11 - 13 अक्टूबर 2003
सारनाथ,वाराणसी
संगमन - 9
हरिनारायण
प्रथम सत्र : 11 अक्टूबर 2002
अपरान्ह 200 से सायं 600 बजे तक
विषय - इक्कीसवीं सदी में हिन्दी कहानी का मुहावरा
द्वितीय सत्र: 12अक्टूबर 2002
प्रात: 9 30 से 100 बजे तक
विषय - अनुभव और अभिव्यक्ति के बीच
तृतीय सत्र : 12 अक्टूबर 2002
अपरान्ह 200 से सायं 600 बजे तक
विषय - जीवन के सरोकार और हिन्दी कहानी की व्याप्ति
चतुर्थ सत्र
13 अक्टूबर 2002
प्रात: 1000 से 200 बजे तक
विषय - जो लिखा न जा सका
हिन्दुस्तान : 13 अक्टूबर 2003 वाराणसी
शीर्षक : संगमन में उठे कई झकझोरने वाले सवाल
उपशीर्षक - कथाकारों को वास्तविक खतरे का आभास नहीं : नामवर
नई सदी में सुखद है लेखक संघों का टूटना : मणि
कोई संघ वाला किसी को कलम नहीं पकडाता : शशांक
समकालीन कथाकारों के अब तक के सबसे बडे ज़मावडे 'संगमन' में आज कई झकझोरने वाले सवाल खडे हो गए। गनीमत यह रही कि कथाकारों को सुनने और सुनाने पहुंचे प्रख्यात आलोचक प्रो नामवर सिंह अपने स्वभाव के विपरीत कई महत्वपूर्ण सवालों को टाल गए।
दैनिक भास्कर : 13 अक्टूबर 2003 वाराणसी
शीर्षक : कहानी का सुई की तरह चुभते रहना जरूरी : नामवर
उपशीर्षक: सारनाथ में संगमन - 9 का तीन दिवसीय आयोजन शुरु
बडी संख्या में जुटे लेखक और जानेमाने कथाकार
केन्द्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान के 'आनन्द पिंडद' सभागार में हिन्दी के कहानीकारों के तीन दिवसीय जमावडे क़ा उद्धाटन करते हुए नामवर सिंह जम कर बोले
आज : 14 अक्टूबर 2003
शीर्षक : कहानी का अनुभव से कोई रिश्ता नहीं
विद्वानों ने जीवन के सरोकार और हिन्दी कहानी की व्याप्ति पर विस्तृत व्याख्या संगमन के अंतिम सत्र के दौरान की।
दैनिक जागरण : 14 अक्टूबर 2003 वाराणसी
शीर्षक : कहानी के समक्ष थियेटर व फिल्म सबसे बडी चुनौती
उपशीर्षक : संगमन में 'अनुभव और अभिव्यक्ति के बीच' पर हुई चर्चा
केन्द्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान के 'आनन्द पिंडद' सभागार में संगमन की तीन दिवसीय परिचर्चा के दूसरे दिन रविवार को कहानी के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा हुई। कथाकारों ने कहानी लिखने की प्रक्रिया के सम्बन्ध में अपने - अपने अनुभवों के बारे में बताया। नामवर सिंह ने कहा - कहानी का अनुभव से कोई ताल्लुक नहीं। जातक कथाएं अनुभव के आधार पर नहीं लिखी गई थीं। कहानी लिखना एक हुनर व पेशा है। कहानी के समक्ष थियेटर व फिल्म सबसे बडी चुनौती है।
अमर उजाला: 14 अक्टूबर 2003 वाराणसी
शीर्षक : नयों के लिए यादगार बना संगमन - नौ
सारनाथ स्थित केन्द्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान में आयोजित 'संगमन - 9' का दूसरा दिन नए लेखकों के लिए यादगार बन गया।
हमें यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि साहित्य के जरिये कोई क्रान्ति हो जायेगी। या यह कि कहानी कोई तलवार या चाकू नहीं है जिससे दुश्मन का सफाया किया जा सकता है। अगर हथियार ही मानने की बात है तो मैं मानता हूं कि कहानी वह सुई है जिसे हम दुश्मन को बार बार चुभोते रह सकते हैं। - नामवर सिंह
एक लम्बे समय तक कविता को साहित्य की मुख्यधारा कहा जाता रहा। हालांकि आलोचक आज भी यही मानते हैं और कहानी उनकी नजर में दूसरे दर्जे क़ी चीज है।- प्रेम कुमार मणि
पहले यथार्थ की कडवाहट को व्यक्त करने के लिए फैंटसी की अवधारणा थी लेकिन आज का यथार्थ फैंटसी से कहीं आगे चला गया है। गुजरात का यथार्थ भी फैंटसी से कहीं आगे की चीज है।- अखिलेश
कहानी का अनुभव से कोई ताल्लुक नहीं। जातक कथाएं अनुभव के आधार पर नहीं लिखी गई थीं। कहानी लिखना एक हुनर व पेशा है। - नामवर सिंह
कभी किसी विचार से अनुभव बनते नहीं देखा गया जबकि अनुभव से विचारों का सृजन होते अकसर देखा गया है। - मैत्रेयी पुष्पा
प्रश्नों के उत्तर देना कहानी का दायित्व है। कहानीकार को इतिहास का जितना अधिक ज्ञान होगा उतनी ही सरलता से वह समाज के समक्ष प्रश्नों के उत्तर देने में समक्ष होगा। - महेश कटारेहमारे अवरोधक (स्पीडब्रेकर) वही हैं, जो हमें आगे बढाना चाहते हैं। उनके नियम हैं और वे हमें उन पर चलने का आग्रह करते हैं। पुरुष को स्त्री की बुध्दि पर कभी भरोसा नहीं रहा। - मैत्रेयी पुष्पा
जिन्दगी के ऐसे बहुत से सच हैं जिन्हें बताया नहीं जा सकता बल्कि सिर्फ अनुभव किया जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति का अपना सच है। कहानीकार की निजता ही उसे औरों से अलग करती है। - संजीव
स्त्री को नारी होने के आतंक से मुक्त होना होगा। - मधु कांकरिया
परिशिष्ट
3 अक्टूबर की सुबह संगमन का कारवां बस पर सवार होकर कथा सम्राट मुंशी प्रेमचन्द के गांव लमही पहुंचा। सौ गज के दायरे में खडा एक दोमंजिला ढहता हुआ, विष्ठा की सडांध और मरे चूहों की दुर्गन्ध से गंधाता खण्डहरनुमा 'मकान' ही मुंशी प्रेमचंद का पुश्तैनी घर था। सभी का मन उदास हो गया।
लौटते समय, चेतगंज चौराहे पर डॉक्टरों के अनशन के कारण हुए ट्रैफिक जाम में फंसा संगमन का कारवां बस से उतर कर पैदल ही गलियों में भटकते हुए सराय गोवर्धन स्थित महाकवि जयशंकर प्रसाद के हवेलीनुमा मकान में पहुंचा तो उस हवेली की बसाहट देख कर प्रेमचंद के घर की स्थिति देखकर घिरी उदासी तिरोहित हो गयी। हवेली में अब भी प्रसाद जी के वंशज बसते हैं और उनका साहित्य भी। हवेली के सामने बहुत बडा मैदान और मैदान के उत्तरी कोने में बना एक पक्का मंदिर - यहीं बैठ प्रसाद जी ने कामायनी लिखी थी।
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