Sunday, August 21, 2016

घीसू-माधो की तीसरी पीढ़ी की दास्तान


मेरे ऊपर केन्द्रित संवेद 73-75 अक्टूबर-दिसम्बर 2014 अंक में मेरी कहानी ‘बनाना रिपब्लिक’ पर वरिष्ठ आलोचक ओम प्रकाश मिश्र का लेख-

घीसू-माधो की तीसरी पीढ़ी की दास्तानउर्फ ‘बनाना रिपब्लिक’



शिवमूर्ति कम लिखते हैं, लेकिन जितना लिखते हैं उसी से वे अपने कम लिखने की भरपाई भी कर देते हैं। बल्कि सूद ब्याज समेत लौटाते हैं अपेक्षाएं। उनकी एक कहानी पढ़ लेने के बाद महीनों तक मन तृप्त रहता है। उसी कहानी को दुबारा तिबारा, चैबारा जितनी बार भी पढ़ा जाय हर बार कुछ नये वातायन खुलते ही है। यही नहीं उनकी हर अगली कहानी कहीं न कहीं पहले वाली कहानियों से आगे बढ़ी होती है।
इस संदर्भ में मैं चर्चा करना चाहता हूँ उनकी ताजा कहानी ‘बनाना रिपब्लिक’ की। यह कहानी कई मायने में मुझे उनकी अब तक की अन्य कहानियों से आगे बढ़ी हुई लगती है। कहानी के साथ ट्रीटमेंट से लेकर उसके फलक के विस्तार तक और सम्प्रेशणीयता से लेकर पठनीयता तक, पात्रों के चरित्र की बारीक अभिव्यंजनाओं से लेकर परिवेष की अंतरंग समझ तक और भाशा के लालित्य से लेकर मुहावरेदानी के भंडार तक हर जगह इस कहानी में पहले  की तुलना में विकासमान गति प्रतिबिम्बित होती है।
सत्ता विकेन्द्रीकरण की एक महीन किरण गाँव तक पहुँचने के बाद से ही पूर्वी उत्तर प्रदेष के गावों में ही वर्ग और वर्ण के समीकरणों में बदलाव षुरू हो गये। इस बदलाव की सबसे ताज़ा अभिव्यक्ति है ‘बनाना रिपब्लिक’, जो षिवमूर्ति जी की सधी कलम से निकलकर वर्तमान पूर्वी उत्तर प्रदेष के देहात की एक जीवंत और सच्ची तस्वीर बन गई है। एक तरफ जहां यह कहानी देहाती षक्ति संतुलन में दलितों के बढ़ते हुए प्रभुत्व को रेखांकित करती है, वहीं प्रभु वर्गों/ जातियों की समस्त छल छद्म व स्वार्थ परक चेतना को आत्मसात कर लेने के बावजूद दलित चेतना में क्रांतिकारी तत्वों के समावेष हो जाने की भी सूचना देती है। कहानी में ‘‘चुनाव परिणाम में’’ फुलझरिया को न0 2 पर दिखा कर लेखक एक इषारा तो कर ही देता है कि अगले दौर के समीकरण की क्या सम्भावनाएं हैं।
षिवमूर्ति जी की कहानियों में मानवीय संवेदना तथा स्त्री विमर्ष की ही अधिक अभिव्यक्ति मानने वाले लोगों के लिए यह कहानी एक बदले हुए अंदाज़ की अलग कलात्मक स्तर की कहानी नजर आयेगी जहां उन्होंने गावों के राजनीतिक विष्लेशण जैसे सूखे विशय को केवल इषारों, संवेदनाओं और कथा प्रवाह में घोलकर पूरी भव्यता के साथ प्रकट किया है। कहानी के पाठक को वर्ग विष्लेषण जैसी अरुचिकर अनुभूति हुए बिना ही गाँव का पूरा वर्ग विष्लेशण आत्मसात् हो जाता है। वर्ण के साथ वर्ग चरित्र भी स्पश्ट हो जाता है।
‘बनाना रिपब्लिक’ दलित जग्गू के सत्ता पर आधिपत्य का एक नया सपना लेकर ठाकुर की दालान से निकलने से षुरू होती है, जब खुषी उसके संभाले संभल नहीं रही होती, दिल धाड़-धाड़ बज रहा होता है, और खत्म होती है उस सपने के पूरा होने के बाद, जग्गू के अपने दरवाज़े पर ठाकुर की सारी अकड़ और सत्ता की हनक भरभरा कर घुटनों के बल आ जाने और षक्ति संतुलन की इस मज़बूरी में कहे गये वाक्य - ‘‘पानी पीने से ही साथ पक्का होता हो तो कहो बाल्टी भर पी जाऊँ।’’, और उन्हें नाचने के लिए लड़कों द्वारा खींच कर कहे गये वाक्य - ‘‘जरा कमरिया तो लचकाइए ठाकुर’’, और कुबरी वाला हाथ उठाकर मटकते लचकते ठाकुर के दृष्य से। यहां यह कहानी मुंषी प्रेमचन्द की अमर कृति ‘कफ़न’ का कलेवर तोड़कर दलित चेतना के वर्तमान क्षितिज पर हुए क्रांतिकारी विस्फोट की परिघटना की अभिव्यक्ति बन जाती है और अपने राजनीतिक निहितार्थ में ‘कफ़न’ से आगे बढ़ जाती है। प्रेमचन्द के समय के यथास्थितिवादी सोच के मारे दलित पात्र घीसू व माधो की तत्कालीन क्रांतिकारिता इस बात में निहित थी कि वे अपनी मेहनत का सम्पूर्ण मूल्य प्रभु वर्गों द्वारा हड़प लिए जाने की हजारोें वर्षों की अटूट परम्परा के प्रति विद्रोह को उत्पादक श्रम से भागने और इस प्रकार उस लूटतंत्र को ठेंगा दिखाने की अपनी प्रकृति में अभिव्यक्त करते हैं। लेकिन सब कुछ के बाद भी ‘कफ़न’ के अंत में - ‘‘फिर दोनो नाचने लगे। उछले भी कूदे भी। गिरे भी, मटके भी। भाव भी बताये, अभिनय भी किये और आख़िर नषे से मदमस्त होकर गिर पड़े।’’ घीसू, माधो का यह गिर पड़ना तत्कालीन दलित समाज की नियति थी जो औपनिवेषिक गुलामी के टूटे बिना बदल नहीं सकती थी। क्योंकि सामंती व्यवस्था को इसी गुलामी के द्वारा जमींदारी की खुराक मिल रही थी। इसके विपरीत ‘बनाना रिपब्लिक’ में जब ठाकुर के पहुँचने पर लड़कों द्वारा कहा जाता है - ‘‘ जरा कमरिया भी लचकाइये ठाकुर’’ तो ‘‘कुबरी वाला हाथ उठाकर वे मटकने- लचकने लगते हैं’’। उस समय बरबस बचपन में गाँव में देखे गये बन्दर के नाच और मदारी के डमरू की याद आ जाती है। ‘बनाना रिपब्लिक’ के अंत में घीसू, माधो की पीढ़ी की जगह लड़कों की गोल नाच रही होती है जो घीसू-माधो की तरह नषे में मदमस्त होकर गिरने के लिए अभिषप्त नहीं हैं, बल्कि इसके उलट यह गोल ठाकुर के पंजे में पंजा फंसाकर दायें बायंे हिलाते हुए उन्हें नाचने पर मज़बूर भी कर देती है। षिवमूर्ति जी अपनी इषारों में बात कहने की षैली में ‘‘पंजे में पंजा फंसाकर’’ पद इस्तेमाल करके दोनो वर्गों के सीधे संघर्ष में उतरे होने की बात को कलात्मक ढंग से कह जाते हैं।
‘कफ़न’ जहां तात्कालिक भारतीय गांव को एक टेलिस्कोपिक-व्यू से देखती है, वहीं ‘बनाना रिपब्लिक’ आज के देहात को माइक्रोस्कोपिक-व्यू से देखती है। उनकी निगाह से कोई घटना, कोई बिम्ब, किसी सूखे पत्ते के हिलने की खड़खड़ाहट तक छुपी नहीं रहती। यद्यपि इस दलित उभार से अभिभूत है, फिर भी उसकी एकता में, या प्रस्थान बिंदु में जहां वह कोई कमी देखता है, उसे छुपाता नहीं बल्कि इषारों में व्यक्त कर देता है। वोट की राजनीति ने जहां दलितों को एकताबद्ध किया है वहीं दलित समुदाय के भीतर भी इस वोट की राजनीति से ही जातीय स्तर के बटवारे की ध्वनि लेखक के सचेत कानों से बच नही पाती-
‘‘अपनी बिरादरी मे परधानी की कुर्सी आये इससे बढ़कर खुषी की बात क्या होगी! पासी, धोबी, खटिक, चमार की बिरादरी के परधान तो आस पास बहुत सुने गये है, लेकिन अपनी बिरादरी का ? एक भी नहीं। हम लोग तुम्हें जिताने के लिए रात दिन एक कर देंगे।’’
गाँव के लड़कों द्वारा कहा गया यह वाक्य जाति के भीतर जाति के स्तरीकरण की तरफ लेखक का प्रष्नवाचक इषारा भी है। इस वाक्य का यहां कहा जाना ही यह प्रकट करता है कि लेखक इस सत्य को पाठकों के सम्मुख रखते हुए भी इससे नापसंदगी रखता है। जहां ‘कफ़न’ में प्रेमचन्द के पात्रों घीसू व माधो की क्रांतिकारिता तत्कालीन सामंती अर्थव्यवस्था दलित श्रम पर निर्भरता और उसी श्रम के षोशण की क्रूर परम्परा का मखौल उड़ाती हुई उसकी विद्रूपता का उद्घाटन तथा उसी विद्रूपता और ठण्डी क्रूरता से उसका जवाब बन जाने में है, वहां ‘बनाना रिपब्लिक’ में ठाकुर द्वारा कहा गया महावाक्य - ‘‘अगर पानी पीने से ही साथ पक्का होता हो तो बाल्टी भर पी जाऊँ’’ इस बात की तरफ संकेत करता है कि अब सहारे और साथ की जरूरत ठाकुर यानी प्रभु वर्ग/जातियों को है, दलित समुदाय को नहीं।
जैसी उनकी आदत है, इस कहानी का वितान भी षिवमूर्ति जी ने बहुत सोच समझकर ताना है और चरित्रों को रत्ती माषा तौल तौल कर उसमें रखा है। इससे प्रदेष के राजनीतिक समीकरणों की एक, लगभग धुंधली ही सही, छाया गाँव में नजर आ ही जाती है, जो वास्तविकता भी है। 
इसके मुख्य चरित्रों में एक दूसरे के दुष्मन ठाकुर और पदारथ पुराने प्रभु वर्ग के प्रतिनिधि हैं, तो जग्गू और मुन्दर नये उभरते दलित फैक्टर के प्रतिनिधि है, जो सत्ता सुख में अपना हिस्सा बटाने के लिए किसी भी स्तर तक जा सकते हैं। क्रांतिकारी संघर्ष धारा की प्रतिनिधि फुलझरिया है, तो पुलिस कचहरी और प्रभु वर्ग से जोड़ तोड़ में माहिर मुंषी जी भी हैं, जो अपनी भर निगाह से जिस तरफ देख लें उधर की सारी हरीतिमा सूख जाय।
ज़मींदारी भले चली गई, लेकिन सामंती मानसिकता गाँव देहात में अभी भी अपनी पूरी सांस्कृतिक विरासत के साथ बरक़रार है। कहानी खुद बोलती है - ‘‘यह नाहरगढ़ गाँव उनके पुरखों का बसाया हुआ है पुराना खंडहर हो चुका घर अभी भी गढ़ी कहलाता है। मास्टराइन राजगढ़ स्टेट की राजकुमारी हैं। किसी ग़ैर की मौज़ूदगी में वे हमेषा उन्हें रानी साहब ही कह कर पुकारते हैं।’’ इन तीन वाक्यों में ही ठाकुर के मन में बसे सामंती परिवेष की अतीत से लेकर अब तक निरंतरता ध्वनित हो जाती है। पूरा आर्थिक सामाजिक ढांचा ध्वस्त हो चुका है लेकिन खंडहर हट नहीं पाया है। न अपनी जगह से हटा है न ठाकुर के मन से। अकेले में वे खुद जानते हैं सच्चाई, लेकिन किसी ग़ैर की मौजूदगी में अपनी पत्नी मास्टराइन को ‘रानी साहब’ कहकर ही पुकारते हैं। यह इस तथ्य का कितना अच्छा प्रस्तुतीकरण है कि सामंतवाद का अवषेश हमेषा अतीत में ही जीवन के तत्व खोजता है वहीं से बल प्राप्त करता है और उसी से वर्तमान को डराने की कोषिष करता है। भविश्य की तरफ कभी इस अवषिष्ट सामंतवाद की निगाह नहीं होती, वह तो वर्तमान को अतीत सदृष बनाने के सपनों में ही खोया रहता है आने वाले भविष्य की तरफ से पीठ फेर लेता है, अतीत की तरफ उन्मुख होता है और एक दिन स्वयं अतीत बन जाता है।
सामंतवाद का मुख्य और सबसे ख़तरनाक सांस्कृतिक अवषेष जिसपर उसकी पूरी चेतना आधारित है, पितृसत्तात्मक परिवार और पुरूष सत्तात्मक समाज व्यवस्था है जो अपनी पूरी अकड़ के साथ हर जगह मौजूद है। सामंती मानसिकता व समाज व्यवस्था की प्रमुख खासियत है कि जहां यह व्यवस्था सबसे अधिक मजबूत होती है वहीं स्त्री सबसे अधिक उत्पीड़ित व षोशित होती है। वहां स्त्री सबसे अधिक पिछड़ी अवस्था में भी होती है और इसी कारण वही विकासमान परिवर्तन की सबसे प्रबल विरोधी भी होती है। षिवमूर्ति जी कहानी में इस बात को एक छोटे से पैराग्राफ में ही कह जाते हैं -‘‘ पिछड़ी या दलित औरतें तो सभा जलूस या मेले ठेले में भी चली जाती हैं, सवर्ण औरतों की बड़ी आबादी अभी भी गाँव से बाहर नहीं निकलती। मायके से विदा हुई तो ससुराल मे समा गई। ससुराल से निकलती हैं तो सीधे श्मषान के लिए। देवी के थान पर लपसी सोहारी चढ़ाने के लिए जाना ही उनकी तीर्थयात्रा या पिकनिक है। ऐसी एक बड़ी आबादी है जो जाति व्यवस्था को ब्रह्मा की लकीर मानती है।’’ सामंत के अपने ही घर के भीतर उससे सबसे अधिक उत्पीड़ित प्राणी उसकी स्त्री और पुत्री का वास होता है इसे कौन नहीं जानता। स्त्री का आदर्ष उनके यहां लंगड़े-लूले, षराबी-कबाबी, कोढ़ी, क्रूर, चरित्रहीन जैसे भी पति के गले बंध गई हो उसकी एकांतिक सेवा मात्र, तथा विधवा होने पर अग्निप्रवेष या पूरे जीवन को तिल-तिल जला देना है। बेटी को जहां हांक दिया जाये वहां आंख मूंदकर चला जाना और पितृकुल का नाम (सामंती अहंकार) रोषन करने के लिए होम हो जाना है। इस बात को इससे अधिक कलात्मक और संक्षिप्त रूप से नहीं कहा जा सकता जैसा षिवमूर्ति जी ने कहा है।
दूसरी तरफ दलित तबके की नई पीढ़ी में परिवर्तन के प्रति सकारात्मक रवैया और जोखिम उठाने का साहस है जो जग्गू में प्रतिबिम्बित होता है, जबकि पुरानी पीढ़ी में यथास्थितिवाद की पुरानी सोच बरकरार है। किसी भी तरह का जोखिम उठाने से वह पीढ़ी डरती है। इसका प्रतिनिधि है- बदलू, जग्गू का बाप। उसका पुराना अनुभव बोलता है- 
‘‘न बेटा। ए काम ठीक नहीं, परधानी का बवंडर हम नहीं संभाल सकते। उड़ जाएंगे।’’
और जब जग्गू उसे परधानी से होने वाली आय का अंदाज लगाकर पचीस लाख का सपना दिखाता है तो भी प्रतिक्रिया में बाप का अनुभव झुंझला गया- ‘‘इतने पैसे का हम करेंगे क्या? रक्खेंगे कहां? वही ठाकुर रात में सब लूट ले जाएगा।’’
सच पूछिए तो ‘कफ़न’ के समय का वह बच्चा अगर बुधिया के पेट में ही मर न गया होता, तो बड़ा होकर आज बदलू में ही अभिव्यक्त होता इस लिहाज से बदलू घीसू-माधो की अगली पीढ़ी है और ठाकुर की प्रकृति से, उसकी एक एक चाल से वाकिफ है। वह अपनी पुरानी कमजोरी के प्रति सचेत होने के कारण हमेषा बचाव की मुद्रा में है। बदलू की यह अनुभवजन्य दूरदर्षिता कहानी में आगे भी प्रमाणित होती है जब ठाकुर की चालें एक एक कर उजागर होती है कि कैसे वह बदलू की जमीन हड़प करने की जुगत में है।
बचाव की सारी दूरदर्षिता और दुष्मन की हर चाल से परिचित होत हुए भी यह पीढ़ी अपनी नौजवानी में तनकर उठ खड़े होने और पलटवार कर पाने में असमर्थ रही। इसका कारण सिर्फ यह है कि इस पीढ़ी ने बरतानवी निरंकुष षासन के साये तले सामंती दहषत झेलते हुए, केन्द्रीय सत्ता से लेकर गाँव में उसके आखि़री प्रतिनिधि तक को एक ही सूत्र में पिरोया हुआ देखा है, और इस सम्मिलित विराट दमनकारी मषीन के आगे स्वयं को बिल्कुल असहाय महसूस किया है। जबकि जग्गू, मुन्दर और फुलझरिया की पहली पीढ़ी ने जिस हवा में पहली सांस ली, वह समस्त षोशणतन्त्रों की बूढ़ी हड्डियों में कंपकपी पैदा करने वाले उस महान वासंती वज्रनाद के बाद की हवा है जो दार्जिलिंग के एक छोटे से गाँव में 1967 में खेतिहर मजदूरों- किसानों द्वारा हवा में बारूद की गंध भरकर किया गया था। वहां से चली यह हवा बिहार के धधकते खेत खलिहानों से गुजर कर जब तक पूर्वी उत्तर प्रदेष में ‘बनाना रिपब्लिक’ के इस गाँव में पहुँची, तब तक यहां मंडल आयोग और हरिजन उत्पीड़न एक्ट जैसी तूफानी आंधियां व्यापक समाज को अपने चपेटे में ले चुकी थीं। देहात के पुराने षक्ति संतुलन के भरभरा कर ढहने का आभास देते, और ताष के महल की तरह एक-एक पत्ता उड़ाते दलित उभार प्रकट हो चुका था। गाँव के भीतरी दमन तंत्र के प्राण जिस तोते में बसते थे उसका गला दलित उभार की संचालक षक्तियों के हाथ में आ चुका था। प्रषासन में सामन्ती दबंगों की आक्टोपसी जकड़ कमजोर हो चुकी थी। इसीलिए इस कहानी में इस नई पीढ़ी का प्रतिनिधि जग्गू सोचता है- ‘‘जगतनरायन तो फिर भी ठीक था, लेकिन लोगों ने उसे भी काटकर बांड़ा कर डाला - जग्गू। परधानी मिल जाय, हीरोहोण्डा मिल जाय और नाम बदल जाय, या एक कायदे का सरनेम मिल जाय, जिसमें थोड़ा रूआब झरे। ‘टाइगर’ कैसा रहेगा।’’
और जब एक रात जग्गू ठाकुर से बात करके लौट रहा होता है तो कथाकार उसकी सोच का वर्णन इन षब्दों में करता है - ‘‘उसे यह देखकर बड़ी राहत महसूस हुई कि आज उसे इज्जत के साथ बुला रहा था ठाकुर - ‘‘ लिखो, सुनो, बैठो, देखो। पहले की तरह लिख, सुन, बैठ, देख नहीं। षुरू में एक बार अबे बोला था, बस।’’ यह सम्मान प्राप्त करने की पहली आहट है जग्गू के हृदय में जिसपर तुरंत ध्यान दिया है लेखक नें। बल्कि षिवमूर्ति का कलाकार इसमें भी कलात्मकता से एक इषारा कर जाता है। जहां ठाकुर द्वारा लिख, सुन, बैठ, देख की जगह लिखो, सुनो, बैठो, देखो से सम्बोधित करके जग्गू का स्तर एक डिग्री उठाया गया है, वहीं जग्गू के मन में ठाकुर का भय कम हो गया है। तथा वह अपने मन की भाशा में ठाकुर के प्रति सम्बोधन में बदलाव लाया है और ‘इज्जत के साथ बुला रहे थे’ की जगह वह ‘इज्जत के साथ बुला रहा था’ पद का प्रयोग करता है।
षिवमूर्ति बहुत ही सावधान लेखक हैं और कहीं चूक की गुंजाइष नहीं छोड़ते चरित्र गढ़ते समय। वे अपनी हर कहानी पर कई-कई बार काम करते हैं, तब कहीं जाकर चरित्र पूर्ण होता है। साधारण दलित के कमजोर व्यक्तित्व से नेता बनने की प्रक्रिया का वर्णन वे एक पैराग्राफ में करते हैं - ‘‘जग्गू को लग रहा है कि अभी उसके मुँह से बात की धार नहीं फूट रही। जिस तरह षहर के कचहरी गेट पर सांडे का तेल बेचने वाला मजमेबाज बोलता है .....। अपना चेहरा भी उसे भकुआया सा लग रहा है। भावषून्य। मुस्कराहट का नाम नहीं। ऐसा ही चेहरा देखा था उसने फूलन का। जब वह भदोही में पहली बार अपना चुनाव प्रचार करने निकली थी। आज की रात वह हंसने लपक कर मिलने और धुंआधार बोलने का अभ्यास करेगा- भाइयों और बहनों ....’’। यह पूरा पैराग्राफ केवल जग्गू के चरित्र चित्रण की बारीक़ी, जग्गू से जगतनरायन तक की पुनर्यात्रा की उसकी ललक और उसके लिए मन प्राण से जुटने की प्रक्रिया को प्रदर्षित करता है। और आगे आने वाले बड़े परिवर्तनों की पृश्ठभूमि तैयार करता है इस एक ही पैराग्राफ से षिवमूर्ति उस ऐतिहासिक परिवर्तन की प्रक्रिया के एक ऐेसे महत्वपूर्ण अंष की सचित्र झांकी प्रस्तुत करते हैं जो जहां घीसू-माधो की हर तरह से कमज़ोर संतानों को इसी व्यवस्था के अन्दर षक्ति संतुलन की केन्द्रीय पीठिका पर क़ाबिज़ हो पाने के आवष्यक औज़ारों से लैस करता है, वहीं सम्पूर्ण व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई के लिए तैयार होते जनसमुदाय के आक्रोष को एक सेफ्टीवाल्व की तरह षमित करता है और उस संघर्ष को एक तात्कालिक स्थगन प्रदान करता है। किन्तु यही धीरे-धीरे जातीय विघटन के द्वारा सांमती अवषेषों को जड़ से समाप्त करने के संघर्ष के लिए परिस्थितियां तैयार करता है। एक सोच विकसित हुई पिछले दिनों कि आरक्षण के नाते दलित समुदाय को अयोग्य होते हुए भी सवर्णों का गला काटकर जिन स्थानों पर बैठा दिया जा रहा है, वहां वे कामयाब नहीं हो पायेंगे, और जल्दी ही औंधे मुंह गिर पड़ेंगे। इस सोच के जवाब में षिवमूर्ति इस कहानी में बता रहे हैं कि दलित कितना सचेत है और अपनी योग्यता बढ़ाने तथा स्वयं को योग्य साबित करने के लिए वह कितनी कठिन मेहनत करने के लिए तैयार है। अपनी इस नई भूमिका में खरा उतरने के लिए उसकी संकल्प शक्ति को ही दिखाना चाहते हैं षिवमूर्ति। 
इस कहानी में जग्गू कोई ऐसा चरित्र नहीं है, जो किसी आमूल परिवर्तन की बात करे या किसी बुनियादी बदलाव का सपना देखे। यह सिर्फ प्रभुता के ग्लैमर से आक्रांत, हजारों सालों से दमित परिस्थितियों में घुटती दलित पीढ़ी, की एक सुखी जीवन की चाह की आदिम इच्छा की अभिव्यक्ति करता हुआ एक किरदार है, जो अपमानित और लांछित जीवन में सम्मान का एक प्राथमिक स्वप्न अपनी आंखों में सजा चुका है। प्रभुवर्ग की चमकती छवियों के स्वप्न देखता यह पात्र उस वर्ग की तमाम बुराइयों का वाहक भी बन गया है। अपनी उद्देष्य पूर्ति के लिए यह किसी भी तरह का समझौता करने को तैयार है -
‘‘ मुन्दर और जग्गू अपने अपने भण्डारे का इन्तजाम तम्बू के बाहर रह कर ही कर रहे हैं। बारहो बरन का भण्डारा है। चूल्हे चैकी में अभी भी सोलहवीं षताब्दी चल रही है। अन्दर घुसने से छुआछूत का सवाल खड़ा हो सकता है। ऐसे नाज़ुक मौके पर रिस्क लेना .................।’’ षिवमूर्ति बिल्कुल ठोस धरातल के कथाकार हैं। कहीं से काल्पनिक परिस्थितियों की सृश्टि करना उनकी प्रकृति में नहीं है। दलित चेतना का विस्तार जहां तक है उससे बहुत आगे बढ़ाकर उसे त्रुटि विहीन और आदर्ष स्थिति में चित्रित करना भी उनका लक्ष्य नहीं है। वे इस चेतना को तमाम अच्छाइयों बुराइयों के साथ ही पाठकों के समक्ष रखने को प्रतिबद्ध हैं। कहानी में ठाकुर जग्गू की सड़क किनारे वाली जमीन रेहन रखवाकर उसे रूपया उधार देने और फिर बाद में यदि जग्गू लौटा न पाए तो सड़क के किनारे की क़ीमती जमीन मुफ़्त में हथियाने के चक्कर में है। ऐसी धूर्तता का पैंतरा लड़ाई में विजय के लिए जग्गू भी सीख गया है और रेहन के कागज पर अपनी पत्नी के पैर का अंगूठा लगवाकर फ़र्ज़ी काग़़ज ठाकुर को देकर रूपया ले लेता है।
जब षिवमूर्ति प्रभुवर्ग की मानसिकता का चित्रण करते हैं तो आज की राजनीति के अपराधीकरण की प्रतिच्छाया गाँव पर पड़ती हुई उन्हें स्पश्ट दिखाई दे जाती है। येन केन प्रकारेण सत्ता की बागडोर हथियाये रखना तथा पुरानी राजगद्दी पर बैठे अपने षासन की अभिव्यक्ति को उसके क्रूरतम फासिस्ट स्वरूप तक ले जाने की प्रभुवर्ग की मंषा उनकी आखों से छुप नहीं पाती और क़लम अभिव्यक्त करने से रुक नहीं पाती -
‘‘अच्छा बाबू भवानी बकस सिंह आप तो पालिटिक्स पढ़ाते हैं, ऐसा नहीं हो सकता कि जीते कोई भी साला, उसे पकड़कर अपने नाम मुख़्तारनामा लिखाओ ....... क्या कहते हैं उसे अंग्रेजी में?’’
‘‘पावर आफ एटार्नी ........’’ 
‘‘हाँ वही! और फिर ठाँस के परधानी करो।’’
आगे भी एक जगह इस अपराधीकरण की अभिव्यक्ति देखें - 
‘‘हाँ कलजुग के आखिरी चरण में एक दिन ऐसा आएगा जब एम.पी., एम.एल.ए. की सारी सीटों पर खूनी कतली लोगों का कब्जा हो जाएगा। तब सब मिलकर देसवा का बंटवारा करेंगे। उस बंटवारे में हम लोगों को भी हिस्सा मिलेगा।’’
भवानी बकस सिंह की लड़खड़ाती आवाज़ नषे मे डूबी है-     ‘‘क्लेप्टोक्रेसी ..ई..ई! क्लेप्टोक्रेसी ..ई..ई..ई!’’
भवानी बकस सिंह पाॅलिटिक्स के अध्यापक हैं। राजनीतिषास्त्र में क्लेप्टोक्रेसी पढ़ाने के लिए चाहे जितने लेक्चर दिये जाते हों लेकिन अपराधियों द्वारा धीरे-धीरे राजनीतिक सत्ता पर हावी होने, षिकंजा कसते चले जाने की प्रक्रिया तथा उसके परिणाम को जितनी छोटी षब्दावली में और सरल भाशा में यह कहानी समझा देती है वह पाठक के भीतर तीर की तरह धंसकर कहीं फंस जाता है। ग़ालिब ने आधी प्रत्यंचा खींचकर हल्के जोर से छोड़े गये उस तीर की तारीफ़ में, जो दिल को पूरा नहीं बेधता और बराबर टीसता रहता है, कहा है- 
कोई  मेरे दिल से पूछे तिरे  तीरे  नीमकष  को, 
ये ख़लिष कहां से होती जो जिगर के पार होता।
यह प्रसंग हमारे लोकतन्त्र की पोल खोलता है और इस देष में क्लेप्टोक्रेसी की निरंतरता, चोरों और लुटेरों द्वारा सत्ता पर क़ब्जा करने की प्राचीन परंपरा के बरकरार रहने की तरफ इषारा करता है तथा लोकतंत्र नामक झूठ के नक़ाब के अन्दर से झांकते एक क्रूर अपराधी चेहरे का आईना बन जाता है। यह साबित कर देता है कि गाँव के स्तर तक अपराधी प्रवृत्ति का सत्ता से गंठजोड़ और याराना कितना प्रबल है। सत्ता चाहे जिस पार्टी की हो गंठजोड़ की प्रकृति यही रहती है।
गाँव तक पहुँचते-पहुँचते सत्ता के विकेन्द्रीकरण के नारे का सही अर्थ कैसे लूट के विकेन्द्रीकरण में बदल जाता है, इसका पर्दाफाष कहानी बड़े स्वाभाविक ढंग से करती है-
‘‘घंटे भर में पूरे गाँव को पता चल गया कि पक्की सड़क से मुसलमान टोले के करीब आधा कि.मी. और हरिजन टोले के करीब ढाई तीन सौ मीटर लम्बे कच्चे रास्ते पर कागजों में दो साल पहले ही खड़ंजा बन गया है।’’ 
‘‘ लीजिए अपनी आंख से पढ़ लीजिए आप लोग। यही हैं भुगतान किये गये बिलों की फोटो कापियां।.......... और मौके पर एक भी ईंट लगी हो तो बताइये। चार लाख सत्तर हजार रुपये पूरे के पूरे हजम। लोग दस बीस परसेंट खाते हैं। चग्घड़ से चग्घड़ विधायक भी विधायक निधि का पचास परसेंट से ज्यादा नहीं खा पाता। लेकिन आप का परधान सौ का सौ परसेंट हजम कर गया। अब आप लोग खुद फैसला करें।’’
यह कमीषनख़ोरी और दलाली की रवायत जो हमारे लोकतंत्र की नसों में ख़ून की तरह दौड रही है, केवल हमारे देहात की छवि नहीं है बल्कि समूचे देष की लोकतांत्रिक प्रकृति और संवेदना की एक जानी समझी सच्चाई, स्वीकृत अपरिहार्य बुराई जैसी षक्ल अख़्तियार कर चुकी है। स्वीकृति की एक अन्तरधारा हर जगह हर समय अपनी उपस्थिति दर्ज कराती रहती है- ‘खाओ लेकिन संभाल कर खाओ’।
साम्राज्यवादी पूंजी जब देष में प्रवेष करती है तो अपने साथ अपनी संस्कृति भी बिना मांगे वैसे ही लेकर आती है जैसे पुराने राजघरानों में बेटी के विदा होते समय उसकी दास दासियां भी दहेज के सामान की तरह उसके ससुराल भेज दी जाती थीं। कुछ वैसी ही प्रक्रिया हुई है सत्ता विकेन्द्रकरण अभियान के साथ। सत्ता की हनक, लाखों रुपये खर्चने की षक्ति के साथ -साथ इस दोमुंही राजनीति की तमाम बुराइयां भी देहात में प्रवेष कर गई हैं। जोड़-तोड़, छल-छद्म, कानूनों को तोड़मरोड़ कर अपन पक्ष में करने के नियोजित शडयंत्रों के सिलसिले, षराब की नदियां, नारी का गिरता सम्मान, धोखा, फरेब, सबको चूना लगाने की यथासम्भव कोषिष, नैसर्गिक प्रेम का अभाव, और सबके ऊपर पसरता हुआ संवेदनहीनता का दमघोंटू घनघोर सन्नाटा! कुल मिलाकर उसी क्लेप्टोक्रेसी की ज़िन्दा तस्वीर नुमायां होती हुई! इतना वीभत्स तो नहीं था हमारे गाँव का माहौल हमारे बचपन में। आज इस बदबूदार बजबजाते माहौल में केवल दलित विमर्ष और स्त्री की आज़ादी की चाहत ही एक ताजा हवा का झोंका बनकर कभी कभी राहत दे देती हैं और हमें मनुश्य होने का अहसास करा जाती हैं। अन्यथा अब गाँव इतना विद्रूप हो गया है कि न तो पहचान में आता है न पकड़ में आता है। वैसे टूटते सड़ते सामन्तवाद की यह परिणति बहुत अस्वाभाविक भी नहीं है, चाहे जितनी तकलीफदेह हो, हज़ारों सालों की गहरी आस्थाओं की टूटन का दर्द तो हर जगह अभिव्यक्त होगा ही। बदलाव की इस प्रक्रिया व उसके परिणामों पर इतनी गहरी सूक्ष्मदर्षी दृश्टि है इस कहानी के कथाकार की कि हर परत उधेड़ देती है। नसों से बहने वाले खून की तरह पूरी कहानी में यह सूक्ष्म दृश्टि बिखरी हुई है।
नेताओं द्वारा वोट खरीदने की लगातार प्रवृत्ति के चलते जनता के मन में वोट की क़ीमत अपनी सरकार बनाने से गिरकर कहां पहुंच गई है इसकी व्यंजना लेखक की क़लम से देखें-
‘‘बरेठा!’’ झुकी कमर के चलते बूढ़ी को सिर ज्यादा उठाना पड़ रहा है। पोपले मुंह से मुस्कुराती हुई वे कहती हैं, ‘‘तुम्हें तो असली कुर्सी मिलेगी और हमें कागज की दिखा रहे हो। असली कहां है?’’
लोग जानते है कि बस चुनाव हो जाने के बाद कुछ नहीं मिलने वाला है, इसलिए माले ग़नीमत के रूप में वोट देने से पहले ही जो भी मिल जाय वही ले लेना चाहिए। -
‘‘जिन लड़कों की अभी ठीक से मूछें भी नहीं निकलीं वे भी गिलास पकड़कर बैठ जाते हैं। जग्गू के भण्डारे से धुत्त होकर निकले तो गिरते पड़ते मुन्दर के तम्बू में पहुंच गये। जिन लड़कों का वोटर लिस्ट में नाम नहीं है, वे भी ...... जिन्होंने जिन्दगी में कभी नहीं पी, वे भी कहते हैं, ‘‘भालू चाहिए।’’ ...... डबल क्रास। दोनो तरफ से।’’
पूर्वी उत्तर प्रदेष के देहातों में इस बीच एक और दलाल चरित्र ने तेजी से अपनी उपस्थिति दर्ज करायी है, जिसे अब विलेज बैरिस्टर के नाम से मान्यता मिल रही है। यह भारतीय बुर्जुआ के दलाल चरित्र का स्थानीय प्रतिनिधि बन कर उभर रहा है, उतनी ही क्रूर, उतना ही धूर्त, उतना ही सषक्त और उतना ही संवेदनहीन! ‘मुंषीजी’ के रूप में मौजूद, इस दलाल बुर्जुआ के ग्रामीण चरित्र को षिवमूर्ति जी ने कहानी में उतनी ही मज़बूत जगह दी है जितनी मज़बूत देहात में इसकी राजनीतिक अभिव्यक्ति है। ऐसे लोगों के दिमाग़ के कम्प्यूटर में पूरे गाँव के हर सदस्य का कच्चा चिट्ठा सुरक्षित रहता है और ठीक समय पर उसका इस्तेमाल करने के हुनर में वे पारंगत होते हैं। जब जग्गू मुंषीजी की ख़ुषामद करते हुए पक्की जीत का दांव पूछता है तो वे ठाकुर के राजनीतिक दुष्मन, और मुन्दर को लड़ाई में उतारने वाले पदारथ के खानदानी बैजनाथ बाबा को फोड़ने का गुर बताता है -
‘‘कुछ कहने की ज़रूरत नहीं। जो मन में आये सो कहना। बस अकेले में मिलकर हाथ जोड़ लेना। पदारथ ने उनका आधा रास्ता घेर कर दालान की नींव डाल दी है। उनका रास्ता घटकर तीन फिट की कोलिया बन गई है। जीप कार का आना जाना बन्द! उनका खूटा पदारथ के बेटे ने उखाड़ कर मड़ार में फेंक दिया था। यह बात जीते जी बुड्ढे को नहीं भूलेगी। अभी तो ताजा घाव है। जाओ और अपने सत्रह अट्ठारह वोट पक्के कर लो।’’
इस जगह पर गाँव के विशैले माहौल के प्रति अपने मन की बात को षिवमूर्ति जग्गू के मन द्वारा अभिव्यक्त करते हैं-
‘‘घर जाती हुए जग्गू की खोपड़ी भांय भांय कर रही है। कैसे कैसे सांप बिच्छू भरे हैं गाँव की खोह में। जब तक काट न लें, पता ही नहीं चल सकता।’’
जैसे मज़दूरों के क्रांतिकारी चरित्र का थोड़ा बहुत अंष वक्त पड़ने पर भूमिहीन किसान के चरित्र में उतर आता है, वैसे ही राश्ट्रीय स्तर पर दलाल पूंजी की प्रतिच्छाया के रूप में उसकी कुछ चरित्रगत विषेशताएं समय समय पर देहाती कस्बों के बड़े व्यापारियों, धन्ना सेठों के अन्दर भी उभरती हैं, और वह अपनी परिसीमा के अन्दर की दलाल षक्तियों का अपने हित में इस्तेमाल करने में चूक नहीं करता। ‘दुलीचन्द अगरवाल’ एक ऐसा ही किरदार है जो अपने कोल्डस्टोर के लिए जमीन खोजने/दिलाने की जिम्मेदारी ‘मुंषीजी’ पर डालता है, और वे अपनी त्वरित बुद्धि का इस्तेमाल कर जग्गू के पिता बदलू की सड़क किनारे वाली जमीन बिकवाने के लिए इस समय का इस्तेमाल करने की जुगत भिड़ा लेते हैं, और उस पर दुलीचन्द से मोल भाव करते है।
‘‘मेरा कमीषन दो परसेंट। रेट जो आमने सामने बैठकर तय हो जाय।’’ 
‘‘रेट कायदे का लगवाइये तो सोचें।..... एक बात और, हरिजन की जमीन खरीदने पर तो रोक है। परमीषन का लफड़ा होगा।’’
‘‘जमीन पर रोक है न! आप मकान लिखवाइये।’’
‘‘जमीन को मकान कैसे लिखा लेंगे?’’
‘‘अरे भाई खंडहर लिखाया जायेगा।’’
दुलीचन्द मुंषीजी का मुंह ताकने लगा।
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घीसू-माधो की तीसरी पीढ़ी की दास्तान उर्फ ‘बनाना रिपब्लिक’ शिवमूर्ति कम लिखते हैं, लेकिन जितना लिखते हैं उसी से वे अपने कम लिखने की भरपाई भी कर देते हैं। बल्कि सूद ब्याज समेत लौटाते हैं अपेक्षाएं। उनकी एक कहानी पढ़ लेने के बाद महीनों तक मन तृप्त रहता है। उसी कहानी को दुबारा तिबारा, चैबारा जितनी बार भी पढ़ा जाय हर बार कुछ नये वातायन खुलते ही है। यही नहीं उनकी हर अगली कहानी कहीं न कहीं पहले वाली कहानियों से आगे बढ़ी होती है। इस संदर्भ में मैं चर्चा करना चाहता हूँ उनकी ताजा कहानी ‘बनाना रिपब्लिक’ की। यह कहानी कई मायने में मुझे उनकी अब तक की अन्य कहानियों से आगे बढ़ी हुई लगती है। कहानी के साथ ट्रीटमेंट से लेकर उसके फलक के विस्तार तक और सम्प्रेषणीयता से लेकर पठनीयता तक, पात्रों के चरित्र की बारीक अभिव्यंजनाओं से लेकर परिवेश की अंतरंग समझ तक और भाषा के लालित्य से लेकर मुहावरेदानी के भंडार तक हर जगह इस कहानी में पहले की तुलना में विकासमान गति प्रतिबिम्बित होती है। सत्ता विकेन्द्रीकरण की एक महीन किरण गाँव तक पहुँचने के बाद से ही पूर्वी उत्तर प्रदेश के गावों में ही वर्ग और वर्ण के समीकरणों में बदलाव शुरू हो गये। इस बदलाव की सबसे ताज़ा अभिव्यक्ति है ‘बनाना रिपब्लिक’, जो शिवमूर्ति जी की सधी कलम से निकलकर वर्तमान पूर्वी उत्तर प्रदेश के देहात की एक जीवंत और सच्ची तस्वीर बन गई है। एक तरफ जहां यह कहानी देहाती शक्ति संतुलन में दलितों के बढ़ते हुए प्रभुत्व को रेखांकित करती है, वहीं प्रभु वर्गों/ जातियों की समस्त छल छद्म व स्वार्थ परक चेतना को आत्मसात कर लेने के बावजूद दलित चेतना में क्रांतिकारी तत्वों के समावेश हो जाने की भी सूचना देती है। कहानी में ‘‘चुनाव परिणाम में’’ फुलझरिया को न0 2 पर दिखा कर लेखक एक इशारा तो कर ही देता है कि अगले दौर के समीकरण की क्या सम्भावनाएं हैं। शिवमूर्ति जी की कहानियों में मानवीय संवेदना तथा स्त्री विमर्श की ही अधिक अभिव्यक्ति मानने वाले लोगों के लिए यह कहानी एक बदले हुए अंदाज़ की अलग कलात्मक स्तर की कहानी नजर आयेगी जहां उन्होंने गावों के राजनीतिक विश्लेषण जैसे सूखे विषय को केवल इशारों, संवेदनाओं और कथा प्रवाह में घोलकर पूरी भव्यता के साथ प्रकट किया है। कहानी के पाठक को वर्ग विश्लेषण जैसी अरुचिकर अनुभूति हुए बिना ही गाँव का पूरा वर्ग विश्लेषण आत्मसात् हो जाता है। वर्ण के साथ वर्ग चरित्र भी स्पष्ट हो जाता है। ‘बनाना रिपब्लिक’ दलित जग्गू के सत्ता पर आधिपत्य का एक नया सपना लेकर ठाकुर की दालान से निकलने से शुरू होती है, जब खुशी उसके संभाले संभल नहीं रही होती, दिल धाड़-धाड़ बज रहा होता है, और खत्म होती है उस सपने के पूरा होने के बाद, जग्गू के अपने दरवाज़े पर ठाकुर की सारी अकड़ और सत्ता की हनक भरभरा कर घुटनों के बल आ जाने और शक्ति संतुलन की इस मज़बूरी में कहे गये वाक्य - ‘‘पानी पीने से ही साथ पक्का होता हो तो कहो बाल्टी भर पी जाऊँ।’’, और उन्हें नाचने के लिए लड़कों द्वारा खींच कर कहे गये वाक्य - ‘‘जरा कमरिया तो लचकाइए ठाकुर’’, और कुबरी वाला हाथ उठाकर मटकते लचकते ठाकुर के दृश्य से। यहां यह कहानी मुंशी प्रेमचन्द की अमर कृति ‘कफ़न’ का कलेवर तोड़कर दलित चेतना के वर्तमान क्षितिज पर हुए क्रांतिकारी विस्फोट की परिघटना की अभिव्यक्ति बन जाती है और अपने राजनीतिक निहितार्थ में ‘कफ़न’ से आगे बढ़ जाती है। प्रेमचन्द के समय के यथास्थितिवादी सोच के मारे दलित पात्र घीसू व माधो की तत्कालीन क्रांतिकारिता इस बात में निहित थी कि वे अपनी मेहनत का सम्पूर्ण मूल्य प्रभु वर्गों द्वारा हड़प लिए जाने की हजारोें वर्षों की अटूट परम्परा के प्रति विद्रोह को उत्पादक श्रम से भागने और इस प्रकार उस लूटतंत्र को ठेंगा दिखाने की अपनी प्रकृति में अभिव्यक्त करते हैं। लेकिन सब कुछ के बाद भी ‘कफ़न’ के अंत में - ‘‘फिर दोनो नाचने लगे। उछले भी कूदे भी। गिरे भी, मटके भी। भाव भी बताये, अभिनय भी किये और आख़िर नशे से मदमस्त होकर गिर पड़े।’’ घीसू, माधो का यह गिर पड़ना तत्कालीन दलित समाज की नियति थी जो औपनिवेशिक गुलामी के टूटे बिना बदल नहीं सकती थी। क्योंकि सामंती व्यवस्था को इसी गुलामी के द्वारा जमींदारी की खुराक मिल रही थी। इसके विपरीत ‘बनाना रिपब्लिक’ में जब ठाकुर के पहुँचने पर लड़कों द्वारा कहा जाता है - ‘‘ जरा कमरिया भी लचकाइये ठाकुर’’ तो ‘‘कुबरी वाला हाथ उठाकर वे मटकने- लचकने लगते हैं’’। उस समय बरबस बचपन में गाँव में देखे गये बन्दर के नाच और मदारी के डमरू की याद आ जाती है। ‘बनाना रिपब्लिक’ के अंत में घीसू, माधो की पीढ़ी की जगह लड़कों की गोल नाच रही होती है जो घीसू-माधो की तरह नशे में मदमस्त होकर गिरने के लिए अभिशप्त नहीं हैं, बल्कि इसके उलट यह गोल ठाकुर के पंजे में पंजा फंसाकर दायें बायंे हिलाते हुए उन्हें नाचने पर मज़बूर भी कर देती है। शिवमूर्ति जी अपनी इशारों में बात कहने की शैली में ‘‘पंजे में पंजा फंसाकर’’ पद इस्तेमाल करके दोनो वर्गों के सीधे संघर्ष में उतरे होने की बात को कलात्मक ढंग से कह जाते हैं। ‘कफ़न’ जहां तात्कालिक भारतीय गांव को एक टेलिस्कोपिक-व्यू से देखती है, वहीं ‘बनाना रिपब्लिक’ आज के देहात को माइक्रोस्कोपिक-व्यू से देखती है। उनकी निगाह से कोई घटना, कोई बिम्ब, किसी सूखे पत्ते के हिलने की खड़खड़ाहट तक छुपी नहीं रहती। यद्यपि इस दलित उभार से अभिभूत है, फिर भी उसकी एकता में, या प्रस्थान बिंदु में जहां वह कोई कमी देखता है, उसे छुपाता नहीं बल्कि इशारों में व्यक्त कर देता है। वोट की राजनीति ने जहां दलितों को एकताबद्ध किया है वहीं दलित समुदाय के भीतर भी इस वोट की राजनीति से ही जातीय स्तर के बटवारे की ध्वनि लेखक के सचेत कानों से बच नही पाती- ‘‘अपनी बिरादरी मे परधानी की कुर्सी आये इससे बढ़कर खुशी की बात क्या होगी! पासी, धोबी, खटिक, चमार की बिरादरी के परधान तो आस पास बहुत सुने गये है, लेकिन अपनी बिरादरी का ? एक भी नहीं। हम लोग तुम्हें जिताने के लिए रात दिन एक कर देंगे।’’ गाँव के लड़कों द्वारा कहा गया यह वाक्य जाति के भीतर जाति के स्तरीकरण की तरफ लेखक का प्रश्नवाचक इशारा भी है। इस वाक्य का यहां कहा जाना ही यह प्रकट करता है कि लेखक इस सत्य को पाठकों के सम्मुख रखते हुए भी इससे नापसंदगी रखता है। जहां ‘कफ़न’ में प्रेमचन्द के पात्रों घीसू व माधो की क्रांतिकारिता तत्कालीन सामंती अर्थव्यवस्था दलित श्रम पर निर्भरता और उसी श्रम के शोषण की क्रूर परम्परा का मखौल उड़ाती हुई उसकी विद्रूपता का उद्घाटन तथा उसी विद्रूपता और ठण्डी क्रूरता से उसका जवाब बन जाने में है, वहां ‘बनाना रिपब्लिक’ में ठाकुर द्वारा कहा गया महावाक्य - ‘‘अगर पानी पीने से ही साथ पक्का होता हो तो बाल्टी भर पी जाऊँ’’ इस बात की तरफ संकेत करता है कि अब सहारे और साथ की जरूरत ठाकुर यानी प्रभु वर्ग/जातियों को है, दलित समुदाय को नहीं। जैसी उनकी आदत है, इस कहानी का वितान भी शिवमूर्ति जी ने बहुत सोच समझकर ताना है और चरित्रों को रत्ती माशा तौल तौल कर उसमें रखा है। इससे प्रदेश के राजनीतिक समीकरणों की एक, लगभग धुंधली ही सही, छाया गाँव में नजर आ ही जाती है, जो वास्तविकता भी है। इसके मुख्य चरित्रों में एक दूसरे के दुश्मन ठाकुर और पदारथ पुराने प्रभु वर्ग के प्रतिनिधि हैं, तो जग्गू और मुन्दर नये उभरते दलित फैक्टर के प्रतिनिधि है, जो सत्ता सुख में अपना हिस्सा बटाने के लिए किसी भी स्तर तक जा सकते हैं। क्रांतिकारी संघर्ष धारा की प्रतिनिधि फुलझरिया है, तो पुलिस कचहरी और प्रभु वर्ग से जोड़ तोड़ में माहिर मुंशी जी भी हैं, जो अपनी भर निगाह से जिस तरफ देख लें उधर की सारी हरीतिमा सूख जाय। ज़मींदारी भले चली गई, लेकिन सामंती मानसिकता गाँव देहात में अभी भी अपनी पूरी सांस्कृतिक विरासत के साथ बरक़रार है। कहानी खुद बोलती है - ‘‘यह नाहरगढ़ गाँव उनके पुरखों का बसाया हुआ है पुराना खंडहर हो चुका घर अभी भी गढ़ी कहलाता है। मास्टराइन राजगढ़ स्टेट की राजकुमारी हैं। किसी ग़ैर की मौज़ूदगी में वे हमेशा उन्हें रानी साहब ही कह कर पुकारते हैं।’’ इन तीन वाक्यों में ही ठाकुर के मन में बसे सामंती परिवेश की अतीत से लेकर अब तक निरंतरता ध्वनित हो जाती है। पूरा आर्थिक सामाजिक ढांचा ध्वस्त हो चुका है लेकिन खंडहर हट नहीं पाया है। न अपनी जगह से हटा है न ठाकुर के मन से। अकेले में वे खुद जानते हैं सच्चाई, लेकिन किसी ग़ैर की मौजूदगी में अपनी पत्नी मास्टराइन को ‘रानी साहब’ कहकर ही पुकारते हैं। यह इस तथ्य का कितना अच्छा प्रस्तुतीकरण है कि सामंतवाद का अवशेष हमेशा अतीत में ही जीवन के तत्व खोजता है वहीं से बल प्राप्त करता है और उसी से वर्तमान को डराने की कोशिश करता है। भविष्य की तरफ कभी इस अवशिष्ट सामंतवाद की निगाह नहीं होती, वह तो वर्तमान को अतीत सदृश बनाने के सपनों में ही खोया रहता है आने वाले भविष्य की तरफ से पीठ फेर लेता है, अतीत की तरफ उन्मुख होता है और एक दिन स्वयं अतीत बन जाता है। सामंतवाद का मुख्य और सबसे ख़तरनाक सांस्कृतिक अवशेष जिसपर उसकी पूरी चेतना आधारित है, पितृसत्तात्मक परिवार और पुरूष सत्तात्मक समाज व्यवस्था है जो अपनी पूरी अकड़ के साथ हर जगह मौजूद है। सामंती मानसिकता व समाज व्यवस्था की प्रमुख खासियत है कि जहां यह व्यवस्था सबसे अधिक मजबूत होती है वहीं स्त्री सबसे अधिक उत्पीड़ित व शोषित होती है। वहां स्त्री सबसे अधिक पिछड़ी अवस्था में भी होती है और इसी कारण वही विकासमान परिवर्तन की सबसे प्रबल विरोधी भी होती है। शिवमूर्ति जी कहानी में इस बात को एक छोटे से पैराग्राफ में ही कह जाते हैं -‘‘ पिछड़ी या दलित औरतें तो सभा जलूस या मेले ठेले में भी चली जाती हैं, सवर्ण औरतों की बड़ी आबादी अभी भी गाँव से बाहर नहीं निकलती। मायके से विदा हुई तो ससुराल मे समा गई। ससुराल से निकलती हैं तो सीधे श्मशान के लिए। देवी के थान पर लपसी सोहारी चढ़ाने के लिए जाना ही उनकी तीर्थयात्रा या पिकनिक है। ऐसी एक बड़ी आबादी है जो जाति व्यवस्था को ब्रह्मा की लकीर मानती है।’’ सामंत के अपने ही घर के भीतर उससे सबसे अधिक उत्पीड़ित प्राणी उसकी स्त्री और पुत्री का वास होता है इसे कौन नहीं जानता। स्त्री का आदर्श उनके यहां लंगड़े-लूले, शराबी-कबाबी, कोढ़ी, क्रूर, चरित्रहीन जैसे भी पति के गले बंध गई हो उसकी एकांतिक सेवा मात्र, तथा विधवा होने पर अग्निप्रवेश या पूरे जीवन को तिल-तिल जला देना है। बेटी को जहां हांक दिया जाये वहां आंख मूंदकर चला जाना और पितृकुल का नाम (सामंती अहंकार) रोशन करने के लिए होम हो जाना है। इस बात को इससे अधिक कलात्मक और संक्षिप्त रूप से नहीं कहा जा सकता जैसा शिवमूर्ति जी ने कहा है। दूसरी तरफ दलित तबके की नई पीढ़ी में परिवर्तन के प्रति सकारात्मक रवैया और जोखिम उठाने का साहस है जो जग्गू में प्रतिबिम्बित होता है, जबकि पुरानी पीढ़ी में यथास्थितिवाद की पुरानी सोच बरकरार है। किसी भी तरह का जोखिम उठाने से वह पीढ़ी डरती है। इसका प्रतिनिधि है- बदलू, जग्गू का बाप। उसका पुराना अनुभव बोलता है- ‘‘न बेटा। ए काम ठीक नहीं, परधानी का बवंडर हम नहीं संभाल सकते। उड़ जाएंगे।’’ और जब जग्गू उसे परधानी से होने वाली आय का अंदाज लगाकर पचीस लाख का सपना दिखाता है तो भी प्रतिक्रिया में बाप का अनुभव झुंझला गया- ‘‘इतने पैसे का हम करेंगे क्या? रक्खेंगे कहां? वही ठाकुर रात में सब लूट ले जाएगा।’’ सच पूछिए तो ‘कफ़न’ के समय का वह बच्चा अगर बुधिया के पेट में ही मर न गया होता, तो बड़ा होकर आज बदलू में ही अभिव्यक्त होता इस लिहाज से बदलू घीसू-माधो की अगली पीढ़ी है और ठाकुर की प्रकृति से, उसकी एक एक चाल से वाकिफ है। वह अपनी पुरानी कमजोरी के प्रति सचेत होने के कारण हमेशा बचाव की मुद्रा में है। बदलू की यह अनुभवजन्य दूरदर्शिता कहानी में आगे भी प्रमाणित होती है जब ठाकुर की चालें एक एक कर उजागर होती है कि कैसे वह बदलू की जमीन हड़प करने की जुगत में है। बचाव की सारी दूरदर्शिता और दुश्मन की हर चाल से परिचित होत हुए भी यह पीढ़ी अपनी नौजवानी में तनकर उठ खड़े होने और पलटवार कर पाने में असमर्थ रही। इसका कारण सिर्फ यह है कि इस पीढ़ी ने बरतानवी निरंकुश शासन के साये तले सामंती दहशत झेलते हुए, केन्द्रीय सत्ता से लेकर गाँव में उसके आखि़री प्रतिनिधि तक को एक ही सूत्र में पिरोया हुआ देखा है, और इस सम्मिलित विराट दमनकारी मशीन के आगे स्वयं को बिल्कुल असहाय महसूस किया है। जबकि जग्गू, मुन्दर और फुलझरिया की पहली पीढ़ी ने जिस हवा में पहली सांस ली, वह समस्त शोषणतन्त्रों की बूढ़ी हड्डियों में कंपकपी पैदा करने वाले उस महान वासंती वज्रनाद के बाद की हवा है जो दार्जिलिंग के एक छोटे से गाँव में 1967 में खेतिहर मजदूरों- किसानों द्वारा हवा में बारूद की गंध भरकर किया गया था। वहां से चली यह हवा बिहार के धधकते खेत खलिहानों से गुजर कर जब तक पूर्वी उत्तर प्रदेश में ‘बनाना रिपब्लिक’ के इस गाँव में पहुँची, तब तक यहां मंडल आयोग और हरिजन उत्पीड़न एक्ट जैसी तूफानी आंधियां व्यापक समाज को अपने चपेटे में ले चुकी थीं। देहात के पुराने शक्ति संतुलन के भरभरा कर ढहने का आभास देते, और ताश के महल की तरह एक-एक पत्ता उड़ाते दलित उभार प्रकट हो चुका था। गाँव के भीतरी दमन तंत्र के प्राण जिस तोते में बसते थे उसका गला दलित उभार की संचालक शक्तियों के हाथ में आ चुका था। प्रशासन में सामन्ती दबंगों की आक्टोपसी जकड़ कमजोर हो चुकी थी। इसीलिए इस कहानी में इस नई पीढ़ी का प्रतिनिधि जग्गू सोचता है- ‘‘जगतनरायन तो फिर भी ठीक था, लेकिन लोगों ने उसे भी काटकर बांड़ा कर डाला - जग्गू। परधानी मिल जाय, हीरोहोण्डा मिल जाय और नाम बदल जाय, या एक कायदे का सरनेम मिल जाय, जिसमें थोड़ा रूआब झरे। ‘टाइगर’ कैसा रहेगा।’’ और जब एक रात जग्गू ठाकुर से बात करके लौट रहा होता है तो कथाकार उसकी सोच का वर्णन इन शब्दों में करता है - ‘‘उसे यह देखकर बड़ी राहत महसूस हुई कि आज उसे इज्जत के साथ बुला रहा था ठाकुर - ‘‘ लिखो, सुनो, बैठो, देखो। पहले की तरह लिख, सुन, बैठ, देख नहीं। शुरू में एक बार अबे बोला था, बस।’’ यह सम्मान प्राप्त करने की पहली आहट है जग्गू के हृदय में जिसपर तुरंत ध्यान दिया है लेखक नें। बल्कि शिवमूर्ति का कलाकार इसमें भी कलात्मकता से एक इशारा कर जाता है। जहां ठाकुर द्वारा लिख, सुन, बैठ, देख की जगह लिखो, सुनो, बैठो, देखो से सम्बोधित करके जग्गू का स्तर एक डिग्री उठाया गया है, वहीं जग्गू के मन में ठाकुर का भय कम हो गया है। तथा वह अपने मन की भाषा में ठाकुर के प्रति सम्बोधन में बदलाव लाया है और ‘इज्जत के साथ बुला रहे थे’ की जगह वह ‘इज्जत के साथ बुला रहा था’ पद का प्रयोग करता है। शिवमूर्ति बहुत ही सावधान लेखक हैं और कहीं चूक की गुंजाइश नहीं छोड़ते चरित्र गढ़ते समय। वे अपनी हर कहानी पर कई-कई बार काम करते हैं, तब कहीं जाकर चरित्र पूर्ण होता है। साधारण दलित के कमजोर व्यक्तित्व से नेता बनने की प्रक्रिया का वर्णन वे एक पैराग्राफ में करते हैं - ‘‘जग्गू को लग रहा है कि अभी उसके मुँह से बात की धार नहीं फूट रही। जिस तरह शहर के कचहरी गेट पर सांडे का तेल बेचने वाला मजमेबाज बोलता है .....। अपना चेहरा भी उसे भकुआया सा लग रहा है। भावशून्य। मुस्कराहट का नाम नहीं। ऐसा ही चेहरा देखा था उसने फूलन का। जब वह भदोही में पहली बार अपना चुनाव प्रचार करने निकली थी। आज की रात वह हंसने लपक कर मिलने और धुंआधार बोलने का अभ्यास करेगा- भाइयों और बहनों ....’’। यह पूरा पैराग्राफ केवल जग्गू के चरित्र चित्रण की बारीक़ी, जग्गू से जगतनरायन तक की पुनर्यात्रा की उसकी ललक और उसके लिए मन प्राण से जुटने की प्रक्रिया को प्रदर्शित करता है। और आगे आने वाले बड़े परिवर्तनों की पृष्ठभूमि तैयार करता है इस एक ही पैराग्राफ से शिवमूर्ति उस ऐतिहासिक परिवर्तन की प्रक्रिया के एक ऐेसे महत्वपूर्ण अंश की सचित्र झांकी प्रस्तुत करते हैं जो जहां घीसू-माधो की हर तरह से कमज़ोर संतानों को इसी व्यवस्था के अन्दर शक्ति संतुलन की केन्द्रीय पीठिका पर क़ाबिज़ हो पाने के आवश्यक औज़ारों से लैस करता है, वहीं सम्पूर्ण व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई के लिए तैयार होते जनसमुदाय के आक्रोश को एक सेफ्टीवाल्व की तरह शमित करता है और उस संघर्ष को एक तात्कालिक स्थगन प्रदान करता है। किन्तु यही धीरे-धीरे जातीय विघटन के द्वारा सांमती अवशेषों को जड़ से समाप्त करने के संघर्ष के लिए परिस्थितियां तैयार करता है। एक सोच विकसित हुई पिछले दिनों कि आरक्षण के नाते दलित समुदाय को अयोग्य होते हुए भी सवर्णों का गला काटकर जिन स्थानों पर बैठा दिया जा रहा है, वहां वे कामयाब नहीं हो पायेंगे, और जल्दी ही औंधे मुंह गिर पड़ेंगे। इस सोच के जवाब में शिवमूर्ति इस कहानी में बता रहे हैं कि दलित कितना सचेत है और अपनी योग्यता बढ़ाने तथा स्वयं को योग्य साबित करने के लिए वह कितनी कठिन मेहनत करने के लिए तैयार है। अपनी इस नई भूमिका में खरा उतरने के लिए उसकी संकल्प शक्ति को ही दिखाना चाहते हैं शिवमूर्ति। इस कहानी में जग्गू कोई ऐसा चरित्र नहीं है, जो किसी आमूल परिवर्तन की बात करे या किसी बुनियादी बदलाव का सपना देखे। यह सिर्फ प्रभुता के ग्लैमर से आक्रांत, हजारों सालों से दमित परिस्थितियों में घुटती दलित पीढ़ी, की एक सुखी जीवन की चाह की आदिम इच्छा की अभिव्यक्ति करता हुआ एक किरदार है, जो अपमानित और लांछित जीवन में सम्मान का एक प्राथमिक स्वप्न अपनी आंखों में सजा चुका है। प्रभुवर्ग की चमकती छवियों के स्वप्न देखता यह पात्र उस वर्ग की तमाम बुराइयों का वाहक भी बन गया है। अपनी उद्देश्य पूर्ति के लिए यह किसी भी तरह का समझौता करने को तैयार है - ‘‘ मुन्दर और जग्गू अपने अपने भण्डारे का इन्तजाम तम्बू के बाहर रह कर ही कर रहे हैं। बारहो बरन का भण्डारा है। चूल्हे चैकी में अभी भी सोलहवीं शताब्दी चल रही है। अन्दर घुसने से छुआछूत का सवाल खड़ा हो सकता है। ऐसे नाज़ुक मौके पर रिस्क लेना .................।’’ शिवमूर्ति बिल्कुल ठोस धरातल के कथाकार हैं। कहीं से काल्पनिक परिस्थितियों की सृष्टि करना उनकी प्रकृति में नहीं है। दलित चेतना का विस्तार जहां तक है उससे बहुत आगे बढ़ाकर उसे त्रुटि विहीन और आदर्श स्थिति में चित्रित करना भी उनका लक्ष्य नहीं है। वे इस चेतना को तमाम अच्छाइयों बुराइयों के साथ ही पाठकों के समक्ष रखने को प्रतिबद्ध हैं। कहानी में ठाकुर जग्गू की सड़क किनारे वाली जमीन रेहन रखवाकर उसे रूपया उधार देने और फिर बाद में यदि जग्गू लौटा न पाए तो सड़क के किनारे की क़ीमती जमीन मुफ़्त में हथियाने के चक्कर में है। ऐसी धूर्तता का पैंतरा लड़ाई में विजय के लिए जग्गू भी सीख गया है और रेहन के कागज पर अपनी पत्नी के पैर का अंगूठा लगवाकर फ़र्ज़ी काग़़ज ठाकुर को देकर रूपया ले लेता है। जब शिवमूर्ति प्रभुवर्ग की मानसिकता का चित्रण करते हैं तो आज की राजनीति के अपराधीकरण की प्रतिच्छाया गाँव पर पड़ती हुई उन्हें स्पष्ट दिखाई दे जाती है। येन केन प्रकारेण सत्ता की बागडोर हथियाये रखना तथा पुरानी राजगद्दी पर बैठे अपने शासन की अभिव्यक्ति को उसके क्रूरतम फासिस्ट स्वरूप तक ले जाने की प्रभुवर्ग की मंशा उनकी आखों से छुप नहीं पाती और क़लम अभिव्यक्त करने से रुक नहीं पाती - ‘‘अच्छा बाबू भवानी बकस सिंह आप तो पालिटिक्स पढ़ाते हैं, ऐसा नहीं हो सकता कि जीते कोई भी साला, उसे पकड़कर अपने नाम मुख़्तारनामा लिखाओ ....... क्या कहते हैं उसे अंग्रेजी में?’’ ‘‘पावर आफ एटार्नी ........’’ ‘‘हाँ वही! और फिर ठाँस के परधानी करो।’’ आगे भी एक जगह इस अपराधीकरण की अभिव्यक्ति देखें - ‘‘हाँ कलजुग के आखिरी चरण में एक दिन ऐसा आएगा जब एम.पी., एम.एल.ए. की सारी सीटों पर खूनी कतली लोगों का कब्जा हो जाएगा। तब सब मिलकर देसवा का बंटवारा करेंगे। उस बंटवारे में हम लोगों को भी हिस्सा मिलेगा।’’ भवानी बकस सिंह की लड़खड़ाती आवाज़ नशे मे डूबी है- ‘‘क्लेप्टोक्रेसी ..ई..ई! क्लेप्टोक्रेसी ..ई..ई..ई!’’ भवानी बकस सिंह पाॅलिटिक्स के अध्यापक हैं। राजनीतिशास्त्र में क्लेप्टोक्रेसी पढ़ाने के लिए चाहे जितने लेक्चर दिये जाते हों लेकिन अपराधियों द्वारा धीरे-धीरे राजनीतिक सत्ता पर हावी होने, शिकंजा कसते चले जाने की प्रक्रिया तथा उसके परिणाम को जितनी छोटी शब्दावली में और सरल भाषा में यह कहानी समझा देती है वह पाठक के भीतर तीर की तरह धंसकर कहीं फंस जाता है। ग़ालिब ने आधी प्रत्यंचा खींचकर हल्के जोर से छोड़े गये उस तीर की तारीफ़ में, जो दिल को पूरा नहीं बेधता और बराबर टीसता रहता है, कहा है- कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीरे नीमकश को, ये ख़लिश कहां से होती जो जिगर के पार होता। यह प्रसंग हमारे लोकतन्त्र की पोल खोलता है और इस देश में क्लेप्टोक्रेसी की निरंतरता, चोरों और लुटेरों द्वारा सत्ता पर क़ब्जा करने की प्राचीन परंपरा के बरकरार रहने की तरफ इशारा करता है तथा लोकतंत्र नामक झूठ के नक़ाब के अन्दर से झांकते एक क्रूर अपराधी चेहरे का आईना बन जाता है। यह साबित कर देता है कि गाँव के स्तर तक अपराधी प्रवृत्ति का सत्ता से गंठजोड़ और याराना कितना प्रबल है। सत्ता चाहे जिस पार्टी की हो गंठजोड़ की प्रकृति यही रहती है। गाँव तक पहुँचते-पहुँचते सत्ता के विकेन्द्रीकरण के नारे का सही अर्थ कैसे लूट के विकेन्द्रीकरण में बदल जाता है, इसका पर्दाफाश कहानी बड़े स्वाभाविक ढंग से करती है- ‘‘घंटे भर में पूरे गाँव को पता चल गया कि पक्की सड़क से मुसलमान टोले के करीब आधा कि.मी. और हरिजन टोले के करीब ढाई तीन सौ मीटर लम्बे कच्चे रास्ते पर कागजों में दो साल पहले ही खड़ंजा बन गया है।’’ ‘‘ लीजिए अपनी आंख से पढ़ लीजिए आप लोग। यही हैं भुगतान किये गये बिलों की फोटो कापियां।.......... और मौके पर एक भी ईंट लगी हो तो बताइये। चार लाख सत्तर हजार रुपये पूरे के पूरे हजम। लोग दस बीस परसेंट खाते हैं। चग्घड़ से चग्घड़ विधायक भी विधायक निधि का पचास परसेंट से ज्यादा नहीं खा पाता। लेकिन आप का परधान सौ का सौ परसेंट हजम कर गया। अब आप लोग खुद फैसला करें।’’ यह कमीशनख़ोरी और दलाली की रवायत जो हमारे लोकतंत्र की नसों में ख़ून की तरह दौड रही है, केवल हमारे देहात की छवि नहीं है बल्कि समूचे देश की लोकतांत्रिक प्रकृति और संवेदना की एक जानी समझी सच्चाई, स्वीकृत अपरिहार्य बुराई जैसी शक्ल अख़्तियार कर चुकी है। स्वीकृति की एक अन्तरधारा हर जगह हर समय अपनी उपस्थिति दर्ज कराती रहती है- ‘खाओ लेकिन संभाल कर खाओ’। साम्राज्यवादी पूंजी जब देश में प्रवेश करती है तो अपने साथ अपनी संस्कृति भी बिना मांगे वैसे ही लेकर आती है जैसे पुराने राजघरानों में बेटी के विदा होते समय उसकी दास दासियां भी दहेज के सामान की तरह उसके ससुराल भेज दी जाती थीं। कुछ वैसी ही प्रक्रिया हुई है सत्ता विकेन्द्रकरण अभियान के साथ। सत्ता की हनक, लाखों रुपये खर्चने की शक्ति के साथ -साथ इस दोमुंही राजनीति की तमाम बुराइयां भी देहात में प्रवेश कर गई हैं। जोड़-तोड़, छल-छद्म, कानूनों को तोड़मरोड़ कर अपन पक्ष में करने के नियोजित षडयंत्रों के सिलसिले, शराब की नदियां, नारी का गिरता सम्मान, धोखा, फरेब, सबको चूना लगाने की यथासम्भव कोशिश, नैसर्गिक प्रेम का अभाव, और सबके ऊपर पसरता हुआ संवेदनहीनता का दमघोंटू घनघोर सन्नाटा! कुल मिलाकर उसी क्लेप्टोक्रेसी की ज़िन्दा तस्वीर नुमायां होती हुई! इतना वीभत्स तो नहीं था हमारे गाँव का माहौल हमारे बचपन में। आज इस बदबूदार बजबजाते माहौल में केवल दलित विमर्श और स्त्री की आज़ादी की चाहत ही एक ताजा हवा का झोंका बनकर कभी कभी राहत दे देती हैं और हमें मनुष्य होने का अहसास करा जाती हैं। अन्यथा अब गाँव इतना विद्रूप हो गया है कि न तो पहचान में आता है न पकड़ में आता है। वैसे टूटते सड़ते सामन्तवाद की यह परिणति बहुत अस्वाभाविक भी नहीं है, चाहे जितनी तकलीफदेह हो, हज़ारों सालों की गहरी आस्थाओं की टूटन का दर्द तो हर जगह अभिव्यक्त होगा ही। बदलाव की इस प्रक्रिया व उसके परिणामों पर इतनी गहरी सूक्ष्मदर्शी दृष्टि है इस कहानी के कथाकार की कि हर परत उधेड़ देती है। नसों से बहने वाले खून की तरह पूरी कहानी में यह सूक्ष्म दृष्टि बिखरी हुई है। नेताओं द्वारा वोट खरीदने की लगातार प्रवृत्ति के चलते जनता के मन में वोट की क़ीमत अपनी सरकार बनाने से गिरकर कहां पहुंच गई है इसकी व्यंजना लेखक की क़लम से देखें- ‘‘बरेठा!’’ झुकी कमर के चलते बूढ़ी को सिर ज्यादा उठाना पड़ रहा है। पोपले मुंह से मुस्कुराती हुई वे कहती हैं, ‘‘तुम्हें तो असली कुर्सी मिलेगी और हमें कागज की दिखा रहे हो। असली कहां है?’’ लोग जानते है कि बस चुनाव हो जाने के बाद कुछ नहीं मिलने वाला है, इसलिए माले ग़नीमत के रूप में वोट देने से पहले ही जो भी मिल जाय वही ले लेना चाहिए। - ‘‘जिन लड़कों की अभी ठीक से मूछें भी नहीं निकलीं वे भी गिलास पकड़कर बैठ जाते हैं। जग्गू के भण्डारे से धुत्त होकर निकले तो गिरते पड़ते मुन्दर के तम्बू में पहुंच गये। जिन लड़कों का वोटर लिस्ट में नाम नहीं है, वे भी ...... जिन्होंने जिन्दगी में कभी नहीं पी, वे भी कहते हैं, ‘‘भालू चाहिए।’’ ...... डबल क्रास। दोनो तरफ से।’’ पूर्वी उत्तर प्रदेश के देहातों में इस बीच एक और दलाल चरित्र ने तेजी से अपनी उपस्थिति दर्ज करायी है, जिसे अब विलेज बैरिस्टर के नाम से मान्यता मिल रही है। यह भारतीय बुर्जुआ के दलाल चरित्र का स्थानीय प्रतिनिधि बन कर उभर रहा है, उतनी ही क्रूर, उतना ही धूर्त, उतना ही सशक्त और उतना ही संवेदनहीन! ‘मुंशीजी’ के रूप में मौजूद, इस दलाल बुर्जुआ के ग्रामीण चरित्र को शिवमूर्ति जी ने कहानी में उतनी ही मज़बूत जगह दी है जितनी मज़बूत देहात में इसकी राजनीतिक अभिव्यक्ति है। ऐसे लोगों के दिमाग़ के कम्प्यूटर में पूरे गाँव के हर सदस्य का कच्चा चिट्ठा सुरक्षित रहता है और ठीक समय पर उसका इस्तेमाल करने के हुनर में वे पारंगत होते हैं। जब जग्गू मुंशीजी की ख़ुशामद करते हुए पक्की जीत का दांव पूछता है तो वे ठाकुर के राजनीतिक दुश्मन, और मुन्दर को लड़ाई में उतारने वाले पदारथ के खानदानी बैजनाथ बाबा को फोड़ने का गुर बताता है - ‘‘कुछ कहने की ज़रूरत नहीं। जो मन में आये सो कहना। बस अकेले में मिलकर हाथ जोड़ लेना। पदारथ ने उनका आधा रास्ता घेर कर दालान की नींव डाल दी है। उनका रास्ता घटकर तीन फिट की कोलिया बन गई है। जीप कार का आना जाना बन्द! उनका खूटा पदारथ के बेटे ने उखाड़ कर मड़ार में फेंक दिया था। यह बात जीते जी बुड्ढे को नहीं भूलेगी। अभी तो ताजा घाव है। जाओ और अपने सत्रह अट्ठारह वोट पक्के कर लो।’’ इस जगह पर गाँव के विषैले माहौल के प्रति अपने मन की बात को शिवमूर्ति जग्गू के मन द्वारा अभिव्यक्त करते हैं- ‘‘घर जाती हुए जग्गू की खोपड़ी भांय भांय कर रही है। कैसे कैसे सांप बिच्छू भरे हैं गाँव की खोह में। जब तक काट न लें, पता ही नहीं चल सकता।’’ जैसे मज़दूरों के क्रांतिकारी चरित्र का थोड़ा बहुत अंश वक्त पड़ने पर भूमिहीन किसान के चरित्र में उतर आता है, वैसे ही राष्ट्रीय स्तर पर दलाल पूंजी की प्रतिच्छाया के रूप में उसकी कुछ चरित्रगत विशेषताएं समय समय पर देहाती कस्बों के बड़े व्यापारियों, धन्ना सेठों के अन्दर भी उभरती हैं, और वह अपनी परिसीमा के अन्दर की दलाल शक्तियों का अपने हित में इस्तेमाल करने में चूक नहीं करता। ‘दुलीचन्द अगरवाल’ एक ऐसा ही किरदार है जो अपने कोल्डस्टोर के लिए जमीन खोजने/दिलाने की जिम्मेदारी ‘मुंशीजी’ पर डालता है, और वे अपनी त्वरित बुद्धि का इस्तेमाल कर जग्गू के पिता बदलू की सड़क किनारे वाली जमीन बिकवाने के लिए इस समय का इस्तेमाल करने की जुगत भिड़ा लेते हैं, और उस पर दुलीचन्द से मोल भाव करते है। ‘‘मेरा कमीशन दो परसेंट। रेट जो आमने सामने बैठकर तय हो जाय।’’ ‘‘रेट कायदे का लगवाइये तो सोचें।..... एक बात और, हरिजन की जमीन खरीदने पर तो रोक है। परमीशन का लफड़ा होगा।’’ ‘‘जमीन पर रोक है न! आप मकान लिखवाइये।’’ ‘‘जमीन को मकान कैसे लिखा लेंगे?’’ ‘‘अरे भाई खंडहर लिखाया जायेगा।’’ दुलीचन्द मुंशीजी का मुंह ताकने लगा। - - - - - - - - - - - - - - ‘‘अरे परमीशन के लफड़े से डराया जायेगा तभी तो मनमाफिक रेट मिलेगी।’’ यहां दलाली की एक और तिकड़म की तरफ ध्यान आकर्षित करा पाने में शिवमूर्ति सफल रहे हैं, जो शहर देहात दोनों में समान रूप से प्रचलित है। वह है कानूनों में तोड़ मरोड़ कर के न्याय की आंखों में धूल झोकने का काम। ’मुंशीजी’ के पास कानून को बस में करने का दूसरा हथकंडा है सेठ दुलीचन्द से पैसा ऐठने का दूसरा तथा जग्गू जैसों को अपनी जमीन बेचने के लिए उकसाने का एक तीसरा हथकंडा भी है- ‘‘हार गये तब तो रेहन पटाने के लिए बेचना पड़ेगा। जीत गये तब भी बेचना होगा। वह इस लिए कि नाहरगढ़ का प्रधान बनने के बाद तुम्हें गड़ही के किनारे की उस झोपड़िया में रहना शोभा नहीं देगा। सड़क के किनारे की एकाध बीघा जमीन का बाप के नाम आवासीय पट्टा कराओ और बाजार की जमीन बेच कर पट्टे की जमीन पर आलीशान घर बनवाओ। जमीन बेच दोगे तो कोई यह भी नहीं कहेगा कि परधानी की लूट से बनवाया है और जितना चाहोगे इसमें परधानी की काली कमाई भी खप जायेगी।’’ चुनाव के पहले, लोकसभा से लेकर परधानी और अन्य निकायों तक में प्रचलित एक और छल की तरफ इस कहानी में ज़रूरी ध्यान खींचा गया है। वह है अपने फर्जी वोटरों का नाम लिस्ट में बढ़वाना, तथा विरोधियों के वोटरों का नाम वोटर लिस्ट से ग़ायब करा देना। ठाकुर को पता है कि देर सबेर आरक्षण के चक्रीय क्रम में परधानी सिड्यूल कास्ट के खाते में जायेगी, इसलिए उन्होंने सालभर पहले ही रामसिंह का सिड्यूल कास्ट का सर्टीफिकेट बनवा लिया था। ‘‘पता नहीं कहां गड़बड़ हुई कि फाइनल लिस्ट से उसका नाम ही ग़ायब हो गया। वरना एक बार रामसिंह को जिता पाते तो दस साल कोर्ट को यह तय करने में लग जाता कि वह असली सिड्यूल कास्ट है कि फर्जी। जग्गू पर दांव लगाने की ज़रूरत ही न पड़ती। जग्गू तो मजबूरी की पसंद है।’’ कथाकार की दृष्टि इस बात पर भी है कि गाँव की इस हलचल को व्यापक राष्ट्रीय स्तर पर दलित राजनीति की दुनियां में किस स्तर पर चिन्हित करके अध्ययन किया जा रहा है। दलित फैक्टर की केस स्टडी करने के लिए शहर से तीन लड़के मुरारी मास्टर के घर आये हैं। वे सवर्णों की बैकिंग से जग्गू व मुन्दर के खड़े होने की निन्दा करते हैं, उन्हें ‘बनाना रिपब्लिक’ का पैरोकार बताकर कौम के गद्दार की पदवी देते हैं। वे कहते हैं कि असली स्वतंत्र उम्मीदवार फुलझरिया को जितायेंगे। जग्गू उन्हें अपनी बात से लाजवाब कर देता है और सपोर्ट के औचित्य को सिद्ध करता है- ‘‘आपके पास कौन सी ताकत है जो जितायेंगे?’’ जग्गू भड़क जाता है- ‘‘न आप यहां के वोटर हैं, न इस गाँव में आपकी कोई नाते-रिश्तेदारी है: तो किसके बल पर जिताने हराने का ठेका ले रहे हैं?’’ लड़के सन्न! वे एक दूसरे का मुंह देखते हैं। जग्गू फिर कहता है -‘‘मेरा पैंतरा जीतने के बाद देखना। सारा गाँव आकर मेरे इसमें तेल न लगाये तो कहना।’’ ‘बनाना रिपब्लिक’ भले ही कहानी की केन्द्रीय विषय वस्तु है, कहानी का शीर्षक भी है और भारत के गाँव ही नहीं पूरे विश्व में साम्राज्यवादी पूंजी के गहरे हस्तक्षेप की राजनीतिक अभिव्यक्ति है, लेकिन इस कहानी में शिवमूर्ति जितनी आसानी से अन्त में ‘बनाना रिपब्लिक’ के मिथक को टूटता हुआ दिखा पातें हैं वह दलित और सताई गई, छली गई आबादी के द्वारा अपनी ताकत महसूस कर पाने की ऐसी परिघटना है जो भविष्य का एक सुखद संकेत बन जाती है। जैसे केले की खेती में बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा वृहत् पूंजीनिवेश का चारा फेंककर अविकसित और विकासशील लातिन अमरीकी देशों के किसानों की समूची कृषि भूमि और कृषि प्रक्रिया का अपहरण किया गया है, वैसे ही राजनीति में ‘‘कुर्सी मिलेगी दलित को और मजा मारेंगे ठाकुर-बाभन’’ वाली स्थिति लाने के लिए जग्गू और मुन्दर को ठाकुर-ब्राह्मण की सपोर्ट से चुनाव लड़ाया गया है। लेकिन इस चुनावी युद्ध के दौरान ही दलित नौजवान पीढ़ी की बढ़ी चेतना का ऐसा विस्फोट होता है कि ‘बनाना रिपब्लिक’ शीर्षक स्वयं व्यंग में बदलकर ठाकुर का मुंह चिढ़ाने लगता है। अल्पसंख्यक मुद्दे को भुनाने का राजनीति में जो चलन फैला हुआ है उस पर भी शिवमूर्ति ने ग्राम स्तर पर हुए असर पर निगाह डाली है। - मकबूल बताता है - ‘‘पिछले चुनाव की तरह इस बार भी पदारथ कोशिश में थे कि मुसलमान टोले से कोई वोटकटवा कैंडिडेट खड़ा हो जाय। कितनी मुश्किल से रोका गया।’’ ‘‘जग्गू को ठाकुर की सीख याद आती है। वह कहता है, मैं मस्ज़िद के लिए हजार रूपये चंदा देना चाहता हूँ। यह भी ऐलान करना चाहता हूँ कि परधान बन गया तो मस्ज़िद के सामने का डेढ़ बीघा बंजर मस्ज़िद के नाम पट्टा कर दूंगा।’’ शिवमूर्ति जी के पूरे लेखन में गाँव अपनी ठेठ और अक्खड़ भूमिका के साथ लगभग हर जगह मौज़ूद दीखता है। वे संवेदनाओं के अद्भुत चितेरे हैं तथा उनकी रचनाओं में नारी पात्रों पर सबसे अधिक लिखा गया है। लेकिन ‘बनाना रिपब्लिक’ उनकी अब तक की सब कहानियों से अलग छल छंदों से भरे, संवेदनहीन और स्वार्थी पात्रों के जमावड़े वाला एक ऐसा राजनीतिक गाँव हमारे सामने पेश करती है जो आज़ादी के बाद के सालों में धीरे-धीरे भ्रष्टाचार की सरपरस्त राजनीति, और राजनीति के अपराधीकरण के गाँव के आंगन तक प्रवेश, दलित उभार, तथा सत्ता विकेन्द्रीकरण द्वारा लूट में हिस्सेदारी की बंदरबांट से फैली अफरा-तफरी और छीना-झपटी की सच्ची तस्वीरों का कोलाज है। यह वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों और मूल्यहीनता का प्रबल दबाव ही है जो शिवमूर्ति जैसे कोमल मानवीय अनुभूतियों के चितेरे से पूर्वी उत्तर प्रदेश की आंचलिक राजनीति का सम्पूर्ण ग्रामीण गणित खोलती इस अद्भुत कहानी ‘बनाना रिपब्लिक’ का सृजन करा सका है। कहानी की पूरी अंतर्धारा के बीच बहती हुई पात्रा ‘फुलझरिया’ पर कोई चर्चा किये बिना यह बातचीत अधूरी ही रहेगी, क्योंकि मुझे ऐसा लगता है कि पूरी कहानी में वही एक ऐसी पात्र है जो लेखक द्वारा गढ़ी गयी उनकी प्रिय पात्रा है। कहानी के कलेवर में इसे यद्यपि बहुत कम स्थान दे पाने की लेखक की मजबूरी है, फिर भी वे अपनी चाहत के नाते उतने में ही इसे एक मजबूत पात्र के रूप में गढ़ सके हैं। फुलझरिया एक ऐसी स्त्री पात्र है जो पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाँवों में अभी तक अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज नहीं करा पायी है लेकिन एक सम्भावित उभरती हुई भविष्य की शक्ति के रूप में शिवमूर्ति जी की प्रिय पात्र बनकर उनके सपनों के किसी अंश को अभिव्यक्त करती है। यह चरित्र और आत्मबल के स्तर पर अन्य सभी पात्रों पर भारी पड़ती हुई एक नई आशा की किरण के रूप में कहानी में उतारी गई है। इस कहानी के घटनाक्रम में फुलझरिया का प्रवेश भी आम पात्रों की तरह नहीं होता। अचानक एक झटके से शिवमूर्ति इस पात्र को पटल पर रखते हैं - ‘‘सचमुच फुलझरिया की ‘लक्क’ तेज है। सबसे कैचिंग सिम्बल उसे ही मिला -‘खुला हुआ छाता’।’’ यहीं से कहानीकार के हृदय में फुलझरिया के प्रति एक ‘साॅफ्ट कार्नर’ नजर आ जाता है। ठाकुर कहते हैं - ‘‘ऐसा सिम्बल जो अन्धे को भी अंधेरे में दिख जाय।’’ आगे फुलझरिया का जो वर्णन किया गया है, उसे देखें तो भी स्पष्ट होता है कि लेखक की तरफ से उसके सपनों की पात्रा है यह, क्योंकि बिना किसी सहायता-समर्थन के उसका हर कार्य पूरा हो जाता है, जबकि वह न तो पैसेवाली है, न यहाँ उसके कोई सगे-सम्बन्धी ही हैं, न वह पढ़ी-लिखी ही है। सिवाय लेखक के सपनों में होने के, दूसरा कोई सोर्स उसके पास नहीं है - ‘‘ससुराल की परित्यक्ता फुलझरिया। उसके मायके में शरण लेने पर किसी को क्या ऐतराज! गाँव में एक सस्ता मजदूर बढ़ा। खुशी की बात। वोटर लिस्ट में नाम चढ़ गया। बी.पी.एल. कार्ड बन गया। खुद पदारथ ने बनवा दिया। यह भी ठीक। लेकिन एक दिन परधानी लड़ जायेगी, किसने सोचा था! जीते भले न, अपनी बिरादरी के पचीस तीस वोट तो काट ही लेगी। पदारथ का मानना है कि उसे ठाकुर ने खड़े होने के लिए उकसाया। ठाकुर इसे पदारथ का काम मान रहे हैं। पर्चा दाखिले के समय कोई भेद नहीं खुला। न कोई भीड़, न जलूस। भाई भतीजे साइकिल से जाकर पर्चा दाखिल करा लाए। जाँच में पांच पर्चे ख़ारिज़ हुए लेकिन फुलझरिया उसमें भी पास हो गई।’’ यह पैराग्राफ बिना कुछ ख़ास कहे ही पाठक की सहानुभूति की पात्र बना देता है फुलझरिया को। बाद में प्रचार करने के उसके सलीके पर एक प्रसंग लेखक द्वारा दिया गया है। -‘‘फुलझरिया देवी अपनी दोनों भाभियों और तीन भतीजियों के साथ काला छाता लगाकर प्रचार के लिए निकली हैं। कहती हैं पूत न भतार। बेटी न बेटा। मैं किसके लिए लूट मचाऊंगी। भगवान ने अकेला किया है तो कुछ सोच कर किया है। ‘पब्लिक’ की सेवा के लिए। सारा गाँव मेरा भाई-बाप है।’’ यादव टोले की किसी दुलहिन ने पूछा, ‘‘जीत गयी तो परधानी कैसे करोगी बुआ?’’ ‘‘कुर्सी पर बैठ के करेंगे दुलहिन। सीना ठोंक कर करेंगे।’’ सीने पर मुक्का मारकर बुआ ने बताया, ‘‘मेरे जीते जी गाँव का हिस्सा हाकिम लोग खाकर दिखायंे जरा! पेट में हाथ डालकर निकाल लाउंगी।’’ सब हंसती हैं। उसका भाषण सुनने के लिए औरतों की भीड़ लग जाती है। ‘‘बड़ी हिम्मतवाली है। जीत गई तो बड़े बड़ों की बोलती बंद कर देगी।’’ फुलझरिया के बेदाग़ चरित्र के चलते उसका चरित्र हनन करने की पदारथ की कोशिश भी बेकार हो जाती है। और अंतिम परिणाम में वह नंबर दो पर रहती है। यह बदलाव की सच्ची आकांक्षा रखने वालों की बढ़ती ताकत की तरफ लेखक का इशारा उसके खुद के अंदर की ही अभिव्यक्ति है। शिवमूर्ति जी की भाषा पर बड़ी गहरी पकड़ है। यह गहरी पकड़ उन्हें लोक जीवन में गहरे लगाव और ज़मीन से लम्बे जुड़ाव के जरिये हासिल हुई है। भाषा पर इस पकड़ के चलते वे हर जगह सटीक और इच्छित प्रभावकारी तरीके से अपने विचारों को अभिव्यक्ति दे पाने में सफल होते हैं। उम्र, जाति, धर्म, वर्ग और व्यक्तिगत चरित्रों के इतने शेड्स वे अपनी अनुभव की पिटारी से छांट-छांट कर ऐसी स्वाभाविकता से सम्प्रेषित कर पाते हैं तो केवल अपनी भाषा सामथ्र्य के बल पर। इस एक कहानी में ही प्रयुक्त मुहावरों की लिस्ट भी बहुत लम्बी हो जायेगी। कुछ एक प्रयोगों की छटा देखिये - ‘‘मुझे पागल कुत्ते ने काटा है जो ठाकुरों बाभनों के गाँव में परधानी लड़ूंगा। लड़कर उनकी आंख का कांटा बनना है क्या?’’ ‘‘कहता था खुलकर मदद करूंगा।’’ ‘‘परधानी का बवंडर हम नहीं संभाल सकते। उड़ जायेंगे।’’ ‘‘ऐसा घामड़ बाप किसी को न मिले। उसने कपार पीट लिया।’’ ‘‘सवेरे-सवेरे कैसे राह भूल गये?’’ मास्टर की आह निकली, ‘‘नौकरी से इस्तीफा देना होगा।’’ खुशामद रंग लाई। मास्टर ढीले पड़े। बोले, ‘‘जाओ, पहले और लोगों का मन-मुंह तौलो। मैं तो घर का आदमी ठहरा।’’ ‘इतनी देर में पूरे टोले में बात फैल गई।’ ‘पदारथ चुप्पे और जबान से मिठबोले थे। दुश्मन भी सामने पड़ने पर बगुला भगत का चोला देख ठंडा पड़ जाता था। लेकिन यह तो लगता है पदारथ का भी कान काटेगा।’ ‘जरूर उसी ठाकुर ने तेरी मति फेरी है। इतनी दूर का निशाना तभी मैं कहूं कि तुझे परधानी देने के लिए वह क्यों मरा जा रहा है। तू समझ रहा है कि वह तेरा चुम्मा ले रहा है। अरे कुल कलंकी, वह तुझे डस रहा है। उसके काटने से लहर भी नहीं आयेगी।’ ‘पहले तो ससुरे ने ललकार कर सूली पर चढ़ा दिया। अब मंझधार में लाकर घटियारी कर रहा है।’ ‘बात तो सही है। मांस बाघ के मुंह में डाल चुके हो लेकिन जरूरत पड़ेगी तो रास्ता निकाला जायेगा।’ पूरी कहानी भरी पड़ी है ऐसे प्रयोगों से। शिवमूर्ति के अन्तर की जमीन में एक शरारती रसिकता बचपन से ही अपना घर बनाकर आबाद है। इसे आप उनकी किसी भी कहानी में रह-रह कर सर उठाकर झांकते और अपनी उपस्थिति दर्ज कराते देख सकते हैं। वह अपनी आदत से इस कहानी में भी बाज नहीं आते। वह दृश्य देखें, जब जग्गू पत्नी से अपने परधानी में खड़े होने की चर्चा करता है - ‘‘क्या अंड-बंड बोल रहे हो! कहीं से पीकर आये हो क्या? इधर आओ। तुम्हारा मुंह सूंघूँ।’’ ‘‘अरे हट। मुंह में क्या रखा है? हां, चुम्मा लेने का मन हो तो साफ-साफ बोल।...... और दौड़कर तेल गरम कर ला। मालिस करना होगा। पैर दर्द से फटे जा रहे हैं।’’ पत्नी बाहर जाने के लिए मुड़ भी न पायी थी कि उसने जूठे हाथ ही उसे अंकवार में भरा और लिए-दिए बगल की खटिया पर गिर पड़ा। खटिया की पाटी टूटी चर्र -ऽ-ऽ। सुलताना और उसके पति का जिक्र करते हुए शिवमूर्ति जी की भाषा देखें- ‘साला, सुलतनवा जैसे मोती को रोज चुगता होगा।’ उसे ईष्र्या हुई। ‘सातवीं क्लास में सुलताना उसके बगल वाले टाट पर दरवाजे के पास बैठती थी। आते जाते वह उसकी समीज के अन्दर झांकने की कोशिश करता था। सुलताना को सब पता था। वह सावधान हो जाती थी। समीज को पीछे से थोड़ा नीचे खींच देती थी। फिर उसकी निराशा पर मुस्कराती थी।’ क्लेप्टोक्रेसी जैसे गंभीर विषय पर चर्चा करते समय भी मौका पाने पर शिवमूर्ति शरारती भाषा का प्रयोग करने से चूकते नहीं। - ‘क्यों नहीं हो सकता? क्या नहीं हो सकता? बुलाओ मुंशिया को। ससुरा सांझ से ही मुंशियाइन के लंहगे में घुस जाता है। बुढ़ापे में भी अलग नहीं सो सकता। बुलाओ कायस्थ बुद्धी लगाकर कोई तरकीब निकाले।’ ‘लहंगे में घुसना कब का छूट गया लेकिन घुसने की कल्पना कर के अधगंजे सर के सफेद बाल भी परपराकर खड़े हो जाते हैं।’ यहां तक कि अपनी प्रिय पात्रा फुलझरी के साथ हुए षडयंत्र का वर्णन करते समय भी उनकी प्रकृति अपना काम कर गई है - ‘‘बड़ी छतीसी औरत निकली गुइयाँ।’’ औरतों का झुण्ड दातों तले उंगली दबा रहा है। ‘‘कब से है यह आशनाई? किसी को भनक तक नहीं लगी।’’ ‘‘कहां चालीस-पैतालीस की फुलझरिया, कहां बीस-बाइस का शंकरवा! दूने की चोट। माई रे।’’ पोलिंग पार्टी में आई एक महिला का वर्णन करते समय शिवमूर्ति की कलम की धार देखें - ‘पार्टी में साल भर के बच्चे वाली एक सुन्दर महिला भी है। बहुत उदास है। लाख जतन के बाद भी वह अपनी ड्यूटी नहीं कटवा सकी। सभी महिला को देख-देख कर बच्चे से प्यार जता रहे हैं। उसके पीने के लिए दूध आ गया है।’ शिवमूर्ति के यह रसात्मक वर्णन जहां कहानी की एकरसता को भंग करते हैं तथा पाठक के तनाव को कम करते हैं वहीं दृश्यों को स्वाभाविकता भी प्रदान करते हैं तथा व्यंग को और भी धारदार बना देते हैं। शिवमूर्ति की कहानी कहने की कला अद्भुत है। अपनी अभिव्यक्ति को धारदार बनाने के लिए वे कई तरह के प्रयोग करते हैं। उनके यह प्रयोग देहाती मिट्टी से अंकुरित, लोक की ख़ुशबू में रचे बसे प्रयोग हैं, जिसे किसानों ने सदियों से मांज-मांज कर धारदार बना दिया है। इनमें से एक है, अपनी बात कहने के लिए इशारों का प्रयोग। उचित अवसर पर शिवमूर्ति बहुत सधे हाथों से ऐसा इशारा करके हट जाते हैं और पचाने की जिम्मेदारी पाठक पर छोड़ देते हैं। जब चुनाव प्रचार के समय मुन्दर चन्द्रिका सिंह से कहता है कि मन में कोई मैल न रखें कई पीढ़ी से आपकी मैल ढोते आये हैं। तो शिवमूर्ति का इशारा देखें - ‘‘हाथ जोड़ने के तुरंत बाद हाथ मलने की आदत है मुन्दर की। जैसे साबुन लगाने के बाद नल के नीचे धो रहा हो।’’ अपने ही वर्ग व वर्ण दुश्मन से हाथ जोड़ने की मज़बूरी को जग्गू के मन का अवचेतन स्वीकार नहीं कर पाता। इस जगह दरअसल इस मज़बूरी से मन में उभरी अवमानना को ही शमित करता है जग्गू का अवचेतन। उसका अवचेतन मन यह विश्वास करता है कि सामने वाला व्यक्ति इतना गंदगी से भरा है कि प्रणाम के लिए हाथ जोडने पर भी हाथ गंदे हो गये हैं, जिसे धोना जरूरी है। अपनी आत्मा में इस गंदगी से उभरे लिजलिजेपन और दुर्गंध को शमित करने के लिए अवचेतन मन द्वारा अन्जाने ही हाथ धोने का अभिनय कराके उसका प्रतिकार करता है जग्गू। अवचेतन मन की ऐसी एसी परतें खोलते, शिवमूर्ति के ऐसे बारीक मनोवैज्ञानिक इशारे अन्जाने ही अपना प्रभाव छोड़ते हैं, लेकिन प्रकट में जल्दी पता नहीं चलता। जग्गू जब सुल्ताना से मिलकर लौटता है तो लेखक उसके मन के कोमल भाव को इशारे के एक वाक्य से ही अभिव्यक्त कर देता है- ‘‘उसका मन कहता है, कहीं अकेले में बैठकर देर तक सुल्ताना के बारे में अच्छी-अच्छी बातें सोचता रहे। सड़क पर छलांग लगाते हुए चलने का मन कर रहा है।’’ बचपन की मीत सुल्ताना से बहुत अर्से बाद मिलकर और सकारात्मक रुख पाकर मन हल्का हो जाने और मन में पुरानी स्मृतियां उभरने की बात को इतने आकर्षक इशारे से व्यक्त किया है कहानीकार ने, जैसे सांप भी मर जाय और लाठी भी न टूटे। खुलकर कुछ कहना भी न पड़े और पाठक रस से सराबोर भी हो जायें। वैसे ही मुंशीजी की प्रकृति स्पष्ट करने के लिए छोटे-छोटे दो वाक्यों में इशारे से बहुत कुछ कह दिया गया है - ‘‘घर जाते हुए जग्गू की खोपड़ी भाँय-भाँय कर रही है। कैसे-कैसे सांप-बिच्छू भरे हैं गाँव की खोह में। जब तक काट न लें पता ही नहीं चलता।’’ यह कथन केवल मुंशीजी का ही नहीं बल्कि गाँव के ऐसे कसरी लोगों की जमात का ही चरित्र प्रकट करता है जिनसे गाँव की दुनिया भरी पड़ी है। पहले गाँव की चैपालों में और अब चैपालें ख़त्म होने के बाद तपनी की आग के इर्द-गिर्द बैठकर सतनत-पुतनत के किस्से और सीमित दुनिया की असीमित बातों को बार-बार ताश के पत्तों की तरह फेटे जाने पर ही ऐसे कुछ विशिष्ट लोगों का चरित्र गठित होता है जो सांप-बिच्छू से भी अधिक ज़हरीले हो जाते हैं और बातों से ही पानी में आग लगा देने में सक्षम हो जाते हैं। काउन्टिंग के पहले वाली रात शिवमूर्ति ठाकुर को एक सपना दिखाते हैं, यह सपना भी उनका जबरदस्त इशारा ही है। ‘रात के सपने ने उनकी आवाज में कंपन पैदा कर दिया है। सपना देखा कि जग्गू हाथी की नंगी पीठ पर बैठा उसी की ओर आ रहा है। उसके हाथ में लम्बा अंकुश है। उनको देखकर अट्टहास करता है,’’ तुम्हीं को खोज रहा हूँ ठाकुर।’’ और हाथी उनकी ओर दौड़ा देता है। निचाट मैदान में वे अकेले भागे जा रहे है, लेकिन पैर ही नहीं उठते। पीछे हाथी की चिग्घाड़। रामसिंह पहले ही भाग खड़ा हुआ। उनकी धोती खुल गई है। धोती की लांग लम्बी होकर पूंछ की तरह घिसट रही है। पैरों में लिपट रही है।’ इस सपनें में एक साथ कई इशारे हैं। बसपा फैक्टर का प्रतिनिधि हाथी है, हाथी की नंगी पीठ पर दलित उभार का प्रतिनिधि जग्गू है, जिसके हाथ में लम्बा अंकुश है। जग्गू का अट्टहास है- ‘‘तुम्हीं को खोज रहा हूँ ठाकुर’’। इशारे में आया हाथी नंगी पीठ वाला हाथी है इस लिए वह ठाकुर के लिए शुभ सगुन वाला गणेश नहीं है। यह हाथी ठाकुर के लिए विजातीय है। ठाकुर का सजातीय हाथी हमेशा हौदे वाला हाथी ही रहा है- चाहे युद्ध में, चाहे शादी में, चाहे घूमने में, यह ठाकुर के दरवाजे पर बंधने वाला हाथी नहीं है। यह रजवाड़ों के रंगढंग सिखाया हुआ नहीं, जंगल में मुसहर के बच्चों की टिटकोरी सुनकर खड़ा हो जाने वाला, उनके लिए तेंदू पत्ता और लकड़ियां ढोने वाला हाथी है। ठाकुर के सपनों में यह निश्चय ही बसपा फैक्टर है। जिसकी नंगी पीठ पर यह दलित उभार का प्रतिनिधि जग्गू बैठा है। जग्गू के हाथ में लम्बा अंकुश होना भी इशारा है। आमतौर पर हाथी को नियंत्रित करने के लिए महावत लम्बे अंकुश का प्रयोग नहीं करते। ज़ाहिर है लम्बा अंकुश हाथी की पीठ से ज़मीन तक वार करने के लिए ही है। ठाकुर का अवचेतन अपनी संचित अनुभूतियों की आत्मालोचना करता है तो सपने में अपने ही अत्याचारों और प्रतिहिंसक स्वभाव का आईना बन जाता है, तथा जग्गू को नायक और खुद को खलनायक बना देता है। कठिनाई के दिनों में स्वार्थी मित्र सबसे पहले भागते हैं, सो रामसिंह भाग गया है। धोती की लांग लम्बी होकर पूंछ की तरह घिसटते हुए पैरों से लिपट जाने द्वारा हिंसक जानवर के शक्तिहीन होकर गीदड़ बन जाने का इशारा है। यह शिवमूर्ति जी की कला ही है जो इतने महत्वपूर्ण विमर्श को एक छोटे से, देखने में सीधे सादे सपने के माध्यम से पुरजोर ढंग से व्यक्त कर देती है। ‘बनाना रिपब्लिक’ की क्रांतिकारी चेतना ‘कफ़न’ और ‘ठाकुर का कुंआ’ से बहुत आगे बढ़ गई है। यह बात ध्यान देने की है कि ‘कफ़न’ में तत्कालीन सामंत, घीसू माधो की पत्नी के दाह संस्कार के लिए जो मदद करते हैं उसकी तुलना ठाकुर का कुंआ में बीमार पति के लिए चोरी से पानी लेने गई गंगी को दौड़ा लेने और गम्भीर रूप से बीमार जोखू द्वारा गंदा, जहरीला, बदबूदार पानी पीने की मजबूरी से की जाय तो स्पष्ट हो जाता है कि सामंतवाद दलित की मदद और उसपर प्रहार दोनों न तो किसी दया से अभिभूत होकर करता है न किसी बेवजह उन्मत्त क्रोध से करता है। दया और क्रोध की यह दोनों ही क्रियायें वह अपने ढांचे को मजबूत और अटूट बनाये रखने के लिए बेगारी और मज़बूरी के श्रम की परंपरा और उसकी सामाजिक संरचना के लिए आवश्यक दार्शनिक औजार को धार देने के लिए, उसे चमचमाता बनाये रखने के लिए ही करता है। ‘राम क चिरई-राम क खेत, खा ले चिरई भर-भर पेट’ जैसी कहावतें गौरैया के लिए हो सकती हैं, लेकिन दलित के लड़के द्वारा एक गन्ना तोड़ लिए जाने पर या एक गिरा हुआ आम उठा लिए जाने पर भी उसे दण्ड का भागी बना सकते हैं। ‘सवा सेर गेहूँ’ के कर्ज से उसे जनम-जनम तक ग़ुलाम बनाये रख सकने वाली यह सामंती दया कहीं से भी सांमतवाद को सहानुभूति का पात्र नहीं बनाती। अपने कूप से पानी न लेने देने और जग्गू के दरवाजे आकर उसकी बाल्टी भर पानी पी जाने की इच्छा जाहिर करने, दोनो ही बातों के केन्द्र में सामंत द्वारा अपनी समस्त सुविधा सम्पन्नता बरक़रार रखने की जद्दोजहद का ही उद्देश्य छिपा हुआ है। उसी प्रकार ‘ठाकुर का कुआं’ में बीमार पति जोखू की जान बचाने के लिए, सुनसान अंधेरी आधी रात में हर प्रकार के भय पर क़ाबू करके ठाकुर के कुएं पर चोरी से पानी लेने जाना दलित गंगी को चोर और अपराधी नहीं साबित करता, बल्कि एक अमानवीय और अत्याचारी परंपरा और क़ानून के भंजन हेतु अदम्य मानवीय जिजिविषा द्वारा किया गया मुक्तिकामी प्रयास है। ‘कफ़न’ में घीसू-माधो द्वारा कफ़न के पैसों से दावत उड़ाना और शराब पीकर नाचना भी उसी अमानवीय ब्राह्मणवाद के सबसे मज़बूत दार्शनिक आधार ‘परलोक के व्यापार’ पर कमज़ोर हाथों द्वारा किया गया अत्यन्त बलशाली प्रहार है। उनका मेहनत से भागना आलस्य नहीं बल्कि शोषण की मशीन का पुर्जा बनने से इंकार का एक व्यंगात्मक स्वरूप है और प्रसव पीड़ा में मरती हुई बुधिया की कोई मदद न करके भुने जाते हुए आलू पर निगाह गड़ाये रखना सामंती क्रूर आर्थिक सम्बन्धों से उपजी एक भयावह मनस्थिति का मार्मिक व्यंगात्मक अट्टहास है। ‘बनाना रिपब्लिक’ में हाथी द्वारा दौड़ाये जाने का सपना देखने के बाद अंदर से हिल चुके, और जीते हुए जग्गू की अगवानी के लिए सारी तैयारी करके इन्तज़ार करते ठाकुर जब देखते हैं कि जलूस सीधे जग्गू के घर की ओर मुड़ गया तो ढोल ताशे की धमक अचानक उनकी छाती पर धमकने लगती है। सिंघा बाजा की आवाज डरावनी लगने लगती है। शिवराज कुंवरि गुस्से में हाथ की माला सामने चैकी के नीचे फेंक देती हैं। लेकिन ठाकुर थोड़ असमंजस के बाद तय करते हैं कि वे ख़ुद जायेंगे। ‘‘जाना ही होगा। एक लाख से ज्यादा इनवेस्ट कर चुके हैं। बात बिगड़नी नहीं चाहिए।’’ ‘घुटने टेक कर वह हाथ बढ़ाते हैं और चैकी के नीचे से माला निकाल कर कुर्ते की बगल वाली जेब में डालते हैं। मंकी टोपी निकाल कर फेंकते है और कुबरी लेकर निकल पड़ते हैं।’ जग्गू को पहनाने के लिए माला उठाने को ठाकुर का घुटने टेकना भी कहानी में एक प्रतीक है, एक महत्वपूर्ण इशारा है सामंतवाद के धीरे-धीरे घुटना टेककर दलित के दरवाजे पर अपनी मजबूरी के चलते जाने के लिए तैयार होने का। शक्ति के बदलते समीकरण का। पहले भी सामंत अपनी मजबूरी के चलते ही दलित के दरवाजे पर जाते थे मजदूर बुलाने, लेकिन तब अकड़ में जाते थे, आज अकड़ ढीली हो चुकी है। परिदृष्य बदल चुका है। यह बात भी ध्यान देने की है कि शिवराज कुंवरि गुस्से में हाथ की माला चैकी के नीचे फेंकती हैं जबकि ठाकुर ‘घुटने टेककर’ माला निकालते हैं। वे अपनी पत्नी से माला गुंथवाते ज़रूर हैं लेकिन चैकी के नीचे उनके द्वारा फेंकी माला को उनसे निकालने के लिए कहने के बजाय ख़ुद ही घुटने टेक कर हाथ बढ़ाते हैं। शिवमूर्ति द्वारा यह चित्रण वह भी कहानी के चरम बिंदु पर अनायास ही नहीं किया गया है। बहुत सोच-समझकर सायास किया गया चित्रण है यह। वे गाँव की मिट्टी में पले बढ़े, और समस्त अनुभव की पिटारी उसी मिट्टी से खींचकर समृद्ध हुए लेखक है। सामंतवाद की नस-नस से वाक़िफ़ हैं वे। वे जानते हैं कि ठाकुर टूटे हैं, शिवराज कुंवरि अभी नहीं टूटी हैं। सवर्ण स्त्री भले ही पुरूष सत्ता की सताई हुई, उसके सबसे घातक प्रहारों को सहन करने के लिए अभिशप्त है, फिर भी वह इस व्यवस्था की सबसे प्रमुख पोषक है, सबसे मज़बूत कड़ी है। हर दुख और दुर्दिन में अपने पुरूष, अपने बेटे, अपने भाई को फिर से हर दुख सहकर भी सहारा देने को खड़ी देवी भी है। सदियों-सदियों उसके मन में इस देवी स्वरूप की प्राण-प्रतिष्ठा करता रहा है सामंतवाद। इसलिए वे ठाकुर का हाथ पकड़कर खींचती हुई कहती हैं- ‘‘जाने दीजिए हरामजादे को। दोगला निकला। आप अन्दर चलिए।’’ उन्हें इस दुनिया के बदल जाने का /बदल पाने का कत्तई आभास/विश्वास नहीं है। क्यों कि यह व्यवस्था उनके लिए सनातन है, परमात्मा द्वारा सृजित है; जबकि ठाकुर इसकी सारी पोल जानते हैं। उन्हें पता है कि यह हनक, यह साम्राज्य बनाने के लिए क्या-क्या करना पड़ता है। जान देने और जान लेने के रास्ते से गुजर कर ही गाँव से लेकर राजमहलों तक के साम्राज्य अस्तित्व में आते हैं और क़ायम रहते हैं। इसलिए घुटने टेककर ठाकुर का माला उठाना बहुत बड़ा प्रतीक बन जाता है कहानी में; और ध्वस्त होती कृषि अर्थव्यवस्था में स्वयं पूंजीवादी अपंग लोकतंत्र द्वारा घायल हुए इस मरणासन्न सामंतवाद के लिए बनने वाले ताबूत की पहली कील जैसी अनुभूति प्रदान करता है। इस कहानी में लेखक अपनी मनपसंद स्नेहपात्रा फुलझरी को एक क्रांतिकारी चरित्र के प्रतीक के रूप में ले आये हैं। उसे कमर में लाल चुनरी बांधे हुए दिखाकर वे क्रांतिकारी वामपंथ की ओर ही इशारा करते हैं। उसे नीली चुनरी बांधे हुए नहीं दिखाते। अपनी इस चाहत का स्पष्ट इशारा जब उन्हें पर्याप्त नहीं लगता तब वे फुलझरिया के भाषण में भी उसकी क्रांतिकारी ऊर्जा को उजागर करते हैं। - ‘‘पदारथ ने तेरह औरतों को विधवा बनाया है। मरद आछत विधवा। उन्हें फर्जी पेंशन दिला रहे हैं। और तो और अपनी सगी पतोहू को विधवा दिखा दिया है। कोई पूछे भला कि विधवा है तो गोद में चार महीने की बेटी किसकी है? जग्गू और मुन्दर में इतनी हिम्मत है कि ठाकुर बाभन टोले की फर्जी विधवाओं की पेंशन रोक सके? जीतते ही मैं यह जाल बट्टा बंद कराऊंगी।’’ इस पात्रा के प्रति शिवमूर्ति जी का लगाव इस हद तक है कि जहां और पात्र लाखों खर्च करते और तरह तरह के हथकंडे अपनाते है, लोगों की जी हजूरी करते हैं और पैसा ख़र्च करके फुलझरी के चरित्र हनन की असफल कोशिश करते है वहीं फुलझरी केवल अपनी क्रांतिकारी चेतना, सच्चाई और संघर्षशीलता के बलपर परिणाम में नंबर दो पर स्थान पाती है। जबकि इतना खर्च और ठाकुर के सपोर्ट के बाद भी जग्गू मात्र सात वोट से जीतता है। कहानी की यह परिणति दरअसल कहानीकार के हृदय में क्रांतिकारी वामपंथ के प्रति आंतरिक संवेदना तथा उसकी अंतिम जीत के प्रति उनके विश्वास को ही अभिव्यक्त करती है। यहीं पर यह कहानी यह उम्मीद भी जगाती है कि आनेवाले भविष्य में शिवमूर्ति जी आंचलिकता का कलेवर तोड़कर राष्ट्रीय जनसंघर्षों के क्रांतिकारी परिदृष्य को भी अपनी कलम से उसी तीव्र अनुभूति के साथ अभिव्यक्त करेंगे जिससे वे अब तक की संवेदनाओं को ज़्ाुबान देते आये हैं, तथा घीसू-माधो की उस पीढ़ी को अपनी कहानियों में सजायेंगे जो एक नई दुनिया बसाने का, एक नये प्यार का अंकुर रोपने का, एक नये तंत्र की संस्थापना का सपना लेकर कुर्बानियां दे रहे हैं। ओम प्रकाश मिश्र ‘आयाम’ 262 जे/1, लेन नं0- 4 बैंकर्स कालोनी परमानतपुर, जौनपुर (उ0प्र0)। पिन - 222002 मो0 - 9838201907

पाँडिचेरी विश्वविद्यालय में दिया गया भाषण


हिंदी विभाग, पाँडिचेरी विश्वविद्यालय, कालापेट, पुडुच्चेरी - 605014






फोटोग्राफ








शिवमूर्ति की कथा - यात्रा में नया मोड़

इंडिया इनसाइड पत्रिका की साहित्य वार्षिकी 2016 में प्रकाशित आलेख 

शिवमूर्ति की कथा - यात्रा में नया मोड़
·                    उमेश चौहान

            शिवमूर्ति समकालीन हिन्दी साहित्य के ऐसे विरल कथाकार हैं, जो गाँव, गरीब व स्त्री के उस यथार्थ के आख्यान रचते हैं, जहाँ तक दूसरों की दृष्टि कम ही पहुँचती है। यह यथार्थ सिर्फ़ उनकी कहानियों के कथानक अथवा घटनाक्रम में ही नहीं समाहित होता, बल्कि उनकी भाषा, उनके पात्रों के चरित्र, उनके संवाद, हर जगह झलकता है। वे अपनी कहानियों में ग्रामीण समाज को उतने ही बेडौल, उतने ही कुरूप, उतने ही खुरदरे, उतने ही वीभत्स रूप में चित्रित करते हैं, जितना वह वास्तव में है। इसके लिए वे अपने अनुभव के आधार पर विषय - वस्तु चुनते हैं, सावधानी के साथ पात्रों का चुनाव करते हैं, उनकी भाषा - बोली - संवादों को सहज रूप में अपनाते हैं। वे चरित्रों को कल्पना का जामा पहनाकर न तो उन्हें महिमामंडित करते हैं और न ही उन्हें खलनायक बनाने का प्रयास करते हैं। वे उन्हें स्वाभाविक रूप में सारी अच्छाइयों - बुराइयों के साथ अपनी कथा में पिरोते हैं। तभी तो उनकी कहानियाँ पढ़ते समय हमें ऐसा लगता है, जैसे हम अपने ही गाँव के दलितों - पिछड़ों के किसी टोले का कोई दृश्य सजीव रूप में सामने घटित होते देख रहे हों। हाँलाकि शिवमूर्ति की कहानियों केवल दलित व पिछड़ों की चिन्ता नहीं है। न वे केवल दलितों के सरोकारों की बात करते हैं और न ही गैर - दलितों के वर्चस्व अथवा सामुदायिक असमानता की बात करते हैं। उनके सरोकार सभी जातियों - समुदायों के गरीबों से जुड़े हैं। इसीलिए प्रचलित अर्थ में उनके लेखन को दलित विमर्श का हिस्सा नहीं माना जाता। उनके लेखन में वर्गीय चिन्ता प्रबल है। उसमें नारीवाद प्रबल है, हाँलाकि शिवमूर्ति ने कभी अपने को नारीवादी नहीं कहा है। किन्तु यह वास्तविकता है कि उनकी अधिकांश कहानियों के केन्द्र में स्त्री ही होती है, क्योंकि संभवत: आज के आधुनिकता व उत्तर आधुनिकता के बीच झूलने वाले शहरी वातावरण की तुलना में, ग्रामीण परिवेश में जीने वाली गरीब व निरन्तर प्रताड़ित की जा रही स्त्री की मध्ययुगीन स्थिति ही उन्हें सबसे ज्यादा चिन्तित करती है। इन्हीं सब विशेषताओं के कारण ही केवल दसेक कहानियाँ लिखने के बावजूद शिवमूर्ति आज हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कथाकारों में गिने जाते हैं।
                                                                                                                                           
          शिवमूर्ति की कोई भी नई कहानी आना, साहित्य - जगत के लिए एक आकर्षक घटना होती है, जिसकी चर्चा हर जगह होना स्वाभाविक होता है। ऐसे में जब लगभग तीन साल के अंतराल के बाद अभी उनकी नई कहानी, ‘कुच्ची का कानून’ प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका ‘तद्भव’ के ताजा अंक में छपी, तो इसने सहज रूप मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा। मैं पहले भी शिवमूर्ति की कहानियों पर लिख चुका हूँ, किसी आलोचकीय ज्ञान के आधार पर नहीं, पूर्णतया एक पाठकीय विवेक के साथ, जिसकी कि आज मुझे बड़ी आवश्यकता लगती है। अपने उसी पाठकीय विवेक के साथ जब मैंने उनकी यह नई कहानी ‘कुच्ची का कानून’ पढ़ी तो लगा कि शिवमूर्ति की यह कहानी एकदम अलग है। सच पूछा जाय कि पहले तो एक झटका - सा लगा कि कहीं शिवमूर्ति भी इस कहानी के माध्यम से अखिलेश की तरह यथार्थ की सीढ़ियाँ चढ़ते - चढ़ते  काल्पनिकता के सहारे अपने आदर्शों का एक नया संसार रचने की तरफ तो नहीं बढ़ चले हैं। लगभग तीन वर्ष पहले आई अखिलेश की नई कहानी ‘श्रंखला’ कहानी में ऐसी काल्पनिकता का अकल्पित किन्तु सुखद विस्तार मुझे दिखा था, जो उनकी ‘वजूद’, ‘यक्षगान’ व ‘ग्रहण’ जैसी यथार्थपरक कहानियों से काफी भिन्न था। लेकिन जब मैंने ‘कुच्ची का कानून’ का अंत पढ़ा और पूरी कहानी के घटनाक्रम पर फिर से विचार किया, तो लगा कि नहीं, इस कहानी में सृजित किया गया स्त्री का नया विद्रोही चेहरा तथा शहरों से गाँवों की तरफ विस्तारित हो रहा स्त्री - चेतना का नया स्वरूप कहीं से भी केवल एक आदर्श - प्रेरित कल्पना नहीं है, बल्कि वह उस यथार्थ के काफी निकट है, जो हमारे गाँवों में आज वाकई में मौजूद है, भले ही सर्वव्यापी न हो। यह प्रेमचन्द के आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की तरफ की वापसी का कदम नहीं है। आलोचक सूरज पालीवाल ‘हमारे समय की कहानियाँ’ (बहुवचन 37; अप्रैल – जून 2013) में लिखते है, - ‘कहानी अपने समय को रचने की कला है। समय कहानी का मूलाधार है। कहानी अपने समय की धुरी पर ही सचाई को बयान करती है।’ ‘कुच्ची का कानून’ इस सिद्धान्त पर खरी उतरने वाली समकालीन समय के यथार्थ की कहानी है।

            स्त्री के संघर्ष को शिवमूर्ति अपनी कहानियों में हमेशा ही आगे रखते हैं, बाकी सभी कुछ गौण एवं आनुषांगिक रहता है। चाहे वह ‘तिरिया चरित्तर’ की विमली हो, ‘अकालदंड’ की सुरजी हो या ‘कसाईबाड़ा’ की शनिचरी हो, हर जगह नारी - अस्मिता की लड़ाई है, वह भी अति साधारण एवं गरीब तथा लाचार स्त्री - पात्रों के माध्यम से। इस लड़ाई में प्राय: स्त्री की हारती हुई ही दिखाई देती है, किन्तु कहानी पाठकों मन में संवेदना का उबाल जगाने का अपना काम कर जाती है। वह स्त्री की विमुक्ति की छटपटाहट को बड़े ही प्रभावशाली तरीके से हमारे दिलो - दिमाग में दर्ज़ करा देती है। वह स्त्री के संघर्ष की मशाल को कुछ इस तरह से जलाती है कि कहानी भले ही ख़त्म हो जाए लेकिन मशाल नहीं बुझती। ‘कुच्ची का कानून’ स्त्री - संघर्ष की एक नई मशाल है। यह शिवमूर्ति की बीसवीं सदी की नहीं, इक्कीसवीं सदी की कहानी हैं। इस कहानी की पंचायत उनकी ‘तिरिया चरित्तर’ की पंचायत से एकदम भिन्न है। यहाँ स्त्री अनपढ़ व सामाजिक बेड़ियों में कैद होते हुए भी अधिक वाचाल है, राजनीतिक रूप से अधिक दक्ष है, अपने अधिकारों की रक्षा के लिए अधिक कृतसंकल्प है, तथा बाहरी समाज भी उसके संघर्ष में जुड़ने को तत्पर है। इसीलिए इस पंचायत में स्त्री हारती नहीं, वह गाँव के मुड्ढों को अपनी तर्कशीलता से उन्हीं की माँद में  निरुत्तरित कर देती है और एक विजयी के रूप में उभरती है। यहाँ संघर्ष की नियति निराशाजनक नहीं है। वह पूरी सड़ी - गली पितृसत्तात्मक व्यवस्था को परिवर्तित करने का मार्ग प्रशस्त करने का साधन बन जाता है। इस कहानी की स्त्री अपने संघर्ष में अकेली भी नहीं है, उसके साथ वह नया चेतन समाज है, जिसे आज सिविल सोसायटी कहा जाता है।

            कहानी के स्वरूप व कथानक की बात की जाय तो यही कहना पड़ेगा कि ‘कुच्ची का कानून’ लीक से हटकर है। हिन्दी के पाठक वैसे तो लगातार लंबी कहानियों से रू - ब - रू होते रहे हैं, किन्तु यह कुछ ज्यादा ही लंबी कहानी है, जो प्रथमदृष्ट्या लघु उपन्यास जैसी लगती है। कथानक भी साधारण है, बिना किसी तरह की जटिलता अथवा अप्रत्याशित सस्पेंस को लपेटे हुए। लंबी होने के बावजूद यह कहानी इतनी रोचक है और इसके संवाद इतने चुटीले हैं कि पाठक एक बार पढ़ना शुरू करने पर, इसे ख़त्म किए बिना बीच में रुक ही नहीं सकता। गाँव के एक सामान्य किसान परिवार की नवविवाहित विधवा कुच्ची इस कहानी का केन्द्र - बिन्दु है। वह सुन्दर है, बलिष्ठ है और आकर्षक यौवन की स्वामिनी है। उसका पति बजरंगी उससे बेहद प्यार करता है, लेकिन एक दिन अचानक उसकी ज़हरीली शराब पीने से उसकी मौत हो जाती है। शादी के चंद महीनों के भीतर ही बिना कोई गर्भ धारण किए विधवा हो जाना एक ऐसा अभिशाप है, जिसे कुच्ची ज़िन्दगी भर नहीं बर्दाश्त कर सकती। उसके सास - ससुर बूढ़े हैं। वे उसे अपने घर में विधवा के रूप में जीते हुए नहीं देख सकते। वे कुच्ची को पुनर्विवाह की अनुमति देने के साथ ही उसे वापस उसके मायके भेज देने का निर्णय लेते हैं। लेकिन नियति को यह मंजूर नहीं। कुच्ची के पिता उसे वापस लेने आते हैं। उनकी साइकिल पर उसका सामान भी लद जाता है। कुच्ची की विदाई भी होने लगती है। किन्तु अचानक ही उसकी सास दु:ख से अचेत हो जाती है। विदाई टल जाती है। और फिर वहीं से शुरू होती है एक ऐसी कुच्ची की दास्तान जिसे शिवमूर्ति ने अपनी कलम से एक साधारण ग्रामीण स्त्री के विप्लव के विशिष्ट आख्यान के तौर पर रचा है।

            कुच्ची के ससुर रमेसर के और कोई संतान नहीं। उसके भाई का बेटा बनवारी उसकी ज़मीन - जायदाद पर नज़र गड़ाए रहता है। बजरंगी की मौत उसे वरदान के रूप में दिखाई देने लगती है। कुच्ची के घर से विदा हो जाने में उसे सीधा फायदा दिखता है। इससे चाचा की संपत्ति हड़पने का उसका रास्ता साफ़ हो जाता। इसीलिए कुच्ची की विदाई में विघ्न पड़ना उसे नहीं सुहाता। बाद में जब कुच्ची की सास के पैर में फ्रैक्चर हो जाता है और उसके जिला अस्पताल में भर्ती हो जाने के कारण कुच्ची का जाना लंबे समय के लिए टल जाता है, तब तो वह षडयंत्र करने पर ही उतर आता है। वह कुच्ची से जबरिया संबन्ध बनाना चाहता है। उसे लगता है कि इससे सारी संपत्ति का हकदार वही बन जाएगा। उसे अपनी पत्नी सुलछनी की भी परवाह नहीं। सुलछनी भी उसकी बातों के लालच में आकर साज़िश में शामिल हो जाती है। लेकिन कुच्ची खुद्दार है। वह सास - ससुर की रक्षा करने के प्रति भी सजग है। उसमें संघर्ष करने का भरपूर जज़्बा है। उसमें ताकत भी है और हिम्मत भी। वह हर कदम पर अपने जेठ बनवारी की तिकड़मों का मुँहतोड़ जबाब देती है। उसकी सास को उस पर पूरा यकीन है। ससुर लड़ने से डरते हैं और बनवारी के अत्याचार को सहने का प्रयास करते हैं, किन्तु सास कुच्ची का हौंसला बनाए रखती है। कुच्ची ने सास के इलाज़ के समय रोज़ शहर के अस्पताल आते - जाते काफी दुनिया देख - समझ ली है। अस्पताल की नर्स कुट्टी से उसे अपनी अस्मिता को बचाने का रास्ता मिलता है। वह माँ बनने के अपने अधिकार को समझ लेती है और गर्भ धारण करती है। कुच्ची को गर्भवती देखकर गाँव की औरतों में हड़कंप मच जाता है। परिवार की संपत्ति हड़पने की बनवारी की सारी चालों को निष्फल करती चली आई कुच्ची को अब वह पंचायत में घसीटकर बदचलन साबित करने तथा अपने रास्ते से हटाने की योजना बनाता है। गाँव की पंचायत के मुखिया लछिमन चौधरी तथा उसके प्रमुख मार्गदर्शक बलई पांडे जैसे लोग उसकी योजना में पूरक बनते हैं। किन्तु कुच्ची भी गाँव की राजनीति को बखूबी समझ लेती है और अपने लिए समर्थन जुटाने हेतु पंचायत से पहले स्वयं ही जाकर गाँव के विचारशील बुजुर्ग धन्नू बाबा तथा दबंग महिला सुघरा ठकुराइन आदि से मिलती है। उसे सबसे बड़ा समर्थन मिलता है गाँव के पढ़े - लिखे धरमराज वकील का। शिवमूर्ति की इस कहानी की पंचायत इन्हीं सब कारणों से भिन्न हो जाती है।

            ‘तिरिया चरित्तर’ की पंचायत में सच नहीं सुना जाना था और विमली को दंडित होना ही था। भले ही वहाँ भी मनतोरिया की माई जैसी स्त्री ने भरपूर प्रतिरोध किया था। लेकिन कुच्ची का समय भिन्न है। शिवमूर्ति ने इस कहानी में स्त्री की सोच में, उसके चरित्र में, उसके साहस में, उसकी राजनीतिक जागरूकता में, गाँव के सामाजिक परिवेश में, आसपास के समूचे वातावरण में कालान्तर में आए बदलावों को बखूबी पकड़ा है और कहानी को नया मोड़ दिया है। कुच्ची प्रतिरोध ही नहीं करती, बल्कि पंचायत की सोच बदलने का भी प्रयास करती है। इस संघर्ष में उसे धन्नू बाबा तथा सुघरा ठकुराइन जैसे लोगों का साथ भी मिलता है। आज का गाँव शहर से उतना अलग - थलग भी नहीं है। बाहरी समाज भी गाँव की इस पंचायत के प्रति बखूबी आकृष्ट होता है। पंचायत में गाँव के धरमराज वकील की महिला सहयोगियों तथा सरकारी संस्थाओं से जुड़े महिला कार्यकर्ताओं की उपस्थिति इसका उदाहरण है। उनकी उपस्थिति में पंचायत सरासर मनमानी नहीं कर सकती। इसलिए इस पंचायत में कुच्ची विमली की तरह परास्त नहीं होती। वह विजयी होती है, भले ही पंचायत पूरी तरह से न्याय के पक्ष में नहीं खड़ी दिखाई देती। अंत में बनवारी के बेटे विघ्न डालकर पंचायत को निष्फल बना देते हैं, ताकि उल्टे उन्हीं के प्रतिकूल कोई निर्णय हो जाए। कुच्ची पंचायत से भले ही अपनी बात न मनवा पाई हो, लेकिन पंचायत उसके ख़िलाफ़ भी कोई निर्णय नहीं ले पाती। वह अपनी कोख की स्वायत्तता की बात मजबूती से समाज के सामने रखती है। वह माँ बनने के अपने अधिकार की रक्षा करने में सफल होती है। कहानी के अंत में शिवमूर्ति पंचायत में “जागो रे जागो! भागो रे भागो .... !” का शोर मचवाकर स्त्री की बदलती स्थिति व समाज की सोच में आ रहे परिवर्तन की उद्घोषणा - सी करते दिखाई देते हैं। निश्चित ही यह आने वाले समय की दस्तक है। यह इस बात की सूचना है कि स्त्री अब जाग चुकी है और पुरुष समाज उसे दबाकर उसके साथ और ज्यादा अन्याय नहीं कर सकता। यहाँ स्पष्ट संकेत है कि परिवर्तन की जो आँधी अभी यहाँ - वहाँ उठ रही है, वह आगे और व्यापक रूप धारण करेगी तथा सभी कुछ बदलकर रख देगी।   

            स्त्री का उसकी अपनी कोख पर कितना और किस तरह का अधिकार हो, शिवमूर्ति की यह कहानी इसी ज्वलन्त मुद्दे पर केन्द्रित है। शिवमूर्ति इस मुद्दे पर समाज में व्याप्त उत्तर आधुनिक विमर्श को कहानी में एक कदम और आगे ले जाते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने यह विमर्श उन स्त्री - पात्रों के जरिए आगे नहीं बढ़ाया है जो पढ़े - लिखे हैं, और स्त्री - समाज को परिवर्तन की राह पर आगे बढ़ाने की मशाल थामे हुए हैं। यहाँ परिवर्तन की मशाल थामकर एक ऐसी स्त्री सामने खड़ी होती है, जिसका कोई सहारा नहीं है। वह न तो ज्यादा पढ़ी - लिखी है, न ही आधुनिकता के वातावरण में पली - बढ़ी है। उसके साथ तो बस उसका आन्तरिक नैतिक एवं वैचारिक बल ही है। उसकी सास उसके साथ है, लेकिन खुद उसी की प्रेरणा के कारण। उसके भीतर परिवर्तन की यह चिन्गारी नर्स कुट्टी जैसी स्वतंत्र विचारों वाली स्त्री की प्रेरणा से जगी है। वकील धरमराज, धन्नू बाबा तथा सुघरा ठकुराइन जैसे गाँव के आधुनिक सोच वाले लोगों से उसे ज्ञान तथा तार्किक बल मिला है। अत्याचारी जेठ से उसे मुकाबला करना है। उसे सास - ससुर की संपत्ति हड़पे जाने से बचाना है। उसे अपने दिवंगत पति बजरंगी का वारिस चाहिए। यह वारिस बजरंगी की बायोलॉजिकल संतान तो हो नहीं सकती। लेकिन जिस किसी भी स्वीकार्य तरीके से वह गर्भ धारण करके माँ बन सकती है और अपना वारिस पैदा कर सकती है, वह उसे अपनाने के लिए तैयार है। इस स्वीकार्यता के लिए यह जरूरी है कि वीर्यदाता का नाम गुप्त रहे। गर्भ - धारण के अपने अधिकार को हासिल करने के लिए वह हर तरह का जोख़िम उठाने को तैयार है, पूरे समाज से भिड़ने को तैयार है। जब सास उसकी मंशा पर शंका व्यक्त करती है, तो वह मजबूती के साथ कहती है, - “किसी का नाम धरना जरूरी है क्‍या अम्‍मा? अकेले मेरा नाम काफी नहीं है?” उसे गर्भवती देखकर जब चतुरा अइया उसकी दोनों बाहें पकड़कर झिंझोडते हुए फुसफुसाती है - “कैसे बोल रही है रे? किसी ने भूत प्रेत तो नहीं कर दिया? तेरे जेठ बनवरिया को खबर लगी तो पीस कर पी जायेगा” तो वह निर्भीकता से जबाब देती है, - “जेठ से क्‍या मतलब अइया? मैं उनकी कमाई खाती हूँ क्‍या? उनका चूल्‍हा अलग, मेरा अलग।”

            जब भरी पंचायत में कोख पर अधिकार का मुद्दा गरमाता है तब बलई पांडे कुच्ची को परंपरा और नैतिकता के नाम पर कुलटा साबित करने का प्रयास करता है। वह हज़ारों साल पहले याज्ञवल्क्य मुनि द्वारा प्रदिपादित विरासत के कानून तथा उसकी प्रचलित टीकाओं का उल्लेख करते हुए अपने ज्ञान के भंडार का प्रदर्शन करने लगता है। वह यह दावा भी करता है कि पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने भारत के वर्तमान उत्तराधिकार, विवाह, गोदनामा आदि से संबन्धित कानून याज्ञवल्क्य मुनि के उन्हीं प्राचीन सिद्धान्तों के आधार पर ही बनवाए हैं। वह कुच्ची पर अनपढ़ होने तथा कानून के न जानने का आरोप लगाते हुए उसे यह कहकर धमकाता है कि कानून बड़े - बड़े को मुर्गा बना देता हैं और जब चाँपता है तो मुँह से फिचकुर निकल आता है। लेकिन कुच्ची बलई के पांडित्य - प्रदर्शन से डरने वाली तो है नहीं। गर्भ - धारण के अधिकार पर वह साफ़ बोल देती है, - “हम बैपारी तो हैं नहीं कि घाटा - नफ़ा जोड़कर सौदा करें।” फिर वह, - “कानून में चाँपने की बात भी लिखी है महराज?” जैसा चुटीला प्रतिप्रश्न करके बलई तथा बनवारी दोनों को ही मुलज़िम बनाकर सामने खड़ा कर देती है। चर्चा के अंत में पंचायत में मौजूद बाह्य स्त्री - शक्ति भी कुच्ची के समर्थन में आ खड़ी होती है। वहाँ बाजार से आयी महिलाओं के बीच से जब एक लड़की उसके समर्थन में खड़ी होकर बोलती है, - “याज्ञवल्‍क्‍य कब के मर मरा गए लेकिन उनका बनाया फंदा अभी भी औरतों के गले में फँसा हुआ है। वक्‍त आ गया है कि मरे हुओं का कानून मरे हुओं के साथ दफन कर दिया जाए। ऐसा कानून बने जिससे हम भी जिंदा लोगों की तरह जिंदा रह सकें। हम सब अपनी इस बहादुर बहन के साथ हैं” तब सारी पंचायत निरुत्तर हो जाती है। इस प्रकार पंचायत में बलई का दकियानूसी कानून धरा का धरा रह जाता है और जीतता है बस कुच्ची का कानून। संपूर्णता में देखा जाय तो भारत में हो रहे पारंपरिक व जातीय खाप पंचायतों के अन्यायपूर्ण व अमानुषिक फैसलों  के विरुद्ध समाज में बढ़ रहे अविश्वास और आक्रोश को एक नई दिशा देती है यह कहानी। यहाँ शिवमूर्ति ने कुच्ची के जरिए कोख पर स्त्री के अधिकार के मुद्दे को घर की चौखट से बाहर निकाल उस पर भरी पंचायत में बहस कराकर उसे एक सामाजिक बहस का मुद्दा बनाने का प्रयास किया है और यही उनकी इस कहानी की खास अहमियत है।

            आलोचक वैभव सिंह अपने लेख ‘वर्तमान कहानी और सर्जनात्मकता की चुनौती’ (बहुवचन 37; अप्रैल - जून 2013) में कहते हैं, - ‘दूसरों के अनुभव का हिस्सा बनना, उनकी दृष्टि को ग्रहण करना और अपने अहं के पार जाकर दूसरों के मर्म को छूना ही वह जरूरी प्रक्रिया है जो किसी कहानीकार को बड़ा बनाती है।’ शिवमूर्ति इस दृष्टि से बहुत बड़े कथाकार हैं। अपने पैतृक गाँव तक उनकी आवाजाही निरन्तर होती रहती है। गाँव की सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक स्थित से वे बहुत नजदीक से वाक़िफ हैं। अपनी कथा के वृतान्त व पात्रों का चयन वे गाँव के वास्तविक जीवन से करते हैं। इसीलिए कहानियों में उनके पात्र एकदम सजीव लगते हैं। ‘कुच्ची का कानून’ में भी शिवमूर्ति ने अपने गाँव के सामाजिक यथार्थ का अधिग्रहण किया है। अपनी अनुभव संपन्न दृष्टि से उन्होंने गाँव की एक साधारण स्त्री को एक बड़े परिवर्तन के लिए संघर्ष करने वाली नेत्री के रूप में प्रस्तुत किया है। जिसने आधुनिकता के आसमान में एक पल भी मुक्त सांस न ली हो, गाँव की एक ऐसी साधारण व पारंपरिक सोच वाले परिवार की नवविवाहित विधवा कुच्ची के भीतर कोख के अधिकार की संरक्षा करने तथा आत्मसम्मान की लड़ाई लड़ने जैसा उत्तराधुनिक विचार अचानक कहाँ से पैदा हो जाता है! शिवमूर्ति ने इसके लिए कहानी में एक बड़ा ही स्वाभाविक धटनाक्रम सृजित किया है। कुच्ची के भीतर आए परिवर्तन का ट्रिगर प्वांन्ट कहानी के उस संवाद में छिपा है, जो सास के इलाज़ के समय जिला अस्पताल में कुच्ची और वहाँ की नर्स कुट्टी के बीच में होती है। शिवमूर्ति द्वारा रचित यह संवाद अद्भुत है और शिवमूर्ति की कथा - यात्रा में आए नए मोड़ को उद्घाटित करने वाला है, -   

“बच्‍चा एक फ्रेंड से गिफ्टलिया। उसके साथ महीने भर सोया और बच्‍चा मिल गया। फ्रेंड बोला - शादी बनाएगा? हम बोला - नहीं। हसबैंड बनते ही ‘लभर’ डेमन बन जाता। डेमन समझती?”
“मरद की जरूरत तो पड़ती है न। कुच्‍ची मुस्‍करायी।”
“जरूरत पड़ने पर मरद मिल सकता। जरूरत पड़ने पर बच्‍चा मिल सकता। सैंडिल खटखटाकर जाती हुई कुट्टी मुड़कर मुस्‍कराते हुए बोली - मरद नहीं, हसबैंड ख़तरनाक होता।”

            कुच्ची के युवा मन में नर्स कुट्टटी की बातें सुनकर अचानक आ धमके वैधव्य के कारण नि:संतान रह जाने तथा नि:संतानता के कारण पारिवारिक संपत्ति व सामाजिक वजूद खो देने की स्थिति पैदा होने की पीड़ा असह्य हो उठती है। वह मन ही मन इस स्थिति से निपटने का निर्णय ले लेती है। उसे ससुर से किसी भी तरह के समर्थन की उम्मीद नहीं। वह निस्वार्थ मन से सास की सेवा करती है। जब पैर ठीक हो जाने पर सास अस्पताल से घर लौट आती है, तब वह उससे बनवारी की बुरी नज़र और उसके इरादों का खुलासा करती है। सास को बहू पर पूरा भरोसा है। वह सिर्फ़ उससे सहानुभूति ही नहीं जताती, बल्कि ऊँच - नीच समझाने के बाद उसके साथ संघर्ष में जुड़ने को भी तैयार हो जाती है, किन्तु साथ ही यह भी स्पष्ट कर देती है कि मोर्चा कुच्ची को ही सँभालना है। कहानी में कुच्ची और सास के बीच रात को सोने के पहले हुआ यह संवाद भारतीय पितृसत्तात्मक समाज की स्थापित मान्यताओं के विरुद्ध निरन्तर कुचली जा रही स्त्री के द्वारा विद्रोह का बिगुल कैसे बजाया जाय, उसका उत्तम उदाहरण है, -
 
‘थोड़ी देर तक बिसूरने के बाद रंज डूबी आवाज में कहा था बहू ने – “ए अम्‍मा! मन करता है एक, दो बेटे पैदा कर  डालूँ जो बड़े होकर इसके उसमें डंडा डाले।”
बूढ़ी चोट खाई बहू के मन के उबाल को समझ रही थी। शांत स्‍वर में समझाया था – “यही काम तो औरत नहीं कर सकती बिटिया।”
“औरत ही तो कर सकती है अम्‍मा। मर्द थोड़े कर सकता है।”
“ऐसा मत कर डालना मेरी बच्‍ची। गाँव रहने नहीं देगा। बनवरिया जीने नहीं देगा।”
“अभी कहाँ जीने दे रहा है अम्‍मा। इसीलिए तो जरूरी है।”
“जरूरी तो बहुत है बिटिया लेकिन क्‍या कर सकते हैं। हमारा टैम निकल गया।”

            कुच्ची भय, प्रताड़ना और यौनिक शोषण का अपमान झेलने वाली एक अबला विधवा का जीवन नहीं जीना चाहती। वह अपनी अस्मिता बचाने के लिए, अपने हक़ को हासिल करने के लिए, अपने परिवार की संपत्ति की रक्षा के लिए, अपने मातृत्व की पूर्णता के लिए संघर्ष करना चाहती है। घर में बीड़ी जलाने के लिए आग माँगने के बहाने घुस आए लालची व लंपट जेठ बनवारी का कुच्ची अकेलेदम जिस साहस के साहस के साथ सामना करती है, वह रोमांचकारी है। वह अपने हाथ में हँसिया तान लेती है और उसे हवा में लहराते हुए बनवारी को ललकारती है - “बाप की तरह लगते हो और राल चुआते शरम नहीं आती?” जब बनवारी उसे - पहले मेरी बात तो सुनो कुच्‍चन! मुझे दुश्‍मन क्‍यों समझती हो? मैं दोनों को रख लूँगा। इस घर में तुम राज करो। उस घर में सुलछनी। कहीं जाने की जरूरत क्‍या है?” कहकर प्रलोभित करने की कोशिश करता है तो वह - “कान खोल कर सुन लो। हमारी राहें जुदा हैं और जुदा रहेंगी। फिर कभी मेरी राह काटने की कोशिश किए तो अपने और तुम्‍हारे खून की धार एक कर दूँगी।” कहकर अपना इरादा तथा संकल्प दोनों स्पष्ट बता देती है। कुच्ची सास से बनवारी द्वारा परिवार की ज़मीन हड़पने के प्रयासों के ख़िलाफ़ संघर्ष करने के अपने इरादों का जिन शब्दों में इज़हार करती है, वे कथाकार शिवमूर्ति के चिर - परिचित कथा - शिल्प का एक बेहतरीन नमूना हैं, - लेकिन मैं उसे लीलने दूँगी तब न। सिंघी मछली बन कर उसके गले में अटक जाऊँगी। उसकी आंत में हाथ डाल कर अपनी जमीन निकालूँगी। अब मैं आप लोगों को छोड़ कर कहीं नहीं जाने वाली। जैसे आप लोग उनके माँ - बाप थे वैसे ही मेरे हैं। उसकी आवा क्रमश: ऊँची होती गयी - बर करवा दीजिए मेरे बाप को कि अब कुचिया की जिंदगी अपने सास ससुर की सेवा में कटेगी। करे जितनी बदनामी करना चाहे यह पापी। इसी तरह जब उसे भरी पंचायत के बीच पंचों के निर्णय को मानने की अग्रिम सहमति के लिए बाध्य किया जाता है, तो वह यह जानते हुए कि बनवारी पंचों को अपने पक्ष में करने के लिए सुबह से ही उन्हें गुड़ खिला - खिलाकर पानी पिलवा रहा है, बड़ी ही बेबाकी से उनकी निष्पक्षता को शक के दायरे में ला देती है, - बचन तो दे दिए बाबा कि पद मानेंगे। अगर पंच दूसरे फरीक का गुड़ खाकर कहने लगें कि कुच्‍ची की आंख फोड़ दो, कान काट लो तो कैसे मानेंगे?” पंचायत में होने वाली बहस के बीच उसकी यह स्पष्ट घोषणा सभी पंचों को सकते में डाल देती है, -ऐ आजी!” कुच्‍ची खड़ी होती है - “कुंती माई डर गयीं, अंजनी माई डर गयीं, सीता की माई डर गयीं, लेकिन बालकिसन की माई डरने वाली नहीं है। मेरा बालकिसन पैदा होकर रहेगा।

            कहानी में स्त्री - संघर्ष की यह उड़ान कुच्ची तक ही सीमित नहीं है। उसने अपनी बूढ़ी सास के भीतर भी संघर्ष का पर्याप्त जज़्बा जगा दिया है। ससुर रमेसर डरपोक हैं। वे भतीजे से झगड़ा नहीं बढ़ाना चाहते। वे बूढ़ी पत्नी को भी लड़ने से रोकते हैं। वे बहू पर बिना वजह झगड़ा बढ़ाने का आरोप लगा बैठते हैं। बूढ़ी सास बहू पर लगे इस आरोप को बर्दाश्त नहीं कर पाती। वह बिफर उठती है। यहाँ पति से कहा गया उसका एक - शब्द पितृसत्तात्मक व्यवस्था पर हथौड़े मारने जैसा है, - क्‍या बकते हो?” बूढ़ी गुस्‍से से फुफकारी – झगड़े की जड़ बहू है कि तुम्‍हारा वह कसाई भतीजा, जिसके मुँह में लगाम नहीं है। जो हमारी खेती बारी और घर दुवार पर ही नहीं बहू पर भी दाँत गड़ाए बैठा है। बहू तो इस घर में ब्याह कर आयी है। उसी का तो सब कुछ है। अभी उसे पहुँचा दोगे तो मुझे पकड़ कर जंगल तुम ले चलोगे? रोटी तुम सेकोगे? मेरे ठीक होने के बाद वह अपनी मरजी से जाना चाहेगी तो शौक से बेटी की तरह विदा करेंगे और रहना चाहेगी तो घर की मालकिन बना कर रखेंगे। उसे कौन निकाल सकता है? ऐसी बात मुँह से निकाली कैसे?हाँ का गुस्‍सा कहाँ उतार रहे हो? चीलर के डर से कोई कथरी फेंक देता है?” यहाँ एक ही झटके में स्त्री के साथ घटित होने वाली अनेक प्रकार की वंचनाओं का प्रश्न उठाया गया है। बहू के अधिकार का प्रश्न, घर के भीतर तथा बाहर के कामों को निपटाने में उसकी भूमिका का प्रश्न, अपने जीवन के बारे में निर्णय लेने की उसकी स्वतंत्रता का प्रश्न। चीलर के डर से कथरी फेंक देने जैसे मुहावरे का प्रयोग करके शिवमूर्ति ने यहाँ भाषा को भी अद्भुत निखार दिया है।

            शिवमूर्ति ने ‘कुच्ची का कानून’ में पंचायत को एक तरह के शास्त्रार्थ की वेदी की भाँति प्रस्तुत किया है। यहाँ शास्त्रार्थ का विषय किसी निगूढ़ आध्यात्मिक दर्शन अथवा धार्मिक विचार के निष्पादन से जुड़ा नहीं है। यहाँ विचारणीय विषय एक विधवा स्त्री के कोख के अधिकार से जुड़ा है। माँ बनने के उस विधवा के संकल्प से जुड़ा है। यहाँ वह विधवा एक सामान्य अबला है। वह धर्म - शास्त्रों की ज्ञाता नहीं है, किन्तु उसका व्यावहारिक ज्ञान प्रबल है। उसकी साधारण बुद्धि में असाधारण तर्कशीलता समाहित है। यहाँ पंचों का समूह रूढ़ियों का पक्षधर है, परम्परा का अंधपोषक है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था को बनाए रखने में उसका अपना निहित स्वार्थ है। वह किसी बात को तर्क की कसौटी पर नहीं कसना चाहता। कुच्ची के लिए आशा की किरण केवल धन्नू बाबा तथा सुघरा ठकुराइन जैसे लोग हैं, जिनकी पक्षधरता तो स्पष्ट नहीं किन्तु न्यायप्रियता असंदिग्ध है। इसीलिए कुच्ची उनसे पंचायत में आने का विशेष रूप से अनुरोध करती है। कुच्ची पंचायत के सामने अपने हर कृत्य को तर्क की कसौटी पर कसती हुई सामने रखती है। गर्भधारण की आवश्यकता के बारे में उसके पास, - मेरा आदमी तो एक बार मर कर फुरसत पा गया लेकिन मुझे बेसहारा समझ कर हर आदमी किसी न किसी बहाने मुझे रोज मार रहा था। मैं मरते मरते थक गयी तो जीने के लिए अपना सहारा पैदा कर रही हूँ” जैसा मजबूत तर्क है। पुनर्विवाह न करने के बारे में, - दूसरी शादी कर लेती तो मेरे सास - ससुर बेसहारा हो जाते बाबा। इनको बेसहारा छोड़कर जाते नहीं बना। मेरा रिश्ता मेरे आदमी तक ही तो नहीं था जैसा उसका तर्क भी दमदार है। उसकी कोख पर दूसरी शादी करने तक केवल बजरंगी का ही हक़ है यह कहे जाने पर, - मरे हुए आदमी के काम तो यह कोख आ नहीं सकती बाबा। उनके मरने के बाद किसका हक बनता है? … मेरी कोख पर मेरा हक कब बनेगा?” जैसे उसके प्रतिप्रश्न पंचायत को निरुत्तर कर देने लायक हैं। किन्तु प्रश्न पूछ रहे बलई बाबा तो शास्त्रार्थ में उसे परास्त करने की ठाने हैं, सो वे निरुत्तर कैसे रह सकते हैं। जब वे उस पर, - “बजरंगी के घर का हक हकूक भी लेगी और हराम का बच्‍चा भी पैदा करेगी, ऐसा कैसे होगा?” जैसा प्रश्न दागकर उसे फिर से कटघरे में खड़ा करने का प्रयास करते है तो वह, वे तो जन्‍माने के लिए अब सरग से लौटकर आने से रहे और अकेले मैं जनमा नहीं सकती थीजैसी बात कहकर विलक्षण प्रत्युत्पन्न मति का प्रदर्शन करती है। पंचायत में बलई बाबा के साथ होने वाला आगे का संवाद और भी खरा - खरा है, -

“तो तूने हराम की औलाद से बजरंगी का वंश चलाने की ठानी है। वाह!”
“उनका चले न चले। मेरा तो चलेगा।”
“अरे मूर्ख, वंश माँ से नहीं बाप की बूँद और नाम से चलता है।
“ऐसा क्‍यों है बाबा? पेट में तो नौ महीना सेती है महतारी। बाप तो बूँद देकर किनारे हो जाता है।”

            बलई बाबा पंचायत में तरह - तरह के तर्क - वितर्क करते हैं। कुच्ची हर प्रश्न का तर्कपूर्ण तरीके से मुँहतोड़ जबाब देती है। अपनी होने वाली संतान के हक़ के बारे में उसका यह सटीक जबाब देखिए, - “आपने तो गजब का कानून बताया बाबा। दूसरे का पैदा किया हुआ गोद ले लूँ तो उसे सब कुछ मिल जाएगा और अपनी कोख से पैदा करूँगी तो उसे कुछ भी नहीं मिलेगा। जो मेरी कोख से पैदा होगा उसका आधा चाहे जिसका हो लेकिन आधा खून तो मेरा होगा। गोद वाले बच्‍चे में तो मेरे खून की एक बूँद भी नहीं होगी। दोनों में से मेरा ज्‍यादा सगा कौन हुआ?” जब पंचायत उसके गर्भ - धारण को पौराणिक आख्यानों में वर्णित कौशल्या, कुन्ती आदि के गर्भ - धारण से भिन्न व निम्नतर सिद्ध करने तथा उसके कृत्य को व्यभिचार की श्रेणी में माने जाने के लिए तर्क करती है तो कुच्ची बड़ी सादगी से कहती है, - खीर - हलुआ खाने और सुमिरन करने से रानी महारानियों के पैदा होते होंगे पंचो! उनकी मदद करने तो देवता - पित्‍तर सब दौड़ पड़ते हैं। लेकिन हमारे जैसों की मदद करने वाला तो कोई मानुख पुरुख ही होगा।” और जब पंचायत कुच्ची से उसके मन में बस गए उस मददगार मानुख पुरुख का भेद जानना चाहती है तो वह बड़ी ही साफ़गोई से उत्तर देती है, - “हर औरत के मन में कोई न कोई पुरुख बसता है। कभी वह उसे पा जाती है कभी नहीं पाती। नहीं पाती तो जिसे पाती है, उसी में रम जाती है। मेरे मन में पहले से नहीं बसा था लेकिन जरूरत पड़ी तो बसाना पड़ा।” कुच्ची के इस कथन में स्पष्टवादिता के अलावा विद्रोह की सूचना भी है, अपने हक़ की लड़ाई लड़ने की तैयारी का संकेत भी है और स्त्री की सोच में आ रहे परिवर्तन की बानगी भी है।

            पंचायत की चर्चा में निष्पक्षता के साथ अपनी बात रखने वाले गाँव के सम्मानित बुजुर्ग धन्‍नू बाबा कुच्ची से सहानुभूति रखते हैं। वे धर्म - शास्त्रों के ज्ञाता है, अत: गाँव वालों को उनकी बातों पर भरोसा रहता है। वे कुच्ची को मानते हैं तथा उसके बल, स्वभाव तथा सौन्दर्य के प्रशंसक भी हैं। उनकी दृष्टि में कुच्ची को ‘बेइज्ज़त’ करके सारा गाँव ‘बेइज्ज़त’ हो जाएगा। शिवमूर्ति के शब्दों में कुच्ची को नि:संतान विधवा के रूप में देखकर बाबा को उतना ही दु:ख होता है, जितना सोलह आने मालियत वाले खेत को परती पड़ा देखकर होता है। धन्नू विनोदी स्वभाव के हैं, अत: मन की बातों को मजाकिया लहजे में कह जाते हैं। जब कुच्ची उन्हें पंचायत में आने के लिए मनाने जाती है तो वे बड़े ही विनोदपूर्ण तरीके से उसके नाम की उत्पत्ति ‘कुचवती’ शब्द से हुई बताकर उसके चित्त को प्रसन्न एवं तनावमुक्त कर देते हैं। कुच्ची पंचायत से पहले लगातार तीन दिन तक बाबा के पास बैठती है और शास्त्रोक्त नियमों तथा समस्या का सामना करने के व्यावहारिक पहलुओं का ज्ञान प्राप्त करती है। बाबा कुच्ची को पति की सहभागिता के बिना ही माँ बनने वाली तमाम सुप्रसिद्ध पौराणिक पत्नियों के प्रसंगों का इन शब्दों में स्पष्ट उल्लेख करके उसका मनोबल ऊँचा बनाए रखने में मदद करते हैं, - “कोई बात नहीं। तू पहली औरत थोड़े है जो इस तरह माँ बनी है। जब से यह दुनिया बनी है, ऐसे अनगिनत बच्‍चे पैदा होते रहे हैं। एक से बढ़कर एक प्रतापी, एक से बढ़कर एक महारथी।” बाबा उसे कर्ण, हनुमान, सीता, पाँचों पांडवों आदि की पैदाइश के किस्‍से सुनाते हुए कहते हैं, - “तू पहली औरत है जो कह रही है कि अपनी जरूरत से पैदा कर रही हूँ। ऐसा सोलह आने का सच कौन बोल पाया है आज तक?” निश्चित ही शिवमूर्ति ने इस कहानी में इन पौराणिक प्रसंगों की एक नए यथार्थबोध के साथ नूतन व्याख्या ही नहीं की है, बल्कि यह सिद्ध करने की भी कोशिश की है यदि हम इन सब प्रसंगों में वर्णित स्त्रियों के विवाहेतर गर्भ - धारण को, उनके मातृत्व को, उनसे जनित संतानों के अधिकारों को स्वीकार्य एवं संरक्षण योग्य मानते हैं, तो फिर कुच्ची के गर्भधारण को हेय कैसे मान सकते हैं, इसके लिए उसका अपमान कैसे कर सकते हैं, उसके चरित्र को तो इन श्रेष्ठ पौराणिक माताओं के चरित्र से भी अच्छा माना जाना चाहिए। निश्चित ही जब कुच्ची भरी पंचायत में, - कुंती माई डर गयीं, अंजनी माई डर गयीं, सीता की माई डर गयीं, लेकिन बालकिसन की माई डरने वाली नहीं है। मेरा बालकिसन पैदा होकर रहेगा। कहकर गरजती है, तो उसके पीछे धन्नू बाबा का दिया हुआ नूतन नैतिक अवबोध ही उसे बल प्रदान कर रहा होता है, उसे निर्भीक बना रहा होता है।      

            भारतीय गाँवों की अधिकांश सामुदायिक पंचायतों की यही विडंबना है कि वे प्राय: पहले से ही विवाद से संबन्धित दबंग अथवा जबर व्यक्ति या परिवार के पक्ष में झुकी हुई होती हैं और उसी के पक्ष में निर्णय करती हैं। उनके नीति - न्याय के सिद्धान्त भी अक्सर परंपरागत मान्यताओं अथवा रूढ़ियों द्वारा संचालित होते हैं और पूर्वाग्रह से ग्रस्त होते हैं। शिवमूर्ति ‘कुच्ची का कानून’ में जिस पंचायत का ताना - बाना बुनते है, वह भी इस स्थिति का अपवाद नहीं है। यहाँ भी पंचायत का मुखिया लछिमन चौधरी शुरू से ही बनवारी के पक्ष में खड़ा है। जब उसे कुच्ची के तर्कों की काट नहीं समझ में आती तो वह उसकी संतान के हक़ के संबन्ध में एक नए सिद्धान्त को सामने रखकर अपनी टाँग अड़ाने की कोशिश करता है, - “मेरे विचार से तो बीज ही प्रधान है। खेत किसी का हो, जो बोया जाएगा वही पैदा होगा। आम के बीज से आम। बबूल के बीज से बबूल। बोया बीज बबूल का, आम कहाँ से होय?” लेकिन यह कुच्ची का सौभाग्य है कि पंचायत में उसके अधिकार की अनुशंसा करने वाली गाँव की संघर्षशील व खरी - खरी कहने वाली पूर्व प्रधान सुघरा ठकुराइन भी मौजूद हैं। लछिमन चौधरी द्वारा प्रतिपादित बीज के अधिकार के सिद्धान्त को सुघरा ठकुराइन एक ही झटके में यह कहकर भोथरा कर देती हैं, - “सवाल यह नहीं है कि क्‍या बोने से क्‍या पैदा होगा। इसे तो पीछे बैठ कर हँस रहा वह बग्‍गड़ भी जानता है। …… सवाल यह है कि फसल पर हक किसका होगा? एक आदमी अपने खेत में गेहूँ बो रहा है। उसके बीज के कुछ दाने बगल के जौ के खेत में छिटक कर चले गए। फसल तैयार होने पर साफ पता चल रहा है कि गेहूँ के पौधे बगल वाले के बीज से पैदा हुए हैं। तो क्‍या गेहूँ के खेत वाला जौ के खेत में उगे गेहूँ के उन पौधों पर अपना हक जता सकता है?” सुघरा के इस तर्कपूर्ण प्रश्न से बाजी लछिमन चौधरी के हाथ से निकल जाती है। सुघरा से भिड़ने का साहस पंचों में नहीं है, क्योंकि उसने पूर्व में अपनी पारिवारिक संपत्ति के विवाद में पुरुष वर्चस्व को तोड़ने के लिए काफी संघर्ष किया हुआ है। बलई पांडे को तो वे भरी पंचायत में ही पराई औरत को रात भर घर में बंद करके रखने का प्रत्यारोप लगाकर चित्त कर ही देती हैं। लछिमन चौधरी को चुप कराने की रही - सही कसर धन्नू बाबा गाँव में 'लमेर' संतानों की स्वीकार्यता होने की बात उठाकर पूरी कर देते हैं। उनका इशारा स्पष्ट है कि चूँकि चौधरी खुद बर्मी माँ की लमेर औलाद है, किन्तु गाँव वालों ने कभी उसके असली बाप के बारे में प्रश्न नहीं उठाया है, इसलिए वह कुच्ची के गर्भ से जुड़े पुरुष की असलियत का खुलासा किए जाने की जिद नहीं कर सकता।  

            सुघरा ठकुराइन पंचायत में कुच्ची के बहाने भारतीय स्त्री की वर्तमान स्थिति को चर्चा के दायरे में लाने की कोशिश करती हैं। वे पौराणिक काल से समाज में स्थापित पुरुष - वर्चस्ववादी व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लगाती हैं। सदियों के अन्याय के विरुद्ध उनका यह प्रहार बहुत ही तीखा है, - कुच्‍ची ने न सही, लेकिन हजारों साल से इस देश में पैदा हो रही औरतों ने जरूर सबक सीखा है। उसी सीख से उनका कलेजा पत्‍थर का हो गया है। उसी का डर दिखाकर वे आज भी भेड़ के झुंड की तरह हांकी जा रही हैं। लेकिन यह बताइये कि गौतम मुनि ने अपनी सारी मर्दानगी अपनी ही औरत पर ही क्‍यों दिखायी? सूने घर में घुसकर जिसने छल से अकेली औरत की इज्‍जत लूटी उसका तो आप कुछ उखाड़ नहीं पाये। वह मूँछ ऐंठता मुस्‍कराता सामने से निकल गया। उल्‍टे खिसियाहट मिटाने के लिए अपनी ही छली गयी पत्नी को पत्‍थर बना दिया। यह कैसा इंसाफ है? इसमें औरत के सीखने के लिए क्‍या है?” सुघरा का यह वक्तव्य कहानी का बहुत ही महत्वपूर्ण अंश है। इसमें भारतीय समाज की स्थापित पुरुषवादी मान्यताओं के विरुद्ध एक जागरूक एवं संघर्षशील स्त्री द्वारा किया गया तीखा आक्रमण है। परम्परा का विखंडन है। उसकी निरर्थकता का उद्घोष है। इसमें स्त्री को नई दिशा में बढ़ने का आह्वान है।   

            कोख पर स्त्री के अधिकार जैसे मुख्य मुद्दे से इतर भी इस कहानी में बहुत कुछ ऐसा है, जो हमारी संवेदना को भीतर तक आंदोलित करता है। वैसे भी शिवमूर्ति की किसी भी कहानी में हम गाँव के उस रूप को देखने की अपेक्षा रखते हैं, जो यथार्थ के बहुत ही करीब होता है। उसमें रूमानी या काल्पनिक कुछ नहीं होता। जो खोटा है, सो खोटा है। जो टेढ़ा - मेढ़ा या कुरूप है, सो वैसा ही है। एक लंबे अरसे से मैं शिवमूर्ति की कहानियों को ग्रामीण समाज के यथार्थ के सत्यापन का एक निमित्त मानता आया हूँ। हमारे गाँवों का वह यथार्थ ‘कुच्ची का कानून’ में भी प्रत्यक्ष झलकता है। हाँलाकि इस कहानी में शिवमूर्ति ने स्त्री के निजी संघर्ष से आगे जाकर गाँव की दशा और दिशा पर निगाह डालने की ज्यादा कोशिश नहीं की है, फिर भी एक सशक्त कथाकार होने के नाते वे उस परिवेश को एकदम नज़रंदाज़ भी नहीं कर पाए हैं। कहानी के एक महत्वपूर्ण पात्र व पंचायत के प्रमुख नीति - न्यायकर्ता बलई बाबा के लेटने का यह दृश्य ही देखिए, - बलई बाबा खा पीकर रात के अंधेरे में द्वार से थोड़ा हटकर पाकड़ के पेड़ के नीचे मूंज की चारपाई पर बिना कुछ बिछाए लेटे हैं। नंगे बदन। पसीने से लथपथ। धोती को ऊपर तक खींचकर लंगोट की शक्‍ल दे दिया है। बाध पर पीठ रगड़ - रगड़कर खुजला रहे हैं। हाथ का बना बेना डुला कर मच्‍छर भगा रहे हैं। हमारे गाँवों का जीवन आज भी यही है, पसीने में लथपथ, आधुनिक सुख - सुविधाओं से वंचित, पेड़ों की छाँव में जीता हुआ। इसी तरह का एक और रोचक दृश्य तब सामने आता है, जब कुच्ची ससुराल से विदा होने को तैयार होती है। उसके पिता शादी में दिया हुआ सारा गहना - गीठी सास को सौंप कर हिसाब - किताब चुकता करने में लगे हैं, ताकि बाद में कोई तकरार न पैदा हो। ऐसे में कुच्ची की निगाह जिस सच्चाई पर जाकर अटकती है, वह दृश्य बड़ा ही मार्मिक है, - "इतनी भीड़ देख कर बाहर बंधी भैंस खूंटे के चारों तरह पगहे को पेरते हुए चोकरने लगी। यह भैंस भी गौने में उसके साथ मायके से आयी थी। उसके आदमीको गवहीं खाने के नेग में दिया था उसके बप्‍पा ने। तो क्‍या उसके साथ भैंस को भी लौटना होगा?" ग्रामीण जीवन के ये सहज बिम्ब शिवमूर्ति की कहानी को पाठक के दिल के बहुत करीब ले आते हैं, उसे अत्यधिक सुग्राह्य बना देते हैं।

            शिवमूर्ति की इस कहानी में देश की व्यवस्था अथवा राजनीतिक स्थिति की ज्यादा चीड़ - फाड़ करने का स्कोप नहीं है, लेकिन जहाँ भी इसका मौका मिला है, उन्होंने इसे गँवाया नहीं है। कुच्ची जब पाँव में फ्रैक्चर हो जाने पर सास को जिला अस्पताल ले जाती है, तो वह भारत की लचर एवं भ्रष्ट स्वास्थ्य व्यवस्था से दो - चार होती है। वहाँ गाँव के देवर लगने वाले धरमराज वकील की मदद से किसी तरह दबाव बनवाकर वह सास को अस्पताल में एडमिट तो करा ले जाती है, लेकिन इलाज़ की गाड़ी तब भी ठीक से आगे नहीं बढ़ती। शिवमूर्ति ने कहानी में जिला अस्पताल की दुर्दशा का बड़ा ही सटीक चित्रण किया है, - “सही कहा था नर्सिंग होम के दलाल ने। पैसा न पाने के चलते डाक्‍टर तीन दिन तक आपरेशन टालता रहा। सबेरे कहता कि कल करेंगे। कल आता तो फिर कल पर टाल देता। देर होने से मवाद पड़ जाने का डर था। वार्डब्‍वाय और नर्स पहले दिन से ही डरा रहे थे कि यमराज से झगड़ा करके पार नहीं पाओगे तुम लोग, देहाती भुच्‍च। एक इंच भी पैर छोटा हो गया तो जिंदगी भर भचकते हुए चलेगी बुढ़िया। देवर से कहो कि अपना रुआब कचेहरी में ही दिखाए। इस बार आ गया तो हाथ पैर तुड़ाकर इसी वार्ड में भर्ती होना पड़ेगा।” यह हमारे सरकारी अस्पतालों का नग्न यथार्थ है। जहाँ देखो, मरीज़ों की अपार भीकहीं कोई पुरसाहाल नहीं। समय पर इलाज़ और सेवा उसी को मिलती है, जिसका कोई जान - पहचानवाला हो अस्पताल में। नहीं तो पर्चा बनवाने से लेकर डॉक्टर को दिखाने, टेस्ट करवाने, रिपोर्ट लेने, दवा इशू करवाने आदि में दिन - दिन भर लाइन लगाए रहो। अस्पताल में जैसे पूरे समाज का रोगी चेहरा एकमुश्त सामने आ जाता है। मरना - जीना तो अस्पताल में रोज़ का खेल है। किसी को किसी के मरने की कोई चिन्ता नहीं। सब एक रोटीन का हिस्सा है।

            कहानी में शिवमूर्ति अस्पताल के बहाने समाज की रुग्णता पर भी एक बिहंगम दृष्टि डालते हैं। आज लोग तरह - तरह की बीमारियों से मर रहे हैं। जो नहीं मर रहे हैं, वे मार दिए जा रहे हैं। सहिष्णुता विचारों से फ़ना हो गई है। रिश्ते टूट रहे हैं। स्त्री - पुरुष के रिश्तों में भी कोई भावनात्मक लगाव नहीं। पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियाँ रोज़ पीटी जा रही हैं, ज़िन्दा जलाई जा रही हैं। कहीं दहेज के लिए, कहीं बेटी जनमने के लिए। जिला अस्पताल के वार्ड का यह वर्णन करते समय शिवमूर्ति एक कथाकार नहीं, किसी जघन्य अपराध के केस के चश्मदीद गवाह बने नज़र आते हैं, - “बेड नं0 7 बर्न बेड है। यह भी सबेरे - सबेरे अपना चादर तक़िया बदल कर तैयार हो जाता है। इस पर आने वाली औरतों में ज्‍यादातर नवब्‍याहताएँ होती हैं। किसी की गोद में साल भर की बच्‍ची, किसी की गोद में छ: महीने की। वह बेड भी शायद ही कभी खाली रहता हो। जहर खाने वालियों की मुक्‍ति तो उसी दिन हो जाती है लेकिन जलने वालियाँ चार - पांच दिन तक पिहकने के बाद मरती हैं। कभी - कभी पूरा शरीर संक्रमित होने में हफ़्ते दस दिन लग जाते हैं। कितनी बहू बेटियाँ हैं इस देश में कि रोज जलने और ज़हर खाने के बाद भी खत्‍म होने को नहीं आ रही हैं?” यह एक ऐसा प्रश्न है जो किसी को भी हिलाकर रख दे। लेकिन संवेदनाविहीन हो चुके इस समाज में ऐसे सवालों की किसे परवाह है? लोग हताश होकर धड़ाधड़ आत्महत्या कर रहे है। स्त्रियों के लिए तो आत्महत्या जैसे जीवन के कष्टों से मुक्ति पाने का सबसे सरल उपाय बन चुकी है। शिवमूर्ति अस्पताल के इमरजेन्सी वार्ड के उस बेड का वर्णन भी दिल को कचोट लेने वाले अंदाज़ में करते हैं, जहाँ स्त्रियाँ सिर्फ़ मृत्यु की सांस लेने के लिए ही लाई जाती हैं, - “इस बेड का नाम ही है - प्‍वाइज़न बेड ज़हर खाकर आने वाली औरतों के लिए रिज़र्व। रोज इसी समय कोई न कोई आती है, बिना नागा। सिर्फ औरतें। आदमी एक भी नहीं। सब बीस - पच्‍चीस साल की उम्र वाली। ज्‍यादातर सल्‍फ़ास खाकर। गाँव देहात के घरों में वही सहज उपलब्‍ध है।” कुच्ची के भीतर स्त्री के अधिकार की संचेतना और आत्मरक्षा के लिए संघर्ष करने की दृढ़ इच्छाशक्ति इन्हीं सब दृश्यों की भयावहता के बीच से पैदा हुई है।   

            शिवमूर्ति देशज शब्दों से अँटी हुई जिस तेज - तर्राक एवं सुग्राह्य भाषा एवं विशिष्ट कथा - शिल्प के लिए जाने जाते हैं, ‘कुच्ची का कानून’ भी उसी को अपने में समेटे हुए है। फर्क़ है तो बस इतना ही कि इसमें उनकी पूर्व की कहानियों की तुलना में वैचारिक उत्ताप कुछ ज्यादा है। संवादों में तर्कशीलता का प्राचुर्य है। पारंपरिक मान्यताओं के कारण पैदा हुई स्त्री की दयनीय स्थिति के ख़िलाफ़ विद्रोह का स्वर भी कुछ ज्यादा ही बुलन्द है। कहीं - कहीं हास्य और व्यंग्य का भी उत्तम पुट है, जो कहानी की रोचकता को काफी बढ़ा देता है। गाँव का धूर्त पंच बलई पांडे जब बनवारी को चाचा की संपत्ति हथियाने के लिए कुच्ची के शरीर पर काबिज होने की दुर्बुद्धि बाँट रहा होता है, उस अवसर के लिए शिवमूर्ति जिस तरह की चलताऊ भाषा का प्रयोग करते हैं, उसका एक नमूना देखिए, - उसे मर्द चाहिए, मर्द मिल जाएगा। तुम्‍हें प्रापर्टी चाहिए, प्रापर्टी मिल जाएगी। रमेसर दोनों परानी को रोटी चाहिए, उनकी रोटी पक्‍की हो जाएगी। सबका उखड़ा कूल्‍ह बैठ जाएगा।” बलई की सलाह के परिणामों पर विचार कर रहे बनवारी की चिन्ता को शिवमूर्ति कहानी में जिस बिम्बात्मक भाषा में अभिव्यक्त करते हैं, वह भी अद्भुत हैं, - “दो औरतों के बीच पड़ा मर्द वैसे ही जलता है जैसे देशी भट्ठे की ईंट। धुआं निकलने का रास्‍ता भी नहीं मिलता।” पंचायत के संबन्ध में गाँव में व्याप्त हलचल का वर्णन करने के लिए शिवमूर्ति द्वारा प्रयुक्त हास्य रस में सनी इस मजेदार भाषा को भी देखिए, - “छिनारा की पंचायत तो गोपियों की रासलीला वाली कथा से भी ज्‍यादा रसदारहोती है। इसलिए घर का कामकाज जल्‍दी - जल्‍दी निबटाकर औरतों का झुंड उमड़ता चला आ रहा है। सास - बहू, बूढ़ी - जवान सभी। बेटियों और बहनों को छोड़कर। गोद में, साथ में बच्‍चे। उनके हाथ में दालभात या मैगी की कटोरी, बहुएँ घूंघट में हैं तो क्‍या। बोलने की हिम्‍मत न सही, सुनने से कौन रोक लेगा? नए - नए जवान हो रहे लड़के भी शरमाते और एक दूसरे की आड़ में मुँह छिपाते चले आ रहे हैं।”

शिवमूर्ति ग्रामीण क्षेत्र के आम बोलचाल के शब्दों, मुहावरों व कहावतों का धड़ल्ले से प्रयोग करके अपनी भाषा को अत्यन्त स्वाभाविक, सुग्राह्य एवं रोचक बना देते हैं। उनकी भाषा के इन गुणों को इस लेख में प्रयुक्त ‘कुच्ची का कानून’ के तमाम उद्धरणों में देखा जा सकता है। यहाँ इस कहानी के कुछ ऐसे विशिष्ट उद्धरणों की ओर ध्यान आकर्षित करना समीचीन प्रतीत हो रहा है, जो अन्यत्र नहीं दिए जा सके हैं, किन्तु इनके बिना उनकी भाषा के रोचक व प्रभावशाली वैविध्य का अवलोकन अधूरा है। जब पंचायत में बनवारी कुच्ची के ऊपर गर्भ - धारण के बहाने छिनारा का का मजा लेने का आरोप लगाता है तो वह जिन शब्दों में उसे प्रत्यारोपित कर लताड़ती है, वह शिवमूर्ति की प्रवाहपूर्ण सशक्त भाषा का एक अद्भुत नमूना है, - "पंचो, इसने मुझे अरहर की मधु समझ लिया था कि जब चाहेगा उँगली डुबो कर चाट लेगा। जब दाल नहीं गली तो गांव से भगाने के लिए ऊधमबांह जोत रहा है। यह समझता है कि गांव के लोग बच्‍चाहैं। उन्‍हें गुड़ खिलाकर फुसला लेगा। पद में यह मेरा जेठ लगता है। कायदा है कि जेठ अपनी भयहु की परछायी भी बचा कर चलेगा। सीधे छूने का तो सवाल ही नहीं। लेकिन उनको मरे तीन महीने भी नहीं हुए थे कि इसने धोखे से मेरी छातीपकड़ लिया। जब मेरी सास अस्‍पताल में थीं तो बुरी नीयत से मेरे सूने घर में घुस आया। बाल तो इसके आधे सफेद हो गए लेकिन दिल अभी तक काला है। मुझे पटाने के लिए महारानी बना कर रखने का लालच दे रहा था। पूछिए इस कपटी से, सच है कि झूठ? इसी पंचायत में इसका फैसला भी होना है।"  धन्नू बाबा पंचायत में लछिमन चौधरी द्वारा कुच्ची से किए जा रहे ऊटपटांग के सवालों की धार की कुंद करने के लिए जिस तरह की व्यंग्यपूर्ण भाषा में बात रखते हैं वह भी बेजोड़ है, - “जो त्रेता में हो सकता है वह कलजुग में क्‍यों नहीं हो सकता? त्रेता में तो खाने से ठहरा। द्वापर में तो सुमिरन करने भर से ठहर गया। इस रफ्तार से कलियुग में देख लेने भर से ठहर सकता है।” इस व्यंग्य के निहितार्थ भी बहुत बड़े हैं। पंचायत में शरारती तत्व भी मौजूद होते ही हैं। शिवमूर्ति उनके मुँह से धन्नू बाबा का मज़ाक उड़ाने वाली बेलगाम भाषा का प्रयोग भी करते हैं, - “बहुत खुलकर कुच्‍ची का पक्ष ले रहे हैं बाबा। कहीं आड़े - ओटे चखा तो नहीं दिया?”  इन उद्धरणों के आधार पर कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि शिवमूर्ति भाषा के बादशाह हैं और उनकी कहानियों को पढ़ना भाषा के अद्भुत संसार से गुजरना है।

 शिवमूर्ति की कहानियों में प्राय: राजनीतिक विमर्श नहीं होता है। होता भी है तो यह स्थानीय प्रशासन व ग्रामीण निकायों के स्तर की जातीय अथवा वर्गीय उठापठक या दांव - पेंचों के चित्रण तक ही सीमित रहता है। किन्तु ‘कुच्ची का कानून’ में शिवमूर्ति ने सीमित मात्रा में ही सही किन्तु खुले राजनीतिक विमर्श को भी समाविष्ट किया है। जब पंचायत में नेहरू जी द्वारा बनवाए गए विरासत के कानून की बात उठती है, तब कुच्ची - “मुझे तो विश्‍वास नहीं होता कि पंडित जवाहरलाल ऐसा अंधा कानून पास कराए होंगे। फोटू में तो बहुत गऊ आदमी लगते हैं” कहकर ऐसे स्त्री - विरोधी कानून के विरुद्ध बहुत ही करारा राजनीतिक व्यंग्य करती है। इसी तरह पंचायत में जब बनवारी धन्नू बाबा पर अनपढ़ होने का आरोप लगाकर उन पर चुप रहने का दबाव बनाता है तब वे उसे अनपढ़ों की बुद्धिमानी का सम्मान करने की सीख देते हैं। वे इसके लिए देश में सत्तर के दशक में लगे आपातकाल के विरुद्ध गैर पढ़ी - लिखी आम जनता द्वारा दिखाए गए साहस का हवाला देते हुए बड़ा ही महत्वपूर्ण राजनीतिक वक्तव्य देते हैं, - "जब तुम माँ के पेट से निकले नहीं थे तो इस देश में इमरजेंसी लगी थी। तब बडे़ - बड़े पढ़े लिखों के गले में पड़ा फंदा अँगूठा छाप लोगों ने ही काटा था। पढ़े लिखे लोग तो डर के मारे बिल में घुस गए थे।" स्पष्ट है कि धन्नू बाबा को पता था कि आपातकाल के बाद हुए चुनाव में डर के मारे बलई पोलिंग सेन्टर पर न जाकर दिन भर अरहर के खेत में छिपकर बैठा रहा था। ऐसा ही एक महत्वपूर्ण राजनीतिक विमर्श पंचायत में हुए संवाद के उस हिस्से में परिलक्षित होता है, जहाँ सुघरा ठकुराइन अपनी खुद की संपत्ति के विवाद, मुकदमेबाज़ी एवं परधानी आदि के अनुभव के आधार पर कहतीं हैं, - "जो जमींदारी विनाश कानून हमारे यहां सन् 52 में लागू हुआ वह सिर्फ मर्द को पहचानता है। खेत का सारा मालिकाना वह मर्द को देता है। औरत सरकार की नजर में गोबर का छोत है। किसान की जमीन हड़पने का कानून तो सरकारें मिटों में पास कर देती है। बाई रोटेशन पास कर देती है लेकिन औरत मर्द के बीच मालिकाना हक बांटने का कानून पास करने की फुरसत आज तक किसी सरकार को नहीं मिली। ऐसा हो जाता तो 'बनवारियों' की पैदाइस बन्द हो जाती।"

मैंने अपने एक पूर्ववर्ती आलेख में लिखा था कि शिवमूर्ति की कहानियाँ मुख्यतः स्त्री - विमर्श की कहानियाँ हैं, किन्तु उसके केन्द्र में आज की पढ़ी - लिखी, जागरूक, पुरुष समाज से बराबरी का दर्जा पाने के लिए प्रतिस्पर्धा करती, सामाजिक व बौद्धिक स्तर पर अपनी अस्मिता की रक्षा करने के लिए आर्थिक व राजनीतिक ताकत जुटाती, अपने यौनिक अधिकारों के लिए सतर्क, भद्र - लोक की नारी नहीं है। उनका स्त्री - विमर्श समाज की उन निम्नवर्गीय औरतों के शारीरिक व आत्मीय सौन्दर्य, भौतिक ताप व उत्पीड़न, जिजीविषा, प्रतिरोध, राग - द्वेष, पारिवारिक क्लेश आदि पर केन्द्रित है, जो दूर - दराज के गाँवों में घर - जवार की सीमाओं में कैद होकर अपना जीवन गुजार रही हैं। ‘कुच्ची का कानून’ की स्थिति निश्चित ही थोड़ी - सी भिन्न है। कुच्ची पढ़ी - लिखी अथवा वर्ग - चेतना से संपन्न न होने के बावजूद बाह्य समाज से बहुत कुछ सीखकर अपने भीतर संघर्ष एवं तर्कशीलता की विशिष्ट क्षमता पैदा करती है। यहाँ संघर्ष केवल जीने के अधिकार, मान - सम्मान अथवा संपत्ति की रक्षा के लिए नहीं है। यहाँ स्त्री का संघर्ष कोख की स्वायत्तता जैसे विशिष्ट मुद्दे को लेकर है, एक नवविवाहित विधवा के माँ बनने के अधिकार को लेकर है। यहाँ उद्देश्य नए सामाजिक मूल्यों की स्थापना का है। यहाँ परम्परा के प्रति विद्रोह की स्थिति है। इसमें लक्ष्य पारम्परिक सिद्धान्तों के पुनर्मूल्यांकन एवं नूतन मूल्यों के प्रतिपादन का है। इसमें स्त्री के अधिकारों से संबन्धित स्थापित मान्यताओं एवं भारत के वर्तमान कानूनों की न्यूनताओं को पुरजोर तरीके से सामने रखकर स्त्री की अस्मिता की रक्षा के लिए वांछित व्यवस्था की स्थापना की वकालत की गई है। इस कहानी के माध्यम से शिवमूर्ति निश्चित की स्त्री - विमर्श को एक नई दिशा प्रदान करते हैं और नारी - मुक्ति आंदोलन को एक नया आयाम प्रदान करते हैं। कार्ल मार्क्स ने ‘द होली फैमिली’ में कहा है, - ‘मानव मुक्ति का स्वाभाविक पैमाना है कि नारी मुक्ति किस हद तक पहुँची।’ इस दृष्टि से यह कहानी मानव मुक्ति का आख्यान है। निश्चित ही शिवमूर्ति हमारे समय के मानव मुक्ति के एक बड़े आख्याता है और उनकी यह नई कहानी ‘कुच्ची का कानून’ साहित्य के मानव मुक्ति प्रवर्तन के महत उद्देश्य की पूर्ति की दिशा में मील का एक नया पत्थर।   

लेखक परिचय 


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