चित्रकूट
कथाकार सम्मेलन
शनिवार¸ 1 मार्च 93
अपरान्ह तीन बजे स्वागत
पहला सत्र (अपराह्न 330 से 6 बजे तक) : वर्तमान कहानी में कथा- तत्व का महत्व
रविवार, 2 मार्च 93
द्वितीय सत्र - अपरान्ह 3 से 6 बजे तक
विषय - वर्तमान कथा सन्दर्भ : आलोचना की सार्मथ्य व उपलब्धि
रविवार, 3 मार्च 93
तृतीय सत्र -अपरान्ह 3 से 6 बजे तक
विषय - वर्तमान कथा लेखन की समस्याएं
पत्रिकाओं की रपट के कुछ अंश
हंस (मई 1997) - पिछले दो वर्षों से आयोजित किया जाने वाला कथाकार सम्मेलन - संगमन-3 लेखक और प्रकृति के संबन्ध को प्रगाढ क़रने के लिए इस बार 1 से 3 मार्च 97 तक चित्रकूट में किया गया। पहले सत्र में 'वर्तमान कहानी में कथा- तत्व का महत्व' विषय पर बात हुई।
संगमन में बोले गए कुछ महत्वपूर्ण कथन/उपकथन
''कथा- तत्व को अलग अलग खोजा जाता रहा है, पर मूल तत्व वही है -कहानी,पात्र और ब्यौरे। यदि इसे एक शब्द में कहना चाहें तो वृतांत कह सकते हैं। नई आलोचना ने कथा- तत्व को नकारने की कोशिश की है।'' -डॉ अर्चना वर्मा
'' दो वाक्यों के बीच के अन्तराल में भी कथा- तत्व मौजूद रहता है।'' -आनन्द हर्षुल
''जैसे दूध,चीनी और पत्ती के सही अनुपात से अच्छी चाय बनती है, वैसे ही अच्छी कहानी कथा- तत्व, वृतान्त और अनुभव के सानुपातिक मिश्रण से बनती है। -मैत्रेयी पुष्पा
''कथा- तत्व चाहे कहानी का शरीर चाहे न हो पर रीढ अवश्य है। -महेश कटारे
'' दो वाक्यों के बीच के अन्तराल के मौन को बुनने के लिए विनोद कुमार शुक्ल होना पडेग़ा। -विभूति नारायण राय
'' पिछले दस वर्षों में मैं ने दलित लेखकों की जितनी भी कहानियां पढी हैं , उनसे यही लगा कि दबे कुचलों की जो पीडा है उसे कही जाने वाली कथा की कमी नहीं।'' -से रा यात्री
''अपनी कही जिन बातों को देरिदा ने भारत आने पर नकार दिया, उन्हीं को लेकर हमारे यहां उत्तरआधुनिकता का आंदोलन चलाया जा रहा है।'' -डॉ निर्मला जैन
'' इन दिनों जैसी कहानियों की वाह वाही दिल्ली में हो रही है, उस हिसाब से कथा- तत्व की चर्चा करना ही बेकार है।''-गिरिराज किशोर
'' हर रचना में कोई एक ऐसा तत्व जरूर होता है,जिसका विश्लेषण कर पाना बहुत कठिन होता है। कहानी में कथ्य, कथानक और कहन होता है। कथ्य अनिवार्यत: 'विजन' से जुडा होता है और सक्रिय प्रतिबध्दता का नाम है। इधर कहानी से लगता है कल्पनाशीलता,सृजनात्मकता को लगभग देशनिकाला दे दिया गया है।'' -राजेन्द्र यादव
''इस वक्त कहानी में इतनी विविधता है,मगर बावज़ूद इसके आलोचना चुप है।यह पहला दौर है जब आलोचना की सहायता के बिना कहानी ने खुद का स्थापित किया है।'' अखिलेश
परिशिष्ट
चित्रकूट यात्रा के दौरान जंगल में एक पडाव के दौरान वृक्षों की छाया तले एक अनूठी अदालत लगी। जो कुछ लेखकों का फुरसती शगल था और यादगार बन गया। इस अदालत में राजेन्द्र यादव को प्रश्नों के कटघरे में खडा किया गया। जनता के वकील बने गिरिराज किशोर। जज बनीं डॉ निर्मला जैन और ज्यूरी में शामिल हुए शैलेन्द्र सागर और से रा यात्री। अदालत की सम्पूर्ण कार्यवाही बहुत दिलचस्प रही।
यह पूरा ब्यौरा हंस के अप्रेल 97 अंक में छपा था, जिसे हम यहाँ दे रहे हैं
1 - 3 मार्च 1997
चित्रकूट
कथाकार सम्मेलन संगमन - 3 लेखक और प्रकृति के संबन्ध को प्रगाढ क़रने के लिए इस बार चित्रकूट में आयोजित किया गया। साहित्यिक विमर्श के साथ भ्रमण भी इस कार्यक्रम में शामिल हो गया। इस बार भी संगमन में देश के महत्वपूर्ण कथाकारों के साथ साथ नई पीढी क़े कथाकार उपस्थित थे। राजेन्द्र यादव, गिरिराज किशोर, डॉ अर्चना वर्मा, सृंजय, आनन्द हर्षुल, मैत्रेयी पुष्पा,नारायण सिंह, महेश कटारे, विभूतिनारायण राय, सेरा यात्री, डॉ निर्मला जैन,अखिलेश, प्रभुनाथ सिंह आजमी, शैलेन्द्र सागर,पंकज मित्र, गिरीश चन्द्र श्रीवास्तव, राजकुमार सिंह, कैलाश वनवासी, शिवकुमार शिव, एन आर श्याम, जेब अख्तर, नवनीत मिश्र।
कार्यक्रम : संगमन-3 तीन सत्रों में विभाजित था।
शनिवार¸ 1 मार्च 93
अपरान्ह तीन बजे स्वागत
पहला सत्र (अपराह्न 330 से 6 बजे तक) : वर्तमान कहानी में कथा- तत्व का महत्व
रविवार, 2 मार्च 93
द्वितीय सत्र - अपरान्ह 3 से 6 बजे तक
विषय - वर्तमान कथा सन्दर्भ : आलोचना की सार्मथ्य व उपलब्धि
रविवार, 3 मार्च 93
तृतीय सत्र -अपरान्ह 3 से 6 बजे तक
विषय - वर्तमान कथा लेखन की समस्याएं
पत्रिकाओं की रपट के कुछ अंश
हंस (मई 1997) - पिछले दो वर्षों से आयोजित किया जाने वाला कथाकार सम्मेलन - संगमन-3 लेखक और प्रकृति के संबन्ध को प्रगाढ क़रने के लिए इस बार 1 से 3 मार्च 97 तक चित्रकूट में किया गया। पहले सत्र में 'वर्तमान कहानी में कथा- तत्व का महत्व' विषय पर बात हुई।
संगमन में बोले गए कुछ महत्वपूर्ण कथन/उपकथन
''कथा- तत्व को अलग अलग खोजा जाता रहा है, पर मूल तत्व वही है -कहानी,पात्र और ब्यौरे। यदि इसे एक शब्द में कहना चाहें तो वृतांत कह सकते हैं। नई आलोचना ने कथा- तत्व को नकारने की कोशिश की है।'' -डॉ अर्चना वर्मा
'' दो वाक्यों के बीच के अन्तराल में भी कथा- तत्व मौजूद रहता है।'' -आनन्द हर्षुल
''जैसे दूध,चीनी और पत्ती के सही अनुपात से अच्छी चाय बनती है, वैसे ही अच्छी कहानी कथा- तत्व, वृतान्त और अनुभव के सानुपातिक मिश्रण से बनती है। -मैत्रेयी पुष्पा
''कथा- तत्व चाहे कहानी का शरीर चाहे न हो पर रीढ अवश्य है। -महेश कटारे
'' दो वाक्यों के बीच के अन्तराल के मौन को बुनने के लिए विनोद कुमार शुक्ल होना पडेग़ा। -विभूति नारायण राय
'' पिछले दस वर्षों में मैं ने दलित लेखकों की जितनी भी कहानियां पढी हैं , उनसे यही लगा कि दबे कुचलों की जो पीडा है उसे कही जाने वाली कथा की कमी नहीं।'' -से रा यात्री
''अपनी कही जिन बातों को देरिदा ने भारत आने पर नकार दिया, उन्हीं को लेकर हमारे यहां उत्तरआधुनिकता का आंदोलन चलाया जा रहा है।'' -डॉ निर्मला जैन
'' इन दिनों जैसी कहानियों की वाह वाही दिल्ली में हो रही है, उस हिसाब से कथा- तत्व की चर्चा करना ही बेकार है।''-गिरिराज किशोर
'' हर रचना में कोई एक ऐसा तत्व जरूर होता है,जिसका विश्लेषण कर पाना बहुत कठिन होता है। कहानी में कथ्य, कथानक और कहन होता है। कथ्य अनिवार्यत: 'विजन' से जुडा होता है और सक्रिय प्रतिबध्दता का नाम है। इधर कहानी से लगता है कल्पनाशीलता,सृजनात्मकता को लगभग देशनिकाला दे दिया गया है।'' -राजेन्द्र यादव
''इस वक्त कहानी में इतनी विविधता है,मगर बावज़ूद इसके आलोचना चुप है।यह पहला दौर है जब आलोचना की सहायता के बिना कहानी ने खुद का स्थापित किया है।'' अखिलेश
परिशिष्ट
चित्रकूट यात्रा के दौरान जंगल में एक पडाव के दौरान वृक्षों की छाया तले एक अनूठी अदालत लगी। जो कुछ लेखकों का फुरसती शगल था और यादगार बन गया। इस अदालत में राजेन्द्र यादव को प्रश्नों के कटघरे में खडा किया गया। जनता के वकील बने गिरिराज किशोर। जज बनीं डॉ निर्मला जैन और ज्यूरी में शामिल हुए शैलेन्द्र सागर और से रा यात्री। अदालत की सम्पूर्ण कार्यवाही बहुत दिलचस्प रही।
यह पूरा ब्यौरा हंस के अप्रेल 97 अंक में छपा था, जिसे हम यहाँ दे रहे हैं --
कठघरा
हमारे इल्ज़ाम हैं कि ...
पेशी में 'हंस' के संपादक उर्फ राजेन्द्र यादव
अभिनिर्णायक अर्थात् : डा. निर्मला जैन, से.रा. यात्री एवं शैलेन्द्र सागर
जूरी के माननीय सदस्य
अभियोजक : गिरिराज किशोर
सफाई वकील : अर्चना वर्मा
मुन्शी : महेश कटारे
वह 3 मार्च, 1997 की चटकती धूपवाली बसंती दोपहर थी। संगमन-तीन कथा-सम्मेलन में एकत्र हुए कथाकार चित्रकूट स्थित गुप्त गोदावरी के गुहास्थल के अप्रतिम प्राकृतिक सौंदर्य से अभिभूत हो अनुसूया आश्रम की ओर लौटे थे। चेहरे पर धूल, धूप और थकान के चिन्ह उभरने लगे थे औश्र आखों में भरी थी। विंध्याचल की घाटियों को मन-प्राण में समेटने की चाह। अनुसूया आश्रम से नीचे ही बहती है, नीलतोया मंदाकिनी, जहाँ रमणीक सुचिक्कण स्फटिक शिला के बारे में प्रसिध्द है कि रामचन्द्र जीने इसी शिला पर बैठकर सीता जी का पुष्प-श्रृंगार किया था और चिर-विद्वेषी इंद्रपुत्र जयंत ने काग-रूप धरकर सीता जी के पैर में चोंच मारी थी। कथाकार मो कागभुशुण्डि के वंशज हैं ही। सो उठते-बैठते,देखते-चलते तुलसी व उनके साहित्य पर वे चोंचें लड़ा रहे थे। जिस तरह वहाँ के बंदर बुली भाव से चने वसूल रहे थे, उसी तरह वहाँ आए हुए लेखक श्रृध्दा, संस्कृति, परंपरा और 'जड़ों' से परिचय की आत्मिक उपलब्धियों से परितृप्त थे। सभी को तुलसीदास की पंक्तियाँ याद आ रही थीं। पूरे दल में तुलसी से निरपेक्ष एक व्यक्ति था। वे थे राजेन्द्र यादव, जो आश्रम और तुलसी-चर्चा के प्रति लगभग विराग भाव लिये, पाईप-सुख में डूब जाते थे। उनका यह उदासीन रूख अधिकांश कथाकारों को खल रहा था। इसके अलावा भी उनसे, आगे-पीछे के सबके कुछ-न-कुछ हिसाब-किताब थे, जिन्हें चुकता करने के लिए अरण्य से अच्छा और कोई स्थान शायद नहीं हो सकता था। सो 'हंस' के संपादक को हांका लगाकर 'कटघरे' में ले लिया गया।
जंगल के भीतर डाकबंगले में ही वन-भोज का प्रबंध था। भोजन में अभी डेढ़ घण्टे की देर थी। समय काटने के लिए अनायास ही आयोजित यह 'मुकदमा’ बाद में चित्रकूट-यात्रा के सबसे मनोरंजक प्रसंग के रूप में याद रहा।
गिरिराज किशोर- आप पर यह आरोप है कि आप संपादक होने से पूर्व कथाकार थे, पर संपादक होने के बाद कथाकारों के अधिकारों का हनन करने लगे। अपने निर्णयों के बहाने आपने बहुत-से रचनाकारों को कुंठित कर दिया है। आप अपनी पत्रिका 'हंस' में पक्षपात करते हैं- आपने अपने कुछ पुराने साथी कथाकारों को तिरस्कृत, बहिष्कृत किया हुआ है।
राजेन्द्र यादव- मैं इन आरोपों का खंडन करता हूँ। जहाँ तक लेखकों के साथ पक्षपात का प्रश्न है, मैं ऐसा करता नहीं हूँ। फिर, संपादक के रूप में मेरी भी पसंद-नापसंद हो सकती है।
गि.कि.-तो क्या आप पत्रिका को अपनी पसंद-नापसंद के लिए चलाते हैं? आप पत्रिका को संपादक के रूप में लेते हैं, या कथाकार के रूप में ?
रा.या.- पसंद माने यह कि इससे पत्रिका का एक चरित्र रूप बनता है।
गि.कि.- आपने मित्रघात भी किया है, जैसे कमलेश्वर के साथ... आपसे जो असहमत होते हैं, उन्हें आप...
रा.या.-ऐसा बिल्कुल नहीं है। 'हंस' में इस बीच निर्मल वर्मा, भीष्म साहनी वगैरह की रचनायें पूरे सम्मान के साथ छपी हैं.... अर्थात् जो मिली हैं। घात मैं इसलिए नहीं कर सकता कि जिनका नाम आपने लिया है, वे स्वयं समर्थ हैं। कमलेश्वर ने मुझे कहानी दी ही नहीं। हाँ, आई हुई कहानियों पर मैंने लेखक से डिस्कशन अवश्य किया है, जैसे 'मर गया दीपनाथ' का अंत पहले वह नहीं था, जो कहानी में है। मैंने लेखक से चर्चा की...एक टेक्नीकल एडवाइस के नजरिए से ।
गि.कि.- आपकी जो यह टेक्नीकल एडवाइज की टेक्नीक है, इसे 'चर्चा' कह दें या 'सलाह', यह
बहुत से कहानीकारों को परेशान करती है। यह परोक्ष रूप से रचना में हस्ताक्षेप है, अपनी तरह से बदलवाना है...
रा.या.- यह बदलवाना नहीं, एक तरह का विचार-विनिमय है। एक कोशिश कि कोई चीज शायद और बेहतर ढंग से सामने आ सके। इस तरह होती, तो ...? यह मात्र मेरा ओपिनियन ओता है। अगर उदय प्रकाश से 'वारेन हेस्टिंग का सांड' के बारे में चर्चा करें, तो उसे आपत्ति क्यों होनी चाहिए?
निर्मला जैन का न्यायिक हस्ताक्षेप- बात स्पेसिफिक होनी चाहिए। हवाई बातें, आरोप न हों।
देवेन्द्र- आपने संपादकीयों में मण्डल पर खूब लिखा, पर इतना भ्रष्टाचार हो रहा है... नित नए घौटाले सामने आ रहे हैं। इन पर नहीं लिखा क्यों?
रा.या.- मण्डल बहुत प्रमुख चीज थी और है। इसने बहुत गहरे तक समाज और राजनीति को बदला है। भ्रष्टाचार तो चल ही रहा है...
गि.कि.- कांशीराम द्वारा पत्रकारों को पिटाई पर आपने क्यों नहीं लिखा?
रा.या.- क्या पत्रकार को किसी के व्यक्तिगत जीवन में झांकने का अधिकार है?
गि.कि.-मैं माननीय जूरी से निवेदन के साथ यह कहना चाहता हूँ कि कांशीराम ने पत्रकारों को घर में घुसे होने पर नहीं, सड़क पर आकर पीटा था। 'हंस' के संपादक को उस पर लिखना चाहिए था,पर मण्डल समाज में से होने के कारण आपने उसे छोड़ दिया।
एन.आर. श्याम- किसी ने 'हंस' को ध्यान दिलाया था क्या?
प्रियंवद- जी हाँ! मैंने ध्यान दिलाया था।
रा.या.- चूँकि मामले में दम नहीं था, इसलिए स्वत: ठंडा हो गया।
राजकुमार सिंह- राजेन्द्र जी! आप किसी कहानी को वापस करते हैं या उसमें परिवर्तन का सुझाव
देते हैं, तो किसी विदेशी लेखक को जरूर याद करते हैं। नवनीत मिश्र के साथ भी यही किया... इस तरह निर्देश के अनुरूप लिखने पर ही छपना संभव होगा?
नवनीत मिश्र- 'हंस' के बारे में यह धारणा फैल रही है कि उसमें आड़-ओट या सांकेतिक रूप से
कहीं जाने वाली चीजों को खुले-खुले कहने पर ही छापा जाता है। सांकेतिकता स्वीकार्य नहीं है, जैसे ’चक्रवात' कहानी को लें। मेरा आरोप है कि राजेन्द्र जी ने लिखा कि कहानी पड़कर रघुवीर सहाय की 'पढ़िए गीता, बनिए सीता' वाली कविता याद आती है।
रा.या.- देखिए ! बहुत-सी कहानियों पर जब मैं टिप्पणी नहीं करता, तो लोगों को शिकायत होती
है कि कहानी पढ़ी ही नहीं। कोई टिप्पणी क्यों नहीं की? इसलिए टिप्पणी भेजो, तो मुश्किल, न भेजो,तो मुश्किल भाई ! यदि आप लिखते हैं कि वरिष्ठ कथाकार के नाते टिप्पणी दीजिए, तो मुझे कहानीकार की तरह राय देने का भी अधिकार है।
राजकुमार सिंह- आपके कहानीकार पर संपादक हावी रहता है।
शैलेन्द्र सागर- विदेशी प्रभाव या विदेशी लेखक स्मरण आने बावत आपने स्पष्ट नहीं किया।
से.रा. यात्री- मुझे भी कई लोगों ने बताया है कि राजेन्द्र यादव कई कहानियों पर विदेशी लेखक
तान देते हैं।
रा.या.- यह शायद मेरा दुर्भाग्य है कि मैंने कुछ पढ़ लिया है। कभी-कभी किसी कहानी में पहले
की चीज से कुछ साम्य लगता है... निष्कर्ष भी मिल लाते हैं। जिंदगी की कुछ स्थितियां एक-सी होती हैं। उन पर पहले कुछ बेहतर ढंग से कहा जा चुका होता है। वह स्मरण आ जाए, तो मैं क्या करूं?
गि.कि.- प्रश्न यह है कि आपके इस रिफ्लेक्शन से लेखक इनकरेज होता है या अपमानित अनुभव करता है...?
रा.या.- यूं तो मैंने 'तख्तो ताव' नहीं छापी, पर सृंजय को पुरस्कार दिलाने में मेरा समर्थन रहा ।
शिवमूर्ति- वो खुला-खुला और सांकेतिकता का सवाल रह गया...
रा.या.- सांकेतिकता का जहां तक सवाल है, मैंने आनंद हर्षुल वगैरह की रचनाओं को सांकेतिक होने के बावजूद छापा है और आप एक कहानी तथा महिलाओं को लेकर पीछे पड़े हैं।
शैलेन्द्र सागर- शिवमूर्ति जी, आप अपने प्रश्न को स्पष्ट करें।
शिवमूर्ति- बहुत सारे लोगों का मानना है कि 'हंस' में छपने के लिए कुछ विशेष अर्हता की
आवश्यकता होती है। एक यह कि किसी महिला का नाम हो लेखक के रूप में। हमारे एक मित्र ने महिला के छद्म नाम से कहानी भेजी, तो हफ्ते भर में ही पत्र आ गया कि अपना परिचय और विवरण विस्तार से भेजें। फोटो वगैरह की व्यवस्था में जरा विलंब हुआ, तभी अर्चना जी की चिट्ठी आ गयी कि कहानी किसी महिला की लिखी हुई नहीं है, सो नहीं छपेगी।
अर्चना वर्मा- अपनी स्मरणशक्ति पर जोर डालिए, शिवमूर्ति जी, तस्वीर और विवरण-विस्तार सचमुच मांगा गया था क्या?
शिवमूर्ति- ह्थोड़ा हंसकर) नहीं ।
अर्चना वर्मा- और कहानी की अस्वीकृति का कारण क्या यह था कि वह महिला की नहीं थी? फिर तो 'हंस' में पुरूषों की कहानियाँ छपती ही क्यों और कैसे हैं? हर अंक में चार-छ: पुरूषों के बीच एक या दो स्त्रियों की कहानी होती है।
गि.कि.- राजेन्द्र जी! आपने किसी-किसी महिला ह्गीतांजलिश्री, सारा राय) की तीन-तीन, चार-चार कहानियाँ लगातार छापीं, पर किसी पुरूष की नहीं। इसका क्या कारण है ?
रा.या.- मैंने इससे भी अधिक कहानियाँ संजय खाती, रघुनंदन त्रिवेदी की छापी है! उस पर कोई नहीं बोलता। गीतांजलि की पहली ही कहानी हमें अच्छी लगी। उसने एक साथ कई कहानियां दी थी। हमने 'हंस' की नीति के अनुसार एक नए लेखक/लेखिका को परिचित कराने के उद्देश्य से तीन कहानियां एक के बाद एक छापने का निर्णय लिया। यह और बात है कि बाद में कई तस्वीरें भी हमें अच्छी लगी। यह भी है कि किसी नए और अच्छे लेखक को सामने लाने में एक अविष्कार की भावना भी होती है। यह भी स्पष्ट कर दूँ कि रेखाचित्र, परिचय और चित्रवाला विभाग पहले हरिनारायण का था और अब राजीव रंजन का है।
अखिलेश- पर यह तीन-तीन वाला मामला पुरूष लेखक के साथ क्यों नहीं है?
शैलेन्द्र सागर- सुना यह भी गया है कि कभी-कभी आप कहानियां लौटा देते हैं, तस्वीरें रख लेते हैं। आप यह बतायें कि कहानी - कला में लिंग की क्या भूमिका है?
शैलेन्द्र सागर- सुना यह भी गया है कि कभी-कभी आप कहानियां लौटा देते हैं, तस्वीरें रख लेते
हैं। आप यह बताएं कि कहानी कला में लिंग की क्या भूमिका है?
प्रियंवद- नहीं, राजेन्द्र जी, आपको हमारी ओर से पूरी इजाजत है... बल्कि अनुरोध है कि अधिक से अधिक महिलाओं को प्रोत्साहन दें, वरना देखिए कि आपके इतने आविष्कार और प्रोत्साहन के बावजूद हमारी पीढ़ी में लेखिकाएं, वे भी हमारी पीढ़ी में लेखिकाएं लगभग हैं ही नहीं। इतने बड़े संगमन में इतने कथाकारों के बीच कुल तीन लेखिकाएं, वे भी हमारी पीढ़ी की नहीं... बल्कि आप खूब सुंदर चित्रों के साथ लेखिकाओं को छापिए...
[उत्तर हँसी में डूब जाता है]
कमलेश भट्ट 'कमल'- आप कुछ कहानियों पर आयोजित चर्चाएं कराते हैं। पत्रों को सेंसर कर देते हैं। इन सबमें आपका मानदण्ड क्या है?
रा.या.- उन पत्रों को छांट दिया जाता है, जिनमें व्यक्तिगत आक्षेप होते हैं और कोई सैध्दांतिक,
विचारणीय पक्ष नहीं होता। कभी-कभी स्थान की भी कमी के कारण भी पत्र रह जाते हैं। एक मुख्य बात यह भी है कि दर्जनों पत्र तीन-तीन, चार-चार पृष्ठों के होते हैं। उन्हें संपादित तो करना ही पड़ेगा। आप संपादन को 'सेंसर' करना क्यों मानते हैं? दूसरे प्रायोजित चर्चाएं नहीं कराता ।
कमलेश भट्ट 'कमल'- 'कामरेड का कोट' पर खूब चर्चा कराई, पर प्रियंवद की कहानी 'वे वहां कैद है' पर चर्चा नहीं हुई।
रा.या.- नहीं! उस कहानी पर बहुत प्रतिक्रियाएं छपी। शायद आपने पढ़ी नहीं ।
गि.कि.- अर्चना जी या हरिनारायण का नाम बीच में लेकर क्या आप संपादकीय दायित्व से मुक्त
हो जाते हैं?
रा.या.- बिल्कुल नहीं! पर संपादकीय सहयोगियों से कुछ तकनीकी त्रुटि हो जाए, तो उनकी क्या जिम्मेवारी लूं? यूं, संपादक ही जिम्मेदार हैं।
गि.कि.- लेखकों की ओर से मैं यह पूछना चाहता हूँ कि आप पारिश्रमिक क्यों नहीं देते, जबकि कागज से छपाई तक सबका भुगतान होता है?
रा.या.-पहले पारिश्रमिक दिया गया था। बीच में बंद हो गया, अब फिर से व्यवस्था है। कभी-कभी 'हंस' मानदेय नहीं निकाल पाता। हम हर जगह से, हर तरह से विज्ञापन भी नहीं ले पाते। लागत निकालना कठिन हो जाता है। नाटक में देखिए कि स्टेज, लकड़ी, वेशभूषा, लाइट, साउंड, मजदूर का भुगतान किए बिना नहीं चलता, मगर कलाकार को नहीं दे पाते, क्योंकि निकल नहीं पाता। गैर व्यवसायिक कोई पत्रिका पारिश्रमिक नहीं दे पाती।
निर्मला जैन- वैसे, 'हंस' निकालते समय आपका संकल्प पारिश्रमिक देने का था। अत: घोषित नीति के विपरीत जाने का ठोस कारण बताना चाहिए।
रा.या.- मैंने तीन-तीन संपादकीयों में स्थिति स्पष्ट की है।
निर्मला जैन- तब ठीक है ।
कैलाश बनवासी- 'हंस' में वल्लभ सिध्दार्थ का संस्मरण छपा है, जिसमें एक लेखक पर आक्षेप है। वह आपने क्यों लिखवाया ?
रा.या.- मैं किसी वरिष्ठ लेखक से इस तरह न लिखवाता हूँ, न सलाह देता हूँ कि कैसे और क्या लिखें। रोक भी नहीं सकता।
अर्चना वर्मा- राजेन्द्र जी को शायद याद नहीं है कि संस्मरण असल में अपात्काल के दौरान जेल रहकर निकलने वाले लेखक का था और जेल से सीधे बंबई के इतने बड़े प्रकाशन प्रतिष्ठान में कई
लेखकों-पत्रकारों से मिलने और आपातकाल पर उनकी प्रतििक्रया को दर्ज करने से सम्बन्धित था, एक तरह से इंटेलेक्चुअल बिरादरी पर, उसके आचरण पर कमेन्ट इसलिए छपा, व्यक्तिगत विद्वेष से नहीं.
अखिलेश- आपने कई वरिष्ठ लेखकों की कहानियाँ लौटाई हैं। शेखर जोशी की भी ...?
रा.या.- वह अनुवाद वाली बात थी। ऐसा बहुत-सा अच्छा साहित्य है, जिसे आप वर्षों तक छापते
रहिए। फिर नए लेखन का क्या होगा? ...
अभिनिर्णायक मत
डा. निर्मला जैन- राजेन्द्र यादव पर आरोप सिध्द नहीं हो पाया कि वह कथाकारों के अधिकारों का हनन करते हैं। कांशीराम द्वारा पत्रकारों की पिटाई के संदर्भ में लिखना या न लिखना संपादक का अधिकार है।
राजेन्द्र यादव कहानी लौटाते समय विदेशी लेखकों को स्मरण करने के साथ कथाकार को भी
उसकी याद कराकर दबाव पैद करने के दोषी हैं। आवश्यक ही हो, तो इस प्रकार कहा जाए कि 'अमुक लेखक को पढ़ लें'।
पत्रों के संदर्भ में पृष्ठ-सीमा, 'सैध्दांतिक-वैचारिक' आदि के बहाने चालाकी-भरे हैं। इनके चुनाव
में मुख्य दायित्व भी संपादक का है। पत्रों को आसानी से नहीं छोड़ा जा सकता।
राजेन्द्र यादव इस आरोप का जबाव नहीं दे पाए कि महिला लेखकों को तीन-तीन कहानियाँ
एक साथ क्यों छपीं? वे अद्भुत कहानियाँ नहीं हैं। ऐसे मामलों में संपादक को सावधनी बरतनी चाहिए। अभियोजन पक्ष और वादी लेखकों के कथन से यह सिध्द होता है कि ये प्रयोजित चर्चा कराते हैं। लेख, कहानी पर प्रायोजित चर्चा से रचना व रचनाकार पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
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