Saturday, October 10, 2009
जंग जारी है / शिवमूर्ति
उपन्यास अंश............
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आज गांवों में तेजी से परिवर्तन हो रहा है। पुराने मूल्यों, मान्यताओं और मान-मर्यादा के मानदंड बदल गए हैं, बदल रहे हैं। अर्थ-लिप्सा गांवों को भी अपने शिकंजे में कस रही है.... गांवों के नाम पर आने वाली सरकारी सहायता सड़क, अस्पताल, पंचायत भवन आदि के निर्माण की धनराशि की निर्लज्जतापूर्वक बंदरबांट की जा रही है। जातिगत विद्वेष की पार्टीबंदी कोढ़ में खाज बन रही है.....समूह में रहते हुए व्यक्ति का सोच एकाकी है। असुरक्षा, गरीबी, जहालत, अविश्वास और ईर्ष्या-द्वेष सब मिलकर दीमक की तरह गांवों को चाट रहे हैं। गांवों की इसी त्रासद स्थिति पर केंद्रित है 'जंग जारी है' की कथावस्तु।
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गांव में सन्नाटा व्याप्त है।
अभी-अभी एक जीप गांव की गलियों से होती हुई लौटन बाबू के घर की तरफ गई है। कोई कह रहा था- पीछे दो बंदूकधारी भी बैठे थे।
कई दिन से, जब से गांव के मजदूरों ने बड़े किसानों के विरुद्ध मजदूरी को मसले को लेकर कलक्ट्रेट में प्रदर्शन किया है, गांव में तनाव है। बड़े किसानों के कालेजों में पढ़ने वाले तथा पढ़ाई छोड़कर घर बैठ गए लड़के हमेशा कट्टे-तमंचे की बात करते हैं। गली-कूंचे तथा खेत-खलिहान में परोक्ष ढंग से मजदूरों को धमकी दी जा रही है। अभी तक एक भी मजदूर संघर्ष समिति के निर्णय के विपरीत मजदूरी करने के लिए खेतों में नहीं गया है। सब सवेरे की गाड़ी से या साइकिलों पर शहर जाते हैं। फिर शहर के चौराहे से, जहां काम मिलता है, चले जाते हैं।
मजदूरों को तोड़ने का पूरा प्रयास चल रहा है। गांव की गंध में तिताई है। कहीं कोई अनहोनी न घट जाए। प्रदर्शन में भाग लेने वाले एकाध लोगों के खेत से आलू के पौधे उखाड़ लिये किसी ने। एक किसान की पांच बिस्सा ईख काट कर ले गया कोई। पांच बिस्सा ईख पचाना आसान काम नहीं। कुछ लोगों ने गन्ने की कुट्टी कई बड़े किसानों के बैलों के नाद में देखी है। कल एक बड़े किसान के दो बैल चोरी चले गए। शाम को दरोगा आया था गांव में। किसान ने नामजद रिपोर्ट लिखायी है दो मजदूरों के खिलाफ। पुलिस दोनों को पकड़ कर ले गयी है। रात विद्रोही जी थाने गये थे। दरोगा ने कहा है कि वह 'मारपीट' नहीं करेगा। चुपचाप चालान कर देगा। जमानत का इंतजाम करिए, सभी जान गए हैं कि बैलों की चोरी फर्जी है। बैल कहीं दूर रिश्तेदारों के घर भेज कर रिपोर्ट लिखायी गयी है, मजदूरों को फंसाकर उनका संगठन तोड़ने के लिए।
सूरज डूबते-डूबते लोग अपने घरों में घुस जाते हैं। अंधेरा होते ही सियार गांव की सरहद पर आकर रोना शुरू करते हैं। गांव के कुत्तों ने उन पर भोंकना और उन्हें खदेड़ना छोड़ दिया है। क्या होगा इस गांव का?
विद्रोही जी सोच में पड़े हैं। प्रतिकार तो करना ही पड़ेगा। तटस्थ रहना, पलायन करना तो कायरता होगी। संघर्ष अवश्यंभावी लग रहा है। उनका विचार है कि इस मामले में दद्दन से सलाह लेना ठीक रहेगा। दद्दन सिंह बड़े भूपति हैं, लेकिन वक्त की नब्ज को वक्त से भी पहले समझने वाले। उन्होंने प्रदर्शन से भी पहले से नई दर से मजदूरी देना शुरू कर दिया है। सभी उनसे डरते हैं और उनका सम्मान करते हैं। वे सीधे-सीधे कभी किसी से झगड़ा मोल नहीं लेते, लेकिन लड़ने वाले दोनों फरीकों को बारी-बारी से लड़ने के ऐसे रास्ते बताते हैं कि दोनों उन्हें अपना संरक्षक मानते हैं। इसी गुण से वे विगत पचासों साल से पास-पड़ोस तक के गांवों को तिगनी का नाच नचा रहे हैं।
विद्रोही जी दद्दन सिंह के घर जाने के लिए बाहर निकलते हैं, तभी सामने से गजाधर आता दिखाई पड़ता है।
'नेता जी, आपको बीडीओ साहब याद कर रहे हैं। लौटन बाबू के दुआर पर बैठे हैं।'
'जाकर बीडीओ साहब से कह दो कि मेरे पास दुआर नहीं है बैठने के लिए क्या?'
'अरे पीने-खाने का भी परबंध है।' गजाधर मुस्कराता है, 'आपसे कुछ बतियावा चाहत हैं।'
विद्रोही जी लौटन बाबू की चाल खूब समझते हैं। एक बार दरवाजे पर बुला नहीं पाये कि सारे गांव में हल्ला करेंगे, 'विद्रोही जी डरकर माफी मांगने आये थे। साले विचाली।'
थोड़ी देर में बीडीओ साहब आते हैं। साथ में लौटन बाबू तथा दो बंदूकधारी।
'आइए।' विद्रोही जी उठकर स्वागत करते हैं और दोनों को अंदर दालान में लेजाकर बैठाते हैं। दोनों बंदूकधारी बाहर खड़े हो जाते हैं।
विद्रोही जी वहीं से पत्नी को आवाज लगाकर चाय बनाने के लिए कहते हैं और पूछते हैं, 'कहिए, क्या सेवा करूं?'
'सेवा तो आप बिना पूछे ही खूब कर रहे हैं। चारों तरफ मेरा नाम उजागर कर रहे हैं। जाने कब का बैर साध रहे हैं। मुझे तो पता भी नहीं चल पाया अभी तक कि मुझसे आपको शिकायत क्या है।' बीडीओ साहब मुस्करा-मुस्करा कर बोलते हैं।
'शिकायत मैंने अपने ज्ञापन में छपवा दिया है। आपने न देखा हो तो उसकी एक प्रति दे सकता हूं।'
'आप कहते हैं कि मेरे कारण संपर्क मार्ग नहीं बन पा रहा है। आपको शायद पता नहीं है कि....'
'मुझे सब पता है। जो काम आप कर चुके हैं, और जो करना चाहते हैं और कर नहीं पा रहे हैं, उसका भी।'
'मैंने कौन-सा गलत काम किया है?'
'एक हो तब न गिनाऊं? आपने लौटन बाबू को पुअरेस्ट एमंग पुअर मानते हुए ट्रैक्टर का लोन दिलवा दिया। फाइल पर लोन में हरिजनों को साझीदार बनवा दिया। उन्हीं हरिजनों को, जो लौटन बाबू की हरवाही-चरवाही करते हैं और सदा उनसे दबे रहेंगे। जिनके पास कुल मिलाकर इतनी भी जमीन नहीं है जितना एक ट्रैक्टर को एक दिन में जोतने के लिए चाहिए।'
लौटन बाबू मुंह की खैनी दालान के एक कोने में थूक कर बोलते हैं...'आखिर इसमें तुम्हारा क्या नुकसान है- तुम मेरे पीछे क्यों पड़े हो?'
'यह सिद्धांत की बात है। मैं न आपके पीछे पड़ा हूं, न बीडीओ साहब के। मैं सिद्धांत के पीछे पड़ा हूं। सरकार का पैसा गरीबों के खून का पैसा है। उसका दुरुपयोग कोई कैसे सह सकता है।?'
'गौरमिंट के पैसे का दुरुपयोग तो आपने भी किया है। बिना जानवरों की खरीद कराये उस मद में मिलने वाली छूट की रकम का बंदरबांट करवा दिया। जानते हैं- अखबार में आपकी इस तकनीक को 'खूंटा-बदल' नाम दिया है संवाददाता ने। बंदरबांट भी आपका सिद्धांत है?'
'उसमें सिद्धांत के खिलाफ जैसा कुछ नहीं है। सरकार का पैसा गरीबों के पास गया है। सही जगह गया है। टेक्निकल गलती कोई गलती नहीं होती।'
'लेकिन उसी पैसे सरकार के खिलाफ आपने प्रदर्शन किया है।'
'मैंने सरकार के खिलाफ नहीं, सरकारी मशीनरी में व्याप्त कोढ़ के खिलाफ प्रदर्शन किया है और गरीबों के पैसे से नहीं, चंदे के पैसे से किया है।'
'सौ बात की एक बात। आप प्रदर्शन कीजिए, ज्ञापन दीजिए, मजदूरी बढ़वाइए। मुझसे मतलब नहीं। लेकिन एक बार में एक ही नाव पर पैर रखिए। एक ही डिमांड पर अपनी ताक केंद्रित करिए। मजदूरी बढ़ाने की मांग का मैं भी सिद्धांत के तौर पर समर्थक हूं। मैं सिर्फ ये चाहता हूं कि आप मेरा प्रचार करना बंद कर दीजिए। मैं चुपचाप काम करने में यकीन करता हूं। मुझे काम करने दीजिए, मेरे रास्ते में मत आइए।'
'मैं सिर्फ अपना धर्म निभा रहा हूं।'
'आप अपना धर्म मेरे हाथों बेच दीजिए'- बीडीओ साहब उत्तेजित होकर कहते हैं- 'अच्छी कीमत दूंगा।'
'वरना?'
'वरना मुझे आपके सिर की कीमत लगानी पड़ेगी। पांच-सात हजार में तो आजकल आसानी से किसी का सिर खरीदा जा सकता है।'
'इतना लंबा-चौड़ा कारोबार हो गया आपका?'
'तुम्हारी समझ का फेर है फेरई उर्फ रामफेर उर्फ विद्रोही उर्फ चार सौ बीस जी।' लौटन बाबू दांत पीसते हुए कहते हैं- 'तुम्हारे आजा और बाप ने जितना कर्जा खाया है मेरे बाप-दादों का, अगर वही निकालकर जोड़ दिया जाए तो पूरी उमर 'उरिन' नहीं हो पाओगे। यह समय का फेर है जो आमने-सामने टिपिर-टिपिर बात कर रहे हो। चलिए बीडीओ साहब।' वे उठकर खड़े हो जाते हैं, 'मैं सब देख लूंगा।'
'अभी दस साल भी नहीं हुए आपको सिंधी के भट्ठे की मुंशीगीरी छोड़े हुए। आपके बाप उसी भट्ठे पर बैलगाड़ी हांकते हुए मरे, दुनिया जानती है। फिर कर्जा कहां से दिया तुम्हारे आजा ने। ये सब सुनाना है तो बीडीओ साहब को अकेले में सुनाओ। जाओ।'
तब तक विद्रोही जी का छोटा लड़का आकर बताता है- 'अम्मा कहिन हैं, चीनी खतम है। चाह ना मिली।'
लड़के की बात किसी को सुनाई नहीं पड़ती। वह डर कर बाहर चला जाता है- यहां तो झगड़ा हो रहा है।
बीडीओ साहब धीरे-धीरे कुर्सी से उठते हैं- 'विद्रोही जी एक बात आप अच्छी तरह जान लीजिए। प्रदर्शन, ज्ञापन और शिकायत से किसी अधिकारी का रोंवा तक टेढ़ा नहीं होता। हाथी चले जाते हैं, कुत्ते भौंकते रहते हैं। समझदार वह है, जो समझदारी का काम करे।'
'अच्छा तो अब मैं जूता उतारूंगा।' विद्रोही जी कहते हैं- 'मेरी समझदारी यही कहती है।'
'क्या?' बीडीओ साहब और लौटन जी दोनों हतप्रभ हो जाते हैं।
'हां, जब कील चुभती है तो दर्द होता है। ऐसे में दो ही रास्ते हैं, आप जूता उतारें या चुपचाप कील का दर्द बर्दाश्त करते रहें।' विद्रोही जी झुकते हैं।
जरा-सा भी टस-से-मस नहीं हो रहा है ये आदमी। बीडीओ साहब चिंतित हैं।
'देखिए, मैं सीरियसली बात करने के लिए आया हूं। दीवार, दीवार होती है, सिर, सिर होता है। सिर चाहे जितने बड़े घाघ का हो, दीवार से टकरायेगा तो उसे फूटना-ही-फूटना है। दीवार का कुछ नहीं होगा। हम हाथी हैं। दीवार हैं। सरकार हैं।'
'आपको गलतफहमी है बीडीओ साहब। दीवार भी हम हैं, सरकार भी हम हैं। हम- यानी किसान, मजदूर, आम जनता। आप सिर्फ कुत्ते हैं जो भूंक रहे हैं। घाघ के सिर हैं, जिसे फूटना-ही-फूटना है। भले देर लगे।'
लौटन सिंह से बर्दाश्त नहीं होता। इतनी बेइज्जती! क्या सोचेंगे बीडीओ साहब। वे गरजते हुए लपक कर विद्रोही जी का कुर्ता गले से पकड़ लेते हैं। दोनों गुत्थमगुत्था। बीडीओ साहब दोनों को छुड़ा रहे हैं।
तब तक बाहर हल्ला-गुल्ला मच जाता है। विद्रोही जी के लड़के ने थोड़ी देर पहले बाहर जाकर बता दिया कि अंदर लौटन सिंह और उनके आदमी बप्पा से झगड़ रहे हैं। देखते-देखते पचीस-तीस लोगों की भीड़ ने बाहर खड़े दोनों बंदूकधारियों को घेर लिया है।
लौटन सिंह- बाहर निकलो!
लौटन सिंह- मुर्दाबाद!
अंदर तीनों आदमी पूर्ण-विराम की तरह खड़े हैं।
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