Sunday, September 27, 2009

स्वतन्त्र भारत का यथार्थ और मेरी प्रिय किताब











संगमन - 14
10
- 12 अक्टूबर 2008

ग्वालियर

संगमन 14 का आयोजन इस बार ग्वालियर में दिनांक 10 से 12 अक्टूबर 2008 को हुआ देश के विभिन्न हिस्सों से लगभग 30 कथाकारों ने इसमें भागीदारी की। संगमन के सत्रों का विवरण
प्रथम सत्र 10 अक्टूबर 2008
अपरान्ह 2:00 बजे
विषय - स्वतन्त्र भारत का यथार्थ और मेरी प्रिय किताब
द्वितीय सत्र 11 अक्टूबर 2008
प्रात: 10:00 बजे
परिचर्चा : विषय - बदलता यथार्थ और बदलती अभिव्यक्ति

भ्रमण सत्र 11 अक्टूबर 2008
अपरान्ह 3:00 बजे
ग्वालियर के ऐतिहासिक स्थलों का भ्रमण

तृतीय सत्र 12 अक्टूबर 2008
प्रात: 10:00 बजे
कहानी पाठ
अरुण कुमार 'असफल' व उमाशंकर चौधरी की कहानियाँ

संक्षिप्त रपट

संगीत, साहित्य और शौर्य की नगरी में संगमन - 14

मैं अपने अंदर के बच्चे को बहुत प्यार करता हूँ। उसकी बदमाशियों, शैतानियों और चपलताओं में हमेशा उसके साथ रहता हूं। उसकी जिन्दादिली बरकरार रखने के लिए कुछ भी करने के लिए तत्पर रहता हूं।आज भी रेल या बस में बैठते वक्त खिडक़ी वाली सीट पर ही बैठने की कोशिश करता हूँ। खिडक़ी वाली सीट पर ही बैठ कर बाहर दौडते दृश्यों का लेमनचूस की तरह आनंद लेता हूं। हर नए शहर को बाल साहित्य की नई पत्रिकाओं के नए अंकों की तरह खूब चाव से पढता हूं। इस बार संगमन - 14 की बदौलत ग्वालियर शहर बाल साहित्य की नई पत्रिका की तरह मेरे हाथों में है।
ग्वालियर शहर की खुली किताब का एक पृष्ठ सिन्धिया मार्ग पर सालासर मॉल के ठीक सामने स्थित राज्य स्वास्थ्य प्रबंधन एवं संचार संस्थान, सिटी सेंटर का वातानुकूलित एडिटोरियम। एडिटोरियम में आरंभ हो चुका है आज दिनांक 10 अक्टूबर 2008 को संगमन - 14 का पहला सत्र। विषय है, ' स्वतन्त्र भारत का यथार्थ और मेरी प्रिय किताब'

हमेशा की तरह संगमन का परिचय देते हैं कमलेश भट्ट 'कमल' --- संगमन का हर कार्य लोकतांत्रिक ढंग से होता है। इसका गठन युवा रचनाकारों को खुला मंच देने के लिए किया गया है। स्थानीय आयोजक उवाच् --- ' बहुत से साथी इससे बडी शिद्दत से जुडे हैं। बहुत बडा अवसर है यह ग्वालियर के लिए। सत्र का संचालन आरंभ करते हुए ओमा शर्मा ने कहा, '' पिछले पचास - साठ वर्षों में जो यथार्थ उभरा है उसे उपन्यास कहानियों में कैसे लिया गया है, इस सत्र के विषय का चयन इसी बात को ध्यान में रखकर किया गया है।''

विषय पर बोलने के लिए मंच पर उपस्थित हैं, पांच वरिष्ठ रचनाकार--- सर्वश्री गोविन्द मिश्र, मंजूर एहतेशाम, प्रेमपाल शर्मा, पंकज बिष्ट व कमला प्रसाद। सर्वप्रथम भोपाल से आए गोविन्द मिश्र ने अपना नजरिया स्पष्ट किया --- '' आज के लेखकों के लेखन में स्थूलता बढती ही जा रही है मगर मुझे लेखन में सूक्ष्म यथार्थ का प्रकटन ही पसंद है।'' अपनी प्रिय किताब शैलेश मटियानी के उपन्यास 'गोपली गफूरन' के संदर्भ में बोलते हुए उन्होंने कहा, '' एक बडी क़िताब वह होती है जिसमें कईतरह के इंटरप्रिटेशन हों। इस मायने में यह एक बडी क़िताब है।''

भोपाल से ही आए अपने आप में ही डूबे रहने वाले भाई मंजूर एहतेशाम ने कहा, '' मेरी कही गई बात इस फकीर की बात है, जो सुने उसका भी भला और जो न सुने उसका भी भला।'' अपनी पसंदीदा किताब सलमान रश्दी की 'मिडनाइट चिल्ड्रन' के बारे में बोलते हुए उन्होंने कहा कि , '' इस किताब का यथार्थ स्वतन्त्रता के बाद यथार्थ है। और इस तरह से इस यथार्थ की बारीकियों को रेखांकित करना किसी चमत्कार से कम नहीं है।''

प्रेमपाल शर्मा ने विषय के संदर्भ में अपने विचार प्रकट करते हुए कहा कि --- ''स्वतन्त्र भारत के यथार्थ से तो स्वतन्त्रता के पहले का यथार्थ अच्छा था। और मेरी प्रिय पुस्तक हर दो वर्ष बाद बदल जाती है।'' उनकी प्रिय पुस्तकों की सूची कुछ यूं थी --- पंकज बिष्ट की 'लेकिन दरवाजा', सुरेन्द्र वर्मा कृत 'मुझे चांद चाहिए', श्रीलाल शुक्ल का 'राग दरबारी' व वर्गीज क़ुरियन की किताब 'सपना सच हो गया'।

प्रसिध्द कथाकार व समयान्तर के संपादक पंकज बिष्ट ने कहा, ' मेरे लिए यथार्थ लेखन वह है, जो वृहत्तर समाज के हितों की बात करे।' अपनी प्रिय पुस्तक 'राग दरबारी' के बारे में उनका कथन था कि ' जीवन का कोई पहलू ऐसा नहीं जिस पर यह उपन्यास टिप्पणी न करता हो। आज जब नई आर्थिक नीतियों के कारण आमजन का जीवन बदहाल होता जा रहा है ऐसे में ग्रामीण जीवन पर केन्द्रित यह उपन्यास स्वत: ही महत्वपूर्ण हो जाता है।'

'वसुधा' पत्रिका के संपादक व सुप्रसिध्द आलोचक कमला प्रसाद ने अपनी प्रिय पुस्तक के संदर्भ में दो किताबों का नाम लिया। मुक्तिबोध के उपन्यास 'विपात्र' व हरिशंकर परसांई की 'एक साहित्यिक की डायरी'। वे इन पुस्तकों पर कुछ इस तरह बोले कि दोनों पुस्तकों की विशेषताएं एक दूसरे में गड्डमड्ड सी हो गईं।

कार्यक्रम के अंत में इन वरिष्ठ साहित्यकारों ने कुछ साहित्यप्रेमियों की जिज्ञासाओं का भी समाधान किया। साहित्य मंथन से निकले अमृत का पान कर हॉल से निकले श्रोताओं ने जब हॉल के बाहर ग्वालियर के चित्रकार पंकज दीक्षित की पोस्टर प्रदर्शनी तथा इलाहाबाद के छायाकार कमल किशोर 'कमल' की चित्रप्रदर्शनी देखी तो उन्हें यूं लगा कि यह साहित्य मंथन और अधिक सार्थक हो गया हो।

दिनांक 11 अक्टूबर 2008
समय : 1000 प्रात:

संगमन - 14 के इस द्वितीय सत्र का विषय था ' बदलता यथार्थ और बदलती अभिव्यक्ति'। सत्र का संचालन किया चर्चित कथाकारों देवेन्द्र और जया जादवानी ने। विमर्श से पहले मधु कांकरिया को 'कथाक्रम - 2008' व उमा शंकर चौधरी को 'रमाकांत स्मृति पुरस्कार' की घोषणा की खुशी में संगमन - 14 द्वारा बधाई द गई। विमर्श की शुरूआत से पूर्व संचालक देवेन्द्र ने विषय की परिकल्पना की गठान खोली।

'' हम उत्तर आधुनिक व तकनीकी के दौर में जी रहे हैं। ज़िस चीज क़ी हम परिकल्पना नहीं कर सकते वह सहज रूप से हमारे जीवन में आ रही है। आज का यथार्थ कल्पना का अतिक्रमण कर रहा है।''
दतिया से आए वरिष्ठ आलोचक के बी एल पाण्डेय ने अपने आलेख द्वारा विषय की शेष धुन्ध को भी साफ कर दिया, '' भूमण्डलीकरण ने हमारे समय के यथार्थ की परिभाषा ही बदल कर रख दी है। परंपरा और अतीत के आग्रह प्रबल हुए हैं। नैतिकताओं की परिभाषा जल्दी जल्दी बदल रही है। लेकिन आज की जो नई पीढी अाई है उसकी रचनाएं् आश्वस्त कर रही हैं। विमर्श को गतिशीलता प्रदान करते हुए गोरखपुर से आए नामचीन कथाकार मदन मोहन ने कहा, '' आज जो भी यथार्थ बन रहा है वह मनुष्य विरोधी है।'' वर्धा से आए युवा आलोचक अरूणेश नीरन संवाद के सूत्र को आगे ले गए, '' हमारा समय बहुस्तरीय है। इसको पकड पाना आज के रचनाकार के लिए बडी चुनौती है।'' कलकत्ता की लेखिका मधु कांकरिया का अभिमत था, '' भूमण्डलीकरण के चलते इन्सान के इन्सान, इन्सान के परिवार व सामाज, इंसान के देश से रिश्तों में बहुत फर्क आ गया है।'' वरिष्ठ कवि लीलाधर मंडलोई का यह विचार था कि ' कहीं दूर कोई हमारा भविष्य तय कर रहा है और हम बेखबर हैं।' जालधंर से आए युवा कवि एवं कथाकार गीत चतुर्वेदी का कहना था कि 'विचार धारा से जीवन नहीं चलता लेकिन जीवन के लिए विचार जरूरी है।' लेकिन सुप्रसिध्द चित्रकार व कथाकार प्रभु जोशी के विचार इससे उलट थे, '' यथार्थ को जिस जगह खडे होकर हम देख रहे हैं, यह देखने के लिए सबसे बडी ज़रूरत है दृष्टि की और दृष्टि विचारधारा से बनती है।'' आगरा से आए कथाकार व रंगकर्मी जितेन्द्र रघुवंशी का कहना था, '' आज जो मुख्यधारा चल रही है उसमें हम अपनी उपस्थिति पूरी तरह दर्ज नहीं कर पा रहे हैं। कथाकार प्रकाश कांत का कथन , '' कुछ खास लोगों के हित के लिए ही बदला जा रहा है यह यथार्थ।''

कहानीकार राजेन्द्र लहरिया की शिकायत थी कि ' यथार्थ पर ही बात हुए जा रही है, अभिव्यक्ति पर चर्चा नहीं हो रही।''
शिवपुरी से आए सिध्दहस्त कथाशिल्पी पुन्नी सिंह का यह दावा था कि 'दलित साहित्य हमारे वेदों में भी था।' ए असफल का मानना था कि ' यथार्थ साहित्य को बदलता है। साहित्य जब बदलता है तो समाज व समय तथा अन्य चीजें भी बदलती हैं। गरिष्ठ हो रहे विमर्श को सुपाच्य बनाया स्टार लेखक शिवमूर्ति की चुटकियों ने --- ' आलोचक अंधेरे में नाव खे रहे हैं। यात्राएं कर रहे हैं पर बंधा हुआ लंगर नहीं खोल रहे। बेचारे रात भर नाव खेने के बाद सुबह होने पर खुद को जहां थे वहीं खडा पाते हैं।' शिवमूर्ति का मत था , ''जादुई यथार्थ गांवों में हमेशा से मौजूद रहा है मिसाल के तौर पर उन्होंने एक ग्रामीण महिला द्वारा रचित एक कवित्त सुनाया --- '' दमडी क़ा तेल लायो,
अर्र पोयो, बर्र पोयो,
सैंया की टंगडी लायों (लगाया)
थोर से अडाय गा ( गिर गया)
नदी नारा बहि गा,
टिकुली के भाग से सैंया मोरा बचिगा।

वरिष्ठ लेखक गोविन्द मिश्र का अन्दाजे बयां कुछ अलग था, '' काल सबसे बडा यथार्थ है। उसे सीमित अवधि में बांध कर आप हमारी दृष्टि को सीमित कर रहे हैं।' इस बात को लेकर उन्होंने एक शेर भी कहा,
' इलाजे दिल मसीहा तुम से हो नहीं सकता,
तुम अच्छा कर नहीं सकते, मैं अच्छा हो नहीं सकता।'

वरिष्ठ आलोचक कमला प्रसाद उवाच् ' आज साहित्य का जनतांत्रिकरण हो रहा है। इंटरनेट पर प्रेम की गोपनीय भाषा का प्रयोग हो रहा है। कंप्यूटर की नई भाषा आ गई है।भाषा का वाक्छल साहित्य पर हावी है।''

भाई मंजूर एहतेशाम की टिप्पणी, '' किसी के भी बोलने से कुछ फर्क नहीं पडने वाला है।''

उमा शंकर चौधरी के हिन्दी के लेखक को मध्यमवर्गीय और बेचारा कहने तथा हिन्दी के लेखकों में चेतन भगत जैसे अति आधुनिक विषय न उठा पाने की बेचारगी व्यक्त करने पर युवा कथालेखिका मनीषा कुलश्रेष्ठ ने आपत्ति दर्ज क़ि ' हिन्दी का लेखक बेचारा नहीं है। हिन्दी का लेखक भी कॉल सेन्टर्स पर बेहतर तरीके से लिख सकता है।'

इन्दौर से आए युवा कथाकार विवेक गुप्ता का कहना था कि , '' पिछले चालीस वर्षों में यथार्थ उतना नहीं बदला जितना पिछले पांच वर्ष में बदल गया है। जितनी बेरहमी से इकॉनॉमी ने हमें रौंदा है उतना पहले कभी नहीं।'' प्रेमपाल शर्मा का मत था कि , '' हमारा भारतीय यथार्थ कठपुतली की तरह है।'' युवा कथाकार तरुण भटनागर का कहना था कि , ''आज का मध्यमवर्ग प्रतिक्रियावादी है और व्यवहारिक भी।'' भोपाल से आए मुकेश वर्मा ने अपनी बात कविता में कही,
''न ग्वालियर बदला, न पागलखाने बदले, न मर्दाने बदले, न जनाने बदले।''

इसके अतिरिक्त सीमा शर्मा, पद्मा शर्मा, प्रमोद भार्गव, अशोक पाण्डेय, जितेन्द्र कुमार बिसारिया व विभा वत्स जैसे स्थानीय साहित्यानुरागियों ने भी विमर्श में सक्रिय भागीदारी की।

दिनांक 11 अक्टूबर 2008
समय : दोपहर तीन बजे

भ्रमण सत्र

कल शाम और आज सुबह के लम्बे विमर्शों के दौरान मेरे भीतर का बच्चा सहम कर दुबका रहा। लेकिन दोपहर भोजन के बाद राज्य स्वास्थ्य प्रबंधन संस्थान के हॉस्टल के बाहर जहां बाहर से आए प्रतिभागी ठहरे हुए थे वहां ग्वालियर भ्रमण हेतु टैक्सियां आ लगीं तो वह मेरे भीतर से कूद कर बाहर आ गया और एक टैक्सी की खिडक़ी के पास वाली सीट पर काबिज हो गया। खूब खिली धूप वाला दिन था। उमस भरी गर्मी। शहर की भीड भरी सडक़ों पर नाव की तरह हिचकोले खाती टैक्सियां जब ग्वालियर के प्राचीन किले की हद में पहुंची तो यूं लगा कि जैसे हम किसी हिल स्टेशन पर आ गये हैं। हरियाली के मध्य ऊंचाई की ओर जाती बलखाती सडक और उसके चारों तरफ पसरा तराशे हुए पत्थरों का संगदिल साम्राज्य। राजस्थान के चित्तौडग़ढ क़ा बारह किलोमीटर के दायरे में बना किला श्रेत्रफल में प्रथम है और यह द्वितीय।

हम जब मुख्य किले से कुछ पहले बने वाहन स्टैण्ड पर पहुंचे तो वहां पर पचास प्रतिशत से अधिक भीड सिख यात्रियों की थी। सिक्खों के छठवें गुरू हरगोबिन्द ( दाता बन्दी छोड) क़ा गुरूद्वारा किले के पास ही था। जैसे ही लेखक वृन्द किले में दाखिल हुआ उसे अंधेरे, सीलन और चमगादडों के बदन से निसृत होने वाली बू ने घेर लिया। यह बू हमें अतीत के उन पिछले पन्नों में लौटा ले गयी जब अय्याश खूनी सामन्तवाद अपने चरम पर था और यह किला कभी रंगमहल तो कभी बन्दीगृह की तरह काम में आया था। संकरी सीढियां पहले ऊपर की ओर चढ क़र एक खुले चौरस ढलान में पहुंची थीं। फिर दो तल नीचे उतर कर चारों तरफ से बन्द एक गोल आगार में जा खत्म हुईं। एक समय था जब यहां बना यह कुण्ड एक केसर कुण्ड थाजिसमें रानियां स्नान करती थीं फिर समय का चक्र घूमा तो मुगलों के आक्रमण के बाद यह जौहर कुण्ड बन गया तत्पश्चात यह बन्दीगृह और फांसीघर बन गया। यहीं पर जहांगीर के बेटे खुसरो, औरंगजेब के भाई मुराद, दाराशिकोह के बेटे शिकोह तथा औरंगजेब के पुत्र मोहम्मद को बन्दी बना कर रखा गयाबाद में सिखों के छठवें गुरू हरगोबिन्द को भी बन्दी बना कर यहीं रखा गया। एक अजीब सा आतंकित कर देने वाला सहमापन सब पर हावी हो गया।

सीढियां चढ क़र हम जब गाइड के साथ राजा मानसिंह तोमर के गुजरी महल में आए तो हमारी सांसें सम पर आईं। यह महल मानसिंह ने अपनी गुर्जर रानी मृगनयनी ( वृन्दावन लाल वर्मा के उपन्यास की नायिका) के लिए बनवाया था। राजा मानसिंह शास्त्रीय संगीत का दीवाना था। संगीत का ग्वालियर घराना उसी की देन है। बादशाह अकबर को उसने सोलह श्रेष्ठ संगीत रत्न प्रदान किए थे। कहते हैं तानसेन उन्हीं में से एक थे।

अब हम तानसेन के मकबरे की ओर चलेरास्ते में रानी लक्ष्मीबाई की छतरी भी पडी। तानसेन की मजार के चारों तरफ घना बाजार था। तीखा शोर था। जब हम मजार के निकट पहुंचे मुझे तानसेन की त्रस्त आत्मा मजार के निकट खडे सूखे इमली के दरख्त की सूखी टहनियों के बीच नजर आई। तानसेन के मकबरे से लौटते हुए अंधेरा हो चला था।

दिनांक 12 अक्टूबर
सुबह साढे दस बजे।

कहानी पाठ सत्र आरंभ होने को था। आज के सत्र के संचालक शिवमूर्ति थे। शिवमूर्ति ने जब बताया कि आज पढी ज़ाने वाली कहानियों का नरेटर बच्चा है तो मेरे भीतर का बच्चा चहक उठा और मेरी गोद में बैठ कर बडे चाव से कहानियां सुनने लगा। पहली कहानी उमा शंकर चौधरी ने सुनाई ' दद्दा और मदर इण्डिया का सुनील दत्त'। दूसरी कहानी अरुण कुमार असफल की 'पांच का सिक्का'।

दोनों ही कहानियों के पाठन के बाद प्रतिक्रियाओं का दौर आरंभ हुआ। सत्यनारायण पटेल की बेबाक राय के अनुसार---
'' उमा शंकर चौधरी की कहानी अच्छी नहीं लगी। जबकि 'पांच का सिक्का' मस्त कहानी है। युवा आलोचक अरुणेश नीरन का कहना था --- '' चौधरी की कहानी एक नई दृष्टि से लिखी गई कहानी है और 'पांच का सिक्का' कहानी एक नई बात खोलती है।'' सुप्रसिध्द हास्य कवि प्रदीप चौबे जी को दोनों कहानियां अच्छी लगी मगर कान्फ्रेन्स हॉल में लगे माईकों की तकनीकी खराबी पर उन्होंने कहा कि, ''किसी भी कार्यक्रम की सफलता में तकनीकी सक्षमता एक बडा हिस्सा होती है।तकनीकी खराबी के कारण कहानियां ठीक से सुन नहीं पाए।' उनका यह भी मत था कि कहानियां लिखना और सुनाना अलग अलग बातें हैं। युवा कथाकार तरुण भटनागर के अनुसार--- '' अरुण कुमार असफल की कहानी पर एक अंग्रेजी फ़िल्म 'बाइसिकल थीफ' का अक्स नजर आया।'' जितेन्द्र रघुवंशी का कहना था कि --- ''दोनों कहानियां अच्छी हैं मगर लेखकों को कहानी में कहां सोचना है, कहां डायलॉग देने हैं इस पर पर ध्यान देना चाहिए।''

राजेन्द्र लहरिया का दृष्टिकोण --- ''कहानी सायकिल से पहाड चढने की कवायद है। संतुलन बिगडा नहीं कि गिरे।''
प्रभु जोशी ने कहा, --- '' क्रिएटिव क्रिमिनल की दुनिया पर बहुत अच्छी कहानियां लिखी गई हैं। इसलिए ऐसी कहानियों पर संदेह व्यर्थ है। उमाशंकर को उदयप्रकाश के शिल्प से बचना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि ' कोई अच्छी कहानी पाठक को संबोधित नहीं होती जैसे कि कोई अच्छी सिंफनी श्रोताओं को संबोधित नहीं होती। पंकज बिष्ट की प्रतिक्रिया --- '' उमाशंकर की कहानी पर भाषा का दबाव है। दोनों की कहानियां शुरू में ही निश्चित अंत की ओर इशारा कर देती हैं। 'पांच का सिक्का' कई बातों में प्रभावित करती है। मंजूर एहतेशाम को इस बात का रंज था कि दोनों कहानियां उनकी अपेक्षा से कमतर निकलीं। गोविन्द मिश्र की प्रतिक्रिया दोटूक थी--- '' दोनों कहानियों में कथ्यात्मकता पर ज्यादा जाेर देकर अपनी बात कहने की कोशिश की गई है।'' कमला प्रसाद जी का मत था --- '' दोनों ही साथी गहरे आत्मविश्वास के लेखक हैं। चौधरी की कहानी लोकजीवन की कहानी है। कहानियां लोकजीवन की ओर मुडी हैं यह सकारात्मक है।

वरिष्ठ लेखक गिरिराज किशोर पर संचालक शिवमूर्ति ने कहानियों पर प्रतिक्रिया देने और संगमन की ओर से ध्न्यवाद ज्ञापित करने का दोहरा दायित्व डाला। गिरिराज किशोर को दोनों कहानियां अच्छी लगीं। उन्हें अरुण कुमार असफल की कहानी का अंत लॉजिकल लगा। उन्होंने कहा कि --- '' चौधरी को अपनी कहानी वहीं खत्म कर देनी चाहिए थी जहां पर घायल दद्दा ने मिश्री सिंह को नाव पर बैठे देख लिया था।'' उन्होंने अपने समापन भाषण में कहा कि --- '' देश में आर्थिक ताण्डव हो रहा है। लेखकों को उस पर भी ध्यान देना चाहिए। हमाराी जिम्मेदारी है कि हम आतंकवाद पर नजर रखें। वह चाहे हिन्दु आतंकवाद हो या मुस्लिम आतंकवाद।'' अन्त में उन्होंने स्थानीय संयोजक पवन करण व महेश कटारे तथा उनके समस्त सहयोगियों को धन्यवाद दिया साथ ही समस्त प्रतिभागी रचनाकारों को भी आभार प्रकट किया।
स्थानीय आयोजक के तौर पर पवन करण ने संगमन के आयोजकों, प्रतिभागियों तथा अपने साथियों को सहयोग के लिए तथा राज्य स्वास्थ्य प्रबंधन एवं संचार संस्थान के स्टाफ के सहयोग व स्थानीय समाचार पत्रों के सहयोग पर अपनी कृतज्ञता व्यक्त की। इस तरह संगमन का यह चोदहवां कदम सफलता पूर्वक समाप्त हुआ।

आजादी का स्वप्न और 'मैला आंचल' का यथार्थ

संगमन - 13

28 - 30 अक्टूबर 2007
नैनीताल

पहाड़। हरे - भरे वृक्षों से लदे पहाड़। जैसे सदियसों सदियों से हरे रंग का चोला धारण कर तपस्यारत साधु वृन्द। जिसके सम्पर्क में आने के बाद ही मनुष्य ने जीने की कला सीखी, जीवन के सार तत्व को समझा और मुक्ति का बोधिसत्व पाया। इस वर्ष संगमन - 13 का आयोजन मौसम में बढती ठंडक के साथ, उत्तरांचल में बसे खूबसूरत शहर नैनीताल में सम्पन्न हुआ। स्थानीय संयोजक की जिम्मेदारी इस बार ली थी, महादेवी वर्मा सृजन पीठ, रामगढ ने। इस बार के प्रतिभागी थे -- सर्वश्री प्रभाकर श्रोत्रिय,असगर वजाहत,मैत्रेयी पुष्पा, वीरेन्द्र यादव, शंभू गुप्त, प्रेम कुमार, मणि, बटरोही, वीरेन डंगवाल, ॠषिकेश सुलभ, महेश कटारे, योगेन्द्र आहूजा, रणेन्द्र, प्रियदर्शन मालवीय, प्रेमरंजन अनिमेष, मनोज पाण्डेय, शशिभूषण, दिनेश कर्नाटक स्थानीय प्रतिभागियों में -- सर्वश्री उमा भट्ट, कपिलेश, नीरजा टण्डन, बल्ली सिंह चीमा, गंभीर सिंह पालनी, दीपक तिरुआ, शीला रजुवार, विनायक श्रीवास्तव, स्वाति मलकानी की सक्रिय भागीदारी रही

कार्यक्रम
प्रथम सत्र : 28 अक्टूबर 2007(नैनीताल क्लब)
अपरान्ह 200 से सायं 600 बजे तक
विषय - आजादी का स्वप्न और 'मैला आंचल' का यथार्थ

द्वितीय सत्र: 29अक्टूबर 2007 (महादेवी वर्मा सृजन पीठ,रामगढ)
प्रात: 1030 से 200 बजे तक
कहानी पाठ : शहतूत (मनोज कुमार पाण्डेय), शशिभूषण, प्रेमरंजन अनिमेष

तृतीय सत्र : 29 अक्टूबर 2007(महादेवी वर्मा सृजन पीठ,रामगढ)
अपरान्ह 200 से सायं 600 बजे तक
कहानी पर प्रतिक्रियाएं

चतुर्थ सत्र 31 अक्टूबर 2007(नैनीताल क्लब)
प्रात: 10 बजे
परिसंवाद: कहानी का समाज, समाज की कहानी

अख़बारों और पत्रिकाओं की रपट के कुछ अंश

द गौङसन्स टाइम्स, नई दिल्ली 16 दिसंबर 2007
आजादी का स्वप्न और 'मैला आंचल' का यथार्थ तथा
कहानी का समाज, समाज की कहानी

प्रेस से....
संगमन - 13

अख़बारों और पत्रिकाओं की रपट के कुछ अंश

आजादी का स्वप्न और 'मैला आंचल' का यथार्थ तथा कहानी का समाज, समाज की कहानी

'विश्व की सबसे अनूठी साहित्यिक आयोजन श्रृंखला 'संगमन' का 13वां आयोजन नैनीताल की सुरम्य वादियों में विगत दिनों(28 - 30 अक्टूबर) संपन्न हुआ।'
'मैला आंचल' का यथार्थ' विषय पर जहां प्रतिभागियों
ने आजाद भारत की तमाम समस्याओ पर मैला आंचल के रचनाकार फणीश्वर नाथ रेणु के सपने और रचनात्मक कल्पनाशीलता के आलोक में गंभीर मंथन किया, वहीं युवा रचनाकारों के कहानीपाठ और 'कहानी का समाज, समाज की कहानी' विषय पर परिसंवाद के द्वारा संगमन आयोजन को सीधे-सीधे पाठकों / श्रोताओं से जोडने का भी प्रयास किया।
(द गौङसन्स टाइम्स, नई दिल्ली 16 दिसंबर 2007)

संगमन में बोले गए कुछ महत्वपूर्ण कथन/उपकथन

'भारतीय समाज के शासक तबके जिसका निर्माण सवर्णों और जमींदारों द्वारा हुआ था- ने हमारी पीढ़ी को झूठी आज़ादी ही नहीं दिलवाई, झूठा इतिहास भी पढ़ाया। रेणु का 'मैला आंचल' हमें वास्तविक इतिहास से बेहतर ढंग से रु-ब-रू कराता है।' दूसरा पर्चा। प्रसिध्द आलोचक वीरेन्द्र यादव के विचार - 'रेणु ने 'मैला आंचल' के मेरी गंज गांव के बाल देव, बावनदास व कालीचरण जैसे बहुजन समाज के कालजयी पात्रों के माध्यम से पूरी स्वतन्त्रता को प्रश्नों के घेरे में ला. खड़ा किया है।'
प्रेम कुमार मणि

'मैला आंचल' का केन्द्रीय विचार गांधीवाद का टूट कर बिखरना ही माना जाना चाहिए।'- असगर वज़ाहत

'जितने ईश्वर, गुरू और बाबा है सब स्त्री का देह शोषण करते हैं। जितने अनिष्ट, अमंगल और अपशगुन है सब स्त्री के कारण है।'
मैत्रेयी पुष्पा

'गांधी की आजादी में अब एक और आज़ादी शामिल होनी चाहिए और वह है दलित और स्त्री की आज़ादी।' प्रभाकर
श्रोत्रिय

'लेखक का काम उद्वेलित करना है, किसी समाधान तक पहुंचाना नहीं।' -प्रभाकर श्रोत्रिय

'नये येवा लेखक शिल्प पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं। 'नये लेखकों को सोचना चाहिए कि हम पिछले लेखकों से कितने कदम आगे बढ़े है।' प्रभाकर श्रोत्रिय

'ऐसे विमर्श अपने समय के यथार्थ से भिड़ने के लिए दृष्टि देते है।'-बटरोही

'बदलते आर्थिक आधार के कारण सामाजिक सम्बन्ध-जटिल से जटिल होते जा रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में इतिहास हमारी भाषा और ज़िन्दगियों पर टूट कर गिरा है। हमारी स्मृतियों और संवेदनाओं पर चौतरफा हमला हो रहा हैं। यह ऐसा वक्त है, जिसमें हमारा सब कुछ दांव पर लगा है।' -योगेन्द्र आहूजा

'जिस कहानी का ज्यादा जिक्र होता है वह हिन्दुस्तान की कहानी नहीं होती।' -महेश कटारे

'जो समाज बदला है, उसमें स्त्रियों के लिए जो बातें अहितकर थी उन्हें अस्वीकार किया गया है। पहले मारने वाला सहने वाले की भी कहानी लिखता था, अब सहने वाला अपनी कहानी खुद लिखने लगा है।' - मैत्रेयी पुष्पा

'पुराने ढंग का समाज टूट रहा है और नये ढंग का समाज बनना शुरू हुआ है। ब्राह्मणवाद पिछड़ी जातियों में भी शुरू होने लगा है।' - ऋषिकेश सुलभ

'अवसाद और हताशा मध्यमवर्ग की बीमारी है। हिन्दी कहानी का चरित्र मध्यमवर्ग के चरित्र से ग्रस्त हो गया है।' देवेन्द्र

'उम्मीद जगाने का काम पुरानी कहानियां कर चुकी है।' दिनेश कर्नाटक

'अवसाद हमारे साहित्य में आया है और आयेगा। यह अवसाद द्वितीय विश्वयुध्द के बाद योरोप में आया था। हमारे यहां भी ऐसी स्थितियां पैदा हो चुकी है।' प्रेमकुमार मणि 'साहित्य समाज का आईना है। यह चीजों को की छोटी तो कभी बड़ी करके दिखाता है।'- प्रेमरंजन अनिमेष-

'रूप कोई कथ्य निर्धारित नहीं करता। मध्यवर्गीय लेखक जड़हीन हो गया है इसीलिए वह शिल्प से कहानी शुरू करता
है'
वीरेन्द्र यादव

'स्त्री और दलित हाशिए पर थे, हमें उन्हें केन्द्र में लाना चाहिए।' - प्रेम कुमार मणि

परिशिष्ट

साहित्यिक समस्याओं के लिए चार सत्र भी मानो कम पड रहे थे इन्हीं के बीच भ्रमण का आनन्द भी चुराना था प्रथम और अंतिम सत्र तो नैनीताल के प्रसिध्द 'नैनीताल क्लब' में हुए थे जो अपने आप में खुशगवार जगह हैप्रथम सत्र के बाद गाडियों से नैनी झील के आस पास लेखक घूमते हुए गरम भुट्टों का और मालरोड पर पैदल सैर का आनन्द लेते रहे

दूसरा और तीसरा सत्र 29 तारीख को नैनीताल से लगभग 25 कि मी दूर रामगढ में रखा गया था सेब के बाग, सुन्दर पहाडी ज़ंगल और पहाड क़े बीच बस की यात्रा अपने आप में एक पिकनिक थी रामगढ़ के निकट जब हम पहुंचे तो पर्वताराही पुरुमल सिंह धर्मसक्तू ने हमें यह जानकारी दी कि बिमल राय की 'मधुमति' फिल्म की अधिकतर
शूटिंग रामगढ़ की इन्हीं सुरम्य वादियों में हुई थी। 'सुहाना सफ़र और ये मौसम हंसी' व 'दय्या रे दय्या चढ़ गयो पापी बिछुव...., यहीं पर शूट हुए थे।

जब रामगढ स्थित छायावाद की महान कवियत्री 'महादेवी वर्मा' के ग्रीष्मकालीन आवास 'मीरा कुटीर' पहुंचे तो वहां का सौंदर्य अवाक करने वाला था नंदादेवी के विभिन्न रूपों में ढले हिमशिखरों को देख कर लगा कि महादेवी वर्मा ने अपने सृजन के लिए मानो एक स्वर्ग ही चुन लिया था पहाडाें के बीच किसी देवस्थली सा स्थापित 'मीराकुटीर' वहां महादेवी वर्मा जी की डैस्क और कलम - दवात, लैम्प्स, पुस्तकें, उनकी पेन्टिंग्स, समकालीन लेखकों के छायाचित्रयह सब देखकर मन श्रध्दा और गर्व से भर गया कि हम 'मीरा कुटीर' में बैठ कर साहित्य चर्चा कर रहे हैं

संगमन की टीम के लिए 'युगमंच' संस्था ने बटरोही की कहानी 'घर कहां है' पर आधारित नाटक के मंचन का कार्यक्रम नैनीताल क्लब के शैले हाल में रखा था। कार्यक्रम सायं 7.00 बजे था। दिन में दो सत्र हुए थे। सब ने रामगढ़ का आने-जाने का पहाड़ी सफ़र भी तय किया था। मानसिक और शारीरिक थकान सब पर तारी थी। नाटक देखने वक्त पर पहुंचना संभव नहीं हो पाया। नाटक शुरू हो चुका था। आधे अधूरे नाटक के साथ मन रमा नहीं था।

पिथौरागढ़ में जुटे तीन पीढ़ियों के कथाकार

संगमन - 11

पिथौरागढ़

इस वर्ष संगमन - 11 का आयोजन अक्टूबर माह के प्रथम सप्ताह के आरंभ में, मौसम की खुशगवारी के साथ, उत्तरांचल के हिमालय के सान्निध्य में बसे खूबसूरत शान्त शहर पिथौरागढ़ में सम्पन्न हुआ। पिथौरागढ़ में देश के विभिन्न हिस्सों से तीन पीढ़ियों के कथाकार जुटे। माहौल की अनौपचारिकता और आत्मीयता के साथ तीनों सत्रों में समकालीन कहानी के शक्ति व प्रतिरोध के केन्द्र विषय पर महत्वपूर्ण मुद्दों पर विमर्श हुए, जिसके सार्थक निष्कर्ष सामने आए। संगमन - 11 के प्रतिभागी थे -- सर्वश्री गिरिराजकिशोर, काशीनाथ सिंह, से. रा. यात्री, कामतानाथ, अस्र्ण प्रकाश, बटरोही, ऋषिकेश सुलभ, महेश कटारे,विभांशु दिव्याल, जया जादवानी, शिवमूर्ति, संजीव,भगवान दास मोरवाल,दिवाकर भट्ट,गौरीनाथ, श्रीधरम, दिवा भट्ट, नरेन्द्र कुमार नथानी, महुआ मांजी,मनीषा कुलश्रेष्ठ
कार्यक्रम
दिनांक 1 अक्टूबर 2005
पहला सत्र - सुबह दस बजे से एक बजे तक
विषय : वर्तमान हिन्दी कहानी : शक्ति और प्रतिरोध के केन्द्र
सत्र संचालन: महेश कटारे

दूसरा सत्र
अपरान्ह 2.30 से सांय 6
बजे तक
विषय : वर्तमान हिन्दी कहानी : शक्ति और प्रतिरोध के केन्द्र
सत्र संचालन : ऋषिकेश सुलभ

2 अक्टूबर 2005
तीसरा सत्
विषय : वर्तमान हिन्दी कहानी : शक्ति और प्रतिरोध के केन्द्र
सत्र संचालन
: जया जादवानी

संगमन में बोले गए कुछ महत्वपूर्ण कथन - उपकथन

बाज़ारवाद हम पर कितना ही हावी हो जाये वह हमारी संवेदना के धागे को नहीं तोड़ सकता। हर दौर में संवेदना बदलती ज़रूर है पर खत्म नहीं होती। - गिरिराजकिशोर

हमारे पूर्वजों ने गुलामी के प्रतिरोध में आज़ादी की लड़ाई लड़ी व जीत हासिल की। हमारे पूर्वजों का इस लड़ाई के संदर्भ में एक स्वप्न था - समानता, भेदभाव रहित, सबके समानाधिकार का स्वप्न, जिसके आधार पर इस देश का संविधान बना। बाज़ारवाद इस देश की अस्सी प्रतिशत आबादी से यह स्वप्न छीन रहा है। हिन्दी कहानी को इस स्वप्न को अपहृत होने से बचाना है। - अस्र्ण प्रकाश

" कहानीकार लोगों को अन्याय के प्रतिरोध के लिये प्रेरित कर सकता है, प्रतिरोध की पृष्ठभूमि तैयार कर सकता है पर पताका लेकर नहीं चल सकता।" - विभांशु दिव्याल

" साहित्य जीवन को बेहतर ढंग से समझने और बनाने की कला है।" -बटरोही

" साहित्य के सम्मुख जितने खतरे उपस्थित होंगे उतनी उसमें प्रतिरोध की क्षमता बढ़ती जायेगी।" -मोहम्मद आरिफ

ग्रामीण जीवन की वर्तमान विसंगतियों पर बहुत कम कहानियां लिखी जा रही हैं जबकि ग्रामीण जीवन प्रेमचंद के युग से ज़्यादा दुरूह हो चुका है।" शिवमूर्ति

वर्तमान समय में साहित्य में स्थापित होना चुनौतीपूर्ण कार्य है।ज़्य़ादातर लेखक सुविधाजनक स्थितियां हासिल होने तक ही लेखनरत रहते हैं।"- कामतानाथ

" अक्षम लोग साहित्य में नारे उछालते हैं।"-कामतानाथ

उपेक्षा लेखक की शक्ति है। बड़ी संवेदना ही बड़ा लेखक पैदा करती है। संपादक बेइमान आदमी होता है।लेखक में आत्मनिर्णय की क्षमता होनी चाहिये। उसे संपादक के कहे अनुसार नहीं अपनी आत्मा के कहे अनुसार लिखना चाहिये।"- गिरिराजकिशोर

कहानी लेखन में सबसे बड़ी शक्ति लेखकीय दृष्टि है। आम आदमी जिन चीज़ों को नहीं देख पाता लेखक उन्हें देखने व दिखाने की क्षमता रखता है।- महेश कटारे

" दिल्ली में साहित्य का केन्द्र राजेन्द्र यादव व लखनऊ में अखिलेश हो गये हैं।''-भगवान दास मोरवाल

"युवा पीढ़ी के लेखकों के समक्ष एक नैतिक दबाव अवश्य है कि समकालीन कहानी को अपना योगदान देना है तो उथलेपन और सतहीपन से बच कर निरन्तर बदलते इस समाज - परिवेश व समय की नब्ज़ को पकड़ना होगा। बहुत हो गयी वादों - विमर्शों की दौड़...यह इस समय के सच से बहुत परे है। बचना होगा - दलित व स्त्री विमर्श को ट्रेण्ड मानने से।" मनीषा कुलश्रेष्ठ

" संपादकों की आदत लेखकों ने ही पूजा अर्चना करके बिगाड़ी है।" - गौरीनाथ

"अपनी पूरी क्षमता से अन्याय का पतिरोध करने के बावज़ूद जब कुछ नहीं बदलता तो लेखक में हताशा आ जाती है।"से. रा. यात्री

"साहित्य ही एक ऐसा योद्धा है जो बूमण्डलीकरण के प्रतिरोध में खड़ा है। रूस में जब हिटलर ने आक्रमण किया तो वहां के लेखकों केप प्रतिरोध के साहित्य ने लोगों में लड़ने की क्षमता जगायी थी।"- काशीनाथ सिंह

" कहानी लेखन केवल व्यक्ति को ही नहीं उसके दृष्टिकोण को भी बदलती है।" -जया जादवानी

" पश्चिमी साम्राज्यवाद और पूंजीवाद हमारे देश के तथाकथित राष्ट्रवाद व कठमुल्लावाद से सांठ गांठ कर यहां के आदमी को रेस के घोड़ों, दलालों और पण्य वस्तुं में बदले दे रहा है।"
- संजीव

आज की कहानी से कल्पनाशीलता गायब होती जा रही है और उस पर यथार्थ हावी होता जा रहा है।
- नरेन्द्र कुमार नथानी

मौजूदा कहानी का बीजतत्व पंचतंत्र की कहानियों में है।
- संतोष दीक्षित


परिशिष्ट

1.समस्त सत्रों की समाप्ति के बाद 2 अक्टूबर की दोपहर के तीन बजे पिथौरागढ क़े रमणीक स्थलों का भ्रमण बस द्वारा शुरु हुआ। पुरमल सिंह धर्मशक्तू संगमन समूह को कण्डल के पास ऐसी जगह पर ले गए जहां पर्वतश्रृंखलाएं दिखाई दे रही थीं उनका धवल सौंदर्य सभी को अभीभूत कर गया।

पूरे भ्रमण के दौरान पुरमल जी पहाडी औरतों के श्रमसाध्य जीवन व संघर्ष का जिक़्र अकसर करते रहे। बल्कि उनके संघर्षशील जीवन पर रात के भोजन के बाद स्थानीय लेखकों ने गीत भी सुनाए।

चीन और नेपाल की सीमा से जुडा पूरा पिथौरागढ ही प्राकृतिक सौंदर्य की अनूठी मिसाल था। बस से आते और जाते समय पहाडी झरनों, पत्थरों के बीच इठला कर बहती नदी और एक पांत में लगे चीड अौर देवदार।
आते और जाते समय दोनों बार महान कथाकार स्वशैलेश मटियानी के गांव के दर्शन हुए।

2.लौटते वक्त का सफर एक और वजह से विस्मरणीय रहेगा बस में जया जादवानी और प्रियंवद के बीच 'प्रेम' जैसे शाश्वत विषय पर हुई वह रोचक बहस। इस चर्चा में देवेन्द्र, शिवमूर्ति, संजीव, मनीषा की भी बराबर भागीदारी रही।

मजेदार बात यह थी कि एक लम्बे सफर में लगातार चली इस बहस के अंत में 'प्रेम' के स्वरूप पर सब एक ही निष्कर्ष पर पहुंचे।

वाचन की लोक परंपरा और कथा पाठ


संगमन - 10
2 - 4 अक्टूबर 2004
श्री डूंगरगढ

इस वर्ष संगमन - 10 का आयोजन अक्टूबर माह के प्रथम सप्ताह के आरंभ में, मौसम की खुशगवारी के साथ, राजस्थान के रेतीले टीलों वाले शान्त कस्बे श्रीडूंगरगढ में सम्पन्न हुआ।
श्रीडूंगरगढ में देश के विभिन्न हिस्सों से तीन पीढियों के कथाकार जुटे।माहौल की अनौपचारिकता और आत्मीयता के साथ तीनों सत्रों में कथासाहित्य को लेकर महत्वपूर्ण मुद्दों पर विमर्श हुए, जिनके सार्थक निष्कर्ष सामने आए
संगमन - 10 के प्रतिभागी थे - विजयदान देथा,नन्दकिशोर आचार्य, डॉ.चन्द्रप्रकाश देवल, अर्जुन देव चारण, से. रा.यात्री, संजीव,महेश कटारे,विभांशु दिव्याल, हरदर्शन सहगल, आनन्द हर्षुल, मोहनदास नैमिशराय,राकेश कुमारसिंह, सूरज प्रकाश,ओमा शर्मा,हरिनारायण,मनीषा कुलश्रेष्ठ, मनोज रूपडा, अजय नावरिया, कुणाल सिंह, गिरिराज किराडू

कार्यक्रम

प्रथम सत्र : 2 अक्टूबर 2004
अपरान्ह 200 से सायं 600 बजे तक
विषय - राजस्थानी कथा - वाचन की लोक परंपरा और कथा पाठ

द्वितीय सत्र: 3 अक्टूबर 2004
प्रात: 9 30 से 100 बजे तक
विषय - दलित लेखक और हिन्दी कथा साहित्य

तृतीय सत्र : 3 अक्टूबर 2004
अपरान्ह 200 से सायं 600 बजे तक
विषय - हिन्दी लेखक की सामाजिक अकर्मकता ( नॉन एक्टीविज्म)

चतुर्थ सत्र - भ्रमण सत्र 4 अक्टूबर प्रात: 9

अख़बारों और पत्रिकाओं की रपट के कुछ अंश

हिन्दी कहानी पर विमर्श का एक और सार्थक कदम
(
कथादेश में छपी रिपोर्ट के अंश)

संगमन में बोले गए कुछ महत्वपूर्ण कथन-उपकथन

प्रथम सत्र : राजस्थानी कथावाचन की लोकपरम्परा और विजयदान देथा का कथा पाठ

' वो रम्यता, वो रोचकता, वो स्मृति में पैठ जाने वाली बात आज की कहानी में कैसे आये इसके लिये हमें कथावाचन की इस परम्परा की ओर लौटना होगा।'' - डॉ. चन्द्रप्रकाश देवल

'' आज पहली दफे मैं यह अनुभव कर रहा हूं कि जिस तरह रावण के दस सिर, दस चेहरे थे ऐसा लग रहा है कि यह रूपक काफी हद तक सही हैआपके बीच होकर महसूस हो रहा है कि यहां जितने साथी बैठे हैं - वे मेरे ही सिर हैं, मेरे ही चेहरे हैं।'' यह कथन विजयदान देथा ने अपनी कहानी भगवान की मौत के वाचन से पहले कहा

'' विजयदान देथा को सुनना मेरी अपनी निजी तौर पर बहुत बडी उपलब्धि है। इसमें जो दक्षता, जो कौशल है वह उनके पूरे जीवन की तपस्या का निमित्त है। हर साहित्यकार के ऊपर साहित्यकार है, हर साहित्यकार के नीचे साहित्यकार है लेकिन विजयदान देथा के न कोई ऊपर है, न कोई नीचे।'' - विभांशु दिव्याल

'' इस कहानी में जो मैं ने समझा, अपनी समझ के अनुसार, मुझे ये लगता है, वो स्थितियां जो बाजार हम पर लादे हुए है, हम बिना प्रेय के श्रेय लेना चाहते हैं।बिना कुछ किये अपनी दुंदुभी बजाना चाहते हैं।जैसा कि आप सारी दिशाओं में देख रहे हैं - साहित्य, कला, संगीत यहां तक कि घर में भी।ऐसे में यह कहानी हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि यदि हम वास्तव में आंके - हम अनभिज्ञ हैं, हम चीजों के जानकार नहीं, हम उस ब्राह्मण की तरह बार - बार इनकार कर रहे हैं कि मैं इस मुस्तैद नहीं हूं, लेकिन लोग उस पर बार - बार थोप रहे हैं।''- से. रा. यात्री

इस सन्दर्भ में कथाकार संजीव ने कहा कि - '' ये जो वक्त है, यह बहुत विचित्र है।लोककथाओं का वक्त नहीं।दुनिया इतनी स्वार्थकेन्द्रित, सामूहिकता से विमुख व्यक्तिकेन्द्रित है कि हम चाहें तो भी उस पुराने जमाने को लौटा कर नहीं ला सकते, मगर इस बदलते युग के परिप्रेक्ष्य में उन पुरानी चीजों के पौष्टिक तत्वों के धनात्मक पक्षों को हम कैसे जिन्दा रख सकते हैं? यह एक प्रश्न हो सकता है।''

'' संगमन ने लीला रची है, हम हिस्सेदार की तरह पात्र निभा रहे हैं।'' इस वक्तव्य में उन्होंने आगे कहा - '' राजस्थानी में साहित्य की जो शासकीय परम्परा है, व उसका लोक रूप है, दोनों ही में 'बात' बहुत महत्वपूर्ण है।लोक साहित्य में वही बातें रह जाती हैं जो अन्तर में पैठ जाती हैं।''- अर्जुन देव चारण

द्वितीय सत्र : दलित लेखक और हिन्दी कथा साहित्य
'' दलित और गैर दलित लेखक के बीच मंतव्य का भेद नहीं, प्रस्तुतिकरण का भेद ही बडा भेद है। दलित लेखन के बहाने प्रेमचन्द का दलन अगर यह विमर्श का विषय है तो चुल्लुभर पानी में डूबने की बात है।'' - नन्दकिशोर आचार्य
'' सामाजिक सापेक्षता में अगर यह विमर्श नहीं लिया गया तो यह व्यर्थ है।''-
संजीव
"दलित में आदिवासी शामिल क्यों नहीं है? " - संजीव

' क्या यह जरूरी है कि किसी रचना को पढने से पहले लेखक की पृष्ठभूमि जानी जाये?'' - आनन्द हर्षुल'
'' वे प्रवृत्तियां जिनसे असमानता, विद्वेष फैलता हो मैं उनके खिलाफ हू-।'' उन्होंने आयातित साहित्य कह कर साहित्य की मुख्यधारा के चिन्तन को एक सिरे से नकार दिया कि '' एक भी मौलिक चिन्तन नहीं, मौलिक चिन्तन केवल दलित साहित्य में है।''-
अजय नावरिया
'' आज दलित और गैर दलित में सम्वाद आवश्यक है, दलित की जो पीडा है उसे पूरे सब्र से सुनें।'' उन्होंने यह भी कहा कि - '' दलित साहित्य पूर्ण हिन्दी साहित्य को एक चेतना बनाने में आगे बढे।ज़हां हिन्दी साहित्य में एक ठहराव है, दलित साहित्य में रवानगी है, बहाव है।''
- मोहनदास नैमिशराय

तीसरा सत्र : हिन्दी लेखक की सामाजिक अकर्मकता ( नॉनएक्टीविज्म)
कम से कम जिन मूल्यों के प्रति लेखक अपने लेखन में आशा व विश्वास प्रतिष्ठापित करता है, उसे जीवन में अपनाए।अन्यथा वह साहित्य नहीं बुध्दिविलास होगा।अपने ही कहे को नकारना होगा।''
- नन्दकिशोर आचार्

कला की स्थापना, मेरा कलात्मकता के प्रति आग्रह इतना वायवीय नहीं है कि इसमें विचार और सरोकार न हों।कला अपने आपमें इतनी विचार निरपेक्ष नहीं।कला हमारे सामाजिक मापदण्डों से ही उभर कर आती है।-ओमा शर्मा

'' क्या स्त्री अधिकारों के प्रति निर्मला लिखा जाना एक्टीविज्म नहीं है?'' - राकेश कुमार सिंह

'' जीवन और मरण के प्रश्न से तो लेखक आंख नहीं चुरा सकता तो सामाजिक दायित्वों से कैसे आंख चुरा सकता है? जिस समाज से हमारा जीवन चलता है उसके लिये लिख कर क्या हमारा दायित्व पूरा हो जाता है?''- देवेन्द्र

'' लेखक होना किसी को आम आदमी से अलग कैसे कर सकता है? पत्रकारिता भी लेखन से अलग नहीं है।''-सूरज प्रकाश

'' सामाजिक भागीदारी - हिस्सेदारी लेना लेखक का नैतिक कर्तव्य नहीं व्यक्तिगत निर्णय है।'' -मनोज रूपडा

'' कलाओं को एक साथ सकर्मक होना पडता है जब बडा कॉज उपस्थित होता है।''- महेश कटारे (मृच्छकटिकम का उदाहरण देते हुए )

परिशिष्ट

1.सत्र के अन्त में राजस्थान के प्रसिध्द लेखक स्व रघुनन्दन त्रिवेदी की स्मृति में दो मिनट का मौन रखा गया।

2. रेतीला कस्बा - श्री डूंगरगढ3 अक्टूबर की सुबह सूर्योदय के साथ रेतीले धोरों के सौंदर्य को देखने के लिए बहुत सारे कथाकार जल्दी उठ गए और पैदल ही रेत के टीलों की तरफ निकल गए रेत जैसे मां हो हर कोई उसके गर्भ में गुलाटियां ले रहा था

भ्रमण सत्र 4 अक्टूबर की सुबह आरंभ हुआ पहला पडाव था देशनोक में का करणीमाता का 'चूहों वाला मंदिर' मंदिर में निर्भीक होकर घूमते चूहों को देख कर सब हैरान रह गए अगला पडाव था बीकानेर, बीकानेर शहर के बीच स्थित 'जूनागढ क़िला' सामन्ती वैभव और भोग विलास के बचे खुचे चिन्हों में भी इतना कुछ था कि लेखक उस युग के पृष्ठ पलटने लगे जिसमें स्त्री और दलित इस सामंतवाद के वैभव दुर्ग की नींवों में बिछे हुए थे

इक्कीसवीं सदी में हिन्दी कहानी का मुहावरा

संगमन - 9

11 - 13 अक्टूबर 2003
सारनाथ,वाराणसी

संगमन - 9 इस बार सारनाथ के आध्यात्मिक वातावरण में हुआ। केन्द्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान के 'आनन्द पिंडद' सभागार में संगमन के समस्त सत्र रखे गए थे। इस बार भी संगमन में देश के महत्वपूर्ण कथाकारों के साथ साथ नई पीढी क़े कथाकार उपस्थित थे -- नामवर सिंह, संजीव,मैत्रेयी पुष्पा, शशांक,ॠषिकेश सुलभ,संतोष दीक्षित,सुभाषचन्द्र कुशवाहा,नारायण सिंह,आर डी सिंह,राकेश कुमार सिंह, आनन्द बहादुर सिंह, महेशकटारे, अखिलेश, जयनन्दन, प्रेमकुमार मणि, अवधेश प्रीत, नरेन, हरिचरन प्रकाश, महुआ मांझी,पी. एन. सिंह,वीरेन्द्र यादव,
हरिनारायण,रामकुमार तिवारी,ओमा शर्मा,मधु कांकरिया,सत्यकेतु,राजेश कुमार मिश्र

कार्यक्रम

प्रथम सत्र : 11 अक्टूबर 2002
अपरान्ह 200 से सायं 600 बजे तक
विषय - इक्कीसवीं सदी में हिन्दी कहानी का मुहावरा

द्वितीय सत्र: 12अक्टूबर 2002
प्रात: 9 30 से 100 बजे तक
विषय - अनुभव और अभिव्यक्ति के बीच

तृतीय सत्र : 12 अक्टूबर 2002
अपरान्ह 200 से सायं 600 बजे तक
विषय - जीवन के सरोकार और हिन्दी कहानी की व्याप्ति

चतुर्थ सत्र
13 अक्टूबर 2002
प्रात: 1000 से 200 बजे तक

विषय - जो लिखा न जा सका

अख़बारों और पत्रिकाओं की रपट के कुछ अंश
हिन्दुस्तान : 13 अक्टूबर 2003 वाराणसी
शीर्षक : संगमन में उठे कई झकझोरने वाले सवाल
उपशीर्षक - कथाकारों को वास्तविक खतरे का आभास नहीं : नामवर
नई सदी में सुखद है लेखक संघों का टूटना : मणि
कोई संघ वाला किसी को कलम नहीं पकडाता : शशांक
समकालीन कथाकारों के अब तक के सबसे बडे ज़मावडे 'संगमन' में आज कई झकझोरने वाले सवाल खडे हो गए। गनीमत यह रही कि कथाकारों को सुनने और सुनाने पहुंचे प्रख्यात आलोचक प्रो नामवर सिंह अपने स्वभाव के विपरीत कई महत्वपूर्ण सवालों को टाल गए।

दैनिक भास्कर : 13 अक्टूबर 2003 वाराणसी
शीर्षक : कहानी का सुई की तरह चुभते रहना जरूरी : नामवर

उपशीर्षक: सारनाथ में संगमन - 9 का तीन दिवसीय आयोजन शुरु
बडी संख्या में जुटे लेखक और जानेमाने कथाकार
केन्द्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान के 'आनन्द पिंडद' सभागार में हिन्दी के कहानीकारों के तीन
दिवसीय जमावडे क़ा उद्धाटन करते हुए नामवर सिंह जम कर बोले

आज : 14 अक्टूबर 2003
शीर्षक : कहानी का अनुभव से कोई रिश्ता नहीं
विद्वानों ने जीवन के सरोकार और हिन्दी कहानी की व्याप्ति पर विस्तृत व्याख्या संगमन के अंतिम सत्र के दौरान की।

दैनिक जागरण : 14 अक्टूबर 2003 वाराणसी
शीर्षक : कहानी के समक्ष थियेटर व फिल्म सबसे बडी चुनौती
उपशीर्षक : संगमन में 'अनुभव और अभिव्यक्ति के बीच' पर हुई चर्चा
केन्द्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान के 'आनन्द पिंडद' सभागार में संगमन की तीन दिवसीय परिचर्चा के दूसरे दिन रविवार को कहानी के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा हुई। कथाकारों ने कहानी लिखने की प्रक्रिया के सम्बन्ध में अपने - अपने अनुभवों के बारे में बताया। नामवर सिंह ने कहा - कहानी का अनुभव से कोई ताल्लुक नहीं। जातक कथाएं अनुभव के आधार पर नहीं लिखी गई थीं। कहानी लिखना एक हुनर व पेशा है। कहानी के समक्ष थियेटर व फिल्म सबसे बडी चुनौती है।

अमर उजाला: 14 अक्टूबर 2003 वाराणसी
शीर्षक : नयों के लिए यादगार बना संगमन - नौ
सारनाथ स्थित केन्द्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान में आयोजित 'संगमन - 9' का दूसरा दिन नए लेखकों के लिए यादगार बन गया।

संगमन में बोले गए कुछ महत्वपूर्ण कथन/उपकथन

हमें यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि साहित्य के जरिये कोई क्रान्ति हो जायेगी। या यह कि कहानी कोई तलवार या चाकू नहीं है जिससे दुश्मन का सफाया किया जा सकता है। अगर हथियार ही मानने की बात है तो मैं मानता हूं कि कहानी वह सुई है जिसे हम दुश्मन को बार बार चुभोते रह सकते हैं। - नामवर सिंह

एक लम्बे समय तक कविता को साहित्य की मुख्यधारा कहा जाता रहा। हालांकि आलोचक आज भी यही मानते हैं और कहानी उनकी नजर में दूसरे दर्जे क़ी चीज है।- प्रेम कुमार मणि

पहले यथार्थ की कडवाहट को व्यक्त करने के लिए फैंटसी की अवधारणा थी लेकिन आज का यथार्थ फैंटसी से कहीं आगे चला गया है। गुजरात का यथार्थ भी फैंटसी से कहीं आगे की चीज है।- अखिलेश

कहानी का अनुभव से कोई ताल्लुक नहीं। जातक कथाएं अनुभव के आधार पर नहीं लिखी गई थीं। कहानी लिखना एक हुनर व पेशा है। - नामवर सिंह

कभी किसी विचार से अनुभव बनते नहीं देखा गया जबकि अनुभव से विचारों का सृजन होते अकसर देखा गया है। - मैत्रेयी पुष्पा

प्रश्नों के उत्तर देना कहानी का दायित्व है। कहानीकार को इतिहास का जितना अधिक ज्ञान होगा उतनी ही सरलता से वह समाज के समक्ष प्रश्नों के उत्तर देने में समक्ष होगा। - महेश कटारेहमारे अवरोधक (स्पीडब्रेकर) वही हैं, जो हमें आगे बढाना चाहते हैं। उनके नियम हैं और वे हमें उन पर चलने का आग्रह करते हैं। पुरुष को स्त्री की बुध्दि पर कभी भरोसा नहीं रहा। - मैत्रेयी पुष्पा

जिन्दगी के ऐसे बहुत से सच हैं जिन्हें बताया नहीं जा सकता बल्कि सिर्फ अनुभव किया जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति का अपना सच है। कहानीकार की निजता ही उसे औरों से अलग करती है। - संजीव

स्त्री को नारी होने के आतंक से मुक्त होना होगा। - मधु कांकरिया

परिशिष्
3 अक्टूबर की सुबह संगमन का कारवां बस पर सवार होकर कथा सम्राट मुंशी प्रेमचन्द के गांव लमही पहुंचा। सौ गज के दायरे में खडा एक दोमंजिला ढहता हुआ, विष्ठा की सडांध और मरे चूहों की दुर्गन्ध से गंधाता खण्डहरनुमा 'मकान' ही मुंशी प्रेमचंद का पुश्तैनी घर था। सभी का मन उदास हो गया।

लौटते समय, चेतगंज चौराहे पर डॉक्टरों के अनशन के कारण हुए ट्रैफिक जाम में फंसा संगमन का कारवां बस से उतर कर पैदल ही गलियों में भटकते हुए सराय गोवर्धन स्थित महाकवि जयशंकर प्रसाद के हवेलीनुमा मकान में पहुंचा तो उस हवेली की बसाहट देख कर प्रेमचंद के घर की स्थिति देखकर घिरी उदासी तिरोहित हो गयी हवेली में अब भी प्रसाद जी के वंशज बसते हैं और उनका साहित्य भी हवेली के सामने बहुत बडा मैदान और मैदान के उत्तरी कोने में बना एक पक्का मंदिर - यहीं बैठ प्रसाद जी ने कामायनी लिखी थी

कहानी ऐसे मिली