ग्रामजीवन का विद्रूप एवं कथारस का आस्वाद
राम विनय शर्मा
त्रिलोचन जी ने कहा है कि ‘‘भाषा को
लेखक के सम्पर्क में जाना होगा।...बोलचाल की भाषा से ही साहित्य का विस्तार
होता है।’’ शिवमूर्ति ने अपनी कहानियों में ऐसी ही भाषा का उपयोग किया है। यह भाषा
उस परिवेश का अटूट हिस्सा है, जहां से कहानी के पात्रों को उठाया गया है। उनकी
कहानियों के पात्र, परिवेश, भाषा और समाज परस्पर घुले-मिले हैं। ये पात्र, भाषा
और परिवेश शिवमूर्ति के अनुभव से नि:सृत एवं सम्बद्ध हैं। उन्होंने जीवन को
कलात्मत ढंग से अपनी कहानियों में उतारकर रख दिया है। यही कहानी कला का उत्कर्ष
भी माना जाता है। उनके लेखन में मनुष्य के प्रति आत्मीयता की एक अविरल धारा बहती
है। शिवमूर्ति ने कुल आठ कहानियां लिखी हैं। इन्हीं के बल पर उन्हें कहानीकार के
रूप में विशिष्ट पहचान मिली है। परिमाण में कम, लेकिन प्रभाव में अप्रत्याशित
विस्तार लिए शिवमूर्ति की ये कहानियां ग्रामीण समाज के विभिन्न पक्षों का निरूपण
करती हैं। लोक और जन उनकी कहानियों के प्राणतत्व
हैं। उनकी वर्णन-शैली रोचक है। स्त्री और दलित जीवन की दशा और दिशा उनकी कहानियों
का प्रमुख उपजीव्य है। स्त्री की यातना को उन्होंने संवेदनशीलता के जिस धरातल
पर वर्णित किया है, उससे उनकी कहानियां अधिक ग्राह्य, मार्मिक और प्रभावशाली बन
गयी हैं।
शिवमूर्ति
की कहानियां हमें पाठ के बीच-बीच में रोककर सोचने और भीगने के लिए विवश करती हैं।
उन्हें पढ़कर स्त्री की यातना एवं विवशता पर क्षोभ उत्पन्न होता है। इन
कहानियों से गुजरकर हम वही नहीं रह जाते, जैसा हम पहले होते हैं। इनमें ग्रामीण
समाज का पूरा ठाठ व्यक्त हुआ है, जहां विकृतियों, विषमताओं और विडम्बनाओं से
हमारा सामाना होता है। शिवमूर्ति परिवर्तन की प्रक्रिया को अपनी आंखों से ओझल नहीं
होने देते। उनकी कहानी ‘कसाईबाड़ा’ की शुरूआत शनिचरी के अनशन से हुई है, जो
ग्रामीण समाज के लिए एक नयी परिघटना है। यह एक राजनीतिक प्रतिकार है, जो सामन्तवादी
व्यवस्था में सम्भव नहीं होता। हालांकि भारतीय लोकतन्त्र दलितों-वंचितों के
प्रति अपेक्षा के अनुरूप संवेदनशील नहीं है। फिर भी इसमें प्रतिरोध के लिए गुंजाइश
जरूर है। शनिचरी इसी गुंजाइश का इस्तेमाल करती है। यह आवश्यक नहीं कि हाशिये के
लोगों का प्रतिरोध सार्थक परिणाम को प्राप्त ही कर ले, किन्तु राजनीतिक चेतना के
प्रसार के साथ इसमें अपने अधिकारों के प्रति सजगता तथा प्रतिरोध की चेतना का विकास
हो रहा है। इस कहानी के लीडर और परधान दोनों शनिचरी के साथ छल करते हैं। परधान
खिरोधर सिंह आदर्श विवाह की आड़ में निर्धन परिवार की लड़कियों को बेचता है, जिसकी
परिणति होती है देह-व्यापार में। लोकतन्त्र की प्राथमिक इकाई के मुखिया का यह
आचरण जनसाधारण के मन में व्यवस्था के प्रति विश्वास कैसे जगा पाएगा? इस कहानी
के लीडर की सक्रियता विशुद्ध स्वार्थ से प्रेरित है। ‘आतंकित करने की हद तक स्पष्टभाषी’
अधरंगी परधान और लीडर को ‘राहु और केतु’ कहता है’ समूचे गांव में एक वही है, जो
खुलेआम शनिचरी के पक्ष में खड़ा है, लेकिन हर प्रकार से विवश। यह आजादी के बाद का
ग्रामीण यथार्थ है। कहानी सहज गति से आगे बढ़ती हुई ग्रामजीवन के परिवेश को सूक्ष्मता,
किन्तु संवेदनशीलता के साथ उद्घाटित करती है। कसाईबाड़ा ग्राम समाज का भयावह
प्रतीक है। शिवमूर्ति की दृष्टि में समूची व्यवस्था भ्रष्ट और संवेदनहीन हो
चुकी है। कहानी को और अधिक तीखा बनाने के लिए दरोगा
के चरित्र को रचा गया है, जो शनिचरी की वेदना को सुनने और उसे न्याय दिलाने के स्थान
पर उलटे उसे ही अपमानित-प्रताड़ित करता है। वह
रामबुझावन उर्फ लीडर पर रोब दिखाना चाहता है, जबकि लीडर सोचता है कि ‘आखिर इतने
दिनों से प्राइमरी स्कूल में बुद्धि खर्च करने से बचाते आए हैं तो किस दिन के
लिए?’ शिक्षक के कर्तव्य से विमुख लीडर देश के अधिसंख्य अध्यापकों का प्रतिनिधि
चरित्र है। परधान और लीडर दोनों संवेदनहीन, कुटिल और घोर स्वार्थी हैं। जो लीडर
अपनी पत्नी को यह कह सकता है कि ‘अरे गांव की साली, परधान तेरे भतार को बनना है
कि गांववालियों के?’ वह शनिचरी को न्याय दिलाने के लिए कैसे चिन्तित हो सकता है।
अधरंगी गांव वालों को बार-बार हिजड़ा कहता है, क्योंकि वे अपनी आंखों से देखकर भी
अन्याय का विरोध नहीं कर पाते। अधरंगी की चेतना में कोई उलझाव नहीं है, लेकिन
अकेले अन्याय से टकराने का सामर्थ्य नहीं है। हमारे गांव आज भी अन्याय के
विरूद्ध सामूहिक प्रतिरोध की चेतना से दूर हैं। परिवेश सामन्ती मूल्यों-मान्यताओं
से अब भी प्रभावित हैं।
शिवमूर्ति
ने ग्रामीण समाज में गहरे तक धंसे विचार, व्यवहार, संस्कृति, रीति-रिवाज एवं
धारणाओं को प्रश्नांकित किया है। यहां भेदभाव के अनेक स्तर हैं। जाति, लिंग और आर्थिक
सामर्थ्य के स्तर पर इसमें भिन्नता है। स्त्री के सन्दर्भ में देखें तो
शनिचरी, परधानिन और लीडराइन में जाति के अलावा कोई ज्यादा फर्क नहीं है। परधान और
लीडर दोनों ही पुरूष पात्र अपनी-अपनी पत्नियों को मूर्ख, असभ्य और नालायक समझकर
उनका बार-बार अपमान करते हैं। शिवमूर्ति इस दृष्टि का विखण्डन करते हैं। वे
दिखाते हैं कि ग्रामीण समाज में स्त्री जातिगत एवं लिंगगत दोनों विषमताओं की
शिकार है। इस मामले में वह निपट अकेली है। पुरूष निहित स्वार्थ के लिए उसका इस्तेमाल
जरूर करते हैं। परधानिन सपने में बड़बड़ाती हैं, ‘ई गांव लंका है। इहां लंका दहन
होवेगा। रावन तू ही हो। लीडर बना है भिभीखन। तोहरे दूनों के चलते गांव का सत्यानाश
होवेगा। होइ रहा है। बहिन-बिटिया बेचो। हमहूं का बेचि लेव। रुपया बटोरो।’ परधान
इसी परधानिन के हाथ से शनिचरी को जहर मिला दूध पिलवाकर अनशन का ही नहीं, उसके जीवन
का भी अन्त कर देता है। यही नहीं, वह अपनी पत्नी के बारे में सोचता है कि ‘अब
कुछ कहेगी साली तो डरा दूंगा कि दूध तो तूने ही पिलाया था। तूने ही मिलाया होगा जो
कुछ भी मिलाया होगा दूध में।’ एक पति की अपनी ही पत्नी के बारे में ऐसी सोच किस
मनोवृत्ति की परिचायक है, बताने की आवश्यकता नहीं। परधान का अपनी पत्नी के साथ
छल एवं विश्वासघात पुरूष की चित्तवृत्ति का ही नहीं, एक बडे़ मानवीय संकट का
द्योतक है।
परधान और
लीडर दोनों ही शनिचरी के जीवन-मृत्यु के लाभार्थी हैं। दोनों ही अपने-अपने ढंग से
उसे प्रताडित और शोषित करते हैं। गांव में रहने वाली निचली जातियों के साथ होने
वाले इस प्रकार के अन्याय-अत्याचार भारतीय राजनीति में विक्षोभ नहीं पैदा करते,
न ही साहित्यिक लेखन में इन्हें प्राथमिकता मिलती है। शिवमूर्ति के लेखन में आये
जीवन-यर्थाथ के ये टुकडे़ हिन्दी कथा साहित्य में आवश्यक एवं सार्थक हस्तेक्षेप
हैं। शिवमूर्ति की सभी कहानियां ग्रामीण जीवन पर ही आधारित हैं। अन्तर सिर्फ काल
एवं आयाम का है। ऊँची जातियों का तरीका बदला है, सोच नहीं। आचरण में अधिक जटिलता आ
गयी है। यही कारण है कि शनिचरी परधान और लीडर के मन्तव्य को समझ नहीं पाती।
सामूहिक विवाह के नाम पर परधान उसकी बेटी रूपमती को बेच देता है, जबकि लीडर न्याय
दिलाने का झांसा देकर उसके खेत अपने नाम करवा लेता है। मन्त्री बनने की महत्त्वाकांक्षा
पाले लीडर का व्यक्तिव परधान से अधिक जटिल है। उसमें दायित्वहीन शिक्षक, अहंकारी
पुरुष, संवेदनहीन पति और भ्रष्ट राजनेता की छवियां परस्पर घुल-मिलकर झिलमिलाती
हैं। अगर उसकी दृष्टि में लिडराइन मूर्ख, अनपढ़, फूहड़ और भेदस ही नहीं, अपमान एवं
उपेक्षा के लायक है; तो इससे स्पष्ट होता है कि स्त्री के प्रति समाज के
सामूहिक दृष्टिकोण में आज भी सकारात्मक बदलाव नहीं आया है। शनिचरी को निचली जाति
का होने के कारण कठिन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। परधानिन और लिडराइन को
पुरुष के दम्भपूर्ण आचरण से बात-बात पर अपमानित होना पड़ता है। ये दोनों स्त्रियां
अपने-अपने पतियों के छद्म एवं स्त्री-विरोधी सोच का समर्थन नहीं करतीं। वे क्षुब्ध
हैं, लेकिन कुछ कर नहीं पातीं। ‘अकालदण्ड’ की सुरजी के पास ‘प्रकृति से मिला गोरा
रंग, पानीदार आंखें, बरबस खींच लेने वाला बोलता चेहरा’ है, जिस पर ‘भैंसे जैसा
बडे़-बडे़ काले बालों वाले उघड़ा शरीर, लम्बी सफेद दाढ़ी-मूंछ और ‘बन बिलार’ जैसी
खीस वाले सिकरेटरी की नजर है।
अकाल से
त्रस्त गरीबों के लिए सिकरेटरी ‘अन्नदाता का अवतार’ है। वह भ्रष्ट राजकीय व्यवस्था
तथा आवारा पूंजी का मिला-जुला प्रतीक है, जो किसी भी नियन्त्रण से परे है। चारों
तरफ से ऐसे ही गीधों से घिरी सुरजी की झोपड़ी की
कुल सम्पत्ति है ‘पाव-डेढ़ पाव सत्तू’। ‘सिकरेटरी की जलती आंखें और लार टपकाती
खीस’ लगातार उसका पीछा करती हैं। बिडम्बना यह है कि मनुष्यता के सीमान्त पर
अवस्थित सिकरेटरी सुरजी को पुण्य का पाठ पढ़ाने में संकोच नहीं करता, ‘‘दूसरे का
दु:ख-दर्द दूर करने से बढ़कर कोई पुन्न नहीं है सूरजकली।’’ यह दु:ख सूरजकली के
शरीर को भोगकर ही दूर हो सकता है क्या? सूरजकली को पुण्य नहीं, पेट भरने के लिए
अनाज और मानवोचित गरिमा की दरकार है, जिसे कोई भी उपलब्ध कराने के लिए तैयार नहीं
दिखता। शिवमूर्ति की कहानियों को पढ़कर लगता है कि उनके अधिकांश पुरुष पात्र
स्त्रियों का आखेट करने के लिए व्यक्तिगत अथवा सामूहिक स्तर पर सन्नद्ध हैं। स्त्री
पात्रों के बरअक्स उनका चरित्र स्वार्थ, कामुकता, कर्तव्यविमुखता, अवसरवादिता
एवं अविश्वसनीयता से कूट-कूटकर भरा है। कोई स्त्री इनके चंगुल से निकल जाए तो यह
उसका ‘भाग्य’ है। ऐसा भी नहीं कि शिवमूर्ति के स्त्री पात्र प्रतिवाद और संघर्ष
नहीं करते, लेकिन कुछ दूर आगे बढ़ने पर उन्हें चारों तरफ से घेर लिया जाता है।
शिवमूर्ति पुरुष जाति की आदिम बनावट और जड़तायुक्त सोच पर भारी चोट करते हैं।
‘‘अकेले बाहर नहीं निकलना। जंगल-सिवार नहीं जाना। अकेले कमाकर खिलाऊंगा उमर भर।’’
ऐसी सलाह और भरोसा देने वाला ‘अकाल दण्ड’ की सुरजी का ‘‘मरद साल भर पहले गांव
छोड़कर निकला है, इस बूढ़ी को उसके गले में बांधकर और उसे छोड़ गया है यहां गीधों
से देह नोचवाने के लिए।’’ सुरजी में मुक्ति की चाहत है, लेकिन वह आत्मीय सम्बन्धों
के सूत्र को तोड़ नहीं पाती। कहीं एक झिझक और दायित्वबोध है, जिससे उसके पांव
बंधे हैं। ‘‘इस गोरी चमड़ी और दप-दप जलती रूप-राशि का क्या करे वह? दुर्दिन की
मार भी जिसका तेज मन्द नहीं कर पा रही है। उसे अपने परदेशी पति की याद आ रही
है।’’ इस ‘रूपराशि’ को पाकर सुरजी को प्रसन्नता नहीं, सन्त्रास की अनुभूति होती
है। निम्न जाति में पैदा होना भी इसका एक कारण है। भूलें नहीं कि ‘अकालदण्ड’ को
भोग रही सुरजी ग्रामवासिनी है, जहां का परिवेश आज भी अपने स्त्री-विरोधी सोच के
साथ ठस, जड़ तथा दलित-विरोधी है। ऐसे में यदि सुरजी ने अपनी परिस्थितयों से समझौता
कर लिया, तो इसमें अस्वाभाविक कुछ भी नहीं है। पेट के लिए समझौता करने वाली यह
सुरजी अपनी देह से समझौता नहीं करती। इस स्थिति में भी वह कामातुर सिकरेटरी को झिड़कते
हुए कहती है, ‘‘मुंह झौंसि देब दहिजार के पूत।’’ सुरजी में धिक्कार का साहस है,
वह शिवमूर्ति के स्त्री पात्रों का वास्तविक चरित्र और पहचान है। शिवमूर्ति के
स्त्री पात्र पुरुषों के लिए ‘गीध’ और गांव के लिए ‘कसाईबाड़ा’ जैसी संज्ञाओं का
प्रयोग करते हैं तो वे अपने परिवेश की उस भयावहता की अनुभूति करा रहे होते हैं,
जिसमें स्त्री जाति को पुरुषसत्ता की यातना, शोषण, बर्बरता और जीवन के अभावों से
जूझना पड़ता है।
इस कहानी
में शिवमूर्ति ने मिथक का आश्रय लेकर सिकरेटरी के चरित्र की शल्यक्रिया करते हुए
लिखा है, ‘‘उनके पसीने में इतनी ताकत आ गयी है कि मकरध्वज जैसा पुत्र पैदा हो
जाए। कहां नहीं हैं उनके पसीने के मकरध्वज?’’ वेदानन्द के बरअक्स सिकरेटरी को
खड़ा करके उसके चरित्र के विद्रूप को गहरे रंगों से उभारा गया है। सुरजी के साथ
यौन-सम्बन्ध बनाने के प्रथम प्रयास में विफल सिकरेटरी सोचता है कि ‘‘उमर रीत गयी
इस राह चलते, कभी ऐसी आन-बान वाली जनाना से पाला नहीं पड़ा। जितना रूप, उतना ही
नखरा। प्राण से प्यारी दाढ़ी का आधा बाल बीन लिया है साली ने। बिल्ली की तरह
सारा शरीर नोच डाला है।’’ वह अपनी कामान्धता में सुरजी के प्रतिरोध को आंकता है।
व्यवस्था का अंग होने का दर्प उसकी कामान्धता को पुनर्बलित करता है। सत्ता और
पूंजी के गठजोड़ ने ऐसा चरित्र ग्रहण कर लिया है, जिसमें निहित स्वार्थ,
संवेदनहीनता एवं अवसरवाद के प्रचण्ड आवेग के साथ ऐसा छल-प्रपंच और आकर्षण समाहित
हो गया है, जिसको पहचानना मुश्किल है। शिवमूर्ति ने बिना किसी शब्दाडम्बर के
मौजूदा समय के क्रूर यथार्थ को अंकित करने में सफलता पायी है। सुरजी को पाने के
लिए सिकरेटरी सामन्ती अवशेष रंगी सिंह को जिम्मा सौंपते हुए कहता है, ‘‘बेइज्जत
होने का बदला बेइज्जत करके ही निकालने की मेरी आदत है।’’ सवाल यह है कि रंगी सिंह
की बेटी माला को अपने तम्बू में बुलाकर सिकरेटरी ने उससे किस अपमान का बदला लिया
है? जिस रंगी ने सुरजी के बारे में कहा, ‘‘नीच जाति है तो दूध की धोयी होने का
सवाल ही नहीं पैदा होता। ये तो पेट से छल-छंद लेकर उपजती हैं। उसी की बेटी माला
सिकरेटरी के तम्बू में जाकर किस चरित्र का परिचय देती है? शिवमूर्ति ने निचली
जातियों के प्रति रंगी के पूर्वग्रह का रचनात्मक प्रतिकार करते हुए जो दृष्य
उपस्थित किया है, वह रंगी के अहं एवं सामन्ती श्रेष्ठताबोध को क्षण भर में ही
मिट्टी में मिला देता है। शिवमूर्ति के स्त्री पात्र ऊंची-नीची जाति’’ के नहीं,
सिर्फ स्त्री हैं, जिनके प्रति पुरुषों का रवैया एक जैसा है। सिकरेटरी के लिए
माला और सुरजी में कोई फर्क नहीं है। ये दोनों ही उसके लिए सिर्फ देह हैं।
शिवमूर्ति पुरुष के इस देहबोध पर कड़ी चोट करते हैं।
इस कहानी
में रंगी सिंह को उस सामन्ती ध्वंसावशेष का प्रतीक बनाकर प्रस्तुत किया गया है,
जो स्वाधीनता-प्राप्ति के पश्चात् सत्ता और पूंजी का दलाल बनकर अपने अस्तित्व
को बचाने के लिए संघर्ष कर रहा है। उसके पास प्रतिरोध की शक्ति नहीं बची है। आत्मग्लानि
में डूबे रंगी का धूमिल तेज और ठण्डा खून एक अदृश्य भय का परिणाम है। कामान्ध
सिकरेटरी सुरजी ही नहीं, रंगी के लिए भी उतना ही भयावह है। कहानी के आखिरी हिस्से
में शिवमूर्ति ने सुरजी के माध्यम से बदलाव की उस चेतना को स्वर दिया है, जो
परिवेश की समस्त भयावहता के बावजूद अस्मिता एवं सम्मान के लिए साहस के साथ प्रतिकार
करती स्त्री को स्वायत्त पहचान देने में सहयोग कर रही है। कहानी का वाचक कहता
है, ‘‘अन्दर का दृश्य बड़ा भयानक है। सिकरेटरी बाबू पलंग पर नंग-धड़ंग पडे़ छटपटा
रहे हैं। सुरजी ने हंसिये से उनकी देह का नाजुक हिस्सा अलग कर दिया है और
पिछवाडे़ के रास्ते भागकर अंधेरे में गुम हो गयी है।’’ सुरजी का यह अप्रत्याशित
शहरी-शिक्षित स्त्रियों के नारीवाद एवं उनके यान्त्रिक कर्मकाण्डों से सर्वथा
भिन्न है। इसमें एक अनपढ़ ग्रामीण स्त्री की यातना, छटपटाहट, विवशता और संघर्ष
के साथ-साथ उसकी अदम्य जिजीविषा, प्रतिरोध की चेतना एवं अपराजेय साहस को जिस कोण
से प्रस्तुत किया गया है, वह कहानी को मार्मिक तथा मूल्यवान बना देता है। सुरजी
अपने ‘अकाल-दण्ड’ को स्वीकार करते हुए मुक्ति के एक नये रास्ते पर निकल पड़ती
है। यह रास्ता उसका अपना है, स्व अन्वेषित। तम्बू में जनेऊ से पीठ खुजलाते
सिकरेटरी के सामने सुरजी की उपस्थिति कथित श्रेष्ठता के छद्म को अनावृत करने
वाली जलती अग्निशिखा जैसी है।
‘सिरी उपमा जोग’ कहानी में ‘लालू की
माई की चिट्ठी’ का आरम्भ होता है ‘‘सरब सिरी उपमा जोग, खत लिखा लालू की माई की
तरफ से, लालू के बप्पा को पांव छूना पहुंचे...।’’ पारम्परिक ग्रामीण शैली में
लिखा यह पत्र उस स्त्री का है, जिसका पति प्रशासनिक अधिकारी बनने के बाद दूसरा
विवाह करके पहली पत्नी और बच्चों को भूलकर अपने पारिवारिक कर्तव्य से मुंह मोड़
लेता है।
गरीबी के
दिनों में गहने बेचकर और ताजी रोटियां खिलाकर पति को अफसर बनाने में सहयोग करने
वाली लालू की माई का साहस, जिजीविषा, संघर्ष, त्याग, तपस्या और आस्था का चित्र
बनाकर शिवमूर्ति ने इस कहानी में उसे अप्रत्याशित ऊंचाई पर खड़ा कर दिया है।
लालू की माई की छठी इन्द्रिय को कौन-सा भान होता है कि वह अपने पति से कह बैठती
है, ‘‘अब मैं आपके ‘जोग’ नहीं रह गयी हूं, कोई शहराती ‘मेम’ ढूंढिए अपने लिए।’’ यह
स्त्री के त्याग एवं निस्पृहता की पराकाष्ठा है। यह गांव की स्त्री है। अनपढ़
लालू की माई परम्परा से अनभिज्ञ नहीं है। स्वयं को सीता का प्रतीक मानकर अपने
भवितव्य से समझौता करने वाली लालू की माई बुद्धिहीन नहीं, भावुक और संवेदशील है।
वह अपने पति को आगे बढ़ाकर स्वयं को बहुत पीछे छोड़ देती है। शिवमूर्ति ने इस कहानी
की रगों में जो वेदना, यातना और पीड़ा भरी है, उसे
आज के संवेदनहीन समय में महसूस करना आसान नहीं है। अपनी शहराती बीवी के रोब से दबे
लालू के बाप की निरीहता एवं असम्पृक्तता पर पाठक को गुस्सा आता है, क्योंकि
उसके छद्म ने लालू और उसकी मां को उपेक्षा एवं यातना के दलदल में हमेशा के लिए
धकेल दिया है। लालू का बाप पाठक की दृष्टि में इस कहानी का
सबसे उपेक्षित पात्र है, जिसका अपना कोई व्यक्तित्व नहीं है। वह मशीन का एक पुर्जा
भर नजर आता है। इस कहानी में एक ओर है लालू की माई का त्याग, सन्तोष और क्ष्ामाशीलता तो दूसरी ओर है लालू के बाबू की संवेदनहीनता जिसमें
स्वार्थ एवं छद्म की कालिमा घुली-मिली है। इतने ऊंचे पद पर होते
हुए कोई इतना निरीह कैसे हो सकता है कि वह अपनी पहली पत्नी के बारे में दूसरी पत्नी
के अपमानजनक शब्दों को चुपचाप पी पाए? पहली और दूसरी पत्नियों को एक-दूसरे के
बरअक्स रखकर देखें तो गांव-शहर और अनपढ़-शिक्षित का फर्क मालूम हो जाएगा। एक में
निस्पृहता, त्याग, शालीनता एवं आत्मीयता
है, तो दूसरी में एकाधिकार, अपरिचय, कर्कशता और सर्वग्रासी मनोवृत्ति। दूसरी पत्नी ममता को विद्वज्जन भले
ही अधिकार चेतना-सम्पन्न सजग स्त्री के रूप में व्याख्यायित करें, किन्तु लालू की माई के बारे में उसकी टिप्पणी को तो अनावश्यक, अशालीन, संवेदनहीन और स्त्री-विरोधी ही कहा जाएगा।
उसे नहीं मालूम कि वह अपने पति की जिस पद-प्रतिष्ठा एवं धन का उपभोग कर रही है, उस पर पहला अधिकार लालू की माई का ही है। उस अधिकार-चेतना का क्या मतलब, जो स्त्री को इतना स्वार्थी, अशिष्ट और हिंसक
बना दे? जो दूसरी स्त्रियों के प्रति इतनी निर्मम हो, वह स्त्री
कैसी? क्या यही स्त्री का बहनापा है, जिसे नारी आन्दोलन
प्रतिष्ठित करना चाहता है? शिवमूर्ति की कहानियों में उन्हीं स्त्री पात्रों को
सहानुभूति मिली है, जिनकी सोच में सकारात्मकता, जीवन में सक्रियता और न्याय के लिए संघर्षशीलता है। आखिर वह कौन-सा ‘राज-पाट’ है, जिसे पाकर लालू की माई सुख-सम्पन्नता का जीवन व्यतीत कर रही है लालू को अपने ही बाप की चौखट पर
आकर ‘बदमाश’ होने की सजा
भुगतनी पड़ती है? ममता की बेटी की चोट से लालू का माथा कट
जाना और चपरासियों के लड़कों द्वारा उसकी पिटाई का दृश्य प्रस्तुत करके शिवमूर्ति
ने मानवीय सम्बन्धों से जुड़े कुछ बडे़ सवाल उठाये हैं। इनका विश्लेषण यान्त्रिक
ढंग से नहीं, गहरी संवेदनशीलता के साथ ही किया जा सकता है। कहानीकार ने लालू का एक
चित्र खिंचा है, ‘‘जैसे मरुभूमि में
खड़ा हुआ अवशेष जिजीविषा वाला बबूल का कोई शिशुक्षाड़,
जिसे कोई झंझावात डिगा नहीं सकता, कोई तपिस सुखा नहीं सकती।’’ पिता की उपेक्षा के बावजूद लालू की सहनशीलता उस
अधिकार-चेतना से सर्वथा भिन्न है, जिसे हम अपने चतुर्दिक परिवेश में
निरन्तर उच्च स्वर में सुनते रहते हैं। ‘चबूतरे पर गांव की अनुपस्थिति से लालू के बाप को चैन मिलने की बात का उल्लेख
करके शिवमूर्ति ने गांव और शहर के बीच बढ़ती दूरी का संकेत कर दिया है। कहानी
पाठक के मन में लालू की माई के प्रति सहानुभूति ही नहीं,
करुणा उत्पन्न करती है। इस कहानी में लालू की माई अपनी उपेक्षा को लेकर कोई
विरोध नहीं करती, लेकिन दयनीयता क्षुब्ध करने वाली है। कष्ट
और वेदना को चुपचाप सहन कर लेना उसे अप्रत्याशित ऊंचाई देता है, जिसे ममता जैसी स्त्री सपने में भी नहीं छू सकती। लालू की माई की वेदना
इतनी सघन है कि कहानी में उसका प्रभाव कई गुना बढ़ जाता है। आश्चर्य नहीं होना
चाहिए कि उन्होंने अपने पति को शिक्षित-शहरी स्त्री से
विवाह करने की सलाह दी। वे ऐसा न करतीं तो भी उनका अधिकारी
पति वही करता, जो उसने
किया। लालू का बाप आज के कठोर हृदय, संवेदनहीन एवं पाखण्डी पुरुष
का प्रतिनिधित्व करता है।
‘भरतनाट्यम’ की पहली पंक्ति
में एक कर्कश ध्वनि सुनाई पड़ती है, ‘‘अभी तुझे भिनसार नहीं हुआ है क्या रे?...साला,
शोहदों की तरह!... अगर चौथी बार मूस भी पैदा हो गया तो बिना खेती-बारी में हिस्सा
दिए अलग कर दूंगा।’’ यह एक बाप का ‘क्रोध’ और घृणा से
चिलचिलाता हुआ स्वर है, जो कहानी के नायक ज्ञान को निरन्तर सन्त्रस्त करता
रहता है। ज्ञान बेरोजगार है, उसके तीन बेटियां हैं और यही
बाप की नजर उसका सबसे बड़ा अपराध है। बाप की नजर में बेटा-बहू दोनों ही अपराधी और
परिवार के लिए निरर्थक एवं अनुपयोगी हैं। शिवमूर्ति ने यहां बदलाव की आंधी के
बरअक्स ग्राम समाज की स्त्री–विरोधी सामूहिक
चेतना को अभिव्यक्त किया है, जहां ढेरों पूर्वग्रह एवं मिथ्या धारणाएं समूची भयावहता
के साथ मौजूद हैं। यह चेतना पीढ़ी दर पीढ़ी संक्रमित होती रहती है। बाप की चेतना
मां तथा भौजाई को भी आक्रान्त किए हुए है, ‘‘सांड़ बनाना चाहती है भतार को। तीन-तीन बेटियां
बियाने के बाद भी गर्मी कम नहीं हुई है, पलटन तैयार करने की कसम खाकर आयी
है। मायके से। इस हरजाई की कोख में लड़का फल सकता है भला!’’ परिवार ज्ञान और उसकी पत्नी के लिए क्रमश: ‘शोहदा’ एवं ‘हरजाई’ जैसे शब्दों का
प्रयोग करता है। यहां भी लैंगिक भेदभाव है। हरजाई में चरित्रहीनता का जैसा घनत्व
है,
वैसा शोहदा में नहीं है। समाज में स्त्री का चरित्रहीन होना सर्वस्वीकृत है।
लड़का पैदा न होने के लिए भी स्त्री ही उत्तरदायी है। यह धारणा स्वयं में
अवैज्ञानिक एवं निराधार है, किन्तु पितृसत्तात्मक समाज को
इससे कोई मतलब नहीं है। शिवमूर्ति हमारे समकाल में गहराई तक धंसी इस विडम्बनापूर्ण
स्थिति को बड़ी बारीकी से देखते हैं और परिवार की गतिकी को उसके भिन्न-भिन्न
आयामों के साथ उद्घाटित करते हैं। उनका कथाकार मन रेणु की तरह गांव की रंगीनी पर
मुग्ध नहीं होता, उसकी विकृतियों को उभारता है, प्रत्याख्यान करता है। ‘भरतनाट्यम’ में कई नाटकीय मोड़ आये हैं। इनसे कहानी की
संरचना संश्लिष्ट, किन्तु रोचक एवं विस्तृत हुई है। पक्षपात एवं उपेक्षा
के कारण नायक को बेटियों के व्यवहार में प्रकट होने वाली दीनता एवं असमय प्रौढ़ता
कचोटती है। जीवन-स्थिति का ऐसा दबाव कि वह बेटियों पर कभी अपना प्यार भी प्रकट
नहीं कर पाता। कभी उसके मन में आता है, ‘‘मंड़हे में पूजा कर रहे बाप का शंख-घडियाल उठाकर गड़ही में फेंक दूं।’’ सगुन के सारे प्रयास निष्फल हो जाते हैं। न
ज्ञान को लड़का पैदा होता, न ही नौकरी मिलती है। इनमें पहले का सम्बन्ध जैविकता
से है तो दूसरे का व्यवस्था से, लेकिन ज्ञान के पिता की
दृष्टि में इन दोनों ‘अवगुणों’ के लिए वही उत्तरदायी है। अधिकारी को हस्ताक्षर
के बदले पैसा चाहिए, क्योंकि ‘‘साहब निरबंसिया
तो हैं नहीं। अभी दो बहनों की शादी करनी है...।’’
भ्रष्ट
व्यवस्था का कृपापात्र बनने के लिए चापलूसी और पैसा दोनों जरूरी है। ज्ञान एक
आदर्शवादी पात्र है। वह परिवार और व्यवस्था में कहीं भी ठीक नहीं बैठता। ज्ञान
की पत्नी भी उसे अयोग्य समझती है। उसके मन में बेटा पैदा करने की इतनी तीव्र
कामना है कि यौन-संसर्ग के लिए वह अपने जेठ को बुला लाती है। ज्ञान अपनी आंखों के
सामने पत्नी की कोठरी से उसे बाहर निकलते देखता है, लेकिन चुप रह जाता है।
हताशा और एकाकीपन की मनोदशा में ज्ञान की संवेदना मृतप्राय हो गयी है। आदर्श और
यथार्थ के बीच फंसा ज्ञान जिस पत्नी को अपना अन्तिम आलम्ब समझकर उसके लिए कपड़े
और प्रसाधन सामग्री लाता है, वह खलील दर्जी के साथ कलकत्ता
भाग जाती है। रास्ते भर वह अपने जिस आदर्श को छोड़कर व्यावहारिक बनने का सपना
बुनता है, वह घर पहुंचते ही चकनाचूर हो जाता है। यह हमारे
बदलते आत्मीय सम्बन्धों की एक बानगी है, जिसमें एकनिष्ठता
के लिए स्थान सिकुड़ गया है। जैसे-जैसे चेतना बदल रही है,
इच्छा-आकांक्षाएं बलवती हो रही हैं; उसी अनुपात में पुरानी
मान्यताएं टूट रहीं हैं। शिवमूर्ति ने ज्ञान के इस प्रश्न से कि ‘नाक है आपके पास?’ उसके पिता के सोच का प्रत्याख्यान किया है। कहानी के भीतर से यह प्रश्न
भी उठता है कि कौन-सी नैतिकता है, जो पुत्र-प्राप्ति और घर की सीमा में बहू को बांधे रखने
के लिए ससुर को उसके पुरुषत्व का बोध कराती है? क्या इसे निर्लज्जता नहीं
कहेंगे? ग्रामीण समाज अपनी जिस सहजता, नैतिकता, मर्यादा और आदर्शवादिता के लिए ‘कुख्यात’ रहा है,
उसे शिवमूर्ति ने प्रश्नांकित किया है। कहानी के अन्त में ज्ञान का भरतनाट्यम
करना प्रथमदृष्टया नाटकीय, अटपटा अथवा स्थिति के प्रतिकूल
लग सकता है, किन्तु बारीकी से देखें तो समूची कहानी में
ज्ञान कहीं भी एक सहज-स्वाभाविक पात्र नहीं बन पाता। यह कहानी कार्य-कारण सम्बन्ध को दृष्टिपथ में रखते हुए नैतिकता,
आदर्श एवं आत्मीय सम्बन्धों में आई विकृति को उभारती है। ज्ञान की निराशा और
हताश मन:स्थिति का चित्र प्रस्तुत करने के बजाय कहानीकार ने उसे एक ऐसे ‘व्यक्ति’ के रूप में रचा
है,
जो अपने परिवार तथा चतुर्दिक परिवेश चेतना से त्रस्त होकर संवेदनशून्य हो गया
है। वह कोई प्रतिवाद नहीं करता। पत्नी के घर छोड़कर भाग जाने पर भी यही सोचता है
कि ‘चली गयी, चलो, जहां भी रहे, सुखी रहे... लेकिन भागना ही था तो एक
दिन पहले भाग जाती। मैं टूटने से बच जाता...घूस देन से...पथभ्रष्ट होने से...।’ यह स्वाभाविक मन:स्थिति का चित्र नहीं है।
शिवमूर्ति ने ज्ञान की विविशता को कारुणिक अन्त में पर्यवसित किया है। सन् 1980
में प्रकाशित कहानी ‘कसाईबाड़ा’ से लेकर 2013 में ‘ख्वाजा, ओ मेरे पीर’ तक की रचनात्मक
यात्रा में शिवमूर्ति ने ग्रामीण समाज के विविध पक्षों का जो चित्रण किया है,
उसमें विकास एवं गतिशीलता है। अनुभव एवं संवेदना की सक्रिय भूमिका है। इन कहानियों
में स्त्रियों, दलितों एवं किसानों की यातनाओं और चुनौतियों
को सहृदयता के साथ उभारने वाले शिवमूर्ति की पक्षधरता स्पष्ट है।
‘तिरिया चरित्तर’ ने शिवमूर्ति को कहानीकार के रूप में विधिवत प्रतिष्ठित किया। इस कहानी
की विमली चेतना के धरातल पर ‘कसाईबाड़ा’ की शनिचरी का विकसित रूप है। अभावग्रस्त
जीवन-स्थिति से जूझते हुए उसके चरित्र का विकास हुआ है। वह ‘नौ-दस साल की उमर में’ ही भट्ठे पर मजूरी
करके मां-बाप के दायित्व को अपने ऊपर ओढ़ लेती है। ‘‘अब तो उसके बाप को ‘चाह’ की ऐसी आदद पड़ गयी है कि बिना ‘चाह’ के उसका लोटा ही
नहीं उठता।’’ शिवमूर्ति ने
उसके चरित्र को जिस आत्मीयता के साथ गढ़ा है, उससे उनकी स्त्री–सम्बन्धी
दृष्टि का पता चलता है। कहानी के पूवार्द्ध में विमली के जीवन का वह पक्ष उद्घाटित
है, जहां वह मां-बाप, बकरी, भट्ठा, कुइसा, बिल्लर, डरेवर और मेले में निरन्तर आवाजाही करती है। ‘‘दुनिया भर की भूखी नजरों की भाखा पढ़-पढ़कर वह कब
की पण्डित हो गयी है’’, लेकिन
पण्डित होने मात्र से पुरुषसत्ता से लड़ना, उसे पराजित करना
सुनिश्चित नहीं हो जाता। कहानी के उत्रार्द्ध में विमली को पितृसत्ता के सामने
लांछित एवं दण्डित होते दिखाया गया है। पितृसत्ता की अभिव्यक्ति भिन्न-भिन्न
रूपों में होती है। इसमें छल है। जब यह अपने प्रकृत रुप में सामने आती है, तब इसकी भयावहता मानवीय गुणों का निषेध करते हुए स्त्री के अस्तित्व को
निगल जाती है। ‘तिरिया चरित्तर’ पर विचार करते हुए मन में एक सवाल उठता है कि जो
विमली मायके में एक साथ रोमांस और संघर्ष करते हुए बिल्लर की कलाई में दांत गड़ा
सकती हो,
वह कैसे अपने अदृश्य एवं अनुपस्थित पति के बिना ससुराल जाने के लिए तैयार हो जाती
है? क्या वह अपने ससुर बिसराम की कुचाल और कामुकता को पहचान नहीं पाती अथवा
ससुराल में पहुंचकर अपनी दृढ़ता, साहस और ‘दुनिया की नजरों की भाषा’ पढ़ने का हुनर भूल जाती है? उसकी चेतना कुन्द
नहीं हुई है। बिसराम द्वारा धोखे से बलात्कृत होने के बाद वह उसे जलाकर मारने का
प्रयास करती है। स्त्री-मुक्ति और उसके अधिकारों की रक्षा के नाम पर चलने वाले
संगठन नगर-केन्द्रित हैं। ऐसे में सुविधाभोगी विरोध से किसी सकारात्मक परिवर्तन
की अपेक्षा करना व्यर्थ है। गांवों में रहने वाली स्त्रियों को पुरुष सत्ता के
विरुद्ध अकेले ही लड़ना पड़ता है। विभिन्न मुद्दों पर अलग-अलग राय रखने वाला
पुरुष समाज स्त्री के प्रश्न पर सारे मतभेदों को भुलाकर एकजुट हो जाता है।
शिवमूर्ति ने ‘तिरिया चरित्तर’ में जिन घटनाओं का समावेश किया है,
उनकी ग्रामीण यथार्थ से संगति बैठती है। विमली के जीवन की वास्तविक कहानी तो उसके
ससुराल पहुंचने के बाद शुरु होती है।
शिवमूर्ति
के लेखन की एक विशेषता यह है कि उनके पास ग्रामजीवन के सघन अनुभव, चित्र
एवं बिम्ब हैं। इन्हीं को लेकर वे अपनी कहानियों को सिरजते हैं। लोकजीवन से गहरी
रागात्मकता के कारण विमली की विदाई के प्रसंग को उन्होंने अत्यन्त कारुणिक बना
दिया है। यह प्रसंग संस्कृत के अमर कवि कालिदास की शकुन्तला की याद दिलाता है।
खान साहब, डरेवर और पाण्डे खलासी उसे उपहार देते हैं। बिल्लर
बारातियों की सेवा करता है और ‘निमरी बकरी’ अपनी पूंछ हिलाकर चिल्लाती है। पड़ोसिनें,
सखियॉं और भट्ठे की मजदूरनें दु:खी हैं। डोली उठते ही विमली चीत्कार कर उठती है, जिसकी अनुगूंज देर तक सुनाई पड़ती है। उसकी चीत्कार में स्त्री जाति की
नियति अन्तर्भुक्त है। लड़की का एक बार मायके से विदा होना जन्मभूमि, आत्मीय सम्बन्धों, पशु-पक्षियों, खेत-खलिहान और जाने-पहचाने परिवेश से उसका सदा के लिए पराया हो जाना होता
है। स्त्री की यह सनातन नियति कहानी के उत्तर-पक्ष को गहरी टीस से भर देती है।
शिवमूर्ति ने अपने प्रत्यक्ष अनुभव-सम्पदा, गांव की सोच
और संरचना को कहानी में इस तरह पिरो दिया है कि समूचे घटना-क्रम तथा ग्रामीणों के
परस्पर वार्तालाप से पाठक सहज तादात्म्य स्थापित कर लेता है। पितृसत्ता के
जाल को काट पाना आज भी स्त्री के लिए चुनौती है। शिवमूर्ति ग्रामजीवन के
संरचनागत यथार्थ के साथ ग्रामीणों के मनोविज्ञान पर भी गहरी पकड़ रखते हैं। विसराम
के दुराचार से सन्त्रस्त और अपनी मनोदैहिक यातना से टूट चुकी विमली का ससुराल से
भागना मुक्ति की दिशा में उठाया गया एक ऐसा कदम है, जिसे
गांव के ‘खोजी दल के सूरमा’ विफल कर देते हैं। एक ओर है अहेरियों की जकड़ में
छटपटाती विमली, तो दूसरी ओर हैं उसकी देह की छुअन के यौनिकता की अनुभूति में डुबाते ‘सूरमा’ : ‘‘कितनी मुलायम देह है-गुदगुदा मांस! दाब के
बैठो।...जो जहां पकडे़ है, वहीं मांसलता का आनंद ले लेना चाहता है। नोचते-कचोटते, खींचते, दबाते हाथ। पतोहू जिबह होती गाय की तरह ‘अल्लाने’ लगती है।’’
एक
शोषित-प्रताड़ित स्त्री का तमाशा बना देने की आदत को देखते हुए कैसे कहा जा सकता
है कि हमारा समाज लोकतान्त्रिक, सभ्य और संवेदनशील बन रहा है? पुरुष स्त्री की देह, चेतना एवं मुक्ति के प्रयासों को दुगुनी शक्ति से दबाने में लगा हुआ है।
इस कहानी का विसराम पुरुष की सामूहिक सोच का मूर्त रूप है। शिवमूर्ति पहले पुरुष
के भीतर से इस सोच को खींचकर बाहर निकालते हैं, फिर उसे नंगा
करते हैं और अन्त में उस पर जोर की चोट करते हैं। वे कहानी के एक सिरे को जैसे ही
पंचायत के निर्णय से जोड़ते हैं, उसका अन्तर्निहित सत्य
सतह पर तैरने लगता है। बाल विधवा बिरजा की चुप्पी पंचायत के अमानवीय निर्णय में
सहायक बनती है। ग्रामीण समाज में स्त्री-प्रतिरोध की चेतना बिखरी और क्षीण अवस्था
में है। इस कहानी में शिवमूर्ति ग्रामजीवन के दुर्दान्त सत्य को उभारते हैं। ‘तिरिया चरित्तर’ की भयावह सच्चाई ‘ग्राम स्वराज’ और ‘न्याय सबके
द्वार’ जैसे जुमलों की धज्जियां उड़ाकर रख देती
है। गौरतलब है कि ‘तिरिया चरित्तर’ में पंचायत द्वारा दिया गया निर्णय प्रेमचन्द की
कहानी ‘पंच परमेश्वर’ जैसा नहीं है। दोनों कहानियों के प्रकाशन में
कम-से-कम सात दशक का अन्तराल है, लेकिन ‘तिरिया चरित्तर’ के घटना-क्रम को देखते हुए दोनों कहानियों की अन्तर्वस्तु
एवं रचना-दृष्टि का अन्तर भी स्पष्ट हो जाता है। ‘तिरिया चरित्तर’ में चित्रित गांव का मानस पूर्व की अपेक्षा अधिक जटिल हुआ है। पुरुष की
सोच आज भी मध्यकालीन आग्रहों से आक्रान्त है। पुरुष का पराक्रम अकेली स्त्री को
चारों ओर से घेरकर उसका आखेट करता है।
शिवमूर्ति
की कहानी ‘केशर-कस्तूरी’ अत्यन्त भावप्रवण रचना है। यह मन-मस्तिष्क पर
सीधे प्रभाव डालती है। यह छह बेटियों के पिता शिवमूर्ति की आत्मीयता का प्रमाण
है कि इस कहानी का वाचक सगी बेटी न होने पर भी केशर का कुशल-क्षेम जानने और उसके
सन्तप्त जीवन में प्रसन्नता भरने का प्रयास करता है। वाचक के निष्फल प्रयास और
अभावग्रस्त केशर की हताशाभरी जीवन-स्थिति के बीच वेदना का पहाड़ निरन्तर ऊंचा
होता जाता है। ‘‘केशर की आंखों से
भरभराकर आंसू निकले और टप-टप जमीन पर गिरने लगे। सिर झुक गया और दाहिने पैर का
अंगूठा आंगन के कच्चे फर्श को कुरेदने लगा।’’ पैर के अंगूठे
से धरती को कुरेदना सामान्य मनोदशा का परिचायक नहीं है। भाषा और शिल्प के प्रयोग
में शिवमूर्ति अत्यन्त सजग रचनाकार हैं। वे जानते हैं कि कब और कहां किस शब्द
का प्रयोग रचना को प्रभावशाली बनाएगा। उनकी कहानियों को पढ़ते हुए पाठक के भीतर
रसोद्रेक होता है। मन भीगता है। यह भीगना सिर्फ भावुक होना नहीं,
पात्रों की जीवन-स्थितियों तथा उनकी मन:स्थिति के प्रति संवेदनशील बनकर उनसे
तादात्म्य स्थापित करना है। इस अर्थ में शिवमूर्ति की कहानियां एक गम्भीर
दायित्व का निर्वहन करती हैं। समाज में बहुत-सी बेटियों की सच्चाई है कि वे
किशोरावस्था से सीधे वृद्धावस्था में धकेल दी जाती हैं। इस कहानी में शिवमूर्ति
ने कुछ लोकगीतों का उपयोग किया है। इनका एक-एक शब्द स्त्री की पीड़ा से गुंथा है, जो मन को गहरे अवसाद में डुबो देते हैं। इन पंक्तियों में वेदना का वह
अछोर समुद्र लहराता है, जिसकी मूक दहाड़ को सुनकर किसी
कठकरेज का भी सामान्य स्थिति में बने रहना आसान नहीं रह जाता। शिवमूर्ति की
भाषिक सामर्थ्य पाठक के सिर चढ़कर बोलती है। अभावों से जूझती केशर गृहस्थी के
बोझ से अचानक प्रौढ़ हो जाती है। उसे अपनी जीवन-स्थिति से समझौता करना पड़ता है।
वह भागती नहीं, सामना करती है। यही हमारे ग्रामजीवन की स्त्री
का सत्य है। कहानीकार ने स्त्री की समाजार्थिक स्थिति की अनुभूति कराने के लिए
जनकतनया सीता का जो सन्दर्भ ग्रहण किया है, उससे विवशता
अधिक सघन हो जाती है। केशर का पिहिकना सामान्य रुलाई नहीं है। यह स्त्री की
असह्य वेदना का करुण विस्फोट है। शिवमूर्ति ने केशर की इस जीवन-स्थिति को अपनी
संवेदनशील सर्जनात्मक सामर्थ्य से पाठक के मन पर अमिट कर दिया है। इस कहानी में
दु:ख का ऐसा सोता फूटता है, जो अपने आवेग में पाठक को बहा ले
जाता है।
‘ख्वाजा, ओ मेरे पीर!’ कहानी में शिवमूर्ति ने इसके प्रमुख पात्रों
मामा-मामी की असामान्य जीवन-स्थिति को एक क्षेत्र विशेष के पिछड़ेपन और सरकार की
उपेक्षा के साथ जोड़कर इसके प्रभाव को अधिक बना दिया है। कहानीकार को सम्बन्धों
की पहचान ही नहीं, उनका महत्व भी मालूम है, अन्यथा
आज के समय में सम्बन्धों की चिन्ता करने वाले कितने हैं? इस कहानी में तेजी से
टूट-बिखर रहे आत्मीय सम्बन्धों को जोड़ने का रचनात्मक प्रयास झलकता है। यह
कहानी मामा-मामी के संकल्प, पारिवारिक
दायित्व और प्रेम की साक्षी है। इसकी शिराओं में रागतत्व का अविरल प्रवाह है।
इसका वाचक मामा के प्रति आत्मीय व्यवहार करता है। बूढे़ मामा का मोतियाबिन्द और
‘कोई नहीं खोलावेगा।’ वाचक ही दायित्व निभाता है। मामा-भांजे का स्नेह
और मामा-मामी की कर्तव्यनिष्ठा दोनों उल्लेखनीय हैं। दोनों अपने-अपने
वचन एवं कर्तव्य से बंधे हैं। ऐसी वचनबद्धता और कर्तव्यबोध वर्तमान जीवन-जगत् में असम्भव है। फिर भी शिवमूर्ति ने इस कहानी में अगर ऐसा कर
दिखाया है तो यह युवा बहुल भारतीय समाज के सामने एक उदाहण है। जब समाज में कर्तव्य, प्रेम और आत्मीयता का तेजी से क्षरण हो रहा हो, तो
कहानीकार का प्रयोजन व्यापक यथार्थ के बरअक्स इसे एक युक्ति के रूप में प्रस्तुत
करना हो सकता है। माचा, बोरसी,
डोली-खटोली, लाठी, बिनवट और लम्बरदार
जैसे शब्दों का प्रयोग इस कहानी को उस कालखण्ड में खींचकर ले जाते हैं, जिसमें मामा-मामी बीत चुके वर्तमान की याद दिलाते हैं। बहुओं में खींचतान
और कलह, परिवार का विघटन, आमिना के साथ
मामा की निकटता, उनकी वापसी के लिए आमिना का किराया जुटाकर
देना, उसका गाया गीत और मामा की सजल आंखें कहानी की अन्तर्वस्तु
को व्यापक, गझिन और संवेद्य बनाते हैं। आमिना का रोना उसी
आत्मीयता की अभिव्यक्ति है, जिसे शिवमूर्ति अपनी कहानियों
में महत्व के साथ उभारते हैं। आमिना की रुलाई शिवमूर्ति की कथादृष्टि का हिस्सा
बन गयी है। मामा वेश्या के नग्न शरीर को देखकर कामातुर होने के बजाय उसकी
जीवन-स्थिति के प्रति करुणा से भर उठते हैं। कहानी के विकास में शिवमूर्ति ने
लोकगीतों का जो उपयोग किया है, वह समाज की विलुप्त होती
सांस्कृतिक धरोहर से जनसाधारण को जोड़ने की दृष्टि से भी उल्लेखनीय है। कर्तव्यबोध
और दाम्पत्य के प्रति अटूट निष्ठा ने मामी के चरित्र को अविस्मरणीय बना दिया
है। यहां मामी की ऊहापोह का अनुमान भी लगाया गया है, लेकिन
उनकी दृढ़ता और साहस ऊहापोह पर भारी पड़ते हैं। ‘‘किस दावे से बुलावें तुम्हारे मामा को भैने। उन्हें
हम लोगों से कोई लगाव नहीं है। यह तो गांठ बंध जाने का धरम है,
जो निभाते आये हैं।... पति का सहारा नहीं मिला तो बेटे के सहारे की आस में अंधेरी
उजेली रात में दो कोस बीहड़ पार करके उनके पास पहुंचती रही। ‘अपनी पसन्द के किसी भी आदमी से बेटा पाने की राह
दुनिया ने न रूंध रखी होती तो मैं उतनी दूर दौड़कर क्यों जाती?’ दाम्पत्य सम्बन्ध को निभाने के प्रति जैसा
आग्रह मामी में है, वैसा मामा में नहीं दिखता। यहां भी स्त्री को ही अपने ‘धर्म’ का निर्वाह करना
पड़ता है। यह एक ग्रामीण स्त्री है, जो मानिनी बनने की बजाय बेटा पाने
तथा परिवार पर पति की अदृश्य छाया को बनाये रखने के लिए अपने स्वाभिमान को
तिलांजलि देती है। शहरी मध्यवर्ग की स्त्री ऐसा नहीं कर सकती। साहित्य और समाज
में जिस स्त्री-विमर्श को देखा-सुना जाता है, उसका सम्बन्ध
मध्यवर्ग की स्त्री से ही है, जिसमें अधिकार की चेतना एवं
निजता की रक्षा का भाव प्रबल रूप में दिखाई देता है। ग्रामीण समाज की स्त्री में
अधिकार की अपेक्षा कर्तव्य की भावना अधिक मिलती है। उसे स्वतन्त्रता की अपेक्षा
सहयोग, साहचर्य एवं संरक्षण काम्य है। इस कहानी की मामी को
भी मामा से यही अपेक्षा रही, जो जीते जी कभी पूरी न हो सकी।
पियारी
नदी की रेती में जब दोनों का मिलन होता है तो मामा ‘मुख, वक्ष और नाभि से लेकर जांघों के मध्य तक चुम्बनों की झडी़ लगाकर देर तक
डूबते-उतराते रहे।’ इस राग-रंग के
चित्रण के पश्चात् कहानी मामा-मामी के जीवन की सान्ध्य बेला पर केन्द्रित हो
गयी है,
जहां दोनों की विवशता और अलंघ्य दूरी से साक्षात्कार होता है। जीवन के इस
उजाड़खण्ड में राग-रंग, इच्छा-आकांक्षाएं
और संकल्प-विकल्प न जाने कहां तिरोहित हो जाते हैं। मन के आंगन में उतर आती है
एक उदासी, जिसमें मामा-मामी दोनों डूबते-उतराते रहते हैं।
मामा-मामी दोनों की अपनी-अपनी शर्तें, विवशताएं और दायित्वबोध
रहे हैं। फिर भी दोनों एक-दूसरे से जुडे़ रहे। वाचक मामा को मामी के घर ले जाता
है। यह सम्भवत: दोनों की अन्तिम भेंट है। मामी ने दो ही रोटियां बनायी हैं। फिर
भी पति और भांजे को भोजन के लिए आमन्त्रित करती हैं, ‘‘चला दूनो जने एक-एक रोटी खाइल्या।’’ मामा जब जाने लगे तो ‘‘मामी झुकी कमर को लाठी के सहारे टेके खड़ी थीं।
उनके ओठ थरथराये, लेकिन आवाज नहीं निकली।’’ कहने को तो बहुत कुछ रहा होगा,
लेकिन भावावेग ने अभिव्यक्ति को थाम लिया। कुछ बोला न गया। यह थरथराहट कहानी का
मार्मिक स्थल है। बिछोह का यह पल मामी को नि:शब्द कर देता है। आत्मीय सम्बन्धों
के इस व्याकरण में कोई मिलावट या बनावट नहीं है। कहानीकार ने मामा-मामी के दु:ख
को शमित करने के लिए फगुआ, चुहल और रंग का समावेश किया है।
पद में सलहज लगने वाली रमेसर की दुलहिन आवाज मे मिठास घोलते हुए ‘ठनगन’ करती हैं,
थोड़ा हंसी-मजाक कि ‘‘फागुन में ससुराल
आए हैं तो बिना होली खेले कैसे चले जाएंगे?’’ गांव की यह रीति
आज भी उजड़े हुए वसन्त में थोड़ा-बहुत रस घोल ही देती है। दरअसल ग्रामीण समाज के
विद्रूप एवं पिछड़ेपन को अपनी कहानियों में उजागर करते हुए शिवमूर्ति ने गांव को ‘राग दरबारी’ वाली दृष्टि से
हटकर देखने की कोशिश की है। उनकी कहानियां अपरिचय के बीच परिचय,
कुरूप के बीच सुन्दर और तटस्थता के बीच आत्मीयता का सन्धान करती हैं, आस जगाती हैं। अकेला होते जाने के बावजूद साहचर्य की प्रतीति कराती हैं।
इनमें स्वरों की विविधता है, किन्तु कहानी के अन्त में
अगर मामा यह कह उठें कि ‘‘छिनरी ने पूरा
भिगो दिया। ठण्ड लग रही है।’’ तो समझना चाहिए
कि अभी सब कुछ खत्म नहीं हो गया है। कुछ बचा है, तभी तो उन्होंने पद में
सलहज लगने वाली रमेसर की दुलहिन को एक मीठी गाली देकर कृतार्थ किया।’’ सलहज को गाली देकर कृतार्थ करना सदियों से चली आ
रही परम्परा का निर्वाह करना है। ग्रामीण समाज में ऐसी परम्पराओं का निर्वाह
आवश्यक माना जाता है। शिवमूर्ति ने कहानी के विन्यास में ऐसे प्रसंगों का
समावेश करके गांव की वास्तविकता और उसके बारे में अपनी गहरी समझ का परिचय तथा
परिवर्तनशील ग्रामीण समाज में आत्मीयता के महत्वपूर्ण बिन्दुओं को चिन्हित किया
है। इससे पाठकों के बीच उनकी लोकप्रियता एवं विश्वसनीयता दोनों ही स्थापित हुई
हैं।
वे ‘बनाना रिपब्लिक’ में दलितों के भीतर आयी राजनीतिक चेतना तथा भारत की लोकतान्त्रिक व्यवस्था
में उनकी दावेदारी को युक्तियुक्त ढंग से प्रक्षेपित करते हैं। यह कहानी सामन्तवाद
के ध्वंसावशेषों की निर्णायक एवं लाभकारी भूमिका में बने रहने की छटपटाहट को व्यक्त
करती है। विधायिका तथा सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था ने दलितों को
राजनीति,
प्रशासन और शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश का जो अवसर दिया,
उससे उनके भीतर अधिकार और आत्मसम्मान की भावना का प्रादुर्भाव हुआ है। अब वे इन
अधिकारों तथा अवसरों को खोना नहीं चाहते। प्रधान पद का प्रस्ताव मिलने के बाद ‘बनाना रिपब्लिक’ का जग्गू जब ‘‘ठाकुर के दालान
से निकला तो उसका दिल धाड़-धाड़ कर रहा था। इतनी खुशी वह कैसे संभाले?’’ जिसे समाज में मानवोचित सम्मान नहीं मिला,
उसके सामने ग्राम प्रधान बनने का प्रस्ताव जग्गू को रोमांचित कर देता है। ‘‘लाखों की कुर्सी दूसरे के पास क्यों जाए?...सालाना
पन्द्रह-बीस लाख तक खर्च करने का चांस रहता है। मनरेगा की मद से तो चाहे जितना
निकालो। बस कागज का पेटा पूरा करते रहो।...वृद्धावस्था पेंशन,
विकलांग पेंशन, मिड डे मील और पता नहीं कितनी-कितनी मदों से
रुपया पानी की तरह बरसता है।’’ पंचायती राज व्यवस्था
का एक पक्ष यह भी है। ठाकुर ने ‘सोचा था इस बार
सीट निकालकर पिछली हार का बदला ले लेंगे तो इस आरक्षण ने सब मटियामेट कर दिया।’ जग्गू नयी पीढ़ी का प्रतिनिधि है। उसे आरक्षण की
शक्ति का अनुमान है। बदलाव की प्रक्रिया को वह निकट से देख रहा है,
लेकिन उसका बाप बदलू अतीत के अनुभवों से मुक्त नहीं हो पाता। उसमें अतीत का भय
है। जग्गू और बदलू के जीवनानुभवों में फर्क है। नयी परिस्थिति में जग्गू को अपना
ही बाप ‘घामड़’ दिखाई देता है।
सामन्ती
विचारों और धारणाओं का स्रोत अभी सूखा नहीं है। जमींदारी उन्मूलन के इतने वर्षों
बाद ऊंची जातियों के भीतर अंग्रेजी राज में भोगे गये विशेषाधिकारों के प्रति आज भी
आकर्षक है। सामन्तवाद के ध्वंसाववेषों को सत्ता, समाज एवं आर्थिक स्रोतों
पर अपनी पकड़ बनाये रखने का हरसम्भव प्रयास करते देखा जा सकता है। शिवमूर्ति ने
बदलते हुए ग्रामीण यथार्थ के सन्दर्भ में जातियों के अन्तर्बाह्य द्वन्द्व को
उभारा है। ‘‘ऐसी एक बड़ी
आबादी है,
जो आज भी जाति-व्यवस्था को ब्रह्मा की लकीर मानती है। वह मानती
है कि सवर्णों के गांव में दलित को परधानी की कुर्सी पर बैठाना सवर्णों के सिर पर
बैठाना हुआ।’’ जहां तक
लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के अन्तर्गत चुनावों का प्रश्न है,
इसमें सामाजिक वर्चस्व एवं आर्थिक हित दोनों ही जुडे़ हैं। एक वर्ग को सत्ता पर
अपनी पकड़ बनाये रखने की चिन्ता है, तो दूसरे में सत्ता का
स्वाद चखने की लालसा। इसीलिए ‘‘जग्गू को राम
सिंह का सबकुछ अच्छा लगता है। उसका चलना-फिरना, घूरना, अकड़ना। वह भी चाहता है कि राम सिंह की तरह अकड़कर चले। घुड़क कर बोले।’’ ‘बनाना रिपब्लिक’ के विन्यास में जो स्थितियां निर्मित हुई हैं,
वे यथास्थिति एवं उसके अतिक्रमण की द्वन्द्वात्मकता का परिणाम हैं। यह द्वन्द्वात्मकता
कहानी की परिणति के साथ समाप्त नहीं हो जाती, सम्भावना
छोड़ जाती है। जग्गू के मन में रामसिंह की तरह बनने की इच्छा-आकांक्षा का पैदा होना दलित-चेतना में हो रहे बदलाव का संकेत है, किन्तु कहानी के भीतर गहराई से झांकें तो यह भी दिखाई पड़ता है कि इस समुदाय
के भीतर एक ऐसा वर्ग बन रहा है, जो सत्ता तो पाना चाहता है, लेकिन समुदाय में उसका न्यायसम्मत वितरण करने का पक्षधर नहीं है। यह
मनोवृत्ति एक तरह से सवर्णवादी सोच का ही विस्तार है।
इस
कहानी की एक उल्लेखनीय स्त्री पात्र है फुलझरिया। उसकी दावेदारी ग्राम राजनीति
में आए महत्वपूर्ण बदलाव का संकेत है। विश्वविद्यालय से आये शिक्षित दलित युवकों
की दृष्टि में ‘असली स्वतन्त्र उम्मीदवार तो फुलझरिया
है।’ हालांकि इन युवकों पर भी घूस लेकर
फुलझरिया का प्रचार करने का आरोप लगता है। जिस ग्राम पंचायत को लोकतन्त्र की
प्राथमिक इकाई कहकर इसे मजबूत बनाने की वकालत की जाती है,
उसका असली चेहरा दिखाने में शिवमूर्ति ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। चुनाव जीतने के
लिए ‘बारहो बरन का भण्डारा’ भले दिया जाए, लेकिन ‘चूल्हे-चौके में अभी भी सोलहवीं शताब्दी चल रही
है।’ कहना न होगा कि पंचायत चुनावों ने
ग्रामीण समाज को प्रगतिशील बनाने की बजाय कई मामलों में इसे पीछे की ओर धकेल दिया
है। गांव के विकास के लिए आवंटित धनराशि से प्रधान और सम्बन्धित अधिकारियों का
पेट भर रहा है। जातिवाद और गुटबन्दी को बढ़ावा मिला है। सामुदायिकता और साहचर्य
की भावना तिरोहित हो गयी है। मनरेगा के नाम पर मिलने वाले करोड़ों रुपये देखते ही
देखते प्रधानों की आर्थिक स्थ्िाति में आमूलचूल परिवर्तन कर रहे हैं। जग्गू को
अपना प्रत्याशी बनाने वाले ठाकुर को पूरा विश्वास है कि ‘‘परधानी हाथ में आ जाए तो वापसी की चिन्ता नहीं
रहेगी।’’ अगर जग्गू ने
आनाकानी की तो ‘‘साले को खोदकर पोरसा
भर नीचे गाड़ देंगे। भस्मासुर बनेगा तो भस्मासुर की मौत मरेगा।’’ जग्गू को अपने इशारे पर नचाने की इच्छा पालने
वाले ठाकुर की नजर उस यथार्थ को देख नहीं पा रही है, जिसकी तरफ मुंशीजी संकेत
कर रहे हैं। सामन्ती सोच के साथ यह समस्या है कि उसमें बदलाव के लिए गुंजाइश
बहुत कम होती है। यह एक जड़ एवं यथास्थितिवादी विचार-प्रक्रिया है।
समय
चाहे कितना भी बदल गया हो, वह बदलू का अतीत तो नहीं बदल सकता? अपने पुराने अनुभव से
वह जग्गू को चेताता है, ‘‘अरे कुलकलंकी, वह तुझे डस रहा है। उसके काटने से
लहर भी नहीं आएगी।... चल भाग यहां से।’’ अतीत की दु:खदायी
स्मृतियां उसके वर्तमान को आज भी तंग करती हैं। निम्न जाति में पैदा होने की
पीड़ा को उसने प्रतिपल जिया है। उसका अनुभव कहता है कि ‘‘शूद्र के धन और अरहर की मधु का बहुत दिनों तक बचना
मुश्किल।’’ अतीत के अनुभवों
से बोझिल बदलू वर्तमान के उस यथार्थ के प्रति सहज नहीं है,
जिसमें दलित-चेतना की उपस्थिति एक ठोस वास्तविकता बन चुकी है और जो ऊंची जातियों
को कई बार अनचाहा समझौता करने के लिए विवश करती है। जग्गू को भी मालूम है कि ‘‘कैसे-कैसे सांप, बिच्छू भरे हैं गांव की
खोह में। जब तक काट न लें, पता ही नहीं चल सकता।’’ ऐसे में वह भी सचेत है। चुनाव ने उसे राजनीति के
गुर सिखा दिये हैं। तभी तो बैजनाथ बाबा को महाभारत से उद्धरण देकर अपनी तरफ झुकाने
की कोशिश करता है। शिवमूर्ति की यह कहानी स्पष्ट संकेत करती है कि राज-समाज से
सत्ताच्युत ऊंची जातियां कोई भी रास्ता अपनाने से बाज नहीं आतीं। नैतिकता उनके
लिए कोई मायने नहीं रखती। पदारथ चुनाव से एक दिन पहले प्रधान पद की प्रत्याशी
फुलझरिया के चरित्र को कलंकित करने के लिए शंकर को पांच सौ रुपये देकर तैयार करता
है। इस अंश को पढ़कर गांव का एक जीता-जागता चित्र आंखों के सामने उपस्थित हो जाता
है। इस कहानी में कई तरह के चित्र तथा स्वर हैं, जो परस्पर जुड़ते और
एक-दूसरे को काटते दिखाई देते हैं। इन चित्रों को सजीव बनाने में शिवमूर्ति की
ग्रामीण परिवेश की व्यापक समझ काम आयी है। पढ़-सुनकर, विचारधारा के आधार पर अथवा शिल्प के बलबूते इन्हें निर्मित नहीं किया
जा सकता है। चुनाव गांव में हो रहा है, इसलिए चुनाव सम्पन्न
कराने आये मतदान कर्मियों की जाति के बारे में जानना आवश्यक हो जाता है। समस्या
यह है कि ‘‘पीठासीन अधिकारी
का ‘सरनेम’ नहीं पता लग रहा
है। कैसे पटाया जाए?’’ फिर भी रामसिंह
हार नहीं मानता, पीठासीन अधिकारी के कान में धीरे से पूछता है, ‘‘साहब ‘लालपरी’ चलेगी?’’ मतदाताओं को
रिझाने के लिए शराब, कुर्सी और जनेऊ बांटा जाता है,
लेकिन गोलू का यह गाना कि ‘प्रजातन्त्र को
चोट दे गये। मुर्दे आकर वोट दे गये।’ समूचे
प्रजातान्त्रिक प्रक्रिया की कलई खोलकर रख देता है। ‘थोड़ी देर में बात फैलती है कि साल भर पहले दिवंगत
हुई पदारथ की अम्मा वोट डाल गयीं। मुसलमान टोले की तीन ‘मरहूमाएं’ भी डाल गयीं।’
मतदान
की प्रक्रिया पूरी करा देना प्रजातन्त्र नहीं है। उसके लिए निहित उद्देश्य का
चरितार्थ होना वास्तविक प्रजातन्त्र है। दुर्भाग्य से हमारे देश में ऐसा नहीं
हो पा रहा है। ग्राम पंचायत चुनावों की स्थिति निराशाजनक है। किसी भी निर्णय में
गांव की जनता की भागीदारी नहीं होती और न ही उसके हितों एवं सुविधाओं का कोई ध्यान
रखा जाता है। ग्राम गणराज्य की अवधारणा औचित्यपूर्ण हो सकती है,
किन्तु उसका वर्तमान स्वरूप जनहित की चिन्ता से बहुत दूर है। शिवमूर्ति का
लेखक ऐसी घटनाओं को निकट से देखता है, हर एक गतिविधि को
पहचानता है और तब उन्हें कहानी में पिरोता है। शिवमूर्ति के पास सूक्ष्म पर्यवेक्षण
शक्ति है। वे ग्रामीण जीवन एवं परिवेश के बीच पैठकर उसकी
वस्तुगत स्थिति का चित्रण करते हैं। उनके लेखन में मार्क्सवाद, दलितवाद अथवा स्त्रीवाद जैसी कोई विचारधारा सतह पर तैरती नहीं दिखती।
उनके पास एक मानवीय दृष्टि है, जो कहानी के रेशे-रेशे में
समाहित है। उनकी पक्षधरता स्त्री और हाशिये के लोगों के प्रति है, लेकिन वे इसका डंका नहीं पीटते।
शिवमूर्ति
ने कहानी के अन्तिम चरण में एक प्रसंग रचा है। जग्गू की जीत का समाचार सुनकर
ठाकुर दलगंजन सिंह जब अपनी पत्नी से माला गूंथने का आग्रह करते हैं,
तो वे ‘‘आंखें तरेर कर
देखती हैं यानी मैं माला गूंथूंगी? जगुआ के लिए?’’ जग्गू के प्रति शिवराज कुंवरि की आंखों में झांकता यह उपेक्षाभाव वस्तुत:
निचली जातियों के प्रति सदियों से वंचित घृणा की ही अभिव्यक्ति है। जग्गू उनके
द्वार पर नहीं जाता तो वे प्रतीक्षारत ठाकुर का ‘‘हाथ पकड़कर खींचती हुई कहती हैं, जाने दीजिए हरामजादे को। दोगला
निकला।’’ एक तरफ जग्गू
चुनाव जीतने के बाद जे एन टाइगर बन जाता है तो दूसरी तरफ ठाकूर उसकी उपेक्षा के
कारण अपमान से भर उठते हैं। एक दलित युवक उनसे कहता है, ‘‘जब आप हम लोगों के गिलास का पानी नहीं पी सकते,
हमको अभी भी वही समझते हैं तो हमारा आपका साथ कितने दिन निभेगा?’’ कहानी का अन्तिम दृश्य है, ‘‘एक लड़का उन्हें नाचने के लिए लड़कों की गोल की
ओर खींचता है। दूसरा उनके पंजे में पंजा फंसाकर दाएं-बाएं हिलाते हुए कहता है-‘‘जरा कमरिया भी लचकाइये ठाकुर।’’ ठाकुर का जग्गू को अपना प्रत्याशी बनाना,
उसकी जीत को सुनिश्चित करने के लिए पैसा खर्च करना, जीत के
बाद दलित के हाथ का पानी पीना और उनके बीच नाचना इक्कीसवीं सदी के ग्रामीण समाज
में होने वाले परिवर्तन की वह अपरिहार्यता है, जिसे ऊंची
जाति के लोगों को न चाहते हुए भी करना पड़ता है। तब उनका मिथ्याभिमान चूर-चूर हो
जाता है। सांप के फन की तरह फुंफकारने वाला उनका क्रोध अब सुलगते रहने के लिए
अभिशप्त है। दलितों से समझौता करना उनकी विवशता है। इस तरह शिवमूर्ति ने अबके
समय में होने वाले पंचायत चुनाव का स्वाभाविक चित्रण किया है। इन चुनावों में
कैसी-कैसी चालें चली जाती हैं, कैसे
युवा पीढ़ी को बरगलाया जाता है, कैसे उनको नशे की लत लगायी
जाती है, कैसे किसी का चरित्रहनन किया जाता है और किस प्रकार
जातिवाद को उभारा जाता है; इसे ‘बनाना रिपब्लिक’ के पाठ में देखा जा सकता है, ‘‘गांव का माहौल पूरी तरह गरम हो गया है।...हडि्डयां
कड़कड़ा रही हैं। गिलास टकरा रहे हैं। खोपड़ी सनक रही है। जबान बमक रही है। बात
चलती है कहां से और पहुंच जाती है कहां?’’
लोकतन्त्र
की प्राथमिक पाठशाला के लिए होने वाले चुनाव को देखकर किसी भी संवेदनशील व्यक्ति
का इस पर से भरोसा उठ सकता है। इसमें कहीं भी लोकतान्त्रिकता का निर्वाह नहीं किया
जाता। शिवमूर्ति ने ठाकुरों के पारस्परिक वार्तालाप के माध्यम से ऊंची जातियों
की छटपटाहट और अतीत के प्रति मोह को चित्रित किया है। इक्कीसवीं सदी की दूसरी
दहाई में सांस लेते कहानी के इन पात्रों के मन में अंग्रेजी राज से मुक्ति,
स्वतन्त्रता और जनतन्त्र को लेकर जो कसक है, वह ऐसे
अवसरों पर टीसने लगती है। ‘‘सरकार बुजरी करती
रहे वहां बैठकर रिजर्वेशन। यहां उसकी इस्कीम में पलीता लगाने वाले हम लोग कम हैं,
क्यों?...ठाकुर होकर बेची खरीदी क्यों करेंगे? दो लाठी मारकर छीन नहीं लेंगे?
कैसा जमाना आ गया? राजशाही के साथ ठकुराई भी चली गयी।’’ आरक्षण लागू होने और ठकुराई का क्षोभ ठाकुरों के
चेहरे पर स्पष्ट दिखता है। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के सात दशक बाद भी यदि ऊंची
जातियों में जनतन्त्र के प्रति आदर और निचली जातियों के प्रति सम्मान का भाव
पैदा नहीं हुआ है तो कहा जा सकता है कि उसके भीतर निचली जातियों के प्रति भेदभाव
एवं घृणा की जडे़ं बहुत गहरी हैं, जिनका निर्मूलन लगभग असम्भव है। इस कहानी की भविष्योन्मुखता
यह है कि इसमें दलित-चेतना को एक ऐसे निर्णायक मोड़ पर लाकर खड़ा किया गया है, जहां वह खुद को सामन्ती जकड़न से मुक्त करते हुए अपनी अस्मिता को प्रस्थापित
करने के प्रयास में सन्नद्ध हैं।
शिवमूर्ति
की अधिकांश कहानियां स्त्रीप्रधान हैं। गांव की ये स्त्रियां अनपढ़ होते हुए शील,
सौन्दर्य, धैर्य एवं त्याग से युक्त स्वाभिमानी, साहसी और संघर्षशील हैं। ये अन्याय और शोषण का प्रतिकार करती हैं। इनमें
से लालू की माई एवं मामी का चरित्र दूसरे स्त्री पात्रों से भिन्न है। हालांकि
ये स्त्री पात्र भी पुरुष के आगे समर्पण नहीं करते, अपने
आत्मसम्मान के साथ अविचल खडे़ रहते हैं। शिवमूर्ति ने इन स्त्री पात्रों के
होते हुए भी कहानियों में कोई स्त्री-विमर्श नहीं खड़ा किया है। उनके स्त्री
पात्रों में चकाचौंध नहीं, सादगी है। इनमें आत्मसुख एवं स्वच्छन्दता
के स्थान पर दायित्ववोध एवं संयम है। कृत्रिमता के स्थान पर सहजता है। कुछ स्त्री
पात्रों को देखकर कभी-कभी उनकी मध्ययुगीनता का भ्रम हो सकता है। उनके विरुद्ध
होने वाले अपराध कम नहीं हुए हैं, उनका स्वरुप भले बदल गया
हो। हालांकि इन्हीं परिस्थितियों के बीच से स्त्री का एक नया विद्रोही रूप भी उभरता
है। शिवमूर्ति की कथाभाषा में लोकतत्व का समावेश उसे जीवन्त, रोचक एवं विश्वसनीय बनाता है। लोकजीवन उनकी कहानियों का आधारभूत तत्व
है, जिसके माध्यम से उन्होंने दलित एवं स्त्री की यातना
एवं शोषण को अनेक आयामों के साथ प्रस्तुत किया है। वे अपने पात्रों को परिवेश के
बीच में लाकर छोड़ देते हैं ताकि वे अपने चरित्र का स्वयं विकास कर सकें।
शिवमूर्ति की
भाषा लोक से ऊर्जा ग्रहण करती है। उनकी कहानियों में जिस गांव को उभारा गया है
वहां सामन्तवाद और तज्जनित चेतना की सक्रिय उपस्थिति आज भी दिखाई देती है। इस प्रक्रिया
में वह निर्बल को सताकर या उसका उपयोग करके अपना स्वार्थ सिद्ध करता है,
तो कभी स्वयं नवपूंजीवाद का अहेर बन जाता है। शिवमूर्ति की कहानियां संवाद करती
हैं। स्त्री का पुरुष से, एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति से
और व्यक्ति का समाज से निरन्तर संवाद चलता रहता है। इन कहानियों में परस्पर
जोड़ने का एक रचनात्मक प्रयास भी झलकता दिखाई देता है। टूटते हुए दौर में इनका
पाठ आश्वस्त करता है।
राम विनय शर्मा : 10 मार्च 1965,
आजमगढ़ (उ.प्र.)। जेएनयू से पीएचडी। गल्प के अन्त:सूत्रों की खोज, यथार्थ की कथादृष्टि, भीष्म साहनी के साहित्य का
सरोकार, पूर्वांचल का ग्राम समाज, हिन्दी
उपन्यास और परिवर्तन की दिशाएं (आलोचना पुस्तक) के अलावा देश के लगभग सभी महत्वपूर्ण
पत्र-पत्रिकाओं में साहित्यिक, सामाजिक
और सांस्कृतिक विषयों पर विपुल लेखन। महाराज सिंह कॉलेज,
सहारनपुर (उ.प्र.) में हिन्दी के एसोसिएट प्रोफेसर।
सम्पर्क : +919411038585, drramvinaysharma2013@gmail.com
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