संगमन - 14
10- 12 अक्टूबर 2008
ग्वालियर
प्रथम सत्र 10 अक्टूबर 2008
अपरान्ह 2:00 बजे
विषय - स्वतन्त्र भारत का यथार्थ और मेरी प्रिय किताब
द्वितीय सत्र 11 अक्टूबर 2008
प्रात: 10:00 बजे
परिचर्चा : विषय - बदलता यथार्थ और बदलती अभिव्यक्ति
भ्रमण सत्र 11 अक्टूबर 2008
अपरान्ह 3:00 बजे
ग्वालियर के ऐतिहासिक स्थलों का भ्रमण
तृतीय सत्र 12 अक्टूबर 2008
प्रात: 10:00 बजे
कहानी पाठ
अरुण कुमार 'असफल' व उमाशंकर चौधरी की कहानियाँ
संक्षिप्त रपट
संगीत, साहित्य और शौर्य की नगरी में संगमन - 14
मैं अपने अंदर के बच्चे को बहुत प्यार करता हूँ। उसकी बदमाशियों, शैतानियों और चपलताओं में हमेशा उसके साथ रहता हूं। उसकी जिन्दादिली बरकरार रखने के लिए कुछ भी करने के लिए तत्पर रहता हूं।आज भी रेल या बस में बैठते वक्त खिडक़ी वाली सीट पर ही बैठने की कोशिश करता हूँ। खिडक़ी वाली सीट पर ही बैठ कर बाहर दौडते दृश्यों का लेमनचूस की तरह आनंद लेता हूं। हर नए शहर को बाल साहित्य की नई पत्रिकाओं के नए अंकों की तरह खूब चाव से पढता हूं। इस बार संगमन - 14 की बदौलत ग्वालियर शहर बाल साहित्य की नई पत्रिका की तरह मेरे हाथों में है।
ग्वालियर शहर की खुली किताब का एक पृष्ठ सिन्धिया मार्ग पर सालासर मॉल के ठीक सामने स्थित राज्य स्वास्थ्य प्रबंधन एवं संचार संस्थान, सिटी सेंटर का वातानुकूलित एडिटोरियम। एडिटोरियम में आरंभ हो चुका है आज दिनांक 10 अक्टूबर 2008 को संगमन - 14 का पहला सत्र। विषय है, ' स्वतन्त्र भारत का यथार्थ और मेरी प्रिय किताब'
हमेशा की तरह संगमन का परिचय देते हैं कमलेश भट्ट 'कमल' --- संगमन का हर कार्य लोकतांत्रिक ढंग से होता है। इसका गठन युवा रचनाकारों को खुला मंच देने के लिए किया गया है। स्थानीय आयोजक उवाच् --- ' बहुत से साथी इससे बडी शिद्दत से जुडे हैं। बहुत बडा अवसर है यह ग्वालियर के लिए। सत्र का संचालन आरंभ करते हुए ओमा शर्मा ने कहा, '' पिछले पचास - साठ वर्षों में जो यथार्थ उभरा है उसे उपन्यास कहानियों में कैसे लिया गया है, इस सत्र के विषय का चयन इसी बात को ध्यान में रखकर किया गया है।''
विषय पर बोलने के लिए मंच पर उपस्थित हैं, पांच वरिष्ठ रचनाकार--- सर्वश्री गोविन्द मिश्र, मंजूर एहतेशाम, प्रेमपाल शर्मा, पंकज बिष्ट व कमला प्रसाद। सर्वप्रथम भोपाल से आए गोविन्द मिश्र ने अपना नजरिया स्पष्ट किया --- '' आज के लेखकों के लेखन में स्थूलता बढती ही जा रही है मगर मुझे लेखन में सूक्ष्म यथार्थ का प्रकटन ही पसंद है।'' अपनी प्रिय किताब शैलेश मटियानी के उपन्यास 'गोपली गफूरन' के संदर्भ में बोलते हुए उन्होंने कहा, '' एक बडी क़िताब वह होती है जिसमें कईतरह के इंटरप्रिटेशन हों। इस मायने में यह एक बडी क़िताब है।''
भोपाल से ही आए अपने आप में ही डूबे रहने वाले भाई मंजूर एहतेशाम ने कहा, '' मेरी कही गई बात इस फकीर की बात है, जो सुने उसका भी भला और जो न सुने उसका भी भला।'' अपनी पसंदीदा किताब सलमान रश्दी की 'मिडनाइट चिल्ड्रन' के बारे में बोलते हुए उन्होंने कहा कि , '' इस किताब का यथार्थ स्वतन्त्रता के बाद यथार्थ है। और इस तरह से इस यथार्थ की बारीकियों को रेखांकित करना किसी चमत्कार से कम नहीं है।''
प्रेमपाल शर्मा ने विषय के संदर्भ में अपने विचार प्रकट करते हुए कहा कि --- ''स्वतन्त्र भारत के यथार्थ से तो स्वतन्त्रता के पहले का यथार्थ अच्छा था। और मेरी प्रिय पुस्तक हर दो वर्ष बाद बदल जाती है।'' उनकी प्रिय पुस्तकों की सूची कुछ यूं थी --- पंकज बिष्ट की 'लेकिन दरवाजा', सुरेन्द्र वर्मा कृत 'मुझे चांद चाहिए', श्रीलाल शुक्ल का 'राग दरबारी' व वर्गीज क़ुरियन की किताब 'सपना सच हो गया'।
प्रसिध्द कथाकार व समयान्तर के संपादक पंकज बिष्ट ने कहा, ' मेरे लिए यथार्थ लेखन वह है, जो वृहत्तर समाज के हितों की बात करे।' अपनी प्रिय पुस्तक 'राग दरबारी' के बारे में उनका कथन था कि ' जीवन का कोई पहलू ऐसा नहीं जिस पर यह उपन्यास टिप्पणी न करता हो। आज जब नई आर्थिक नीतियों के कारण आमजन का जीवन बदहाल होता जा रहा है ऐसे में ग्रामीण जीवन पर केन्द्रित यह उपन्यास स्वत: ही महत्वपूर्ण हो जाता है।'
'वसुधा' पत्रिका के संपादक व सुप्रसिध्द आलोचक कमला प्रसाद ने अपनी प्रिय पुस्तक के संदर्भ में दो किताबों का नाम लिया। मुक्तिबोध के उपन्यास 'विपात्र' व हरिशंकर परसांई की 'एक साहित्यिक की डायरी'। वे इन पुस्तकों पर कुछ इस तरह बोले कि दोनों पुस्तकों की विशेषताएं एक दूसरे में गड्डमड्ड सी हो गईं।
कार्यक्रम के अंत में इन वरिष्ठ साहित्यकारों ने कुछ साहित्यप्रेमियों की जिज्ञासाओं का भी समाधान किया। साहित्य मंथन से निकले अमृत का पान कर हॉल से निकले श्रोताओं ने जब हॉल के बाहर ग्वालियर के चित्रकार पंकज दीक्षित की पोस्टर प्रदर्शनी तथा इलाहाबाद के छायाकार कमल किशोर 'कमल' की चित्रप्रदर्शनी देखी तो उन्हें यूं लगा कि यह साहित्य मंथन और अधिक सार्थक हो गया हो।
दिनांक 11 अक्टूबर 2008
समय : 1000 प्रात:
संगमन - 14 के इस द्वितीय सत्र का विषय था ' बदलता यथार्थ और बदलती अभिव्यक्ति'। सत्र का संचालन किया चर्चित कथाकारों देवेन्द्र और जया जादवानी ने। विमर्श से पहले मधु कांकरिया को 'कथाक्रम - 2008' व उमा शंकर चौधरी को 'रमाकांत स्मृति पुरस्कार' की घोषणा की खुशी में संगमन - 14 द्वारा बधाई द गई। विमर्श की शुरूआत से पूर्व संचालक देवेन्द्र ने विषय की परिकल्पना की गठान खोली।
'' हम उत्तर आधुनिक व तकनीकी के दौर में जी रहे हैं। ज़िस चीज क़ी हम परिकल्पना नहीं कर सकते वह सहज रूप से हमारे जीवन में आ रही है। आज का यथार्थ कल्पना का अतिक्रमण कर रहा है।''
दतिया से आए वरिष्ठ आलोचक के बी एल पाण्डेय ने अपने आलेख द्वारा विषय की शेष धुन्ध को भी साफ कर दिया, '' भूमण्डलीकरण ने हमारे समय के यथार्थ की परिभाषा ही बदल कर रख दी है। परंपरा और अतीत के आग्रह प्रबल हुए हैं। नैतिकताओं की परिभाषा जल्दी जल्दी बदल रही है। लेकिन आज की जो नई पीढी अाई है उसकी रचनाएं् आश्वस्त कर रही हैं। विमर्श को गतिशीलता प्रदान करते हुए गोरखपुर से आए नामचीन कथाकार मदन मोहन ने कहा, '' आज जो भी यथार्थ बन रहा है वह मनुष्य विरोधी है।'' वर्धा से आए युवा आलोचक अरूणेश नीरन संवाद के सूत्र को आगे ले गए, '' हमारा समय बहुस्तरीय है। इसको पकड पाना आज के रचनाकार के लिए बडी चुनौती है।'' कलकत्ता की लेखिका मधु कांकरिया का अभिमत था, '' भूमण्डलीकरण के चलते इन्सान के इन्सान, इन्सान के परिवार व सामाज, इंसान के देश से रिश्तों में बहुत फर्क आ गया है।'' वरिष्ठ कवि लीलाधर मंडलोई का यह विचार था कि ' कहीं दूर कोई हमारा भविष्य तय कर रहा है और हम बेखबर हैं।' जालधंर से आए युवा कवि एवं कथाकार गीत चतुर्वेदी का कहना था कि 'विचार धारा से जीवन नहीं चलता लेकिन जीवन के लिए विचार जरूरी है।' लेकिन सुप्रसिध्द चित्रकार व कथाकार प्रभु जोशी के विचार इससे उलट थे, '' यथार्थ को जिस जगह खडे होकर हम देख रहे हैं, यह देखने के लिए सबसे बडी ज़रूरत है दृष्टि की और दृष्टि विचारधारा से बनती है।'' आगरा से आए कथाकार व रंगकर्मी जितेन्द्र रघुवंशी का कहना था, '' आज जो मुख्यधारा चल रही है उसमें हम अपनी उपस्थिति पूरी तरह दर्ज नहीं कर पा रहे हैं। कथाकार प्रकाश कांत का कथन , '' कुछ खास लोगों के हित के लिए ही बदला जा रहा है यह यथार्थ।''
कहानीकार राजेन्द्र लहरिया की शिकायत थी कि ' यथार्थ पर ही बात हुए जा रही है, अभिव्यक्ति पर चर्चा नहीं हो रही।''
शिवपुरी से आए सिध्दहस्त कथाशिल्पी पुन्नी सिंह का यह दावा था कि 'दलित साहित्य हमारे वेदों में भी था।' ए असफल का मानना था कि ' यथार्थ साहित्य को बदलता है। साहित्य जब बदलता है तो समाज व समय तथा अन्य चीजें भी बदलती हैं। गरिष्ठ हो रहे विमर्श को सुपाच्य बनाया स्टार लेखक शिवमूर्ति की चुटकियों ने --- ' आलोचक अंधेरे में नाव खे रहे हैं। यात्राएं कर रहे हैं पर बंधा हुआ लंगर नहीं खोल रहे। बेचारे रात भर नाव खेने के बाद सुबह होने पर खुद को जहां थे वहीं खडा पाते हैं।' शिवमूर्ति का मत था , ''जादुई यथार्थ गांवों में हमेशा से मौजूद रहा है मिसाल के तौर पर उन्होंने एक ग्रामीण महिला द्वारा रचित एक कवित्त सुनाया --- '' दमडी क़ा तेल लायो,
अर्र पोयो, बर्र पोयो,
सैंया की टंगडी लायों (लगाया)
थोर से अडाय गा ( गिर गया)
नदी नारा बहि गा,
टिकुली के भाग से सैंया मोरा बचिगा।
वरिष्ठ लेखक गोविन्द मिश्र का अन्दाजे बयां कुछ अलग था, '' काल सबसे बडा यथार्थ है। उसे सीमित अवधि में बांध कर आप हमारी दृष्टि को सीमित कर रहे हैं।' इस बात को लेकर उन्होंने एक शेर भी कहा,
' इलाजे दिल मसीहा तुम से हो नहीं सकता,
तुम अच्छा कर नहीं सकते, मैं अच्छा हो नहीं सकता।'
वरिष्ठ आलोचक कमला प्रसाद उवाच् ' आज साहित्य का जनतांत्रिकरण हो रहा है। इंटरनेट पर प्रेम की गोपनीय भाषा का प्रयोग हो रहा है। कंप्यूटर की नई भाषा आ गई है।भाषा का वाक्छल साहित्य पर हावी है।''
भाई मंजूर एहतेशाम की टिप्पणी, '' किसी के भी बोलने से कुछ फर्क नहीं पडने वाला है।''
उमा शंकर चौधरी के हिन्दी के लेखक को मध्यमवर्गीय और बेचारा कहने तथा हिन्दी के लेखकों में चेतन भगत जैसे अति आधुनिक विषय न उठा पाने की बेचारगी व्यक्त करने पर युवा कथालेखिका मनीषा कुलश्रेष्ठ ने आपत्ति दर्ज क़ि ' हिन्दी का लेखक बेचारा नहीं है। हिन्दी का लेखक भी कॉल सेन्टर्स पर बेहतर तरीके से लिख सकता है।'
इन्दौर से आए युवा कथाकार विवेक गुप्ता का कहना था कि , '' पिछले चालीस वर्षों में यथार्थ उतना नहीं बदला जितना पिछले पांच वर्ष में बदल गया है। जितनी बेरहमी से इकॉनॉमी ने हमें रौंदा है उतना पहले कभी नहीं।'' प्रेमपाल शर्मा का मत था कि , '' हमारा भारतीय यथार्थ कठपुतली की तरह है।'' युवा कथाकार तरुण भटनागर का कहना था कि , ''आज का मध्यमवर्ग प्रतिक्रियावादी है और व्यवहारिक भी।'' भोपाल से आए मुकेश वर्मा ने अपनी बात कविता में कही,
''न ग्वालियर बदला, न पागलखाने बदले, न मर्दाने बदले, न जनाने बदले।''
इसके अतिरिक्त सीमा शर्मा, पद्मा शर्मा, प्रमोद भार्गव, अशोक पाण्डेय, जितेन्द्र कुमार बिसारिया व विभा वत्स जैसे स्थानीय साहित्यानुरागियों ने भी विमर्श में सक्रिय भागीदारी की।
दिनांक 11 अक्टूबर 2008
समय : दोपहर तीन बजे
भ्रमण सत्र
कल शाम और आज सुबह के लम्बे विमर्शों के दौरान मेरे भीतर का बच्चा सहम कर दुबका रहा। लेकिन दोपहर भोजन के बाद राज्य स्वास्थ्य प्रबंधन संस्थान के हॉस्टल के बाहर जहां बाहर से आए प्रतिभागी ठहरे हुए थे वहां ग्वालियर भ्रमण हेतु टैक्सियां आ लगीं तो वह मेरे भीतर से कूद कर बाहर आ गया और एक टैक्सी की खिडक़ी के पास वाली सीट पर काबिज हो गया। खूब खिली धूप वाला दिन था। उमस भरी गर्मी। शहर की भीड भरी सडक़ों पर नाव की तरह हिचकोले खाती टैक्सियां जब ग्वालियर के प्राचीन किले की हद में पहुंची तो यूं लगा कि जैसे हम किसी हिल स्टेशन पर आ गये हैं। हरियाली के मध्य ऊंचाई की ओर जाती बलखाती सडक और उसके चारों तरफ पसरा तराशे हुए पत्थरों का संगदिल साम्राज्य। राजस्थान के चित्तौडग़ढ क़ा बारह किलोमीटर के दायरे में बना किला श्रेत्रफल में प्रथम है और यह द्वितीय।
हम जब मुख्य किले से कुछ पहले बने वाहन स्टैण्ड पर पहुंचे तो वहां पर पचास प्रतिशत से अधिक भीड सिख यात्रियों की थी। सिक्खों के छठवें गुरू हरगोबिन्द ( दाता बन्दी छोड) क़ा गुरूद्वारा किले के पास ही था। जैसे ही लेखक वृन्द किले में दाखिल हुआ उसे अंधेरे, सीलन और चमगादडों के बदन से निसृत होने वाली बू ने घेर लिया। यह बू हमें अतीत के उन पिछले पन्नों में लौटा ले गयी जब अय्याश खूनी सामन्तवाद अपने चरम पर था और यह किला कभी रंगमहल तो कभी बन्दीगृह की तरह काम में आया था। संकरी सीढियां पहले ऊपर की ओर चढ क़र एक खुले चौरस ढलान में पहुंची थीं। फिर दो तल नीचे उतर कर चारों तरफ से बन्द एक गोल आगार में जा खत्म हुईं। एक समय था जब यहां बना यह कुण्ड एक केसर कुण्ड थाजिसमें रानियां स्नान करती थीं फिर समय का चक्र घूमा तो मुगलों के आक्रमण के बाद यह जौहर कुण्ड बन गया तत्पश्चात यह बन्दीगृह और फांसीघर बन गया। यहीं पर जहांगीर के बेटे खुसरो, औरंगजेब के भाई मुराद, दाराशिकोह के बेटे शिकोह तथा औरंगजेब के पुत्र मोहम्मद को बन्दी बना कर रखा गयाबाद में सिखों के छठवें गुरू हरगोबिन्द को भी बन्दी बना कर यहीं रखा गया। एक अजीब सा आतंकित कर देने वाला सहमापन सब पर हावी हो गया।
सीढियां चढ क़र हम जब गाइड के साथ राजा मानसिंह तोमर के गुजरी महल में आए तो हमारी सांसें सम पर आईं। यह महल मानसिंह ने अपनी गुर्जर रानी मृगनयनी ( वृन्दावन लाल वर्मा के उपन्यास की नायिका) के लिए बनवाया था। राजा मानसिंह शास्त्रीय संगीत का दीवाना था। संगीत का ग्वालियर घराना उसी की देन है। बादशाह अकबर को उसने सोलह श्रेष्ठ संगीत रत्न प्रदान किए थे। कहते हैं तानसेन उन्हीं में से एक थे।
अब हम तानसेन के मकबरे की ओर चलेरास्ते में रानी लक्ष्मीबाई की छतरी भी पडी। तानसेन की मजार के चारों तरफ घना बाजार था। तीखा शोर था। जब हम मजार के निकट पहुंचे मुझे तानसेन की त्रस्त आत्मा मजार के निकट खडे सूखे इमली के दरख्त की सूखी टहनियों के बीच नजर आई। तानसेन के मकबरे से लौटते हुए अंधेरा हो चला था।
दिनांक 12 अक्टूबर
सुबह साढे दस बजे।
कहानी पाठ सत्र आरंभ होने को था। आज के सत्र के संचालक शिवमूर्ति थे। शिवमूर्ति ने जब बताया कि आज पढी ज़ाने वाली कहानियों का नरेटर बच्चा है तो मेरे भीतर का बच्चा चहक उठा और मेरी गोद में बैठ कर बडे चाव से कहानियां सुनने लगा। पहली कहानी उमा शंकर चौधरी ने सुनाई ' दद्दा और मदर इण्डिया का सुनील दत्त'। दूसरी कहानी अरुण कुमार असफल की 'पांच का सिक्का'।
दोनों ही कहानियों के पाठन के बाद प्रतिक्रियाओं का दौर आरंभ हुआ। सत्यनारायण पटेल की बेबाक राय के अनुसार---
'' उमा शंकर चौधरी की कहानी अच्छी नहीं लगी। जबकि 'पांच का सिक्का' मस्त कहानी है। युवा आलोचक अरुणेश नीरन का कहना था --- '' चौधरी की कहानी एक नई दृष्टि से लिखी गई कहानी है और 'पांच का सिक्का' कहानी एक नई बात खोलती है।'' सुप्रसिध्द हास्य कवि प्रदीप चौबे जी को दोनों कहानियां अच्छी लगी मगर कान्फ्रेन्स हॉल में लगे माईकों की तकनीकी खराबी पर उन्होंने कहा कि, ''किसी भी कार्यक्रम की सफलता में तकनीकी सक्षमता एक बडा हिस्सा होती है।तकनीकी खराबी के कारण कहानियां ठीक से सुन नहीं पाए।' उनका यह भी मत था कि कहानियां लिखना और सुनाना अलग अलग बातें हैं। युवा कथाकार तरुण भटनागर के अनुसार--- '' अरुण कुमार असफल की कहानी पर एक अंग्रेजी फ़िल्म 'बाइसिकल थीफ' का अक्स नजर आया।'' जितेन्द्र रघुवंशी का कहना था कि --- ''दोनों कहानियां अच्छी हैं मगर लेखकों को कहानी में कहां सोचना है, कहां डायलॉग देने हैं इस पर पर ध्यान देना चाहिए।''
राजेन्द्र लहरिया का दृष्टिकोण --- ''कहानी सायकिल से पहाड चढने की कवायद है। संतुलन बिगडा नहीं कि गिरे।''
प्रभु जोशी ने कहा, --- '' क्रिएटिव क्रिमिनल की दुनिया पर बहुत अच्छी कहानियां लिखी गई हैं। इसलिए ऐसी कहानियों पर संदेह व्यर्थ है। उमाशंकर को उदयप्रकाश के शिल्प से बचना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि ' कोई अच्छी कहानी पाठक को संबोधित नहीं होती जैसे कि कोई अच्छी सिंफनी श्रोताओं को संबोधित नहीं होती। पंकज बिष्ट की प्रतिक्रिया --- '' उमाशंकर की कहानी पर भाषा का दबाव है। दोनों की कहानियां शुरू में ही निश्चित अंत की ओर इशारा कर देती हैं। 'पांच का सिक्का' कई बातों में प्रभावित करती है। मंजूर एहतेशाम को इस बात का रंज था कि दोनों कहानियां उनकी अपेक्षा से कमतर निकलीं। गोविन्द मिश्र की प्रतिक्रिया दोटूक थी--- '' दोनों कहानियों में कथ्यात्मकता पर ज्यादा जाेर देकर अपनी बात कहने की कोशिश की गई है।'' कमला प्रसाद जी का मत था --- '' दोनों ही साथी गहरे आत्मविश्वास के लेखक हैं। चौधरी की कहानी लोकजीवन की कहानी है। कहानियां लोकजीवन की ओर मुडी हैं यह सकारात्मक है।
वरिष्ठ लेखक गिरिराज किशोर पर संचालक शिवमूर्ति ने कहानियों पर प्रतिक्रिया देने और संगमन की ओर से ध्न्यवाद ज्ञापित करने का दोहरा दायित्व डाला। गिरिराज किशोर को दोनों कहानियां अच्छी लगीं। उन्हें अरुण कुमार असफल की कहानी का अंत लॉजिकल लगा। उन्होंने कहा कि --- '' चौधरी को अपनी कहानी वहीं खत्म कर देनी चाहिए थी जहां पर घायल दद्दा ने मिश्री सिंह को नाव पर बैठे देख लिया था।'' उन्होंने अपने समापन भाषण में कहा कि --- '' देश में आर्थिक ताण्डव हो रहा है। लेखकों को उस पर भी ध्यान देना चाहिए। हमाराी जिम्मेदारी है कि हम आतंकवाद पर नजर रखें। वह चाहे हिन्दु आतंकवाद हो या मुस्लिम आतंकवाद।'' अन्त में उन्होंने स्थानीय संयोजक पवन करण व महेश कटारे तथा उनके समस्त सहयोगियों को धन्यवाद दिया साथ ही समस्त प्रतिभागी रचनाकारों को भी आभार प्रकट किया।
स्थानीय आयोजक के तौर पर पवन करण ने संगमन के आयोजकों, प्रतिभागियों तथा अपने साथियों को सहयोग के लिए तथा राज्य स्वास्थ्य प्रबंधन एवं संचार संस्थान के स्टाफ के सहयोग व स्थानीय समाचार पत्रों के सहयोग पर अपनी कृतज्ञता व्यक्त की। इस तरह संगमन का यह चोदहवां कदम सफलता पूर्वक समाप्त हुआ।
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