक पहुँचो। शोध का अतिरेक और सच को जानने की इच्छा मुझे विज्ञान से मिली। जब किसी चीज को लिखो तब उसके विषय में जितनी दूर तक संभव हो जान लो ताकि लिखते समय लेखकीय आत्मविश्वास में कोई दिक्कत न हो। राजेन्द्र यादव ने पूछा था कि तुम्हें क्या-क्या अच्छा लगता है? उसमें मैंने जो-जो बातें बताईं उसमें 'सर्कस' भी था 'कोयला खान' भी। मैं हमेशा चीजों को थॉरली जानने की प्रक्रिया में रहा।

प्रेम भारद्वाज : 'सर्कस' लिखने का पहला खयाल कब आया?

संजीव : मैं अभी बताता हूँ। इसके बाद होता ये है कि सारी चीजें कला के पफार्म में आ जाती हैं। अगर नहीं आ पाती हैं तो खत्म हो जाती हैं। मन जो है सारी चीजों को धीरे-धीरे कला के पफार्म में मोड़ता रहता है, और कला के पफार्म में नयी शक्ल अख्तियार कर लेती हैं वो चीजें। मेरे जैसा आदमी जो दिन-रात कहानी लिखता है, बुनता है, कहानी का कीड़ा है उसको ज्यादा परेशानी नहीं होती है। मुझे कुछ भी दे दीजिए मैं उसे कहानी के पफार्म में ढाल दूँगा। अब अगर 'सर्कस' की रचना-प्रक्रिया के बारे में कहूँ तो सर्कस मुझे शुरू से अपील करता था। उसके अंदर की विचित्राता भरी रंगीन दुनिया का खुल जाना, जहाँ बाहर की दुनिया खबीस-सी लगती है। यहाँ पर नाचते, दौड़ते-भागते लोग, बौने आदि सब कुछ अच्छा लगता।

प्रेम भारद्वाज : चमक के पीछे के अंध्ेरे को पकड़ने की कोशिश की है।

अपूर्व जोशी : पहली बार देखा होगा तो लगा होगा कितनी रंगीन दुनिया है।

संजीव : ग्लैमर है यहां। लेकिन मेरी खोज करने की प्रवृत्ति के कारण मैं रात का देखा गया सर्कस दिन में देखा करता था तो मुझे नीरस, बेरंग लगता था। तब मैंने सोचा कि मैं सर्कस पर लिखूँगा। उसी समय इत्तेपफाक हुआ। मेरे द्घर के सामने ५-६ एकड़ जमीन का एक टुकड़ा था कुल्टी में। एक बार रात के वक्त एक परिवार आया बोला-हमें ठहरने दीजिए, पैसे कितने लेंगे। हमने कहा कि पैसे की क्या बात है बारिश हो रही है, ठहर जाइए। वे रुक गये। सुबह उन्होंने आग्रह किया कि हम यहीं रुकना चाहते हैं पैसे ले लीजिए। हमने मना कर दिया। वे सर्कस वाले थे। इस तरह मैं उनके संपर्क में आया। वे तो चले गये। पर मुझे बाद में समझ में आया कि जिस चीज को मैं ढूढ़ रहा था वह तो मेरे सामने थी। पिफर मैंने उन लोगों से संपर्क किया।

अपूर्व जोशी : इसीलिए 'सर्कस' में बहुत विस्तार है।

संजीव : यह विस्तार शोध के चलते हुआ। शोध के चलते ही मैंने काम चलाऊ रशियन भाषा भी सीखी, कुछ पत्रिाकाओं से और कुछ इधर-उधर से भी सामग्री जुटाई।

प्रेम भारद्वाज : 'मेरा नाम जोकर' के राजकपूर की तरह।

संजीव : सर्कस के आर्टिस्टों से मिला। उसकी हिस्ट्री जानी। सर्कस पर बनी पिफल्में भी देखीं। इस तरह बहुत-सा काम किया।

प्रेम भारद्वाज : सर्कस पर कौन सी पिफल्में देखीं?

संजीव : कुछ रशियन पिफल्में थीं। 'मेरा नाम जोकर' नहीं देखी। इसे देखने से कोई पफायदा नहीं था। बहुत कुछ पढ़ा भी। जानकारियों के लिए मैं विभिन्न आर्टिस्टों से मिलता रहा। एक ही तरह के आर्टिस्ट से मिलकर जाना कि वह क्या करते हैं। तो इस तरह दूसरे क्या पफील करते हैं मैं वेरीपफाइ करता था। सर्कस में जो रात की अप्सरा थी सुबह वह अप्सरा नहीं दिखती थी।

अपूर्व जोशी : मेकअप का असर होता है।

संजीव : बौने अजीब से लगते थे। एक दम उदास। अजीब सी दुनिया थी सर्कस की। एक रंजक दुनिया के पीछे का अंधेरा मेरे सामने आया। मैं इसे धीरे-धीरे लिखता गया। एक सज्जन थे कलकत्ता के बंदोपाध्याय। उन्होंने मुझे कुछ ऐसी सत्य बातें बताईं कि मैं दंग रह गया। कमला सर्कस इज द रियल्टी ऑपफ द सर्कस।

प्रेम भारद्वाज : वह तो डूब गया था?

संजीव : नहीं। कमला ने अपने को और अधिक बढ़ाने के लिए थ्री रिंग सर्कस किया और इसमें उसने व्यवहारिक पक्ष को नहीं देखा। एक ही आदमी तीन रिंगों को देख रहा है तो इस तरह से यह कोलैप्स कर गया। बाद में अपनी इज्जत बचाने के लिए उसे यह अपफवाह उड़ानी पड़ी कि वह डूब गया। 'सर्कस' में एक औरत का जिक्र है जो अपने सीने से हाथी को पार करा देती थी। जब उसने अपनी शादी करने की इच्छा जताई तो इस स्थिति में सर्कस वाले क्या करते? उन्होंने उसके मरने की खबर पफैला दी। तो ऐसी बहुत सी सच्ची द्घटनाएँ, उसमें मैंने दी हैं।

प्रेम भारद्वाज : ये तो उपन्यास की बात हुई। आपकी दो-तीन कहानियों के बारे में जिज्ञासा है जैसे एक कहानी 'आरोहण' है जो एक पहाड़ी कहानी है। नामवर जी भी तारीपफ करते हुए कह रहे थे कि यह किसी पहाड़ी लेखक के द्वारा लिखी जानी चाहिए थी जो नहीं लिखी गयी। 'आरोहण' जबर्दस्त कहानी है। आपकी दूसरी कहानियों 'मानपत्रा' और 'सागर सीमान्त' का प्लॉट आप के दिमाग में आया कहाँ से?

संजीव : रूस का जो समाजवाद था, जिसे हम मॉडल मानते थे, उसके अंतर्विरोध बाद में जाहिर होने लगे थे। लेकिन वह जब टूट गया तो बहुत बुरा लगा। हम सब एक वैक्यूम की स्थिति में आ गये।

अपूर्व जोशी : कि अब क्या हो?

संजीव : नामवर सिंह ने एक बहुत बढ़िया बात कही थी कि जानते हो इस दुनिया में सबसे बड़ा दुख वह है जब कोई किसी को नहीं समझ पाता। रूपसिंह के मामले में भी यही था। कोई उसे समझ नहीं पा रहा था। भूपसिंह में बुलंदी और खुद्दारी थी। उसकी पत्नी जो कूद कर मर गई वह भी खुद्दार थी। पहली पत्नी से जो बेटा था वह भी खुद्दार था। वह चाचा को लेकर आया और अपने पिता से मिला तक नहीं। पिता चुपचाप देखता रहा। तो ये सब चीजें धीरे-धीरे धुलती और बुनी जाती रहीं। ये जटिल बुनावट की बात है। धीरे-धीरे जर्जर होता मन अपने को पिफर से संजोता है। तब 'आरोहण' कहानी आयी। कुछ कहानियों के साथ दिक्कत क्या होती है कि टेक्निकल नॉलेज होना बहुत जरूरी है। 'सर्कस' के लिए भी बहुत जरूरी था। 'आरोहण' के लिए, चढ़ने के लिए माउन्टेनियरिंग की नॉलेज बहुत जरूरी है। मेरी जितनी भी कहानियाँ हैं उनमें टेक्निकल नॉलेज होना बहुत जरूरी था अन्यथा कहानी पफेल हो जाती।

प्रेम भारद्वाज : 'सागर सीमान्त' के लिए आप सुंदरवन तीन-चार बार गये थे।

संजीव : हाँ, गया था। वहाँ रहा भी था। सर्कस और 'आरोहण' के बारे में तो मैंने आपको बता दिया। 'आरोहण' के बारे में एक बात और बताना चाहूँगा। रास्ते में आते वक्त आपसे कहानी की चर्चा हुई। रास्ते में मैंने आप से 'हिमरेखा' की चर्चा की थी। मैं वहाँ गया था 'हिमरेखा' के चलते। मैं, शिवमूर्ति, चंद्र किशोर जायसवाल, विनोद कुमार शुक्ल चारों लोग गये थे। इसी क्रम में हमने कहानी को वैरीपफाई किया।

प्रेम भारद्वाज : कहाँ गये थे?

संजीव :जौनसार-बाबर, चकरौता।

अपूर्व जोशी : जनजातियों का इलाका है।

संजीव : बहुपतित्व की प्रथा है वहाँ पर।

अपूर्व जोशी : अभी भी है। वहाँ पत्नी ही मेन है। हमारे भट्ट जी थे। उन्होंने इस प्रथा के बारे में बताया था। वहाँ भट्ट अधिक पाए जाते हैं।

संजीव : हाँ! भट्ट जी। एक हमें भी मिले थे वह आक्सपफोर्ड युनिवर्सिटी में पढ़ाते भी थे। वहाँ पर हम पिटते-पिटते बचे थे। शिवमूर्ति तो सो रहे थे। हम और विनोद शुक्ल ने पूछा कि आपकी पत्नी जो हैं, आपकी भाभी भी हैं? इस पर बिगड़ गये वो। 'आरोहण' के संदर्भ में सोवियत संद्घ वाली द्घटना चल रही थी। उस समय एक खोखलापन था, एक अनिश्चय कि आदमी अब कहाँ जाए। जब चारों तरपफ विश्वास छिन्न-भिन्न हो रहा है, ऐसे में आदमी अपने विश्वास को कैसे सुरक्षित रखे। मैंने सोचा कि खुद्दारी एक अकेली चीज है जो आदमी को जिन्दा रख सकती है। अन्यथा जिन्दगी में इतने धक्के होते हैं कि जिन्दा रहना मुश्किल हो जाता है। तो 'आरोहण' मुख्य रूप से खुद्दारी की कहानी है जो कई स्तरों पर है।

प्रेम भारद्वाज : 'सागर सीमान्त' के बारे में बात करें?

संजीव : एक बार राजेन्द्र यादव ने पूछा था कि तुम्हें क्या-क्या चीजें अपील करती हैं। तो मैंने कहा कि समुद्र और समुद्र में भी वह जगह जहाँ नदी मिलती है समुद्र से। या जहाँ दो नदियाँ मिलती हैं। आपने देखा होगा कि वह दृश्य आम दृश्य से अलग होता है।

अपूर्व जोशी : इलाहाबाद के संगम में देखा था।

संजीव : वह एक बड़ा संगम माना जाता है। वैसे कई छोटे संगम हैं जैसे गंगा-गोमती, सरयू-गंगा का। सुंदरवन मेरी निगाह का एक केन्द्र बिन्दु था कि सुंदरवन है क्या? वह १९९३ या १९९४ का विश्वकप चल रहा था क्रिकेट का। संयोगवश मैं वहाँ गया था पर क्रिकेट में मेरी कोई रुचि नहीं थी। मुझे तो जाना सुंदरवन था। वहाँ एक महिला मित्रा से सुंदरवन का पता लेकर चुपचाप निकल गया। मुझे इतनी खुशी हुई कि मैंने जेब में देखा भी नहीं कि कितने पैसे हैं। लंबे-चौडे़ रास्तों को पार करता हुआ मैं जंगल में पहुँच गया और वहाँ जाकर पफंस गया। जंगल में बाद्घों के बीच। खैर, बच गया। नदी को सागर से मिलते हुए मैंने वहीं देखा। लौटते समय मेरे पास सिपर्फ तीस रुपये थे। नाव वालों को ५ रुपये देकर लौटा तो उसने ऐसी जगह उतार दिया जहाँ ज्वार आ रहा था, मैं डूबते-डूबते बचा। लेकिन वहाँ का सारा परिदृश्य मैं आत्मसात करता रहा।

प्रेम भारद्वाज : उस कहानी में आपने लिखा भी है कि कहानी कैसे आख्यान या गाथा बनती है। यह इस कहानी से समझा जा सकता है तो क्या वहाँ कोई कहानी कहीं चर्चा में थी?

संजीव : नहीं। यह कहानी चर्चा में नहीं थी। एक मेटापफर था। यह मेटापफर कैसे दिमाग में आया यह मैं नहीं कह सकता। मेरे एक बांग्ला कहानीकार मित्रा थे उनसे बातचीत के क्रम में यह मेटापफर डेवलप हुआ होगा वह अब नहीं हैं। वह मेटापफर क्या था बता दूँ पहले। वह 'सागर सीमान्त' के अंत में आता है। सुंदरवन में सागर और नदी का पथ है और टॉपोग्रापफी है। वहाँ क्या-क्या होता है उसमें सब लिखा है। इसके बाद मेटापफर आ गया और कहानी उसके अनुसार प्रोजेक्ट हुई। पिफर बांग्लादेश का कथानक था। एक नाविक भटककर बांग्लादेश जाता है और पत्नी इंतजार करती रहती है। ऐसी बहुत-सी कहानियाँ वहां प्रचलित हैं। कहानी में दूसरी पत्नी से उसके बेटा नहीं होता और पहली पत्नी से बेटा होता है। वह यह जानता नहीं है। मेरे एक मित्रा हैं उनका मैं नाम नहीं लूँगा उनकी भी यही कहानी थी। उनकी दूसरी पत्नी से लड़कियाँ थीं तो वह अपनी पहली पत्नी के बेटे को ले आते हैं। तो यह वाकय़ा कहानी के रूप में बदल कर वहाँ से जुड़ गया।

प्रेम भारद्वाज : 'आरोहण' की खुद्दारी यहाँ भी है। कथा नायिका नसीबन पति से बोलती है कि रात के अंधेरे में निकल जाओ।

संजीव : रात में इसलिए निकल जाओ क्योंकि मैं कह सकूं कि मेरे पति और पुत्रा दोनों डूबकर मर गये। मुझे यह न कहना पड़े कि वे भाग गये।

अपूर्व जोशी : यह खुद्दारी की बात है।

संजीव : जी, मेटापफर की बात मैं कह रहा था। बहुत दमदार है। उसमें कलात्मकता जो आई तो उसी के चलते। उसमें मेटापफर क्या है मैं बताता हूँ। कहानी के अंतिम हिस्से में प्रसंग है कि वे रात के अंधेरे में निकल गये। कुछ दूर चलने के बाद उन्होंने पीछे मुड़कर देखा कि वह खड़ी है या नहीं। इसके बाद वे दोनों नारियल के पेड़ में बदल गये। नारियल के के जल का स्वाद मीठा होता है, लेकिन उन नारियल के पेड़ों के जल का स्वाद खारा होता है। क्यों? क्योंकि उसमें जल नहीं आँसू थे। मानो वो जा रहे हैं पिफर उनके जाने की इच्छा नहीं है। उनके अंदर एक ग्लानि भाव है। और इध्र पास में एक पत्थर है जिसमें छोटे-छोटे छेद हैं। छेदों में हमेशा पानी भरा रहता है। वे दोनों पेड़ में बदल गये। और नसीबन पत्थर में। यह पानी कभी सूखता नहीं है। यही पानी हैे इसके चलते संवेदना का संगम होता है

प्रेम भारद्वाज : 'मानपत्रा' को कहा जाता है कि इसमें रविशंकर की छवि है?

संजीव : मुझे नहीं लगता है कि ऐसा है। प्रारंभ में लगता है कि कहानी किसी न किसी पर अवलम्बित है। जब आदमी कहानी लिखता है तो वह एक ही अादमी की कहानी नहीं लिखता है। कई चीजें उससे जुड़ जाती हैं। बंगाल में एक साथ चर्चाएँ होती हैं जिन्हें अड्डेबाजी कहते हैं। वह जो प्रसंग है तो वह पूरी कहानी यहीं से हमारे सामने आयी। मैं इस कहानी को वैरीपफाई करने के लिए मैहर गया। वहाँ शारदा देवी का मंदिर है। संगीत की राग-रागिनियों, धुनों की थोड़ी-सी जानकारी मैंने ली। उस कहानी को पूरा करने के लिए मैंने एक साल तक संगीत को जाना। उस कहानी में पोएटिक ब्यूटी' अद्भुत है। वह दूसरी कहानी में नहीं मिलेगी। मैंने सोचा कि इस कहानी का पफार्म क्या होना चाहिए? उस्ताद की बेटी जो नायक की पत्नी बनी। उन्होंने उसके कंधे पर रखकर बंदूक चलाई और सारे पाप किए। तब जाकर मुझे लगा कि मानपत्रा की शैली सबसे अच्छी होगी। प्रेम पत्रा से मानपत्रा तक मैं सब कुछ लिखने वाला था।

प्रेम भारद्वाज : दूसरे के प्रेम पत्रा!

संजीव : हाँ! दूसरे के प्रेमपत्रा। मुझे लगा कि मानपत्रा की शैली सबसे अच्छी होगी। तब मैंने उसे इस शैली मेें पिरोया। इसमेें ड्रामा भी है। मेरे मित्रा गौतम सान्याल का अवदान इसमें है। उनकी पत्नी का भी है। एक तरह से कहिए तो छोटे शहरों का जो सुख होता है उसने मुझसे इस कहानी को लिखवाया।

प्रेम भारद्वाज : आप कहानी लिखने में कापफी रिसर्च करते हैं, साल-साल भर शोध करते हैं। शीर्ष आलोचकों और आपके दौर के रचनाकारों का कहना है कि इससे रचनाकार की रचनात्मक उड़ान कहीं न कहीं बाधित होती है?

संजीव : पंख देती है यह नहीं कहा? नहीं, पंख देती है। आपको कहाँ तक उड़ान भरनी है, कहाँ जाना है, यह सब पंख का मामला है। आप हवा में ऐसे तो उड़ नहीं सकते, आपको कुछ तो चाहिए न। किसी चीज को जानो तो उसे पूरी तरह जानो। कहानी को मुकम्मल बनाने के लिए मुकम्मल बनो। जितनी दूर संभव हो उतना तो जानो।

प्रेम भारद्वाज : उनका कहना है कि इस तरह रिपोर्ट बन जाती है।

संजीव : मेरी कहानी रिपोर्ट है या कहानी, वह आपके सामने है। पश्चिम में आपको यदि एयरपोर्ट पर लिखना है तो वह कहानी भी है और जानकारी भी है। हमारे यहाँ यह ट्रेंड नहीं है। हमारे यहाँ एयर-कंडीशन कमरे में बैठ गये और लिख दी कहानी। मान लीजिए नहीं गये या कल्पनाशीलता है, उसी से काम चला लेते हैं। निर्मल वर्मा ने हमारी पूरी पीढ़ी को प्रभावित किया है। हमारी कहानीकार पीढ़ी को भाषा का संस्कार दिया है। लेकिन उन्होंने एक संस्कार शैली का भी दिया है, जिसे हम निर्मलीय शैली कहते हैं।

प्रेम भारद्वाज : आपकी शैली में पता नहीं अनायास है या सयास है। या कुछ बिंब जंगल, बाद्घ, समुंदर ये अक्सर आते हैं। जैसे 'बाद्घ' नाम से आपकी कहानी भी है। और बाद्घ कई कहानियों में भी आता है।

संजीव : देखिए, जबरदस्ती तो कोई चीज कहीं नहीं आती है, जैसे 'प्रेतमुक्ति' में बाद्घ है। यहाँ बाद्घ का शौर्य भाव है वह क्षय हो रहा है। कहानी में पर्यावरण को बचाने के एक उपक्रम के रूप में बाद्घ है। बाद्घ पर पूरी कहानी है जो सुंदरवन पर है। सागर सीमांत तो आपने देखी, वह नहीं देखी है।

प्रेम भारद्वाज : बाद्घ पढ़ी है मैंने। बाद्घ व्यक्ति है बिंब भी। कहा जाता है कि बाद्घ में आप भी बहुत कुछ हैं।

संजीव : ऐसे तो हर कहानी में आदमी कुछ न कुछ होता है।

अपूर्व जोशी : इसमें बात तो है कि हर कहानी में आदमी खुद कहीं न कहीं होता है।

प्रेम भारद्वाज : आप स्त्राी-विमर्श के बहुत पक्षधर नहीं हैं। लेकिन आपकी कुछ विशिष्ट कहानियाँ जैसे-'सागर सीमांत', 'मानपत्रा' स्त्राी-विमर्श के आसपास रहती हैं।

संजीव : यह लोग कहते हैं मैंने तो ऐसा नहीं कहा कि मैं स्त्राी-विमर्श विरोध्ी हूँ।

प्रेम भारद्वाज : 'सागर सीमांत' में भी महिला है 'मानपत्रा' में भी। पर आप बहुत पक्षधर नहीं लगते हैं स्त्रिायों के।

संजीव : मैं क्यूँ बहुत पक्षधर बनूँ। स्त्राी-पुरुष तो समाज की दो इकाई हैं। दोनों मिलकर संपूर्ण बनते हैं। खामखाह दिखाने के लिए यह बनूँ यह संभव नहीं है। मैंने स्त्रिायों को भी स्त्रिायों का दमन करते हुए देखा है, हालाँकि वे संचालित पुरुषों से होती हैं। खाली स्त्राी को मुक्त कर दो तो बात नहीं बनेगी। स्त्राी-पुरुष दोनों को एक साथ चलना होगा।

प्रेम भारद्वाज : आपकी जो श्रेष्ठ कहानियाँ हैं उनमें कहीं न कहीं स्त्राी-विमर्श है। तो विरोधाभास क्यों?

संजीव : यह विरोधाभास तो आप लोगों का बनाया हुआ है मैंने कभी नहीं कहा।

प्रेम भारद्वाज : 'मानपत्रा' में स्त्राी-विमर्श अपने स्वच्छ और स्वस्थ रूप में है। आपकी अधिकांश कहानियों में स्त्राी-विमर्श तो है।

संजीव : मेरी और भी कहानियाँ हैं जैसे 'आरोहण', 'बाद्घ', 'प्रेतमुक्ति'। इनमें नहीं है। हाँ, कुछ कहानियों में है। 'माँ' में है।

अपूर्व जोशी : संजीव जी! आपके पात्राों में ज्यादातर ऐसे चरित्रा हैं जो जीवन के प्रति आशंकित/आतंकित रहते हैं। ग़म को ताे स्वीकार करते हैं, पर खुशी से दूर हैं। कह सकते हैं उत्सवर्ध्मिता का अभाव है, ऐसा क्यों?

संजीव : यह सही है कि ग़म मेरे जीवन का एक पक्ष है जिसकी छाया बहुत दूर तक पफैली है। जिंदगी में जो मिला है वह अनायास ही प्रकट हो गया है। अगर हम उपन्यास लिख रहे हैं और उत्सवधर्मिता का प्रसंग आता है तो हमें लिखना पड़ता है। लेकिन ऐसे जबरन हम किसी को उत्सवर्ध्मी नहीं बना सकते।

प्रेम भारद्वाज : जबरन आप ऐसी बातें उठाते ही नहीं हैं। ऐसे प्रसंग आते ही नहीं हैं।

अपूर्व जोशी : ग़म आपके पात्रा हैं। आप ग़म को दिखा रहे हैं। खुशी से थोड़ी दूरी बना ली है।

संजीव : मैं आपकी बात को पूरी तरह से नकार नहीं रहा हूँं। गौतम बु( जो एक महान विचारक थे उनका भी मानना था कि जीवन दुखमय है और इस दुख से निवृत्ति का रास्ता क्या है?

प्रेम भारद्वाज : तो अज्ञेय के शब्दों में इस दुख ने आपको कितना मांझा है?

संजीव : मांजा नहीं बल्कि तोड़ भी डाला है। मैं अपनी बहादुरी का बखान नहीं करता, मांजते-मांजते चमड़ी छिल गई है। खून निकल आया है।

अपूर्व जोशी : क्या आपके भीतर का कथाकार कहीं हारा हुआ सा, चुका हुआ सा महसूसने लगा है। आपने स्वयं कहा कि इतना सारा कुछ लिखा गया, मगर बरसात के नम बम सा क्या कर पाया?

संजीव : वह इसलिए कि जिन सपनों को लेकर हमने अपनी यात्रााएँ शुरू की थीं वो १९७० का वक्त था। १९७० से १९८० या कहें १९८५ तक। तब हमें लगता था कि हम दुनिया बदल डालेंगे। कुछ लोगों ने इसकी शुरूआत भी कर दी थी। जय प्रकाश का 'जात तोड़ो' मूवमेंट था। ऐसे लोग नेशनल मूवमेंट से लड़कर आये थे उनका व्यक्तिगत स्वार्थ कुछ नहीं था। मैंने उनके अंदर बहुत त्याग देखा। सूर्यनारायण शर्मा एक धोती पहनते थे जो बाद में मारे गये। वैसे भी उन दिनों बंगाल में कोई ग्लैमर की तरपफ जल्दी नहीं भागता था। तो मैं उस तरह से तो हारा हुआ नहीं हूँ। बस एक बहुत उच्छावास या आवेग की दुनिया खत्म हो गई। ये है कि उतनी आशा अब नहीं रही। सिपर्फ लिखने से कुछ नहीं होता।

अपूर्व जोशी : नामवर जी और राजेन्द्र जी ने एक बातचीत के दौरान कहा था कि सपने अब खत्म हो गये हैं। आप सहमत हैं इस बात से?

संजीव : नहीं। एक उम्र का प्रभाव भी है। एक उम्र में खून का प्रभाव प्रबल होता है। उस उम्र में हारना नहीं चाहते हैं। हार को भी आप जीत में बदलना चाहते हैं। सपने अभी हैं। पर अपने जमाने में जो बहुत उत्साह था वह अब नहीं है।

अपूर्व जोशी : कहने का मतलब कि सपने अब यथार्थ के करीब हो गये हैं। दुनिया को बदल देंगे समाज में क्रांति लाएँगे ऐसे सपने अब नहीं रहे।

संजीव : सोवियत संद्घ का टूटना, मार्क्सवादी पार्टियों का भटकना, वामपंथी शक्तियों का बिखराव-टूटना और बिक जाना, यह सब कुछ अवसाद तो पैदा करता है। पर आदमी सपने देखना बंद नहीं करता है। हाँ! वह उतने चटकीले सपने नहीं होते। एक गीत है 'कभी न कभी कोई न कोई तो आएगा।' एक गीत 'हीरा-मोती' पिफल्म का है जो मुझे बहुत पसंद है- 'कभी न कभी दिन आएँगें हमारे।'

अपूर्व जोशी : अभी तक के लेखन में सबसे संतुष्ट करने वाला कोई अनुभव?

संजीव : पूरी तरह से आदमी कभी संतुष्ट नहीं होता। लेकिन जितना भी है उसमें 'पाँव तले की दूब' उपन्यास है जो गोरख नाथ को समर्पित है।

प्रेम भारद्वाज : 'हंस' में छपा था।

संजीव : हाँ। 'हंस' में छपा था। कुछ कहानियाँ हैं, जैसे 'जंगल जहाँ शुरू होता है', 'सावधान! नीचे आग है', कुछ और उपन्यास हैं। कुछ कहानियाँ हैं जिनकी आप ने अभी चर्चा की। तो एक तरह से मैं संतुष्ट तो हूँ पर पूरी तरह से नहीं। अगर मुझे लिखना पड़ा तो मैं पिफर से लिखूँगा। जैसे सती नाथ भादुड़ी ने कहा था कि यदि मुझे ढोंड़ाय चरित मानस को लिखना पड़ा तो मैं बार-बार उसे ही लिखूँगा। तो मैं ऐसा सोचता हूँ कि मुझे कुछ चीजों को पिफर से लिखना पड़ेगा। कुछ कहानियाँ हैं ऐसी जिन्हें मैं दुबारा लिखना चाहता हूँ।

प्रेम भारद्वाज : कुछ कहानियाँ अप्रासंगिक भी हो गयी हैं। अगर आप नये सिरे से लिखने की बात कह रहे हैं तो।

संजीव : सभी कहानियाँ नहीं। कुछ हैं जिन्हें मैं जिस ढंग से चाहता था नहीं लिख पाया।

प्रेम भारद्वाज : वह कौन सी कहानियाँ हैं?

संजीव : जैसे 'दस्तूर' कहानी जो 'वागर्थ' में छपी थी। मुझे कालिया जी के कम्पल्सन के चलते जल्दी-जल्दी लिखनी पड़ी। ऐसी एक दो और भी हैं।

अपूर्व जोशी : निर्मल वर्मा कहते थे कई बार कहानी पन्नों में तो पूरी हो जाती है पर मन में अधूरी रह जाती है। ऐसा अनुभव आपको भी हुआ।

संजीव : बहुत सारी ऐसी कहानियाँ हैं जो औपन्यासिक विस्तार लिए हुए हैं लेकिन उन्हें जल्दी-जल्दी समेटा गया। 'माँ' जो कहानी है उसमें अकेले-अकेले बैठकर रोता हूँ।

प्रेम भारद्वाज : 'माँ' कहानी में आपकी माँ ही है।

संजीव : हाँ, हमारी माँ है। इसमें भी टेक्निकल बातें एक मजबूरी हैं। बीमारी को लेकर। इत्तेपफ़ाकऩ मैं एक हॉस्पिटल का कुछ काम देख रहा था। मुझे हर जगह जाने की छूट थी। तो वो जो वाकय़ा था मेरे सामने का था। उसमें जो द्घटनाएँ हैं सब मिलाजुला कर हैं। एक जगह से चीज नहीं बनती, कुछ यहाँ से लिया, कुछ वहाँ से। पता नहीं कौन सी चीज कहाँ से मिल जाए।

अपूर्व जोशी : साहित्य-सृजन में वैचारिक आग्रह का कितना महत्व है?

प्रेम भारद्वाज : इसे मैं थोड़ा और आगे बढ़ाना चाहूँगा। नेरुदा और इलियट का कुछ मामला चला था। नेरुदा ने कहा था कि यदि लकड़बग्द्घा कविता लिख पाए तो वह इलियट जैसा लिखेगा। इलियट ने जवाब दिया नेरुदा कविता लिखकर लाखों लोगों को आंदोलित तो करेंगे पर उनकी विचारधारा क्षीण हो जाएगी। कविता याद रहेगी नेरुदा की।

अपूर्व जोशी : तो यह मामला क्या है विचार बनाम वैचारिकता का।

संजीव : बंगाल के एक कवि हैं नजरूल। उनकी आग उगलती कविताएँ हैं। लेकिन उनकी कविता में आग किस पर उगली जा रही है ये कभी-कभी स्पष्ट नहीं होता। पता तो होना चाहिए कि हम किन चीजों के पक्ष में हैं और क्यों हैं। मगर विचारधारा हावी नहीं होनी चाहिए। वहाँ कला का स्वतंत्रा विकास नहीं हो पाता है। इसलिए उसे नेपथ्य संगीत की तरह, खुशबू की तरह, हवा की तरह रहना चाहिए। उसे हावी नहीं होना चाहिए। ऐसा न लगे कि आपको जबरन मोड़ रहे हैं।

प्रेम भारद्वाज : लेखक संगठन की रचनाकार को बनाने और बिगाड़ने में क्या भूमिका रही? आप भी बहुत दिनों तक जुड़े रहे हैं लेखक संगठन से। कुछ रिक्तता भी रही आपके भीतर। तो आज के दौर में लेखक संगठनों की क्या भूमिका बची है चाहे वे जलेस हो, प्रलेस हो या और कोई।

संजीव : पिछले सवाल का अभी एक सिरा रह गया उसे मैं पूरा करता हूँ। मैंने एक लंबी कहानी लिखी 'पूत पूत! पूत पूत!' मैंने नक्सलबाड़ी पर पाँच कहानियाँ लिखी हैं। तो इसमें 'पूत पूत! पूत पूत!' कहानी से मेरे सारे साथी जो 'जन संस्कृति' के थे नाराज हो गये, बोले कि ये क्या कहानी है। अगर कोई चाहता है कि कहानी विचारधारा के अनुरूप हो तो इससे लेखन और लेखक का स्वाभाविक विकास नहीं हो पाएगा। इससे कई बार बड़े-बड़े लेखकों ने आत्महत्या करने की कोशिश की है। पार्टी एक कम्पोजिट रूप में होती है उसमें तरह-तरह के लोग होते हैं और वे यह चाहते हैं कि हम सीधे-सीधे चलें, न इधर, न उधर। जैसे द्घोड़े को चमड़े का पट्टा पहना दिया जाता है। इस तरह तो लेखन का गला द्घोट देंगे।

प्रेम भारद्वाज : लेखक संगठनों की भूमिका क्या है?

संजीव : ये लेखक को एक हद तक अनुशासित करते हैं। कुछ बड़ी लड़ाइयाँ लड़ी जाती हैं जो समाज से जुड़ी होती हैं। लेखक अपने आप में निरपेक्ष तो होते नहीं वो समाज की समस्याओं को लेकर चलते हैं। तो उसमें लेखक संगठन के माध्यम से उस समस्या के समाधान के रूप में आगे बढ़ते हैं। लेकिन कई बार होता है कि लेखक संगठन छोटे-छोटे ईगो को लेकर लड़ते हैं और उनकी अपनी कोई भूमिका नहीं रहती है। हमारे यहाँ बहुत सारे ऐसे लोग हैं जैसे तीनों संगठनों में देखिए जलेस, प्रलेस, जसम। प्रेमचन्द की एक कहानी ले लीजिए 'कपफन' और पूछिए कि यह जलेस की है, प्रलेस की है या जसम की है तो कोई बता नहीं पाएगा। यदि विचारधारा हावी हो जाए तो कोई कहेगा ऐसो लिखो, कोई कहेगा वैसे लिखो।

प्रेम भारद्वाज : आपने क्यों छोड़ दिया जसम?

संजीव : मेरी कुछ ऑपिफस की समस्यायें आ गई थीं। मुझे छुट्टी नहीं मिल पा रही थी। खामखाह की बातें मेरे बारे में कही जा रही थीं। मेरे सामने कुछ निर्णय लिया जा रहा था और बाद में मेरी अनुपस्थिति में निर्णय बदल दिये जा रहे थे। तो मुझे लगा कि यह दिखावा है। ऐसे में उसकी कोई भूमिका रह नहीं गई है। मुझे लगता है कि इन तीनों लेखक संगठनों को एक साथ मिलकर कुछ करना होगा तभी कुछ प्रभावी होंगे।

प्रेम भारद्वाज : आपने कहीं कहा भी था कि इन तीनों लेखक संगठनों को एक साथ मिल जाना चाहिए।

संजीव : हाँ! कहा था। और इन्हें अपना लद्धड़पना जो है उसे छोड़ देना चाहिए। रचनात्मक कार्य करने चाहिए। लेकिन ये लोग क्या करते हैं?

अपूर्व जोशी : कभी-कभी टाँग खींचते हैं।

संजीव : हाँ! कभी तस्लीमा के मामले में मोमबत्ती जला दी। बस हो गया। इस पर मेरी एक कहानी भी आयी थी 'अवसाद'। कुछ देर इंकलाब! जिंदाबाद! किया, एक-एक कप चाय पी, बीड़ी पीये और द्घर आ गये।

अपूर्व जोशी : आप रचनाकार भी हैं, संपादक भी हैं। दोनों रूपों में आप आज के समीक्षक को, उनके मापदण्डों को कैसे देखते हैं?

प्रेम भारद्वाज : इस प्रश्न में मैं एक वाक्य जोड़ना चाहूँगा। चेखव ने कहा था कि जुते हुए द्घोड़े के पुट्ठों के द्घाव पर बार-बार बैठने वाली अौर पीड़ा पहुँचाने वाली मक्खी का नाम 'आलोचक' है। तो आप अपने आपको चेखव का द्घोड़ा पाते हैं? यह आलोचना क्या है?

संजीव : यह हिन्दी कथा-साहित्य का दुर्भाग्य है कि उसके पास आलोचक नहीं हैं। कुछ समीक्षक हैं, कुछ कविताओं के विद्वान हैं। दो अंगुल की कविता है और दस हाथ की समीक्षा। कविता की आलोचना में अपनी बात कहने के स्कोप ज्यादा होते हैं। कहानी में उतने नहीं। पहली बात तो कहानी धैर्य बहुत मांगती है, पढ़ने के लिए भी और रचने के लिए भी। मैं समझता हूँ कि कथा आलोचना की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है और बनेगी भी नहीं।

अपूर्व जोशी : अज्ञेय जी ने कहा था कि आलोचना है, आलोचक हैं, पर आलोक की कमी है।

संजीव : सही है। आलोचक नहीं हैं। आलोचकों का अभाव कहीं न कहीं तो पता लगता है। आलोचकों को जितनी मेहनत करनी चाहिए उतनी नहीं करते हैं। आलोचना बस अकेडमिक तक सीमित हो गयी है।

अपूर्व जोशी : आलोचना पुस्तकों की समीक्षाओं तक सीमित हो गयी है।

प्रेम भारद्वाज : मास्टरी हो गई है एक तरह से आलोचना।

संजीव : हमारे यहाँ जितनी भी समीक्षाएँ आती हैं वह मेहनत से लिखी हुई बहुत कम होती हैं। कहानी में जो समीक्षाएँ आई हैं मुझे नहीं लगता किसी पर बहुत मेहनत की गई है। बल्कि पहले राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर के जमाने में कापफी काम हुआ था। उसकी तुलना में अभी तक तो काम नहीं हुआ। अब जैसे रविभूषण जी हैं उनसे बोलने को कह दीजिए तो चार द्घंटे बोलेंगे, लिखने को कह दें तो एक अक्षर नहीं लिखेंगे। अभी तक उनकी एक भी पुस्तक नहीं आयी है। इससे समीक्षक दिन पर दिन खत्म होते चले जा रहे हैं। कपिल देव हैं गोरखपुर से, बहुत अच्छा लिखते हैं पर नहीं लिखेंगे। गौतम हैं, जितेन्द्र हैं, शंभु गुप्त हैं, मगर कुल मिलाकर भी अपर्याप्त हैं।

प्रेम भारद्वाज : कविता और कहानी के बीच विभाजक रेखा भी है। माना जाता है कि कवि के आलोचक ठीक-ठाक हैं। कहानी के कम हैं। शंभू गुप्त जो नये आलोचक के रूप में उभर रहे हैं उन्होंने कहा था बहुत सी कहानियाँ समाज से दूर हैं और समाज का सबसे प्रमाणिक दस्तावेज नहीं हैं। इसकी तुलना में कविता समाज का प्रमाणिक दस्तावेज मानी जाती है। यह कैसा मामला है।

संजीव : ये आलोचकों का मामला है। हो सकता है कहीं और उन्होंने इसके विरु( भी कहा हो, मुझे ठीक से याद नहीं। लेकिन ठीक इसके विपरीत किसी ने कहा है कि कविता समाज के ज्यादा निकट नहीं है।

प्रेम भारद्वाज : हाँ! यह विवाद का विषय भी रहा है कि कविता ज्यादा समाज के निकट है या कहानी।

संजीव : यह खामखाह का विचार-विमर्श है। कौन सी कविता समाज के निकट है और उसने समाज को बदलने के लिए प्रेरणा दी और बदलाव आए। कहानी में भी यह चीज हो सकती है और कविता में भी। ये सब विचार के बीज हैं। आंदोलन में जो सक्रिय भूमिका होती है सोशल एवं पॉलिटिकल एक्टिविस्टों की, ये इनको आगे लेकर आते हैं। कविता, कहानी या कोई भी कला रूप अपने आपमें कोई परिवर्तन नहीं ला सकता। इसके संवाहक दूसरे होते हैं। ये सब अपने आप को जिन्दा रखने का शिगूपफा है।

प्रेम भारद्वाज : आपके दौर के कई महत्वपूर्ण रचनाकार शिल्प के मामले में भारत को छोड़कर लैटिन अमेरिका पहुँच जाते हैं। जादुई यथार्थ रचते हैं। तो क्या यह सब जरूरी है?

संजीव : आकाश आपका है जहाँ तक हो आप उड़िए। लेकिन अगर धरती के पास रहते तो ज्यादा अच्छा होता है। लैटिन अमेरिकी बोर्खेज और मार्खेज हैं या अन्य कहानीकार वहाँ का बिंब ही अलग है। जैसे एक आबनूस का टेबल है, उसमें झांकता प्रतिबिंब है। यह एक भौगोलिक परिस्थिति थी लेकिन इन लोगों को वह चमत्कार लगा। मैंने सपने में एक तितली देखी। अब पता नहीं मैं तितली के सपने में था या तितली मेरे सपने में थी। एक चीनी दार्शनिक थे सब मुग्ध थे। बौ(कि संपदा के प्रति लालायित या आकर्षित होना एक बात है और अपना कुछ मौलिक रचना दूसरी बात। वहाँ की नकल करके या वहाँ के प्रभाव में आकर लिखने से रचना श्रेष्ठ नहीं होती है। जमीनी सच्चाई से जुड़ी रचना ही श्रेष्ठ होती है। उसी रूप में उसका विकास होता है। आप जिनकी बात कह रहे हैं उनकी कोई भी कहानी इन दिनों मुझे समझ में नहीं आई। मेरी एक सीमा है।

प्रेम भारद्वाज : बड़े आलोचकों की समझ में आ जाती है।

संजीव : मैं उनकी बात कैसे कह सकता हूँ वे विद्वान आदमी हैं।

प्रेम भारद्वाज : अरुण प्रकाश कह रहे थे बड़े आश्चर्य की बात है कि हमारे देश में इतनी परंपराएँ हैं इतने पफार्म मौजूद हैं कि लैटिन अमेरिका जाने की जरूरत नहीं है। यहाँ तो वे कुछ नहीं देखते हैं।

संजीव : नहीं, मैं उनकी बात से सहमत नहीं हूँ। आप कहीं भी जाइए अपने लेखन को परिपुष्ट करने के लिए, उसमें औदात्य लाने उसके सौन्दर्य को विकसित करने के लिए कहीं से कोई भी बौ(कि संपदा का इस्तेमाल कर सकते हैं बशर्ते वह नकल न हो और उसके लिए रूढ़ न हो जाएँ। हमारे यहाँ जो परंपराएँ हैं कोई जरूरी नहीं है कि हम वहीं तक सीमित रहें।

प्रेम भारद्वाज : जादुई यथार्थ का जादू क्या है। जो जादुई यथार्थ पर लिखते हैं वह कहते हैं कि यह माया है।

संजीव : यह सवाल बेहतर होगा, उनसे किया जाए।

प्रेम भारद्वाज : जादू क्या है उनका?

संजीव : हमारे यहाँ खुद बहुत सारा जादू है। जादू यथार्थवाद के तहत कह रहा हूँ। वह जो मार्खेज और बोर्खेज वाला मामला है। बोर्खेज बिलकुल ही अपठ्य हैं, दुरूह हैं। मेरा जो सामान्य पाठक है वह उस रचना को उठाकर पफेंक देगा। जिन लोगों ने उठा लिया है तो वह लिखना कुछ और चाहते थे और लिख कुछ और गया।

प्रेम भारद्वाज : लेकिन जादुई यथार्थवाद का जादू सिर चढ़कर बोल रहा है-शिल्प के मामले में।

संजीव : अलल टट्टू टाइप का शिल्प है। कुछ का कुछ लिख दिया है बीन दिया है। हम किसी के प्रति जिम्मेदार नहीं हैं। हवा में जड़ें टटोलती हुयी जो प्रवृत्तियाँ हैं, मैंने कुछ लोगों से पूछा था कि इसका मतलब क्या है। तो वे कोई जवाब नहीं दे पाये। भाषा का व्यामोह है।

प्रेम भारद्वाज : हाल के रचनाकारों में भाषा और शिल्प का कौशल ज्यादा है, उसकी तुलना में कथ्य नहीं है।

संजीव : हाँ, आप सही कह रहे हैं। रद्घुवीर सहाय ने कहा है कि जहाँ कला ज्यादा होगी वहाँ कविता नहीं होगी। जब कथ्य नहीं है तो भाषा और शिल्प का कौशल ही ज्यादा होगा।

अपूर्व जोशी : वही यहाँ पर लागू होती है।

संजीव : अमृत लाल नागर ने कहा था एक बार, ज्यादा कसरत करने से कहानी बिगड़ जाती है
प्रेम भारद्वाज : नए कहानीकारों में आज उसी की धूम मची हुई है।

संजीव : वही लोग अपने में ही धूम मचाए हुए हैं। वह कहावत है कि 'तू मुझे पंडित कह मैं तुझे मुल्ला कहूँ।' पाठक कहीं नहीं है। दूर-दूर तक यही लोग हैं।

अपूर्व जोशी : एक सर्किल है और इसी में उठापटक चल रही है।

प्रेम भारद्वाज : मैं मासूम हठ ही कहूँगा कि आपने १०-१५ साल पहले कहा था कि मैं प्रेमचन्द को छूना चाहता हूँ। तो आप प्रेमचन्द तक पहुँचे।

संजीव : प्रेमचन्द में जो अपने समय सापेक्ष स्तर पर बुलंदियां थीं मैं उसी की बात कर रहा थाऋ जिसमें समाज के लिए आत्मीयता की मिठास भी है दृष्टि भी है, दर्द भी है। कहानी को इस तरह व्यक्त किया जाए कि ये चीजें ज्यादा से ज्यादा संप्रेष्य हों।

प्रेम भारद्वाज : तो आप प्रेमचंद के कितने करीब पहुँचे। छू लिया है आपने?

संजीव : छूना क्या? उनसे कहानी तो बहुत आगे निकल गई है। प्रेमचन्द तो मील का पत्थर हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि कहानी वहीं रहेगी। हम उसके आगे गये। प्रेमचन्द समय सापेक्ष हैं। इस समय वह होते तो क्या लिखते। वह जो लिखना चाहते वह मैं लिख रहा हूँ, मुझे ऐसा लगता है।

अपूर्व जोशी : आप के लिए कहा जाता है कि दिल्ली में आप सहज नहीं हैं। यहां साहित्य जगत की गुटबा८ाी/खेमेबा८ाी यहाँ तक की पुरस्कारों में भी जुगाड़ बंदी है। इस पर आप क्या कहेंगे।

प्रेम भारद्वाज : कुछ द्घराने हैं जो हावी हैं।

संजीव : दिल्ली में मुझे लगा कि मैं जंगल में आ गया हूँ।

प्रेम भारद्वाज : जंगल में तो आप पहले भी थे।

अपूर्व जोशी : वह तो प्राकृतिक जंगल था।

संजीव : यहाँ पर अजीब किस्म के लोग रहते हैं। रचना विरोधी माहौल है। लोग पुरस्कार छीन लेंगे। तख्तो ताज पर लड़ बैठेंगे। पफेलोशिप ले लेंगे। रचना तो वे लोग करते हैं जो बाहर रह रहे हैं जो अभाव में जी रहे हैं। जिनका कोई नहीं हैं या मजबूरीवश दिल्ली नहीं आ पा रहे हैं।

अपूर्व जोशी : जो लोग यहाँ बैठे हुए हैं वे क्या किसी सिस्टेमैटिक तरीके से या किसी सोच के साथ इनको हाशिए में डालने का काम करते हैं क्योंकि हावी तो यही हैं?

संजीव : सचमुच ये हावी हैं क्योंकि यहाँ पत्रिाकाएँ हैं, पुरस्कार हैं। यहाँ की गलियाँ सीधे सत्ता तक पहुँचती हैं। दिल्ली की दुनिया एक नक़ली दुनिया है मेरा यह अपना अनुभव रहा है। यहाँ रचना विरोधी परिवेश है। पत्रिाकाओं का जो माहौल है वह भी बहुत विश्वसनीय नहीं है। जो आप लिखना चाहें, वह छप नहीं सकता। लेखक इतना कापुरुष, कितना कायर है वह यहीं आकर मालूम पड़ता है। सच्चाई बयान नहीं की जा सकती। सच्चाई को छुपा कर, दबाकर हम कितनी दूर जा सकते हैं। इलेस्टिक लीमिट क्या होगी वह यहाँ जाकर पता चलता है। केवल कहने के लिए कुछ चीजें होती हैं जबकि हकीकत कुछ और होती है। मैं दिल्ली से एक तरह से संतुष्ट नहीं हूँ। एक छोटा सा आदमी दिल्ली आकर क्या कर सकता है। कुछ नहीं। वह भीड़ में गुम हुए एक बच्चे की तरह है।
प्रेम भारद्वाज : आपके एक लेखक मित्रा का भी यही कहना था कि कुल्टी एक छोटी जगह थी, अचानक दिल्ली की चकाचौंध से आप सहज नहीं हो पाए।

संजीव : नहीं, चकाचौंध से मैं डरा हुआ नहीं हूँ।

प्रेम भारद्वाज : उनके कहने का सेन्स ये था कि कुल्टी में जैसे लोगों को कुछ भी कराना होता, मसलन प्रेम पत्रा, मानपत्रा लिखवाना होता तो आपके पास जाते थे। यहाँ दिल्ली में तो एक से एक महंत लोग बैठे हैं तो यहाँ महत्व कहीं न कहीं कम हो जाता है।

अपूर्व जोशी : भीड़ में खो जाने का डर होता है।

संजीव : भीड़ में खो जाने का डर नहीं था। एक तो यहाँ आते ही एक साल मैं बीमार पड़ गया। पहला अहम सवाल है कि यहाँ मेरी भूमिका क्या होगी? दूसरी बात यहाँ मैं क्या करूँ? जैसे मुझे या किसी को कोई रचना करनी है तो वह गाँव जाए या मान लीजिए उत्तराखण्ड जाए तो वह ज्यादा अच्छे ढंग से काम करेगा जो यहाँ संभव नहीं है।

प्रेम भारद्वाज : छोटी जगहों पर ज्यादा अच्छी रचनाएँ होती हैं।

संजीव : रचनाओं की सार्थकता तो इसमें होती है। रचनाएँ विचारों की बीज हैं जब वे पल्लवित होकर कार्य रूप में ढलती हैं तब जाकर वह सार्थक होती हैं। यहाँ जो रचनाएँ होती हैं वह वाहवाही के लिए होती हैं। जैसे मंच पर हमने अभिनय किया। अन्याय का जो पहाड़ था उसे काट दिया तो उस पर हमें तालियाँ मिलेंगी कि हमने कितना अच्छा अभिनय किया। लोग इस बात को ग्रहण नहीं करते की हमें अन्याय के इस पहाड़ को काटना है। पहाड़ तो हकीकत में मौजूद है।

प्रेम भारद्वाज : छोटी जगहों पर रचनाएँ अच्छी हो रही हैं पर छोटी जगहों पर रहने का दंश भी झेलना पड़ रहा है।

संजीव : हाँ! छोटी जगहों पर रहने का दंश भी है। एक दूसरी बात भी है कि वह एक्शन ;क्रियाद्ध में भी ढलती हैं। बहुत सारी चीजों का विरोध होता है।

अपूर्व जोशी : उनका तत्काल रिएक्शन होता है।

संजीव : दंश के बारे में जो आप कह रहे हैं वह दूसरी चीज है। वहाँ पैसे नहीं मिलते। स्कोप नहीं है। जैसे मेरे बच्चे अच्छे स्कूलों में नहीं पढ़ पाए।

प्रेम भारद्वाज : उनको लेखक बना सकते थे?

संजीव : लेखक क्यों बना दूँ। उनकी जो इच्छा होगी वह वो बनेंगे। हम बनाने वाले कौन होते हैं।

प्रेम भारद्वाज : आपने इच्छा जाहिर की कि वे लेखक बनें?

संजीव : नहीं, नहीं। मेरी एक नतिनी है विपश्यना। मेरी बेटी जो यहाँ कम रहती थी, उसी की बेटी है। अब वे पूना में रहती हैं। तो एक दिन मैंने कहा कि अब मेरी परंपरा तू ही आगे बढ़ाएगी। तो उसने कहा, नहीं, मैं नहीं करूँगी। मैंने पूछा, क्यों? उसने कहा कि लेखक तो मैं बनूँगी नहीं क्योंकि लेखक रहते हुए अगर दूसरा काम करना चाहूँ तो नहीं कर सकती। लेखक रहते हुए आप दूसरा कोई काम नहीं कर सकते। हाँ दूसरे काम करते हुए आप लेखक बने रह सकते हैं। मैं उसकी बात का कायल हो गया।

अपूर्व जोशी : ये जो आप दिल्ली के बारे में कह रहे हैं कि दिल्ली एक जंगल है और आप उसमें सहज नहीं हैं। ऐसे में क्या दिल्ली में रहना जीविकोपार्जन की मजबूरी के तहत है, राजेन्द्र यादव जी का प्रेम है अथवा हंस के संपादन का लोभ?

प्रेम भारद्वाज : या सब कुछ जबरन है।

संजीव : जब मैं यहाँ आया था तब हंस का संपादन मेरे सामने था नहीं। मेरी पफैक्ट्री बंद हो चुकी थी। आजीविका का प्रश्न तत्काल मेरे सामने था। कुछ दिन हैदराबाद सेंट्रल यूनीवर्सिटी में रहा। कुछ दिन 'अक्षरा' का संपादन किया। उन्हीं दिनों मैंने सोचा कि दिल्ली चलकर कुछ दिन रहा जाए। यहाँ मेरे कुछ काम भी बाकी थे। एक तो 'सूत्राधार' उपन्यास की पिफल्म का मामला था, और एक उपन्यास पूरा करना था। वह सब सोचकर मैं यहाँ आया था। 'हंस' की संपादकी या उपसंपादकी नहीं थी। 'रे-माधव' से छुट्टी लेकर मुझे बार-बार आना-जाना पड़ता था तो थोड़ी खिन्नता रहती थी कि मैं अक्सर छुट्टियाँ लेता रहता हूँ क्योंकि मेरा दिल्ली आना जाना लगा रहता था। साहित्यिक गोष्ठियों की वजह से भी कभी-कभी आता रहता था। हम मित्रातापूर्वक अलग हो गए। उसी समय यहाँ पर 'हंस' के लिए जगह खाली थी। राजेन्द्र जी का अपनापन भी है।

प्रेम भारद्वाज : आपके पत्राों से भी पता चलता है?

संजीव : 'हंस' में टिके रहना मेरा कोई तय नहीं है। मैं इसी वक्त छोड़कर गाँव जा सकता हूँ

प्रेम भारद्वाज : ये तो राजेन्द्र जी को अभी भी लगता है।

संजीव : कभी भी किसी भी क्षण मैं छोड़ सकता हूँ, मेरा कोई आग्रह नहीं है। 'हंस' का संपादक बनने का मोह भी नहीं है। गिरिराज जी ने एक बहुत अच्छी बात कही थी-'धर्मयुग' के संपादक भारती जी रोया करते थे कि मेरा लिखना खत्म हो गया। देखना एक दिन तुम्हारा भी लिखना खत्म हो जाएगा।' मुझे बड़े-बड़े लोगों ने सजेशन दिए। श्रीलाल शुक्ल, धर्मवीर भारती, रद्घुवीर सहाय, कमलेश्वर जी, सभी ने सलाह दी। तो सबका निचोड़ यही रहा कि दिल्ली में पाँव रखने की जगह हो, तो ही सही है। अभी तक मेरा द्घर भी ठीक नहीं है। मेरा वहाँ दम द्घुटता है। लेकिन मेरे पास इतने स्कोप नहीं हैं कि अलग द्घर ले सकूँ। और अपनी बीमारी के कारण गाड़ी में जा सकूँ। मैं आपको क्या बताऊँ।

प्रेम भारद्वाज : १२ साल पहले आप ने इच्छा व्यक्त की थी कि छोटी सी जगह हो जहाँ पफूल-पत्तियाँ उगाऊँ और एक टाइप राइटर हो, तो क्या वह इच्छा पूरी हुई। लोग तो बहुत बड़ी-बड़ी इच्छाएँ रखते हैं।

संजीव : पफैक्ट्री बंद हो जाने के बाद मैं यहाँ आ गया पिफर बीमार पड़ गया। पिफर गाँव चला जाऊँगा। इच्छाएँ अपनी जगह पर हैं। अब अगले जनम में अगर होता हो...।

प्रेम भारद्वाज : टाइपराइटर नहीं खरीदा?

संजीव : नहीं, टाइपराइटर खरीद कर क्या करेंगे।

अपूर्व जोशी : आपके गाँव जाने का संकल्प हो रहा है।

प्रेम भारद्वाज : आप बताते थे कि नदी के किनारे बैठकर मैं देखता रहता था। लोग नाव से जा रहे हैं। बहुत कुछ सोचता रहता था।

संजीव : उस समय की बात बहुत अलग थी। तब लगता था कि बहुत कुछ छूट गया। वैसे अब गाँव, गाँव नहीं रहे। पत्नी की बीमारी, पिफर मेरी बीमारी तो लगता है मैं यहाँ क्या करूँ।

प्रेम भारद्वाज : ठीक यहीं पर एक सवाल खड़ा होता है कि आप हमेशा गर्दन पीछे मोड़कर देखते हैं आगे की ओर नहीं। कहानियों के संदर्भ में भी यही धारणा बनती है कि आप गाँव को बार-बार देख रहे हैं। कहानियों में जो नयी समस्याएँ, चुनौतियाँ होनी चाहिए वह नहीं आ रही हैं। जैसे बाजारवाद को लेकर लोगों ने बहुत सी कहानियाँ व उपन्यास लिखे।

अपूर्व जोशी : कल्पना में स्मृतियाँ बहुत हावी रहती हैं तो आपके लेखन में स्मृतियाँ पीछे की ओर हावी रहती हैं।
संजीव : आपके कहने का अर्थ है कि मैं पीछे देखता हूँ, आगे नहीं देखता हूँ। आगे क्या है बेरोजगारी है। पहले भी थी। अब एक नया क्षितिज खुल गया है बाजारवाद, भूमंडलीकरण, उदारीकरण का और भी बहुत कुछ है। आपने शायद मेरी सारी कहानियाँ नहीं पढ़ीं। नहीं तो आप ऐसा आरोप नहीं लगाते।

प्रेम भारद्वाज : आपकी हाल की कहानियों में नई समस्याएँ हैं भी तो बहुत छिटपुट ढंग से।

संजीव : 'हंस' में आने के बाद और बीमार पड़ने के बाद भले ही नहीं लिख पा रहा हूँ। वरना मैंने बाजारवाद और जो अजीब ढंग का बैकग्राउंड आ गया उस पर बराबर लिखा है। कैरियर और कम्पटीशन पर 'ब्लैक होल', 'नस्ल' में लिखा। उपन्यासों में भी जो कांटेम्पोररी वर्ल्ड है, समाज ही नहीं, दुनिया बदल रही है, नस्ल बदल गई है, वहाँ तक भी मैंने काम किया है और कर रहा हूँ। आपको अगर निर्णय लेना है तो टोटलटी ;पूर्ण रूपद्ध में लें।

प्रेम भारद्वाज : मंदी पर कोई कहानी लिखी है? बहुत गंभीर मामला चल रहा है।

संजीव : नहीं, नहीं लिखी। मैं खुद रिसेशन ;मंदीद्ध का शिकार हूँ।

प्रेम भारद्वाज : इसीलिए मैं कह रहा था। नौकरी छूटी है तब से लेकर अब तक को देखिए।

संजीव : लेकिन मैंने लिखी हैं। आप 'बाद्घ' कहानी देखें, 'गली के मोड़ पर ....' देखें। सच कहूँ तो अपनी स्थितियों के बावजूद मैं अभी भी रुका नहीं हूँ, चुका नहीं हूँ।

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