Sunday, August 21, 2016

घीसू-माधो की तीसरी पीढ़ी की दास्तान


मेरे ऊपर केन्द्रित संवेद 73-75 अक्टूबर-दिसम्बर 2014 अंक में मेरी कहानी ‘बनाना रिपब्लिक’ पर वरिष्ठ आलोचक ओम प्रकाश मिश्र का लेख-

घीसू-माधो की तीसरी पीढ़ी की दास्तानउर्फ ‘बनाना रिपब्लिक’



शिवमूर्ति कम लिखते हैं, लेकिन जितना लिखते हैं उसी से वे अपने कम लिखने की भरपाई भी कर देते हैं। बल्कि सूद ब्याज समेत लौटाते हैं अपेक्षाएं। उनकी एक कहानी पढ़ लेने के बाद महीनों तक मन तृप्त रहता है। उसी कहानी को दुबारा तिबारा, चैबारा जितनी बार भी पढ़ा जाय हर बार कुछ नये वातायन खुलते ही है। यही नहीं उनकी हर अगली कहानी कहीं न कहीं पहले वाली कहानियों से आगे बढ़ी होती है।
इस संदर्भ में मैं चर्चा करना चाहता हूँ उनकी ताजा कहानी ‘बनाना रिपब्लिक’ की। यह कहानी कई मायने में मुझे उनकी अब तक की अन्य कहानियों से आगे बढ़ी हुई लगती है। कहानी के साथ ट्रीटमेंट से लेकर उसके फलक के विस्तार तक और सम्प्रेशणीयता से लेकर पठनीयता तक, पात्रों के चरित्र की बारीक अभिव्यंजनाओं से लेकर परिवेष की अंतरंग समझ तक और भाशा के लालित्य से लेकर मुहावरेदानी के भंडार तक हर जगह इस कहानी में पहले  की तुलना में विकासमान गति प्रतिबिम्बित होती है।
सत्ता विकेन्द्रीकरण की एक महीन किरण गाँव तक पहुँचने के बाद से ही पूर्वी उत्तर प्रदेष के गावों में ही वर्ग और वर्ण के समीकरणों में बदलाव षुरू हो गये। इस बदलाव की सबसे ताज़ा अभिव्यक्ति है ‘बनाना रिपब्लिक’, जो षिवमूर्ति जी की सधी कलम से निकलकर वर्तमान पूर्वी उत्तर प्रदेष के देहात की एक जीवंत और सच्ची तस्वीर बन गई है। एक तरफ जहां यह कहानी देहाती षक्ति संतुलन में दलितों के बढ़ते हुए प्रभुत्व को रेखांकित करती है, वहीं प्रभु वर्गों/ जातियों की समस्त छल छद्म व स्वार्थ परक चेतना को आत्मसात कर लेने के बावजूद दलित चेतना में क्रांतिकारी तत्वों के समावेष हो जाने की भी सूचना देती है। कहानी में ‘‘चुनाव परिणाम में’’ फुलझरिया को न0 2 पर दिखा कर लेखक एक इषारा तो कर ही देता है कि अगले दौर के समीकरण की क्या सम्भावनाएं हैं।
षिवमूर्ति जी की कहानियों में मानवीय संवेदना तथा स्त्री विमर्ष की ही अधिक अभिव्यक्ति मानने वाले लोगों के लिए यह कहानी एक बदले हुए अंदाज़ की अलग कलात्मक स्तर की कहानी नजर आयेगी जहां उन्होंने गावों के राजनीतिक विष्लेशण जैसे सूखे विशय को केवल इषारों, संवेदनाओं और कथा प्रवाह में घोलकर पूरी भव्यता के साथ प्रकट किया है। कहानी के पाठक को वर्ग विष्लेषण जैसी अरुचिकर अनुभूति हुए बिना ही गाँव का पूरा वर्ग विष्लेशण आत्मसात् हो जाता है। वर्ण के साथ वर्ग चरित्र भी स्पश्ट हो जाता है।
‘बनाना रिपब्लिक’ दलित जग्गू के सत्ता पर आधिपत्य का एक नया सपना लेकर ठाकुर की दालान से निकलने से षुरू होती है, जब खुषी उसके संभाले संभल नहीं रही होती, दिल धाड़-धाड़ बज रहा होता है, और खत्म होती है उस सपने के पूरा होने के बाद, जग्गू के अपने दरवाज़े पर ठाकुर की सारी अकड़ और सत्ता की हनक भरभरा कर घुटनों के बल आ जाने और षक्ति संतुलन की इस मज़बूरी में कहे गये वाक्य - ‘‘पानी पीने से ही साथ पक्का होता हो तो कहो बाल्टी भर पी जाऊँ।’’, और उन्हें नाचने के लिए लड़कों द्वारा खींच कर कहे गये वाक्य - ‘‘जरा कमरिया तो लचकाइए ठाकुर’’, और कुबरी वाला हाथ उठाकर मटकते लचकते ठाकुर के दृष्य से। यहां यह कहानी मुंषी प्रेमचन्द की अमर कृति ‘कफ़न’ का कलेवर तोड़कर दलित चेतना के वर्तमान क्षितिज पर हुए क्रांतिकारी विस्फोट की परिघटना की अभिव्यक्ति बन जाती है और अपने राजनीतिक निहितार्थ में ‘कफ़न’ से आगे बढ़ जाती है। प्रेमचन्द के समय के यथास्थितिवादी सोच के मारे दलित पात्र घीसू व माधो की तत्कालीन क्रांतिकारिता इस बात में निहित थी कि वे अपनी मेहनत का सम्पूर्ण मूल्य प्रभु वर्गों द्वारा हड़प लिए जाने की हजारोें वर्षों की अटूट परम्परा के प्रति विद्रोह को उत्पादक श्रम से भागने और इस प्रकार उस लूटतंत्र को ठेंगा दिखाने की अपनी प्रकृति में अभिव्यक्त करते हैं। लेकिन सब कुछ के बाद भी ‘कफ़न’ के अंत में - ‘‘फिर दोनो नाचने लगे। उछले भी कूदे भी। गिरे भी, मटके भी। भाव भी बताये, अभिनय भी किये और आख़िर नषे से मदमस्त होकर गिर पड़े।’’ घीसू, माधो का यह गिर पड़ना तत्कालीन दलित समाज की नियति थी जो औपनिवेषिक गुलामी के टूटे बिना बदल नहीं सकती थी। क्योंकि सामंती व्यवस्था को इसी गुलामी के द्वारा जमींदारी की खुराक मिल रही थी। इसके विपरीत ‘बनाना रिपब्लिक’ में जब ठाकुर के पहुँचने पर लड़कों द्वारा कहा जाता है - ‘‘ जरा कमरिया भी लचकाइये ठाकुर’’ तो ‘‘कुबरी वाला हाथ उठाकर वे मटकने- लचकने लगते हैं’’। उस समय बरबस बचपन में गाँव में देखे गये बन्दर के नाच और मदारी के डमरू की याद आ जाती है। ‘बनाना रिपब्लिक’ के अंत में घीसू, माधो की पीढ़ी की जगह लड़कों की गोल नाच रही होती है जो घीसू-माधो की तरह नषे में मदमस्त होकर गिरने के लिए अभिषप्त नहीं हैं, बल्कि इसके उलट यह गोल ठाकुर के पंजे में पंजा फंसाकर दायें बायंे हिलाते हुए उन्हें नाचने पर मज़बूर भी कर देती है। षिवमूर्ति जी अपनी इषारों में बात कहने की षैली में ‘‘पंजे में पंजा फंसाकर’’ पद इस्तेमाल करके दोनो वर्गों के सीधे संघर्ष में उतरे होने की बात को कलात्मक ढंग से कह जाते हैं।
‘कफ़न’ जहां तात्कालिक भारतीय गांव को एक टेलिस्कोपिक-व्यू से देखती है, वहीं ‘बनाना रिपब्लिक’ आज के देहात को माइक्रोस्कोपिक-व्यू से देखती है। उनकी निगाह से कोई घटना, कोई बिम्ब, किसी सूखे पत्ते के हिलने की खड़खड़ाहट तक छुपी नहीं रहती। यद्यपि इस दलित उभार से अभिभूत है, फिर भी उसकी एकता में, या प्रस्थान बिंदु में जहां वह कोई कमी देखता है, उसे छुपाता नहीं बल्कि इषारों में व्यक्त कर देता है। वोट की राजनीति ने जहां दलितों को एकताबद्ध किया है वहीं दलित समुदाय के भीतर भी इस वोट की राजनीति से ही जातीय स्तर के बटवारे की ध्वनि लेखक के सचेत कानों से बच नही पाती-
‘‘अपनी बिरादरी मे परधानी की कुर्सी आये इससे बढ़कर खुषी की बात क्या होगी! पासी, धोबी, खटिक, चमार की बिरादरी के परधान तो आस पास बहुत सुने गये है, लेकिन अपनी बिरादरी का ? एक भी नहीं। हम लोग तुम्हें जिताने के लिए रात दिन एक कर देंगे।’’
गाँव के लड़कों द्वारा कहा गया यह वाक्य जाति के भीतर जाति के स्तरीकरण की तरफ लेखक का प्रष्नवाचक इषारा भी है। इस वाक्य का यहां कहा जाना ही यह प्रकट करता है कि लेखक इस सत्य को पाठकों के सम्मुख रखते हुए भी इससे नापसंदगी रखता है। जहां ‘कफ़न’ में प्रेमचन्द के पात्रों घीसू व माधो की क्रांतिकारिता तत्कालीन सामंती अर्थव्यवस्था दलित श्रम पर निर्भरता और उसी श्रम के षोशण की क्रूर परम्परा का मखौल उड़ाती हुई उसकी विद्रूपता का उद्घाटन तथा उसी विद्रूपता और ठण्डी क्रूरता से उसका जवाब बन जाने में है, वहां ‘बनाना रिपब्लिक’ में ठाकुर द्वारा कहा गया महावाक्य - ‘‘अगर पानी पीने से ही साथ पक्का होता हो तो बाल्टी भर पी जाऊँ’’ इस बात की तरफ संकेत करता है कि अब सहारे और साथ की जरूरत ठाकुर यानी प्रभु वर्ग/जातियों को है, दलित समुदाय को नहीं।
जैसी उनकी आदत है, इस कहानी का वितान भी षिवमूर्ति जी ने बहुत सोच समझकर ताना है और चरित्रों को रत्ती माषा तौल तौल कर उसमें रखा है। इससे प्रदेष के राजनीतिक समीकरणों की एक, लगभग धुंधली ही सही, छाया गाँव में नजर आ ही जाती है, जो वास्तविकता भी है। 
इसके मुख्य चरित्रों में एक दूसरे के दुष्मन ठाकुर और पदारथ पुराने प्रभु वर्ग के प्रतिनिधि हैं, तो जग्गू और मुन्दर नये उभरते दलित फैक्टर के प्रतिनिधि है, जो सत्ता सुख में अपना हिस्सा बटाने के लिए किसी भी स्तर तक जा सकते हैं। क्रांतिकारी संघर्ष धारा की प्रतिनिधि फुलझरिया है, तो पुलिस कचहरी और प्रभु वर्ग से जोड़ तोड़ में माहिर मुंषी जी भी हैं, जो अपनी भर निगाह से जिस तरफ देख लें उधर की सारी हरीतिमा सूख जाय।
ज़मींदारी भले चली गई, लेकिन सामंती मानसिकता गाँव देहात में अभी भी अपनी पूरी सांस्कृतिक विरासत के साथ बरक़रार है। कहानी खुद बोलती है - ‘‘यह नाहरगढ़ गाँव उनके पुरखों का बसाया हुआ है पुराना खंडहर हो चुका घर अभी भी गढ़ी कहलाता है। मास्टराइन राजगढ़ स्टेट की राजकुमारी हैं। किसी ग़ैर की मौज़ूदगी में वे हमेषा उन्हें रानी साहब ही कह कर पुकारते हैं।’’ इन तीन वाक्यों में ही ठाकुर के मन में बसे सामंती परिवेष की अतीत से लेकर अब तक निरंतरता ध्वनित हो जाती है। पूरा आर्थिक सामाजिक ढांचा ध्वस्त हो चुका है लेकिन खंडहर हट नहीं पाया है। न अपनी जगह से हटा है न ठाकुर के मन से। अकेले में वे खुद जानते हैं सच्चाई, लेकिन किसी ग़ैर की मौजूदगी में अपनी पत्नी मास्टराइन को ‘रानी साहब’ कहकर ही पुकारते हैं। यह इस तथ्य का कितना अच्छा प्रस्तुतीकरण है कि सामंतवाद का अवषेश हमेषा अतीत में ही जीवन के तत्व खोजता है वहीं से बल प्राप्त करता है और उसी से वर्तमान को डराने की कोषिष करता है। भविश्य की तरफ कभी इस अवषिष्ट सामंतवाद की निगाह नहीं होती, वह तो वर्तमान को अतीत सदृष बनाने के सपनों में ही खोया रहता है आने वाले भविष्य की तरफ से पीठ फेर लेता है, अतीत की तरफ उन्मुख होता है और एक दिन स्वयं अतीत बन जाता है।
सामंतवाद का मुख्य और सबसे ख़तरनाक सांस्कृतिक अवषेष जिसपर उसकी पूरी चेतना आधारित है, पितृसत्तात्मक परिवार और पुरूष सत्तात्मक समाज व्यवस्था है जो अपनी पूरी अकड़ के साथ हर जगह मौजूद है। सामंती मानसिकता व समाज व्यवस्था की प्रमुख खासियत है कि जहां यह व्यवस्था सबसे अधिक मजबूत होती है वहीं स्त्री सबसे अधिक उत्पीड़ित व षोशित होती है। वहां स्त्री सबसे अधिक पिछड़ी अवस्था में भी होती है और इसी कारण वही विकासमान परिवर्तन की सबसे प्रबल विरोधी भी होती है। षिवमूर्ति जी कहानी में इस बात को एक छोटे से पैराग्राफ में ही कह जाते हैं -‘‘ पिछड़ी या दलित औरतें तो सभा जलूस या मेले ठेले में भी चली जाती हैं, सवर्ण औरतों की बड़ी आबादी अभी भी गाँव से बाहर नहीं निकलती। मायके से विदा हुई तो ससुराल मे समा गई। ससुराल से निकलती हैं तो सीधे श्मषान के लिए। देवी के थान पर लपसी सोहारी चढ़ाने के लिए जाना ही उनकी तीर्थयात्रा या पिकनिक है। ऐसी एक बड़ी आबादी है जो जाति व्यवस्था को ब्रह्मा की लकीर मानती है।’’ सामंत के अपने ही घर के भीतर उससे सबसे अधिक उत्पीड़ित प्राणी उसकी स्त्री और पुत्री का वास होता है इसे कौन नहीं जानता। स्त्री का आदर्ष उनके यहां लंगड़े-लूले, षराबी-कबाबी, कोढ़ी, क्रूर, चरित्रहीन जैसे भी पति के गले बंध गई हो उसकी एकांतिक सेवा मात्र, तथा विधवा होने पर अग्निप्रवेष या पूरे जीवन को तिल-तिल जला देना है। बेटी को जहां हांक दिया जाये वहां आंख मूंदकर चला जाना और पितृकुल का नाम (सामंती अहंकार) रोषन करने के लिए होम हो जाना है। इस बात को इससे अधिक कलात्मक और संक्षिप्त रूप से नहीं कहा जा सकता जैसा षिवमूर्ति जी ने कहा है।
दूसरी तरफ दलित तबके की नई पीढ़ी में परिवर्तन के प्रति सकारात्मक रवैया और जोखिम उठाने का साहस है जो जग्गू में प्रतिबिम्बित होता है, जबकि पुरानी पीढ़ी में यथास्थितिवाद की पुरानी सोच बरकरार है। किसी भी तरह का जोखिम उठाने से वह पीढ़ी डरती है। इसका प्रतिनिधि है- बदलू, जग्गू का बाप। उसका पुराना अनुभव बोलता है- 
‘‘न बेटा। ए काम ठीक नहीं, परधानी का बवंडर हम नहीं संभाल सकते। उड़ जाएंगे।’’
और जब जग्गू उसे परधानी से होने वाली आय का अंदाज लगाकर पचीस लाख का सपना दिखाता है तो भी प्रतिक्रिया में बाप का अनुभव झुंझला गया- ‘‘इतने पैसे का हम करेंगे क्या? रक्खेंगे कहां? वही ठाकुर रात में सब लूट ले जाएगा।’’
सच पूछिए तो ‘कफ़न’ के समय का वह बच्चा अगर बुधिया के पेट में ही मर न गया होता, तो बड़ा होकर आज बदलू में ही अभिव्यक्त होता इस लिहाज से बदलू घीसू-माधो की अगली पीढ़ी है और ठाकुर की प्रकृति से, उसकी एक एक चाल से वाकिफ है। वह अपनी पुरानी कमजोरी के प्रति सचेत होने के कारण हमेषा बचाव की मुद्रा में है। बदलू की यह अनुभवजन्य दूरदर्षिता कहानी में आगे भी प्रमाणित होती है जब ठाकुर की चालें एक एक कर उजागर होती है कि कैसे वह बदलू की जमीन हड़प करने की जुगत में है।
बचाव की सारी दूरदर्षिता और दुष्मन की हर चाल से परिचित होत हुए भी यह पीढ़ी अपनी नौजवानी में तनकर उठ खड़े होने और पलटवार कर पाने में असमर्थ रही। इसका कारण सिर्फ यह है कि इस पीढ़ी ने बरतानवी निरंकुष षासन के साये तले सामंती दहषत झेलते हुए, केन्द्रीय सत्ता से लेकर गाँव में उसके आखि़री प्रतिनिधि तक को एक ही सूत्र में पिरोया हुआ देखा है, और इस सम्मिलित विराट दमनकारी मषीन के आगे स्वयं को बिल्कुल असहाय महसूस किया है। जबकि जग्गू, मुन्दर और फुलझरिया की पहली पीढ़ी ने जिस हवा में पहली सांस ली, वह समस्त षोशणतन्त्रों की बूढ़ी हड्डियों में कंपकपी पैदा करने वाले उस महान वासंती वज्रनाद के बाद की हवा है जो दार्जिलिंग के एक छोटे से गाँव में 1967 में खेतिहर मजदूरों- किसानों द्वारा हवा में बारूद की गंध भरकर किया गया था। वहां से चली यह हवा बिहार के धधकते खेत खलिहानों से गुजर कर जब तक पूर्वी उत्तर प्रदेष में ‘बनाना रिपब्लिक’ के इस गाँव में पहुँची, तब तक यहां मंडल आयोग और हरिजन उत्पीड़न एक्ट जैसी तूफानी आंधियां व्यापक समाज को अपने चपेटे में ले चुकी थीं। देहात के पुराने षक्ति संतुलन के भरभरा कर ढहने का आभास देते, और ताष के महल की तरह एक-एक पत्ता उड़ाते दलित उभार प्रकट हो चुका था। गाँव के भीतरी दमन तंत्र के प्राण जिस तोते में बसते थे उसका गला दलित उभार की संचालक षक्तियों के हाथ में आ चुका था। प्रषासन में सामन्ती दबंगों की आक्टोपसी जकड़ कमजोर हो चुकी थी। इसीलिए इस कहानी में इस नई पीढ़ी का प्रतिनिधि जग्गू सोचता है- ‘‘जगतनरायन तो फिर भी ठीक था, लेकिन लोगों ने उसे भी काटकर बांड़ा कर डाला - जग्गू। परधानी मिल जाय, हीरोहोण्डा मिल जाय और नाम बदल जाय, या एक कायदे का सरनेम मिल जाय, जिसमें थोड़ा रूआब झरे। ‘टाइगर’ कैसा रहेगा।’’
और जब एक रात जग्गू ठाकुर से बात करके लौट रहा होता है तो कथाकार उसकी सोच का वर्णन इन षब्दों में करता है - ‘‘उसे यह देखकर बड़ी राहत महसूस हुई कि आज उसे इज्जत के साथ बुला रहा था ठाकुर - ‘‘ लिखो, सुनो, बैठो, देखो। पहले की तरह लिख, सुन, बैठ, देख नहीं। षुरू में एक बार अबे बोला था, बस।’’ यह सम्मान प्राप्त करने की पहली आहट है जग्गू के हृदय में जिसपर तुरंत ध्यान दिया है लेखक नें। बल्कि षिवमूर्ति का कलाकार इसमें भी कलात्मकता से एक इषारा कर जाता है। जहां ठाकुर द्वारा लिख, सुन, बैठ, देख की जगह लिखो, सुनो, बैठो, देखो से सम्बोधित करके जग्गू का स्तर एक डिग्री उठाया गया है, वहीं जग्गू के मन में ठाकुर का भय कम हो गया है। तथा वह अपने मन की भाशा में ठाकुर के प्रति सम्बोधन में बदलाव लाया है और ‘इज्जत के साथ बुला रहे थे’ की जगह वह ‘इज्जत के साथ बुला रहा था’ पद का प्रयोग करता है।
षिवमूर्ति बहुत ही सावधान लेखक हैं और कहीं चूक की गुंजाइष नहीं छोड़ते चरित्र गढ़ते समय। वे अपनी हर कहानी पर कई-कई बार काम करते हैं, तब कहीं जाकर चरित्र पूर्ण होता है। साधारण दलित के कमजोर व्यक्तित्व से नेता बनने की प्रक्रिया का वर्णन वे एक पैराग्राफ में करते हैं - ‘‘जग्गू को लग रहा है कि अभी उसके मुँह से बात की धार नहीं फूट रही। जिस तरह षहर के कचहरी गेट पर सांडे का तेल बेचने वाला मजमेबाज बोलता है .....। अपना चेहरा भी उसे भकुआया सा लग रहा है। भावषून्य। मुस्कराहट का नाम नहीं। ऐसा ही चेहरा देखा था उसने फूलन का। जब वह भदोही में पहली बार अपना चुनाव प्रचार करने निकली थी। आज की रात वह हंसने लपक कर मिलने और धुंआधार बोलने का अभ्यास करेगा- भाइयों और बहनों ....’’। यह पूरा पैराग्राफ केवल जग्गू के चरित्र चित्रण की बारीक़ी, जग्गू से जगतनरायन तक की पुनर्यात्रा की उसकी ललक और उसके लिए मन प्राण से जुटने की प्रक्रिया को प्रदर्षित करता है। और आगे आने वाले बड़े परिवर्तनों की पृश्ठभूमि तैयार करता है इस एक ही पैराग्राफ से षिवमूर्ति उस ऐतिहासिक परिवर्तन की प्रक्रिया के एक ऐेसे महत्वपूर्ण अंष की सचित्र झांकी प्रस्तुत करते हैं जो जहां घीसू-माधो की हर तरह से कमज़ोर संतानों को इसी व्यवस्था के अन्दर षक्ति संतुलन की केन्द्रीय पीठिका पर क़ाबिज़ हो पाने के आवष्यक औज़ारों से लैस करता है, वहीं सम्पूर्ण व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई के लिए तैयार होते जनसमुदाय के आक्रोष को एक सेफ्टीवाल्व की तरह षमित करता है और उस संघर्ष को एक तात्कालिक स्थगन प्रदान करता है। किन्तु यही धीरे-धीरे जातीय विघटन के द्वारा सांमती अवषेषों को जड़ से समाप्त करने के संघर्ष के लिए परिस्थितियां तैयार करता है। एक सोच विकसित हुई पिछले दिनों कि आरक्षण के नाते दलित समुदाय को अयोग्य होते हुए भी सवर्णों का गला काटकर जिन स्थानों पर बैठा दिया जा रहा है, वहां वे कामयाब नहीं हो पायेंगे, और जल्दी ही औंधे मुंह गिर पड़ेंगे। इस सोच के जवाब में षिवमूर्ति इस कहानी में बता रहे हैं कि दलित कितना सचेत है और अपनी योग्यता बढ़ाने तथा स्वयं को योग्य साबित करने के लिए वह कितनी कठिन मेहनत करने के लिए तैयार है। अपनी इस नई भूमिका में खरा उतरने के लिए उसकी संकल्प शक्ति को ही दिखाना चाहते हैं षिवमूर्ति। 
इस कहानी में जग्गू कोई ऐसा चरित्र नहीं है, जो किसी आमूल परिवर्तन की बात करे या किसी बुनियादी बदलाव का सपना देखे। यह सिर्फ प्रभुता के ग्लैमर से आक्रांत, हजारों सालों से दमित परिस्थितियों में घुटती दलित पीढ़ी, की एक सुखी जीवन की चाह की आदिम इच्छा की अभिव्यक्ति करता हुआ एक किरदार है, जो अपमानित और लांछित जीवन में सम्मान का एक प्राथमिक स्वप्न अपनी आंखों में सजा चुका है। प्रभुवर्ग की चमकती छवियों के स्वप्न देखता यह पात्र उस वर्ग की तमाम बुराइयों का वाहक भी बन गया है। अपनी उद्देष्य पूर्ति के लिए यह किसी भी तरह का समझौता करने को तैयार है -
‘‘ मुन्दर और जग्गू अपने अपने भण्डारे का इन्तजाम तम्बू के बाहर रह कर ही कर रहे हैं। बारहो बरन का भण्डारा है। चूल्हे चैकी में अभी भी सोलहवीं षताब्दी चल रही है। अन्दर घुसने से छुआछूत का सवाल खड़ा हो सकता है। ऐसे नाज़ुक मौके पर रिस्क लेना .................।’’ षिवमूर्ति बिल्कुल ठोस धरातल के कथाकार हैं। कहीं से काल्पनिक परिस्थितियों की सृश्टि करना उनकी प्रकृति में नहीं है। दलित चेतना का विस्तार जहां तक है उससे बहुत आगे बढ़ाकर उसे त्रुटि विहीन और आदर्ष स्थिति में चित्रित करना भी उनका लक्ष्य नहीं है। वे इस चेतना को तमाम अच्छाइयों बुराइयों के साथ ही पाठकों के समक्ष रखने को प्रतिबद्ध हैं। कहानी में ठाकुर जग्गू की सड़क किनारे वाली जमीन रेहन रखवाकर उसे रूपया उधार देने और फिर बाद में यदि जग्गू लौटा न पाए तो सड़क के किनारे की क़ीमती जमीन मुफ़्त में हथियाने के चक्कर में है। ऐसी धूर्तता का पैंतरा लड़ाई में विजय के लिए जग्गू भी सीख गया है और रेहन के कागज पर अपनी पत्नी के पैर का अंगूठा लगवाकर फ़र्ज़ी काग़़ज ठाकुर को देकर रूपया ले लेता है।
जब षिवमूर्ति प्रभुवर्ग की मानसिकता का चित्रण करते हैं तो आज की राजनीति के अपराधीकरण की प्रतिच्छाया गाँव पर पड़ती हुई उन्हें स्पश्ट दिखाई दे जाती है। येन केन प्रकारेण सत्ता की बागडोर हथियाये रखना तथा पुरानी राजगद्दी पर बैठे अपने षासन की अभिव्यक्ति को उसके क्रूरतम फासिस्ट स्वरूप तक ले जाने की प्रभुवर्ग की मंषा उनकी आखों से छुप नहीं पाती और क़लम अभिव्यक्त करने से रुक नहीं पाती -
‘‘अच्छा बाबू भवानी बकस सिंह आप तो पालिटिक्स पढ़ाते हैं, ऐसा नहीं हो सकता कि जीते कोई भी साला, उसे पकड़कर अपने नाम मुख़्तारनामा लिखाओ ....... क्या कहते हैं उसे अंग्रेजी में?’’
‘‘पावर आफ एटार्नी ........’’ 
‘‘हाँ वही! और फिर ठाँस के परधानी करो।’’
आगे भी एक जगह इस अपराधीकरण की अभिव्यक्ति देखें - 
‘‘हाँ कलजुग के आखिरी चरण में एक दिन ऐसा आएगा जब एम.पी., एम.एल.ए. की सारी सीटों पर खूनी कतली लोगों का कब्जा हो जाएगा। तब सब मिलकर देसवा का बंटवारा करेंगे। उस बंटवारे में हम लोगों को भी हिस्सा मिलेगा।’’
भवानी बकस सिंह की लड़खड़ाती आवाज़ नषे मे डूबी है-     ‘‘क्लेप्टोक्रेसी ..ई..ई! क्लेप्टोक्रेसी ..ई..ई..ई!’’
भवानी बकस सिंह पाॅलिटिक्स के अध्यापक हैं। राजनीतिषास्त्र में क्लेप्टोक्रेसी पढ़ाने के लिए चाहे जितने लेक्चर दिये जाते हों लेकिन अपराधियों द्वारा धीरे-धीरे राजनीतिक सत्ता पर हावी होने, षिकंजा कसते चले जाने की प्रक्रिया तथा उसके परिणाम को जितनी छोटी षब्दावली में और सरल भाशा में यह कहानी समझा देती है वह पाठक के भीतर तीर की तरह धंसकर कहीं फंस जाता है। ग़ालिब ने आधी प्रत्यंचा खींचकर हल्के जोर से छोड़े गये उस तीर की तारीफ़ में, जो दिल को पूरा नहीं बेधता और बराबर टीसता रहता है, कहा है- 
कोई  मेरे दिल से पूछे तिरे  तीरे  नीमकष  को, 
ये ख़लिष कहां से होती जो जिगर के पार होता।
यह प्रसंग हमारे लोकतन्त्र की पोल खोलता है और इस देष में क्लेप्टोक्रेसी की निरंतरता, चोरों और लुटेरों द्वारा सत्ता पर क़ब्जा करने की प्राचीन परंपरा के बरकरार रहने की तरफ इषारा करता है तथा लोकतंत्र नामक झूठ के नक़ाब के अन्दर से झांकते एक क्रूर अपराधी चेहरे का आईना बन जाता है। यह साबित कर देता है कि गाँव के स्तर तक अपराधी प्रवृत्ति का सत्ता से गंठजोड़ और याराना कितना प्रबल है। सत्ता चाहे जिस पार्टी की हो गंठजोड़ की प्रकृति यही रहती है।
गाँव तक पहुँचते-पहुँचते सत्ता के विकेन्द्रीकरण के नारे का सही अर्थ कैसे लूट के विकेन्द्रीकरण में बदल जाता है, इसका पर्दाफाष कहानी बड़े स्वाभाविक ढंग से करती है-
‘‘घंटे भर में पूरे गाँव को पता चल गया कि पक्की सड़क से मुसलमान टोले के करीब आधा कि.मी. और हरिजन टोले के करीब ढाई तीन सौ मीटर लम्बे कच्चे रास्ते पर कागजों में दो साल पहले ही खड़ंजा बन गया है।’’ 
‘‘ लीजिए अपनी आंख से पढ़ लीजिए आप लोग। यही हैं भुगतान किये गये बिलों की फोटो कापियां।.......... और मौके पर एक भी ईंट लगी हो तो बताइये। चार लाख सत्तर हजार रुपये पूरे के पूरे हजम। लोग दस बीस परसेंट खाते हैं। चग्घड़ से चग्घड़ विधायक भी विधायक निधि का पचास परसेंट से ज्यादा नहीं खा पाता। लेकिन आप का परधान सौ का सौ परसेंट हजम कर गया। अब आप लोग खुद फैसला करें।’’
यह कमीषनख़ोरी और दलाली की रवायत जो हमारे लोकतंत्र की नसों में ख़ून की तरह दौड रही है, केवल हमारे देहात की छवि नहीं है बल्कि समूचे देष की लोकतांत्रिक प्रकृति और संवेदना की एक जानी समझी सच्चाई, स्वीकृत अपरिहार्य बुराई जैसी षक्ल अख़्तियार कर चुकी है। स्वीकृति की एक अन्तरधारा हर जगह हर समय अपनी उपस्थिति दर्ज कराती रहती है- ‘खाओ लेकिन संभाल कर खाओ’।
साम्राज्यवादी पूंजी जब देष में प्रवेष करती है तो अपने साथ अपनी संस्कृति भी बिना मांगे वैसे ही लेकर आती है जैसे पुराने राजघरानों में बेटी के विदा होते समय उसकी दास दासियां भी दहेज के सामान की तरह उसके ससुराल भेज दी जाती थीं। कुछ वैसी ही प्रक्रिया हुई है सत्ता विकेन्द्रकरण अभियान के साथ। सत्ता की हनक, लाखों रुपये खर्चने की षक्ति के साथ -साथ इस दोमुंही राजनीति की तमाम बुराइयां भी देहात में प्रवेष कर गई हैं। जोड़-तोड़, छल-छद्म, कानूनों को तोड़मरोड़ कर अपन पक्ष में करने के नियोजित शडयंत्रों के सिलसिले, षराब की नदियां, नारी का गिरता सम्मान, धोखा, फरेब, सबको चूना लगाने की यथासम्भव कोषिष, नैसर्गिक प्रेम का अभाव, और सबके ऊपर पसरता हुआ संवेदनहीनता का दमघोंटू घनघोर सन्नाटा! कुल मिलाकर उसी क्लेप्टोक्रेसी की ज़िन्दा तस्वीर नुमायां होती हुई! इतना वीभत्स तो नहीं था हमारे गाँव का माहौल हमारे बचपन में। आज इस बदबूदार बजबजाते माहौल में केवल दलित विमर्ष और स्त्री की आज़ादी की चाहत ही एक ताजा हवा का झोंका बनकर कभी कभी राहत दे देती हैं और हमें मनुश्य होने का अहसास करा जाती हैं। अन्यथा अब गाँव इतना विद्रूप हो गया है कि न तो पहचान में आता है न पकड़ में आता है। वैसे टूटते सड़ते सामन्तवाद की यह परिणति बहुत अस्वाभाविक भी नहीं है, चाहे जितनी तकलीफदेह हो, हज़ारों सालों की गहरी आस्थाओं की टूटन का दर्द तो हर जगह अभिव्यक्त होगा ही। बदलाव की इस प्रक्रिया व उसके परिणामों पर इतनी गहरी सूक्ष्मदर्षी दृश्टि है इस कहानी के कथाकार की कि हर परत उधेड़ देती है। नसों से बहने वाले खून की तरह पूरी कहानी में यह सूक्ष्म दृश्टि बिखरी हुई है।
नेताओं द्वारा वोट खरीदने की लगातार प्रवृत्ति के चलते जनता के मन में वोट की क़ीमत अपनी सरकार बनाने से गिरकर कहां पहुंच गई है इसकी व्यंजना लेखक की क़लम से देखें-
‘‘बरेठा!’’ झुकी कमर के चलते बूढ़ी को सिर ज्यादा उठाना पड़ रहा है। पोपले मुंह से मुस्कुराती हुई वे कहती हैं, ‘‘तुम्हें तो असली कुर्सी मिलेगी और हमें कागज की दिखा रहे हो। असली कहां है?’’
लोग जानते है कि बस चुनाव हो जाने के बाद कुछ नहीं मिलने वाला है, इसलिए माले ग़नीमत के रूप में वोट देने से पहले ही जो भी मिल जाय वही ले लेना चाहिए। -
‘‘जिन लड़कों की अभी ठीक से मूछें भी नहीं निकलीं वे भी गिलास पकड़कर बैठ जाते हैं। जग्गू के भण्डारे से धुत्त होकर निकले तो गिरते पड़ते मुन्दर के तम्बू में पहुंच गये। जिन लड़कों का वोटर लिस्ट में नाम नहीं है, वे भी ...... जिन्होंने जिन्दगी में कभी नहीं पी, वे भी कहते हैं, ‘‘भालू चाहिए।’’ ...... डबल क्रास। दोनो तरफ से।’’
पूर्वी उत्तर प्रदेष के देहातों में इस बीच एक और दलाल चरित्र ने तेजी से अपनी उपस्थिति दर्ज करायी है, जिसे अब विलेज बैरिस्टर के नाम से मान्यता मिल रही है। यह भारतीय बुर्जुआ के दलाल चरित्र का स्थानीय प्रतिनिधि बन कर उभर रहा है, उतनी ही क्रूर, उतना ही धूर्त, उतना ही सषक्त और उतना ही संवेदनहीन! ‘मुंषीजी’ के रूप में मौजूद, इस दलाल बुर्जुआ के ग्रामीण चरित्र को षिवमूर्ति जी ने कहानी में उतनी ही मज़बूत जगह दी है जितनी मज़बूत देहात में इसकी राजनीतिक अभिव्यक्ति है। ऐसे लोगों के दिमाग़ के कम्प्यूटर में पूरे गाँव के हर सदस्य का कच्चा चिट्ठा सुरक्षित रहता है और ठीक समय पर उसका इस्तेमाल करने के हुनर में वे पारंगत होते हैं। जब जग्गू मुंषीजी की ख़ुषामद करते हुए पक्की जीत का दांव पूछता है तो वे ठाकुर के राजनीतिक दुष्मन, और मुन्दर को लड़ाई में उतारने वाले पदारथ के खानदानी बैजनाथ बाबा को फोड़ने का गुर बताता है -
‘‘कुछ कहने की ज़रूरत नहीं। जो मन में आये सो कहना। बस अकेले में मिलकर हाथ जोड़ लेना। पदारथ ने उनका आधा रास्ता घेर कर दालान की नींव डाल दी है। उनका रास्ता घटकर तीन फिट की कोलिया बन गई है। जीप कार का आना जाना बन्द! उनका खूटा पदारथ के बेटे ने उखाड़ कर मड़ार में फेंक दिया था। यह बात जीते जी बुड्ढे को नहीं भूलेगी। अभी तो ताजा घाव है। जाओ और अपने सत्रह अट्ठारह वोट पक्के कर लो।’’
इस जगह पर गाँव के विशैले माहौल के प्रति अपने मन की बात को षिवमूर्ति जग्गू के मन द्वारा अभिव्यक्त करते हैं-
‘‘घर जाती हुए जग्गू की खोपड़ी भांय भांय कर रही है। कैसे कैसे सांप बिच्छू भरे हैं गाँव की खोह में। जब तक काट न लें, पता ही नहीं चल सकता।’’
जैसे मज़दूरों के क्रांतिकारी चरित्र का थोड़ा बहुत अंष वक्त पड़ने पर भूमिहीन किसान के चरित्र में उतर आता है, वैसे ही राश्ट्रीय स्तर पर दलाल पूंजी की प्रतिच्छाया के रूप में उसकी कुछ चरित्रगत विषेशताएं समय समय पर देहाती कस्बों के बड़े व्यापारियों, धन्ना सेठों के अन्दर भी उभरती हैं, और वह अपनी परिसीमा के अन्दर की दलाल षक्तियों का अपने हित में इस्तेमाल करने में चूक नहीं करता। ‘दुलीचन्द अगरवाल’ एक ऐसा ही किरदार है जो अपने कोल्डस्टोर के लिए जमीन खोजने/दिलाने की जिम्मेदारी ‘मुंषीजी’ पर डालता है, और वे अपनी त्वरित बुद्धि का इस्तेमाल कर जग्गू के पिता बदलू की सड़क किनारे वाली जमीन बिकवाने के लिए इस समय का इस्तेमाल करने की जुगत भिड़ा लेते हैं, और उस पर दुलीचन्द से मोल भाव करते है।
‘‘मेरा कमीषन दो परसेंट। रेट जो आमने सामने बैठकर तय हो जाय।’’ 
‘‘रेट कायदे का लगवाइये तो सोचें।..... एक बात और, हरिजन की जमीन खरीदने पर तो रोक है। परमीषन का लफड़ा होगा।’’
‘‘जमीन पर रोक है न! आप मकान लिखवाइये।’’
‘‘जमीन को मकान कैसे लिखा लेंगे?’’
‘‘अरे भाई खंडहर लिखाया जायेगा।’’
दुलीचन्द मुंषीजी का मुंह ताकने लगा।
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घीसू-माधो की तीसरी पीढ़ी की दास्तान उर्फ ‘बनाना रिपब्लिक’ शिवमूर्ति कम लिखते हैं, लेकिन जितना लिखते हैं उसी से वे अपने कम लिखने की भरपाई भी कर देते हैं। बल्कि सूद ब्याज समेत लौटाते हैं अपेक्षाएं। उनकी एक कहानी पढ़ लेने के बाद महीनों तक मन तृप्त रहता है। उसी कहानी को दुबारा तिबारा, चैबारा जितनी बार भी पढ़ा जाय हर बार कुछ नये वातायन खुलते ही है। यही नहीं उनकी हर अगली कहानी कहीं न कहीं पहले वाली कहानियों से आगे बढ़ी होती है। इस संदर्भ में मैं चर्चा करना चाहता हूँ उनकी ताजा कहानी ‘बनाना रिपब्लिक’ की। यह कहानी कई मायने में मुझे उनकी अब तक की अन्य कहानियों से आगे बढ़ी हुई लगती है। कहानी के साथ ट्रीटमेंट से लेकर उसके फलक के विस्तार तक और सम्प्रेषणीयता से लेकर पठनीयता तक, पात्रों के चरित्र की बारीक अभिव्यंजनाओं से लेकर परिवेश की अंतरंग समझ तक और भाषा के लालित्य से लेकर मुहावरेदानी के भंडार तक हर जगह इस कहानी में पहले की तुलना में विकासमान गति प्रतिबिम्बित होती है। सत्ता विकेन्द्रीकरण की एक महीन किरण गाँव तक पहुँचने के बाद से ही पूर्वी उत्तर प्रदेश के गावों में ही वर्ग और वर्ण के समीकरणों में बदलाव शुरू हो गये। इस बदलाव की सबसे ताज़ा अभिव्यक्ति है ‘बनाना रिपब्लिक’, जो शिवमूर्ति जी की सधी कलम से निकलकर वर्तमान पूर्वी उत्तर प्रदेश के देहात की एक जीवंत और सच्ची तस्वीर बन गई है। एक तरफ जहां यह कहानी देहाती शक्ति संतुलन में दलितों के बढ़ते हुए प्रभुत्व को रेखांकित करती है, वहीं प्रभु वर्गों/ जातियों की समस्त छल छद्म व स्वार्थ परक चेतना को आत्मसात कर लेने के बावजूद दलित चेतना में क्रांतिकारी तत्वों के समावेश हो जाने की भी सूचना देती है। कहानी में ‘‘चुनाव परिणाम में’’ फुलझरिया को न0 2 पर दिखा कर लेखक एक इशारा तो कर ही देता है कि अगले दौर के समीकरण की क्या सम्भावनाएं हैं। शिवमूर्ति जी की कहानियों में मानवीय संवेदना तथा स्त्री विमर्श की ही अधिक अभिव्यक्ति मानने वाले लोगों के लिए यह कहानी एक बदले हुए अंदाज़ की अलग कलात्मक स्तर की कहानी नजर आयेगी जहां उन्होंने गावों के राजनीतिक विश्लेषण जैसे सूखे विषय को केवल इशारों, संवेदनाओं और कथा प्रवाह में घोलकर पूरी भव्यता के साथ प्रकट किया है। कहानी के पाठक को वर्ग विश्लेषण जैसी अरुचिकर अनुभूति हुए बिना ही गाँव का पूरा वर्ग विश्लेषण आत्मसात् हो जाता है। वर्ण के साथ वर्ग चरित्र भी स्पष्ट हो जाता है। ‘बनाना रिपब्लिक’ दलित जग्गू के सत्ता पर आधिपत्य का एक नया सपना लेकर ठाकुर की दालान से निकलने से शुरू होती है, जब खुशी उसके संभाले संभल नहीं रही होती, दिल धाड़-धाड़ बज रहा होता है, और खत्म होती है उस सपने के पूरा होने के बाद, जग्गू के अपने दरवाज़े पर ठाकुर की सारी अकड़ और सत्ता की हनक भरभरा कर घुटनों के बल आ जाने और शक्ति संतुलन की इस मज़बूरी में कहे गये वाक्य - ‘‘पानी पीने से ही साथ पक्का होता हो तो कहो बाल्टी भर पी जाऊँ।’’, और उन्हें नाचने के लिए लड़कों द्वारा खींच कर कहे गये वाक्य - ‘‘जरा कमरिया तो लचकाइए ठाकुर’’, और कुबरी वाला हाथ उठाकर मटकते लचकते ठाकुर के दृश्य से। यहां यह कहानी मुंशी प्रेमचन्द की अमर कृति ‘कफ़न’ का कलेवर तोड़कर दलित चेतना के वर्तमान क्षितिज पर हुए क्रांतिकारी विस्फोट की परिघटना की अभिव्यक्ति बन जाती है और अपने राजनीतिक निहितार्थ में ‘कफ़न’ से आगे बढ़ जाती है। प्रेमचन्द के समय के यथास्थितिवादी सोच के मारे दलित पात्र घीसू व माधो की तत्कालीन क्रांतिकारिता इस बात में निहित थी कि वे अपनी मेहनत का सम्पूर्ण मूल्य प्रभु वर्गों द्वारा हड़प लिए जाने की हजारोें वर्षों की अटूट परम्परा के प्रति विद्रोह को उत्पादक श्रम से भागने और इस प्रकार उस लूटतंत्र को ठेंगा दिखाने की अपनी प्रकृति में अभिव्यक्त करते हैं। लेकिन सब कुछ के बाद भी ‘कफ़न’ के अंत में - ‘‘फिर दोनो नाचने लगे। उछले भी कूदे भी। गिरे भी, मटके भी। भाव भी बताये, अभिनय भी किये और आख़िर नशे से मदमस्त होकर गिर पड़े।’’ घीसू, माधो का यह गिर पड़ना तत्कालीन दलित समाज की नियति थी जो औपनिवेशिक गुलामी के टूटे बिना बदल नहीं सकती थी। क्योंकि सामंती व्यवस्था को इसी गुलामी के द्वारा जमींदारी की खुराक मिल रही थी। इसके विपरीत ‘बनाना रिपब्लिक’ में जब ठाकुर के पहुँचने पर लड़कों द्वारा कहा जाता है - ‘‘ जरा कमरिया भी लचकाइये ठाकुर’’ तो ‘‘कुबरी वाला हाथ उठाकर वे मटकने- लचकने लगते हैं’’। उस समय बरबस बचपन में गाँव में देखे गये बन्दर के नाच और मदारी के डमरू की याद आ जाती है। ‘बनाना रिपब्लिक’ के अंत में घीसू, माधो की पीढ़ी की जगह लड़कों की गोल नाच रही होती है जो घीसू-माधो की तरह नशे में मदमस्त होकर गिरने के लिए अभिशप्त नहीं हैं, बल्कि इसके उलट यह गोल ठाकुर के पंजे में पंजा फंसाकर दायें बायंे हिलाते हुए उन्हें नाचने पर मज़बूर भी कर देती है। शिवमूर्ति जी अपनी इशारों में बात कहने की शैली में ‘‘पंजे में पंजा फंसाकर’’ पद इस्तेमाल करके दोनो वर्गों के सीधे संघर्ष में उतरे होने की बात को कलात्मक ढंग से कह जाते हैं। ‘कफ़न’ जहां तात्कालिक भारतीय गांव को एक टेलिस्कोपिक-व्यू से देखती है, वहीं ‘बनाना रिपब्लिक’ आज के देहात को माइक्रोस्कोपिक-व्यू से देखती है। उनकी निगाह से कोई घटना, कोई बिम्ब, किसी सूखे पत्ते के हिलने की खड़खड़ाहट तक छुपी नहीं रहती। यद्यपि इस दलित उभार से अभिभूत है, फिर भी उसकी एकता में, या प्रस्थान बिंदु में जहां वह कोई कमी देखता है, उसे छुपाता नहीं बल्कि इशारों में व्यक्त कर देता है। वोट की राजनीति ने जहां दलितों को एकताबद्ध किया है वहीं दलित समुदाय के भीतर भी इस वोट की राजनीति से ही जातीय स्तर के बटवारे की ध्वनि लेखक के सचेत कानों से बच नही पाती- ‘‘अपनी बिरादरी मे परधानी की कुर्सी आये इससे बढ़कर खुशी की बात क्या होगी! पासी, धोबी, खटिक, चमार की बिरादरी के परधान तो आस पास बहुत सुने गये है, लेकिन अपनी बिरादरी का ? एक भी नहीं। हम लोग तुम्हें जिताने के लिए रात दिन एक कर देंगे।’’ गाँव के लड़कों द्वारा कहा गया यह वाक्य जाति के भीतर जाति के स्तरीकरण की तरफ लेखक का प्रश्नवाचक इशारा भी है। इस वाक्य का यहां कहा जाना ही यह प्रकट करता है कि लेखक इस सत्य को पाठकों के सम्मुख रखते हुए भी इससे नापसंदगी रखता है। जहां ‘कफ़न’ में प्रेमचन्द के पात्रों घीसू व माधो की क्रांतिकारिता तत्कालीन सामंती अर्थव्यवस्था दलित श्रम पर निर्भरता और उसी श्रम के शोषण की क्रूर परम्परा का मखौल उड़ाती हुई उसकी विद्रूपता का उद्घाटन तथा उसी विद्रूपता और ठण्डी क्रूरता से उसका जवाब बन जाने में है, वहां ‘बनाना रिपब्लिक’ में ठाकुर द्वारा कहा गया महावाक्य - ‘‘अगर पानी पीने से ही साथ पक्का होता हो तो बाल्टी भर पी जाऊँ’’ इस बात की तरफ संकेत करता है कि अब सहारे और साथ की जरूरत ठाकुर यानी प्रभु वर्ग/जातियों को है, दलित समुदाय को नहीं। जैसी उनकी आदत है, इस कहानी का वितान भी शिवमूर्ति जी ने बहुत सोच समझकर ताना है और चरित्रों को रत्ती माशा तौल तौल कर उसमें रखा है। इससे प्रदेश के राजनीतिक समीकरणों की एक, लगभग धुंधली ही सही, छाया गाँव में नजर आ ही जाती है, जो वास्तविकता भी है। इसके मुख्य चरित्रों में एक दूसरे के दुश्मन ठाकुर और पदारथ पुराने प्रभु वर्ग के प्रतिनिधि हैं, तो जग्गू और मुन्दर नये उभरते दलित फैक्टर के प्रतिनिधि है, जो सत्ता सुख में अपना हिस्सा बटाने के लिए किसी भी स्तर तक जा सकते हैं। क्रांतिकारी संघर्ष धारा की प्रतिनिधि फुलझरिया है, तो पुलिस कचहरी और प्रभु वर्ग से जोड़ तोड़ में माहिर मुंशी जी भी हैं, जो अपनी भर निगाह से जिस तरफ देख लें उधर की सारी हरीतिमा सूख जाय। ज़मींदारी भले चली गई, लेकिन सामंती मानसिकता गाँव देहात में अभी भी अपनी पूरी सांस्कृतिक विरासत के साथ बरक़रार है। कहानी खुद बोलती है - ‘‘यह नाहरगढ़ गाँव उनके पुरखों का बसाया हुआ है पुराना खंडहर हो चुका घर अभी भी गढ़ी कहलाता है। मास्टराइन राजगढ़ स्टेट की राजकुमारी हैं। किसी ग़ैर की मौज़ूदगी में वे हमेशा उन्हें रानी साहब ही कह कर पुकारते हैं।’’ इन तीन वाक्यों में ही ठाकुर के मन में बसे सामंती परिवेश की अतीत से लेकर अब तक निरंतरता ध्वनित हो जाती है। पूरा आर्थिक सामाजिक ढांचा ध्वस्त हो चुका है लेकिन खंडहर हट नहीं पाया है। न अपनी जगह से हटा है न ठाकुर के मन से। अकेले में वे खुद जानते हैं सच्चाई, लेकिन किसी ग़ैर की मौजूदगी में अपनी पत्नी मास्टराइन को ‘रानी साहब’ कहकर ही पुकारते हैं। यह इस तथ्य का कितना अच्छा प्रस्तुतीकरण है कि सामंतवाद का अवशेष हमेशा अतीत में ही जीवन के तत्व खोजता है वहीं से बल प्राप्त करता है और उसी से वर्तमान को डराने की कोशिश करता है। भविष्य की तरफ कभी इस अवशिष्ट सामंतवाद की निगाह नहीं होती, वह तो वर्तमान को अतीत सदृश बनाने के सपनों में ही खोया रहता है आने वाले भविष्य की तरफ से पीठ फेर लेता है, अतीत की तरफ उन्मुख होता है और एक दिन स्वयं अतीत बन जाता है। सामंतवाद का मुख्य और सबसे ख़तरनाक सांस्कृतिक अवशेष जिसपर उसकी पूरी चेतना आधारित है, पितृसत्तात्मक परिवार और पुरूष सत्तात्मक समाज व्यवस्था है जो अपनी पूरी अकड़ के साथ हर जगह मौजूद है। सामंती मानसिकता व समाज व्यवस्था की प्रमुख खासियत है कि जहां यह व्यवस्था सबसे अधिक मजबूत होती है वहीं स्त्री सबसे अधिक उत्पीड़ित व शोषित होती है। वहां स्त्री सबसे अधिक पिछड़ी अवस्था में भी होती है और इसी कारण वही विकासमान परिवर्तन की सबसे प्रबल विरोधी भी होती है। शिवमूर्ति जी कहानी में इस बात को एक छोटे से पैराग्राफ में ही कह जाते हैं -‘‘ पिछड़ी या दलित औरतें तो सभा जलूस या मेले ठेले में भी चली जाती हैं, सवर्ण औरतों की बड़ी आबादी अभी भी गाँव से बाहर नहीं निकलती। मायके से विदा हुई तो ससुराल मे समा गई। ससुराल से निकलती हैं तो सीधे श्मशान के लिए। देवी के थान पर लपसी सोहारी चढ़ाने के लिए जाना ही उनकी तीर्थयात्रा या पिकनिक है। ऐसी एक बड़ी आबादी है जो जाति व्यवस्था को ब्रह्मा की लकीर मानती है।’’ सामंत के अपने ही घर के भीतर उससे सबसे अधिक उत्पीड़ित प्राणी उसकी स्त्री और पुत्री का वास होता है इसे कौन नहीं जानता। स्त्री का आदर्श उनके यहां लंगड़े-लूले, शराबी-कबाबी, कोढ़ी, क्रूर, चरित्रहीन जैसे भी पति के गले बंध गई हो उसकी एकांतिक सेवा मात्र, तथा विधवा होने पर अग्निप्रवेश या पूरे जीवन को तिल-तिल जला देना है। बेटी को जहां हांक दिया जाये वहां आंख मूंदकर चला जाना और पितृकुल का नाम (सामंती अहंकार) रोशन करने के लिए होम हो जाना है। इस बात को इससे अधिक कलात्मक और संक्षिप्त रूप से नहीं कहा जा सकता जैसा शिवमूर्ति जी ने कहा है। दूसरी तरफ दलित तबके की नई पीढ़ी में परिवर्तन के प्रति सकारात्मक रवैया और जोखिम उठाने का साहस है जो जग्गू में प्रतिबिम्बित होता है, जबकि पुरानी पीढ़ी में यथास्थितिवाद की पुरानी सोच बरकरार है। किसी भी तरह का जोखिम उठाने से वह पीढ़ी डरती है। इसका प्रतिनिधि है- बदलू, जग्गू का बाप। उसका पुराना अनुभव बोलता है- ‘‘न बेटा। ए काम ठीक नहीं, परधानी का बवंडर हम नहीं संभाल सकते। उड़ जाएंगे।’’ और जब जग्गू उसे परधानी से होने वाली आय का अंदाज लगाकर पचीस लाख का सपना दिखाता है तो भी प्रतिक्रिया में बाप का अनुभव झुंझला गया- ‘‘इतने पैसे का हम करेंगे क्या? रक्खेंगे कहां? वही ठाकुर रात में सब लूट ले जाएगा।’’ सच पूछिए तो ‘कफ़न’ के समय का वह बच्चा अगर बुधिया के पेट में ही मर न गया होता, तो बड़ा होकर आज बदलू में ही अभिव्यक्त होता इस लिहाज से बदलू घीसू-माधो की अगली पीढ़ी है और ठाकुर की प्रकृति से, उसकी एक एक चाल से वाकिफ है। वह अपनी पुरानी कमजोरी के प्रति सचेत होने के कारण हमेशा बचाव की मुद्रा में है। बदलू की यह अनुभवजन्य दूरदर्शिता कहानी में आगे भी प्रमाणित होती है जब ठाकुर की चालें एक एक कर उजागर होती है कि कैसे वह बदलू की जमीन हड़प करने की जुगत में है। बचाव की सारी दूरदर्शिता और दुश्मन की हर चाल से परिचित होत हुए भी यह पीढ़ी अपनी नौजवानी में तनकर उठ खड़े होने और पलटवार कर पाने में असमर्थ रही। इसका कारण सिर्फ यह है कि इस पीढ़ी ने बरतानवी निरंकुश शासन के साये तले सामंती दहशत झेलते हुए, केन्द्रीय सत्ता से लेकर गाँव में उसके आखि़री प्रतिनिधि तक को एक ही सूत्र में पिरोया हुआ देखा है, और इस सम्मिलित विराट दमनकारी मशीन के आगे स्वयं को बिल्कुल असहाय महसूस किया है। जबकि जग्गू, मुन्दर और फुलझरिया की पहली पीढ़ी ने जिस हवा में पहली सांस ली, वह समस्त शोषणतन्त्रों की बूढ़ी हड्डियों में कंपकपी पैदा करने वाले उस महान वासंती वज्रनाद के बाद की हवा है जो दार्जिलिंग के एक छोटे से गाँव में 1967 में खेतिहर मजदूरों- किसानों द्वारा हवा में बारूद की गंध भरकर किया गया था। वहां से चली यह हवा बिहार के धधकते खेत खलिहानों से गुजर कर जब तक पूर्वी उत्तर प्रदेश में ‘बनाना रिपब्लिक’ के इस गाँव में पहुँची, तब तक यहां मंडल आयोग और हरिजन उत्पीड़न एक्ट जैसी तूफानी आंधियां व्यापक समाज को अपने चपेटे में ले चुकी थीं। देहात के पुराने शक्ति संतुलन के भरभरा कर ढहने का आभास देते, और ताश के महल की तरह एक-एक पत्ता उड़ाते दलित उभार प्रकट हो चुका था। गाँव के भीतरी दमन तंत्र के प्राण जिस तोते में बसते थे उसका गला दलित उभार की संचालक शक्तियों के हाथ में आ चुका था। प्रशासन में सामन्ती दबंगों की आक्टोपसी जकड़ कमजोर हो चुकी थी। इसीलिए इस कहानी में इस नई पीढ़ी का प्रतिनिधि जग्गू सोचता है- ‘‘जगतनरायन तो फिर भी ठीक था, लेकिन लोगों ने उसे भी काटकर बांड़ा कर डाला - जग्गू। परधानी मिल जाय, हीरोहोण्डा मिल जाय और नाम बदल जाय, या एक कायदे का सरनेम मिल जाय, जिसमें थोड़ा रूआब झरे। ‘टाइगर’ कैसा रहेगा।’’ और जब एक रात जग्गू ठाकुर से बात करके लौट रहा होता है तो कथाकार उसकी सोच का वर्णन इन शब्दों में करता है - ‘‘उसे यह देखकर बड़ी राहत महसूस हुई कि आज उसे इज्जत के साथ बुला रहा था ठाकुर - ‘‘ लिखो, सुनो, बैठो, देखो। पहले की तरह लिख, सुन, बैठ, देख नहीं। शुरू में एक बार अबे बोला था, बस।’’ यह सम्मान प्राप्त करने की पहली आहट है जग्गू के हृदय में जिसपर तुरंत ध्यान दिया है लेखक नें। बल्कि शिवमूर्ति का कलाकार इसमें भी कलात्मकता से एक इशारा कर जाता है। जहां ठाकुर द्वारा लिख, सुन, बैठ, देख की जगह लिखो, सुनो, बैठो, देखो से सम्बोधित करके जग्गू का स्तर एक डिग्री उठाया गया है, वहीं जग्गू के मन में ठाकुर का भय कम हो गया है। तथा वह अपने मन की भाषा में ठाकुर के प्रति सम्बोधन में बदलाव लाया है और ‘इज्जत के साथ बुला रहे थे’ की जगह वह ‘इज्जत के साथ बुला रहा था’ पद का प्रयोग करता है। शिवमूर्ति बहुत ही सावधान लेखक हैं और कहीं चूक की गुंजाइश नहीं छोड़ते चरित्र गढ़ते समय। वे अपनी हर कहानी पर कई-कई बार काम करते हैं, तब कहीं जाकर चरित्र पूर्ण होता है। साधारण दलित के कमजोर व्यक्तित्व से नेता बनने की प्रक्रिया का वर्णन वे एक पैराग्राफ में करते हैं - ‘‘जग्गू को लग रहा है कि अभी उसके मुँह से बात की धार नहीं फूट रही। जिस तरह शहर के कचहरी गेट पर सांडे का तेल बेचने वाला मजमेबाज बोलता है .....। अपना चेहरा भी उसे भकुआया सा लग रहा है। भावशून्य। मुस्कराहट का नाम नहीं। ऐसा ही चेहरा देखा था उसने फूलन का। जब वह भदोही में पहली बार अपना चुनाव प्रचार करने निकली थी। आज की रात वह हंसने लपक कर मिलने और धुंआधार बोलने का अभ्यास करेगा- भाइयों और बहनों ....’’। यह पूरा पैराग्राफ केवल जग्गू के चरित्र चित्रण की बारीक़ी, जग्गू से जगतनरायन तक की पुनर्यात्रा की उसकी ललक और उसके लिए मन प्राण से जुटने की प्रक्रिया को प्रदर्शित करता है। और आगे आने वाले बड़े परिवर्तनों की पृष्ठभूमि तैयार करता है इस एक ही पैराग्राफ से शिवमूर्ति उस ऐतिहासिक परिवर्तन की प्रक्रिया के एक ऐेसे महत्वपूर्ण अंश की सचित्र झांकी प्रस्तुत करते हैं जो जहां घीसू-माधो की हर तरह से कमज़ोर संतानों को इसी व्यवस्था के अन्दर शक्ति संतुलन की केन्द्रीय पीठिका पर क़ाबिज़ हो पाने के आवश्यक औज़ारों से लैस करता है, वहीं सम्पूर्ण व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई के लिए तैयार होते जनसमुदाय के आक्रोश को एक सेफ्टीवाल्व की तरह शमित करता है और उस संघर्ष को एक तात्कालिक स्थगन प्रदान करता है। किन्तु यही धीरे-धीरे जातीय विघटन के द्वारा सांमती अवशेषों को जड़ से समाप्त करने के संघर्ष के लिए परिस्थितियां तैयार करता है। एक सोच विकसित हुई पिछले दिनों कि आरक्षण के नाते दलित समुदाय को अयोग्य होते हुए भी सवर्णों का गला काटकर जिन स्थानों पर बैठा दिया जा रहा है, वहां वे कामयाब नहीं हो पायेंगे, और जल्दी ही औंधे मुंह गिर पड़ेंगे। इस सोच के जवाब में शिवमूर्ति इस कहानी में बता रहे हैं कि दलित कितना सचेत है और अपनी योग्यता बढ़ाने तथा स्वयं को योग्य साबित करने के लिए वह कितनी कठिन मेहनत करने के लिए तैयार है। अपनी इस नई भूमिका में खरा उतरने के लिए उसकी संकल्प शक्ति को ही दिखाना चाहते हैं शिवमूर्ति। इस कहानी में जग्गू कोई ऐसा चरित्र नहीं है, जो किसी आमूल परिवर्तन की बात करे या किसी बुनियादी बदलाव का सपना देखे। यह सिर्फ प्रभुता के ग्लैमर से आक्रांत, हजारों सालों से दमित परिस्थितियों में घुटती दलित पीढ़ी, की एक सुखी जीवन की चाह की आदिम इच्छा की अभिव्यक्ति करता हुआ एक किरदार है, जो अपमानित और लांछित जीवन में सम्मान का एक प्राथमिक स्वप्न अपनी आंखों में सजा चुका है। प्रभुवर्ग की चमकती छवियों के स्वप्न देखता यह पात्र उस वर्ग की तमाम बुराइयों का वाहक भी बन गया है। अपनी उद्देश्य पूर्ति के लिए यह किसी भी तरह का समझौता करने को तैयार है - ‘‘ मुन्दर और जग्गू अपने अपने भण्डारे का इन्तजाम तम्बू के बाहर रह कर ही कर रहे हैं। बारहो बरन का भण्डारा है। चूल्हे चैकी में अभी भी सोलहवीं शताब्दी चल रही है। अन्दर घुसने से छुआछूत का सवाल खड़ा हो सकता है। ऐसे नाज़ुक मौके पर रिस्क लेना .................।’’ शिवमूर्ति बिल्कुल ठोस धरातल के कथाकार हैं। कहीं से काल्पनिक परिस्थितियों की सृष्टि करना उनकी प्रकृति में नहीं है। दलित चेतना का विस्तार जहां तक है उससे बहुत आगे बढ़ाकर उसे त्रुटि विहीन और आदर्श स्थिति में चित्रित करना भी उनका लक्ष्य नहीं है। वे इस चेतना को तमाम अच्छाइयों बुराइयों के साथ ही पाठकों के समक्ष रखने को प्रतिबद्ध हैं। कहानी में ठाकुर जग्गू की सड़क किनारे वाली जमीन रेहन रखवाकर उसे रूपया उधार देने और फिर बाद में यदि जग्गू लौटा न पाए तो सड़क के किनारे की क़ीमती जमीन मुफ़्त में हथियाने के चक्कर में है। ऐसी धूर्तता का पैंतरा लड़ाई में विजय के लिए जग्गू भी सीख गया है और रेहन के कागज पर अपनी पत्नी के पैर का अंगूठा लगवाकर फ़र्ज़ी काग़़ज ठाकुर को देकर रूपया ले लेता है। जब शिवमूर्ति प्रभुवर्ग की मानसिकता का चित्रण करते हैं तो आज की राजनीति के अपराधीकरण की प्रतिच्छाया गाँव पर पड़ती हुई उन्हें स्पष्ट दिखाई दे जाती है। येन केन प्रकारेण सत्ता की बागडोर हथियाये रखना तथा पुरानी राजगद्दी पर बैठे अपने शासन की अभिव्यक्ति को उसके क्रूरतम फासिस्ट स्वरूप तक ले जाने की प्रभुवर्ग की मंशा उनकी आखों से छुप नहीं पाती और क़लम अभिव्यक्त करने से रुक नहीं पाती - ‘‘अच्छा बाबू भवानी बकस सिंह आप तो पालिटिक्स पढ़ाते हैं, ऐसा नहीं हो सकता कि जीते कोई भी साला, उसे पकड़कर अपने नाम मुख़्तारनामा लिखाओ ....... क्या कहते हैं उसे अंग्रेजी में?’’ ‘‘पावर आफ एटार्नी ........’’ ‘‘हाँ वही! और फिर ठाँस के परधानी करो।’’ आगे भी एक जगह इस अपराधीकरण की अभिव्यक्ति देखें - ‘‘हाँ कलजुग के आखिरी चरण में एक दिन ऐसा आएगा जब एम.पी., एम.एल.ए. की सारी सीटों पर खूनी कतली लोगों का कब्जा हो जाएगा। तब सब मिलकर देसवा का बंटवारा करेंगे। उस बंटवारे में हम लोगों को भी हिस्सा मिलेगा।’’ भवानी बकस सिंह की लड़खड़ाती आवाज़ नशे मे डूबी है- ‘‘क्लेप्टोक्रेसी ..ई..ई! क्लेप्टोक्रेसी ..ई..ई..ई!’’ भवानी बकस सिंह पाॅलिटिक्स के अध्यापक हैं। राजनीतिशास्त्र में क्लेप्टोक्रेसी पढ़ाने के लिए चाहे जितने लेक्चर दिये जाते हों लेकिन अपराधियों द्वारा धीरे-धीरे राजनीतिक सत्ता पर हावी होने, शिकंजा कसते चले जाने की प्रक्रिया तथा उसके परिणाम को जितनी छोटी शब्दावली में और सरल भाषा में यह कहानी समझा देती है वह पाठक के भीतर तीर की तरह धंसकर कहीं फंस जाता है। ग़ालिब ने आधी प्रत्यंचा खींचकर हल्के जोर से छोड़े गये उस तीर की तारीफ़ में, जो दिल को पूरा नहीं बेधता और बराबर टीसता रहता है, कहा है- कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीरे नीमकश को, ये ख़लिश कहां से होती जो जिगर के पार होता। यह प्रसंग हमारे लोकतन्त्र की पोल खोलता है और इस देश में क्लेप्टोक्रेसी की निरंतरता, चोरों और लुटेरों द्वारा सत्ता पर क़ब्जा करने की प्राचीन परंपरा के बरकरार रहने की तरफ इशारा करता है तथा लोकतंत्र नामक झूठ के नक़ाब के अन्दर से झांकते एक क्रूर अपराधी चेहरे का आईना बन जाता है। यह साबित कर देता है कि गाँव के स्तर तक अपराधी प्रवृत्ति का सत्ता से गंठजोड़ और याराना कितना प्रबल है। सत्ता चाहे जिस पार्टी की हो गंठजोड़ की प्रकृति यही रहती है। गाँव तक पहुँचते-पहुँचते सत्ता के विकेन्द्रीकरण के नारे का सही अर्थ कैसे लूट के विकेन्द्रीकरण में बदल जाता है, इसका पर्दाफाश कहानी बड़े स्वाभाविक ढंग से करती है- ‘‘घंटे भर में पूरे गाँव को पता चल गया कि पक्की सड़क से मुसलमान टोले के करीब आधा कि.मी. और हरिजन टोले के करीब ढाई तीन सौ मीटर लम्बे कच्चे रास्ते पर कागजों में दो साल पहले ही खड़ंजा बन गया है।’’ ‘‘ लीजिए अपनी आंख से पढ़ लीजिए आप लोग। यही हैं भुगतान किये गये बिलों की फोटो कापियां।.......... और मौके पर एक भी ईंट लगी हो तो बताइये। चार लाख सत्तर हजार रुपये पूरे के पूरे हजम। लोग दस बीस परसेंट खाते हैं। चग्घड़ से चग्घड़ विधायक भी विधायक निधि का पचास परसेंट से ज्यादा नहीं खा पाता। लेकिन आप का परधान सौ का सौ परसेंट हजम कर गया। अब आप लोग खुद फैसला करें।’’ यह कमीशनख़ोरी और दलाली की रवायत जो हमारे लोकतंत्र की नसों में ख़ून की तरह दौड रही है, केवल हमारे देहात की छवि नहीं है बल्कि समूचे देश की लोकतांत्रिक प्रकृति और संवेदना की एक जानी समझी सच्चाई, स्वीकृत अपरिहार्य बुराई जैसी शक्ल अख़्तियार कर चुकी है। स्वीकृति की एक अन्तरधारा हर जगह हर समय अपनी उपस्थिति दर्ज कराती रहती है- ‘खाओ लेकिन संभाल कर खाओ’। साम्राज्यवादी पूंजी जब देश में प्रवेश करती है तो अपने साथ अपनी संस्कृति भी बिना मांगे वैसे ही लेकर आती है जैसे पुराने राजघरानों में बेटी के विदा होते समय उसकी दास दासियां भी दहेज के सामान की तरह उसके ससुराल भेज दी जाती थीं। कुछ वैसी ही प्रक्रिया हुई है सत्ता विकेन्द्रकरण अभियान के साथ। सत्ता की हनक, लाखों रुपये खर्चने की शक्ति के साथ -साथ इस दोमुंही राजनीति की तमाम बुराइयां भी देहात में प्रवेश कर गई हैं। जोड़-तोड़, छल-छद्म, कानूनों को तोड़मरोड़ कर अपन पक्ष में करने के नियोजित षडयंत्रों के सिलसिले, शराब की नदियां, नारी का गिरता सम्मान, धोखा, फरेब, सबको चूना लगाने की यथासम्भव कोशिश, नैसर्गिक प्रेम का अभाव, और सबके ऊपर पसरता हुआ संवेदनहीनता का दमघोंटू घनघोर सन्नाटा! कुल मिलाकर उसी क्लेप्टोक्रेसी की ज़िन्दा तस्वीर नुमायां होती हुई! इतना वीभत्स तो नहीं था हमारे गाँव का माहौल हमारे बचपन में। आज इस बदबूदार बजबजाते माहौल में केवल दलित विमर्श और स्त्री की आज़ादी की चाहत ही एक ताजा हवा का झोंका बनकर कभी कभी राहत दे देती हैं और हमें मनुष्य होने का अहसास करा जाती हैं। अन्यथा अब गाँव इतना विद्रूप हो गया है कि न तो पहचान में आता है न पकड़ में आता है। वैसे टूटते सड़ते सामन्तवाद की यह परिणति बहुत अस्वाभाविक भी नहीं है, चाहे जितनी तकलीफदेह हो, हज़ारों सालों की गहरी आस्थाओं की टूटन का दर्द तो हर जगह अभिव्यक्त होगा ही। बदलाव की इस प्रक्रिया व उसके परिणामों पर इतनी गहरी सूक्ष्मदर्शी दृष्टि है इस कहानी के कथाकार की कि हर परत उधेड़ देती है। नसों से बहने वाले खून की तरह पूरी कहानी में यह सूक्ष्म दृष्टि बिखरी हुई है। नेताओं द्वारा वोट खरीदने की लगातार प्रवृत्ति के चलते जनता के मन में वोट की क़ीमत अपनी सरकार बनाने से गिरकर कहां पहुंच गई है इसकी व्यंजना लेखक की क़लम से देखें- ‘‘बरेठा!’’ झुकी कमर के चलते बूढ़ी को सिर ज्यादा उठाना पड़ रहा है। पोपले मुंह से मुस्कुराती हुई वे कहती हैं, ‘‘तुम्हें तो असली कुर्सी मिलेगी और हमें कागज की दिखा रहे हो। असली कहां है?’’ लोग जानते है कि बस चुनाव हो जाने के बाद कुछ नहीं मिलने वाला है, इसलिए माले ग़नीमत के रूप में वोट देने से पहले ही जो भी मिल जाय वही ले लेना चाहिए। - ‘‘जिन लड़कों की अभी ठीक से मूछें भी नहीं निकलीं वे भी गिलास पकड़कर बैठ जाते हैं। जग्गू के भण्डारे से धुत्त होकर निकले तो गिरते पड़ते मुन्दर के तम्बू में पहुंच गये। जिन लड़कों का वोटर लिस्ट में नाम नहीं है, वे भी ...... जिन्होंने जिन्दगी में कभी नहीं पी, वे भी कहते हैं, ‘‘भालू चाहिए।’’ ...... डबल क्रास। दोनो तरफ से।’’ पूर्वी उत्तर प्रदेश के देहातों में इस बीच एक और दलाल चरित्र ने तेजी से अपनी उपस्थिति दर्ज करायी है, जिसे अब विलेज बैरिस्टर के नाम से मान्यता मिल रही है। यह भारतीय बुर्जुआ के दलाल चरित्र का स्थानीय प्रतिनिधि बन कर उभर रहा है, उतनी ही क्रूर, उतना ही धूर्त, उतना ही सशक्त और उतना ही संवेदनहीन! ‘मुंशीजी’ के रूप में मौजूद, इस दलाल बुर्जुआ के ग्रामीण चरित्र को शिवमूर्ति जी ने कहानी में उतनी ही मज़बूत जगह दी है जितनी मज़बूत देहात में इसकी राजनीतिक अभिव्यक्ति है। ऐसे लोगों के दिमाग़ के कम्प्यूटर में पूरे गाँव के हर सदस्य का कच्चा चिट्ठा सुरक्षित रहता है और ठीक समय पर उसका इस्तेमाल करने के हुनर में वे पारंगत होते हैं। जब जग्गू मुंशीजी की ख़ुशामद करते हुए पक्की जीत का दांव पूछता है तो वे ठाकुर के राजनीतिक दुश्मन, और मुन्दर को लड़ाई में उतारने वाले पदारथ के खानदानी बैजनाथ बाबा को फोड़ने का गुर बताता है - ‘‘कुछ कहने की ज़रूरत नहीं। जो मन में आये सो कहना। बस अकेले में मिलकर हाथ जोड़ लेना। पदारथ ने उनका आधा रास्ता घेर कर दालान की नींव डाल दी है। उनका रास्ता घटकर तीन फिट की कोलिया बन गई है। जीप कार का आना जाना बन्द! उनका खूटा पदारथ के बेटे ने उखाड़ कर मड़ार में फेंक दिया था। यह बात जीते जी बुड्ढे को नहीं भूलेगी। अभी तो ताजा घाव है। जाओ और अपने सत्रह अट्ठारह वोट पक्के कर लो।’’ इस जगह पर गाँव के विषैले माहौल के प्रति अपने मन की बात को शिवमूर्ति जग्गू के मन द्वारा अभिव्यक्त करते हैं- ‘‘घर जाती हुए जग्गू की खोपड़ी भांय भांय कर रही है। कैसे कैसे सांप बिच्छू भरे हैं गाँव की खोह में। जब तक काट न लें, पता ही नहीं चल सकता।’’ जैसे मज़दूरों के क्रांतिकारी चरित्र का थोड़ा बहुत अंश वक्त पड़ने पर भूमिहीन किसान के चरित्र में उतर आता है, वैसे ही राष्ट्रीय स्तर पर दलाल पूंजी की प्रतिच्छाया के रूप में उसकी कुछ चरित्रगत विशेषताएं समय समय पर देहाती कस्बों के बड़े व्यापारियों, धन्ना सेठों के अन्दर भी उभरती हैं, और वह अपनी परिसीमा के अन्दर की दलाल शक्तियों का अपने हित में इस्तेमाल करने में चूक नहीं करता। ‘दुलीचन्द अगरवाल’ एक ऐसा ही किरदार है जो अपने कोल्डस्टोर के लिए जमीन खोजने/दिलाने की जिम्मेदारी ‘मुंशीजी’ पर डालता है, और वे अपनी त्वरित बुद्धि का इस्तेमाल कर जग्गू के पिता बदलू की सड़क किनारे वाली जमीन बिकवाने के लिए इस समय का इस्तेमाल करने की जुगत भिड़ा लेते हैं, और उस पर दुलीचन्द से मोल भाव करते है। ‘‘मेरा कमीशन दो परसेंट। रेट जो आमने सामने बैठकर तय हो जाय।’’ ‘‘रेट कायदे का लगवाइये तो सोचें।..... एक बात और, हरिजन की जमीन खरीदने पर तो रोक है। परमीशन का लफड़ा होगा।’’ ‘‘जमीन पर रोक है न! आप मकान लिखवाइये।’’ ‘‘जमीन को मकान कैसे लिखा लेंगे?’’ ‘‘अरे भाई खंडहर लिखाया जायेगा।’’ दुलीचन्द मुंशीजी का मुंह ताकने लगा। - - - - - - - - - - - - - - ‘‘अरे परमीशन के लफड़े से डराया जायेगा तभी तो मनमाफिक रेट मिलेगी।’’ यहां दलाली की एक और तिकड़म की तरफ ध्यान आकर्षित करा पाने में शिवमूर्ति सफल रहे हैं, जो शहर देहात दोनों में समान रूप से प्रचलित है। वह है कानूनों में तोड़ मरोड़ कर के न्याय की आंखों में धूल झोकने का काम। ’मुंशीजी’ के पास कानून को बस में करने का दूसरा हथकंडा है सेठ दुलीचन्द से पैसा ऐठने का दूसरा तथा जग्गू जैसों को अपनी जमीन बेचने के लिए उकसाने का एक तीसरा हथकंडा भी है- ‘‘हार गये तब तो रेहन पटाने के लिए बेचना पड़ेगा। जीत गये तब भी बेचना होगा। वह इस लिए कि नाहरगढ़ का प्रधान बनने के बाद तुम्हें गड़ही के किनारे की उस झोपड़िया में रहना शोभा नहीं देगा। सड़क के किनारे की एकाध बीघा जमीन का बाप के नाम आवासीय पट्टा कराओ और बाजार की जमीन बेच कर पट्टे की जमीन पर आलीशान घर बनवाओ। जमीन बेच दोगे तो कोई यह भी नहीं कहेगा कि परधानी की लूट से बनवाया है और जितना चाहोगे इसमें परधानी की काली कमाई भी खप जायेगी।’’ चुनाव के पहले, लोकसभा से लेकर परधानी और अन्य निकायों तक में प्रचलित एक और छल की तरफ इस कहानी में ज़रूरी ध्यान खींचा गया है। वह है अपने फर्जी वोटरों का नाम लिस्ट में बढ़वाना, तथा विरोधियों के वोटरों का नाम वोटर लिस्ट से ग़ायब करा देना। ठाकुर को पता है कि देर सबेर आरक्षण के चक्रीय क्रम में परधानी सिड्यूल कास्ट के खाते में जायेगी, इसलिए उन्होंने सालभर पहले ही रामसिंह का सिड्यूल कास्ट का सर्टीफिकेट बनवा लिया था। ‘‘पता नहीं कहां गड़बड़ हुई कि फाइनल लिस्ट से उसका नाम ही ग़ायब हो गया। वरना एक बार रामसिंह को जिता पाते तो दस साल कोर्ट को यह तय करने में लग जाता कि वह असली सिड्यूल कास्ट है कि फर्जी। जग्गू पर दांव लगाने की ज़रूरत ही न पड़ती। जग्गू तो मजबूरी की पसंद है।’’ कथाकार की दृष्टि इस बात पर भी है कि गाँव की इस हलचल को व्यापक राष्ट्रीय स्तर पर दलित राजनीति की दुनियां में किस स्तर पर चिन्हित करके अध्ययन किया जा रहा है। दलित फैक्टर की केस स्टडी करने के लिए शहर से तीन लड़के मुरारी मास्टर के घर आये हैं। वे सवर्णों की बैकिंग से जग्गू व मुन्दर के खड़े होने की निन्दा करते हैं, उन्हें ‘बनाना रिपब्लिक’ का पैरोकार बताकर कौम के गद्दार की पदवी देते हैं। वे कहते हैं कि असली स्वतंत्र उम्मीदवार फुलझरिया को जितायेंगे। जग्गू उन्हें अपनी बात से लाजवाब कर देता है और सपोर्ट के औचित्य को सिद्ध करता है- ‘‘आपके पास कौन सी ताकत है जो जितायेंगे?’’ जग्गू भड़क जाता है- ‘‘न आप यहां के वोटर हैं, न इस गाँव में आपकी कोई नाते-रिश्तेदारी है: तो किसके बल पर जिताने हराने का ठेका ले रहे हैं?’’ लड़के सन्न! वे एक दूसरे का मुंह देखते हैं। जग्गू फिर कहता है -‘‘मेरा पैंतरा जीतने के बाद देखना। सारा गाँव आकर मेरे इसमें तेल न लगाये तो कहना।’’ ‘बनाना रिपब्लिक’ भले ही कहानी की केन्द्रीय विषय वस्तु है, कहानी का शीर्षक भी है और भारत के गाँव ही नहीं पूरे विश्व में साम्राज्यवादी पूंजी के गहरे हस्तक्षेप की राजनीतिक अभिव्यक्ति है, लेकिन इस कहानी में शिवमूर्ति जितनी आसानी से अन्त में ‘बनाना रिपब्लिक’ के मिथक को टूटता हुआ दिखा पातें हैं वह दलित और सताई गई, छली गई आबादी के द्वारा अपनी ताकत महसूस कर पाने की ऐसी परिघटना है जो भविष्य का एक सुखद संकेत बन जाती है। जैसे केले की खेती में बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा वृहत् पूंजीनिवेश का चारा फेंककर अविकसित और विकासशील लातिन अमरीकी देशों के किसानों की समूची कृषि भूमि और कृषि प्रक्रिया का अपहरण किया गया है, वैसे ही राजनीति में ‘‘कुर्सी मिलेगी दलित को और मजा मारेंगे ठाकुर-बाभन’’ वाली स्थिति लाने के लिए जग्गू और मुन्दर को ठाकुर-ब्राह्मण की सपोर्ट से चुनाव लड़ाया गया है। लेकिन इस चुनावी युद्ध के दौरान ही दलित नौजवान पीढ़ी की बढ़ी चेतना का ऐसा विस्फोट होता है कि ‘बनाना रिपब्लिक’ शीर्षक स्वयं व्यंग में बदलकर ठाकुर का मुंह चिढ़ाने लगता है। अल्पसंख्यक मुद्दे को भुनाने का राजनीति में जो चलन फैला हुआ है उस पर भी शिवमूर्ति ने ग्राम स्तर पर हुए असर पर निगाह डाली है। - मकबूल बताता है - ‘‘पिछले चुनाव की तरह इस बार भी पदारथ कोशिश में थे कि मुसलमान टोले से कोई वोटकटवा कैंडिडेट खड़ा हो जाय। कितनी मुश्किल से रोका गया।’’ ‘‘जग्गू को ठाकुर की सीख याद आती है। वह कहता है, मैं मस्ज़िद के लिए हजार रूपये चंदा देना चाहता हूँ। यह भी ऐलान करना चाहता हूँ कि परधान बन गया तो मस्ज़िद के सामने का डेढ़ बीघा बंजर मस्ज़िद के नाम पट्टा कर दूंगा।’’ शिवमूर्ति जी के पूरे लेखन में गाँव अपनी ठेठ और अक्खड़ भूमिका के साथ लगभग हर जगह मौज़ूद दीखता है। वे संवेदनाओं के अद्भुत चितेरे हैं तथा उनकी रचनाओं में नारी पात्रों पर सबसे अधिक लिखा गया है। लेकिन ‘बनाना रिपब्लिक’ उनकी अब तक की सब कहानियों से अलग छल छंदों से भरे, संवेदनहीन और स्वार्थी पात्रों के जमावड़े वाला एक ऐसा राजनीतिक गाँव हमारे सामने पेश करती है जो आज़ादी के बाद के सालों में धीरे-धीरे भ्रष्टाचार की सरपरस्त राजनीति, और राजनीति के अपराधीकरण के गाँव के आंगन तक प्रवेश, दलित उभार, तथा सत्ता विकेन्द्रीकरण द्वारा लूट में हिस्सेदारी की बंदरबांट से फैली अफरा-तफरी और छीना-झपटी की सच्ची तस्वीरों का कोलाज है। यह वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों और मूल्यहीनता का प्रबल दबाव ही है जो शिवमूर्ति जैसे कोमल मानवीय अनुभूतियों के चितेरे से पूर्वी उत्तर प्रदेश की आंचलिक राजनीति का सम्पूर्ण ग्रामीण गणित खोलती इस अद्भुत कहानी ‘बनाना रिपब्लिक’ का सृजन करा सका है। कहानी की पूरी अंतर्धारा के बीच बहती हुई पात्रा ‘फुलझरिया’ पर कोई चर्चा किये बिना यह बातचीत अधूरी ही रहेगी, क्योंकि मुझे ऐसा लगता है कि पूरी कहानी में वही एक ऐसी पात्र है जो लेखक द्वारा गढ़ी गयी उनकी प्रिय पात्रा है। कहानी के कलेवर में इसे यद्यपि बहुत कम स्थान दे पाने की लेखक की मजबूरी है, फिर भी वे अपनी चाहत के नाते उतने में ही इसे एक मजबूत पात्र के रूप में गढ़ सके हैं। फुलझरिया एक ऐसी स्त्री पात्र है जो पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाँवों में अभी तक अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज नहीं करा पायी है लेकिन एक सम्भावित उभरती हुई भविष्य की शक्ति के रूप में शिवमूर्ति जी की प्रिय पात्र बनकर उनके सपनों के किसी अंश को अभिव्यक्त करती है। यह चरित्र और आत्मबल के स्तर पर अन्य सभी पात्रों पर भारी पड़ती हुई एक नई आशा की किरण के रूप में कहानी में उतारी गई है। इस कहानी के घटनाक्रम में फुलझरिया का प्रवेश भी आम पात्रों की तरह नहीं होता। अचानक एक झटके से शिवमूर्ति इस पात्र को पटल पर रखते हैं - ‘‘सचमुच फुलझरिया की ‘लक्क’ तेज है। सबसे कैचिंग सिम्बल उसे ही मिला -‘खुला हुआ छाता’।’’ यहीं से कहानीकार के हृदय में फुलझरिया के प्रति एक ‘साॅफ्ट कार्नर’ नजर आ जाता है। ठाकुर कहते हैं - ‘‘ऐसा सिम्बल जो अन्धे को भी अंधेरे में दिख जाय।’’ आगे फुलझरिया का जो वर्णन किया गया है, उसे देखें तो भी स्पष्ट होता है कि लेखक की तरफ से उसके सपनों की पात्रा है यह, क्योंकि बिना किसी सहायता-समर्थन के उसका हर कार्य पूरा हो जाता है, जबकि वह न तो पैसेवाली है, न यहाँ उसके कोई सगे-सम्बन्धी ही हैं, न वह पढ़ी-लिखी ही है। सिवाय लेखक के सपनों में होने के, दूसरा कोई सोर्स उसके पास नहीं है - ‘‘ससुराल की परित्यक्ता फुलझरिया। उसके मायके में शरण लेने पर किसी को क्या ऐतराज! गाँव में एक सस्ता मजदूर बढ़ा। खुशी की बात। वोटर लिस्ट में नाम चढ़ गया। बी.पी.एल. कार्ड बन गया। खुद पदारथ ने बनवा दिया। यह भी ठीक। लेकिन एक दिन परधानी लड़ जायेगी, किसने सोचा था! जीते भले न, अपनी बिरादरी के पचीस तीस वोट तो काट ही लेगी। पदारथ का मानना है कि उसे ठाकुर ने खड़े होने के लिए उकसाया। ठाकुर इसे पदारथ का काम मान रहे हैं। पर्चा दाखिले के समय कोई भेद नहीं खुला। न कोई भीड़, न जलूस। भाई भतीजे साइकिल से जाकर पर्चा दाखिल करा लाए। जाँच में पांच पर्चे ख़ारिज़ हुए लेकिन फुलझरिया उसमें भी पास हो गई।’’ यह पैराग्राफ बिना कुछ ख़ास कहे ही पाठक की सहानुभूति की पात्र बना देता है फुलझरिया को। बाद में प्रचार करने के उसके सलीके पर एक प्रसंग लेखक द्वारा दिया गया है। -‘‘फुलझरिया देवी अपनी दोनों भाभियों और तीन भतीजियों के साथ काला छाता लगाकर प्रचार के लिए निकली हैं। कहती हैं पूत न भतार। बेटी न बेटा। मैं किसके लिए लूट मचाऊंगी। भगवान ने अकेला किया है तो कुछ सोच कर किया है। ‘पब्लिक’ की सेवा के लिए। सारा गाँव मेरा भाई-बाप है।’’ यादव टोले की किसी दुलहिन ने पूछा, ‘‘जीत गयी तो परधानी कैसे करोगी बुआ?’’ ‘‘कुर्सी पर बैठ के करेंगे दुलहिन। सीना ठोंक कर करेंगे।’’ सीने पर मुक्का मारकर बुआ ने बताया, ‘‘मेरे जीते जी गाँव का हिस्सा हाकिम लोग खाकर दिखायंे जरा! पेट में हाथ डालकर निकाल लाउंगी।’’ सब हंसती हैं। उसका भाषण सुनने के लिए औरतों की भीड़ लग जाती है। ‘‘बड़ी हिम्मतवाली है। जीत गई तो बड़े बड़ों की बोलती बंद कर देगी।’’ फुलझरिया के बेदाग़ चरित्र के चलते उसका चरित्र हनन करने की पदारथ की कोशिश भी बेकार हो जाती है। और अंतिम परिणाम में वह नंबर दो पर रहती है। यह बदलाव की सच्ची आकांक्षा रखने वालों की बढ़ती ताकत की तरफ लेखक का इशारा उसके खुद के अंदर की ही अभिव्यक्ति है। शिवमूर्ति जी की भाषा पर बड़ी गहरी पकड़ है। यह गहरी पकड़ उन्हें लोक जीवन में गहरे लगाव और ज़मीन से लम्बे जुड़ाव के जरिये हासिल हुई है। भाषा पर इस पकड़ के चलते वे हर जगह सटीक और इच्छित प्रभावकारी तरीके से अपने विचारों को अभिव्यक्ति दे पाने में सफल होते हैं। उम्र, जाति, धर्म, वर्ग और व्यक्तिगत चरित्रों के इतने शेड्स वे अपनी अनुभव की पिटारी से छांट-छांट कर ऐसी स्वाभाविकता से सम्प्रेषित कर पाते हैं तो केवल अपनी भाषा सामथ्र्य के बल पर। इस एक कहानी में ही प्रयुक्त मुहावरों की लिस्ट भी बहुत लम्बी हो जायेगी। कुछ एक प्रयोगों की छटा देखिये - ‘‘मुझे पागल कुत्ते ने काटा है जो ठाकुरों बाभनों के गाँव में परधानी लड़ूंगा। लड़कर उनकी आंख का कांटा बनना है क्या?’’ ‘‘कहता था खुलकर मदद करूंगा।’’ ‘‘परधानी का बवंडर हम नहीं संभाल सकते। उड़ जायेंगे।’’ ‘‘ऐसा घामड़ बाप किसी को न मिले। उसने कपार पीट लिया।’’ ‘‘सवेरे-सवेरे कैसे राह भूल गये?’’ मास्टर की आह निकली, ‘‘नौकरी से इस्तीफा देना होगा।’’ खुशामद रंग लाई। मास्टर ढीले पड़े। बोले, ‘‘जाओ, पहले और लोगों का मन-मुंह तौलो। मैं तो घर का आदमी ठहरा।’’ ‘इतनी देर में पूरे टोले में बात फैल गई।’ ‘पदारथ चुप्पे और जबान से मिठबोले थे। दुश्मन भी सामने पड़ने पर बगुला भगत का चोला देख ठंडा पड़ जाता था। लेकिन यह तो लगता है पदारथ का भी कान काटेगा।’ ‘जरूर उसी ठाकुर ने तेरी मति फेरी है। इतनी दूर का निशाना तभी मैं कहूं कि तुझे परधानी देने के लिए वह क्यों मरा जा रहा है। तू समझ रहा है कि वह तेरा चुम्मा ले रहा है। अरे कुल कलंकी, वह तुझे डस रहा है। उसके काटने से लहर भी नहीं आयेगी।’ ‘पहले तो ससुरे ने ललकार कर सूली पर चढ़ा दिया। अब मंझधार में लाकर घटियारी कर रहा है।’ ‘बात तो सही है। मांस बाघ के मुंह में डाल चुके हो लेकिन जरूरत पड़ेगी तो रास्ता निकाला जायेगा।’ पूरी कहानी भरी पड़ी है ऐसे प्रयोगों से। शिवमूर्ति के अन्तर की जमीन में एक शरारती रसिकता बचपन से ही अपना घर बनाकर आबाद है। इसे आप उनकी किसी भी कहानी में रह-रह कर सर उठाकर झांकते और अपनी उपस्थिति दर्ज कराते देख सकते हैं। वह अपनी आदत से इस कहानी में भी बाज नहीं आते। वह दृश्य देखें, जब जग्गू पत्नी से अपने परधानी में खड़े होने की चर्चा करता है - ‘‘क्या अंड-बंड बोल रहे हो! कहीं से पीकर आये हो क्या? इधर आओ। तुम्हारा मुंह सूंघूँ।’’ ‘‘अरे हट। मुंह में क्या रखा है? हां, चुम्मा लेने का मन हो तो साफ-साफ बोल।...... और दौड़कर तेल गरम कर ला। मालिस करना होगा। पैर दर्द से फटे जा रहे हैं।’’ पत्नी बाहर जाने के लिए मुड़ भी न पायी थी कि उसने जूठे हाथ ही उसे अंकवार में भरा और लिए-दिए बगल की खटिया पर गिर पड़ा। खटिया की पाटी टूटी चर्र -ऽ-ऽ। सुलताना और उसके पति का जिक्र करते हुए शिवमूर्ति जी की भाषा देखें- ‘साला, सुलतनवा जैसे मोती को रोज चुगता होगा।’ उसे ईष्र्या हुई। ‘सातवीं क्लास में सुलताना उसके बगल वाले टाट पर दरवाजे के पास बैठती थी। आते जाते वह उसकी समीज के अन्दर झांकने की कोशिश करता था। सुलताना को सब पता था। वह सावधान हो जाती थी। समीज को पीछे से थोड़ा नीचे खींच देती थी। फिर उसकी निराशा पर मुस्कराती थी।’ क्लेप्टोक्रेसी जैसे गंभीर विषय पर चर्चा करते समय भी मौका पाने पर शिवमूर्ति शरारती भाषा का प्रयोग करने से चूकते नहीं। - ‘क्यों नहीं हो सकता? क्या नहीं हो सकता? बुलाओ मुंशिया को। ससुरा सांझ से ही मुंशियाइन के लंहगे में घुस जाता है। बुढ़ापे में भी अलग नहीं सो सकता। बुलाओ कायस्थ बुद्धी लगाकर कोई तरकीब निकाले।’ ‘लहंगे में घुसना कब का छूट गया लेकिन घुसने की कल्पना कर के अधगंजे सर के सफेद बाल भी परपराकर खड़े हो जाते हैं।’ यहां तक कि अपनी प्रिय पात्रा फुलझरी के साथ हुए षडयंत्र का वर्णन करते समय भी उनकी प्रकृति अपना काम कर गई है - ‘‘बड़ी छतीसी औरत निकली गुइयाँ।’’ औरतों का झुण्ड दातों तले उंगली दबा रहा है। ‘‘कब से है यह आशनाई? किसी को भनक तक नहीं लगी।’’ ‘‘कहां चालीस-पैतालीस की फुलझरिया, कहां बीस-बाइस का शंकरवा! दूने की चोट। माई रे।’’ पोलिंग पार्टी में आई एक महिला का वर्णन करते समय शिवमूर्ति की कलम की धार देखें - ‘पार्टी में साल भर के बच्चे वाली एक सुन्दर महिला भी है। बहुत उदास है। लाख जतन के बाद भी वह अपनी ड्यूटी नहीं कटवा सकी। सभी महिला को देख-देख कर बच्चे से प्यार जता रहे हैं। उसके पीने के लिए दूध आ गया है।’ शिवमूर्ति के यह रसात्मक वर्णन जहां कहानी की एकरसता को भंग करते हैं तथा पाठक के तनाव को कम करते हैं वहीं दृश्यों को स्वाभाविकता भी प्रदान करते हैं तथा व्यंग को और भी धारदार बना देते हैं। शिवमूर्ति की कहानी कहने की कला अद्भुत है। अपनी अभिव्यक्ति को धारदार बनाने के लिए वे कई तरह के प्रयोग करते हैं। उनके यह प्रयोग देहाती मिट्टी से अंकुरित, लोक की ख़ुशबू में रचे बसे प्रयोग हैं, जिसे किसानों ने सदियों से मांज-मांज कर धारदार बना दिया है। इनमें से एक है, अपनी बात कहने के लिए इशारों का प्रयोग। उचित अवसर पर शिवमूर्ति बहुत सधे हाथों से ऐसा इशारा करके हट जाते हैं और पचाने की जिम्मेदारी पाठक पर छोड़ देते हैं। जब चुनाव प्रचार के समय मुन्दर चन्द्रिका सिंह से कहता है कि मन में कोई मैल न रखें कई पीढ़ी से आपकी मैल ढोते आये हैं। तो शिवमूर्ति का इशारा देखें - ‘‘हाथ जोड़ने के तुरंत बाद हाथ मलने की आदत है मुन्दर की। जैसे साबुन लगाने के बाद नल के नीचे धो रहा हो।’’ अपने ही वर्ग व वर्ण दुश्मन से हाथ जोड़ने की मज़बूरी को जग्गू के मन का अवचेतन स्वीकार नहीं कर पाता। इस जगह दरअसल इस मज़बूरी से मन में उभरी अवमानना को ही शमित करता है जग्गू का अवचेतन। उसका अवचेतन मन यह विश्वास करता है कि सामने वाला व्यक्ति इतना गंदगी से भरा है कि प्रणाम के लिए हाथ जोडने पर भी हाथ गंदे हो गये हैं, जिसे धोना जरूरी है। अपनी आत्मा में इस गंदगी से उभरे लिजलिजेपन और दुर्गंध को शमित करने के लिए अवचेतन मन द्वारा अन्जाने ही हाथ धोने का अभिनय कराके उसका प्रतिकार करता है जग्गू। अवचेतन मन की ऐसी एसी परतें खोलते, शिवमूर्ति के ऐसे बारीक मनोवैज्ञानिक इशारे अन्जाने ही अपना प्रभाव छोड़ते हैं, लेकिन प्रकट में जल्दी पता नहीं चलता। जग्गू जब सुल्ताना से मिलकर लौटता है तो लेखक उसके मन के कोमल भाव को इशारे के एक वाक्य से ही अभिव्यक्त कर देता है- ‘‘उसका मन कहता है, कहीं अकेले में बैठकर देर तक सुल्ताना के बारे में अच्छी-अच्छी बातें सोचता रहे। सड़क पर छलांग लगाते हुए चलने का मन कर रहा है।’’ बचपन की मीत सुल्ताना से बहुत अर्से बाद मिलकर और सकारात्मक रुख पाकर मन हल्का हो जाने और मन में पुरानी स्मृतियां उभरने की बात को इतने आकर्षक इशारे से व्यक्त किया है कहानीकार ने, जैसे सांप भी मर जाय और लाठी भी न टूटे। खुलकर कुछ कहना भी न पड़े और पाठक रस से सराबोर भी हो जायें। वैसे ही मुंशीजी की प्रकृति स्पष्ट करने के लिए छोटे-छोटे दो वाक्यों में इशारे से बहुत कुछ कह दिया गया है - ‘‘घर जाते हुए जग्गू की खोपड़ी भाँय-भाँय कर रही है। कैसे-कैसे सांप-बिच्छू भरे हैं गाँव की खोह में। जब तक काट न लें पता ही नहीं चलता।’’ यह कथन केवल मुंशीजी का ही नहीं बल्कि गाँव के ऐसे कसरी लोगों की जमात का ही चरित्र प्रकट करता है जिनसे गाँव की दुनिया भरी पड़ी है। पहले गाँव की चैपालों में और अब चैपालें ख़त्म होने के बाद तपनी की आग के इर्द-गिर्द बैठकर सतनत-पुतनत के किस्से और सीमित दुनिया की असीमित बातों को बार-बार ताश के पत्तों की तरह फेटे जाने पर ही ऐसे कुछ विशिष्ट लोगों का चरित्र गठित होता है जो सांप-बिच्छू से भी अधिक ज़हरीले हो जाते हैं और बातों से ही पानी में आग लगा देने में सक्षम हो जाते हैं। काउन्टिंग के पहले वाली रात शिवमूर्ति ठाकुर को एक सपना दिखाते हैं, यह सपना भी उनका जबरदस्त इशारा ही है। ‘रात के सपने ने उनकी आवाज में कंपन पैदा कर दिया है। सपना देखा कि जग्गू हाथी की नंगी पीठ पर बैठा उसी की ओर आ रहा है। उसके हाथ में लम्बा अंकुश है। उनको देखकर अट्टहास करता है,’’ तुम्हीं को खोज रहा हूँ ठाकुर।’’ और हाथी उनकी ओर दौड़ा देता है। निचाट मैदान में वे अकेले भागे जा रहे है, लेकिन पैर ही नहीं उठते। पीछे हाथी की चिग्घाड़। रामसिंह पहले ही भाग खड़ा हुआ। उनकी धोती खुल गई है। धोती की लांग लम्बी होकर पूंछ की तरह घिसट रही है। पैरों में लिपट रही है।’ इस सपनें में एक साथ कई इशारे हैं। बसपा फैक्टर का प्रतिनिधि हाथी है, हाथी की नंगी पीठ पर दलित उभार का प्रतिनिधि जग्गू है, जिसके हाथ में लम्बा अंकुश है। जग्गू का अट्टहास है- ‘‘तुम्हीं को खोज रहा हूँ ठाकुर’’। इशारे में आया हाथी नंगी पीठ वाला हाथी है इस लिए वह ठाकुर के लिए शुभ सगुन वाला गणेश नहीं है। यह हाथी ठाकुर के लिए विजातीय है। ठाकुर का सजातीय हाथी हमेशा हौदे वाला हाथी ही रहा है- चाहे युद्ध में, चाहे शादी में, चाहे घूमने में, यह ठाकुर के दरवाजे पर बंधने वाला हाथी नहीं है। यह रजवाड़ों के रंगढंग सिखाया हुआ नहीं, जंगल में मुसहर के बच्चों की टिटकोरी सुनकर खड़ा हो जाने वाला, उनके लिए तेंदू पत्ता और लकड़ियां ढोने वाला हाथी है। ठाकुर के सपनों में यह निश्चय ही बसपा फैक्टर है। जिसकी नंगी पीठ पर यह दलित उभार का प्रतिनिधि जग्गू बैठा है। जग्गू के हाथ में लम्बा अंकुश होना भी इशारा है। आमतौर पर हाथी को नियंत्रित करने के लिए महावत लम्बे अंकुश का प्रयोग नहीं करते। ज़ाहिर है लम्बा अंकुश हाथी की पीठ से ज़मीन तक वार करने के लिए ही है। ठाकुर का अवचेतन अपनी संचित अनुभूतियों की आत्मालोचना करता है तो सपने में अपने ही अत्याचारों और प्रतिहिंसक स्वभाव का आईना बन जाता है, तथा जग्गू को नायक और खुद को खलनायक बना देता है। कठिनाई के दिनों में स्वार्थी मित्र सबसे पहले भागते हैं, सो रामसिंह भाग गया है। धोती की लांग लम्बी होकर पूंछ की तरह घिसटते हुए पैरों से लिपट जाने द्वारा हिंसक जानवर के शक्तिहीन होकर गीदड़ बन जाने का इशारा है। यह शिवमूर्ति जी की कला ही है जो इतने महत्वपूर्ण विमर्श को एक छोटे से, देखने में सीधे सादे सपने के माध्यम से पुरजोर ढंग से व्यक्त कर देती है। ‘बनाना रिपब्लिक’ की क्रांतिकारी चेतना ‘कफ़न’ और ‘ठाकुर का कुंआ’ से बहुत आगे बढ़ गई है। यह बात ध्यान देने की है कि ‘कफ़न’ में तत्कालीन सामंत, घीसू माधो की पत्नी के दाह संस्कार के लिए जो मदद करते हैं उसकी तुलना ठाकुर का कुंआ में बीमार पति के लिए चोरी से पानी लेने गई गंगी को दौड़ा लेने और गम्भीर रूप से बीमार जोखू द्वारा गंदा, जहरीला, बदबूदार पानी पीने की मजबूरी से की जाय तो स्पष्ट हो जाता है कि सामंतवाद दलित की मदद और उसपर प्रहार दोनों न तो किसी दया से अभिभूत होकर करता है न किसी बेवजह उन्मत्त क्रोध से करता है। दया और क्रोध की यह दोनों ही क्रियायें वह अपने ढांचे को मजबूत और अटूट बनाये रखने के लिए बेगारी और मज़बूरी के श्रम की परंपरा और उसकी सामाजिक संरचना के लिए आवश्यक दार्शनिक औजार को धार देने के लिए, उसे चमचमाता बनाये रखने के लिए ही करता है। ‘राम क चिरई-राम क खेत, खा ले चिरई भर-भर पेट’ जैसी कहावतें गौरैया के लिए हो सकती हैं, लेकिन दलित के लड़के द्वारा एक गन्ना तोड़ लिए जाने पर या एक गिरा हुआ आम उठा लिए जाने पर भी उसे दण्ड का भागी बना सकते हैं। ‘सवा सेर गेहूँ’ के कर्ज से उसे जनम-जनम तक ग़ुलाम बनाये रख सकने वाली यह सामंती दया कहीं से भी सांमतवाद को सहानुभूति का पात्र नहीं बनाती। अपने कूप से पानी न लेने देने और जग्गू के दरवाजे आकर उसकी बाल्टी भर पानी पी जाने की इच्छा जाहिर करने, दोनो ही बातों के केन्द्र में सामंत द्वारा अपनी समस्त सुविधा सम्पन्नता बरक़रार रखने की जद्दोजहद का ही उद्देश्य छिपा हुआ है। उसी प्रकार ‘ठाकुर का कुआं’ में बीमार पति जोखू की जान बचाने के लिए, सुनसान अंधेरी आधी रात में हर प्रकार के भय पर क़ाबू करके ठाकुर के कुएं पर चोरी से पानी लेने जाना दलित गंगी को चोर और अपराधी नहीं साबित करता, बल्कि एक अमानवीय और अत्याचारी परंपरा और क़ानून के भंजन हेतु अदम्य मानवीय जिजिविषा द्वारा किया गया मुक्तिकामी प्रयास है। ‘कफ़न’ में घीसू-माधो द्वारा कफ़न के पैसों से दावत उड़ाना और शराब पीकर नाचना भी उसी अमानवीय ब्राह्मणवाद के सबसे मज़बूत दार्शनिक आधार ‘परलोक के व्यापार’ पर कमज़ोर हाथों द्वारा किया गया अत्यन्त बलशाली प्रहार है। उनका मेहनत से भागना आलस्य नहीं बल्कि शोषण की मशीन का पुर्जा बनने से इंकार का एक व्यंगात्मक स्वरूप है और प्रसव पीड़ा में मरती हुई बुधिया की कोई मदद न करके भुने जाते हुए आलू पर निगाह गड़ाये रखना सामंती क्रूर आर्थिक सम्बन्धों से उपजी एक भयावह मनस्थिति का मार्मिक व्यंगात्मक अट्टहास है। ‘बनाना रिपब्लिक’ में हाथी द्वारा दौड़ाये जाने का सपना देखने के बाद अंदर से हिल चुके, और जीते हुए जग्गू की अगवानी के लिए सारी तैयारी करके इन्तज़ार करते ठाकुर जब देखते हैं कि जलूस सीधे जग्गू के घर की ओर मुड़ गया तो ढोल ताशे की धमक अचानक उनकी छाती पर धमकने लगती है। सिंघा बाजा की आवाज डरावनी लगने लगती है। शिवराज कुंवरि गुस्से में हाथ की माला सामने चैकी के नीचे फेंक देती हैं। लेकिन ठाकुर थोड़ असमंजस के बाद तय करते हैं कि वे ख़ुद जायेंगे। ‘‘जाना ही होगा। एक लाख से ज्यादा इनवेस्ट कर चुके हैं। बात बिगड़नी नहीं चाहिए।’’ ‘घुटने टेक कर वह हाथ बढ़ाते हैं और चैकी के नीचे से माला निकाल कर कुर्ते की बगल वाली जेब में डालते हैं। मंकी टोपी निकाल कर फेंकते है और कुबरी लेकर निकल पड़ते हैं।’ जग्गू को पहनाने के लिए माला उठाने को ठाकुर का घुटने टेकना भी कहानी में एक प्रतीक है, एक महत्वपूर्ण इशारा है सामंतवाद के धीरे-धीरे घुटना टेककर दलित के दरवाजे पर अपनी मजबूरी के चलते जाने के लिए तैयार होने का। शक्ति के बदलते समीकरण का। पहले भी सामंत अपनी मजबूरी के चलते ही दलित के दरवाजे पर जाते थे मजदूर बुलाने, लेकिन तब अकड़ में जाते थे, आज अकड़ ढीली हो चुकी है। परिदृष्य बदल चुका है। यह बात भी ध्यान देने की है कि शिवराज कुंवरि गुस्से में हाथ की माला चैकी के नीचे फेंकती हैं जबकि ठाकुर ‘घुटने टेककर’ माला निकालते हैं। वे अपनी पत्नी से माला गुंथवाते ज़रूर हैं लेकिन चैकी के नीचे उनके द्वारा फेंकी माला को उनसे निकालने के लिए कहने के बजाय ख़ुद ही घुटने टेक कर हाथ बढ़ाते हैं। शिवमूर्ति द्वारा यह चित्रण वह भी कहानी के चरम बिंदु पर अनायास ही नहीं किया गया है। बहुत सोच-समझकर सायास किया गया चित्रण है यह। वे गाँव की मिट्टी में पले बढ़े, और समस्त अनुभव की पिटारी उसी मिट्टी से खींचकर समृद्ध हुए लेखक है। सामंतवाद की नस-नस से वाक़िफ़ हैं वे। वे जानते हैं कि ठाकुर टूटे हैं, शिवराज कुंवरि अभी नहीं टूटी हैं। सवर्ण स्त्री भले ही पुरूष सत्ता की सताई हुई, उसके सबसे घातक प्रहारों को सहन करने के लिए अभिशप्त है, फिर भी वह इस व्यवस्था की सबसे प्रमुख पोषक है, सबसे मज़बूत कड़ी है। हर दुख और दुर्दिन में अपने पुरूष, अपने बेटे, अपने भाई को फिर से हर दुख सहकर भी सहारा देने को खड़ी देवी भी है। सदियों-सदियों उसके मन में इस देवी स्वरूप की प्राण-प्रतिष्ठा करता रहा है सामंतवाद। इसलिए वे ठाकुर का हाथ पकड़कर खींचती हुई कहती हैं- ‘‘जाने दीजिए हरामजादे को। दोगला निकला। आप अन्दर चलिए।’’ उन्हें इस दुनिया के बदल जाने का /बदल पाने का कत्तई आभास/विश्वास नहीं है। क्यों कि यह व्यवस्था उनके लिए सनातन है, परमात्मा द्वारा सृजित है; जबकि ठाकुर इसकी सारी पोल जानते हैं। उन्हें पता है कि यह हनक, यह साम्राज्य बनाने के लिए क्या-क्या करना पड़ता है। जान देने और जान लेने के रास्ते से गुजर कर ही गाँव से लेकर राजमहलों तक के साम्राज्य अस्तित्व में आते हैं और क़ायम रहते हैं। इसलिए घुटने टेककर ठाकुर का माला उठाना बहुत बड़ा प्रतीक बन जाता है कहानी में; और ध्वस्त होती कृषि अर्थव्यवस्था में स्वयं पूंजीवादी अपंग लोकतंत्र द्वारा घायल हुए इस मरणासन्न सामंतवाद के लिए बनने वाले ताबूत की पहली कील जैसी अनुभूति प्रदान करता है। इस कहानी में लेखक अपनी मनपसंद स्नेहपात्रा फुलझरी को एक क्रांतिकारी चरित्र के प्रतीक के रूप में ले आये हैं। उसे कमर में लाल चुनरी बांधे हुए दिखाकर वे क्रांतिकारी वामपंथ की ओर ही इशारा करते हैं। उसे नीली चुनरी बांधे हुए नहीं दिखाते। अपनी इस चाहत का स्पष्ट इशारा जब उन्हें पर्याप्त नहीं लगता तब वे फुलझरिया के भाषण में भी उसकी क्रांतिकारी ऊर्जा को उजागर करते हैं। - ‘‘पदारथ ने तेरह औरतों को विधवा बनाया है। मरद आछत विधवा। उन्हें फर्जी पेंशन दिला रहे हैं। और तो और अपनी सगी पतोहू को विधवा दिखा दिया है। कोई पूछे भला कि विधवा है तो गोद में चार महीने की बेटी किसकी है? जग्गू और मुन्दर में इतनी हिम्मत है कि ठाकुर बाभन टोले की फर्जी विधवाओं की पेंशन रोक सके? जीतते ही मैं यह जाल बट्टा बंद कराऊंगी।’’ इस पात्रा के प्रति शिवमूर्ति जी का लगाव इस हद तक है कि जहां और पात्र लाखों खर्च करते और तरह तरह के हथकंडे अपनाते है, लोगों की जी हजूरी करते हैं और पैसा ख़र्च करके फुलझरी के चरित्र हनन की असफल कोशिश करते है वहीं फुलझरी केवल अपनी क्रांतिकारी चेतना, सच्चाई और संघर्षशीलता के बलपर परिणाम में नंबर दो पर स्थान पाती है। जबकि इतना खर्च और ठाकुर के सपोर्ट के बाद भी जग्गू मात्र सात वोट से जीतता है। कहानी की यह परिणति दरअसल कहानीकार के हृदय में क्रांतिकारी वामपंथ के प्रति आंतरिक संवेदना तथा उसकी अंतिम जीत के प्रति उनके विश्वास को ही अभिव्यक्त करती है। यहीं पर यह कहानी यह उम्मीद भी जगाती है कि आनेवाले भविष्य में शिवमूर्ति जी आंचलिकता का कलेवर तोड़कर राष्ट्रीय जनसंघर्षों के क्रांतिकारी परिदृष्य को भी अपनी कलम से उसी तीव्र अनुभूति के साथ अभिव्यक्त करेंगे जिससे वे अब तक की संवेदनाओं को ज़्ाुबान देते आये हैं, तथा घीसू-माधो की उस पीढ़ी को अपनी कहानियों में सजायेंगे जो एक नई दुनिया बसाने का, एक नये प्यार का अंकुर रोपने का, एक नये तंत्र की संस्थापना का सपना लेकर कुर्बानियां दे रहे हैं। ओम प्रकाश मिश्र ‘आयाम’ 262 जे/1, लेन नं0- 4 बैंकर्स कालोनी परमानतपुर, जौनपुर (उ0प्र0)। पिन - 222002 मो0 - 9838201907

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