Saturday, June 13, 2015

शिवमूर्ति के गाँव में - बलराम

शिवमूर्ति के गाँव में - बलराम 
     दिल्ली से चल कर लखनऊ के गोमती नगर स्थित विकास खंड-2 में बाबा महाबीर दास की कुटी पर टिकान और वहां से सीधे सुलतानपुर-अमेठी के गांव कुरंग में रात्रि विश्राम। राहुल गांधी के क्षेत्र अमेठी के गांव कुरंग से अगले दिन सुलतानपुर के प्रेस क्लब में पहुंचकर सोमेशशेखर चंद्र के उपन्यास ‘गंवई गंध गुमान’ की संगोष्ठी में भाग लिया और फिर अमेठी के जन जीवन और स्मारकों को देखने निकल पड़े। जायसी की मजार ही नहीं, उनका जन्म स्थान भी देखा। फिर उनके नाम पर बने शोधपीठ और पुस्तकालय को देखने गए, जिनकी हालत देखकर मन दुखी हो गया। 
गांव कुरंग में शिवमूर्ति के पुश्तैनी कुएं की जगत पर उनके साथ कुछ देर बैठकर कैशोर्य की बातें करते रहे। उस कुएं का ही पानी पीते-पीते शिवमूर्ति देश के सिद्ध-प्रसिद्ध कथाकार हो गए। ककई ईंटों और खपरैल वाला शिवमूर्ति का पुश्तैनी घर तब की याद दिलाता है, जब उसे छोड़कर उनके पिता महावीर साधु हो गए। तब दस-ग्यारह बरस के किशोर शिवमूर्ति के लचकते कंधों पर आ टिकी थी परिवार की जिम्मेदारी। बचपन मेें ही शादी हो जाने से जल्दी ही वे पति और फिर पहली बेटी रेखा के पिता बन गए तो पढ़-लिखकर कुछ करने-धरने के उनके सपने टूटने-टूटने को हो गए? लेकिन सरिता जैसी ग्रामीण पत्नी के अथक श्रम और आगे बढ़ने-बढ़ाने के हौंसले ने सन् 1972 में शिवमूर्ति को पहले तो गांव के पास पीपरपुर के आसलदेव माध्यमिक विद्यालय में मास्टर बनवाया। फिर रेलवे में नौकरी पाकर ढाई साल वे पंजाब में रहे। और फिर पीएससी की परीक्षा पास कर अफसर हुए और उत्तर प्रदेश शासन में काफी ऊंचे ओहदे तक पहुंचे। 
गांव में पुश्तैनी घर और सब कुछ को जस का तस सहेज-संभालकर रखते हुए ससुर के बनाए गए घर को सरिता ने शहरी सुविधाओं से युक्त कर दोमंजिला करवा लिया। लखनऊ के गोमती नगर की भव्य कोठी में रहने की बजाय गांव में रहना उन्हें ज्यादा रास आता है। बीसियों बीघे जमीन पर खेती-बाड़ी का काम खुद ही देखने-भालने वाली सरिता चाहतीं हैं कि शिवमूर्ति जमकर लिखें-पढे़ और फणीश्वरनाथ रेणु की तरह खूब नाम कमाएं, लेकिन शिवमूर्ति हैं कि लिखने में उनका मन ही नहीं नगता। बहुत हांके जाने पर साल दो साल में कभी-कभार एकाध कहानी लिखकर लंबी तान लेते हैं। हां, देशी-विदेशी लेखकों को पढ़ते खूब हैं और सभा-गोष्ठियों में जाते हैं तो वक्तृता के अपने अनोखे अंदाज में सबकी छुट्टी कर देते हैं। गालिब की तरह उनका अंदाजे बयां कुछ और ही, एकदम अलग होता हैं अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के आयोजन में हमने देखा था कि बडे़-बड़े विचारकों-चिंतकों की ग्रामीण जीवन संबंधी हवाई बातें सुनकर उत्तेजित हो गए और सीधी-सच्ची बातें कहते हुए श्रोताओं से खूब तालियां बटोरीं और चिंतक-विचारक हाथ मलते रह गए। प्रेमचंद के बारे में तो पता नहीं, लेकिन रेणु जब गांव जाते तो रिवाल्वर अपने पास रखते थे और कुरंग जाने पर शिवमूर्ति की जेब में भी हमने रिवाल्वर देखा तो पूछ लिया कि इसकी क्या जरूरत पड़ती है तो बोले, ‘क्या गांव और क्या शहर, हर जगह जड़ और जमीन हमेशा खतरे में रहती है। इसलिए सावधानी जरूरी होती है।’
सरिता भले ही वनस्पति विज्ञान की स्नातक न हों, लेकिन लखनऊ वाली कोठी से लेकर गांव कुरंग के अपने बाग तक सैकड़ों प्रजातियों के देशी-विदेशी पेड़-पौधों को पालते-पोसते हुए जब उनके हिंदी-अंग्रेजी नाम उच्चारती हैं तो विज्ञान के बडे़-बड़े प्रोफेसर तक दांतों तले अंगुली दबा लेते हैं। ऐसा कौन-सा अनाज है, जो अपने खेतों में उपजा नहीं लेतीं सरिता। अनेक सब्जियां और ज्यादातर फल उनके खेतों और बगीचे में उपजते हैं। गाय-भैंस से दूध-दही भी मिल जाता है। बड़ा-सा इनवर्टर भी घर में है, जो बिजली कटौती होने पर भी घर को रोशन रखता है। बीस-तीस लोग भी अचानक आ जाएं तो कुरंग स्थित सरिता-शिवमूर्ति के घर में सहज रूप से रह सकते हैं। सरिता को गांव-घर और शहर, सब एक साथ संभालते देखकर कोई भी कह सकता है कि हर सफल आदमी के पीछे सरिता जैसी कोई औरत जरूर होती है। 
लखनऊ में कई पिल्ले सहसा कार की चपेट में आकर मां समेत मारे गए। अकेला बचा पिल्ला आंसू बहाते हुए रो-रोकर हलकान हो रहा था कि सरिता की नजर पड़ गयी। उन्होंने उसके लिए दूध और पानी का इंतजाम ही नहीं किया, जतन से छायादार जगह में रखकर देखभाल करते हुए उसे बचा लिया। घर के सामने एक पेड़ बड़ा हो रहा है और वे चाहतीं हैं कि गांव के बाग में स्थानांतरित कर दिया जाए, पर डरती हैं कि उखाड़नें में कहीं जडें टूटने से वह सूख न जाए। एक लेखक की पत्नी का पेड़-पौधों और पशु--पक्षियों के प्रति ऐसा लगाव दुर्लभ है। लखनऊ तो लखनऊ, कुरंग में बूढे़ और खजहे कुत्ते को शहरी महिलाएं हाथ तक न लगाएं। गाय, भैंस, बछडे़, यहां तक कि बिल्लियां, जलमुर्गियां, मोर, तीतर, बटेर, नीलकंठ, महोक, बया, नेवले और सांप तक उनके घर के परिसर में पूरे अधिकार से रहते हुए प्यार-दुलार पाते हैं। गढ़ई किनारे घात लगाकर बैठे सांप महाशय धूप खाने के लिए बाहर निकले मेढक मोशाय का शिकार करने के बाद चुपचाप अपने बिल में चले जाते हैं। कुरंग में शिवमूर्ति के घर के आसपास ऐसे दृश्य आम हैं। 
शिवमूर्ति के पिता महावीर दास अपने जीवन काल में परिसर के कोने में एक जगह इंगित कर गए थे, जहां न रहने पर भी बने रहने का उनका बड़ा मन था। शिवमूर्ति के लाख मना करने पर भी सरिता ने उसी जगह ससुर की समाधि बनवा दी तो आने-जाने वाले लोग सहज श्रद्धा से वहां फूल चढ़ाने लगे। इस तरह शिवमूर्ति के घर में शिव की नहीं, पार्वती की चलती है। उम्र में थोड़ी बड़ी सरिता ने मां-बाप से टूटे-छूटे शिव (मूर्ति) को पाल-पोसकर बड़ा कर दिया। सो, एक दिन हमने उनका नाम शिव पाल रख दिया, सरिता शिवपाल। शिवमूर्ति हिंदी की बड़ी शख्सियत हैं तो होते रहें, हमें तो सरिता उनसे भी बड़ी, बहुत बड़ी शख्सियत लगती हैं। वे बड़ी न होतीं तो शिवमूर्ति भी इतने बड़े न हो पाते! हमने भी शिवमूर्ति के बड़ा होने में किंचित सहयोग उनके लेखन के आरंभ में किया। यह वह समय था, जब अकालदंड, सिरी उपमा जोग, कसाईबाड़ा और भरतनाट्यम जैसी अपनी कहानियों का पुलिंदा हमें सौंपते हुए अपने नाम से छपा लेने की बात कहकर शिवमूर्ति कानपुर से कहीं दूर, शायद बस्ती चले गये थे! फिर काफी समय तक उनसे हमारा कोई संपर्क न रहा। अगर उनकी उन कहानियों को हम अपने नाम से छपा लेते तो दुनिया उन्हें कथाकार शिवमूर्ति के रूप में शायद ही देख पाती, जैसे काफ्का को भी हम इस रूप में कहां देख पाते! माक्स ब्राॅड ने जलाने की बजाय काफ्का की रचनाएं प्रकाशित करवा दीं और हमने शिवमूर्ति की रचानाएं उन्हीं के नाम से छाप और छपवाकर एक बार फिर उन्हें लिखने-पढ़ने के झमेले में फंसा दिया। शिवमूर्ति का वश चले तो वे कभी कुछ लिखें ही नहीं, लेकिन अखिलेश और हरिनारायण जैसे मित्र उन्हें चैन ही नहीं लेने देते। उन्हीं के कारण शिवमूर्ति ने ‘ख्वाजा ओ मेरे पीर’ तथा ‘बनाना रिपब्लिक‘ जैसे कहानियों लिखीं और रवींद्र कालिया ने उन्हें ‘नया ज्ञानोदय‘ में ‘आखिरी छलांग’ लगाने के जिए विवश किया। 
तोल्स्ताॅय से शिवमूर्ति की कोई तुलना नहीं, सिवाय दोनों में एक जैसे फक्कड़पने के। तोल्स्ताॅय रूस के बहुत बड़े जमींदार थे, किंतु शिवमूर्ति उतने बडे़ नहीं हैं, लेकिन कुरंग में उनका गांव-घर, उनकी जमीन-जायदाद देखकर सहसा तोल्स्ताॅय के यास्नाया पोल्याना को देखने का मन हो आया। जिज्ञासा हुई कि तोल्स्ताॅय का घर भी क्या ऐसा ही रहा होगा, शिवमूर्ति के घर जैसा! ऐसा तो हो सकता है, लेकिन सरिता जैसी दिव्य नायिका तोल्स्ताॅय के घर और जीवन में कहां कोई थी?
शिवमूर्ति बड़ी कथा शख्सियत हैं तो होते रहें, हमें तो सरिता जी उनसे भी बड़ी, बहुत बड़ी शख्सियत लगती हैं। वे ऐसी न होतीं तो शिवमूर्ति भी आज ऐसे न होते। भरतनाट्यम, कसाईबाड़ा और अकालदंड जैसी अपनी कहानियों का पुलिंदा देकर मुझे अपने नाम से छपा लेने की इच्छा जाहिर कर शिवमूर्ति चले गए थ! अगर उनकी उन कहानियों को हम अपने नाम से छपा लेते तो दुनिया उन्हें कथाकार शिवमूर्ति के रूप में शायद ही देख पाती, जिस तरह काफ्का की इच्छानुसार उनके मित्र माक्स ब्राॅड ने उनकी रचानाएं जलाकर राख कर दी होतीं तो काफ्का को भी दुनिया इस रूप में कहां देख पाती। माक्स ब्राॅड ने काफ्का की रचानाएं जलाने की बजाय प्रकाशित करवा दीं और हमने शिवमूर्ति की रचनाएं अपने बजाय उन्हीं के नाम से छाप और छपवाकर लिखने के झमेले में उन्हें फिर से फंसा दिया। शिवमूर्ति का वश चले तो वे अभी भी कुछ न लिखें, लेकिन अखिलेश और हरिनायण जैसे मित्र उन्हें चैन ही नहीं लेने देते। उन्हीं के कारण शिवमूर्ति ने पिछले दिनों ’ख्वाजा ओ मेरे पीर’ तथा ‘बनाना रिपब्लिक’ जैसी कहानियां लिखीं और रवींद्र कालिया ने उन्हें ‘आखिरी छलांग' लगाने के लिए मजबूर किया, जो ‘तद्भव’, 'कथादेश’ और 'नया ज्ञानोदय’ में प्रकाशित होकर इस दिनों शहरी कथाकारों के सिर पर होरा भून रहीं हैं। खुदा खैर करे!

( लोकायत १६-३० अप्रैल २०१३ से साभार) 



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