संगमन - 4
2 - 4 अक्टूबर 1998
दुधवा नेशनल पार्क
अन्य प्रतिभागी कथाकार थे- अखिलेश,अनिरुध्द उमट,गौतम सान्याल,जया जादवानी,तेजेन्द्र शर्मा,पंकज बिष्ट,महेश कटारे,मैत्रेयी पुष्पा,संजीव,संतोष दीक्षित,शशांक,शैलेन्द्र सागर,हरि भटनागर, हेमन्त कुमार,हरि नारायण,राजनारायण बोहरे,रामदेव सिंह,विभूति नारायण राय,आनंद संगीत,जितेन ठाकुर,संजीव ठाकुर,नरेन,रत्न कुमार सांभरिया,रोहिताश्व,डॉ जयनारायण,नवीन चन्द्र नैथानी,प्रेम कुमार मणि।
कार्यक्रम
2 अक्टूबर शुक्रवार 1998, जिला पंचायत हॉल, लखीमपुर
अपरान्ह तीन बजे स्वागत
प्रथम सत्र अपरान्ह 3 30 से 6 बजे तक
विषय - राजनीति का अभिव्यक्ति पर दबाव
शनिवार, 3 अक्टूबर 1998, चन्दन चौकी, दुधवा नेशनल पार्क
द्वितीय सत्र - अपरान्ह 3 से 6 बजे तक
विषय -कथ्य, भाषा और संरचना के प्रश्न
रविवार,3 अक्टूबर 1998, चन्दन चौकी, दुधवा नेशनल पार्क
तृतीय सत्र - अपरान्ह 2 से 4 बजे तक
विषय -संपादक व लेखक की पारस्परिक समस्याएं
संगमन 4 का आयोजन प्रकृति की गोद और जंगल के वैभव के बीच हुआ। देवेन्द्र इसी पडाव से संगमन परिवार से जुडे, वही संगमन 4 के स्थानीय संयोजक भी थे। साहित्य चर्चा के साथ साथ भ्रमण भी इस बार के संगमन का प्रमुख आकर्षण रहा।
(कथादेश)नवम्बर 1998
कोलाहल में कहानी की चिन्ता - संगमन - 4
राजनीति की जितनी चिन्ता साहित्य में होती है उतनी चिन्ता साहित्य की राजनीति में नहीं होती। - प्रेमकुमार मणि
राजनीति यह है कि आम आदमी साहित्य पढ ही न सके। वैसे बी हिन्दी में राजनीति को चुनौती दे सकने वाला साहित्य लिखा ही नहीं गया। - पंकज बिष्ट
विचारधारा का दबाव आंतरिक होकर रचना को उद्देश्य से जोडता है - हृदयेश
साहित्य की चीजें राजनीति के औजार बनती जा रही हैं और किन्हीं सन्दंर्भों में कही गयी बातों को आज के नेता जुमलों में तब्दील कर उनका मनचाहा प्रयोग कर रहे हैं। अब बाजार राजनीति को नियंत्रित कर रहा है।- संजीव
अब रचनाएं इतनी पैनी नहीं होती हैं कि सत्ता को खतरा हो। - कामतानाथ
लेखक की जडें ज़नता में होती हैं और जहां कहीं भी वह किसी के पक्ष में खडे होने की कोशिश करता है खतरा वहीं है। - काशीनाथ सिंह
मल्टीनेशनल के साथ वामपंथ भी हमारे लिए विदेशी है। - तेजेन्द्र शर्मा
अंग्रेजी से हीनता का संकट आज भारतीय भाषाओं पर गहरा दबाव है। - गिरिराज किशोर
परिशिष्ट : प्रकृति के आंचल में साहित्यकार। संगमन चार का काफिला पहले दुधवा नेशनल पार्क रुका फिर नेशनल पार्क से लगभग 17 - 18 किमी दूर थारू जनजाति के आदिवासियों के गांव 'चपेडवा' पहुंचा। वहां थारू युवक - युवतियों ने संगमन के स्वागत में थारू लोकनृत्य प्रस्तुत किया। गांव के एक पुरनिया आदिवासी ने जंगली जानवरों की आवाजें निकाल कर सबको चमत्कृत कर दिया। अगले दिन सुबह लेखकों ने नेशनल पार्क में हाथियों पर जंगल - सफारी का आनंद लिया गया। जंगल के गहन हिस्सों में, हाथियों पर बैठे लेखक स्वयं को प्रकृतिपुत्र महसूस कर रहे थे। सबकी उत्सुक नजरें घने जंगल में जंगली जानवरों को तलाश रही थीं।
1 comment:
kai salo ke bad sangman me bitaye un plo ko aapne taja kar diya. dhanyavad. dukh he ki bad me kisi sangman me nahi ja saka......
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