साझा मंच, राह अनंत, मंतव्य एक...........संगमन-यात्राः छवियां अनेक। अवलोकनार्थ प्रस्तुत हैं।
संगमन-कथायात्रा!
संगमन - 1
1 - 2 अक्टूबर 1993
प्रियंवद के घर के सामने की एक बहुत बड़ी और पुरानी इमारत के दो कमरों में फ़र्श पर
कार्यक्रम
संगमन-1 पांच सत्रों में विभाजित था। इन पांच सत्रों का विवरण निम्न प्रकार से है -
2 अक्टूबर, शनिवार
पहला सत्र
दूसरा सत्र
तीसरा सत्र
3 अक्टूबर, रविवार
चतुर्थ सत्र
पंचम सत्र
विभिन्न समाचार पत्रों और पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित रिर्पोट हमें एक अवसर देती हैं कि हम इस आयोजन की गतिविधियों और उसके प्रभाव की एक झलक पा सकें।
अख़बारों और पत्रिकाओं की रपट के कुछ अंश
1. 'यादव' और 'हंस' की वजह से कई बार भटकी चर्चा (2 अक्टूबर 1903) दैनिक जागरण
उपशी
2. यादव पहले 'हंस' पत्रिका बंद करें तब यह बात कहें- गिरिराज किशोर
3. कहानी का निराशाजनक परिदृश्य उभारा कथाकारों ने - अमर उजाला 2 अक्टूबर, 1993
4. परम्परा को स्वीकारने-नकारने का द्वन्द - स्वतन्त्र भारत (2 अक्टू.1993)
6. कहानी वही जो दिल से लिखी जाये और दिल से पढ़ी जाय - सहारा समय (3 अक्टूबर, 1993)
7. संगमन-1 के बारे में कुछ फुटकर नोट्स - गिरिराज किशोर (हंस, दिसम्बर 1993)
8. संगमन : कथाकार सम्मेलन - चित्रेश/श्याम नारायण श्रीवास्तव (कथानक)
1. विश्व में कुछ भी पवित्र नहीं : राजेन्द्र यादव
2. समाज से दूर करने वाली परम्पराओं का निषेध होना चाहिए : राष्ट्रीय सहारा (अक्टूबर, 1993)
1. जब परम्परा की ओर श्रध्दा से देखा जाता है तो वह शक्ति बन जाती है।
2. संवेदनहीनता व अभिव्यक्ति की समस्याओं से जूझे लेखक - दैनिक जागरण (3 अक्टूबर, 1993)
1. हिन्दी की मानक कथा न चुनने पर प्रतिभागियों में क्षोभ
2. लचर संचालन ने बहस को कमजोर किया
3. समकालीन कथा को लेकर हताशा के स्वर उभरे
4. कुछ लोगों ने सोते-सोते सुनी 'मानक कथा'
1. दो दिवसीय कथाकार सम्मेलन समाप्त
2. एयर कंडीशनरों में आग से सत्र जल्दी खत्म
झलकियां -
1. समीक्षकों का अकाल - यूं तो संगमन-1 में पूर्वाग्रह की शंका वाले पेशेवर/नामवर समीक्षकों को बुलाया ही नहीं गया। ले देकर एकमात्र आमन्त्रित प्रभाकर क्षोत्रिय थे, जिन्होंने अंतिम क्षणों में जोखिम उठाने से इन्कार कर दिया। यह भी ठीक ही हुआ, क्योंकि आलोचना सत्र में एक स्वर में सभी कथाकारों को यह मत व्यक्त करते हुए देखा गया कि उन्हें आलोचक की जरूरत ही नहीं है। वे खाहंमखा दुखी होते।
2. युवा लेखक/लेखिकाओं से भेंट वार्ताएं - रचनाकारों की आत्महंता प्रवृत्तियों और विचारों की तानाशाही से उपजे स्नायविक तनावों के विश्लेशण वाले आलेख को भले ही बेमन से सुना गया हो, परन्तु बाद में उस आलेख को पढ़ने और उनका साक्षात्कार करने की होड़ सी लग गई। बिलासपुर से आयी नयी लेखिका जया जादवानी कथाकारों की ही नहीं, युवा पत्रकारों के आकर्षण का केन्द्र भी बनी रहीं लेकिन उनसे भेंटवार्ता का समय मांगने में संकोच आड़े आया और पत्रकारों ने मैत्रेयी पुष्पा से सवाल-जवाब करके ही सन्तोष किया।
3. नवें दशक से सबसे चर्चित लेखक संजीव को आमन्त्रित नहीं किया गया था, परन्तु आकस्मिक संयोगवश उनके शिवमूर्ति जी के साथ कानपुर आने की ख़बर पाकर विशेष आग्रह पर उन्हें बुलाया गया। बड़ी उदारता से इस फौरी आमन्त्रण को स्वीकार
करके दोनों कथाकार अन्तिम सत्र की शोभा बढ़ाने के लिए उपस्थित हुए।
संगमन में बोले गए कुछ महत्वपूर्ण कथन/उपकथन
''मैनें कभी किसी लेखक की कहानी पर उसे कोई सीख नहीं दी'' राजेन्द्र यादव
''हिन्दी निजड़ (जड़विहीन) भाषा है। क्षेत्रीय लोगों के पास अपनी ' लोकल' जुबान है'' जबकि हमने इस नकली
''यह कहने से पहले राजेन्द्र यादव को हंस बन्द कर देनी चाहिए'' गिरिराज किशोर
''आलोचक और सम्पादक चाहते हैं कि लेखक उनके दरबार में आकर मत्था टेके। जो इन्हें छोड़ सकता है वही सच्चा लेखक बनव सकता है'' गिरिराज किशोर
''हर 'निषेध' में एक विकास और हर 'विकास' में एक निषेध छुपा होता है'' प्रेम कुमार मणि
''छठे दशक में ही प्रेमचन्द का सत्य व आदर्श अप्रासंगिक हो चुके थे'' प्रेम कुमार मणि
'निषेध से ही अच्छा साहित्य पैदा होता है'' डा. सुमति अय्यर
''पांच हजार आबादी वाले मेरे गांव में एक भी आदमी प्रेमचन्द के बाद के किसी कथाकार का नाम नहीं जानता'' दिनेश पालीवाल
''छायावादी युग हिन्दी साहित्य का कलंक है.. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' सामन्तवादी मनोवृत्ति का सूचक है'' ओम प्रकाश वाल्मीकि
''परम्परा के मूल तत्वों की खोज की जानी चाहिए। माक्र्स, फ्रायड ने हमारी परम्परा को चुनौती दी है'' रामधारी सिंह दिवाकार
''लेखक परकाया प्रवेशकारी होता है'' मैत्रेयी पुष्पा
''मंटो और ऋत्विक घटक के दुखदर्द में एक समानाता यह थी कि वे दोनों विभाजन की त्रासदी से ग्रस्त थे। विभाजन ने दोनों के दिलों में बहुत गहरी खाई खोद दी थी जिसे वे शराब से भरते रहे ''मनोज रूपड़ा
परिशिष्ट
1. 'मानक कहानी' के रूप में चेखव की कहानी 'घोंघा' पढ़ी गयी जिसका पाठ ओमप्रकाश वाल्मीकि ने किया। संजीव ने इस कहानी के चयन पर ही प्रश्न उठते हुए कहा कि वरिष्ठ लेखकों से जब भी कोई काम करने को कहा जाता है तो वे दूर की कौड़ी लाते हैं। 1993 में 'घोंघा' कहानी की ओर लौटना मानसिक घोंघापन है। भला चेखव की कहानी 'घोघा' पढ़वाने की क्या ज़रूरत थी? शिवमूर्ति ने संचालक राजेन्द्र राव के व्यंग्य का जवाब देते हुए कहा कि मेरे सात बच्चे हैं तो सात कहानियाँ भी हैं। अब राजेन्द्र राव यह नहीं कह सकते कि शिवमूर्ति के बच्चे सात है और कहानियां छह।
2. आयोजन के विधिवत समापन के ठीक पहले एयर कन्डीशनर से आग लग गयी। उससे कुछ चिंगारियाँ निकलीं। लेखकों का कमरा छोड़कर भागने का दृश्य अभूतपूर्व था। मेज पर, कुर्सियों पर कूदते हुए वे सीढ़िया उतर कर सीधे बाहर आकर ही रुके।
संगमन एक के आयोजन का समापन कुछ इस तरह हुआ था
1 comment:
धन्यवाद शिवमूर्ति जी ,यहाँ दुर्ग से मित्र मनोज रूपड़ा इस सम्मेलन मे गये थे उनसे इस की रपट सुनी थी । आपने सब याद दिला दिया । लेकिन उस आग लगने की घटना पर किसी ने कहानी लिखी य नहीं ?
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