Friday, December 28, 2012

देवि माँ सहचरि प्राण

लमही पत्रिका के शिवमूर्ति विशेषांक के लिए इसके अतिथि सम्पादक सुशील सिद्ार्थ ने मेरी मित्र शिवकुमारी जी का साक्षात्कार लिया था जो ब्लॉग के पाठकों के लिए प्रस्तुत है-उचय-उचय

देवि मां सहचरि प्राण !

सचमुच, उस समय कबीर की ये पंक्तियां मन में जाग गईं:

’तू कहता कागद की लेखी

मैं कहता आंखिन की देखी।’

और मु-हजये ही क्यों, स्वयं शिवमूर्ति को भी कबीर याद आए थे। जब उन्होंने गौतम सान्याल से कहा था, ’आपको उसकी प्रतिभा का अंदाजा नहीं गौतम, वह भले ही निरक्षर है मगर जीवन के आखर उसने कबीर की तरह खूब प-सजय़े हैं।’ उसने यानी शिवकुमारी ने।

शिवकुमारी का नाम शिवमूर्ति के वृतान्त में एक सहज अनिवार्यता प्राप्त कर चुका है। दोनों के नाम का आरम्भ शिव से। इससे भी एक सुविधा मिली संस्मरणकारों मित्रों को। एक विख्यात जोड़ा उठाया ’तीसरी कसम’ से। शिवमूर्ति फणीश्वरनाथ रेणु के अनन्य भक्त! तो उनके पात्रों को आत्मसात कर लिया होगा। लिहाजा रूपक उभरा ’हीरामन-ंउचयहीराबाई’। शिवमूर्ति हीरामन और शिवकुमारी हीराबाई। और इस हीरामन हीराबाई की कथा मित्र लेखकों ने इतनी बार सुनाई कि मन में एक धारणा बन गई। धारणा के आधार को पुख्ता करते कुछ वाक्य........कुछ निष्कर्ष:

1.    ’जीने की शिवमूर्तियाना अंदाज’ में कथाकार संजीव प्रसंग आने पर अवधी का बिरहा उद्धृत करते हैं। मतलब निरहू गड़रिया इसलिए बिरहा गा रहे हैं क्योंकि ’जेकर मेहरि दुई चार।’ उद्धरण के बाद संजीव का विश्लेषण, ’शिवमूर्ति बिरहा गाते रहे, कूटने पीसने का फ्रंट संभाला सरिता जी ने। मगर वह तो कुल जमा एक ही मेहरि हुई, बाकी........? क्या पतुरिया शिवकुमारी?’

2.    ’कसाईबाड़े में बुद्ध’ में कथाकार-ंउचयपत्रकार राजेन्द्र राव भी असमंजस में हैं कि ’गंवई पतुरिया’ शिवकुमारी के साथ ’क्या था इस अनाम रिश्ते का आधार जो कई दशक बीतने के बावजूद अभी भी कायम है।’

3.    शिवमूर्ति से की गई बातचीत में गौतम सान्याल लिखते हैं कि शिवकुमारी के कमरे में क-सजय़ाई के नमूनों की तरह दो तस्वीरें टंगी रहती थीं। एक में सरस्वती की आकृति थी तो दूसरे में जॉन कीट्स की काव्य पंक्ति दर्ज थी, जिसका अर्थ है-ंउचय सबसे प्यारा होता है, जब वह आंसुओं से ओतप्रोत होता है। इस पर गौतम की मार्मिक टिप्पणी है, ’....... ये पहले तकिए की खोल पर का-सजय़े गए थे, बाद में शिवकुमारी ने इसे तकिए से उतारकर फ्रेम में म-सजय़ दिया था?

4.    अपने पुनः पुनः प्रकाशित चर्चित संस्मरण में दिनेश कुशवाह लिखते हैं, ’शिवमूर्ति मु-हजये उनसे मिलाने ले गए थे। मैंने देखा कि वह गरीब दुखियारिन शिवमूर्ति की फ्रेंड, फिलॉसफर, गाइड तीनों हैं।’

इन सबके साथ ’मैं और मेरा समय’ में शिवमूर्ति ने स्वयं अपनी दोस्त शिवकुमारी के विषय में बेहद संवेदनशीलता के साथ लिखा है। उन्होंने कई रिश्तों को नाम देते हुए यहां एक असमर्थता भी प्रकट की, ’पर शिवकुमारी के साथ पनपे रिश्ते को मैं आज तक कोई नाम नहीं दे पाया। दोस्ती शब्द एकदम अपर्याप्त है पर काम इसी से चलाना होगा। कब हुई शिवकुमारी से जानपहचान? कब हम नजदीक आए? कुछ अता पता नहीं! लगता है पैदा होने के दिन से ही परिचित थे।’

तो इतना सब प-सजय़ने और कितना सब सुनने के बाद यह जिज्ञासा सहज थी कि आखिर इस शिवपुराण में शिवकुमारी का मिथक है क्या? जिज्ञासा पनपती रही और मिथक गा-सजय़ा होता रहा।

तभी शिवमूर्ति को ’लमही सम्मान’ देने की घोषणा हुई। भाई विजय राय ने घोषणा में इतना और जोड़ा कि इस अवसर पर लमही का शिवमूर्ति विशेषाांक प्रकाशित होगा। फिर उन्होंने मु-हजये सूचित किया कि आप इस विशेषांक के अतिथि सम्पादक होंगे। इससे पहले मैं लमही का ’कहानी एकाग्र’ अंक सम्पादित कर चुका था। जब यह सूचना कुछ चतुर सुजान लोगों तक पहुंची तो उनमें से एक अति चतुर ने विजय राय से फोन कर पूछा कि क्या सुशील सिद्धार्थ लमही के ’स्थाई अतिथि सम्पादक’ हो गये हैं। विजय राय ने उत्तर दिया कि नहीं, अभी वे परिवीक्षण पर हैं। बहरहाल, सम्पादक की जिम्मेदारी आते ही जो बातें तय कीं, उनमें से एक यह भी कि अब शिवकुमारी से मुलाकात करनी ही करनी है।

पता लगाया तो मालूम हुआ कि शिवकुमारी अपने परिवार के बीच मुम्बई में हैं। कोई बात नहीं! मुम्बई जाएंगे। विजय राय भी तैयार। तभी शिवमूर्ति ने एक दिन फोन किया कि पार्टनर! मुम्बई जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। शिवकुमारी कुरंग आई हुई हैं। वाह! संयोग हमारी अगुवाई कर रहा है। यह तो बाद में कुरंग में खुद शिवकुमारी जी ने बताया कि वे हमसे बातचीत करने के लिए ही यहां आई हैं। कुछ घरेलू मसले भी थे। जो इस बहाने साथ जुड़ गए थे।

हमने कभी शिवमूर्ति का गांव नहीं देखा था, जिसके बारे में उनके मित्र बताते हैं ’अवसि देखियइ देखन जोगू।’ कुछ ही दिन पहले लता शर्मा और राजेंद्र राव कुरंग गए थे। दोनों के संस्मरण उत्सुकता ब-सजय़ाने वाले थे। बहरहाल, शिवमूर्ति, सरिता जी, विजय राव और मैं 18 मई 2012 को कुरंग पहुंच गए।

और 18 मई की शाम शिवकुमारी जी से मुलाकात हुई। 19 मई को उनसे लम्बी बातचीत हुई। शिवमूर्ति ने सही कहा था कि उन्होंने जीवन के आखर खूब प-सजय़े हैं। दो दिन की मुलाकात और बातचीत ने उनके प्रति मेरे मन पर जो प्रभाव डाला वह अद्भुत है। पहले की सारी धारणाएं ध्वस्त हो गईं। रूपकों उपमाओं के किले

शिवकुमारी जी से जो बातचीत हुई, वही इस आलेख का आधार है। उनको देखते सुनते बोलते बतियाते जो अनुभव मिला उसने बताया कि ’हीरामन हीराबाई’ की तुलना कितनी ओछी और अर्थहीन है। हीराबाई क्या इसलिए कि शिवकुमारी बेड़िन जाति में जनमी थीं! क्या इसलिए कि वे शुरुआत में नाचने गाने का काम करती थीं! क्या इसलिए कि इस पेशे के अन्य निहितार्थ भी थे। स्त्री-ंउचयपुरुष सम्बन्धों से केवल श्रृंगार रस निचोड़ने वाले ही ’हीरामन हीराबाई’ का रूपक खड़ा कर सकते थे। इन्होंने शिवमूर्ति के ये वाक्य प-सजय़ कर भी नहीं प-सजय़े, ’पतुरिया, वेश्या, बेड़िन! ये शब्द पूरे देश में अपमान और तिरस्कार के प्रतीक हैं। इन्हें देखने की मेरी दृष्टि में जो परिष्कार हुआ है वह शिवकुमारी के सान्निध्य के अभाव में शायद कभी न होता।’

आखिर क्या है इस सान्निध्य का अर्थ? जिसे सम-हजयने में अक्सर लोग चूकते रहे। जिसे शिवकुमारी जी से मिले बिना........उनसे बात किए बिना  सम-हजया ही नहीं जा सकता। उनसे मिल कर.......उनका साक्षात्कार लेकर जो सम-हजय पाया वह पाठकों के लिए प्रस्तुत है।

’अम्मा! देखो मास्टर साहब आए हैं।’ जब हम शिवकुमारी जी के घर पहुंचे तो उनकी बेटियां और बेटियों के परिवार के कुछ सदस्य खुले खुले आंगन मंे मौजूद! परिवेश में एक हड़बड़ी, क्रोध और असुरक्षा का एहसास। पता चला मकान कि जमीन को लेकर पड़ोसियों से एक दो दिन पहले ही -हजयगड़ा हो चुका है। एक बेटी के हाथ पर प्लास्टर बंधा था। चारों ओर तनाव की छाया। ..... हम एक बड़े से कमरे में पहुंचे, जिसमें प्लास्टर वगैरह होना बाकी था। तभी एक ओर से शिवकुमारी जी ने प्रवेश किया। शरीर पर सामान्य सी साड़ी.....आंखों पर चश्मा। शिवमूर्ति को देखते ही उनका मन और चेहरा खिला उठा। शिवमूर्ति ने हमारा परिचय कराया। ये हैं विजय राय.......ये हैं सुशील सिद्धार्थ। उनको हमारे आने का प्रयोजन मालूम था। बताने लगीं कि आते ही जगह जमीन का -हजयगड़ा शुरू हो गया। मारपीट हुई। थाना चौकी की नौबत आ गई। फिर वे कुछ लोगों का नाम लेकर विवरण देने लगीं। परिवार के बाकी सदस्य छूट रहे प्रसंगों को जोड़ रहे थे। मैं शिवकुमारी जी को देख रहा था। क्या बातें हो रही हैं, इसे एक पार्श्व कोलाहल की तरह अनुभव कर रहा था। अगले दिन मिलने की बात तय कर हम वहां से चले।.....अगले दिन शिवमूर्ति के घर पर शिवकुमारी जी से बातचीत हुई। ऐसी बातचीत जिसने जीवन में छिपे जीवन को देखने की मेरी दृष्टि बदल दी।

शिवकुमारी शिवमूर्ति को मास्टर साहब कहती हैं। सच इसके विपतरीत है। कायदन शिवकुमारी शिवमूर्ति की मास्टर साहब हैं। जीवन की शुरुआती पाठशाला में संघर्षों से जू-हजयने का जो पाठ शिवमूर्ति प-सजय़ रहे थे, उसका मार्गदर्शन किसने किया होगा! अगर एकाधिक नाम रहे होंगे तब भी एक नाम शिवकुमारी का रहा होगा। कहती हैं वे, ’इनसे तो हमार दोस्ती का नाता है। दोस्ती भी बहुत पुरानी।’ शिवमूर्ति जन्म के दिन से मानते हैं, ऐसा ही सही।

तब सामाजिक परिस्थितियां इतनी भिन्न थीं कि यह दोस्ती हुई कैसे होगी! शिवकुमारी शिवमूर्ति से उम्र में दो-ंउचयचार साल बड़ी हैं। उन्होंने ही पहले पहचाना होगा इस रिश्ते का चेहरा। उनकी ओर से आकार लेती दोस्ती में संरक्षण का भाव भी शामिल रहा होगा। एक उदाहरण तो शिवमूर्ति ही देते हैं कि जब उन्हें रास्ते में एक बार कुछ लड़के परेशान कर रहेे थे तब शिवकुमारी ने हाथ में पत्थर उठा लिया था। पुराना  समय था, लड़के सवर्ण घरों के थे। क्या शिवकुमारी को भय नहीं लगा होगा कि उन पर कोई संकट आ सकता है! शिवमूर्ति तब हाशिए का जीवन जी रहे थे। कोई सम-हजयदार युवती ऐसे के लिए दबंगों से रार क्यों मोल लेती! न आर्थिक लाभ न सामाजिक! तब यह क्या बात थी जो शिवकुमारी के मन में संवेदना या समानुभूति जगा रही थी।

’हम भी मुसीबतों से घिरे थे और यह भी। यह सम-हजयो कि दुख ने दुख को पहचान लिया था’ -ंउचय-ंउचयबताती हैं शिवकुमारी। यह माना जा सकता है कि शिवकुमारी के पास आर्थिक दुख उतना न रहा होगा जितना शिवमूर्ति के पास। नाच-ंउचयगाकर वे कुछ न कुछ उपार्जन तो कर लेती होंगी। लेकिन एक दुख ऐसा था जिसे वे आज तक नहीं भुला सकी हैं। यह दुख तो गोस्वामी तुलसीदास भी नहीं भुला पाये जीवन भर। ’तिजरा के टोटक’ की तरह माता पिता त्यागे जाना, सालता रहा बाबा को।......बात निकलती है तो शिवकुमारी खिड़की से बाहर.....दूर किसी अतीत में देखने लगती हैं, ’अपनी अम्मा का तो चेहरा भी नहीं देखा। पता नहीं कैसी थीं कौन थीं। ......और बाप का भी क्या पता। हम तो धरती पर मानो अइसे ही आ गये।’ और शिवमूर्ति? वह भी पिता के होते हुए भी जैसे पितृहीन ही थे। यह समानता शिवकुमारी को शिवमूर्ति के निकट लाई होगी। निदा फाजली लिखते हैं, ’दुख ने दुख से बात की बिन चिट्ठी बिन तार।’ शिवकुमारी अनुभव कर रही होंगी कि एक बेबाप जैसा लड़का क्या क्या सह रहा है! वे हीराबाई होतीं तो क्या इस तरह सोच पातीं।

शिवकुमारी ने शिवमूर्ति की गाहे ब गाहे आर्थिक मदद की। हालांकि बताते हुए वे गहरे संकोच में पड़ जाती हैं, ’सोचो तो, इतनी तंगी थी कि दस रुपये में दो तीन लड़कियों को ट्यूशन प-सजय़ाते थे हमारे यहां। कभी कभी दस पांच रुपये से कुछ और मदद भी कर देते थे।’ कुछ तो शिवकुमारी ने देखा ही होगा शिवमूर्ति में। हो सकता है यही देखा हो कि यह लड़का कुछ बनना चाहता है। अपनी अभाव भरी जिन्दगी को -हजयटक देना चाहता है। शिवमूर्ति की महत्वाकांक्षा और आत्मसम्मान की भावना ने उनके मन के किसी कोने को जगमगा दिया हो!

यह एक उदात्त भाव है। स्वयं दुख के गहरे अंधेरे में रहते हुए किसी को उसके दुख से उबारने का संकल्प! यही मित्रभाव है। और आगे ब-सजय़ कर सोचें तो यही है मातृत्व का लक्षण। जिसके चलते भारत में मातृशक्ति की अवधारणा विकसित हुई है। अपवादों की छोड़ दें तो हर स्त्री में मातृत्व की अन्तः सलिला प्रवाहित होती ही है। एक पुराने श्लोक में स्त्री की अनिवार्य विशेषता उसमें निहित संरक्षण की प्रवृत्ति बताई गई है। शिवकुमारी की यही प्रवृत्ति मित्रता के रूप में सामने आई।

इस बात की साक्षी शिवमूर्ति भी देंगे कि शिवकुमारी ने कभी उनसे कुछ मांगा चाहा नहीं। तब भी नहीं जब शिवमूर्ति संघर्षों के भंवर में थे। और तब भी नहीं जब शिवमूर्ति सुविधाओं के रंगमहल में आ गये। उसी दिन जब मैं शिवकुमारी जी से बात कर रहा था उनके परिवार का पड़ोसियों से -हजयगड़ा हो चुका था। अलबत्ता मैं सोच रहा था कि क्या वे शिवमूर्ति से थाना-ंउचयदरोगा से सिफारिश की बाबत कुछ कहेंगी। उन्होंने कुछ नहीं कहा। बस शिवमूर्ति के लॉन में बैठे कुरंग के भूतपूर्व प्रधान को -हजयगड़े को सूचना भर दी। प्रधानजी ने -हजयगड़े को दार्शनिक आयाम दे दिया, ’अरे को की का कब तक मारी। अइसे ही -हजयगड़ते जिन्दगी बीत जाई।’ इसे सुनकर शिवकुमारी थोड़ा सा मुस्कराई थीं।..........मगर यह नहीं कि सिफारिश के लिए शिवमूर्ति से एक शब्द का हो! शिवकुमारी में एक सनातन संतोष का भाव देखा मैंने। शिवमूर्ति से कुछ भौतिक पाने या मांगने का लक्षण तक नहीं। दाता हैं शिवकुमारी!

कहते हैं गौतम सान्याल से शिवमूर्ति, ’पंचतत्वों से बना मेरा घर।’ यानी पांच स्त्रियों ने सिर पर मिट्टी े लगता है कि शिवकुमारी भी पंचतत्व का एक विचित्र रूप है। धरती का धैर्य, जल की सजलता, अग्नि का तेज, गगन की उदात्ता और पवन की गतिशीलता। शिवकुमारी घर का अर्थ जानती थीं, इसलिए अपने मित्र के लिए सिर पर माटी

शिवकुमारी के जीवन में समानान्तर समय चलता रहा। कभी किसी दुबे जी ने सहारा दिया तो घर बनता दिखा......वे छोड़ गये तो संघर्ष फिर से प्रारम्भ! वे बनती रहीं.....

यह सब जान लो तो ’देह’ शब्द की स्मृति भी पाप लगती है। देह से जुड़े संबंध ऐसे होते ही नहीं। शिवकुमारी जी से बात कर लीजिए.......उनकी आंखें प-सजय़ लीजिए तो उनकी निरक्षरता पर गर्व होने लगता है।

शिवकुमारी सचमुच शिवमूर्ति के लिए ’देवि मां सहचरि प्राण’ हैं। बता रहे थे शिवमूर्ति कि इस बार लगभग तीन दशक बाद शिवकुमारी से भेंट हो रही है। शिवकुमाररी हुलास से भर कर कहने लगती हैं, ’ऐसे नहीं मिले तो क्या हुआ। हम तो रोज मिलते हैं। रोज ही बात करते हैं’ यही है प्राण तत्व! इसीलिए जब बिरहा में आए ’मेहरि शब्द का अर्थगर्भ प्रयोग संजीव करते हैं तो मेरा अवधी भाषा मन विमन हो जाता है। मेहरि या मेहरिया अवधी में पत्नी या पत्नीवत् को कहते हैं। कम से कम बिरहा में तो यही अर्थ है। इसलिए कथाकार संजीव जी, रह गईं दिशाएं इसी पार। काश आप उस पार भी कुछ देख सके होते।

यह प्राण तत्व शिवमूर्ति को भी आंदोलित करता है। शिवमूर्ति ने जाने कितनी बार कृतज्ञता व्यक्त की है। लेकिन बात करते समय मैंने जिक्र किया तो बड़ी दृ-सजय़ विनम्रता से शिवकुमारी ने कहा ’ऐसी कोई बड़ी बात नहीं। एक इन्सान जिसे अपना सम-हजये उसके लिए इतना तो करता ही है। हमने कुछ नहीं किया। वक्त जो कहता रहा करते रहे।’ कहा है शिवमूर्ति ने कि समय ही असली स्रष्टा है। इस स्रष्टा ने चाहे जो किया हो, शिवकुमारी को कभी ’गरीब दुखियारिन’ नहीं बनाया। पता नहीं क्यों दिनेश कुशवाह ने शिवकुमारी के लिए ऐसे शब्द लिखे। इन शब्दों से आकार लेता बिम्ब शिवकुमारी के साथ मेल नहीं खाता।

संस्मरणकारों से अधिक सम-हजयदार शिवमूर्ति की पत्नी सरिता जी हैं जिन्हें ’शिवपुरण’ में शिवकुमारी के मिथक का पवित्र महत्व पता है। दोनों ने एक साथ माटी

बातचीत आरोह अवरोह के साथ चल रही है। और भी जाने क्या क्या कहना चाहती हैं शिवकुमारी। अधूरे वाक्य.......छोटे छोटे अंतराल और मौन! अभिव्यक्ति कितनी आत्मीय और अर्थपूर्ण! जो लिख रहा हूं, इसी भाव-ंउचयभाषा का अनुवाद है। कुशल से कुशल अनुवादक हो, अनुवाद करते समय मूल का कुछ न कुछ छूट ही जाती है। यहां भी रह गया होगा। रह ही गया है।

बातचीत के बाद शिवकुमारी अपने घर जाने के लिए तैयार हैं। बात जमाने के व्यवहार की चल रही है। उन्होंने कहा कि ’मैंने तो अपने बच्चों से कहा दिया है कि बु-सजय़ापे में तुम लोग नहीं पूछोगे तो मैं मास्टर साहब के घर चली जाऊंगी। सरिता जी अपनेपन से शिवकुमारी का हाथ थाम लेती हैं।

मास्टर साहब यानी शिवमूर्ति कुछ कदम दूर खड़े यह सब देख सुन रहे हैं। मैं विश्वास के आलोक में नहाया एक ऐसा दृश्य देख रहा हूं जो मेरे लिए समय के रंगमंच पर हमेशा के लिए ठहर गया है।

Friday, December 21, 2012

लमही पत्रिका (अक्टूबर-दिसम्बर २०१२) में मेरी कहानियों पर प्रखर आलोचक राहुल सिंह का लेख प्रकाशित हुआ है-


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1984 esa vkbZ *fljh miek tksxk* dFkk ds Lrj ij *HkjrukV~;e* dk izfriwjd gSA vxj ogka ,d L=h dh egRokdka{kk mls ?k`.kk ds dsUnz esa ykrh gS rks ;gka ,d iq#‘k dhA ekuo LoHkko dks lacksf/kr ;g nksuksa dgkuh ;ksa rks LokHkkfod yxrh gSa ysfdu ;g LokHkkfodrk ftl vLokHkkfodrk ls iSnk gksrh gS] og Mjkrh gSA eu esa ,d nq%[k vkSj xgjh d#.kk QwVrh gSA
1991 esa vkbZ *dslj&dLrwjh* f”koewfrZ dh “ks‘k dgkfu;ksa ls vyx fetkt dh gSA firk dh vdeZ.;rk vkSj csVh dh mnkRrrk ds chp iljh ;g dgkuh vR;Ur dk#f.kd gSA vius lkekU;ius esa og cs/krh gSA iwjh dgkuh vfHk/kkRed gS] vius dgus ds wBh ejtkn esa fyiVh fir dh vdeZ.;rk&ykijokgh dks vius iz;Ruksa ls bap nj bap rh rc f”koewfrZ dgkuh ds ek/;e ls vkRe laosnuk ds ml d‘V dk dgkuh ds :Ik esa *riZ.k* djrs gSaA f”koewfrZ dh dgkfu;ksa esa fufgr ekfeZdrk] d#.kk] =kln Hkko&cks/k dh og rhozrk vkSj lkUnzrk mls yEcs le; rd /kkj.k djus ls mith gSA ,slk yxrk gS fd f”koewfrZ ds thou esa futh ;k nwljksa ds vuqHko ds :Ik esa vk;s ;s {k.k] mudh vkRek esa uD”k gksrs pys x;s Fks vkSj tc mudh vkRek bu vuqHkoksa vkSj nq%[kksa dks /kkj.k dj ldus esa v”kD; gksus yxh rHkh mUgksaus bldk lk>k djuk t:jh le>k vkSj bu futrkvksa dks lkekftdrk ds nk;js esa ys vk;sA
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पता - 
ए. एस. महाविद्यालय,
देवधर, झारखण्ड-८१४११२
दूरभाष : ०९३०८९९०१८४

Wednesday, December 19, 2012

लेखक की पॉलिटिक्स है - प्रतिरोध


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शिवमूर्ति २/३२५ विकास खंड गोमती नगर लखनऊ -२२६०१०
Blog- shivmurti.blogspot.com

Tuesday, December 18, 2012

लमही पत्रिका ने अपने अक्टूबर-दिसम्बर, २०१२ का अंक मेरे ऊपर केन्द्रित किया है, जिसे आप लमही के ब्लॉग-htt://lamahipatrika.blogspot.com, पर तथा फेसबुक- htt://www.facebook.com/people/lamahi-patrika/100003787422744

लमही पत्रिका ने अपने अक्टूबर-दिसम्बर, २०१२ का अंक मेरे ऊपर केन्द्रित किया है, 


पूरी पत्रिका देखने के लिए नीचे कवर पर क्लिक करें. 



मंच पत्रिका ने अपने जनवरी-मार्च २०११ के अंक को मेरे ऊपर केन्द्रित किया है, इसे आप निम्न वेबसाइट पर विस्तृत देख सकते हैं. वेबसाइट-WWW.MANCHPRAKASHAN.COM

मंच पत्रिका का जनवरी - मार्च २०११ अंक मेरे उपर केन्द्रित था. ब्लॉग के पाठकों के लिए इस अंक के दोनों पीडीऍफ़. यहाँ प्रस्तुत हैं..

पार्ट १ -   http://issuu.com/shivmurti/docs/manch


पार्ट २ -   http://issuu.com/shivmurti/docs/manch_11















इनेस फोर्नेल यूनिवर्सिटी ऑफ़ गोटिनजेन (जर्मनी) में ENDOLOGY पढ़ाती हैं, भारतीय साहित्य में साम्प्रादायिकता पर किये गए लेखन पर उनके द्वारा विशेष अध्ययन किया गया है, उनके आलेख 'Die Ereignisse von Ayodhya im spiegel der gegenwartigen Hindi-Literatur' में मेरे उपन्यास त्रिशूल पर विस्तार से लिखा गया है जो ब्लॉग क पाठकों के लिए यंहा प्रस्तुत है -

Sunday, December 16, 2012

भोपाल की अग्रणी साहित्यिक संस्था 'स्पंदन' द्वारा स्वराज भवन में आयोजित कार्यक्रम में श्री शिवमूर्ति पर केन्द्रित लमही के विशेषांक का विमोचन किया गया, कार्यक्रम में डॉ विजय बहादुर सिंह , श्री राजेश जोशी, नरेन्द्र जैन, पंकज राग, उर्मिला शिरीष तथा प्रज्ञा रावत ने इस अंक का विमोचन किया.

प्रख्यात कथाकार काशीनाथ सिंह को आसनसोल में सृजन सम्मान-३ प्रदान करते हुए कथाकार शिवमूर्ति

प्रसिद्ध कथाकार ओमा शर्मा द्वारा लिया गया शिवमूर्ति का साक्षात्कार जो साहित्यिक पत्रिका लमही के अक्टूबर-दिसम्बर २०१२ में प्रकाशित हुआ है, ब्लॉग के पाठकों को पढने के  लिए नीचे वेबसाइट लिंक दिया जा रहा है.
http://issuu.com/lamahipatrika/docs/lamahi_oct_dec_2012
साहित्य के लिए दिया जाने वाला लमही पुरस्कार २०११ मुझे दिनांक ८ अक्टूबर २०१२ को लखनऊ में किया गया. इस समारोह की कुछ झलकियाँ-
बाएं से प्रसिद्ध आलोचक एवं कवि अशोक बाजपेई, बीच में शिवमूर्ति प्रसिद्ध कथाकार चित्रा मुद्गल  एवं लमही  पत्रिका के प्रधान संपादक श्री विजय राय.

लमही पत्रिका के शिवमूर्ति विशेषांक का लोकार्पण प्रसिद्ध कथाकार तथा समारोह की अध्यक्ष   मुद्गल द्वारा किया गया, साथ में बाएँ से शिवमूर्ति, अशोक बाजपाई और दाहिने से श्री विजय राय तथा श्री सुशील सिद्दार्थ

Saturday, December 15, 2012

प्रसिद्ध कथाकार ओमा शर्मा द्वारा लिया गया शिवमूर्ति का साक्षात्कार जो साहित्यिक पत्रिका लमही के अक्टूबर-दिसम्बर २०१२ में प्रकाशित हुआ है, ब्लॉग के पाठकों के लिए यंहा प्रस्तुत है.
http://issuu.com/lamahipatrika/docs/lamahi_oct_dec_2012
प्रसिद्ध कथाकार ओमा शर्मा द्वारा लिया गया शिवमूर्ति का साक्षात्कार जो साहित्यिक पत्रिका लमही के अक्टूबर-दिसम्बर २०१२ में प्रकाशित हुआ है, ब्लॉग के पाठकों के लिए यंहा प्रस्तुत है.
http://issuu.com/lamahipatrika/docs/lamahi_oct_dec_2012

Monday, September 24, 2012

केशर-कस्तूरी

 केशर-कस्तूरी 
यह कहानी वर्तमान साहित्य के अगस्त   १९९० के अंक में प्रकाशित हुई थी फिर राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित मेरे कहानी संग्रह 'केशर कस्तूरी' में संकलित हुई। ब्लाग के पाठकों के लिए यहाँ प्रस्तुत :-

      ''पापा, आपके ए.सी. साहब आए हैं।'' बेबी ने कमरे में घुसतें हुए सूचित किया। मैं चौक गया। पूछा- ''कहाँ हैं?''
      ''बाहर सड़क पर। जीप में ही बैठे हैं?''
      ''अरे सुनो जी। जरा शीशा-कंघी देना तो। और पैजामा भी।''
    मैंने कलम और रजिस्टर फेंकते हुए आवाज लगार्इ और उलटकर बिस्तर से नीचे उतर आया। अरे, मेरी चप्पलें कौन ले गया, यहाँ से?
    सोचा था, आज पूरे दिन लगकर कहानी पूरी कर डालूँगा। बहुत दिनों से इसका लिखना टलता आ रहा है। सबेरे ही बच्चों को बुलाकर सचेत कर दिया था, कोर्इ मिलने आए तो कह देना, पापा नहीं है।
    ''लेकिन पापा। आज ही के लिए तो आपने वादा किया था मेरे कपडे़ लाने का।'' केशर ने याद दिलाया था।
    ''अब कपडे़ दूसरे दिन बेटा।''
    ''लेकिन कल ही तो मेरी सहेली की शादी है। सिलने तक का समय नहीं है। आप महीने भर से टालते आ रहे हैं।''
    ''कुछ भी हो, आज मेरा लिखने का मूड बन चुका है। आज तो किसी सूरत मे नहीं। नहाने तक के लिए नहीं उठना है। दरअसल मूड की बात है न। एक बार मूड उखड़ा तो महीने भर की छुट्टी हो जाएगी।...कान खोलकर सुन लें सब लोग। आज मैं घर में नहीं हूँ। किसी सूरत में नहीं।''
    और घंटा भर भी नहीं बीता था कि यह आफत। पूरा दिन चौपट हो जाएगा। जल्दी-जल्दी पैजामा डालकर बाहर आया। सामने ही सड़क है। लेकिन यहाँ तो कोर्इ जीप दिखती नहीं। सामने से आती केशर ने कहा, ''पापा। आप बाहर क्यों निकल आए? मैंने तो आपके साहब से कह दिया कि पापा कहीं गए हैं।''
    ''अरे। ऐसा क्यों कह दिया? किधर गए?''
    ''बोले, डाकबंगले चल रहा हूँ। लौटें तो भेज देना।''
    अभी अर्दली नहीं आया था। लौटकर बेबी से कहा, ''दौड़कर ड्राइवर को बुला लाओ।''
    पत्नी से कहा, ''तीन-चार कप चाय तैयार करके थर्मस में रखो। थोड़ा बिस्कुट वगैरह भी।''
    कपड़े बदलते हुए मैं सोचने लगा-इतने सबेरे-सबेरे क्यों आ टपके जनाब? बिना किसी पूर्व सूचना के।
    ''लेकिन पापा,''केशर ने थर्मस धोते हुए कहा, ''जब मैंने कह दिया कि पापा घर में नहीं हैं तो परेशान होने की क्या जरूरत है? मान लीजिए कि आप वापस लौटे ही नहीं। चुपचाप बैठकर कहानी पूरी कीजिए। फिर पता नहीं, कब मूड बने?''
    ''तुम नहीं समझोगी बेटी। यह नौकरी है। ऐसे में अगर मैं घर में बैठा भी रहूँ तो क्या लिखने में मन लग सकता है?''
    डाकबंगले पर भी कोर्इ जीप नहीं थी। चौकीदार ने बताया कि यहाँ तो कोर्इ आया ही नहीं। दफ्तर गया। वहाँ भी नहीं थे। फिर घर लौटा। केशर को बुलाकर पूछा, ''तुमने कैसे जाना कि आने वाले हमारे ए.सी. थे।''
    ''पापा !'' केशर सोफे पर बैठते हुए बोली, ''मैं ही हूँ आपकी ए.सी. साहब। मेरे काम के लिए आप घर में नहीं हैं और अपने साहब का हुकुम बजाने के लिए... हम लोग आप पर मुकदमा चलाएँगे।''
    मुझे बहुत तेज गुस्सा आया। ऐसा मजाक! मेरी सगी बेटी होती तो हो सकता है, मैं हाथ भी उठा देता। पत्नी पर बरस पड़ा, ''तुमने भी नहीं बताया। मैं कहाँ-कहाँ भटकता फिरा।''
    ''मुझे भी तो नहीं पता था।'' पत्नी ने मुस्कराते हुए कहा, अब चलिए, लिखिये बैठकर।''
    ''अब क्या लिखूँगा, खाक।''
    केशर हँसते हुए चाय का कप ले आर्इ।
    ''मुझे माफ कर दीजिए पापा। लेकिन जब उठ गए हैं तो मार्केटिंग ही कर आइए।'' केशर के सामने देर तक गुस्सा टिक भी तो नहीं कसता। रोते हुए को भी हँसा देती है। जब से आर्इ है, उसकी चुहल और हँसी से उजाला छाया रहता है। इतने गहरे मजाक की बात सोचना, उसी के वश की बात थी। सचमुच, कल ही उसकी पक्की सहेली की शादी है और मैं एक दिन पहले भी उसके लिए कपड़ें लाने में टाल-मटोल कर रहा था। सराकर अन्याय। और क्या ही नायाब तरीका निकाला उसने इस अन्याय को व्यक्त करने का।
    केशर मेरे साढू भार्इ की बेटी है। पत्नी की बीमारी में देखभाल के लिए पिछले साल आर्इ थी। आने के थोडे़ दिन बाद ही वह कालोनी की हमजोली लड़कियों से लेकर आंटियों तक में समान रूप से लोकप्रिय हो गर्इ। हर एक के लिए उसके पास कोर्इ-न-कोर्इ स्पेशल देहाती नुस्खा था। बालों को लम्बा और चमकीला बनाने का नुस्खा, बिवार्इ ठीक करने का नुस्खा, समलबार्इ से छुटकारा पाने का नुस्खा। कालोनी का हर अब उसका अपना घर है। हर घर का कोर्इ-न-कोर्इ काम उसके अभाव में रूका रहता है।... जब भी आफिस से थोड़ा पहले या दोपहर में लौटता हूँ ड्राइंगरूम को कालोनी की लड़कियों से भरा पाता हूँ। कभी गाना हो रहा है, कभी नाचना। सैकड़ों गीत, लोकगीत याद हैं उसे। जो चाहे, जितना चाहे सीखे।
    हँसोड़ इतनी कि पत्नी कभी-कभी उसकी हँसी से आतंकित हो उठती है। उदास होने या बिसूरने की बात पर भी हँसी। कभी-कभी तो हँसी के लिए पत्नी की मार खाने के दौरान भी मुँह में दुपट्टा ठूँसकर हँसती रहती है। हँसी से दुलकती देह! हारकर पत्नी भी डाँटना-मारना छोड़ हँसने लगती है।
    हँसमुख और व्यावहारिक होने के साथ-साथ केशर के हिस्से में अपूर्व सुंदरता भी आर्इ है। घर से लेकर पास-पड़ोस तक की बच्चियों पर उसकी सुंदरता का जादू छाया हुआ है। लड़कियाँ उसके बाल, दाँत, आँख, होंठ और हँसी की तुलना अलग-अलग अभिनेत्रियों से करती हैं।
    केशर में सेवा-भावना भी गजब की है। जब से इस घर में आर्इ है, पत्नी ने आराम-ही-आराम किया है। आने के साथ बहुत कम समय में ही उसने इस घर का गणित समझ लिया और पत्नी को सारी जिम्मेदारियों और उलझनों से मुक्त कर दिया। अब स्कूल जाने वाले बच्चे अपने ड्रेस और टिफिन के लिए केशर के नाम की गुहार लगाते हैं। महरी और धोबिन अपना हिसाब केशर से लिखवाती हैं। मुझे कब क्या पहनना है? कौन-सा कपड़ा धुला है, कौन-सा लांड्री गया है, इसका निर्णय और जानकारी का माध्यम केशर हो गर्इ है। नमक-चीनी से लेकर कपड़े-लत्ते तक के चुनाव पव उसकी मरजी चलती है। पूरे घर पर इस समय उसी का 'राज' चल रहा है। छह महीने की सेवा से पत्नी पूरी तौर पर स्वस्थ हो गर्इ और केशर के वापस जाने की बात आर्इ तो उदास हो गर्इ कि मेरे लिए बहुत दुख छोड़कर  जाएगी यह। इसके जाने के बाद कौन सँभालेगा इस घर को। लेकिन केशर ने एक बार फिर अपने ढंग से पत्नी को सारे दुखों से उबार लिया। उसने पत्नी से कहा,''मुझे-सिलार्इ-कढ़ार्इ के स्कूल में भर्ती करा दीजिए मौसी। साल भर की गुलामी का पटटा पक्का हो जाएगा।'' केशर ने पहले से पता कर लिया था कि कालोनी के पीछे ही कोर्इ महिला यह ट्रेनिंग स्कूल चलाती है। नया बैच भर्ती हो रहा था। केशर ने भी दाखिला ले लिया।    
    इस बीच पत्नी के हाथ-पैर दबाकर, मेंहदी-महावर लगाकर, वह उनसे कभी डोलची तो कभी सैंडल, कभी पायल तो कभी बिछिया, कभी साड़ी तो कभी शाल प्राप्त करती रही। पत्नी कहती है कि कोर्इ चीज माँगने से पहले केशर अपनी बात अपने व्यवहार से पूरी तरह मोह लेती है। माहौल बना लेती है। जादू चला देती है। एक पैसे की चीज माँगने से पहले माहौल ऐसा बनाएगी कि आदमी दस रूपए की चीज भी खुसी-खुसी देने को तैयार हो जाए। लड़के के जन्मदिन तथा रक्षाबंधन के त्योहार पर नेग के तौर पर वह मुझसे भी घड़ी, सिलार्इ मशीन और एक लोहे का संदूक मय ताले के देने के लिए बचनबद्ध कर चुकी है।....
    केशर की ट्रेनिंग जब लगभग पूरी हो गर्इ है। एक-डेढ़ महीने में उसका गौना होने वाला है। तिथि निर्धारित होते ही इसे वापस गाँव भेज देना है। ऐसे में गुड्डी की शादी के अवसर पर उसने अपने लिए एक अतिरिक्त साड़ी-ब्लाउज का जुगाड़ लगा लिया।
    गुड्डी पड़ोस में रहने वाले ए.डी.एम. की बेटी है। उसकी शादी किसी आर्इ.ए.एस. लड़के से हो रही है। शहर की शादियों में अब गारी गाने का रिवाज फैशन से बाहर हो गया। लेकिन केशर ने गुड्डी की मम्मी को राजी कर लिया है। इस शादी में वह 'मार्डन' गारी गाएगी। देखती है, कैसे नहीं पसंद आती लोगों को।गुड्डी जान छिड़कती है केशर पर। खुद आकर पत्नी से चिरौरी कर गर्इ है कि शादी के दिनों में केशर को उसी के पास रहने दिया जाय।
    ''अब बैठे-बैठे क्या बिसूर रहे है?'' पत्नी ने आकर कहा, ''जाइए, ला दीजिए न उसकी साड़ी-कपड़े।''
    ''हाँ-हाँ जाता हूँ।'' मैंने चाय का खाली कप उन्हें पकड़ाया, ''केशर बेटे। चलो, तुम भी तैयार हो जाओ। अपनी पसंद से ले लेना।''
    आहा ! तैयार होकर निकली केशर तो आँखें जुड़ा गर्इ। यह रूप !
    मेरी अपनी लड़कियाँ इतनी सुंदर होतीं तो शादी के लिए कम-से-कम पापड़ बेलने पड़ते। इस सोच के साथ ही एक कचोट भी मन में उभरी। केशर के बप्पा ने इसकी शादी दर्जा आठ पास करते ही कर दी,. एक हार्इ स्कूल में पढ़ने वाले लड़के के साथ। यह शादी भी वे तीन साल पहले कर रहे थे, जिस साल केशर ने दर्जा पाँच पास किया था। लेकिन हम लोगों के मना करने और केशर को आगे पढ़ाने के लिए दबाव डालने के कारण तीन साल के लिए टाल दिये थे। लेकिन दर्जा आठ से आगे पढ़ाने के लिए वे किसी तरह राजी नहीं हुए। इस मामले में उनका तर्क था कि तीन मील दूर के स्कूल में सयानी लड़की को अकेले पढ़ने भेजना निरापद नहीं है। गाँव में जातीय विद्वेष दिनों-दिन इतना प्रबल हो रहा है कि कभी भी कुछ अघटनीय घट सकता है। शादी के बारे में भी उनका अपना मौलिक तर्क था। उनके अनुसार, बाल-विवाह प्रथा में मात्र इतना अंतर आया था कि पहले जहाँ शादियाँ सात-साठ साल की उमर में हो जाती थीं, अब पंद्रह-सोलह साल की उमर में हो रही हैं। जिस लड़के का बाप बहुत टालता है, उसकी शादी भी हाईस्कूल पास करते-करते हो जाती है। ऐसे में बेटी को कुँवारी रखने पर बाद में लड़के कहाँ मिलेंगे? और कुँवारी रखने का उददेश्य भी क्या है? लड़की के भाग्य में होगा तो वही लड़का पढ़-लिखकर कहीं हिल्ले से लग जाएगा। नहीं तो अच्छा घर-वर देखकर कर रहे हैं। डेढ़ एकड़ खेती है। बड़ा भार्इ कानपुर में कमाता है। मँझला खेती-बाड़ी देखता है। सास-ससुर जिंदा हैं। गाय-भैंस है। शाम तक दो रोटी मिलेगी। और क्या चाहिए?
    अपनी औकात देखते हुए केशर के बप्पा का तर्क ठीक ही था। उनकी भी माली हालत ऐसी थी कि साल भर खींच-खाँचकर रोटी चल जाती थी। मोटा खाना मोटा पहनना। लेकिन इधर मैंने सुना कि लड़के ने पढ़ार्इ छोड़ दी। इंटर में फेल होने के बाद पिछले दिनों चंड़ीगढ़ भाग गया। किसी कारखाने में काम कर रहा है। यह सुनकर मैं थोड़ा चिंतित हो गया हूँ। पहले जब केशर ने शहर नहीं देखा था, यहाँ के खान-पान रहन-सहन से अवगत नहीं थी तो दूसरी बात थी लेकिन एक बार सुख-सुविधा की सारी चीजें देख-भोग लेने के बाद उस देहात में बेरोजगार पति के साथ दिन काटना पडे़गा इतनी सुंदर सुघड़ बेटी को तो उसके मन पर क्या बीतेगी? मैंने पत्नी से इसकी चर्चा की। बताया कि खोजने पर शहर में छोटी-मोटी नौकरी करने वाले लड़के मिल सकते हैं। उनमें से किसी के साथ केशर का पुनर्विवाह...। कोर्इ भी लड़का केशर को पाकर धन्य हो जाएगा।
    ''क्या-क्या सोचते रहते हैं आप?'' पत्नी ने एकबारगी घुड़क दिया, ''उस लड़के में क्या खोट है? यही न कि कम कमाता है। केवल इतनी बात पर कोर्इ लड़की अपने बियाहे आदमी को छोड़ देगी? अभी तो वे दोनों एक-दूसरे से मिल भी नहीं पाए हैं। केशर सुनेगी तो क्या सोचेगी? हम लोगों की शादी हुर्इ तब तक तो आप स्कूल जाना भी नहीं शुरू किए थे। मेरे गौने के बाद भी बहुत दिनों तक बेकार मारे-मारे घूमे थे। उस समय के आपके घर की माली हालत तो केशर की ससुराल से भी गर्इ-गुजरी थी। तब कोर्इ मुझसे दूसरी शादी के लिए कहता तो मुझे अच्छा लगता?''
    ''अच्छा तो जरूर लगता।'' मैंने मुस्कराकर कहा था।
    ''हटिए। फालतू खीस निकालते हैं।'' पत्नी ने बिदककर कहा, ''अभी उसकी छोटी बहनों की शादी होनी है। आप उसे यहाँ फिर से ब्याह देंगे तो वहाँ बिरादरी के आगे इसके बप्पा क्या मुँह दिखाएँगे? उस वर को छोड़ने का कौन-सा कारण बताएँगे? बेरोजगारी या कम कमार्इ तो वहाँ कोर्इ कारण माना नहीं जाएगा। बिरादरी में सब नौकरी ही तो कर नहीं रहे हैं। आप जैसे दो-चार लोग भले पढ़-लिखकर ढंग से लग गए हैं । बाकी तो जैसे भी हो, वहीं गुजर-बसर कर रहे हैं।...फिर कोर्इ नौकरी-चाकरी वाला लड़का मिल भी जाए तो इसके बप्पा फिर से शादी में होने वाला दस-पाँच हजार का खर्च कहाँ से और क्यों करेंगे? इतना पैसा जुटाएँगे तो वे सयानी होती दूसरी लड़की के हाथ पीले करने की सोचेंगे। आपको भी कर्इ लड़कियों को निपटाना है। जिस दिन शुरू करोगे, समझ में आ जाएगा।''
    शायद उसे भय था कि केशर के सम्भावित पुनर्विवाह में होने वाले खर्च को मैं भावुकता में आकर अपने जिम्मे लेने का निर्णय न ले लूँ, इसलिए अपनी लड़कियों की शादी की समस्या याद दिलाकर वह सामने से हट कर किचन में व्यस्त हो गर्इ और मुददे से मेरा ध्यान बँटाने के लिए बेबी को मेरे पास सवाल पूछने के लिए भेज दिया था।
    गौने के लिए गाँव भेजते समय पत्नी ने केशर को यथासम्भव पर्याप्त सामान दिया। कर्इ सामान केशर समय-समय पर पहले ही हासिल कर चुकी थी। सिलार्इ मशीन, घड़ी और ससुराल ले जाने के लिए लोहे का बड़ा बक्सा मैंने खुद खरीद दिया था। छोटे-मोटे प्रयोग की कर्इ चीजें कालोनी की उसकी सहेलियों ने दीं। विदार्इ के समय घंटे भर तो उसे अपनी सहेलियों से गले मिलने और रोने में लगा था। जीप चली तो सबके गले रूँधे थे। उसकी सहेलियाँ, मेरी बेटियां, पत्नी सब सिसक रहे थे। विदा करके अंदर आया तो घर काटने दौड़ता था। आज मेरा आँगन सूना करके उड़ गर्इ मेरी मैना। उसके खिलंदड़ेपन और खिलखिलाहट की प्रतिध्वनियाँ बहुत दिनों तक मन में गूँजती रही थीं। लेकिन कुछ ऐसा संयोग रहा कि मैं उसके गौने में नहीं जा सका। पत्नी और बच्चे ही गए। पत्नी ने लौटकर बताया कि विदार्इ के समय आपके 'आखर' के साथ बहुत दूर तक, बहुत देर तक रोती चली गर्इ थी आपकी लाडली बेटी।
    जाते समय मेरे घर से ही वह ढेर सारे लिफाफे, अंतर्देशीय खरीदकर ले गर्इ थी। अक्सर पत्नी के नाम, लड़कियों के नाम और पड़ोस की सहेलियों के नाम उसके पत्र आते रहते थे, जिससे पता चलता था कि वह अपनी ससुराल में है। अपने बारे में वह कम ही लिखती थी। उसकी रूचि दूसरों का कुशल समाचार जानने में अधिक थी।
    केशर से भेंट का मौका मिला था डेढ़ साल बाद। मेरे एक सहकर्मी मित्र अपनी लड़की की शादी के लिए एक लड़का देखने मेरे साढू भार्इ के गाँव जा रहे थे। मेरी पत्नी ने ही उन्हें इस लड़के के बारे में बताया था। मित्र ने इस आधार पर मुझे भी साथ ले लिया कि परिचय का बारीक सूत्र भी बातचीत को निर्णायक बनाने में सहायक होगा।
    हम लोग पहुँचे तो दरवाजे पर पहले केशर ही मिली। देखते ही मुदित हो गर्इ। हम लोगों का बैग हाथ से ले लिया। बैठने के लिल चारपार्इ ले आर्इ। फिर लगी कालोनी के एक-एक आदमी, यहाँ तक कि गाय, भैंस, कुत्ते, बिल्ली तक का हाल पूछने। मैं आदमियों से सम्बंधित बहुत सारी जानकारी से ही अनभिज्ञ था, कुत्ते -बिल्लियों की तो बात ही क्या। बहुत सारी जानकारी देने में असमर्थ रहा।
    तब तक उसकी माँ आ गर्इ। लगी डाँटने कि पानी-दाना देने की याद नहीं है। दुनिया-जहान का किस्सा लेकर बैठ गर्इ।
    केशर पानी लाने चली गर्इ और मैं खोजने लगा कि वह पहले वाली केशर कहाँ है? आवाज की खनक तो बरकरार है, लेकिन वह चपलता, चंचलता! दैहिक आभा क्षीण है। मुख मलीन! कैशोर्य की अकाल मृत्यु हो रही है। मँड़र्इ के एक कोने में पत्नी द्वारा दी गर्इ पलास्टिक की डोलची पड़ी थी। उसका टँगना कर्इ बार धागे से सिला गया था। एक तरफ शैम्पू की एक खाली शीशी पड़ी थी। केशर नंगे पाँव इधर-उधर डोल रही थी।
    शाम को मेरे मित्र केशर के बप्पा को लेकर लड़के के बाप से बात करने चले गए। केशर खाना बनाने लगी। मैं चारपार्इ पर लेटे-लेटे केशर की माँ से हाच-चाल पूछने लगा।
    पता चला कि अभी दस दिन पहले केशर अपनी ससुराल से आर्इ है। उसके घर अलगौझा हो गया है। बँटवारे में आधा एकड़ खेत, एक बैल, सत्ताइस सौ रूपए का कर्ज और बूढ़ी सास मिली है। लगता है, केशर के दोनों जेठों के मन में पहले से ही बर्इमानी थी। अलगौझा से पहले बडे़ जेठ ने अपनी दोनों लड़कियों की शादी कर दी। मँझले ने गया-जगन्नाथ जी का दर्शन करके बिरादरी को इफराती भोज दिया। फिर इन तीनों के खर्च से हुए कर्ज को तीन तिहाए बाँटकर अलग कर दिया। बडे़ जेठ बीस साल से कानपुर में 'परमामिंट' नौकरी कहते हैं। वहीं निजी मकान बना लिया है। लेकिन गाँव आए, कर्ज लेकर शादी की और हिस्से में कर्ज बाँट गए। अपनी कमार्इ की एक कौड़ी का हिसाब नहीं दिया। एक-एक बैल दोनों छोटे भाइयों को दिया और खुद भैंस लेकर कानपुर चले गए। मँझले भार्इ के मन में भी पहले से ही मैल था। केशर के आदमी को किताब-कापी खरीदने के लिए पैसा नहीं देते थे। पढ़ार्इ के समय जान-बूझकर खेती के काम में बझाए रहते थे। इधर खेत के बँटवारे में भी बेर्इमानी कर लिये। माँ-बाप तक के बँटवारे में बेर्इमानी हुर्इ है। बाप अभी तगड़ा है हल-कुदाल चला लेता है। उसे मँझले भार्इ ने अपने हिस्से में ले लिया और माँ जो दमे की मरीज और जर्जर है, छोटे भार्इ के हिस्से में पड़ी है। छोटे भार्इ ने लाख चिरौरी किया कि वह परदेश रहता है, बाप को उसके हिस्से में आने दिया जाए। जोतार्इ-बोआर्इ करेगा, लेकिन सुनवार्इ नहीं हुर्इ। सास गाय-गोरू चराने लायक भी नहीं है। दस कदम चलती है तो पहर भर हाँफती है। बड़ी मजबूरी हो तो किसी तरह रोटी सेंकती है।
    केशर का आदमी चंडीगढ़ में मकान पुतार्इ का काम कर रहा था। पच्चीस-तीस रूपए रोज मिल जाते थे। लेकिन दो महीना पहले सीढ़ी से गिर गया। पीठ के बल ! रीढ़ की हडडी में र्इट से चोट लग गर्इ। महीना भर चारपार्इ पर पड़ा रहा। दवार्इ में बड़ा पैसा लगा। डाक्टर ने भारी काम करने से मना कर दिया। और इसी बीच भाइयों ने बँटवारा कर लिया। केशर का आदमी पहले बडे़ सुधवा स्वभाव का था। लेकिन इधर बहुत चिड़चिड़ा हो गया है। कर्जे की चिंता है। बात-बात पर लड़नें लगता है। एक बट्टी साबुन खरीदना भी उसे फालतू का खर्च लगता है। कहता है, ''साहब-सूबा के घर रहने क्यों गर्इ? खर्चा करने की बीमारी साथ लेकर आर्इ हो। केशर के मौसिया, केशर की देह में सोच का परेवश हो गया है। देह देखिए, कितनी गल गर्इ है।''
    मन में आया, उन्हें बताऊँ कि एक बार मेरे मन में केशर के पुनर्विवाह की बात आर्इ थी। लेकिन उसकी चर्चा करने की कोर्इ तुक नहीं थी। मैं गहरे अवसाद में डूब गया।
    सबेरे नींद खुली तो अँधेरा हल्का हो रहा था। केशर दुआर पर झाडू दे रही थी। दिशा-मैदान से निवृत्त हो लौटा तो वह चूल्हे के लिए लकड़ी ले जा रही थी। मेरे दातून करते-करते उसने छोटी बहिन को लोटा देकर जल्दी से दूध लाने भेज दिया और चूल्हा सुलगाने लगी। उसकी जल्दबाजी से पता चल गया कि उसे मेरी शीघ्र वापसी की जानकारी है और वह चाय-नाश्ता कराने के बाद ही मुझे जाने देगी। कल से केशर से स्थिर होकर बात करने का अवसर ही नहीं मिल। अब वह अंदर आँगन में कुछ कर रही थी। बर्तन खनक रहे थे। मैं अंदर चला गया। वह चाय देने के लिए गिलास धो रही थी। मैंने कहा, 'क्यों, सबेरे-सबेरे इतने काम में लगी है मेरी बेटी? मैं चलूँगा अब।''
    ''इतनी जल्दी क्यों है पापा? चाय बन रही है। पीजिए, फिर नाश्ता कीजिये। आज रूकिए, कल जाइएगा।''
    ''नहीं बेटा। जाना तो जरूरी है। अभी निकल गया तो पहली बस मिल जाएगी।''
    केशर आँचल से हाथ पौंछते हुए खड़ी हो गर्इ। हँसते हुए बोली, ''बिना चाय पिए तो आप दुबारा बाथरूम भी नहीं जा पाएँगे, पापा। आपका सारा दिन बरबाद हो जाएगा।''
    ''अच्छा केवल चाय पिलाओ और जल्दी।''
    फिर मैंने जेब से सौ रूपए का नोट निकालकर उसकी ओर बढ़ाया, '' यह रखो! मिठार्इ खाने के लिए।''
    लेकिन स्वभाव के विपरीत उसके हाथ नहीं उठे। आँखें नीची हो गर्इं। पता नहीं, कैसे मैं सोच रहा था कि वह पहले की तरह कहेगी, 'सौ रूपए में आजकल क्या होता है पापा? साबुन, शैम्पू, तेल-कंधी, सैंडल और पता नहीं क्या-क्या, पूरी एक-सौ-एक चीजें लेनी हैं।'
    ''क्या बात है बेटी? और कोर्इ चीज चाहिए तो बोलो।''
    उसकी आँखों से भरभराकर आँसू निकले और टप-टप जमीन पर गिरने लगे। सिर झुक गया और दाहिने पैर का अँगूठा आँगन के कच्चे फर्श को कुरेदने लगा।
    ''अरे-अरे। रोती क्यों है पगली? बोल न, क्या तकलीफ है? नि:संकोच बोल, तेरा पापा इतना कंजूस नहीं है।''
    मैंने उसकी ठुड्डी पकड़कर चेहरा ऊपर उठा दिया, ''बोल न मेरी पुतरी।'' केशर ने आँचल से पूरा चेहरा ढँक लिया और सिसकते हुए बोली, ''उनको कोर्इ चपरासी-ओपरासी की नौकरी दिला दीजिए पापा।'' और हिचक-हिचककर रोने लगी। मैं सन्न रह गया। एकाएक कुछ बोल नहीं सका। इस बीच वह गिलास लेकर, आँखें पोंछती, तेजी से चूल्हे के पास चली गर्इ।
    चाय का गिलास पकड़ाते हुए उसकी आँखे गीली और झुकी हुर्इ थीं। मैंने कहा, ''तुम उनकी मार्कशीट और सर्टीफिकेट भेज देना। मैं कुछ-न-कुछ जरूर करूँगा।''
    और सौ रूपये का नोट जबरन उसकी मुटठी में दबा दिया था। विदा करते समय उसने अपनी माँ के पीछे सटकर खड़े-खडे़ हाथ जोड़कर नमस्ते किया था। उसकी आँखों में आशा की ज्योति टिमटिमा रही थी।
    दो दिन के साथ में मेरे मित्र भी केशर के वर्तमान से कमोबेश परिचित हो गए थे। इसलिए उन्होंने एम.ए. करके कम्पटीशन की तैयारी करने वाले तथा दहेज में पचीसों हजार रूपए पाने का सपना पालने वाले उस लड़के को विचारार्थ लड़कों की अपनी सूची से निकाल देना ही बेहतर समझा। उनके अनुसार, छोटी नौकरी करने वाले लड़के से लड़की ब्याहना डिप्टी कलेक्टरी का सपना सँजोए बेरोजगार लड़के की तुलना में ज्यादा व्यावहारिक था।
    एक महीने बाद केशर का पत्र मिला। साथ में, दामाद की सर्टीफिकेट और मार्कशीट। हार्इ स्कूल में तृतीय श्रेणी थी। इंटर में दो विषयों में फेल। लेकिन 'फोर्थ-क्लास' में तो लग ही सकता है। मेरे विभाग में भी पाँच-छह जगहें सम्भावित थीं। मैंने पता लगाया। पता चला कि वे सभी उच्चाधिकारियों के केंडिडेट्स के लिए अलिखित रूप से रिर्जव हो चुकी हैं।  उम्मीदवार किसी अधिकारी के घर चार साल के बर्तन मल रहे थे, किसी के घर छह साल से। मैं ढीला पड़ गया। केशर को लिख दिया कि प्रयास कर रहा हूँ। घबराना नहीं।
    महीने भर बाद फिर उसका पत्र आया। मेरे जिले में सीजनल अमीनों की भर्ती हो रही थी रिक्तियां काफी थीं। कुछ अधिकारी परिचित भी थे लेकिन अफवाह यह फैली थी कि कुछ दलाल छूटे हुए हैं। ले-देकर 'सेट' कर रहे हैं। इंटरव्यू वगैरह धोखा है। बहरहाल, मैंने लड़के को बुलाकर इंटरव्यू दिला दिया। लेकिन जैसा कि पहले से ही आशंका थी, उसका चुनाव नहीं हो सका। तीन-चार दिन रूककर लड़का लौट गया। मन दु:खी  हो गया।
    सीजनल वाटरमैन का एक पद तो मेरे अपने आफिस में भी था, जिसकी नियुक्ति मुझे ही करनी थी। लेकिन इतने नजदीकी रिश्तेदार को अपने ही कार्यालय में वाटरमैन लगाना किसी   दृष्टि से उचित नही लग रहा था।
    पाँच-छह महीने के बाद एक दिन फिर केशर का पत्र आया। उसने पत्नी से गुड्डी का पता माँगा था। उसे पता था कि गुडडी की शादी आर्इ. ए. एस. लड़के से हुर्इ है। जिसके हाथ में सैकड़ों नौकरियाँ रहती हैं। शायद गुड़डी से वह अपने पति के लिए कोर्इ नौकरी दिलाने की विनती करना चाहती थी। लेकिन गुडडी के पापा का ट्रांसफर उसी साल देहरादून के लिए हो गया था। अब पता नहीं कहाँ हैं? वही बता सकते थे उनके बेटी-दमाद इस समय कहाँ पोस्टेड हैं? केशर के इस पत्र का उत्तर उसे नहीं दिया जा सका। लेकिन मेरे हृदय-पटल पर एक बार फिर उसका आँचल से मुँह ढँककर फफकना कौंध गया।
      सचमुच केशर के लिए कुछ-न-कुछ करना है। मैं कर्इ दिनों बेचैन रहा। फिर एक-दो जगह बात चलार्इ लेकिन निष्फल और समय के साथ वह सम्वेदना फिर कुंद पड़ती चली गर्इ।
    पहली बार केशर मेरे घर आर्इ, तब सिर्फ दस-ग्यारह साल की थी। इसी साल उसने दर्जा पाँच पास किया था और इतनी कम उम्र में गाँव पर पूरे घर का खाना बना लेती थी। पत्नी को डिलिवरी होने वाली थी। और उनकी सहायता के लिए किसी स्त्री का होना आवश्यक था। केशर की गर्मी की छुट्टियाँ थीं। किसी और के उपलब्ध न होने के कारण पत्नी ने केशर को बुला लिया था। वह पहली बार गाँव से बाहर निकली थी। शहर की चीजें आँखें फाड़कर देखती। चलते हुए टेबुलफैन के सामने खड़ी हो, मुँह खोलकर हवा को पेट में भरने और जीभ को ठंडा करने का प्रयास करते हुए आनंदित होती थी। बिजली से पानी गरम हो जाना, बिना धुआँ-धक्कड के गैस के चूल्हे पर खाना पक जाना, सीटी मारने, भाप उगलने वाला कुकर, बिना मेहनत के टोंटी घुमाते ही बाल्टी भर देने वाला नल। सब उसे अजगुत-अजगुत लगते और चार-पाँच दिन में ही उसने घर के बच्चों को एक करिश्मा कर के दिखाया । तेजी से चलते टेबुलफैन के ब्लेड के ज्वाइंट पर वह उँगली दबाती और चलता हुआ पंखा रूक जाता। बच्चों को बताती कि मंतर के जोर से उसने पंखे की बिजली को बाँध दिया है। बच्चे हैरत से देखते। पहली बार उसे सेंडिल और मोजे मिले तो उन्हें पहनकर पैर पटकते हुए सारे दिन कालोनी में घूमती फिरी। स्कूल खुले तो युनिफार्म पहनकर स्कूल जाते बच्चों को देखती रह जाती। गाँव के अभाव, नियंत्रण और आर्थिक संयम में पला बचपन यहाँ की स्वतंत्रता और सहज उपलब्धि देखकर आनंदित था। जल्दी ही जादू-मंतर, गँवर्इ विश्वास और मान्यताओं का हौवा खड़ा करके बच्चों के दिल-दिमाग पर उसने कब्जा  कर लिया। मेरी बेटियों के कान तो छिदे थे लेकन नाक नहीं छिदवार्इ गर्इ थी। एक दिन सबने जिद किया कि वे नाक भी छिदवाएँगे। बाद में पता चला, केशर ने सबको यह कहकर डरा दिया था कि जिस लड़की का नाक-कान दोनों नहीं छिदा होगा, वह अगर मर गर्इ तो उसके नाक-कान यमराज के दूत खम्भे में बांधकर लोहे की लाल छड़ से छेदेंगे।
    अपनी बुद्धि-कौशल से वह हमजोलियों की तमाम चीजें शर्त में जीत रही थी। हर बात पर शर्त। घंटी बजाने वाला आगंतुक ड्राइवर है या अर्दली?  आज शाम बिजली गुल होगी कि नहीं? इन बातों पर वह उन्हीं चीजों की शर्त लगाती जो उसके पास नहीं होती थी। और शर्त भी एकतरफा। जैसे, यदि बिजली गुल हुर्इ तो वह हारने वाले की पेन ले लगी। लेकिन नहीं गुल हुर्इ तो? वह नहीं लेगी, बस। यह नहीं कि अपनी पेन दे देगी। क्योंकि उसके पास पेन है ही नहीं। और जो चीजें उसके पास आ जातीं, उन्हें वह शर्त से बाहर करती जाती। इस तरह मात्र डेढ़-दो महीने की अल्प अवधि में उसने जाने कितनी गुड़िया, पेन, पेंसिल, रबर, कटर, कॉपी, कलरबक्स, हेयरपिन, क्लिप वगैरह बटोर लिये थे और एक बार जो चीज उसकी हो गर्इ, उसके खोने या दूसरे हाथ में पड़ने का तो सवाल ही नहीं था।
    पत्नी कहती, ''पूरी 'गिरथिन' (गृहस्थिन) होगी यह लड़की। चुन-चुनकर अपना घर भरेगी। जहाँ से जो पाएगी, हड़पेगी।''
    ''हड़पेगी क्या खाक,'' मैं उसे चिढाता, ''इसकी शादी में टूटी चारपार्इ और बूढी गाय दी जाएगी दहेज में।''
    ''मैं आपकी जीप ले जाऊँगी मौसाजी।'' वह कहती।
    सबसे ज्यादा सम्मान वह जीप के ड्राइवर को देती थी। सबेरे उसके आते ही चाय ले जाकर उसे देती, फिर पूछती, ''चाचा, आज हमें जीप मा घुमइबा?''
    ''हाँ बिटिया, काहे नहीं घुमाएँगे। तुम जब-जब चाय पिलाओगी, हम घुमाएँगे।'
    केशर नाम का चुनाव भी उसने खुद किया। पहले उसका नाम था- केश कुमारी। पुकारने के लिए संक्षिप्त नाम 'केशा' प्रयोग में आता था। एक दिन किसी आगंतुक ने उससे नाम पूछा और 'केशा' के बजाय 'केशर' सुन लिया। तारीफ कर दी ''वाह कितना सुंदर नाम है।- केशर-कस्तूरी। रूप और गंध दोनों एक साथ। किसने रखा इतना अर्थवान नाम इस बाल सुंदरी का?'' आगंतुक ने उसका मुखड़ा दोनों हथेलियों में थामकर पूछा।
    तत्काल 'केशा' ने 'केशर' को पकड़ लिया। खड़ी बोली तो पंद्रह-बीस दिन में ही बोलने लगी थी।
    कॉलोनी में रहते हुए अल्प समय में ही वह अधिकारियों के छोटे-बडे़ ओहदे, उनके अधिकारों और सुविधाओं से अपनी बाल-बुद्धि के अनुरूप अवगत हो गर्इ । एक बार एक ट्रेनी डिप्टी कलेक्टर लड़की घर पर मिलने आर्इ। केशर को पता चला तो वह अविश्वास के साथ  बड़ी देर तक पर्दे की आड़ से उसे ताकती रही। फिर जैसे अपना संदेह मिटाने के लिए पास जाकर नमस्ते किया और पूछा, ''आप 'डिप्टी साहेब' हैं?''
    ''जी हाँ। और आप कौन साहब हैं?''
    ''हम केशर  हैं।'' और शरमाकर भाग गर्इ थी।
    उसी दिन शाम को उसने मुझसे कहा था, '' मौसाजी, हमारे बप्पा से कहिए, हमें और आगे पढ़ा दें।''
    ''क्यों? क्या बप्पा ने पढ़ार्इ बंद करवा दिया है?''
    ''हाँ कहते हैं, अब बियाह होगा।''
    ''नहीं, नहीं। तुम पढ़ने जरूर जाओगी। हम तुम्हारे बप्पा से कह देंगे।''
    केशर की इस प्रबल इच्छा-शक्ति और मेरी मध्यस्थता का ही परिणाम था कि उसका विवाह टल गया और शिक्षा काल तीन वर्ष के लिए बढ़ गया।
    मेरे घर से लौटते हुए, शर्तों में जीती हुर्इ अपनी तमाम चीजों के साथ केशर अपने साथ दर्जा छह की किताबें-कापियाँ तथा पीठ पर लटकाने वाला किरमिच का एक नीला बैग भी ले गर्इ थी।

    और आज फिर केशर से मुलाकात होगी- दो साल बाद।
    मित्र के आग्रह पर मुझे फिर केशर के मायके जाना पड़ रहा है। वह लड़का, जिसे वे दो साल पहले देखकर मन-ही-मन खारिज कर चुके थे, इस साल अपर सबार्डिनेट सर्विसेज के लिए चुन लिया गया था। मित्र को पता चला तो आतुर हो गए। बिना एक दिन की भी देर किए, वे मुझे साथ लेकर चल दिए। इस बार यह रिश्ता वे किसी भी कीमत पर पक्का कर लेना चाहते थे।
    केशर की माँ से पता चला कि केशर अपनी ससुराल में है। उसका पति पास के एक भठ्ठे पर इसी दशहरे से मुंशीगीरी करता है। केशर को लड़़की पैदा हुर्इ थी जो दो महीने की होकर पिछले हफ्ते गुजर गर्इ थी। उसके बप्पा अगले दिन उसकी विदार्इ कराने जा रहे थें । उन्होंने मुझसे भी साथ चलने का आग्रह किया। केशर को देखने की इच्छा थी लेकिन उसके सामने पड़ने में थोड़ी झिझक लग रही थी। कुछ अपराध-बोध आड़े आ रहा था। लेकिन शाम को पता चला कि दहेज की रकम घटवाने के लिए मित्र को लड़के के बाप के दरवाजे पर अभी एक दिन और जमना पडे़गा तो मैं भी केशर की ससुराल जाने को तैयार हो गया।
      हम दोनों दो साइकिलों पर चले। पता नहीं क्यों, मन बार-बार पीछे लौट रहा था। नहर-डहर और घुमाव वाले ऊँचे-नीचे रास्ते पर आगे-पीछे चलते हुए मैंने अपने आप को गुनगुनाते हुए पाया। बहुत पहले किसी नारीकंठ से सुने गए गीत की एक ही पंक्ति, बार-बार।
    .....भइया आए बहिनी बोलावन, सुनु सखिया।
    (सुनती है सखी। बहन की विदार्इ कराने भइया आ गए हैं।)
    इस पंक्ति में ऐसा कुछ नहीं लगता जो उदास करे। लेकिन जाने क्यों , जब-जब मैंने इसे गुनगुनाया है, मेरी आँखें भर आर्इ हैं। ....राह बार-बार धुँधला रही है।
    हम लोग पहुँचे तो घंटा भर दिन शेष था। पुराने खपरैल घर का पिछला हिस्सा केशर को बँटवारे में मिला था। इलिए पिछवाडे़ पश्चिम तरफ 'मोहार' (द्वार) फोड़ा गया था। सबसे आगे एक मटमैला हड्डहा बैल जाडे़ से रोंए फुलाए खड़ा था। उसके बाद पुआल का ऊँचा ढेर। ढेर की आड़ लेकर धूप सेंकती बैठी थी केशर की बूढ़ी, अशक्त और लगभग अंधी सास। बगल में एक चारपार्इ खड़ी थी। जमीन पर बिछे पुआल के एक सिरे पर डेढ़-दो हाथ लम्बी, तेल और मैल से चीकट एक काली कथरी सूख रही थी। कथरी से बूढ़ी तक ढार्इ-तीन गज लम्बे क्षेत्र में मक्खियाँ भिनक रही थीं। सांय-सांय करके हाँफती बूढ़ी, रह-रहकर खाँसती और बलगम का एक लोंदा बगल में लुढ़का देती। हर लोंदे पर मक्खियों का काला गोला जमा था।
    आसपास रेह फुलार्इ थी, जिसमें मिले धान के दानों को एक गिलहरी ढूँढ-ढूँढकर फोड़ रही थी और रह-रहकर चटचटा देती थी। हम लोगों को देखकर वह नीम के पेड़ पर चढ़ गर्इ।
    हम लोगों ने साइकिल खड़ी करके बूढ़ी को अभिवादन किया और पास खड़ी चारपार्इ बिछाकर बैठ गए मक्खियाँ एक बार जोर से भिनभिनार्इं, फिर अपनी-अपनी जगह जम गर्इं। सामने ओसारे में कुछ अर्धनग्न बच्चे भागने कूदने वाला कोर्इ खेल खेलते हुए ठंड से लड़ रहे थे। मात्र गंदी बनियान पहने एक सबसे छोटा बच्चा आँसू, नाक और राल चुआता बैठा हुचक-हुचककर रो रहा था।
     बूढ़ी हम लोगों को पहचान न सकी तो पूछा, ''कहाँ घर पडे़?''
    केशर के बप्पा ने बताया तो बूढ़ी संकोच में पड़ गर्इ। घुटने तक मुड़ी धोती को खींचकर पैर ढाँपने लगी। घर-परिवार का हालचाल पूछा। फिर नातिन को याद करके रोने लगी। खेलते बच्चों ने आकर घेर लिया। मैंने देखा, बूढ़ी वही स्वेटर पहने थी, जिसे चार साल पहले पत्नी ने केशर को दिया था।
    तब तक केशर पड़ोस से कलछुल में आग लेकर लौटी।
    हम लोगों को पहचाना तो घूँघट उठा दिया। आग ओसारे के चूल्हे में रखकर मेरे पैरों से लिपट गर्इ। फिर तो जो कारन करके और हिचक-हिचककर रोना शुरू किया उसने कि उसकी 'पिहिक' से कलेजा दहलने लगा।....
    ''अरे या मोरे पापा। हमरी सुधिया भुलाया मोरे पापा।''
    झर-झर झरते आँसू से मोजा भीगने लगा। विलाप की कातरता ने अड़ोस-पड़ोस की औरतों को खींच लिया। भीड़ बढ़ने लगी। लगा, जैसे विलाप करती केशर ताना मार रही थी कि मेरे बप्पा तो गरीब थे, असमर्थ थे लेकिन आपको तो ऊपर वाले ने समर्थ बना दिया था। आप तो मेरे लिए कुछ कर सकते थे। जितने दिन मौका मिला, आपकी सगी लड़की से बढ़कर मैंने आपकी सेवा की थी। देना नहीं था तो 'माँग-माँग' किस मुँह से कहा था। एक बार मुँह खोलकर माँग लिया तो केशर के घर का रास्ता ही भूल गए।
    मेरी आँखे धारोधार बहने लगीं। सचमुच, इस बेटी के लिए लगकर कुछ किया जा सकता था जो नहीं किया गया। बल्कि अपने साथ रखकर, आराम और साधन सम्पन्नता की दुनिया से परिचय कराकर इसके दु:ख को और दूना कर दिया मैंने। यह वह केशर नहीं थी जो पहले थी। यह तो उसका कंकाल मात्र थी। इस कनकनाती ठंड में मात्र नायलान की घिसी मटमैली साड़ी और सूती ब्लाउज में काँपतीं हुई।
    मैं बेचैन हो गया। किन शब्दों में धीरज बँधाकर चुप कराऊँ।
    ''मेरी पुतरी रे। केशर बेटी रे। चुप हो जा रे।'' मेरे बाद उसने बाप के पैर पकड़ लिये।
    इकठ्ठा औरतों ने मुझसे मेरा परिचय पूछा। फिर बतलाया कि बहू अक्सर आपको याद करती है।....आपने ही उसे सिलार्इ मशीन दी है? आप ही के पास रहकर सिलार्इ भी सीखी है न?
    संयत होकर केशर ने परिवार के अड़ोस-पड़ोस के एक-एक सदस्य की कुशल क्षेम पूछा। फिर एक मउनी  में लार्इ-गुड़ और लोटे में पानी लार्इ। लड़कों के झुंड को उसने एक मद्धिम झिड़की से भगा दिया। हम लोग लार्इ चबाने लगे।
    दो छोटी-छोटी लड़कियों ने फिर आकर घेरा और मउनी में रखे गुड़ को एकटक घूरने लगीं।
    केशर के बप्पा ने उन्हें थोड़ा-थोड़ा लार्इ-गुड़ देते हुए बताया, ''केशर की जेठानी की लड़कियाँ हैं।''
    लइया-गुड़ को एक ही झोंक में मुँह के हवाले करके दोनों ने फिर मउनी पर नजर टिका दी और खटिया की पाटी पकड़कर कूदने-झूमने लगीं।
    बूढ़ी के पास पुआल पर बैठी केशर ने बुलाया, ''ए गुड़िया, इधर आओ।'' फिर उठकर दोनों को बाँहों के घेरे में पीछे ले गर्इ और समझाने लगी।
    ''वहाँ नहीं खडे़ होते बिटिया। जानती हो, कौन हैं?''
    ''हाँ। मार्इ कहत रही, नाना हैं।'' बड़ी ने कहा।
    ''नाहीं बिटिया। उ साहेब हैं। आओ, हम तुम्हें घर से दूसरी मउनी में लार्इ-गुड़ देते हैं।'' और दोनों को लेकर अंदर चली गर्इ।
    अँधेरा होने लगा था। केशर ने ओसारे में अलाव जला दिया। बूढ़ी के साथ हम दोनों अलाव तापने लगे। वह बैल को चारा देने और चूल्हे-पानी में लग गर्इ। हम लोग बूढ़ी से हाल-चाल लेने लगे। बूढ़ी ने हाँफ-हाँफकर जो कुछ बताया, उसका सार यह था उनकी पतोहू बड़ी मरदाना औरत है। बेटा तो जब से भठ्ठे पर रहने लगा है, हफ्ते-हफ्ते पर एक दिन के लिए घर आता है। खेती-बारी का भारी मेहनत वाला काम भी नहीं कर पाता। पतोहू अकेले दम पर घर-गृरस्थी का सारा काज सँभालती है। इसी जंजाल के चलते छीमी जैसी बेटिया निमोनिया से मर गर्इ। इसी की सेवा से जिंदा हूँ भइया, नहीं तो इस जाडे़ में उठ जाती। दिन भर घर के 'भरम जाल' से जूझने के बाद आधी-आधी रात तक सिलार्इ में आँख फोड़ती है। गाँव देश में इतना काम ही कहाँ मिलता है। जो चार-छह रूपए का काम कभी मिला भी तो उसमें आधा उधार। किसी तरह नोन-तेल भर का निकालती है तो देखकर जेठ-जेठानी की आंखे फूटती हैं। जेठ अक्सर लड़ता है। झूठ-मूठ कलंक लगाता है कि सिलार्इ तो बहाना है दुनिया भर के लुच्चे शोहदे, छोटे-बड़ों के लौंडे-लपाडे़ अँधेरा होते ही दुआर पर मँडराने लगते हैं। इसका आदमी तो भठ्ठे पर जाकर आँख की ओट हो जाता है। मैं खानदान की पगड़ी उछलते नहीं देख सकता। किस-किससे रार मोल लेता फिरूँ? बहुत-बहुत सिलार्इ-कढ़ार्इ वाली देखा है। र्इ धंधा करना है तो बाजार में जाकर दुकान खोले। जेठानी अलग राह चलते कुफार बोलती है। चंदन जैसी लड़की इन लोगों की नजर में बबूल का काठ हो गर्इ है। इसका आदमी पहले एकदम गऊ था लेकिन कुफार सुनते अब वह भी कभी-कभार सनक जाता है। किसी-किसी दिन आधी रात में आकर दरवाजा खोलवाता है।
    हम लोग चुपचाप सुनते रहे।
    थोड़ी देर बाद केशर के बप्पा ने कहा, '' हम लोग केशर की विदार्इ कराने आए हैं बूढ़ी। जगह बदल जाएगी तो बिटिया के मन में पैठी, बेटी की मौत की गाँठ कुछ फटेगी।''
    बूढ़ी चुप हो गर्इ। कुछ देर चुप ही रही। फिर बोली, ''अपनी बिटिया से ही कहिए। वही मालकिन है घर की।''
    थोड़ी देर बाद केशर ने खाना लगा दिया। खाने में उसने आज मटर की पूरियाँ बनार्इ थीं तो इसे अभी तक याद है मेरी पसंद।
    केशर के बप्पा ने खाते-खाते बात चलार्इ, ''हम लोग तुम्हारी विदार्इ कराने आए हैं बेटी। नातिन की मौत सुनने के बाद तुम्हारी माँ अक्सर रोती रहती है।''
    केशर तुरंत कुछ नहीं बोली। चुपचाप पूरियाँ सेंकती रही। थोड़ी देर बाद उसके बप्पा ने फिर अपनी बात दोहरार्इ।
    ''मेरा चलना अब कैसे हो पाएगा बप्पा? बूढ़ा बैल, बूढ़ी सास। इन्हें दाना-पानी कौन देगा?''
    ''क्यों। तुम्हारी कोर्इ ननद नहीं आ जाएगी कुछ दिनों के लिए। तीन-तीन हैं। कहो तो हम एकाध हफ्ते बाद फिर आएँ। वहाँ चलोगी, डीह-पानी बदलेगा तो मन कुछ उछाहिल होगा। दुख का जाला कुछ कट जाएगा।''
    ''दु:ख तो काटने से ही कटेगा। बप्पा।'' केशर चूल्हे की आग तेज करते हुए बोली,'' भागने से तो और पिछुआएगा।'' 
     उसके चेहरे पर आग की लाल लपट पड़ रही थी। वह समाधिस्थ-सी लग रही थी। यह केशर थी। एक निश्चित निर्द्वंद्व खिलखिलाती बेटी की भूमिका से कितनी जल्दी दुःख भोजती पुरखिन की भूमिका में उतरना पड़ा था। मैं विषादग्रस्त हो गया। आखिर बोल ही पड़ा, ''तुम्हारे लिए मैं भी कुछ नहीं कर सका बेटी। इसका मुझे बहुत अफसोस है।''
    ''अरे नहीं पापा।'' केशर ने ताजी सिंकी पूड़ी मेरी थाली में डालते हुए कहा, ''मेरी सोच में अपनी देह न गलाइएगा। जितने दिन आपकी बारी-फुलवारी में खेलना-खाना बदा था, खेले-खाए। अब मेरा हिस्सा मुझे ' अलगिया' मिल गया है। तो जैसा भी है, उसे भोगना होगा, खेना होगा। माँ-बाप जनम के साथी होते हैं पापा। 'करम-रेख' तो सभी की न्यारी है। जब जनक जैसे बाप जो राजा भी थे और 'बरम्ह-ग्यानी' भी, जिनकी इतनी औकात थी कि सौ बेटी दामादों को घर-जमार्इ रखकर उमर भर खिला सकते थे- तीन लोक के मालिक से बेटी ब्याहकर भी उमर भर उसे सुखी देखने को तरस गए तो हम गरीब लोगों की क्या औकात?''
    यह केशर नहीं, केशर के रूप में मूर्त हिंदुस्तानी नारी का हजारों-हजार पीढ़ियों से विरासत में मिला अनुभव और यथार्थ को उसके ठोस व्यावहारिक रूप में पकड़ लेने की उसकी अंत्श्चेतना बोल रही थी। इस हकीकी दर्शन को सहसा किसी किताबी तर्क से काटने का दुस्साहस सम्भव नहीं था।
    थोड़ी देर कोर्इ कुछ नहीं बोला।
    अंतत: उसके बप्पा ने अपनी आशंका से उसे सावधान कर देना चाहा, ''सुना है, तुम्हारे जेठ-जेठानी उल्टे-सीधे कलंक लागते हैं। तुम तो खुद ही समझदार हो बिटिया। जाने-अनजाने ऐसी कोर्इ बात नहीं होनी चाहिए कि...''
    पूड़ी बेलते केशर के हाथ पल भर को रूक गए। उसने सीधे-सीधे बप्पा की आँखों में ताका, ''यह क्या' कहते हैं बप्पा?''
    फिर बिलकुल ही कोर्इ कुछ नहीं बोला।
    यात्रा की थकान थी। नींद जल्दी आ गर्इ। लेकिन उतनी  ही जल्दी उचट भी गर्इ। कोर्इ रोता है कि गाता है? चारों तरफ सघन अंधकार। भयावह सन्नाटा। और बीच में अभरता यह दर्द भरा पतला नारी स्वर। मैं दबे पाँव मँड़हे से ओसारे में आ गया। आवाज केशर की थी। अंदर की कोठरी से आ रही थी। बलिया प्रवास के दौरान सुना, करूण-कवि धीरज का गीत-सीता का दर्द।
    ...सीताजी को गर्भावस्था में पुन: बनवास हो गया है। लक्ष्मण उन्हें धोखे से जंगल में छोड़ आए हैं। राजा जनक को खबर मिलती है तो अधीर हो जाते हैं। तुरंत रथ लेकर मंत्री जी को भेजते हैं- जाकर जनकपुर लिवा लाइए। कहना तुम्हारे माँ-बाप का रोते-रोते बुरा हाल है।
    लेकिन सीताजी मंत्री जी को समझा-बुझाकर वापस भेज देती हैं।
    मत रोवे मार्इ, मत रोवे बपर्इ,
    मत रोवे भइया, हजारी जी-र्इ-र्इ,
    अपने करमवा माँ 'जरनि' लिखार्इ लाए,
    का करिहै बाप महतारी जी-र्इ-र्इ।
    अब मंत्री कैसे समझाएँ कि बात केवल बेटी के दुःख-दर्द की ही नहीं है। इससे बाप की प्रतिष्ठा भी जुड़ी हैं दुख-अभाव के चलते या कैसे भी अगर बेटी का पैर कहीं ऊँच-नीच पड़ गया, कोर्इ ऐसी-वैसी बात हो गर्इ, जिससे बाप की मूँछ नीची होती हो तो...?
    क्या कहते हैं मंत्रीजी। इसके माने बप्पा हमें अभी तक समझ ही नहीं सके। बप्पा से जाकर कहिएगा-
    मोछिया तोहार बप्पा 'हेठ' न होइहै
    पगड़ी केहू ना उतारी, जी-र्इ-र्इ।
    टुटही मँड़इया मा जिनगी बितउबै,
    नही जाबै आन की दुआरी जी-र्इ-र्इ।
    भीतर जलती लालटेन के प्रकाश की पतली रेखा किवाड़ों की फाँक से बाहर आ रही है। मैं अंदर झाँकने का प्रयास करता हूँ। एक हाथ में कैंची पकडे़, सिलार्इ मशीन को आगे रखे बैठी है केशर। चेहरा सामने है। आँखें आँसुओं से भीगी। पलकें बंद। मशीन में एक अधसिला कपड़ा लगा है।
    मैं दबे पाँव वापस लौटता हूँ। निविड़ अंधकार में मेरी ऑंखें देख रही हैं- सिलार्इ मशीन के सामने बैठी गाते-गाते रोती केशर।...शर्त जीतकर छोटी-छोटी चीजें बटोरती केशर।....छत्राकार घाघरा फैलाकर नाचती केशर।...खिलखिलाती केशर।....और बाप के कंधे को थपथपाकर आश्वस्त करती केशर, कि-
    नाहीं जाबै आन की दुआरी हो बपर्इ। नहीं जाबे.....

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