पुस्तक समीक्षा
सहजता बातचीत को सार्थक व जीवन्त बनाती है
कथाकार स्वाति तिवारी
साक्षात्कार मानवीय अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है। साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में यह विधा भेंटवार्ता, इंटरव्यू, बातचीत, मुलाकात और भेंट के रूप में खासी लोकप्रिय है। कह सकते हैं कि साक्षात्कार मतलब दो व्यक्तियों के बीच प्रश्न और उत्तर के माध्यम से विचारों का आदान-प्रदान या यूँ कहें किसी एक विशिष्ट व्यक्ति को जानना। किताबघर प्रकाशन ने प्रतिनिधि कहानियों की तरह हिन्दी सहित्य को समृद्ध करने वाले कालजयी रचनाकारों के साक्षात्कारों की भी एक श्रृंखला शुरू की है। यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण श्रृंखला इसलिए कही जा सकती है क्योंकि यह साहित्य विवेचन में रचनाकार के अंतर्साक्ष्य और बहिर्साक्ष्य दोनों ही से समान रूप से पाठकों की जिज्ञासाओं का समाधान करती है। साक्षात्कार लेने वाला देने वाले के दोनों साक्ष्यों से मिलता है फिर वह एक मिलाजुला साक्ष्य पाठक के सामने रखता है जो कहने को तो अन्तः साक्ष्य होता है पर वह उस व्यक्ति का एक बिम्ब पाठक के मन में शब्दों से गढ़ देता है। पाठक उस व्यक्तित्व से रू-ब-रू होता है। वे उसके व्यक्त्वि की एक परिकल्पना भी करने लगते हैं।
इसी श्रृंखला में आयी पुस्तक ‘मेरे साक्षात्कारः शिवमूर्ति‘ एक तरह से सम्पादित संग्रह है जिसमें ओमा शर्मा, गौतम सान्याल, दयानंद पाण्डेय, कंचन चैहान, प्रभात रंजन, गौरीनाथ, प्रेम भारद्वाज, मनीषा कुलश्रेष्ठ, राकेश मिश्र, अरूण सिंह ने समय-समय पर शिवमूर्ति से जो बातचीत की एवं जो पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुए हैं, ऐसे साक्षात्कारों को एक क्रमबद्ध, लयबद्ध में संजोया है सम्पादक सुशील सिद्धार्थ ने। यह संजोना ही इतना कलात्मक है कि लगता ही नहीं कि हम अलग-अलग लोगों की बातचीत से शिवमूर्ति जी को समझ रहे हैं। लगता है बस प्रश्न हैं जो क्रमबद्ध पूछे जा रहे हैं और उत्तर बगैर किसी लाग-लपेट के, बगैर किसी दुराव-छिपाव के दिए गए हैं। न प्रश्नों की पुनरावृत्ति न उत्तरों में वही-वही बातों का दोहराव। पूरी पुस्तक एक उपन्यास की तरह कथाकार शिवमूर्ति को हमारे सामने वैचारिक स्तर पर खोलती चली जाती है और पाठक तन्मय बतरस मर्मज्ञ से हुई बातों का आनंद लेने लगते हैं। बतरस भी ऐसा जैसे संवादों में कोई कहानी हमारी आँखों से गुजर रही है। यही भिन्न-भिन्न साक्षात्कारों को एक साथ सम्पादित करने का कौशल है जिसमें सम्पादक सुशील सिद्धार्थ सिद्धहस्त हैं। यह स्पष्ट समझ में आता है कि उन्होंने दूसरों के लिए गए साक्षात्कारों को भी कुछ इस तरह पहले स्वयं समझा फिर पाठकों के लिए क्रमबद्ध किया। इसीलिए लगता है रचनाकार एक नायक है और उसका रचनाकर्म, कथा का सार, यही विशिष्टता इस पुस्तक को न केवल पठनीय बनाती है, बल्कि यह उनके साहित्य को जानने-समझने की इच्छा जगाती है।
शिवमूर्ति हमारे समय के ऐसे लेखक हैं जिनकी हर रचना का पाठकों को इंतजार रहता है। उनके पाठकों का एक बड़ा और स्थायी वर्ग है। यूँ देखा जाए तो शिवमूर्ति ने थोड़ा लिखा ज्यादा कहा है क्योंकि उन्होंने बमुश्किल आठ-दस कहानियां और तीन लघु उपन्यास अपनी तीस वर्षाें की लेखन यात्रा में दिए हैं पर वे तीन उपन्यास तीन सौ पर भारी हैं और उनकी आठ कहानियाँ आठ हजार पर। तिरिया चरित्तर, कसाईबाड़ा, अकाल दंड, भरतनाट्यम, केसर कस्तूरी और ख्वाजा ओ मेरे पीर ऐसी कहानियां है जिनको पढ़कर लेखन को जानने समझने की एक सहज जिज्ञासा आलोचकों और पाठकों को होना लाजमी है। लेखक के सामाजिक सरोकारों का विष्लेशण करते हुए लेखक के मन की भीतरी परतों को खोलने उसके दिलो दिमाग में रचे-बसे उन सूक्ष्म बिन्दुओं को छूने का प्रयास ही साक्षात्कारवार्ता का मकसद होता है। शिवमूर्ति जी के इन साक्षात्कारों से गुजरते हुए पता चलता है कि कैसे एक लेखक की दृष्टि का निर्माण बहुत सारे कारकों से मिलकर होता है। लेखकीय वृत्तियों की शुरूआत कैसे होती है? प्रकृति का न्याय क्या होता है। समाज का निर्माण तथा विकास कैसे होता है? किस दृष्टि से कौन सी बात न्यायपूर्ण है, अन्याय कब और कहां व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करते हैं? आँचलिक कथा साहित्य में फणीश्वरनाथ रेणु के बाद यदि इन महत्वूर्ण तथ्यों को किसी ने कथा में समेटा है तो वे कथाकार शिवमूर्ति ही हैं। गाँवों पर लिखने वाले कथाकार शिवमूर्ति के अंदर गाँव, उनका घर, उनके खेत, उनकी गाय, उनके अन्दर का किसान कितना और कितने गहरे तक रचा है। मेरा गाँव, मेरा घर, मेरा परिवार उनकी आत्मा का कितना बड़ा हिस्सा है। उनका इन सब से जो आत्मीय रिश्ता है वह उनके प्रत्येक उत्तर से यहाँ व्याख्यायित होता है।
सुप्रसिद्ध साहित्यकार हरिवंशराय बच्चन ने कहा है कि इंटरव्यू का मकसद है पढ़ने वाला यह अनुभव करें कि जैसे वह इंटरव्यू दाता से मिल आया है। उसके पास हो आया है उसे गले लगा आया है, उसे सूंघ आया है- जब पाठक विनयदास से शिवमूर्ति की बातचीत को पढ़ते हैं तो हम उनके बचपन, उनके पिता, पिता की स्मृति, उनकी आस्था, धार्मिकता उनके बाल विवाह तक में शामिल हो जाते हैं। साक्षात्कार में प्रेम को लेकर पूछे गए प्रश्न के उत्तर में शिवमूर्ति कहते हैं- जो प्रेम दायित्वबोध के लबादे के साथ आता है वह पत्नी के साथ हुआ और जो मित्रता के रूप में विकसित होता है वह शिवकुमारी के साथ हुआ। जिस मित्रता का आधार विपरीत लिंग के प्रति यौन आकर्षण न हो वह मनुष्य के विकास की उच्चावस्था कही जायेगी। शिवकुमारी के साथ मेरी मित्रता को आप इस रूप में देख सकते हैं। उसी क्रम में यदि गौतम सान्याल की शिवमूर्ति से बातचीत देखते हैं (सीन पांच- प्रसंग, शिवकुमारी तथा अन्य) में शिवमूर्ति कहते हैं पहली बार जब शिवकुमारी को देखा तब वह अपनी बड़ी बहन चम्पा के साथ पंडाल में नाच रही थीं, दोनों बहनों में ‘कुछ’ था जो मुझे खींच रहा था लोगों ने रोका- पतुरिया हैं, पास मत जाओ पकड़ कर घूंघट के अंदर कर लेंगी। और बिना पैसे लिये नहीं छोडे़गी। वही शिवकुमारी मुझे ब्राह्मण लड़कों की पकड़ और मार से बचाने आती है उसके रोद्र रूप को देखकर मुझे पीट रहे लड़के डरकर भाग जाते हैं। यहीं से हमारी मित्रता शुरू होती है। आगे वे जिक्र करते हैं कि हमारी मित्रता उस स्तर पर चली जाती है कि मैं उसके बच्चों को ट्यूशन पढ़ाता हूँ और वह मेरे कच्चे घर को बनाने में टोकरी से मिट्टी ढोने तक का काम करती हैं। प्रेम का इतना सार्थक इतना गहरा अर्थ देह के प्रेम से हजारों फीट ऊँचा उठ जाता है।
शिवमूर्ति जी अपने साक्षात्कारों में बगैर लाग-लपेट के स्पष्ट और साफगोई से उत्तर देते हैं। यही उनकी भीतरी परतों में झाँकने का स्पेस है। शिवमूर्ति जी के लेखन में अपने आसपास का दर्द-पीड़ा, आक्रोष है उनके अपने संघर्ष हैं। कंचन सिंह चैहान को दिए साक्षात्कार में वे बगैर झिझक के स्वीकारते हैं- मैं बी.ए. थर्ड क्लास हूँ। वहीं आगे वे अपने अध्यापकों को भी बडे़ गहरे से याद करते हैं। कहते हैं टीचर अच्छे मिले थे मुझे उन्होंने जो प्राइमरी का गणित पढ़ाया था वह पीसीएस में काम आया और सौ में सौ नम्बर मिले।
साक्षात्कार एक तरह से भीतर की आवाज ही सुनना होता है। हर मनुष्य के पास कल्पना की स्वतंत्रता है। कल्पनाशीलता ही अनुभवों को रचना में बदलती है। अनुभव अनुभूति से रची गई रचनाएँ पढ़ना और लेखक की रचनाप्रक्रिया जानना रचना में विश्वसनीयता बढ़ा देता है। पाठक जिस रचना को पढ़ता है उसी के जब साक्षात्कार के माध्यम से लेखन को समझता है उसके दृष्टिकोण या कथा के घटनाक्रम को सुनता है तो उसे लगता है हमने जो स्वाध्याय किया था उसी के सह-अस्तित्व से साक्षात्कार कर लिया। अतः जो लिखा गया है वह कोरी शब्द माया नहीं है- वह यथार्थ के खुरदुरे धरातल पर उपजी कृति है। पुस्तक स्पष्ट करती है कि लेखक का एक पक्ष होता है और एक विपक्ष भी। शिवमूर्ति सहज रूप से जनपक्षधर लेखक हैं। ये साक्षात्कार एक भारतीय परिवेश के ग्रामीण अंचल के रचनाकार के साहित्य को समझने का सूत्र प्रदान करते है। पाठक का अपने प्रिय लेखक से सहज आत्मीयता का रिश्ता बनाते हैं । शिवमूर्ति प्रश्नों को यूँ ही लफ्फबाजी में नहीं लेते वे जानते हैं कि मेरे कहे का अर्थ है, मेरे शब्दों का सामाजिक सरोकार है। अतः उनके जवाब सधे हुए, सावधान और बौद्धिक रस से भरे लगते हैं।
सम्पादन करते हुए सुशील सिद्धार्थ भी मुझे उतने ही सजग-संतुलित और लेखक के आत्मीय लगते हैं तभी तो उन्होंने अपने सम्पादन कौशल से किस्सागोई को बचाए रखा और हम पुस्तक को किसी किस्से कथा की तरह पढ़ते हैं। उनके सार्थक सम्पादन का ही कमाल है कि हम शब्दों से ही लेखक के अन्तः साक्ष्य और बहिर्साक्ष्य से साक्षात्कार कर लेते हैं।
हिन्दी के प्रख्यात आलोचक डा. नगेन्द्र ने इस विधा को परिभाषित करते हुए कहा कि इंटरव्यू से अभिप्राय उस रचना से है जिसमें पाठक लेखक से प्रश्नों के माध्यम से उसके व्यक्त्वि-कृतित्व के संबंध में प्रमाणित जानकारी प्राप्त करता है फिर मन पर पडे़ प्रभाव को आत्मसात करता है।
कहा जाता है कि प्रश्नकर्ता का निर्जीव, खुशामदी होना अथवा उत्तरदाता का अंहकारी व स्वगोपी होना साहित्य के लिए घातक होता है। दोनों की सजीवता बातचीत को जीवन्त बना देती है। यह पुस्तक इस बात का प्रमाण है।
पुस्तक - मेरे साक्षात्कार: शिवमूर्ति
सम्पादन - सुशील सिद्धार्थ
मूल्य - तीन सौ अस्सी रूपये
प्रकाशक - किताब घर प्रकाशन,
4855-56124 अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली
समीक्षक- स्वाति तिवारी
ईएन-1/9 चार इमली, भोपाल
मो. - 9424011334
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