Saturday, May 5, 2018

(शिवमूर्ति की कहानियां) Published in samved 106 (समीक्षा)


ग्रामजीवन का विद्रूप एवं कथारस का आस्‍वाद


राम विनय शर्मा

त्रिलोचन जी ने कहा है कि ‘‘भाषा को लेखक के सम्‍पर्क में जाना होगा।...बोलचाल की भाषा से ही साहित्‍य का विस्‍तार होता है।’’ शिवमूर्ति ने अपनी कहानियों में ऐसी ही भाषा का उपयोग किया है। यह भाषा उस परिवेश का अटूट हिस्‍सा है, जहां से कहानी के पात्रों को उठाया गया है। उनकी कहानियों के पात्र, परिवेश, भाषा और समाज परस्‍पर घुले-मिले हैं। ये पात्र, भाषा और परिवेश शिवमूर्ति के अनुभव से नि:सृत एवं सम्‍बद्ध हैं। उन्‍होंने जीवन को कलात्‍मत ढंग से अपनी कहानियों में उतारकर रख दिया है। यही कहानी कला का उत्‍कर्ष भी माना जाता है। उनके लेखन में मनुष्‍य के प्रति आत्‍मीयता की एक अविरल धारा बहती है। शिवमूर्ति ने कुल आठ कहानियां लिखी हैं। इन्‍हीं के बल पर उन्‍हें कहानीकार के रूप में विशिष्‍ट पहचान मिली है। परिमाण में कम, लेकिन प्रभाव में अप्रत्‍याशित विस्‍तार लिए शिवमूर्ति की ये कहानियां ग्रामीण समाज के विभिन्‍न पक्षों का निरूपण करती हैं। लोक और जन उनकी कहानियों के प्राणतत्व हैं। उनकी वर्णन-शैली रोचक है। स्‍त्री और दलित जीवन की दशा और दिशा उनकी कहानियों का प्रमुख उपजीव्‍य है। स्‍त्री की यातना को उन्‍होंने संवेदनशीलता के जिस धरातल पर वर्णि‍त किया है, उससे उनकी कहानियां अधिक ग्राह्य, मार्मिक और प्रभावशाली बन गयी हैं।

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