Sunday, June 24, 2018

कुच्‍ची का कानून : वंचित अस्मिताओं की यथार्थ अभिव्‍यक्ति (समीक्षा)



कुच्‍ची का कानून : वंचित अस्मिताओं की यथार्थ अभिव्‍यक्ति

अनुराधा गुप्‍ता

      ‘‘लेखक की सिंसियरिटी का प्रश्‍न वस्‍तुत: उसके अंतर्जगत की अभिव्‍यक्ति से सम्‍बन्धित है। यदि वह अभिव्‍यक्ति कृत्रिम है तो नि:संदेह वहां सिंसियरिटी नहीं है। किन्‍तु कृत्रिमता केवल इन्सिंसियरिटी की ही उपज नहीं होती, वह अकविता की उपज होती है अर्थात् अंतर्जगत की निर्जीवता और जड़ता का प्रमाण होती है।’’ (मुक्तिबोध : नए साहित्‍य का सौंदर्यशास्‍त्र)
    
    निश्चित तौर पर कविता अर्थात् साहित्‍य सिंसियरिटी अर्थात् सम्‍वेदना और अंतर्जगत की चेतना की उपज है। सम्‍वेदना साहित्‍य की नींव है जिसके बगैर उसके अस्तित्‍व की कल्‍पना बेमानी। यही वह प्रमुख तत्‍व है जो साहित्‍य को साहित्‍य बनाता है तभी उसे भाव या शक्ति का साहित्‍य कहते हैं। (spontaneous overflow of powerful feelings)। शिवमूर्ति का कथा साहित्‍य इसकी सशक्‍त बानगी है। वे मानवीय सम्‍वेदनाओं के समर्थ वह सजग लेखक हैं, इंसानी जज्‍बातों को वे जिस कुशलता से उकेरते हैं ये उनकी चेतना और सिंसयरिटी के कारण ही सम्‍भव होता है।
     
    शिवमूर्ति की चुनिन्‍दा कहानियां और उपन्‍यास हैं। उनका अपना पाठक वर्ग है। ठहर कर लिखने की उनकी कला के कारण ही तकरीबन हर कहानी उनकी यादगार कहानी बन गई जिनका नाट्य-अन्‍तरण और फिल्‍मांकन हुआ। हाल ही में राजकमल प्रकाशन से उनका एक और कहानी संग्रह आया है कुच्‍ची का कानून। संग्रह में चार कहानियां हैं, ख्‍वाजा, ओ मेरे पीर!’, बनाना रिपब्लिक’, कुच्‍ची का कानून और जुल्‍मीजुल्‍मी उनकी शुरुआती कहानी है। जुल्‍मी को छोड़कर बाकी सभी कहानियां उनके परिपक्‍व और उम्‍दा लेखन की मिसाल हैं। ग्रामीण जीवन का गूढ़ शास्‍त्र रचती हर कहानी परिवार, समाज, राजनीति और सामंती संस्‍कृति के भीतर पनपने वाले बारीक से बारीक षड्यंत्र और आतंक के महीन से महीन धागे की बुनावट को उकेरती है।
     
     शिवमूर्ति बडे़ मुद्दों के कहानीकार हैं। ग्रामीण परिवेश पर केन्द्रित उनकी कहानियों के कथ्‍य उत्‍तर आधुनिक और उत्‍तर भूमंडलीकरण के समय और सच से जुड़े हैं, इसीलिए इनकी व्‍याप्ति सार्वभौमिक है। इस संग्रह की कहानियों की भी धुरी ग्रामीण लोकेल है किन्‍तु मुद्दे ग्‍लोबल। सबसे पहले संग्रह की शीर्ष कहानी कुच्‍ची का कानून की चर्चा। पुस्‍तक के आवरण पृष्‍ठ पर शिवमूर्ति का उद्धत बयान ‘‘मेरा कहाना है कि कोख देकर ब्रह्मा ने औरतों को फंसा दिया। अपनी बला उनके सिर डाल दी। अगर दुनिया की सारी औरतें अपनी कोख वापस कर दें तो क्‍या ब्रह्मा के वश का है कि वे अपनी दुनिया चला लें?’’ यदि कहें तो यह कहानी के ज्‍वलंत, बल्कि विस्‍फोटक मुद्दे की भनक दे जाता है। कहानी कोख में नौ महीने रखने वाली और जन्‍म देने वाली स्‍त्री के अपनी कोख पर अधिकार से जुडे़ सशक्‍त कथ्‍य पर केन्द्रित है। यूं ही शिवमूर्ति अपनी कहानी के प्रकाशन के तुरन्‍त बाद चर्चाओं की गर्माहट में नहीं आ जाते।
     
     बात पहले कथ्‍य की फिर ट्रीटमेंट की। अपनी पूर्व कहानियों से थोड़ा इतर इस कहानी में जो घट रहा है को सिर्फ न दिखाकर जो होना चाहिए भी दिखाया गया है। कहानी वर्तमान समय में स्त्रियों से जुडे़ विश्‍व के सबसे बड़े मुद्दे कोख के अधिकार से जुड़ी है। कहानी की केन्‍द्रीय पात्र कुच्‍ची विधवा है। विवाह के कुछ ही समय बाद पति की अकाल मृत्‍यु कुच्‍ची और उसके सास-ससुर को बेसहारा छोड़ जाती है। गांव की प्रथा के अनुसार कुच्‍ची के मायके वाले उसे अपने साथ ले जाकर दूसरा विवाह करना चाहते हैं। किन्‍तु वह अपने बूढ़े और बेसहारा सास-ससुर के साथ अपनत्‍व और प्रेमवश कुछ दिन रुकना चाहती है। यहां उसका कोई स्‍वार्थ नहीं। बीमार सास-ससुर को वह उनके बेटे की तरह अपनी क्षमताओं से ज्‍यादा सहारा और स्‍नेह देती है। पति की मृत्‍यु सन्‍तान पैदा होने से पहले ही हो गई थी फलत: संपत्ति का वारिस कौन हो? गिद्ध सी नजर गड़ाए चचेरा जेठ संपत्ति हथियाने के लिये सारा जोर लगाता है। किन्‍तु कुच्‍ची को प्रेम के नाटक से, जोर जबरदस्‍ती से वश में करने के उसके सारे हथकंडे फेल हो जाते हैं। कुच्‍ची समझ जाती है कि सम्‍पत्ति का लालच उसकी, उसके सास-ससुर की जान ले सकता है। क्‍योंकि संपत्ति का कोई कानूनी वारिस नहीं, इसलिए उसका जेठ इसका दावेदार होने का दम भरता है। अब कुच्‍ची के लिए यह लड़ाई उसके अधिकार या स्‍वाभिमान की ही नहीं धरम की लड़ाई है। किन्‍तु समस्‍या यह है कि वारिस कहां से आए? वारिस देने वाला तो चला गया। अन्‍यत्र विवाह कर ले तो वह उसका अधिकार कैसे दिलाए। कुच्‍ची हर मोर्चे पर संघर्ष कर रही है। सामने वाला हद दर्जे का आक्रामक, शातिर, हिंसक और क्रूर है। दूसरी ओर परिस्थितियां और व्‍यवस्‍था भी सब तरह से उसके पक्ष में। हर वार का पलट वार करने की कोशिश में कुच्‍ची को समझ में आने लगता है कि जीत आसान नहीं। अंतत: कुच्‍ची एक फैसला लेती है। बिना पिता के वैधानिक नाम के अकेली मां बनने का। यह फैसला उसका अमोघ अस्‍त्र है अपने हक को पाने का। बहरहाल यह खबर गांव के लिए किसी विस्‍फोट से कम नहीं। स्‍त्री की छोटी से छोटी आजादी में नकेल डालने वाली सामंती संस्‍कृति‍ भला इसकी छूट कैसे और क्‍यों दे दे? उसके लिए तो मरने-मारने जैसी बात है अत: पंचायत बिठाई जाती है। मामला साफ-साफ दीखता है कि कुच्‍ची ने अपराध किया है, घोर अपराध। कुच्‍ची भरी पंचायत में ऐलान करती है कि कोख में पल रहे बच्‍चे का बाप उसका पति नहीं कोई और है जिसके नाम से गांव का कोई लेना-देना नहीं। कुच्‍ची बहादुर है, स्‍वाभिमानी है, निर्णय पर अडिग है तिरियाचरित्‍तर की विमली की तरह, लेकिन इस बार वह विमली की तरह पंचायत के खूनी वार का शिकार नहीं होती। ये इस कहानी का टर्निंग प्‍वाइंट है। सातवीं पास कुच्‍ची तमाम तर्क और दृष्‍टान्‍तों से पुरुष दंभ से भरे मर्दवादी समाज को निरुत्‍तर कर देती है :
     -‘‘मुझे जरूरत लगी महराज। मेरा आदमी तो एक बार मरकर फुरसत पा गया लेकिन बेसहारा समझकर हर आदमी किसी न किसी बहाने मुझे रोज मार रहा था। मैं मरते-मरते थक गई तो जीने के लिए अपना सहारा पैदा कर रही हूं।
     -तो तुझे दूसरी शादी करने से किसने रोका था?
     -दूसरी शादी कर लेती तो मेरे सास-ससुर बेसहारा हो जाते बाबा। अपने सहारे के लिए इनको बेसहारा छोड़कर जाते नहीं बना। मेरा रिश्‍ता मेरे आदमी तक ही तो नहीं था।
     -लेकिन तू बजरंगी की ब्‍याहता है। तेरी कोख पर सिर्फ बजरंगी का हक बनता है।
     -मरे हुए आदमी के काम तो यह कोख आ नहीं सकती बा‍बा। उनके मरने के बाद किसका हक बनता है?
     -दूसरा मर्द करेगी तो उसका हक बनेगा।
     -दूसरा मैंने किया नहीं, तो किसका बनेगा? ‘‘मेरी कोख पर मेरा हक कब बनेगा?’’

कहानी कुच्‍ची के गर्भ की जानकारी से ही आगे बढ़ती है, जिसकी वैधता उसे साबित करनी है क्‍योंकि पति बजरंगी दो साल पूर्व छल से पिलाए गए जहरीली शराब के सेवन से मर चुका है। कुच्‍ची के सामने चुनौतियों का पहाड़ है। पंचायत में स्मृति, पुराणों, मनुवादी विधानों का हवाला दे कर कुच्‍ची को गलत साबित करने की तमाम कोशिशें की जाती हैं। लेकिन कुच्‍ची अडिग है अपने वर्जिन प्रश्‍न पर, ‘‘जब मेरे हाथ, पैर, आंख, कान पर मेरा हक है, इन पर मेरी मर्जी चलती है तो कोख पर किसकी होगी, उस पर किसकी मर्जी चलेगी, इसे जानने के लिए कौन-सा कानून पढ़ने की जरूरत है।’’ वह पंचायत को ही सवाल के घेरे में ले आती है, ‘‘बात से कायल कर दीजिए या कायल हो जाइए। मेरी कोख पर मेरा हक है या नहीं।’’ ये कुच्‍ची का कानून है। जब कोख उसकी तब उसमें पलने और पैदा होने वाले बच्‍चे पर उसका पूर्ण अधिकार क्‍यों नहीं? बीज डालने वाले की भूमिका इतनी निर्णायक और अंतिम कैसे? कहानी की सम्‍वेदना स्‍त्री के सिंगल पैरेंट के अधिकार के साथ-साथ स्‍त्री की अस्मिता एवं अधिकार की जोरदार मांग और पैरवी है।
     
     कानून और समाज के ठेकेदारों और बडे़-बडे़ प्राचीन विद्वानों और शास्‍त्रों के आगे मासूमियत से पूछे गए कुच्‍ची के प्रश्‍न पंचायत को मूक कर देते हैं। कहानी में कुच्‍ची की स्थिति को मजबूत बनाने के लिए प्रतिपक्ष को झूठा, आक्रामक किन्‍तु वास्‍तविकता में बौना दिखाना कहानी को कमजोर करता है। कहानी की शुरुआत जिस तरह की शिवमूर्त‍ि वाली धारदार शैली, पेंच और द्वंद्व लिए है वही कहानी का उतार अपनी स्‍वाभाविक गतिशीलता को छोड़कर तनावरहित हो जाता  है। कहानी में ये रचाव कदाचित लेखक की आदर्श समाज की चाह का परिणाम हो सकता है या यथार्थ का अगला पड़ाव तो हो सकता है किन्‍तु आज का यथार्थ नहीं लगता।
     
     संग्रह की दूसरी कहानी बनाना रिपब्लिक शिवमूर्त‍ि की सर्वाधिक सशक्‍त कहानी है इसे 21वीं सदी में दलित चेतना के उभार की सर्वाधिक आधुनिक कहानी कहा जा सकता है। उत्‍तर प्रदेश में अस्‍सी के दशक के बाद शुरू हुए दलित उभार को समग्रता में उनके अंतर्विरोधों के साथ शिवमूर्त‍ि की कहानियों में क्रमश: देखा जा सकता है। यथार्थ को उसके सम्‍यक रूप में अनुभव कर रचने के क्रम में शिवमूर्त‍ि का यह वक्‍तव्‍य ध्‍यान देने लायक है- ‘‘मेरा नजरिया किसी पूर्वनिर्धारित सोच या विचारधारा से नियंत्रित नहीं होता। जीवन को उसकी समग्रता और निश्‍छलता में जीते हुए ही मेरे रचनात्‍मक सरोकार आकार ग्रहण करते हैं। पहले का यथार्थ यह था कि कसाईबाड़ा की हरिजन स्‍त्री सनीचरी धोखे जबरदस्‍ती से मार दी जाती थी। उसकी खेती-बाड़ी हड़प ली जाती थी। आज का यथार्थ तर्पण में है। सनीचरी जैसे चरित्रों की अगली पीढ़ी रजपतिया के साथ जबरदस्‍ती का प्रयास होता है तो गांव के सारे दलित इकट्ठा हो जाते हैं। सिर्फ इकट्ठा नहीं, बल्कि उस लड़ाई में वे हर संकट का सामना करते हैं। इस लड़ाई को जीतने के लिए हर चीज का सहारा लेते हैं। उसमें उचित-अनुचित का सवाल भी उतना प्रासंगिक नहीं लगता। उनके लिए हर वह सहारा उचित है जो उनके संघर्ष को धार दे सके। पहले थोड़ा अमूर्तन भी था। अब टोले का विभाजन दो प्रतिद्वंद्वियों के रूप में सामने खड़ा है। जातियों के समीकरण पहली कतार में आए हैं 1980 से 2000 तक जो परिवर्तन आया वह मेरी रचनाओं में साफ दिखता है... मैं तर्पण को ध्‍यान में रख कर कह रहा हूं। इससे आगे का यथार्थ मेरी आगे की रचनाओं में आ रहा है... उससे आप मेरा नजरिया समझ सकते हैं। ...तब यह स्‍वर नहीं उठता था कि जो दु:ख-दर्द घेरे है, उसके आंकड़े क्‍या हैं! कारण क्‍या हैं! पैदावार और लागत का जो अनमेल अनुपात है उसके पीछे कैसे षड्यंत्र हैं! यानी परदे के पीछे चल रहा खेल क्‍या है? ...आज इन सब पर नजर जा रही है।’’ (नया ज्ञानोदय, जनवरी 2008, पृष्‍ठ 107)
     
     परदे के पीछे का यह खेल, अनुभूति और विचार के सम्‍यक परिपाक के रूप में, शिवमूर्त‍ि की कहानियों में किस्‍सागोई की बेहतरीन कला के साथ बेहतरीन और मारक ढंग से उद्घाटित होता है। इनकी कहानी बनाना रिपब्लिक में बदलते समय का जोरदार आगाज है, इसकी धमक दूर तक और देर तलक सुनाई देती रहेगी। कहानी की सबसे बड़ी खासियत है वक्‍त के बदलाव को उसकी बहती रवानगी में दिखाना, जहां नाटकीयता तो है किन्‍तु कृत्रिमता लेश मात्र भी नहीं। राजनीति में बनाना रिपब्लिक से आशय राजनैतिक रूप से अस्थिर ऐसे देशों की राजनैतिक व्‍यवस्‍था से है जो आर्थिक रूप से अपने सीमित संसाधनों के निर्यात पर निर्भर होते हों, जहां बड़ी संख्‍या में सामाजिक असमानता हो तथा गरीब मजदूर वर्ग के शोषण पर मुट्ठी भर पूंजीपति राज करते हों। जैसे कैरेबियन देशों का गणतन्‍त्र। मल्‍टीनेशनल कम्‍पनियों के हाथ की कठपुतली।
     
    पंचायत चुनाव में नाहरगढ़ गांव आरक्षण में आ जाता है। आरक्षण की नीति के तहत प्रधान अब कोई दलित ही बन सकता है। गांव में सदियों से राज करते ठाकुर की ठकुराहट अब खतरे में है। वर्षों से अपनी दबंगई दिखाने वाले सामंतों में खलबली है; क्‍या ये गांव अब उनकी बपौती नहीं रहेगा? अपने अभिजातीय दंभ और जातीय ठसक के एकछत्र राज के आदी इन सवर्णों के लिए अपनी प्रधानी छोड़कर किसी दलित को प्रधान के रूप में देखना जितना कल्‍पनातीत और असंभव है उतना ही सदियों से  दलित-शोषित, सवर्णों को माई-बाप के रूप में देखने वाले, अवर्णों के लिए भी।
     
       ‘‘गांव में जैसे भूडोल आ गया है!... ऐसी एक बड़ी आबादी है जो आज भी जाति-व्‍यवस्‍था को ब्रह्मा की लकीर मानती है। वह मानती है कि कि सवर्णों के गांव में दलित को परधानी की कुर्सी पर बैठाना सवर्णों के सिर पर बैठाना हुआ। लोहिया तो समाजवाद नहीं ला पाए लेकिन आज की सरकारें, लगता है, ला के रहेंगी। किसी आदमी ने ऐसा किया होता तो उसका मूड़ फोड़ देते। सरकारों को कोई क्‍या करे?’’

प्रधानी सिर्फ कमाई का ही नहीं, सामाजिक रुतबे और ऊंचे कद का भी जरिया है। लेकिन करे भी तो कोई क्‍या करे? प्रजातंत्र है, सरकार की नीति है। उससे कोई कैसे लडे़? बहरहाल कानून है तो उसका तोड़ भी है। स्थिति से निपटने का तरीका निकाला जाता है। गांव में कैरेबिनयन देशों की तर्ज पर बनाना रिपब्लिक लाने का यानी मुखौटा के रूप में दलित प्रधान और असल परधानी ठाकुर की। लोकतन्‍त्र का दिलचस्‍प नजारा है, दलितों में डर, शक डांवाडोल होते आत्‍मविश्‍वास के साथ उत्‍साह की कमी नहीं। हिम्‍मत करके सपने देखने लगते हैं। ‘‘जिसके घर पर साबूत फूस का छप्‍पर और पैरों में चप्‍पल तक नहीं है, वह भी परधानी का सपना देख रहा है।’’ अपने-अपने मोहरे चुनाव में उतारे जाते हैं। सवर्ण चुनाव में अपनी ताकत के साथ पैसा भी इन्‍वेस्‍ट कर रहे हैं, पता है सूद समेत वसूलेंगे। ठाकुर की तरफ से जग्‍गू और पदारथ सिंह की तरफ से मुंदर और फुलझरिया। जग्‍गू ठाकुर की सरपरस्‍ती में अपनी पूरी ताकत और कुल जमा-पूंजी यहां तक की ठाकुर की अतिरिक्‍त होशियारी और शातिरपरस्‍ती के चक्‍कर में अपनी बाजार की जमीन का टुकड़ा (जो कभी खैरात में मिला था और अब वक्‍त की मेहरबानी ने कीमती बना दिया) जिस पर उसका पिता फूस डालकर जूता पॉलिस करता है, ठाकुर की पत्‍नी के पास रेहन रख देता है। जग्‍गू के पास अब कुछ शेष नहीं। ठाकुर निश्चिन्‍त है, जग्‍गू जैसा जीहुजूरी करने वाला, गुलामी का आदी सेवक उसे डबल क्रॉस नहीं करेगा। मुंशी कहानी में चाणक्‍य की तरह दोनों पक्षों को कूटनीति सिखाता है, विशेषकर ठाकुर को आगाह करता है कि वह जग्‍गू पर इतना भरोसा न करे। जग्‍गू का पिता ठाकुरों के खूनी षड्यंत्रों से वाकिफ है। पहले तो वह प्रधानी जैसे ऊंचे सपने ही नहीं देखना चाहता क्‍योंकि ये उसके लिए अविश्‍वसनीय है किन्‍तु लड़के की मर्जी के आगे चुप हो जाता है, लेकिन रेहन रखने की बात पर भड़क उठता है। ‘‘जरूर उसी ठाकुर ने तेरी मति फेरी है। इतनी दूर का निशाना। तभी मैं कहूं कि तुझे परधानी देने के लिए वह क्‍यों मरा जा रहा है? तू समझ रहा है कि वह तेरा चुम्‍मा ले रहा है। अरे कुलकलंकी, वह तुझे डस रहा है। उसके काटने से लहर भी नहीं आएगी।’’ पिता की आशंका पाठकों के मन को आशंकित कर देती है। यही तो होता आया है, हकीकत हो या अफसाना। ठाकुर जग्‍गू पर दांव लगाकर निश्चिन्‍त है। सदियों के गुलाम उन्‍हें आंखें नहीं दिखा पाएंगे। हवा का रुख पहचानने में ठाकुर साहब चूक गए। सारा लोहा उन लोगों का, अपनी केवल धार। शहर के पढ़ने वाले लड़के जग्‍गू की लानत-मलानत करते हैं कि उन्‍हें बनाना रिपब्लिक नहीं पूर्ण अधिकार चाहिए।
     
        ‘‘जग्‍गू जैसे कौम के गद्दार और चापलूस सदा से होते आए हैं जो लात जूता खाकर भी उन लोगों का जूठा पत्‍तल चाटने को तैयार हैं।’’ शहर के शिक्षित लड़के आमूलचूल क्रांति चाहते हैं, मार्क्‍सवादी सर्वहारा क्रांति। किन्‍तु जग्‍गू तेल और तेल की धार को बेहतर समझता है। लेखक जग्‍गू के रूप में न तो दलित समाज का कोई महानायक रच रहा होता है, न हर बार की तरह शहीद होता आया पात्र। उन्‍हें/उन्‍होंने समय की सम्‍भावनाओं के बीच से अपने हीरो को खड़ा करना था/खड़ा किया। उदय प्रकाश के टेपचू और मोहनदास से आगे का सच। ‘‘गुलामगीरी करे ससुरा अंगूठाछाप मुंदर और उसकी आल-औलाद। मैं बीस साल पहले का हाईस्‍कूल पास। फस्‍ट डिवीजन। साइंस साइड। मार्कशीट दिखाऊं? बाप आगे पढ़ाता तो मैं डी.एम., एस.पी. बन जाता। मैं इंटर फेल ठाकुर की गुलामगीरी करूंगा? अरे, गरज पड़ने पर गदहे को भी मामा कहना पड़ता है। लाखों खर्च कर रहा है। भंडारा खोले हुए है तो मामा नहीं कहूंगा? मेरा पैंतरा जीतने के बाद देखना। सारा गांव आकर मेरे इसमें तेल न लगाए तो कहना।’’ हाई स्‍कूल पास जग्‍गू राजनीति के सब पैंतरे जानता है, विशेषकर चिरौरी करने के।
     
      चुनाव के नतीजे का वक्‍त आ जाता है। सदियों पुरानी गांव की सत्‍ता का इति‍हास बदलना है। जग्‍गू उर्फ जगत नारायण सात वोटों से प्रधानी जीत गया। ठाकुर को जग्‍गू फोन से सूचित करता है। ठाकुर की पूरी बात सुने बिना ही उत्‍साह के अतिरेक में फोन काट देता है। जीत का प्रमाण पत्र पकड़ते हुए जग्‍गू के हाथ कांप रहे हैं, उधर ठाकुर का दिल। ये जग्‍गू की जीत है। अब जग्‍गू सुअर आदि ढोर डांगर चराने वाला भंगी नहीं, जगत नारायण प्रधान है। ठाकुर साहब प्रतीक्षा कर रहे हैं। सबसे पहले जग्‍गू उन्‍हीं के पास आएगा। बडे़ से जुलूस में शामिल होने के लिए तैयार होकर बैठे हैं, राजगढ़ स्‍टेट की राजकुमारी ठकुराइन शिवराज कुंवरि से माला गूंथने का आग्रह करते हैं। ठकुराइन दलित के लिए माला गूंथे! इससे बड़ी हेठी और क्‍या होगी। किन्‍तु गूंथना पड़ता है। ठाकुर प्रतीक्षा करते ही रह जाते हैं और जग्‍गू नहीं आता। जुलूस उसके टोले की ओर चला जाता है। ठाकुर का गुस्‍सा बढ़ता जाता है और उनका डर भी। रात का सपना याद आ जाता है जिसे देखकर जूड़ी चढ़ गई थी, ‘‘जग्‍गू हाथी की नंगी पीठ पर बैठा उन्‍हीं की ओर आ रहा है। उसके हाथ में लम्‍बा अंकुश है। उसको देखकर अट्टाहस करता है- ‘‘तुम्‍हीं को खोज रहा हूं ठाकुर।’’ और हाथी उनकी तरफ दौड़ा देता है। निचाट मैदान में वे अकेले भागे जा रहे हैं लेकिन पैर ही नहीं उठते। पीछे हाथी की चिंग्‍घाड़..उनकी धोती खुल गई है। धोती की लॉंग लम्‍बी होकर पूंछ की तरह घिसट रही है। पैरों में लिपट रही है।’’ दलित की हुंकार और बढ़ते कद ने उन्‍हें पूंछ वाला पशु बना दिया। लेकिन करें तो क्‍या करें? आखिर गरज अब उनकी है। एक लाख से ज्‍यादा इनवेस्‍ट कर चुके हैं। बात बिगड़नी नहीं चाहिए। मजबूर होकर खुद ही पहुंच जाते हैं जहां टोले के लड़के जग्‍गू के साथ जश्‍न मना रहे हैं। उनके बीच ठाकुर पहुंचकर भी पूरी तरह उपेक्षित रहते हैं। जग्‍गू के ऊपर गुस्‍सा इतना कि मन करता है कि अपनी कुबरी उठाकर उसके सर पर दे मारें। बमुश्किल गाली और गुस्‍से पर नियंत्रण करते हैं, क्‍योंकि पता है कि अब गुस्‍से की गुंजायश नहीं बची। ठाकुर अपने जातीय दम्‍भ को कहां तक झुकाएं। दलित लड़कों के जोर देने पर उन के घर का पानी न चाहते हुए भी जबरन पीना पड़ता है, यह दिखाने के लिए कि वे उन्‍हें अब अपना मानते हैं। यही नहीं, यहां अब उनकी स्थिति विदूषक सी हुई जा रही है। एक लड़का उन्‍हें नाचने के लिये लड़कों की गोल की ओर खींचता है। दूसरा उनके पंजे में पंजा फंसाकर दाएं-बाएं हिलाते हुए कहता है- जरा कमरिया भी लचकाइए ठाकुर। नाचते हुए लड़कों  के बीच कुबरी वाला हाथ उठाकर वे मटकने लचकने लगते हैं।’’ सामन्‍ती सभ्‍यता को दलितों द्वारा करारा जवाब! जहां उन्‍हें इतना बौना, हास्‍यास्‍पद और बेचारा बना कर छोड़ा गया हो! क्‍या इससे अधिक और कोई बेहतरीन और यथार्थपरक अंत हो सकता था। मेरी समझ से तो नहीं।
    
        ‘ख्‍वाजा, ओ मेरे पीर शिवमूर्त‍ि की सम्‍वेदनाओं की जिंदा अभिव्‍यक्ति की एक और बेजोड़ मिसाल है। शिवमूर्त‍ि की कहानियों में गांव किसी विचार की तरह नहीं बल्कि जीवित अहसास के रूप में आया है। इन्‍होंने गांव के ऊपरी आवरण को नहीं, उसके भीतरी मर्म, उसकी आत्‍मा को पकड़ा है। यह ऐसा दौर है जब चरम विकास का दानव गांवों को उजाड़कर शहरों को बसा रहा है। गांव के उजड़ने में सरकार की नीतियां भी जरूरी इंतजाम कर रही हैं। बदलते भारत के विकासशील चरित्र का कुरूप चेहरा इन गांवों की शक्‍ल में दिखाई देता है। ऐसे समय में जब सरकारें गांव उजाड़ रही हैं, शिवमूर्त‍ि की तरल सम्‍वेदना कथा कहानियों में फिर से गांव को उसके समस्‍त अनुषंगों के साथ जीवित रखने का प्रयास कर रही है।
     
        ‘ख्‍वाजा, ओ मेरे पीर ग्रामीण जीवन के यथार्थ की दारुण तस्‍वीर है। अविकास, उपेक्षा, अपनापन, गरीबी, अशिक्षा, बीमारी और झूठी परम्‍पराओं के दुश्‍चक्र में फंसे ग्रामीण समाज में पति-पत्‍नी के वियोग की कारुणिक कहानी। शिवमूर्त‍ि के यहां ग्रामीण विकट परिस्थितियों में जीते हैं। यहां पुरुषों के बरअक्‍स स्त्रियां जितने जीवंत और जीवट रूप में आई हैं उतनी शायद ही हिन्‍दी पट्टी के किसी अन्‍य कहानीकार की कहानियों में आई हों। इस कहानी में लाचारी और सामाजिक दमन के शिकार मामा-मामी का मस्तिष्‍क अपनी कथित परम्‍पराओं की रक्षा में इस कदर अनुकूलित है कि वचन की रक्षा में मामी आजीवन विधवा का सा जीवन जीने को विवश हैं और मामा अंत तक एकाकी उपेक्षित अनंत पीड़ा से भरा जीवन जीने को। सारत: यह कहानी अंतहीन दारुणता का महाआख्‍यान है। पति-पत्‍नी जिंदा होते हुए, आसपास रहते और जीते हुए भी आदर्श और वचन के घेरे में अपने-अपने हिस्‍से का वियोग जीने को अभिशप्‍त हैं। यह कहानी उस परिवेश की कई पीढ़ि‍यों के जमीनी यथार्थ का सजीव बिम्‍ब रचती है। सरकारी उपेक्षा ने देश के कई गांवों और अंचलों को किस कदर उपेक्षित, विकास की धारा से कटा एकदम अलग-थलग बना कर छोड़ा है इसकी एक बानगी इस कहानी का अंचल है, जहां के लोग नारकीय जीवन जीने को विवश हैं। कहानी का एक उदाहरण देखिए, ‘‘माधोपुर से शिवगढ़ तक सड़क पास हो गई। तो सरकार ने आखिर मान ही लिया कि ऊसर जंगल का यह इलाका भी हिन्‍दुस्‍तान का ही हिस्‍सा है। पिछले पचास बरस में कितनी दरख्‍वास्‍तें दी गईं। दरख्‍वास्‍त देने वाले नौजवान बूढे़ हो चले तब जाकर..।’’ शिवमूर्त‍ि अपनी कहानियों में सीधे पात्रों पर नहीं आते, पहले उस परिवेश के भूगोल और इतिहास को इस तरह गहराई में जाकर उकेरते हैं, कि पाठकों के सामने पिछली कई पीढ़ि‍यां जीवित होने लगती हैं।
    
      कहानी के केन्‍द्रीय पात्र मामा-मामी अलग-अलग रहते हैं। मामी मायके में और मामा अपने घर प्राय: खेत में मचान पर। यह कहानी इन्‍हीं की त्रासद कहानी है, जिसके सूत्र पूरी कहानी में बिखरे पडे़ हैं जिन्‍हें जोडे़ बगैर इनकी पीड़ाओं की जड़ तक पहुंचना मुश्किल है। मामा अपने मरते पिता को पूरे परिवार को पार घाट लगाने के वचन से घिरे हैं और मामी भी इस बात से हटने को तैयार नहीं कि उनके ससुर ने उनके पिता को यह वचन दिया था कि लड़का घरजंवाई बनकर ससुराल में रहेगा। किन्‍तु परिस्थितियां ऐसी मारक बन जाती हैं कि अपने-अपने वचन और जिम्‍मेदारियों से घिरे दोनों ही साथ नहीं रह पाते। मां की जली-कटी सुनने के बाद भी मामी रात में अकेले ऐसे रास्‍तों को पार कर, जिन पर दिन में भी अकेले चलने से लोग घबड़ाते हैं, कुछ रातें मामा के साथ बिताने आती रहीं। उनके बच्‍चे भी हुए। किन्‍तु बाद में इस सबके बावजूद इनकी कहानी वियोग की करूण कहानी ही बनकर रह गई। मामी अपनी पूरी संकल्‍प शक्ति के साथ अपने वचन और आन की रक्षा भी करती हैं और साथ ही पति और गृहस्‍थी भी बचाए रखने की पूरी कोशिश करती हैं। मामा वायदा कर के भी कभी मामी से मिलने ससुराल नही जा पाए। जो साहसिकता मामी में है वह मामा में नहीं। लोक लाज के चलते वे कभी अपनी पत्‍नी से मिलने ससुराल नहीं आए। मामी कई मोर्चों पर अकेले लड़ती रहीं। पति की उदासीनता, मां-बाप की फटकार और सुनसान रातों में अकेले पति के पास जाने से जो नहीं घबड़ायी उसे उसके जवान बेटे के गायब होने ने अंदर ही अंदर तोड़ दिया। आसपास के गांवों में पदी अर्थात न्‍याय करने वाले के रूप में जाने जाने वाले मामा के लिए पिता को दिया वचन ज्‍यादा अहम था। उनका दर्द उनके विरहा गीतों में पिघल कर बह पड़ता है, ‘‘रतिया आया बिरतिया भाग्‍या, कोरवा न सोया हमार। एक दिन आवा खड़ी दुपहरिया देखीं सुरतिया तोहार। उनकी यह आस कभी पूरी न हो सकी। अपने-अपने हालातों के आगे विवश दोनों पति-पत्‍नी की पीड़ा पाठकों के मन को बेहद आर्द कर जाती है। यहां ये एक-दूसरे के अपराधी नहीं बल्कि इनकी परिस्थितियां अपराधी हैं। इनके त्‍याग की टीस और पीड़ा, उम्र ढलने के साथ परिवार की वृद्धों के प्रति संवेदनहीनता और उपेक्षा, और बढ़ा देती है। नब्‍बे की उम्र के हो चुके मामा को उनका अफसर भांजा (नैरेटर) पहली बार मामी से मिलाने ससुराल लिवा जाता है। बूढे़ की भतीज-बहुएं खुश हैं, बूढ़े से मुक्ति मिली। उधर बुढा़पे की इस दहलीज में अशक्‍त हो चुकी मामी बेटे-बहू के होते हुए भी अपनी दो रोटी के लिए भी चूल्‍हे के धुंए में आंखें फोड़ रही हैं। कहानी का अंत बेहद मार्मिक है। पति पहली बार ससुराल आया है। परिस्थितियों ने ऐसे मोड़ पर ला छोड़ा है कि चाह कर भी पत्‍नी पति को अपने पास नहीं रोक सकती। एक तो विवश हालात, दूसरे जो इतने सालों में न हो सका, अब किस हक से कहे। आर्थिक रूप से अवश पति की स्थितियां भी ऐसी नहीं कि पत्‍नी को साथ ले जाए। जिन्‍दगी की त्रासदी इससे बड़ी क्‍या होगी। जीवन के अंत समय में मिलकर भी अगले जनम में मिलने का वायदा कर के अलग हो जाते हैं- अब तो मिलना अगले जनम में ही होगा। ये झूठा मुगालता नहीं तो और क्‍या है।
     
      अब अंत में बात संग्रह की अंतिम कहानी जुल्‍मी की। पुस्‍तक के फ्लैग पर लिखा है, जुल्‍मी 1970 के आसपास लिखी गई लेखक की शुरुआती रचना है। इसे इस आग्रह के साथ प्रस्‍तुत किया जा रहा है कि पाठक देखें, उनका प्रिय कथाकार अपनी रचनायात्रा में कहां से कहां तक पहुंचा है?’’ जुल्‍मी कुछ हद तक ख्‍वाजा, ओ मेरे पीर के कथ्‍य से समानता रखती है। मिथ्‍या दम्‍भ से भरे नई-नवेली ब्‍याहता कोइली के ससुराल वाले अस्‍पताल में भर्ती उसके इकलौते भाई को देखने जाने की इजाजत नहीं देते। आखिरी आस पति से है। पति पिता की मर्जी और आज्ञा के खिलाफ एक शब्‍द नहीं बोल सकता। कोइली मरणासन्‍न अवस्‍था में पड़े भाई से मिलने को बेहाल है। पति की कायरता के कारण वह अकेले ही चली जाती है। भाई की तेरहवीं में ससुर आते हैं, लेकिन बहू की विदाई की बात नहीं करते। गम में डूबे मायके में भी इस बावत अभी कोई बात नहीं। ससुर का मन बहू की ढिठाई से उबल रहा है। मना करने पर भी वह मानी क्‍यों नहीं। आज्ञा की अवहेलना करने की ऐसी जुर्रत। उसकी सजा यह कि कोइली को ससुराल से न कोई बिदाई कराने आता है न कोई बुलावा आता। मायके वाले भी बिना किसी के बुलावे के कैसे भेज दें, एक बार नाऊ से, नहीं, कूकुर से संदेश भिजवा दें कि मेरी बहू को भेज दीजिए तो भेज दें। पति पत्‍नी को लिवाने आना चाहता है किन्‍तु बिना भात खाए की रीति निभाए हुए ससुराल आ नहीं सकता। दोनों पक्षों की जिद और झूठे मान-सम्‍मान की रक्षा के ढकोसले में पति-पत्‍नी अलग हो जाते हैं। मायके में दुबारा विवाह का जोर बढ़ने लगता है। लेकिन कोइली के लिए दूसरे पति के बारे में सोचना असम्‍भव है। विवाह के बाद की गिनी-चुनी यादें समेटे और पति की सूरत की धुंधली सी छाया लिए आठ साल बीत जाते हैं। आठ साल की लम्‍बी प्रतीक्षा के बाद घर के द्वारे आए मेहमान और जुटी भीड़ ने उसका विश्‍वास पक्‍का कर दिया कि उसका पति आखिर उसे लेने आ गया। मन में जज्‍बातों का तूफान उमड़ पड़ता है। खुशी का ठिकाना नहीं। लेकिन थोड़ी ही देर में मानों सारी खुशी ही नहीं उसके प्राण भी हर लिए गए हों। घर आया मेहमान उसका पति नहीं बल्कि पिता द्वारा उसके लिए ढूंढा गया दूसरा पति है। दिल-दिमाग में जिसकी यादें और धुधला सा अक्‍स बसाए वो अभी तक जिसकी प्रतीक्षा में थी, वह सब निर्दयता से छीन लिया गया। कोइली दूसरे पति के घर चली गई। कई वर्षों बाद एक मेले में कोइली की बुआ कोइली की मुलाकात उसके पहले पति से करवाती है। कामापुर वाले अपने भोले भंडारी को देखकर उसका दिल उमड़ पड़ता है। दोनों मिलकर अपने पिछले पन्‍द्रह सालों के घाटे-नाफे का हिसाब करते हैं और इसके साथ कहानी खत्‍म हो जाती है।  


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