Saturday, February 28, 2015

चीन में दूसरा दिन


चीन में दूसरा दिन
                                                                'शिवमूर्ति'
     कल की थकान इतनी ज्यादा थी कि सोये तो ऐसे सोये कि सबेरे 6 बजे वेेकअप काल की घंटी बजी तो लगा सपने में बज रही है। पत्नी ने उठते ही उबलने के लिए केतली में पानी रख दिया। कल रेस्टोरेंट से एक स्प्राइट की दो लीटर वाली खाली बोतल लायी हैं। उबला हुआ पानी ठंडा करके इसी में भर कर रास्ते में पीने के लिए साथ ले चलेंगी। कल बस का ड्राइबर एक डालर में 750 एमएल की दो बोतलें दे रहा था। यही रेट बाहर भी होगा। यानी 61 रूपये में डेढ़ लीटर पानी। मेरी मानसिकता वाले व्यकित के लिए यह बहुत मंहगा लग रहा है। दरिद्र मानसिकता मरते दम तक साथ नहीं छोड़ने वाली।
चीन  की दीवार के बेस कैम्प पैर

चीन  की दीवार पर 
      रास्ते में पड़ने वाली नग तराशने की एक फैक्टरी और मोती बनाने वाली एक इकार्इ को देखते हुए आज चीन की दीवार देखने जाना है। चीन की दीवार के लिए मेरे मन में दुर्निवार आकर्षण है। किशोरावस्था में एक पत्रिका में उसके बारे में पढ़ा था- चिन नाम के बादशाह ने 221 र्इ. पूर्व मंगोल आक्रमण से देश को बचाने के लिए इस दीवार का निर्माण शुरू कराया था। फिर अगले, फिर अगले राजा, इसका निर्माण कार्य निरन्तर कराते रहे अगले हजार बारह सौ साल तक। तब नहीं सोचा था कि कभी इसे साक्षात अपनी आखों से देख सकूगा। कहते हैं यह ग्यारहवी शताब्दी तक बनती रही। 6 हजार किमी से ज्यादा लम्बी। यानी पचास साठ पीढि़यां पैदा होती रहीं, बनाती रहीं और मरती रहीं। इस बीच राजवंश बदल गये लेकिन निर्माण नहीं रूका। एक अपने यहां का इतिहास है कि एक ने बनाया तो दूसरे ने तोड़ा और लूटा। बनवाया भी कुछ तो पुल और सड़क नहीं, महल या मंदिर बनवाया। हमारे यहां आदमी के हाथ में परलोक रूपी ऐसा झुनझुना पकड़ा दिया गया कि पैदा होने से मरने तक उसी को बजाने में मंगन रहो। ब्रहम सत्यं जगत मिथ्या। जो सच है, नजरों के सामने है उसे मिथ्या मानते रहे और जो मिथ्या है, काल्पनिक है उसे सच। मिथ्या सच के सिर पर इस तरह चढ़कर बैठ गया कि सच का दम घुट गया। वह आज तक मिथ्या के चंगुल से मुक्त नहीं हो पाया। 
       नास्ता करके 8:30 बजे बस में सवार हो जाना है। कल की चिल्लपों का असर यह हुआ कि आज नास्ते की गुणवत्ता सुधर गयी। उसमें कार्नफ्लेस, दूध, केला, आमलेट और अंगूर तथा संतरे का जूस शामिल हो गया। नास्ता करते करते गाइड सिन्डी अपनी झंडी लिए हाजिर हो गयी।
       पत्नी जल्दी-जल्दी नास्ता करके बस की खोज में निकल गयीं। पिछली सारी विदेश यात्राओं के दौरान मैंने देखा कि वे बस में सबसे आगे की सीट हथियाती हैं। मैं पूछता हूँ- सबसे आगे बैठने की इतनी ललक क्यों? बगल से भी सब कुछ दिखायी देता है। आगे बैठने पर तो आपका ज्यादा समय सामने सड़क निहारने में चला जाता है। फिर, दूसरे लोग भी तो आगे की सीट पर बैठने की इच्छा रखते होंगे। उन्हें भी मौका मिलना चाहिए। पर वे नहीं मानती। उनका तर्क है कि जो पहले आये वह अपनी मनपसंद सीट पर बैठे। अमेरिका यात्रा में 'स्टेचू आफ लिबर्टी देखने जाने के दौरान बोट के दाहिने हाथ की सीट पर बैठने को लेकर उनकी एक लम्बी चौड़ी लकदक गुजराती महिला से लड़ार्इ हो गयी। दरअसल बोट पर सवार होने के दौरान टूर मैनेजर मिस्टर सावक ने ब्रीफ कर दिया कि फोटोग्राफी के लिहाज से खुली बोट के दाहिने भाग के किनारे की सीटें उपयुक्त रहेंगी। बस सब दाहिने किनारे की ओर भागे। मैं तो दूसरे लोगों के हाव भाव, कपड़े लत्ते, रोब रूतबा देख कर किनारा कर लेता हूँ लेकिन यही चीजें उन्हें भड़का देती हैं। कुछ गलत देखती हैं या उन्हें लगता है कि कोर्इ उन्हें दबा रहा है या धौंस में लेने की कोशिश कर रहा है तो हत्थे से उखड़ जाती हैं।
          मोती बनाने वाली इकार्इ का शो रूम दस हजार वर्ग फीट से कम क्या होगा। मोती जड़े गहनों के शो केस, मालायें, अंगूठियां, नेकलेस और भी जाने क्या क्या। करोड़ो का माल। प्रवेश द्वार पर ही बडे़ बड़े जार रखे थे। पानी भरे इन जारों की पेंदी में बड़ी बड़ी सीपियां, बुलबुले छोड़ती हुर्इ। एक आदमी एक बाल्टी लेकर आया और इनमें से 10-12 सीपियां निकाल कर बाल्टी में डाल लिया। फिर एक लड़की आर्इ। उसने आवाज देकर सबको पास बुलाया और मोती निर्माण की प्रक्रिया बताने लगी। एक सीप को उठा कर उसका मुँह चाकू से फैलाया और उसके पेट में सिथत अंडे की सफेदी जैसी तरल बूंद को दिखाते हुए बताया- यही बूंद निर्माण की प्रक्रिया से गुजर रहा मोती है। उसने कर्इ सीपियों को फाड़कर निर्माण के अलग-अलग स्टेज दिखाये फिर फाड़ी गर्इ सीपियों को उसी बाल्टी में फेक कर सबको लेकर हाल में चल गयी। मैं उन फाड़कर फेंकी गयी सीपियों को देखता रहा। अभी कुछ क्षण पहले तक उनमें जीवन था। अब वे कटी फटी दशा में कूड़े के ढेर की तरह पड़ी थीं। मैं सिहर गया। क्या सिर्फ हम पर्यटकों को निर्माण की प्रक्रिया दिखाने के लिए इन्हें फाड़ कर फेंक दिया गया। आठ दस अर्धनिर्मित मोती फेंक दिए। इतना नुकशान। यह सच नहीं हो सकता। पर सीपियों की जान चली गयी यह तो प्रत्यक्ष था। मैंने मन को समझाया- जरूर कुछ नजर का धोखा होगा। 
      वहां से चलकर हम नग बनाने वाली एक फैक्टरी में आये। सैकड़ों शो केस। बिजली की रोशनी में जगमगाते। सैकड़ों लाफिंग बुद्धा। एक किनारे लगी हल्के हरे पत्थर की चटटाने। मुझे एक कोने में एक साधारण सी मेज पर बडे़ खरबूजे के आकार की गोल हरी आकृति ने आकृष्ट किया। इस गोले में चारों तरफ एक डेढ़ सेमी व्यास के दस बारह छेद बने थे। इन छेदों से गोले के अंदर बना एक और गोला दिख रहा था। पहले से पूरी तरह स्वतंत्र और आसानी से चलायमान। उसकी सतह पर भी उसी तरह छेद थे और उन छेदों के अन्दर एक अन्य गोला दिख रहा था। एक के अंदर एक कुल चार गोले और सभी निर्बाध गतिशील। मैं आष्चर्य में पड़ गया। कैसे कारीगर ने एक बडे़ पत्थर को तराश कर इस तरह एक के अंदर एक गोले बनाए? लेकिन शिल्पी कौन है, यह कहीं दर्ज नहीं था। सेल्सगर्ल ने बताया कि देहात के कारीगर बना कर दे जाते हैं बिकने पर उन्हें इसका मूल्य दे दिया जायेगा। पता नहीं यह कब बिकेगा और कब इसका कितना मूल्य उस बेचारे को मिल पायेगा। सेल्सगर्ल ने कहा कि हो सकता है महीने भर में बिक जाये। हो सकता है साल भर लग जाये। 
      मामूली से दिखने वाले पत्थरों की आभा तराशने से निखर गयी थी। वे निर्जीव माडलों के गले में शोभायमान थे, हजार, डेढ़ हजार डालर के प्राइस टैग के साथ। चीन में अब विदेशी कम्पनियों को भी निर्माण का लायसेंस दिया जा रहा है। यह विदेषी कम्पनी ही थी। पहले ऐसा नहीं होता था। 
          यहां से चीन की दीवार करीब बीस किमी दूर है। थोड़ी दूर चलते ही पहाड़ की चोटी पर उसकी झलक दिखने लगी। दूर तक किसी डै्रगन की तरह ही बलखाती पसरी हुर्इ। खड़ी चढ़ार्इ वाले नुकीले ऊँचे पहाड़ों के सिर पर चढ़ कर बैठी थी यह। जैसे जैसे पास पहुंचते गये रोमांच बढ़ता गया। हमारी बस जिस सड़क से होकर गुजर रही थी उसके दोनों ओर पहाड़ की श्रृंखला फैली थी और उन पर चढ़ी दिख रही थी यह दीवार। इस पर भी, उस पर भी। बेस तक पहुंच कर बस रूकी। हम नीचे उतरे। देखा ठीक बायीं तरफ के पहाड़ पर चींटी की तरह नीचे से ऊपर चोटी की ओर बीस फीट की चौड़ार्इ में खड़ी चढ़ार्इ की सीढि़यों पर रेंगती भीड़। बाप रे! इतनी खड़ी चढ़ार्इ पर कैसे इतनी ऊँची चौड़ी दीवार बना दिया इन लोगों ने। वह भी ढ़ार्इ हजार साल पहले। कैसे चढ़ाये होंगे निर्माण सामग्री। आगे टिकट घर के पास से बायीं तरफ भी एक दीवार जा रही थी। गाइड ने बताया कि यह अपेक्षाकृत कम चढ़ार्इ वाली है। इस पर वह जो तीसरा ब्लाक दिख रहा है वहाँ तक तो यूरोपियन ही चढ़ पाते हैं। एशियार्इ मूल के लोग दूसरे ब्लाक तक चढ़ते हैं। चढ़ने को तो आप में से भी कुछ लोग हो सकता है चढ़ जायें लेकिन वापस लौटना कठिन हो जायेगा। जांघे भर आयेंगी। पैर कांपने लगेंगे। चढ़ने से ज्यादा उतरना पहाड़ हो जायेगा। जिन्हें हार्ट की समस्या हो या हार्इ ब्लड प्रेसर हो, बेहतर होगा वे जोखिम न उठायें। 
         पत्नी को यह सुनकर अच्छा नहीं लगा कि केवल यूरोपियन ही इतने सक्षम माने जा रहे हैं जो तीसरे ब्लाक तक चढ़ सकते हैं। उन्होंने मेरा हाथ दबाते हुए कहा- मैं भी तीसरे ब्लाक तक चढ़ूंगी। 
         -तुम मंगोलिया तक क्यों नहीं चली जातीं, तीसरा चौथा सब पार करते हुए। मैंने नाराजगी दिखायी- ब्लड पे्रशर की दवा खाती हो और आगे-आगे कूदती रहती हो। 
        -कूदूंगी, कूदूंगी। मुझे डराओ नहीं। खाने पीने का झोला और पानी लिए हुए, मेरा हाथ छोड़ वे तीन चार कदम आगे बढ़ गयीं। कैमरा और वीडियो संभालते हुए मैं। पीछे पीछे चला। दाहिने हाथ की चढ़ार्इ वास्तव में बायें की तुलना में समतल थी। हमने यही राह पकड़ी। 
        क्या तो दमदार पत्थरों को काट कर बनायी गयी है यह दीवार। दीवार भी और सड़क भी। वह भी सीढ़ीदार। किनारे किनारे पत्थर की ही रेलिंग। 4-5 इंच से लेकर 8-10 इंच तक के स्टेप। डेढ़-दो सौ सीढ़ी के बाद बगल में विश्राम के लिए बनाया गया कमरा और करीब पौन किमी पर एक बड़ा ब्लाक या हाल जिसमें सौ डेढ़ सौ सैनिक आसानी से विश्राम कर सकते हैं। (सही दूरी और नाप अब आप गूगल पर देख सकते हैं।) रेलिंग पकड़ कर चढ़ने उतरने वाले ज्यादा रहते हैं इसलिए रेलिंग से सटी सीढि़यां कहीं कहीं घिस गयी हैं। बाकी अंगद के पांव की तरह जस की तस। कभी इन पर घुड़सवार पहरेदार सैनिक चला करते थे। बिना इन पर चढे़ इनकी भव्यता और भयावहता का अनुमान लगाना संभव नहीं। कुछ उतरे आ रहे हैं, कुछ चढ़े जा रहे हैं, कुछ आसपास की रेलिंग पर अपना नाम अंकित करने पर लगे हैं। रूकते रूकाते लाग डाट में हम दो ब्लाक तक चढ़ गये। थकान आ गयी। मैं एक समतल रेलिंग के पत्थर पर बैठ गया। फोटोग्राफी, वीडियोग्राफी करने लगा। पत्नी कुछ देर तक पोज देती रहीं फिर धीरे धीरे चढ़ कर पचास साठ सीढ़ी ऊपर गयीं। मैंने सावधान किया- मदद के लिए पुकारोगी तो नहीं आ सकूँगा। लौट आओ। 
         -अकेली स्त्री को मददगारों की क्या कमी। कहकर वे हंसी और आगे बढ़ने लगीं। अगले मोड़ पर आंखों से ओझल हो गयीं। तेज गुस्सा आया। लेकिन क्या फायदा जब गुस्सा झेलने वाला ही कोर्इ नहीं है। सोचा मैं भी चलूं पर हिम्मत न हुर्इ। कहीं ऊपर ही न रह जाऊं। अंतत: करीब आधे घंटे बाद वे वापस लौटती दिखीं। साथ में दो अन्य विदेशी पहनावे वाली महिलायें। पता चला वे दोनों हरियाणा मूल की हैं और तीस पैंतीस साल से कनाडा में बस गयी हैं। वापसी में सचमुच पैर कांप रहे थें। बेस पर बने एक प्लेटफार्म पर खडे़ होकर लोग फोटो खिंचा रहे थे, यादगार के लिए। किसी भी झुंड में किसी के भी साथ। नाम, पता, फोन नम्बर लिखा दीजिए। पैसा जमा कर दीजिए। फोटो आप के पते पर पहुंच जायेगा। हमने भी फोटो खिंचार्इ। बस में पहुंचने वाले हम दोनों अंतिम यात्री थे। 
        यहां से चल कर एक विशाल रेस्टोरेंट में खाना खाने के लिए रूके। बाहर टूरिस्ट बसों की लाइन लगी थी। कर्इ मंजिल का रेस्टोरेंट। हर मंजिल पर 60-70 बड़ी मेजें। खाने के साथ बियर मुफ्त थी। पानी नहीं मिलेगा। स्प्राइट, कोकाकोला या बियर। हर प्रकार का खाना। हर प्रकार के खाने वाले। एशियार्इ, यूरोपियन, अफ्रीकन। विभिन्न पहनावे, विभिन्न बोलियां।
        यहां से हम समर पैलेस देखने गये। चीन के सम्राट की गर्मी के महीने की अराम गाह। लम्बी चौड़ी कुनमिंग लेक के किनारे लागिविटी हिल पर बना पैलेस। कर्इ सारे भवन। बारहवीं सदी में बना। यूरोपियन फौजों ने रौंदा जलाया। फिर बना। गर्मी के महीने में राजा 'फारबिडेन सिटी का महल छोड़कर अपनी सारी रानियों और 'कान्क्यूबाइन माने रखैलों के साथ यहां आ जाता था। यहां के कुछ महल बहुत खास हैं, जैसे- लांगिविटी पैलेस, ट्रानिक्वलिटी पैलेस, वीगर पैलेस। इनके मूल चीनी नाम तो जो होंगे सो होंगे। हिन्दी अनुवाद में हम दीर्घायु भवन कह सकते हैं जिसमें रहने से आयु बढ़ जाती है। बुढ़ापे को दूर भगाने का इंतजाम। प्रशानित भवन, चिन्ता उद्विग्नता या भय को दूर भगाने वाला। और पौरूष भवन, जिसमें रहने से पौरूष बढे़ या कम से कम जितना पौरूष बचा रह गया हो वह कायम रहे। भार्इ, पुरूष तभी तक पुरूष है जब तक उसका पौरूष बरकरार हैं। पौरूष गया तो वह कूडे़दान में फेंकने की चीज हो गया। मैंने एक बार टी.वी. पर देखा था, एक युवा शेरनी गुर्रा गुर्रा कर बूढे़ शेर को भगा रही थी। बेचारा कैसे पूंछ दबाए, अपमान के बोझ से सिर झुकाए, थके कदमों से चला जा रहा था। हारे हुए राजा की तरह पड़ रहे थे उसके कदम। विशाल कुनमिंग झील में एक भी चिडि़या नहीं थी। किनारे आठ दस पाली हुर्इ बत्तखें डक्क डक्क कर रहीं थीं।
            वहां से लौटते हुए हम ओलमिपक स्टेडियम पर रूके। यहीं पर 2008 के ओलमिपक खेल हुए थे। लगभग एक किमी लम्बे रास्ते पर ऊंचे ऊंचे खम्बों पर नियान लाइट चमक रही थी। विशाल स्पाती ढांचा बीच मैदान में खड़ा था। हजारों पर्यटक टहल रहे थे। देर तक फोटोग्राफी करने के बाद हम डिनर के लिए उत्सव होटल आये। सवेरे जियांग के लिए बारह बजे की फ्लाइट पकड़नी थी इसलिए इत्मीनान से उठे। नहाये धोए नास्ता किये। 9:30 पर होटल से निकले। आज सिन्डी से विदार्इ का दिन था। वह हम लोगों को लेकर एअरपोर्ट पर आयी। पैक्ड लंच दिया। चेक इन कराया और कहा सुना माफ की स्टाइल में किसी सम्भावित भूल के लिए सारी कह कर विदा ली। लेकिन उसकी आंखों में कोर्इ तरलता नहीं दिखी। सब कुछ रस्मी रस्मी। बार बार मिलने और बिछुड़ने की प्रक्रिया में ऐसा हो ही जाता होगा। 
          पत्नी द्वारा पर्स में सेब काटने के लिए छिपाकर रखा गया छोटा चाकू सिक्यूरिटी चेक में निकलवाया गया तो दुखी हो गयीं। मान लिया कि उसे लगेज में न डाल कर बेवकूफी किया। करीब फर्लांग भर आगे आ गयी थीं तो सिक्यूरिटी चेक की लड़की ने पीछे से आकर उनका पर्स खींचा। अब क्या गड़बड़ हो गयी? लेकिन कोर्इ गड़बड़ नहीं थी। वह सिक्यूरिटी चेक के दौरान छूट गया कैमरे का कवर देने आयी थी। बाप रे! इतनी दूर तक दौड़कर कवर देने आयी। और इतनी भीड़ में कैसे पहचाना कि यह कवर हमने छोड़ा था? थैक्यू भी उसी ने कहा। हम तो मूक खडे़ रह गये। 
          चाइनीज एअर होस्टेस देखकर एक बार फिर मन मुदित हुआ। साढे़ पांच फीट से कोर्इ कम नहीं। गोरी नहीं गुलाबी। ऊंची नासिका और ऊंची सैंडिल वाली। कहां से छांट छांट कर भर्ती किया है इन चीनियों ने भार्इ। प्लेन सम पर आया तो हमने अपना पैक्ड लंच खोला। चावल और रायता। साथ में भरवां पराठा। फिर फ्लाइट का लंच भी आ गया। कुछ खाया कुछ छोड़ा। 
          जियांग एअरपोर्ट पर सोफिया अपनी सौम्य मुस्कराहट के साथ मौजूद थी। सिन्डी 40 की थी लेकिन यह तीस से ज्यादा नहीं होगी। भोली सूरत, बिना मेकअप का चेहरा और राख के रंग वाली पैंट सर्ट पहने मझोले कद की धीमे धीमे मुस्कराकर (और शायद बहुत हल्की सी तुतलाहट के साथ) बोलने वाली सोफिया ने मुग्ध किया। न कोर्इ र्इगो, न कोर्इ आडम्बर, न कोर्इ दिखावा। बातचीत से पढ़ी लिखी लगी। बस के चलने के साथ उसने जिआंग शहर का परिचय देना शुरू किया। बताया की पहले जियांग ही चीन की राजधानी था। पेकिंग, जिंयाग ल्हासा, काठमांडू और दिल्ली एक सीधी रेखा में हैं। यहां 26 सम्राटों की कब्रें हैं। यहां की जमीन बहुत उपजाऊ है। यहां चावल की तुलना में गेहूँ ज्यादा पैदा होता है जिससे 108 प्रकार के व्यंजन बनाये जाते हैं। यह इलाका ब्यूटीफुल लेडीज और बहादुर सिपाही पैदा करने के लिए जाना जाता है। हर बहादुर सिपाही को एक ब्यूटीफुल वाइफ चाहिए ही चाहिए। ब्यूटीफूल पर उसका खास जोर था। उसने बताया कि शहर में दो मार्केट हैं। 'र्इस्ट एन्ड और 'वेस्ट एन्ड। एक शापिंग के लिए और दूसरा 'ब्यूटीफुल लेडीज को देखने के लिए। उसने बताया कि आस पास के इलाके में जो लोग पैसे वाले हो जाते हैं वे पहले मार्केट में जाकर ब्यूटीफुल लेडीज या गर्ल पसंद करते हैं। उससे उसकी च्वाइस पूछते हैं। वह कहती है कि मुझे फला अपार्टमेंट का फलां मंजिल का फ्लैट पसंद है। वह पैसे वाला उस फ्लैट को खरीद कर उसकी चाभी उस 'गर्ल को थमा देता है। तब वह उस पैसे वाले के साथ चली जाती है। चाहे 'वाइफ के रूप में या 'मिस्ट्रेस के रूप में। सुन कर बड़ा अच्छा लगा। क्या व्यवस्था है। यहीं रह जाने का मन हो रहा है। मैंने पत्नी की ओर देखा। वे बोलीं- रह जाइये। ऐसी जगह फिर न मिलेगी। 
         क्या तो मधु की तरह मीटी आवाज और सपना दिखाने वाली आंखे हैं सोफिया की? नाक कान एकदम सादे। न कोर्इ छेद न कोर्इ आभूषण। मुझे लगा कि यदि इसको गलती से आभूषण पहना दिए गये तो इसकी सुन्दरता घट जायेगी। रात का डिनर 'दिल्ली दरबार नाम के रेस्टोरेंट में था। वहां ले जाने के लिए मिस्टर राक नाम का एक अन्य गाइड आया। रास्ते में उसने बताया कि जिस इलाके में कल आपको ले चलेंगे वहां एक जगह ऐसी है जहां आज भी शादी के पहले वर वधू एक दूसरे को नहीं देखते। उनके मां बाप ही यह रिस्ता पसंद और तय करते हैं। जैसा कि कुछ समय पहले आपके इंडिया में होता था। उसने बताया कि यहां के पुरूष अपनी सित्रयों के पैर को बांधने के लिए एक खास तरह की पैकिंग का इस्तेमाल करते हैं। यह मान्यता है कि स्त्री के पैरों को बांध कर रखने से ही कोर्इ पुरूष उस स्त्री को काबू में रख सकता है अन्यथा स्त्री को काबू में रखना बहुत कठिन। वह किसी के काबू में रहने वाली शै ही नहीं है। एक ही उपाय है कि उसके पैरों को बांध कर रखो। जो लड़की अपने पैरों में यह बंधन नहीं स्वीकारती उसकी शादी होना मुशिकल। कौन पसंद करने का जोखिम लेगा ऐसी बन्धनहीन स्त्री को। और भी बहुत सी लन्तरानियां सुनार्इ उसने रेस्टोरेंट पहुंचने तक। पता नहीं कितनी सच कितनी झूठ। उसकी आवाज उसके शरीर की तरह ही मोटी और भौय भांय करने वाली थी। इसलिए बहुत कुछ समझने से रह गया। लेकिन जिस वजह से मैंने बीच में उसकी चर्चा छेड़ी उसका कारण दूसरा है। पता चला कि यह राक सोफिया का मंगेतर है। हे भगवान! तेरा करिश्मा तू ही जाने। कहां भों भों करके बोलने वाला यह मोटा बेडौल राक और कहां कोयल सी कूकने वाली चिकनी तन्वंगी सोफिया।
        मेरे सहकर्मी मोहम्मद अहद एक शेर सुनाते थे-
        जाख की चोंच में अंगूर, खुदा की कुदरत
        पहलुए हूर में लंगूर खुदा की कुदरत।

        जाख का मतलब पूछने पर उन्होंने बताया था- कौआ।
        अब आज आगे और कुछ न लिखा जायेगा। 

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