Monday, September 28, 2009

'न रुका, न चुका हूँ' / संजीव

कहानीकार संजीव से बातचीत

संजीव हमारे दौर के उन कथाकारों में से हैं जिन्होंने यथार्थ को 'जादू-टोने' से नहीं सामने से मुठभेड़ करते हुए पकड़ने की सपफल कोशिश की है। सामाजिक यथार्थ को साधने वाले गाँव-कस्बे के कहानीकारों में प्रेमचंद की परंपरा को वे आगे बढ़ाते हैं। नक्सली भूमि से संब( कहानी 'अपराध' से उन्हें पहचान मिलती है। मरते संबंधों की समरभूमि में खुद्दारी को जीने की खुराक समझने वालों की कहानी 'आरोहण' ने उन्हें पर्वत की ऊँचाइयाँ दीं। 'सागर सीमांत', 'मानपत्रा', 'डेढ़ सौ सालों की तन्हाई' ने व्यापकता
अपने उपन्यासों पर शोधपरक श्रम करने वाले संजीव कहानियों से जुड़े तथ्य जुटाने के लिए भी कम मेहनत नहीं करते। अपनी कथा रचना पर इतना परिश्रम और शोध कर्म करने वाले वे हिन्दी के विरल रचनाकार हैं। यह परंपरा आगे बढ़ती नहीं दिखती। ऐसा बहुत कम होता है कि लेखक का लेखन वही हो जो उसका जीवन है। संजीव इसके अपवाद हैं। यह अतिशयोक्ति नहीं है कि इनके पास एक दर्जन से ज्यादा कालजयी कहानियाँ हैं। बावजूद इसके हिन्दी के शीर्ष आलोचकों के प्रिय लेखकों की सूची में इनका नाम नहीं है। इनके दौर के दूसरे महत्वपूर्ण लेखक और उनकी मंडली इन्हें इसलिए भी महत्व नहीं देती, क्योंकि वे महत्वहीन हो जाएँगे। 'पाखी' से बातचीत में संजीव ने कुछ भी छिपाने या खुद को बचाने की कोशिश नहीं की। जो भी कहा खुलकर कहा, दिल से कहा


अपूर्व जोशी : सुल्तानपुर, उ.प्र. के गाँव बाँगरकला में आप का जन्म हुआ। वहाँ से जुड़ी कुछ बचपन की बातें, कुछ स्मृतियाँ साझा करें?

संजीव जी : राजेन्द्र यादव जी की टिप्पणी या व्यंग्य से बात शुरू करें तो मेरा जन्म लगता है कई जगहों पर हुआ है। लेकिन बचपन की स्मृतियों के संबंध् में जहाँ सुल्तानपुर, मेरा जन्म हुआ, उसका अपना एक विशेष प्रकार का आकर्षण रहा है। इसे आप नॉस्टेल्जिया कहिए या कुछ और। बचपन में जब लोग मुझे गोद में खिलाते थे, सियार या नील गाय दिखाते, बहलाते थे तो मुझे उस समय तक की स्मृतियाँ हैं। सुल्तानपुर में माँ रहती थी इसलिए मेरे लिए यह आकर्षणीय है। मैं पं. बंगाल में पढ़ता था तब भी वहीं से जुड़ा था। मैं जुदा हो ही नहीं सकता। मुझे कभी-कभी पं. बंगाल से भी अधिक सुल्तानपुर अपील करता है हालाँकि उसने मुझे ऐसा कुछ दिया नहीं सिवाय जन्म, माँ, पत्नी, रिश्तों और मित्राों को छोड़कर।

अपूर्व जोशी : सर्कस की भूमिका में आपने एक मित्रा सूरज का जिक्र किया है लेकिन बहुत स्पष्ट नहीं किया है। आपने लिखा है कि सूरज से ही प्रेरणा मिली साहित्यकार बनने की।

संजीव : सूर्य नारायण शर्मा नाम है उनका। हम दोनों में बचपन से ही दुनिया बदल डालने की प्रवृत्ति रही। हम दोनों बचपन में अच्छे-अच्छे कागज लाकर प्रधानमंत्राी जवाहरलाल नेहरू को पत्रा लिखते थे कि यहाँ ये हो रहा है, वहाँ वो हो रहा है। हमारे पास बहुत कम पैसे होते थे। किसी भी तरह उस चिट्ठी को हम भेजते थे कि शायद कुछ बदल जाएगा। लेकिन कभी उनका जवाब नहीं आया। सूर्य नारायण शर्मा ने बाद में नक्सलबाड़ी मूवमेंट की ओर रुखकर लिया और मैं बहुत बाद में इसमें आया उस मूवमेंट के सिम्पेथाइजर के रूप में।

अपूर्व जोशी : आपने लिखा है सूरज नक्सलबाड़ी आंदोलन में शहीद हो गये।

संजीव : उसके बाद शहीद हुए, उसमें नहीं। भगतसिंह के जन्म दिन पर वे अकेले रिक्शा पर माइक लेकर शहर में द्घूमते थे। वह समर्पित थे। उनमें एक चिन्गारी थी कि क्या करें। ऐसे बहुत सारे मित्रा हैं जिन्होंने मुझे बहुत कुछ दिया। सूर्य नारायण शर्मा का तो आपने नाम सुन रखा है। बाकियों का नहीं।

अपूर्व जोशी : ओझा जी का जिक्र किया है आपने।

संजीव : उनका देहान्त डेढ़ साल पहले हो गया। नरेन्द्र नाथ ओझा एक तरह से मेरे गुरु थे। बचपन में उन्होंने बहुत सारी चीजें मुझे सिखाईं। उस समय बहुत पुराने-पुराने ढंग की तुकांत कविताएँ हुआ करती थीं। लेकिन उनसे जो तृप्ति मिलती थी, जो अस्वाद था, वह भयंकर था। उस समय 'सरस्वती' पत्रिाका चलती थी। कुछ और पत्रिाकाएँ भी चल रही थीं। निराला की अंतिम दिनों की कविताएँ आई थीं। एक तरह से नरेन्द्र नाथ ओझा मुझे शुरूआती दौर में अलिपफ-बे सिखाने वाले थे। लेकिन हर चीज की एक सीमा होती है। ओझा जी 'सूत्राधार' पढ़कर बहुत गुस्से में थे। बोले-यह तुमने क्या नाश कर दिया है। यह संयोग है कि उनके एक पुत्रा रामचन्द्र ओझा, होमगार्ड में बड़े अपफसर हैं। इस समय झारखंड में हैं, मेरी बहुत सारी कहानियों के नायक के मॉडल हैं। शिवमूर्तिजी की तरह इन पिता-पुत्रा का मेरे जीवन में बहुत योगदान है। 'अपराध' कहानी नरेन्द्र नाथ ओझा को मैं सुनाने गया, चार बार वे सोये। रात के ११ः३० बजे जब मैं जाने लगा तो मैंने पूछा कि कहानी पर आपकी प्रतिक्रिया क्या है? तो बोले-कि और कुछ द्घास-भूसा नहीं था जो उसमें भर देते। मैंने उन्हें प्रणाम किया और चला आया। बाद में जब 'अपराध' को सारिका की कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार मिला तब उन्होंने उसे पिफर से पढ़ा। तब वह मुझसे बोले कि हम सो गये थे क्या जी उस दिन? तो यह वो आत्मीयता है जो मुझे वहाँ मिली। ओझा जी, देवनाथ सिंह, मनोज कुमार शुक्ल, दिनेश लाल, मिलिन्द कश्यप, सूर्य नारायण शर्मा, सृंजय, भोलानाथ सिंह, नरेन, शिव कुमार यादव, गौतम सान्याल बहुत सारे मित्रा थे। जो आत्मीयता मुझे इन सभी से मिली वह मुझे यहाँ ;दिल्ली मेंद्ध नहीं मिलती। मेरे कुछ मित्रा बिल्कुल मुझे डाँट देते हैं। रविशंकर सिंह ने 'आकाश चम्पा' को देखने के बाद कहा कि इसे कौन पढ़ेगा? मैंने कहा-आप। उन्होंने कहा-'मैं क्यों पढूँ, मुझे कुत्ते ने काटा है? इसमें क्या है जो मैं पढूँ।' इसके बाद मुझे अपनी धारणा बदलनी पड़ी और इस उपन्यास को मैंने पिफर नए सिरे से लिखा।

प्रेम भारद्वाज : पिफर दुबारा लिखा?

संजीव : हाँ लगभग दुबारा लिखा। यह मित्राों का अवदान है। छोटी जगहों की सौगात।

अपूर्व जोशी : यहाँ एक निश्छल आत्मीयता का भाव है।

संजीव : बहुत सारी कहानियाँ हमारे द्घर से निकलीं। वह ऐसे कि सभी मित्रा मेरे द्घर पर बैठते। जो भी साधारण खाना खिचड़ी, दाल-चावल, आलू-चोखा बनता वह सभी खाते और कहानी, कविता, उपन्यास अंश का पाठ करते। सभी निर्द्व्रन्द्व होकर अपनी राय देते थे, जो यहाँ संभव नहीं है। उन दिनाें सभी हमारे द्घर पर आते थे। उनमें क्रांतिकारी भी थे। आश्चर्य नहीं कि उनमें से कोई अमिताभ बच्चन को चिकोटी काटकर या कोई और ही कारनामा करके आ गया है तो वह भी हमारे द्घर में आता था। बाबा नागार्जुन, अरुण प्रकाश, नरेन, बी. के. शर्मा, मनमोहन पाठक, नारायण सिंह, समीर, रविभूषण सभी आते थे।

प्रेम भारद्वाज : किस चीज ने आपको लेखक या कहानीकार बनने के लिए प्रेरित किया। वह क्या सोच, रचना या जज्बा था जिसके चलते आपने लेखक बनने का पफैसला किया?

संजीव : आदमी ऐसा कुछ सोचकर तो आता नहीं है। जहाँ तक मेरा सवाल है तो मुझे कुछ खास परिस्थितियों में यहाँ आना पड़ा। एक बार अंताक्षरी के लिए तुकांत कविताएँ चाहिए थीं, उस समय मैं पाँचवीं क्लास में था। मैंने तुकबंदी कर कविताएँ लिखीं और इसका चैम्पियन भी बना। तो तुकांत कविताओं के माध्यम से मेरा प्रवेश हुआ ड्रील पर कविता लिखने के बहाने भी...। पंतजी ने मुझे शब्दों की बाजीगरी सिखाई। मेरा उनके साथ पत्रााचार होता था। मैं बहुत छोटा और पंत जी बहुत बड़े थे। 'पद्म' के नाम से मैं कविताएँ लिखता था।

प्रेम भारद्वाज : माना भी जाता है कि हर लेखक की शुरूआत जो होती है वह कवित्व से होती है।

अपूर्व जोशी : आप कुल्टी ;प. बंगालद्ध कैसे पहुँचे? वहाँ जो समय बिताया, जो साहित्य सृजन किया उसे बताएं।
संजीव : कुल्टी मेरे काका ले गए थे। उन्हें लगा कि लड़का दो अक्षर पढ़ लेगा वहाँ। कहते थे कि गाँव में रहेगा तो गाय चराएगा, वहाँ जायेगा तो पढ़ लेगा। उस समय मैं तीन वर्ष का था। गाड़ी मैंने पहली बार देखी थी। उस समय मुझे पेट्रोल की गंध बहुत अच्छी लगी।

अपूर्व जोशी : अच्छा! तो आपने जो अभी मित्राों की बात की वह सुल्तानपुर के नहीं, कुल्टी के थे।
संजीव : हाँ! सुल्तानपुर के मित्रा अलग हैं। वे राम शिरोमणि पांडे, लालू सिंह थे जो गाय चराते थे। और भी बहुत से मित्रा थे सुल्तानपुर में। लेखन में तो अवदान कुल्टी के मित्राों का रहा जो पढ़ते-लिखते थे। मैं उन्हीं से सब शेयर करता था।

अपूर्व जोशी : जब आपातकाल लगा तब आप २८ वर्ष के रहे होंगे। क्या अनुभव रहे उस दौर के?

संजीव : उस समय मैं 'सारिका' पढ़ता था। 'सारिका' के पन्ने काले होते थे। ये 'एंटी गवर्नमेंट' प्रोटेस्ट करने का तरीका था। एक अजीब-सा आतंक भरा रहता था।

अपूर्व जोशी : उस दौर में सारिका का संपादन कौन कर रहे थे?

संजीव : कमलेश्वर। कमलेश्वर हमारे कथा-गुरु भी थे। 'समांतर लेखक संद्घ' चल रहा था। 'आँधी' में उन्होंने कुछ अप्रिय लिख दिया था तो मैडम ;इंदिरा गाँधीद्ध नाराज हो गयी थीं। इसके लिए उन्होंने बाद में क्षमा भी माँगी।

अपूर्व जोशी : 'आँधी' के लिए कमलेश्वर जी ने बाद में क्षमा माँगी?

संजीव : हाँ, पिफर बाद में सुना, कमलेश्वर जी ने इंदिरा गाँधी पर केंद्रित पिफल्म भी लिखी। इस तरह फ्रलक्चुएटिंग नेचर था उनका।

प्रेम भारद्वाज : आपका इस दौर का क्या अनुभव रहा?

संजीव : कोई भी नहीं। मैं तो उस समय शुरू कर रहा था।

प्रेम भारद्वाज : कुछ कहानी या उपन्यास छप गया था आपका?

संजीव : कहानी '३० साल का सपफरनामा' छपी थी। लेकिन कोई खास रिएक्शन नहीं हुआ था। रिएक्शन तो तब हुआ जब 'अपराध' छपी और पुलिस मेरे पीछे पड़ गयी थी। तब मित्राों ने जान बचाई। उन्होंने बताया कि मेरा नाम राम संजीवन प्रसाद है, संजीव नहीं है। संजीव नाम का हमारे ऑपिफस में कोई नहीं था इसलिए मैं पुलिस के पफंदे से बच गया।

प्रेम भारद्वाज : राम संजीवन प्रसाद से 'संजीव' नाम आपका रखा हुआ है या किसी और ने रखा?

संजीव : कमलेश्वर जी ने। उन्होंने कहा कि संजीवन क्या करोगे, संजीव ही रहने दो।

अपूर्व जोशी : हिन्दी के कई दिग्गज लेखक/संपादकों ने इंदिरा जी की निरंकुश सत्ता के समक्ष द्घुटने टेक दिए थे। धर्मवीर भारती, रद्घुवीर सहाय आदि सभी ने सेंसरशिप का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष समर्थन किया।

संजीव : वह दमन का दौर था जिसमें जान बचाने एवं नौकरी बचाने के लिए बहुतों ने मापफी मांगी। मैं यह समझता हूँ कि यह लेखक की भीरुता भी है, क्योंकि लेखक बहुत बोल्ड नहीं हो सकता। जो बहुत बोल्ड होते हैं वह क्रांतिकारी होते हैं और ऐसे लोग जलकर खत्म हो जाते हैं। लेखक, कलाकार, वैज्ञानिक नाम के जीव अक्सर, अगर कुछ अपवाद छोड़ दिए जाएँ तो मापफी मांग लेते हैं। जैसे-गैलिलियो ने चर्च के दबाव के आगे मापफी मांगी थी और अंत में वह द्घुट-द्घुटकर मरा था। गणितज्ञ आर्यभट्ट ने जब कहा कि पृथ्वी द्घूमती है तब उस समय जो राजा लोग थे उनके दबाव में ब्रह्मगुप्त ने कहा, नहीं ये गलत है। एक साइंटिस्ट को दूसरे साइंटिस्ट ने काटा। हमारे यहाँ उस समय तो साइंस चल रही थी बाद में तो चली ही नहीं। एक श्लोक है इस पर, मुझे अभी याद नहीं आ रहा, उसका अर्थ है कि 'अगर ऐसा होता तो उड़ती हुयी चील अपना द्घोंसला भूल जाती।' तो इस तरह आर्यभट्ट को चुप हो जाना पड़ा। इसी तरह लेखक को भी कभी-कभी चुप हो जाना पड़ता है।

अपूर्व जोशी : पर लेखक तो हमेशा लेखन के जरिए क्रांति की बात करता है?

संजीव : इसीलिए कहता हूँ लेखक को अपनी सीमा पता होनी चाहिए।

अपूर्व जोशी : विरोधाभास रहा है?

संजीव : अब जैसे लिखा जाता है कि 'जिस गेहूँ के दाने से इंसान का पेट न भरे उस गोहूँ या खेत को जला दो।' लेकिन क्या हम ऐसा वास्तव में कर सकते हैं? तो ये कुछ बातें हैं साहित्य की जो लक्षणा-व्यंजना में कही जाती हैं जो नया-नया आयाम रचती हैं। लेखक क्रांतिकारी बनता है कि नहीं, यह अलग बात है। हमने स्टीपफेन स्वाइग, रिल्के, रोम्या रोलां को पढ़ा था। हिटलर के जमाने के जो लेखक थे वे क्रांति की बातें लिखते थे, जब दमन का दौर आया तब सभी निर्वासन में चले गए या चुप करा दिए गए।

अपूर्व जोशी : तो आप क्या कहना चाह रहे हैं कि अगर अपवाद छोड़ दें तो लेखक क्रांतिकारी नहीं हो सकता?
प्रेम भारद्वाज : क्या भीरू होता है?

संजीव : ज्यादातर परिस्थितियों में लेखक कायर होता है।

अपूर्व जोशी : यह देखा गया है कि जहाँ भी दमन हुआ है वहाँ सबसे पहले बु(जिीवियों ने ही द्घुटने टेक दिए हैं।

संजीव : यह अलग बात है पर ऐसा नहीं है कि सारे के सारे ऐसे थे। लेकिन वे लिखना बंद कर देते हैं, क्षमा मांग लेते हैं। जहर खा लेते हैं या समझौता करके सत्ता-सुख भी स्वीकार लेते हैं।

प्रेम भारद्वाज : कई वरिष्ठ आलोचक मानते हैं कि आप ब्यौरों में, माहौल की डिटेल में बहुत गहरे चले जाते हैं जिससे रचना का प्रवाह प्रभावित होता है। हम आपकी रचना-प्रक्रिया के बारे में जानना चाहते हैं।

संजीव : रचना-प्रक्रिया को समझा पाना बहुत मुश्किल है। जैसे गर्भ में पल रहे बच्चे के बारे में एक माँ को कुछ चीजें पता होती हैं और कुछ नहीं भी पता होती हैं। बहुत सी द्घटनाएँ हमारे अवचेतन में रह जाती हैं। तो जब हम पिफल्म देखते हैं, बातचीत कर रहे होते हैं, पढ़ते हैं तब ये द्घटनाएँ हमें पुनः दिखाई देती हैं। तब इनका पुनर्जन्म होता है। इस पुनर्जन्म के बाद लेखक को लगता है कि यह मूल्यवान चीज है इसको शेयर करना चाहिए। कोई जरूरी नहीं है कि उसका कथानक, संवाद अदायगी, चरित्रा ये जो विभिन्न द्घटक हैं उसकी रचना के एक ही तरह से आये हैं। उनमें से कौन सी चीज ने कब अपील किया, कब उसका पुनर्जन्म हुआ, यह कहना मुश्किल होता है। उसके बाद उसकी शोधपरकता अलग-अलग होती है कि कौन कितना शोध कर सकता है।

कितना श्रम कर सकता है। आप में जिज्ञासा कितनी है। मैं चूंकि विज्ञान का विद्यार्थी हूँ इसलिए मैंने सीखा कि किसी चीज को अगर जानना है तो उसके अंतिम सिरे तक पहुँचो। शोध का अतिरेक और सच को जानने की इच्छा मुझे विज्ञान से मिली। जब किसी चीज को लिखो तब उसके विषय में जितनी दूर तक संभव हो जान लो ताकि लिखते समय लेखकीय आत्मविश्वास में कोई दिक्कत न हो। राजेन्द्र यादव ने पूछा था कि तुम्हें क्या-क्या अच्छा लगता है? उसमें मैंने जो-जो बातें बताईं उसमें 'सर्कस' भी था 'कोयला खान' भी। मैं हमेशा चीजों को थॉरली जानने की प्रक्रिया में रहा।

प्रेम भारद्वाज : 'सर्कस' लिखने का पहला खयाल कब आया?

संजीव : मैं अभी बताता हूँ। इसके बाद होता ये है कि सारी चीजें कला के पफार्म में आ जाती हैं। अगर नहीं आ पाती हैं तो खत्म हो जाती हैं। मन जो है सारी चीजों को धीरे-धीरे कला के पफार्म में मोड़ता रहता है, और कला के पफार्म में नयी शक्ल अख्तियार कर लेती हैं वो चीजें। मेरे जैसा आदमी जो दिन-रात कहानी लिखता है, बुनता है, कहानी का कीड़ा है उसको ज्यादा परेशानी नहीं होती है। मुझे कुछ भी दे दीजिए मैं उसे कहानी के पफार्म में ढाल दूँगा। अब अगर 'सर्कस' की रचना-प्रक्रिया के बारे में कहूँ तो सर्कस मुझे शुरू से अपील करता था। उसके अंदर की विचित्राता भरी रंगीन दुनिया का खुल जाना, जहाँ बाहर की दुनिया खबीस-सी लगती है। यहाँ पर नाचते, दौड़ते-भागते लोग, बौने आदि सब कुछ अच्छा लगता।

प्रेम भारद्वाज : चमक के पीछे के अंध्ेरे को पकड़ने की कोशिश की है।

अपूर्व जोशी : पहली बार देखा होगा तो लगा होगा कितनी रंगीन दुनिया है।

संजीव : ग्लैमर है यहां। लेकिन मेरी खोज करने की प्रवृत्ति के कारण मैं रात का देखा गया सर्कस दिन में देखा करता था तो मुझे नीरस, बेरंग लगता था। तब मैंने सोचा कि मैं सर्कस पर लिखूँगा। उसी समय इत्तेपफाक हुआ। मेरे द्घर के सामने ५-६ एकड़ जमीन का एक टुकड़ा था कुल्टी में। एक बार रात के वक्त एक परिवार आया बोला-हमें ठहरने दीजिए, पैसे कितने लेंगे। हमने कहा कि पैसे की क्या बात है बारिश हो रही है, ठहर जाइए। वे रुक गये। सुबह उन्होंने आग्रह किया कि हम यहीं रुकना चाहते हैं पैसे ले लीजिए। हमने मना कर दिया। वे सर्कस वाले थे। इस तरह मैं उनके संपर्क में आया। वे तो चले गये। पर मुझे बाद में समझ में आया कि जिस चीज को मैं ढूढ़ रहा था वह तो मेरे सामने थी। पिफर मैंने उन लोगों से संपर्क किया।

अपूर्व जोशी : इसीलिए 'सर्कस' में बहुत विस्तार है।

संजीव : यह विस्तार शोध के चलते हुआ। शोध के चलते ही मैंने काम चलाऊ रशियन भाषा भी सीखी, कुछ पत्रिाकाओं से और कुछ इधर-उधर से भी सामग्री जुटाई।

प्रेम भारद्वाज : 'मेरा नाम जोकर' के राजकपूर की तरह।

संजीव : सर्कस के आर्टिस्टों से मिला। उसकी हिस्ट्री जानी। सर्कस पर बनी पिफल्में भी देखीं। इस तरह बहुत-सा काम किया।

प्रेम भारद्वाज : सर्कस पर कौन सी पिफल्में देखीं?

संजीव : कुछ रशियन पिफल्में थीं। 'मेरा नाम जोकर' नहीं देखी। इसे देखने से कोई पफायदा नहीं था। बहुत कुछ पढ़ा भी। जानकारियों के लिए मैं विभिन्न आर्टिस्टों से मिलता रहा। एक ही तरह के आर्टिस्ट से मिलकर जाना कि वह क्या करते हैं। तो इस तरह दूसरे क्या पफील करते हैं मैं वेरीपफाइ करता था। सर्कस में जो रात की अप्सरा थी सुबह वह अप्सरा नहीं दिखती थी।

अपूर्व जोशी : मेकअप का असर होता है।

संजीव : बौने अजीब से लगते थे। एक दम उदास। अजीब सी दुनिया थी सर्कस की। एक रंजक दुनिया के पीछे का अंधेरा मेरे सामने आया। मैं इसे धीरे-धीरे लिखता गया। एक सज्जन थे कलकत्ता के बंदोपाध्याय। उन्होंने मुझे कुछ ऐसी सत्य बातें बताईं कि मैं दंग रह गया। कमला सर्कस इज द रियल्टी ऑपफ द सर्कस।

प्रेम भारद्वाज : वह तो डूब गया था?

संजीव : नहीं। कमला ने अपने को और अधिक बढ़ाने के लिए थ्री रिंग सर्कस किया और इसमें उसने व्यवहारिक पक्ष को नहीं देखा। एक ही आदमी तीन रिंगों को देख रहा है तो इस तरह से यह कोलैप्स कर गया। बाद में अपनी इज्जत बचाने के लिए उसे यह अपफवाह उड़ानी पड़ी कि वह डूब गया। 'सर्कस' में एक औरत का जिक्र है जो अपने सीने से हाथी को पार करा देती थी। जब उसने अपनी शादी करने की इच्छा जताई तो इस स्थिति में सर्कस वाले क्या करते? उन्होंने उसके मरने की खबर पफैला दी। तो ऐसी बहुत सी सच्ची द्घटनाएँ, उसमें मैंने दी हैं।

प्रेम भारद्वाज : ये तो उपन्यास की बात हुई। आपकी दो-तीन कहानियों के बारे में जिज्ञासा है जैसे एक कहानी 'आरोहण' है जो एक पहाड़ी कहानी है। नामवर जी भी तारीपफ करते हुए कह रहे थे कि यह किसी पहाड़ी लेखक के द्वारा लिखी जानी चाहिए थी जो नहीं लिखी गयी। 'आरोहण' जबर्दस्त कहानी है। आपकी दूसरी कहानियों 'मानपत्रा' और 'सागर सीमान्त' का प्लॉट आप के दिमाग में आया कहाँ से?

संजीव : रूस का जो समाजवाद था, जिसे हम मॉडल मानते थे, उसके अंतर्विरोध बाद में जाहिर होने लगे थे। लेकिन वह जब टूट गया तो बहुत बुरा लगा। हम सब एक वैक्यूम की स्थिति में आ गये।

अपूर्व जोशी : कि अब क्या हो?

संजीव : नामवर सिंह ने एक बहुत बढ़िया बात कही थी कि जानते हो इस दुनिया में सबसे बड़ा दुख वह है जब कोई किसी को नहीं समझ पाता। रूपसिंह के मामले में भी यही था। कोई उसे समझ नहीं पा रहा था। भूपसिंह में बुलंदी और खुद्दारी थी। उसकी पत्नी जो कूद कर मर गई वह भी खुद्दार थी। पहली पत्नी से जो बेटा था वह भी खुद्दार था। वह चाचा को लेकर आया और अपने पिता से मिला तक नहीं। पिता चुपचाप देखता रहा। तो ये सब चीजें धीरे-धीरे धुलती और बुनी जाती रहीं। ये जटिल बुनावट की बात है। धीरे-धीरे जर्जर होता मन अपने को पिफर से संजोता है। तब 'आरोहण' कहानी आयी। कुछ कहानियों के साथ दिक्कत क्या होती है कि टेक्निकल नॉलेज होना बहुत जरूरी है। 'सर्कस' के लिए भी बहुत जरूरी था। 'आरोहण' के लिए, चढ़ने के लिए माउन्टेनियरिंग की नॉलेज बहुत जरूरी है। मेरी जितनी भी कहानियाँ हैं उनमें टेक्निकल नॉलेज होना बहुत जरूरी था अन्यथा कहानी पफेल हो जाती।

प्रेम भारद्वाज : 'सागर सीमान्त' के लिए आप सुंदरवन तीन-चार बार गये थे।

संजीव : हाँ, गया था। वहाँ रहा भी था। सर्कस और 'आरोहण' के बारे में तो मैंने आपको बता दिया। 'आरोहण' के बारे में एक बात और बताना चाहूँगा। रास्ते में आते वक्त आपसे कहानी की चर्चा हुई। रास्ते में मैंने आप से 'हिमरेखा' की चर्चा की थी। मैं वहाँ गया था 'हिमरेखा' के चलते। मैं, शिवमूर्ति, चंद्र किशोर जायसवाल, विनोद कुमार शुक्ल चारों लोग गये थे। इसी क्रम में हमने कहानी को वैरीपफाई किया।

प्रेम भारद्वाज : कहाँ गये थे?

संजीव :जौनसार-बाबर, चकरौता।

अपूर्व जोशी : जनजातियों का इलाका है।

संजीव : बहुपतित्व की प्रथा है वहाँ पर।

अपूर्व जोशी : अभी भी है। वहाँ पत्नी ही मेन है। हमारे भट्ट जी थे। उन्होंने इस प्रथा के बारे में बताया था। वहाँ भट्ट अधिक पाए जाते हैं।

संजीव : हाँ! भट्ट जी। एक हमें भी मिले थे वह आक्सपफोर्ड युनिवर्सिटी में पढ़ाते भी थे। वहाँ पर हम पिटते-पिटते बचे थे। शिवमूर्ति तो सो रहे थे। हम और विनोद शुक्ल ने पूछा कि आपकी पत्नी जो हैं, आपकी भाभी भी हैं? इस पर बिगड़ गये वो। 'आरोहण' के संदर्भ में सोवियत संद्घ वाली द्घटना चल रही थी। उस समय एक खोखलापन था, एक अनिश्चय कि आदमी अब कहाँ जाए। जब चारों तरपफ विश्वास छिन्न-भिन्न हो रहा है, ऐसे में आदमी अपने विश्वास को कैसे सुरक्षित रखे। मैंने सोचा कि खुद्दारी एक अकेली चीज है जो आदमी को जिन्दा रख सकती है। अन्यथा जिन्दगी में इतने धक्के होते हैं कि जिन्दा रहना मुश्किल हो जाता है। तो 'आरोहण' मुख्य रूप से खुद्दारी की कहानी है जो कई स्तरों पर है।

प्रेम भारद्वाज : 'सागर सीमान्त' के बारे में बात करें?

संजीव : एक बार राजेन्द्र यादव ने पूछा था कि तुम्हें क्या-क्या चीजें अपील करती हैं। तो मैंने कहा कि समुद्र और समुद्र में भी वह जगह जहाँ नदी मिलती है समुद्र से। या जहाँ दो नदियाँ मिलती हैं। आपने देखा होगा कि वह दृश्य आम दृश्य से अलग होता है।

अपूर्व जोशी : इलाहाबाद के संगम में देखा था।

संजीव : वह एक बड़ा संगम माना जाता है। वैसे कई छोटे संगम हैं जैसे गंगा-गोमती, सरयू-गंगा का। सुंदरवन मेरी निगाह का एक केन्द्र बिन्दु था कि सुंदरवन है क्या? वह १९९३ या १९९४ का विश्वकप चल रहा था क्रिकेट का। संयोगवश मैं वहाँ गया था पर क्रिकेट में मेरी कोई रुचि नहीं थी। मुझे तो जाना सुंदरवन था। वहाँ एक महिला मित्रा से सुंदरवन का पता लेकर चुपचाप निकल गया। मुझे इतनी खुशी हुई कि मैंने जेब में देखा भी नहीं कि कितने पैसे हैं। लंबे-चौडे़ रास्तों को पार करता हुआ मैं जंगल में पहुँच गया और वहाँ जाकर पफंस गया। जंगल में बाद्घों के बीच। खैर, बच गया। नदी को सागर से मिलते हुए मैंने वहीं देखा। लौटते समय मेरे पास सिपर्फ तीस रुपये थे। नाव वालों को ५ रुपये देकर लौटा तो उसने ऐसी जगह उतार दिया जहाँ ज्वार आ रहा था, मैं डूबते-डूबते बचा। लेकिन वहाँ का सारा परिदृश्य मैं आत्मसात करता रहा।

प्रेम भारद्वाज : उस कहानी में आपने लिखा भी है कि कहानी कैसे आख्यान या गाथा बनती है। यह इस कहानी से समझा जा सकता है तो क्या वहाँ कोई कहानी कहीं चर्चा में थी?

संजीव : नहीं। यह कहानी चर्चा में नहीं थी। एक मेटापफर था। यह मेटापफर कैसे दिमाग में आया यह मैं नहीं कह सकता। मेरे एक बांग्ला कहानीकार मित्रा थे उनसे बातचीत के क्रम में यह मेटापफर डेवलप हुआ होगा वह अब नहीं हैं। वह मेटापफर क्या था बता दूँ पहले। वह 'सागर सीमान्त' के अंत में आता है। सुंदरवन में सागर और नदी का पथ है और टॉपोग्रापफी है। वहाँ क्या-क्या होता है उसमें सब लिखा है। इसके बाद मेटापफर आ गया और कहानी उसके अनुसार प्रोजेक्ट हुई। पिफर बांग्लादेश का कथानक था। एक नाविक भटककर बांग्लादेश जाता है और पत्नी इंतजार करती रहती है। ऐसी बहुत-सी कहानियाँ वहां प्रचलित हैं। कहानी में दूसरी पत्नी से उसके बेटा नहीं होता और पहली पत्नी से बेटा होता है। वह यह जानता नहीं है। मेरे एक मित्रा हैं उनका मैं नाम नहीं लूँगा उनकी भी यही कहानी थी। उनकी दूसरी पत्नी से लड़कियाँ थीं तो वह अपनी पहली पत्नी के बेटे को ले आते हैं। तो यह वाकय़ा कहानी के रूप में बदल कर वहाँ से जुड़ गया।

प्रेम भारद्वाज : 'आरोहण' की खुद्दारी यहाँ भी है। कथा नायिका नसीबन पति से बोलती है कि रात के अंधेरे में निकल जाओ।

संजीव : रात में इसलिए निकल जाओ क्योंकि मैं कह सकूं कि मेरे पति और पुत्रा दोनों डूबकर मर गये। मुझे यह न कहना पड़े कि वे भाग गये।

अपूर्व जोशी : यह खुद्दारी की बात है।

संजीव : जी, मेटापफर की बात मैं कह रहा था। बहुत दमदार है। उसमें कलात्मकता जो आई तो उसी के चलते। उसमें मेटापफर क्या है मैं बताता हूँ। कहानी के अंतिम हिस्से में प्रसंग है कि वे रात के अंधेरे में निकल गये। कुछ दूर चलने के बाद उन्होंने पीछे मुड़कर देखा कि वह खड़ी है या नहीं। इसके बाद वे दोनों नारियल के पेड़ में बदल गये। नारियल के के जल का स्वाद मीठा होता है, लेकिन उन नारियल के पेड़ों के जल का स्वाद खारा होता है। क्यों? क्योंकि उसमें जल नहीं आँसू थे। मानो वो जा रहे हैं पिफर उनके जाने की इच्छा नहीं है। उनके अंदर एक ग्लानि भाव है। और इध्र पास में एक पत्थर है जिसमें छोटे-छोटे छेद हैं। छेदों में हमेशा पानी भरा रहता है। वे दोनों पेड़ में बदल गये। और नसीबन पत्थर में। यह पानी कभी सूखता नहीं है। यही पानी हैे इसके चलते संवेदना का संगम होता है

प्रेम भारद्वाज : 'मानपत्रा' को कहा जाता है कि इसमें रविशंकर की छवि है?

संजीव : मुझे नहीं लगता है कि ऐसा है। प्रारंभ में लगता है कि कहानी किसी न किसी पर अवलम्बित है। जब आदमी कहानी लिखता है तो वह एक ही अादमी की कहानी नहीं लिखता है। कई चीजें उससे जुड़ जाती हैं। बंगाल में एक साथ चर्चाएँ होती हैं जिन्हें अड्डेबाजी कहते हैं। वह जो प्रसंग है तो वह पूरी कहानी यहीं से हमारे सामने आयी। मैं इस कहानी को वैरीपफाई करने के लिए मैहर गया। वहाँ शारदा देवी का मंदिर है। संगीत की राग-रागिनियों, धुनों की थोड़ी-सी जानकारी मैंने ली। उस कहानी को पूरा करने के लिए मैंने एक साल तक संगीत को जाना। उस कहानी में पोएटिक ब्यूटी' अद्भुत है। वह दूसरी कहानी में नहीं मिलेगी। मैंने सोचा कि इस कहानी का पफार्म क्या होना चाहिए? उस्ताद की बेटी जो नायक की पत्नी बनी। उन्होंने उसके कंधे पर रखकर बंदूक चलाई और सारे पाप किए। तब जाकर मुझे लगा कि मानपत्रा की शैली सबसे अच्छी होगी। प्रेम पत्रा से मानपत्रा तक मैं सब कुछ लिखने वाला था।

प्रेम भारद्वाज : दूसरे के प्रेम पत्रा!

संजीव : हाँ! दूसरे के प्रेमपत्रा। मुझे लगा कि मानपत्रा की शैली सबसे अच्छी होगी। तब मैंने उसे इस शैली मेें पिरोया। इसमेें ड्रामा भी है। मेरे मित्रा गौतम सान्याल का अवदान इसमें है। उनकी पत्नी का भी है। एक तरह से कहिए तो छोटे शहरों का जो सुख होता है उसने मुझसे इस कहानी को लिखवाया।

प्रेम भारद्वाज : आप कहानी लिखने में कापफी रिसर्च करते हैं, साल-साल भर शोध करते हैं। शीर्ष आलोचकों और आपके दौर के रचनाकारों का कहना है कि इससे रचनाकार की रचनात्मक उड़ान कहीं न कहीं बाधित होती है?

संजीव : पंख देती है यह नहीं कहा? नहीं, पंख देती है। आपको कहाँ तक उड़ान भरनी है, कहाँ जाना है, यह सब पंख का मामला है। आप हवा में ऐसे तो उड़ नहीं सकते, आपको कुछ तो चाहिए न। किसी चीज को जानो तो उसे पूरी तरह जानो। कहानी को मुकम्मल बनाने के लिए मुकम्मल बनो। जितनी दूर संभव हो उतना तो जानो।

प्रेम भारद्वाज : उनका कहना है कि इस तरह रिपोर्ट बन जाती है।

संजीव : मेरी कहानी रिपोर्ट है या कहानी, वह आपके सामने है। पश्चिम में आपको यदि एयरपोर्ट पर लिखना है तो वह कहानी भी है और जानकारी भी है। हमारे यहाँ यह ट्रेंड नहीं है। हमारे यहाँ एयर-कंडीशन कमरे में बैठ गये और लिख दी कहानी। मान लीजिए नहीं गये या कल्पनाशीलता है, उसी से काम चला लेते हैं। निर्मल वर्मा ने हमारी पूरी पीढ़ी को प्रभावित किया है। हमारी कहानीकार पीढ़ी को भाषा का संस्कार दिया है। लेकिन उन्होंने एक संस्कार शैली का भी दिया है, जिसे हम निर्मलीय शैली कहते हैं।

प्रेम भारद्वाज : आपकी शैली में पता नहीं अनायास है या सयास है। या कुछ बिंब जंगल, बाद्घ, समुंदर ये अक्सर आते हैं। जैसे 'बाद्घ' नाम से आपकी कहानी भी है। और बाद्घ कई कहानियों में भी आता है।

संजीव : देखिए, जबरदस्ती तो कोई चीज कहीं नहीं आती है, जैसे 'प्रेतमुक्ति' में बाद्घ है। यहाँ बाद्घ का शौर्य भाव है वह क्षय हो रहा है। कहानी में पर्यावरण को बचाने के एक उपक्रम के रूप में बाद्घ है। बाद्घ पर पूरी कहानी है जो सुंदरवन पर है। सागर सीमांत तो आपने देखी, वह नहीं देखी है।

प्रेम भारद्वाज : बाद्घ पढ़ी है मैंने। बाद्घ व्यक्ति है बिंब भी। कहा जाता है कि बाद्घ में आप भी बहुत कुछ हैं।

संजीव : ऐसे तो हर कहानी में आदमी कुछ न कुछ होता है।

अपूर्व जोशी : इसमें बात तो है कि हर कहानी में आदमी खुद कहीं न कहीं होता है।

प्रेम भारद्वाज : आप स्त्राी-विमर्श के बहुत पक्षधर नहीं हैं। लेकिन आपकी कुछ विशिष्ट कहानियाँ जैसे-'सागर सीमांत', 'मानपत्रा' स्त्राी-विमर्श के आसपास रहती हैं।

संजीव : यह लोग कहते हैं मैंने तो ऐसा नहीं कहा कि मैं स्त्राी-विमर्श विरोध्ी हूँ।

प्रेम भारद्वाज : 'सागर सीमांत' में भी महिला है 'मानपत्रा' में भी। पर आप बहुत पक्षधर नहीं लगते हैं स्त्रिायों के।

संजीव : मैं क्यूँ बहुत पक्षधर बनूँ। स्त्राी-पुरुष तो समाज की दो इकाई हैं। दोनों मिलकर संपूर्ण बनते हैं। खामखाह दिखाने के लिए यह बनूँ यह संभव नहीं है। मैंने स्त्रिायों को भी स्त्रिायों का दमन करते हुए देखा है, हालाँकि वे संचालित पुरुषों से होती हैं। खाली स्त्राी को मुक्त कर दो तो बात नहीं बनेगी। स्त्राी-पुरुष दोनों को एक साथ चलना होगा।

प्रेम भारद्वाज : आपकी जो श्रेष्ठ कहानियाँ हैं उनमें कहीं न कहीं स्त्राी-विमर्श है। तो विरोधाभास क्यों?

संजीव : यह विरोधाभास तो आप लोगों का बनाया हुआ है मैंने कभी नहीं कहा।

प्रेम भारद्वाज : 'मानपत्रा' में स्त्राी-विमर्श अपने स्वच्छ और स्वस्थ रूप में है। आपकी अधिकांश कहानियों में स्त्राी-विमर्श तो है।

संजीव : मेरी और भी कहानियाँ हैं जैसे 'आरोहण', 'बाद्घ', 'प्रेतमुक्ति'। इनमें नहीं है। हाँ, कुछ कहानियों में है। 'माँ' में है।

अपूर्व जोशी : संजीव जी! आपके पात्राों में ज्यादातर ऐसे चरित्रा हैं जो जीवन के प्रति आशंकित/आतंकित रहते हैं। ग़म को ताे स्वीकार करते हैं, पर खुशी से दूर हैं। कह सकते हैं उत्सवर्ध्मिता का अभाव है, ऐसा क्यों?

संजीव : यह सही है कि ग़म मेरे जीवन का एक पक्ष है जिसकी छाया बहुत दूर तक पफैली है। जिंदगी में जो मिला है वह अनायास ही प्रकट हो गया है। अगर हम उपन्यास लिख रहे हैं और उत्सवधर्मिता का प्रसंग आता है तो हमें लिखना पड़ता है। लेकिन ऐसे जबरन हम किसी को उत्सवर्ध्मी नहीं बना सकते।

प्रेम भारद्वाज : जबरन आप ऐसी बातें उठाते ही नहीं हैं। ऐसे प्रसंग आते ही नहीं हैं।

अपूर्व जोशी : ग़म आपके पात्रा हैं। आप ग़म को दिखा रहे हैं। खुशी से थोड़ी दूरी बना ली है।

संजीव : मैं आपकी बात को पूरी तरह से नकार नहीं रहा हूँं। गौतम बु( जो एक महान विचारक थे उनका भी मानना था कि जीवन दुखमय है और इस दुख से निवृत्ति का रास्ता क्या है?

प्रेम भारद्वाज : तो अज्ञेय के शब्दों में इस दुख ने आपको कितना मांझा है?

संजीव : मांजा नहीं बल्कि तोड़ भी डाला है। मैं अपनी बहादुरी का बखान नहीं करता, मांजते-मांजते चमड़ी छिल गई है। खून निकल आया है।

अपूर्व जोशी : क्या आपके भीतर का कथाकार कहीं हारा हुआ सा, चुका हुआ सा महसूसने लगा है। आपने स्वयं कहा कि इतना सारा कुछ लिखा गया, मगर बरसात के नम बम सा क्या कर पाया?

संजीव : वह इसलिए कि जिन सपनों को लेकर हमने अपनी यात्रााएँ शुरू की थीं वो १९७० का वक्त था। १९७० से १९८० या कहें १९८५ तक। तब हमें लगता था कि हम दुनिया बदल डालेंगे। कुछ लोगों ने इसकी शुरूआत भी कर दी थी। जय प्रकाश का 'जात तोड़ो' मूवमेंट था। ऐसे लोग नेशनल मूवमेंट से लड़कर आये थे उनका व्यक्तिगत स्वार्थ कुछ नहीं था। मैंने उनके अंदर बहुत त्याग देखा। सूर्यनारायण शर्मा एक धोती पहनते थे जो बाद में मारे गये। वैसे भी उन दिनों बंगाल में कोई ग्लैमर की तरपफ जल्दी नहीं भागता था। तो मैं उस तरह से तो हारा हुआ नहीं हूँ। बस एक बहुत उच्छावास या आवेग की दुनिया खत्म हो गई। ये है कि उतनी आशा अब नहीं रही। सिपर्फ लिखने से कुछ नहीं होता।

अपूर्व जोशी : नामवर जी और राजेन्द्र जी ने एक बातचीत के दौरान कहा था कि सपने अब खत्म हो गये हैं। आप सहमत हैं इस बात से?

संजीव : नहीं। एक उम्र का प्रभाव भी है। एक उम्र में खून का प्रभाव प्रबल होता है। उस उम्र में हारना नहीं चाहते हैं। हार को भी आप जीत में बदलना चाहते हैं। सपने अभी हैं। पर अपने जमाने में जो बहुत उत्साह था वह अब नहीं है।

अपूर्व जोशी : कहने का मतलब कि सपने अब यथार्थ के करीब हो गये हैं। दुनिया को बदल देंगे समाज में क्रांति लाएँगे ऐसे सपने अब नहीं रहे।

संजीव : सोवियत संद्घ का टूटना, मार्क्सवादी पार्टियों का भटकना, वामपंथी शक्तियों का बिखराव-टूटना और बिक जाना, यह सब कुछ अवसाद तो पैदा करता है। पर आदमी सपने देखना बंद नहीं करता है। हाँ! वह उतने चटकीले सपने नहीं होते। एक गीत है 'कभी न कभी कोई न कोई तो आएगा।' एक गीत 'हीरा-मोती' पिफल्म का है जो मुझे बहुत पसंद है- 'कभी न कभी दिन आएँगें हमारे।'

अपूर्व जोशी : अभी तक के लेखन में सबसे संतुष्ट करने वाला कोई अनुभव?

संजीव : पूरी तरह से आदमी कभी संतुष्ट नहीं होता। लेकिन जितना भी है उसमें 'पाँव तले की दूब' उपन्यास है जो गोरख नाथ को समर्पित है।

प्रेम भारद्वाज : 'हंस' में छपा था।

संजीव : हाँ। 'हंस' में छपा था। कुछ कहानियाँ हैं, जैसे 'जंगल जहाँ शुरू होता है', 'सावधान! नीचे आग है', कुछ और उपन्यास हैं। कुछ कहानियाँ हैं जिनकी आप ने अभी चर्चा की। तो एक तरह से मैं संतुष्ट तो हूँ पर पूरी तरह से नहीं। अगर मुझे लिखना पड़ा तो मैं पिफर से लिखूँगा। जैसे सती नाथ भादुड़ी ने कहा था कि यदि मुझे ढोंड़ाय चरित मानस को लिखना पड़ा तो मैं बार-बार उसे ही लिखूँगा। तो मैं ऐसा सोचता हूँ कि मुझे कुछ चीजों को पिफर से लिखना पड़ेगा। कुछ कहानियाँ हैं ऐसी जिन्हें मैं दुबारा लिखना चाहता हूँ।

प्रेम भारद्वाज : कुछ कहानियाँ अप्रासंगिक भी हो गयी हैं। अगर आप नये सिरे से लिखने की बात कह रहे हैं तो।

संजीव : सभी कहानियाँ नहीं। कुछ हैं जिन्हें मैं जिस ढंग से चाहता था नहीं लिख पाया।

प्रेम भारद्वाज : वह कौन सी कहानियाँ हैं?

संजीव : जैसे 'दस्तूर' कहानी जो 'वागर्थ' में छपी थी। मुझे कालिया जी के कम्पल्सन के चलते जल्दी-जल्दी लिखनी पड़ी। ऐसी एक दो और भी हैं।

अपूर्व जोशी : निर्मल वर्मा कहते थे कई बार कहानी पन्नों में तो पूरी हो जाती है पर मन में अधूरी रह जाती है। ऐसा अनुभव आपको भी हुआ।

संजीव : बहुत सारी ऐसी कहानियाँ हैं जो औपन्यासिक विस्तार लिए हुए हैं लेकिन उन्हें जल्दी-जल्दी समेटा गया। 'माँ' जो कहानी है उसमें अकेले-अकेले बैठकर रोता हूँ।

प्रेम भारद्वाज : 'माँ' कहानी में आपकी माँ ही है।

संजीव : हाँ, हमारी माँ है। इसमें भी टेक्निकल बातें एक मजबूरी हैं। बीमारी को लेकर। इत्तेपफ़ाकऩ मैं एक हॉस्पिटल का कुछ काम देख रहा था। मुझे हर जगह जाने की छूट थी। तो वो जो वाकय़ा था मेरे सामने का था। उसमें जो द्घटनाएँ हैं सब मिलाजुला कर हैं। एक जगह से चीज नहीं बनती, कुछ यहाँ से लिया, कुछ वहाँ से। पता नहीं कौन सी चीज कहाँ से मिल जाए।

अपूर्व जोशी : साहित्य-सृजन में वैचारिक आग्रह का कितना महत्व है?

प्रेम भारद्वाज : इसे मैं थोड़ा और आगे बढ़ाना चाहूँगा। नेरुदा और इलियट का कुछ मामला चला था। नेरुदा ने कहा था कि यदि लकड़बग्द्घा कविता लिख पाए तो वह इलियट जैसा लिखेगा। इलियट ने जवाब दिया नेरुदा कविता लिखकर लाखों लोगों को आंदोलित तो करेंगे पर उनकी विचारधारा क्षीण हो जाएगी। कविता याद रहेगी नेरुदा की।

अपूर्व जोशी : तो यह मामला क्या है विचार बनाम वैचारिकता का।

संजीव : बंगाल के एक कवि हैं नजरूल। उनकी आग उगलती कविताएँ हैं। लेकिन उनकी कविता में आग किस पर उगली जा रही है ये कभी-कभी स्पष्ट नहीं होता। पता तो होना चाहिए कि हम किन चीजों के पक्ष में हैं और क्यों हैं। मगर विचारधारा हावी नहीं होनी चाहिए। वहाँ कला का स्वतंत्रा विकास नहीं हो पाता है। इसलिए उसे नेपथ्य संगीत की तरह, खुशबू की तरह, हवा की तरह रहना चाहिए। उसे हावी नहीं होना चाहिए। ऐसा न लगे कि आपको जबरन मोड़ रहे हैं।

प्रेम भारद्वाज : लेखक संगठन की रचनाकार को बनाने और बिगाड़ने में क्या भूमिका रही? आप भी बहुत दिनों तक जुड़े रहे हैं लेखक संगठन से। कुछ रिक्तता भी रही आपके भीतर। तो आज के दौर में लेखक संगठनों की क्या भूमिका बची है चाहे वे जलेस हो, प्रलेस हो या और कोई।

संजीव : पिछले सवाल का अभी एक सिरा रह गया उसे मैं पूरा करता हूँ। मैंने एक लंबी कहानी लिखी 'पूत पूत! पूत पूत!' मैंने नक्सलबाड़ी पर पाँच कहानियाँ लिखी हैं। तो इसमें 'पूत पूत! पूत पूत!' कहानी से मेरे सारे साथी जो 'जन संस्कृति' के थे नाराज हो गये, बोले कि ये क्या कहानी है। अगर कोई चाहता है कि कहानी विचारधारा के अनुरूप हो तो इससे लेखन और लेखक का स्वाभाविक विकास नहीं हो पाएगा। इससे कई बार बड़े-बड़े लेखकों ने आत्महत्या करने की कोशिश की है। पार्टी एक कम्पोजिट रूप में होती है उसमें तरह-तरह के लोग होते हैं और वे यह चाहते हैं कि हम सीधे-सीधे चलें, न इधर, न उधर। जैसे द्घोड़े को चमड़े का पट्टा पहना दिया जाता है। इस तरह तो लेखन का गला द्घोट देंगे।

प्रेम भारद्वाज : लेखक संगठनों की भूमिका क्या है?

संजीव : ये लेखक को एक हद तक अनुशासित करते हैं। कुछ बड़ी लड़ाइयाँ लड़ी जाती हैं जो समाज से जुड़ी होती हैं। लेखक अपने आप में निरपेक्ष तो होते नहीं वो समाज की समस्याओं को लेकर चलते हैं। तो उसमें लेखक संगठन के माध्यम से उस समस्या के समाधान के रूप में आगे बढ़ते हैं। लेकिन कई बार होता है कि लेखक संगठन छोटे-छोटे ईगो को लेकर लड़ते हैं और उनकी अपनी कोई भूमिका नहीं रहती है। हमारे यहाँ बहुत सारे ऐसे लोग हैं जैसे तीनों संगठनों में देखिए जलेस, प्रलेस, जसम। प्रेमचन्द की एक कहानी ले लीजिए 'कपफन' और पूछिए कि यह जलेस की है, प्रलेस की है या जसम की है तो कोई बता नहीं पाएगा। यदि विचारधारा हावी हो जाए तो कोई कहेगा ऐसो लिखो, कोई कहेगा वैसे लिखो।

प्रेम भारद्वाज : आपने क्यों छोड़ दिया जसम?

संजीव : मेरी कुछ ऑपिफस की समस्यायें आ गई थीं। मुझे छुट्टी नहीं मिल पा रही थी। खामखाह की बातें मेरे बारे में कही जा रही थीं। मेरे सामने कुछ निर्णय लिया जा रहा था और बाद में मेरी अनुपस्थिति में निर्णय बदल दिये जा रहे थे। तो मुझे लगा कि यह दिखावा है। ऐसे में उसकी कोई भूमिका रह नहीं गई है। मुझे लगता है कि इन तीनों लेखक संगठनों को एक साथ मिलकर कुछ करना होगा तभी कुछ प्रभावी होंगे।

प्रेम भारद्वाज : आपने कहीं कहा भी था कि इन तीनों लेखक संगठनों को एक साथ मिल जाना चाहिए।

संजीव : हाँ! कहा था। और इन्हें अपना लद्धड़पना जो है उसे छोड़ देना चाहिए। रचनात्मक कार्य करने चाहिए। लेकिन ये लोग क्या करते हैं?

अपूर्व जोशी : कभी-कभी टाँग खींचते हैं।

संजीव : हाँ! कभी तस्लीमा के मामले में मोमबत्ती जला दी। बस हो गया। इस पर मेरी एक कहानी भी आयी थी 'अवसाद'। कुछ देर इंकलाब! जिंदाबाद! किया, एक-एक कप चाय पी, बीड़ी पीये और द्घर आ गये।

अपूर्व जोशी : आप रचनाकार भी हैं, संपादक भी हैं। दोनों रूपों में आप आज के समीक्षक को, उनके मापदण्डों को कैसे देखते हैं?

प्रेम भारद्वाज : इस प्रश्न में मैं एक वाक्य जोड़ना चाहूँगा। चेखव ने कहा था कि जुते हुए द्घोड़े के पुट्ठों के द्घाव पर बार-बार बैठने वाली अौर पीड़ा पहुँचाने वाली मक्खी का नाम 'आलोचक' है। तो आप अपने आपको चेखव का द्घोड़ा पाते हैं? यह आलोचना क्या है?

संजीव : यह हिन्दी कथा-साहित्य का दुर्भाग्य है कि उसके पास आलोचक नहीं हैं। कुछ समीक्षक हैं, कुछ कविताओं के विद्वान हैं। दो अंगुल की कविता है और दस हाथ की समीक्षा। कविता की आलोचना में अपनी बात कहने के स्कोप ज्यादा होते हैं। कहानी में उतने नहीं। पहली बात तो कहानी धैर्य बहुत मांगती है, पढ़ने के लिए भी और रचने के लिए भी। मैं समझता हूँ कि कथा आलोचना की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है और बनेगी भी नहीं।

अपूर्व जोशी : अज्ञेय जी ने कहा था कि आलोचना है, आलोचक हैं, पर आलोक की कमी है।

संजीव : सही है। आलोचक नहीं हैं। आलोचकों का अभाव कहीं न कहीं तो पता लगता है। आलोचकों को जितनी मेहनत करनी चाहिए उतनी नहीं करते हैं। आलोचना बस अकेडमिक तक सीमित हो गयी है।

अपूर्व जोशी : आलोचना पुस्तकों की समीक्षाओं तक सीमित हो गयी है।

प्रेम भारद्वाज : मास्टरी हो गई है एक तरह से आलोचना।

संजीव : हमारे यहाँ जितनी भी समीक्षाएँ आती हैं वह मेहनत से लिखी हुई बहुत कम होती हैं। कहानी में जो समीक्षाएँ आई हैं मुझे नहीं लगता किसी पर बहुत मेहनत की गई है। बल्कि पहले राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर के जमाने में कापफी काम हुआ था। उसकी तुलना में अभी तक तो काम नहीं हुआ। अब जैसे रविभूषण जी हैं उनसे बोलने को कह दीजिए तो चार द्घंटे बोलेंगे, लिखने को कह दें तो एक अक्षर नहीं लिखेंगे। अभी तक उनकी एक भी पुस्तक नहीं आयी है। इससे समीक्षक दिन पर दिन खत्म होते चले जा रहे हैं। कपिल देव हैं गोरखपुर से, बहुत अच्छा लिखते हैं पर नहीं लिखेंगे। गौतम हैं, जितेन्द्र हैं, शंभु गुप्त हैं, मगर कुल मिलाकर भी अपर्याप्त हैं।

प्रेम भारद्वाज : कविता और कहानी के बीच विभाजक रेखा भी है। माना जाता है कि कवि के आलोचक ठीक-ठाक हैं। कहानी के कम हैं। शंभू गुप्त जो नये आलोचक के रूप में उभर रहे हैं उन्होंने कहा था बहुत सी कहानियाँ समाज से दूर हैं और समाज का सबसे प्रमाणिक दस्तावेज नहीं हैं। इसकी तुलना में कविता समाज का प्रमाणिक दस्तावेज मानी जाती है। यह कैसा मामला है।

संजीव : ये आलोचकों का मामला है। हो सकता है कहीं और उन्होंने इसके विरु( भी कहा हो, मुझे ठीक से याद नहीं। लेकिन ठीक इसके विपरीत किसी ने कहा है कि कविता समाज के ज्यादा निकट नहीं है।

प्रेम भारद्वाज : हाँ! यह विवाद का विषय भी रहा है कि कविता ज्यादा समाज के निकट है या कहानी।

संजीव : यह खामखाह का विचार-विमर्श है। कौन सी कविता समाज के निकट है और उसने समाज को बदलने के लिए प्रेरणा दी और बदलाव आए। कहानी में भी यह चीज हो सकती है और कविता में भी। ये सब विचार के बीज हैं। आंदोलन में जो सक्रिय भूमिका होती है सोशल एवं पॉलिटिकल एक्टिविस्टों की, ये इनको आगे लेकर आते हैं। कविता, कहानी या कोई भी कला रूप अपने आपमें कोई परिवर्तन नहीं ला सकता। इसके संवाहक दूसरे होते हैं। ये सब अपने आप को जिन्दा रखने का शिगूपफा है।

प्रेम भारद्वाज : आपके दौर के कई महत्वपूर्ण रचनाकार शिल्प के मामले में भारत को छोड़कर लैटिन अमेरिका पहुँच जाते हैं। जादुई यथार्थ रचते हैं। तो क्या यह सब जरूरी है?

संजीव : आकाश आपका है जहाँ तक हो आप उड़िए। लेकिन अगर धरती के पास रहते तो ज्यादा अच्छा होता है। लैटिन अमेरिकी बोर्खेज और मार्खेज हैं या अन्य कहानीकार वहाँ का बिंब ही अलग है। जैसे एक आबनूस का टेबल है, उसमें झांकता प्रतिबिंब है। यह एक भौगोलिक परिस्थिति थी लेकिन इन लोगों को वह चमत्कार लगा। मैंने सपने में एक तितली देखी। अब पता नहीं मैं तितली के सपने में था या तितली मेरे सपने में थी। एक चीनी दार्शनिक थे सब मुग्ध थे। बौ(कि संपदा के प्रति लालायित या आकर्षित होना एक बात है और अपना कुछ मौलिक रचना दूसरी बात। वहाँ की नकल करके या वहाँ के प्रभाव में आकर लिखने से रचना श्रेष्ठ नहीं होती है। जमीनी सच्चाई से जुड़ी रचना ही श्रेष्ठ होती है। उसी रूप में उसका विकास होता है। आप जिनकी बात कह रहे हैं उनकी कोई भी कहानी इन दिनों मुझे समझ में नहीं आई। मेरी एक सीमा है।

प्रेम भारद्वाज : बड़े आलोचकों की समझ में आ जाती है।

संजीव : मैं उनकी बात कैसे कह सकता हूँ वे विद्वान आदमी हैं।

प्रेम भारद्वाज : अरुण प्रकाश कह रहे थे बड़े आश्चर्य की बात है कि हमारे देश में इतनी परंपराएँ हैं इतने पफार्म मौजूद हैं कि लैटिन अमेरिका जाने की जरूरत नहीं है। यहाँ तो वे कुछ नहीं देखते हैं।

संजीव : नहीं, मैं उनकी बात से सहमत नहीं हूँ। आप कहीं भी जाइए अपने लेखन को परिपुष्ट करने के लिए, उसमें औदात्य लाने उसके सौन्दर्य को विकसित करने के लिए कहीं से कोई भी बौ(कि संपदा का इस्तेमाल कर सकते हैं बशर्ते वह नकल न हो और उसके लिए रूढ़ न हो जाएँ। हमारे यहाँ जो परंपराएँ हैं कोई जरूरी नहीं है कि हम वहीं तक सीमित रहें।

प्रेम भारद्वाज : जादुई यथार्थ का जादू क्या है। जो जादुई यथार्थ पर लिखते हैं वह कहते हैं कि यह माया है।

संजीव : यह सवाल बेहतर होगा, उनसे किया जाए।

प्रेम भारद्वाज : जादू क्या है उनका?

संजीव : हमारे यहाँ खुद बहुत सारा जादू है। जादू यथार्थवाद के तहत कह रहा हूँ। वह जो मार्खेज और बोर्खेज वाला मामला है। बोर्खेज बिलकुल ही अपठ्य हैं, दुरूह हैं। मेरा जो सामान्य पाठक है वह उस रचना को उठाकर पफेंक देगा। जिन लोगों ने उठा लिया है तो वह लिखना कुछ और चाहते थे और लिख कुछ और गया।

प्रेम भारद्वाज : लेकिन जादुई यथार्थवाद का जादू सिर चढ़कर बोल रहा है-शिल्प के मामले में।

संजीव : अलल टट्टू टाइप का शिल्प है। कुछ का कुछ लिख दिया है बीन दिया है। हम किसी के प्रति जिम्मेदार नहीं हैं। हवा में जड़ें टटोलती हुयी जो प्रवृत्तियाँ हैं, मैंने कुछ लोगों से पूछा था कि इसका मतलब क्या है। तो वे कोई जवाब नहीं दे पाये। भाषा का व्यामोह है।

प्रेम भारद्वाज : हाल के रचनाकारों में भाषा और शिल्प का कौशल ज्यादा है, उसकी तुलना में कथ्य नहीं है।

संजीव : हाँ, आप सही कह रहे हैं। रद्घुवीर सहाय ने कहा है कि जहाँ कला ज्यादा होगी वहाँ कविता नहीं होगी। जब कथ्य नहीं है तो भाषा और शिल्प का कौशल ही ज्यादा होगा।

अपूर्व जोशी : वही यहाँ पर लागू होती है।

संजीव : अमृत लाल नागर ने कहा था एक बार, ज्यादा कसरत करने से कहानी बिगड़ जाती है
प्रेम भारद्वाज : नए कहानीकारों में आज उसी की धूम मची हुई है।

संजीव : वही लोग अपने में ही धूम मचाए हुए हैं। वह कहावत है कि 'तू मुझे पंडित कह मैं तुझे मुल्ला कहूँ।' पाठक कहीं नहीं है। दूर-दूर तक यही लोग हैं।

अपूर्व जोशी : एक सर्किल है और इसी में उठापटक चल रही है।

प्रेम भारद्वाज : मैं मासूम हठ ही कहूँगा कि आपने १०-१५ साल पहले कहा था कि मैं प्रेमचन्द को छूना चाहता हूँ। तो आप प्रेमचन्द तक पहुँचे।

संजीव : प्रेमचन्द में जो अपने समय सापेक्ष स्तर पर बुलंदियां थीं मैं उसी की बात कर रहा थाऋ जिसमें समाज के लिए आत्मीयता की मिठास भी है दृष्टि भी है, दर्द भी है। कहानी को इस तरह व्यक्त किया जाए कि ये चीजें ज्यादा से ज्यादा संप्रेष्य हों।

प्रेम भारद्वाज : तो आप प्रेमचंद के कितने करीब पहुँचे। छू लिया है आपने?

संजीव : छूना क्या? उनसे कहानी तो बहुत आगे निकल गई है। प्रेमचन्द तो मील का पत्थर हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि कहानी वहीं रहेगी। हम उसके आगे गये। प्रेमचन्द समय सापेक्ष हैं। इस समय वह होते तो क्या लिखते। वह जो लिखना चाहते वह मैं लिख रहा हूँ, मुझे ऐसा लगता है।

अपूर्व जोशी : आप के लिए कहा जाता है कि दिल्ली में आप सहज नहीं हैं। यहां साहित्य जगत की गुटबा८ाी/खेमेबा८ाी यहाँ तक की पुरस्कारों में भी जुगाड़ बंदी है। इस पर आप क्या कहेंगे।

प्रेम भारद्वाज : कुछ द्घराने हैं जो हावी हैं।

संजीव : दिल्ली में मुझे लगा कि मैं जंगल में आ गया हूँ।

प्रेम भारद्वाज : जंगल में तो आप पहले भी थे।

अपूर्व जोशी : वह तो प्राकृतिक जंगल था।

संजीव : यहाँ पर अजीब किस्म के लोग रहते हैं। रचना विरोधी माहौल है। लोग पुरस्कार छीन लेंगे। तख्तो ताज पर लड़ बैठेंगे। पफेलोशिप ले लेंगे। रचना तो वे लोग करते हैं जो बाहर रह रहे हैं जो अभाव में जी रहे हैं। जिनका कोई नहीं हैं या मजबूरीवश दिल्ली नहीं आ पा रहे हैं।

अपूर्व जोशी : जो लोग यहाँ बैठे हुए हैं वे क्या किसी सिस्टेमैटिक तरीके से या किसी सोच के साथ इनको हाशिए में डालने का काम करते हैं क्योंकि हावी तो यही हैं?

संजीव : सचमुच ये हावी हैं क्योंकि यहाँ पत्रिाकाएँ हैं, पुरस्कार हैं। यहाँ की गलियाँ सीधे सत्ता तक पहुँचती हैं। दिल्ली की दुनिया एक नक़ली दुनिया है मेरा यह अपना अनुभव रहा है। यहाँ रचना विरोधी परिवेश है। पत्रिाकाओं का जो माहौल है वह भी बहुत विश्वसनीय नहीं है। जो आप लिखना चाहें, वह छप नहीं सकता। लेखक इतना कापुरुष, कितना कायर है वह यहीं आकर मालूम पड़ता है। सच्चाई बयान नहीं की जा सकती। सच्चाई को छुपा कर, दबाकर हम कितनी दूर जा सकते हैं। इलेस्टिक लीमिट क्या होगी वह यहाँ जाकर पता चलता है। केवल कहने के लिए कुछ चीजें होती हैं जबकि हकीकत कुछ और होती है। मैं दिल्ली से एक तरह से संतुष्ट नहीं हूँ। एक छोटा सा आदमी दिल्ली आकर क्या कर सकता है। कुछ नहीं। वह भीड़ में गुम हुए एक बच्चे की तरह है।
प्रेम भारद्वाज : आपके एक लेखक मित्रा का भी यही कहना था कि कुल्टी एक छोटी जगह थी, अचानक दिल्ली की चकाचौंध से आप सहज नहीं हो पाए।

संजीव : नहीं, चकाचौंध से मैं डरा हुआ नहीं हूँ।

प्रेम भारद्वाज : उनके कहने का सेन्स ये था कि कुल्टी में जैसे लोगों को कुछ भी कराना होता, मसलन प्रेम पत्रा, मानपत्रा लिखवाना होता तो आपके पास जाते थे। यहाँ दिल्ली में तो एक से एक महंत लोग बैठे हैं तो यहाँ महत्व कहीं न कहीं कम हो जाता है।

अपूर्व जोशी : भीड़ में खो जाने का डर होता है।

संजीव : भीड़ में खो जाने का डर नहीं था। एक तो यहाँ आते ही एक साल मैं बीमार पड़ गया। पहला अहम सवाल है कि यहाँ मेरी भूमिका क्या होगी? दूसरी बात यहाँ मैं क्या करूँ? जैसे मुझे या किसी को कोई रचना करनी है तो वह गाँव जाए या मान लीजिए उत्तराखण्ड जाए तो वह ज्यादा अच्छे ढंग से काम करेगा जो यहाँ संभव नहीं है।

प्रेम भारद्वाज : छोटी जगहों पर ज्यादा अच्छी रचनाएँ होती हैं।

संजीव : रचनाओं की सार्थकता तो इसमें होती है। रचनाएँ विचारों की बीज हैं जब वे पल्लवित होकर कार्य रूप में ढलती हैं तब जाकर वह सार्थक होती हैं। यहाँ जो रचनाएँ होती हैं वह वाहवाही के लिए होती हैं। जैसे मंच पर हमने अभिनय किया। अन्याय का जो पहाड़ था उसे काट दिया तो उस पर हमें तालियाँ मिलेंगी कि हमने कितना अच्छा अभिनय किया। लोग इस बात को ग्रहण नहीं करते की हमें अन्याय के इस पहाड़ को काटना है। पहाड़ तो हकीकत में मौजूद है।

प्रेम भारद्वाज : छोटी जगहों पर रचनाएँ अच्छी हो रही हैं पर छोटी जगहों पर रहने का दंश भी झेलना पड़ रहा है।

संजीव : हाँ! छोटी जगहों पर रहने का दंश भी है। एक दूसरी बात भी है कि वह एक्शन ;क्रियाद्ध में भी ढलती हैं। बहुत सारी चीजों का विरोध होता है।

अपूर्व जोशी : उनका तत्काल रिएक्शन होता है।

संजीव : दंश के बारे में जो आप कह रहे हैं वह दूसरी चीज है। वहाँ पैसे नहीं मिलते। स्कोप नहीं है। जैसे मेरे बच्चे अच्छे स्कूलों में नहीं पढ़ पाए।

प्रेम भारद्वाज : उनको लेखक बना सकते थे?

संजीव : लेखक क्यों बना दूँ। उनकी जो इच्छा होगी वह वो बनेंगे। हम बनाने वाले कौन होते हैं।

प्रेम भारद्वाज : आपने इच्छा जाहिर की कि वे लेखक बनें?

संजीव : नहीं, नहीं। मेरी एक नतिनी है विपश्यना। मेरी बेटी जो यहाँ कम रहती थी, उसी की बेटी है। अब वे पूना में रहती हैं। तो एक दिन मैंने कहा कि अब मेरी परंपरा तू ही आगे बढ़ाएगी। तो उसने कहा, नहीं, मैं नहीं करूँगी। मैंने पूछा, क्यों? उसने कहा कि लेखक तो मैं बनूँगी नहीं क्योंकि लेखक रहते हुए अगर दूसरा काम करना चाहूँ तो नहीं कर सकती। लेखक रहते हुए आप दूसरा कोई काम नहीं कर सकते। हाँ दूसरे काम करते हुए आप लेखक बने रह सकते हैं। मैं उसकी बात का कायल हो गया।

अपूर्व जोशी : ये जो आप दिल्ली के बारे में कह रहे हैं कि दिल्ली एक जंगल है और आप उसमें सहज नहीं हैं। ऐसे में क्या दिल्ली में रहना जीविकोपार्जन की मजबूरी के तहत है, राजेन्द्र यादव जी का प्रेम है अथवा हंस के संपादन का लोभ?

प्रेम भारद्वाज : या सब कुछ जबरन है।

संजीव : जब मैं यहाँ आया था तब हंस का संपादन मेरे सामने था नहीं। मेरी पफैक्ट्री बंद हो चुकी थी। आजीविका का प्रश्न तत्काल मेरे सामने था। कुछ दिन हैदराबाद सेंट्रल यूनीवर्सिटी में रहा। कुछ दिन 'अक्षरा' का संपादन किया। उन्हीं दिनों मैंने सोचा कि दिल्ली चलकर कुछ दिन रहा जाए। यहाँ मेरे कुछ काम भी बाकी थे। एक तो 'सूत्राधार' उपन्यास की पिफल्म का मामला था, और एक उपन्यास पूरा करना था। वह सब सोचकर मैं यहाँ आया था। 'हंस' की संपादकी या उपसंपादकी नहीं थी। 'रे-माधव' से छुट्टी लेकर मुझे बार-बार आना-जाना पड़ता था तो थोड़ी खिन्नता रहती थी कि मैं अक्सर छुट्टियाँ लेता रहता हूँ क्योंकि मेरा दिल्ली आना जाना लगा रहता था। साहित्यिक गोष्ठियों की वजह से भी कभी-कभी आता रहता था। हम मित्रातापूर्वक अलग हो गए। उसी समय यहाँ पर 'हंस' के लिए जगह खाली थी। राजेन्द्र जी का अपनापन भी है।

प्रेम भारद्वाज : आपके पत्राों से भी पता चलता है?

संजीव : 'हंस' में टिके रहना मेरा कोई तय नहीं है। मैं इसी वक्त छोड़कर गाँव जा सकता हूँ

प्रेम भारद्वाज : ये तो राजेन्द्र जी को अभी भी लगता है।

संजीव : कभी भी किसी भी क्षण मैं छोड़ सकता हूँ, मेरा कोई आग्रह नहीं है। 'हंस' का संपादक बनने का मोह भी नहीं है। गिरिराज जी ने एक बहुत अच्छी बात कही थी-'धर्मयुग' के संपादक भारती जी रोया करते थे कि मेरा लिखना खत्म हो गया। देखना एक दिन तुम्हारा भी लिखना खत्म हो जाएगा।' मुझे बड़े-बड़े लोगों ने सजेशन दिए। श्रीलाल शुक्ल, धर्मवीर भारती, रद्घुवीर सहाय, कमलेश्वर जी, सभी ने सलाह दी। तो सबका निचोड़ यही रहा कि दिल्ली में पाँव रखने की जगह हो, तो ही सही है। अभी तक मेरा द्घर भी ठीक नहीं है। मेरा वहाँ दम द्घुटता है। लेकिन मेरे पास इतने स्कोप नहीं हैं कि अलग द्घर ले सकूँ। और अपनी बीमारी के कारण गाड़ी में जा सकूँ। मैं आपको क्या बताऊँ।

प्रेम भारद्वाज : १२ साल पहले आप ने इच्छा व्यक्त की थी कि छोटी सी जगह हो जहाँ पफूल-पत्तियाँ उगाऊँ और एक टाइप राइटर हो, तो क्या वह इच्छा पूरी हुई। लोग तो बहुत बड़ी-बड़ी इच्छाएँ रखते हैं।

संजीव : पफैक्ट्री बंद हो जाने के बाद मैं यहाँ आ गया पिफर बीमार पड़ गया। पिफर गाँव चला जाऊँगा। इच्छाएँ अपनी जगह पर हैं। अब अगले जनम में अगर होता हो...।

प्रेम भारद्वाज : टाइपराइटर नहीं खरीदा?

संजीव : नहीं, टाइपराइटर खरीद कर क्या करेंगे।

अपूर्व जोशी : आपके गाँव जाने का संकल्प हो रहा है।

प्रेम भारद्वाज : आप बताते थे कि नदी के किनारे बैठकर मैं देखता रहता था। लोग नाव से जा रहे हैं। बहुत कुछ सोचता रहता था।

संजीव : उस समय की बात बहुत अलग थी। तब लगता था कि बहुत कुछ छूट गया। वैसे अब गाँव, गाँव नहीं रहे। पत्नी की बीमारी, पिफर मेरी बीमारी तो लगता है मैं यहाँ क्या करूँ।

प्रेम भारद्वाज : ठीक यहीं पर एक सवाल खड़ा होता है कि आप हमेशा गर्दन पीछे मोड़कर देखते हैं आगे की ओर नहीं। कहानियों के संदर्भ में भी यही धारणा बनती है कि आप गाँव को बार-बार देख रहे हैं। कहानियों में जो नयी समस्याएँ, चुनौतियाँ होनी चाहिए वह नहीं आ रही हैं। जैसे बाजारवाद को लेकर लोगों ने बहुत सी कहानियाँ व उपन्यास लिखे।

अपूर्व जोशी : कल्पना में स्मृतियाँ बहुत हावी रहती हैं तो आपके लेखन में स्मृतियाँ पीछे की ओर हावी रहती हैं।
संजीव : आपके कहने का अर्थ है कि मैं पीछे देखता हूँ, आगे नहीं देखता हूँ। आगे क्या है बेरोजगारी है। पहले भी थी। अब एक नया क्षितिज खुल गया है बाजारवाद, भूमंडलीकरण, उदारीकरण का और भी बहुत कुछ है। आपने शायद मेरी सारी कहानियाँ नहीं पढ़ीं। नहीं तो आप ऐसा आरोप नहीं लगाते।

प्रेम भारद्वाज : आपकी हाल की कहानियों में नई समस्याएँ हैं भी तो बहुत छिटपुट ढंग से।

संजीव : 'हंस' में आने के बाद और बीमार पड़ने के बाद भले ही नहीं लिख पा रहा हूँ। वरना मैंने बाजारवाद और जो अजीब ढंग का बैकग्राउंड आ गया उस पर बराबर लिखा है। कैरियर और कम्पटीशन पर 'ब्लैक होल', 'नस्ल' में लिखा। उपन्यासों में भी जो कांटेम्पोररी वर्ल्ड है, समाज ही नहीं, दुनिया बदल रही है, नस्ल बदल गई है, वहाँ तक भी मैंने काम किया है और कर रहा हूँ। आपको अगर निर्णय लेना है तो टोटलटी ;पूर्ण रूपद्ध में लें।

प्रेम भारद्वाज : मंदी पर कोई कहानी लिखी है? बहुत गंभीर मामला चल रहा है।

संजीव : नहीं, नहीं लिखी। मैं खुद रिसेशन ;मंदीद्ध का शिकार हूँ।

प्रेम भारद्वाज : इसीलिए मैं कह रहा था। नौकरी छूटी है तब से लेकर अब तक को देखिए।

संजीव : लेकिन मैंने लिखी हैं। आप 'बाद्घ' कहानी देखें, 'गली के मोड़ पर ....' देखें। सच कहूँ तो अपनी स्थितियों के बावजूद मैं अभी भी रुका नहीं हूँ, चुका नहीं हूँ।

3 comments:

अखिलेश शुक्ल said...

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गजेन्द्र कुमार पाटीदार said...

बहुत बढ़िया साक्षात्कार है, बस पीढ़ा है तो इतनी की कंप्यूटरीकृत टाईप की वर्तनीगत अशुद्धियां तादात्म्य को तोड़ती है।

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