संगमन - 10
2 - 4 अक्टूबर 2004
इस वर्ष
श्रीडूंगरगढ में देश के विभिन्न हिस्सों से तीन पीढियों के कथाकार जुटे।माहौल की अनौपचारिकता और आत्मीयता के साथ तीनों सत्रों में कथासाहित्य को लेकर महत्वपूर्ण मुद्दों पर विमर्श हुए, जिनके सार्थक निष्कर्ष सामने आए ।
प्रथम सत्र : 2 अक्टूबर 2004
अपरान्ह 200 से सायं 600 बजे तक
विषय - राजस्थानी कथा - वाचन की लोक परंपरा और कथा पाठ
द्वितीय सत्र: 3 अक्टूबर 2004
प्रात: 9 30 से 100 बजे तक
विषय - दलित लेखक और हिन्दी कथा साहित्य
तृतीय सत्र : 3 अक्टूबर 2004
अपरान्ह 200 से सायं 600 बजे तक
विषय - हिन्दी लेखक की सामाजिक अकर्मकता ( नॉन एक्टीविज्म)
चतुर्थ सत्र - भ्रमण सत्र 4 अक्टूबर प्रात: 9
हिन्दी कहानी पर विमर्श का एक और सार्थक कदम
( कथादेश में छपी रिपोर्ट के अंश)
प्रथम सत्र : राजस्थानी कथावाचन की लोकपरम्परा और विजयदान देथा का कथा पाठ
'' विजयदान देथा को सुनना मेरी अपनी निजी तौर पर बहुत बडी उपलब्धि है। इसमें जो दक्षता, जो कौशल है वह उनके पूरे जीवन की तपस्या का निमित्त है। हर साहित्यकार के ऊपर साहित्यकार है, हर साहित्यकार के नीचे साहित्यकार है लेकिन विजयदान देथा के न कोई ऊपर है, न कोई नीचे।''
'' इस कहानी में जो मैं ने समझा, अपनी समझ के अनुसार, मुझे ये लगता है, वो स्थितियां जो बाजार हम पर लादे हुए है, हम बिना प्रेय के श्रेय लेना चाहते हैं।बिना कुछ किये अपनी दुंदुभी बजाना चाहते हैं।जैसा कि आप सारी दिशाओं में देख रहे हैं - साहित्य, कला, संगीत यहां तक कि घर में भी।ऐसे में यह कहानी हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि यदि हम वास्तव में आंके - हम अनभिज्ञ हैं, हम चीजों के जानकार नहीं, हम उस ब्राह्मण की तरह बार - बार इनकार कर रहे हैं कि मैं इस मुस्तैद नहीं हूं, लेकिन लोग उस पर बार - बार थोप रहे हैं।''
इस सन्दर्भ में कथाकार संजीव ने कहा कि - '' ये जो वक्त है, यह बहुत विचित्र है।लोककथाओं का वक्त नहीं।दुनिया इतनी स्वार्थकेन्द्रित, सामूहिकता से विमुख व्यक्तिकेन्द्रित है कि हम चाहें तो भी उस पुराने जमाने को लौटा कर नहीं ला सकते, मगर इस बदलते युग के परिप्रेक्ष्य में उन पुरानी चीजों के पौष्टिक तत्वों के धनात्मक पक्षों को हम कैसे जिन्दा रख सकते हैं? यह एक प्रश्न हो सकता है।''
'' संगमन ने लीला रची है, हम हिस्सेदार की तरह पात्र निभा रहे हैं।'' इस वक्तव्य में उन्होंने आगे कहा - '' राजस्थानी में साहित्य की जो शासकीय परम्परा है, व उसका लोक रूप है, दोनों ही में 'बात' बहुत महत्वपूर्ण है।लोक साहित्य में वही बातें रह जाती हैं जो अन्तर में पैठ जाती हैं।''-
द्वितीय सत्र : दलित लेखक और हिन्दी कथा साहित्य
'' सामाजिक सापेक्षता में अगर यह विमर्श नहीं लिया गया तो यह व्यर्थ है।''-
' क्या यह जरूरी है कि किसी रचना को पढने से पहले लेखक की पृष्ठभूमि जानी जाये?'' -
'' वे प्रवृत्तियां जिनसे असमानता, विद्वेष फैलता हो मैं उनके खिलाफ हू-।'' उन्होंने आयातित साहित्य कह कर साहित्य की मुख्यधारा के चिन्तन को एक सिरे से नकार दिया कि '' एक भी मौलिक चिन्तन नहीं, मौलिक चिन्तन केवल दलित साहित्य में है।''-
'' आज दलित और गैर दलित में सम्वाद आवश्यक है, दलित की जो पीडा है उसे पूरे सब्र से सुनें।'' उन्होंने यह भी कहा कि - '' दलित साहित्य पूर्ण हिन्दी साहित्य को एक चेतना बनाने में आगे बढे।ज़हां हिन्दी साहित्य में एक ठहराव है, दलित साहित्य में रवानगी है, बहाव है।'' -
तीसरा सत्र : हिन्दी लेखक की सामाजिक अकर्मकता ( नॉनएक्टीविज्म)
कम से कम जिन मूल्यों के प्रति लेखक अपने लेखन में आशा व विश्वास प्रतिष्ठापित करता है, उसे जीवन में अपनाए।अन्यथा वह साहित्य नहीं बुध्दिविलास होगा।अपने ही कहे को नकारना होगा।''
'' क्या स्त्री अधिकारों के प्रति निर्मला लिखा जाना एक्टीविज्म नहीं है?'' -
'' जीवन और मरण के प्रश्न से तो लेखक आंख नहीं चुरा सकता तो सामाजिक दायित्वों से कैसे आंख चुरा सकता है? जिस समाज से हमारा जीवन चलता है उसके लिये लिख कर क्या हमारा दायित्व पूरा हो जाता है?''-
'' लेखक होना किसी को आम आदमी से अलग कैसे कर सकता है? पत्रकारिता भी लेखन से अलग नहीं है।''-
'' सामाजिक भागीदारी - हिस्सेदारी लेना लेखक का नैतिक कर्तव्य नहीं व्यक्तिगत निर्णय है।'' -
'' कलाओं को एक साथ सकर्मक होना पडता है जब बडा कॉज उपस्थित होता है।''
परिशिष्ट
2. रेतीला कस्बा - श्री डूंगरगढ। 3 अक्टूबर की सुबह सूर्योदय के साथ रेतीले धोरों के सौंदर्य को देखने के लिए बहुत सारे कथाकार जल्दी उठ गए और पैदल ही रेत के टीलों की तरफ निकल गए। रेत जैसे मां हो। हर कोई उसके गर्भ में गुलाटियां ले रहा था।
भ्रमण सत्र 4 अक्टूबर की सुबह आरंभ हुआ। पहला पडाव था देशनोक में का करणीमाता का 'चूहों वाला मंदिर'। मंदिर में निर्भीक होकर घूमते चूहों को देख कर सब हैरान रह गए। अगला पडाव था बीकानेर, बीकानेर शहर के बीच स्थित 'जूनागढ क़िला'। सामन्ती वैभव और भोग विलास के बचे खुचे चिन्हों में भी इतना कुछ था कि लेखक उस युग के पृष्ठ पलटने लगे जिसमें स्त्री और दलित इस सामंतवाद के वैभव दुर्ग की नींवों में बिछे हुए थे।
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