Sunday, September 27, 2009

सांप्रदायिकता, मीडिया और लेखकीय दायित्व

संगमन - 8
28 - 30 सितंबर 2002
देहरादून

अपनी सतत यात्रा में रत संगमन - 8 का पडाव इस बार पडा देहरादून के प्रेस क्लब में। शहर की पबुध्द मेधा और देश के कोने कोने से आए कहानीकारों - आलोचकों की कलमशक्ति जुड क़र संगमन के इस त्रिदिवसीय आयोजन में 'सांप्रदायिकता, मीडिया और लेखकीय दायित्व, बदलते सामाजिक मूल्यों का समकालीन कथा साहित्य पर दबाव, समकालीन कहानी और आलोचना जैसे विषयों का मंथन करते रहे।
देहरादून में हुए इस संगमन - 8 की मेजबानी यहां की साहित्यिक संस्था 'सृजन' ने की और इस आयोजन का दारोमदार उठाया सुभाष चन्द्र कुशवाहा, जितेन ठाकुर, सुभाष पंत और गुरदीप खुराना ने।
संगमन - 8 के प्रतिभागी थे सर्वश्री मुद्राराक्षस, धीरेन्द्र अस्थाना, गिरिराज किशोर, डॉ नमिता सिंह, विद्यासागर नौटियाल, गिरिराज किशोर, जितेन ठाकुर, एस आर हरनोट, मुशर्रफ आलम जौकी, अखिलेश, तेजिन्दर, शैलेन्द्र सागर, आनन्द हर्षुल, हरिचरण प्रकाश, अल्पना मिश्र, विजय, हरिनारायण, सुदर्शन नारंग, नीलाक्षी सिंह, शीताक्षी सिंह,बद्री सिंह भाटिया, दामोदरदत्त दीक्षित, फजल इमाम मल्लिक, नन्दकिशोर,हटवाल,अरविंद कुमार सिंह,जयपाल सिंह,जयप्रकाश, डॉ चमन लाल,सुभाष पंत,विजय गौड,शशिभूषण द्विवेदी,भालचन्द्र जोशी,नारायण सिंह,हेमन्त कुमार,नवीन कुमार नैथानी,कृष्णा खुराना, सुरेश उनियाल,प्रियदर्शन मालवीय,सुभाष चन्द्र कुशवाहा, सुभाष पंत,गुरदीप खुराना

कार्यक्रम
प्रथम सत्र : शनिवार
28 सितंबर 2002
अपरान्ह 200
विषय - सांप्रदायिकता, मीडिया और लेखकीय दायित्व

द्वितीय सत्र: रविवार, 29 सितंबर 2002
प्रात: 9 00
विषय - बदलते हुए सामाजिक मूल्यों का कहानी पर दबाव

तृतीय सत्र : शनिवार 29 सितंबर 2002
अपरान्ह 200
विषय - समकालीन कहानी और आलोचना

संगमन में बोले गए कुछ महत्वपूर्ण कथन/उपकथन
यह तय है कि इस देश की शिक्षा में ही कोई ऐसी चीज है जो हमें रास्ता दिखाती नहीं रास्ता भटकाती है।-
मुद्राराक्षस

मीडिया देश के एक पूरे संप्रदाय को राक्षस बना कर प्रस्तुत कर रहा है, भाजपा की गुजरात प्रयोगशाल के लिए पहले इसने तेजाब जुटाया अब अमृत तलाश कर रहा है। वहां का समाज इतना खण्डित हो चुका है कि उसे फिर से जोडना कठिन नजर आ रहा है। - नमिता सिंह

मनुष्यों और राक्षसों की इस धरती पर ऐसा क्यों है कि देवताओं ( सवर्णों) के लिए एक अलग लोक, स्वर्ग बनाया गया और मनुष्यों और राक्षसों ( दलितों) के लिए नर्क लोक। - विद्या सागर नौटियाल

'मीडिया हमारी मनोवैज्ञानिक ढंग से हत्या कर रहा है, उसने हमें जीते जी मुर्दों में बदल डाला है। पूरा मुस्लिम समाज दहशत की गिरफ्त में है। - मुशर्रफ आलम ज़ौकी

भारत का मीडिया वर्ण व्यवस्था का पक्षधर रहा हैजिसके चलते आधुनिक युग में भी भारत अन्धविश्वास, ऊंच - नीच, छुआछूत से बाहर नहीं निकल पाया है - जयपाल सिंह

मीडिया वैश्वीकरण और स्थानीयकरण में बंटा हुआ है। दोनों के बीच जो दृश्य उभरता है वह बहुत जटिल है। जहां भी पूंजीवाद पहुंचा है, वहां फासीवाद फैला है।फासीवाद को पूंजीवाद से जोड क़र देखना चाहिए। - जयप्रकाश

वर्तमान समय में सब रास्ते अंधेरे में जकडे हुए हैं। हम फासीवाद के चंगुल में जकडे ज़ा चुके हैं। हम प्रेसिडेन्ट बुश को गाली नहीं दे सकते। एक विधवा स्त्री की तरह हमारा प्रधानमंत्री बुश के आगे हाथ फैला कर विलाप कर रहा है, हम बेसहारा हो गए हैं, न हमारा कोई माई बाप रहा है, न सगा। लेखकों के सामने इस वक्त जबरदस्त चुनौती है।- - गिरिराज किशोर

सरकार ने एक ओर मल्टीनेशनल के लिए दरवाजे ख़ोल दिए हैं, दूसरी ओर वह मल्टीनेशनल की आलोचना कर रही है। बाजार ने मध्यमवर्ग में अनावश्यक इच्छाएं जाग्रत कर दी हैं। पूंजी, बाजार और मीडिया पूरी दुनिया को अपने इशारे पर नचा रहे हैं। - भाल चन्द्र जोशी

हमारे पास सूचनाओं का अंबार है। सूचनाओं ने हमारी संवेदनाओं को मार डाला है। मौत अब हमार लिए दुख का सबब नहीं रह गई है, मात्र एक खबर हो कर रह गई है-
देवेन्द्र

हमारे संबंधों में दरार आने लगी है, हम खतरनाक सवालों से बचने लगे हैं। हमारा लेखन युवा वर्ग को सम्बोधित नहीं है जबकि टी वी के अधिकतर विज्ञापन युवावर्ग को सम्बोधित हैं। - नवीन कुमार नैथानी

जब - जब आलोचना के भीतर रचना को लेकर तानाशाही उठेगी तब तब ऐसी बहसें होती रहेंगी। - अखिलेश

हिन्दी कहानी में आलोचना का सही वातावरण कभी बना ही नहीं। एक आलोचक की टिप्पणी पर लेखक का संपादक को पत्र आता है कि तुमने अगर मेरा पत्र नहीं छापा तो मानहानि का मुकदमा कर दूंगा।' - सुरेश उनियाल

आजकल चेहरा और हैसियत देखकर आलोचना हो रही है।- प्रियदर्शन मालवीय

परिशिष्ट

1. 29 सितम्बर 2002 की सुबह बंगला साहित्य समीति के पदाधिकारियों ने संगमन में आए समस्त लेखकों को समितिस्थल पर चायपान के लिए आमंत्रित किया। वहां एक सौ दो वर्षों से चलाए जा रहे अति समृध्द पुस्तकालय सभी लेखकों ने देखा। पुरानी बहुमूल्य पुस्तकों के बीच गुजरते हुए लेखक
पूर्वजों के अमूल्य योगदान को महसूस कर रहे थे।

2. प्रेस क्लब के हॉल के प्रवेशद्वार पर धूमिल की कविता का पोस्टर लगा था -

नहीं - अपना कोई हमदर्द
यहां नहीं
मैं ने हरेक को आवाज दी है
मैं ने हरेक का दरवाजा खटखटाया है
मगर बेकार
मैं ने जिसकी पूंछ उठाई है
उसको ही मादा पाया है

इस पर पाठकों से संवाद के दौरान एक पाठिका अमिता ने गहरी आपत्ति दर्ज क़ी और उसे स्त्री विरोधी कविता करार करते हुए उसे फाड क़र चिन्दी - विन्दी कर देने की इच्छा जाहिर की। उन्होंने आगे कहा कि - देश में जगह - जगह अन्याय का प्रतिरोध हो रहा है पर आप लोगों की रचनाओं में यह प्रतिरोध क्यों नहीं आ रहा है? क्यों आपकी रचनाएं स्त्री - पुरुष सम्बन्धों के जंगल में फंसी हुई हैं?

एक और अहिन्दी भाषी पाठिका उज्जवला ने अपना आक्रोश जाहिर करते हुए कहा - हाल में प्रवेश करते ही इस कविता को देख कर लगा इसे आग में झौंक दूं। उज्जवला ने आगे कहा- ' आज है कोई ऐसी कहानी जो लोगों को आन्दोलन के लिए प्रेरित कर सके? आज का लेखन आत्ममुग्धता में जी रहा है।

इसी सत्र में एक पाठक पुनीत कोहली ने अल्पना मिश्र की इण्डिया टुडे की वार्षिकी में छपी कहानी पर सनसनी फैलाने का आरोप लगाया।

3.भ्रमण सत्र के दौरान सुबह ही सारे लेखक बस से मसूरी पहुंचे सब लोग अपने -अपने समूह में मसूरी की सडक़ों पर घूमने निकल पडे मसूरी की साहित्यक संस्था 'अलीक' ने दोपहर के भोजन पर संगमन के लेखकों की मेजबानी की, वह भी ऐसे होटल में जहां अंग्रेजों के समय में भारतीयों का प्रवेश वर्जित था होटल के बाहर लिखा रहता था - डॉग एण्ड इण्डियन्स आर नॉट अलाउड

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