लेखन एक मैराथन दौड़ है— शिवमूर्ति
वरिष्ठ कथाकार शिवमूर्ति से कथाकार ओमा शर्मा की बातचीत
शिवमूर्ति हमारे समय के ऐसे लेखकों में समादृत हैं जिनकी हर रचना का पाठकों को इंतजार करना पड़ता है। उनके पाठकों का एक विशाल और स्थाई वर्ग है। यूँ परिमाण के लिहाज से उन्होंने ज्यादा नहीं लिखा है;बमुश्किल आठ-दस कहानियाँ और तीन लघु उपन्यास ही उनकी तीस बरसों से ऊपर की लेखकीय यात्रा के हासिल हैं।‘कसाईबाडा’, ‘अकालदंड’, ‘भरतनाट्यम’, ‘सिरी उपमा जोग’, ‘तिरिया चरित्तर’, ‘केसर-कस्तूरी’, और हाल ही में प्रकाशित ‘ख्वाजा, ओ मेरे पीर!’ सभी कहानियाँ ऐसी हैं जिनको लेखकी के सर्वश्रेष्ठ सरोकारों से लैस होकर ही लिखा जा सकता था– न किसी तरह का अनावश्यक विस्तार और न कोई चकाचौंध पैदा करने का टोटका। फोकस में सिर्फ़ कहानी और उसका कहानीपन जो अपनी बुनावट में वाद-विवाद या विचारधारा के लालच या पचड़े से मुक्त होकर रचे जाने की सलाहियत चाहता है।‘कसाईबाडा’, ‘अकालदंड’ और ‘तिरिया चरित्तर’जैसी व्यवस्थागत-राजनैतिक कहानियाँ हों या निजी-पारिवारिक सम्बंधों और संघर्ष-आत्मसंघर्ष को दर्ज़ करती ‘भरतनाट्यम’, ‘सिरी उपमा जोग’, ‘केसर-कस्तूरी’ और ‘ख्वाजा, ओ मेरे पीर!’जैसी कहानियाँ —सभी में विषयगत सम्वेदना और कहानी-कला का उत्कर्ष नज़र आता है। कोई ताज्जुब नहीं कि प्रकाशन के बरसों बाद भी उनकी कहानियों की खूब चर्चा होती है। अमूमन सभी के नाट्यांतरण और फिल्मांकन भी हुए हैं।उनके उपन्यासों में ‘त्रिशूल’ और ‘तर्पण’ समकालीन भारत के बेहद मोजूं मुद्दों से मुठभेड़ करते हैं तो ‘आखिरी छलाँग’ में नव-यथार्थवाद के दौर में किसानों की उत्तरोत्तर बिगड़ती दशा पर उँगली रखी गयी है। यूँ शिवमूर्ति ग्रामीण जीवन के कथाकार हैं लेकिन आम-जन को लेकर वे जिन कथा-स्थितियों को रचते हैं उनकी सारभौमिक व्याप्ति है। इधर डेढ़-दो दशक से पनपे भूमंडलीय यथार्थ और उत्तर आधुनिकतावादी विमर्श ने भी शिवमूर्ति को अपने ग्रामीण जीवन के कथा-इलाके से विचलित नहीं किया है जो एक अर्थ में उनके लेखन की सीमा भी लगती है।
अपने लेखकीय जीवन की शु्रूआत में ही मुझे उनके इकलौते कहानी संग्रह ‘केशर कस्तूरी’ को पढ़ने का सौभाग्य मिल गया था। ऐसा विरले ही होता है कि किसी संग्रह की सभी कहानियां न सिर्फ स्तरीय हों बल्कि बेहद पठनीय भी। जल्द ही उनसे मुलाकात का संयोग भी बन गया। मैं उनकी कहानियों से अभिभूत था इसलिए उनकी स्थितियों और रचना-प्रक्रिया समेत लेखकी के इतर पक्षों पर उनसे तभी यानी सन 1996 में ही बतियाना चाहता था। मगर यह हो न सका। शायद रचनाओं की तरह ख्वाहिशों को भी पकने के लिए एक मियाद दरकार होती है। पिछले आठ-दस बरसों में शिवमूर्ति जी के साथ दोस्ताना मेल-मुलाकात और संवाद के कई मौके आए जिसमें ‘संगमन’ का मंच भी शामिल था। शिवमूर्ति बेहद दिलचस्प, जिंदादिल और जमीनी इंसान हैं। वरिष्ठ कथाकार संजीव ने जीवन के जिस अंदाज को ‘शिवमूर्तियाना’ करार दिया है उसकी हिंदी साहित्य में अन्य मिसाल दुर्लभ है…बगैर किसी हड़बड़ी या चिंता के जीवन से मुकाबिल होना तथा अपनी फु्र्सत, रफ्तार और शर्तों के साथ उसमें शामिल होना। वे कहीं कुछ भी प्रिटैंड करते नहीं दिखते हैं। जो है जैसा है सामने है। ‘शिल्प’ को उन्होंने ना अपने लेखन में तरजीह दी है और न जीवन में। किसी चर्चित किताब (संर्दभ ‘आखिरी कलाम’) की बात हो रही हो जो उन्होंने नहीं पढ़ी है तो इसे सरेआम स्वीकारने में वे संकोच नहीं करेगें। उनकी किसी रचना (संर्दभ ‘आखिरी छलाँग’) की कमजोरियों की बात होने लगे तो वे समर्पण भाव से कह देंगे कि दरअसल अभी वह अधूरा है…जिस मूल बात को लेकर वह लिखा गया था वह तो उसमें अभी आयी ही नहीं है। दूसरी तरफ वे जिन चीजों के बारे में गहराई से सोचते हैं उन पर खूब डटे रहते हैं चाहे तार्किकता के पैमाने पर पिलपिले हों (संदर्भ न्यूनतम सपोर्ट प्राइस-MSP- बनाम एमआरपी- MRP – का मुद्दा) क्योंकि यहां उनका मंतव्य व्यवस्था द्वारा किसान समाज को टिपाए जा रहे पक्षपाती रवैये से है जिसके खिलाफ उनका पूरा व्यक्तित्व शिद्दत से हस्तक्षेप करने को बेचैन रहता है। साहित्यिक गोष्ठीयों में भी वे अपनी इसी गंवई, छ्द्महीन और बिंदास भागीदारी से सबका मन मोह लेते हैं। वे मानो अपनी ही धुन के बने हैं। किसी को प्रभावित करने या कुछ नया कर दिखाने के आत्मबोझ से कोसों दूर… न लेखन में न जीवन में। अलबत्ता, जीवन की सर्वाइवल इंसटिंक्ट्स (पढ़ें चालाकियां) उनके इतर-बितर गोचर हो जाएंगी लेकिन यह उनका विशुध्द निजी और गैर लेखकीय आयाम है।
शिवमूर्तिजी के कई साक्षात्कार हुए हैं जिनमें सर्वाधिक चर्चित और महत्वपूर्ण भाई गौतम सान्याल के खाते में जाएगा। उनके जीवन-संघर्ष और सोच-पद्धति को लेकर एक मुकम्मल तस्वीर उसमें दिखती है। रही-सही कसर उनका ‘मैं और मेरा समय’ पूरी कर देता है जिसमें उन्होंने पूरे संयम और मनोयोग से अपने जीवन और समय की व्याधियों तथा विडम्बनाओं को उकेरा है। इसके मद्देनजर यह बातचीत उनके जीवन और रचना-कर्म के विविध पहलूओं की पड़ताल और उनके बीच संभावित सामंजस्य तलाशने का प्रयास है। बातचीत के अंत में इसी क्रम में दो परिशिष्ट दिए जा रहे हैं। एक, छोटी कहानी ‘खरीद-फरोख्त’ जो उनकी बहुचर्चित लंबी कहानी ‘तिरिया चरित्तर’ का शुरूआती प्रकाशित रूप है। गरीबी में सने ग्रामीण जीवन का एक बिंब कालांतर में किस तरह लेखकीय अभिव्यक्ति के दो विकास बिंदुओं में रूपांतरित होता है, यह इन दो रचनाओं को आमने-सामने रखकर देखा जाना जा सकता है। स्थितियां अमूमन वही हैं… पात्रों का विस्तार हो गया है, कुछ वाक्यांश बचे रह गए हैं, शोषण की परतें और गुंथ गयी हैं। स्थितियों की नब्ज पर पूर्व में हाथ रखने भर से संतोष कर लेने वाला लेखक बाद में उनकी गहराई टटोलता है और उस विकराल बहुपरतीय यथार्थ का नए सिरे से आख्यान रचता है। दूसरा परिशिष्ट भी उनकी रचना प्रक्रिया का एक नमूना है। सन 2011 के आखिर में ‘तद्भव’ में प्रकाशित ‘ख्वाजा, ओ मेरे पीर!’ कहानी का भ्रूण ‘मामी की कहानी’ जैसे नवलेखकीय शीर्षक से जनवरी 2004 में उनके रजिस्टर में एन्ट्री पाता है। पात्रों और घटनाओं का एक मोटा खाका भी इस खाते में बना लिया गया है। किस पत्रिका में इसे प्रकाशन के लिए भेजा जाएगा इस ‘कहां’ पर मन में अभी प्रश्न मंडरा रहा है। ‘मामी की कहानी’ के फोकस में अंतत: तो मामा की पीड़ा घुसी चली आती है। यह एक तरफ उनके लेखकीय आलस्य की तरफ इंगित करता है तो दूसरी तरफ यह भी दिखाता है कि कच्चे माल की तरह आया कोई जीवनानुभव एक अंतराल तक पक कर किस तरह सघन कला रूप में प्रस्फुटित होता है। बाज युवा लेखक और शोधार्थी शायद अपनी-अपनी तरह से इससे कुछ हासिल कर सकते हैं। बहरहाल, चलिए बातचीत के जरिए मिलते हैं शिवमूर्तिजी से। (ओमा शर्मा)
ओमा शर्मा : आपने कहानी लिखना कब शुरू किया?
शिवमूर्ति : लिखने की शुरूआत के बारे में सोचता हूं तो मेरी उम्र तेरह साल की रही होगी। मैंने कक्षा सात पास की थी जब मैंने पहली कहानी लिखी थी। वह कॉपी अभी मिली है। उसकी एक चरित्र है मंगली। हमारे गांव का ही एक लड़का था जिसकी कहानी मैंने लिखी थी। कृषि की कॉपी पर जिसकी एक साइड कृषि-यंत्रों के चित्र बनाने के लिए प्लेन रहती थी। उसी भाग पर लिखी थी। पैन्सिल से। वही मेरा पहला प्रयास था।
ओमा शर्मा : तब आपके भीतर लेखक जैसा कुछ बनने की तमन्ना थी या यूं ही लिखना शुरू कर दिया?
शिवमूर्ति : उसके पहले मैं पढ़ता था। मेरे साथ इसका एक और कारण था कि हमारे साथ हमारी एक फूफेरी बहन रहती थी। वो गीत और किस्से सुनाया करती थीं। ननिहाल में एक ममेरी बहन थी वह भी किस्से कहानियां सुनाया करती थी। पिताजी रात में रोज रामायण बांचते थे जो कथा का ही एक रूप होती है। इन चीजों को मिला करके शायद मेरे मन में कहानी के प्रति कुछ लगाव-सा हुआ होगा। अलावा इसके दर्जा पांच में ही मुझे एक जासूसी उपन्यास पढ़ने को मिल गया। मैं एक निमंत्रण में गया था। जिस कॉपी पर वे लोग पैसे और नामों का हिसाब लिख रहे थे उसके नीचे जासूसी उपन्यास था। उन्होंने हिसाब लिखकर जैसे ही किताब एक तरफ रखी, मैंने लोगों की नजरों से बचाकर उसे कमीज के भीतर दबा लिया और घर ले आया। घर में भी मैंने उसे अपने बस्ते या किताबों के रखने की जगह पर नहीं रखा कि कहीं वे लोग उसे ढूंढते आएं और यहां खोजें तो भी वह मेरे कब्जे से न जाए। उसे मैंने पढ़ा। उसमें एक स्त्री की हत्या हो जाती है। वह हत्या मेरे दिमाग में इतनी बस गई थी कि उन दिनों मैं रात में डर जाता था। उसकी कहानी ने ऐसा पकड़ा कि पढ़ने की ललक जाग उठी। इसी तरह दर्जा तीन में जब मैंने ट्रॉय की कथा पढ़ी, इसका मैंने अन्यत्र भी जिक्र किया है, तो दूसरे किस्म की उत्सुकता जगी कि काठ के घोड़े के भीतर बैठे सैनिकों ने अपना निबटान कैसे किया होगा। सस्पैंस के प्रति जिज्ञासा मेरे भीतर शुरू से रही है। फिर जब कहानियां पढ़ने लगा तो भीतर यह विश्वास भी आया कि ऐसा जोड़-घटाव तो मैं भी कर सकता हूँ।
ओमा शर्मा : कहानी पढ़ने की जिज्ञासा एक चीज है और उसे अभिव्यक्त करना दूसरी। इतनी जल्दी अपने को अभिव्यक्त करने का साहस आपको कैसे हुआ?
शिवमूर्ति : हो जाता है। इसमें साहस जैसी कोई बात नहीं है। गांव-देहात में बच्चे अपने घर-बाहर के बारे में बढ़ा-चढ़ाकर बखान करने के वैसे ही आदी होते हैं। उसी से कभी कल्पनाशीलता बढ़ती है। जो नहीं है वह भी अपना। कहानी-उपन्यास आखिर क्या है? झूठ का जहाज चलाना ही तो होता है। न ढांचा है, न तेल है, न पानी है मगर फिर भी आप क्या-क्या माल-असबाब लादे चले जा रहे हैं।
ओमा शर्मा : ये तो हुई 13-14 साल की उम्र की बातें। उसके बाद अगले पांच-सात साल क्या रहा, क्योंकि आपकी प्रकाशित पहली कहानी ‘कसाईबाड़ा’ तो शायद 28-30 की उम्र में आई थी।
शिवमूर्ति : मेरी पहली कहानी आगरा से निकालने वाले एक मासिक ‘युवक’ में सन 68 में छपी थी। उसका शीर्षक था ‘मुझे जीना है’।तब मेरी उम्र 18 वर्ष थी । पिछले दिनों वीरेन्द्र कुमार बरनवालजी बता रहे थे कि उनका मुझसे परिचय उसी कहानी की मार्फत हुआ था। उसमें एक सिपाही और व्यापारी मिलकर गल्ले का नम्बर दो का काम करते हैं। उन्हीं दिनों मैंने एक उपन्यास भी लिखना शुरू कर दिया था जिसका नाम था ‘माटी की महक’। कोई साढ़े चारसौ पेज का। वह अब दुनिया का मुंह नहीं देखे लेकिन हमारे पास है।
ओमा शर्मा : कहानी को लिखने के बाद कहां छपाएं इसका इल्म आपको कैसे आया?
शिवमूर्ति : ‘युवक’ हमारे यहां सुल्तानपुर में आती थी। उसी में संपादकीय पता लिखा था सो भेज दिया। स्वीकृति आ गयी। छप भी गयी। दूसरी कहानी मैंने ‘वातायन’ को भेजी जो डागा बिल्डिंग बीकानेर से छपती थी। चर्चित पत्रिका थी उन दिनों की। हरीश भदानी उसके संपादक थे। कहानी का नाम था ‘पान फूल’। जब एक चर्चित पत्रिका में मेरी कहानी छप गयी तो थोड़ा विश्वास आ गया कि मैं भी लिख सकता हूं। तीसरी कहानी लखनऊ से उन दिनों निकलने वाली एक पत्रिका ‘कात्यायनी’ में भेजी। उसका ग्राम-कथा विशेषांक था। अश्विनी कुमार द्विवेदी उसके संपादक थे। उन्होंने उसे प्रमुखता से श्रेष्ठ कहानी के बतौर पहले नम्बर पर छापा। विवेकी राय उन दिनों अपना शोध प्रबंध लिख रहे थे। उन्होंने उस कहानी पर उसमें लम्बी टिप्पणी लिखी है। पिछले दिनों हाथ से लिखे नौ पेजों की वह कहानी मुझे अपने पुराने बक्से से हासिल हुई।
ओमा शर्मा : यानी ये शुरूआती तीनों कहानियां आपके पास हैं?
शिवमूर्ति: पांडुलिपि के रूप में एक है। ‘वातायन’ वाली को खोजा सकता है। ‘युवक’ वाली नहीं है।
ओमा शर्मा : इन्हें जब आप लिख रहे थे तो कहीं ऐसा प्रतीत होता था कि कुछ रच रहे हैं?
शिवमूर्ति : उसकी जो कथा वस्तु है उसे देखकर तो लगता है। शोषण के प्रति मेरे भीतर शुरू से ही एक वितृष्णा थी। ‘वातायन’ वाली कहानी में एक मातहत अपने बॉस को भेंट स्वरूप एक ट्रांजिस्टर देता है । उस मातहत के बच्चों को मैं टयूशन पढ़ाया करता था। तीसरी कहानी में होली का समय है। गांव में फगुआ गाया जा रहा है और एक मजदूरनी कट चुके खाली खेत में बालियां बीन रही है। उसे एक बिल दिखाई देता है जिसमें कई बालियां दिख रही हैं। वह उसमें हाथ डालती है तो उसे सांप काट लेता है। उसका बच्चा पेड़ के नीचे लेटा है। काटे जाने पर भी वह पेड़ के पास आकर अपने बच्चे को उठाती है, थोड़ी दूर चलती है फिर गिर जाती है। उधर गांव में खेतिहर लोगों के बच्चे होली मनाने और फगुआ गाने में लगे हैं। उसकी दो लाइने हैं : भारत नगरिया का लेकर संदेसवा, उड़जा ओ पंछी अमरपुर देसवा, बापू से जाकर सु्नाओ। इस कहानी में यह था कि गांव के दबंग ने उस महिला के खेत पर जबरन कब्जा कर लिया था और वह अपने ही खेत में फसल कट जाने के बाद बालियां बीनने गयी थी। किशोर मन पर जो शोषण का असर होता है उसी को लेकर लिखी गयी थी?
ओमा शर्मा : शोषण के अलावा किसी वास्तविक अनुभव से प्रेरित थी?
शिवमूर्ति : पूरी तरह से तो नहीं मगर हमारे पड़ोस में एक हरिजन महिला थी जो इस तरह बालियां बीनने जाती थी। कहानी की बाकी चीजें मेरी कल्पना ही थी।
ओमा शर्मा : फिर एक अन्तराल के बाद, राष्ट्रीय स्तर पर सन 1980 के आसपास आपकी कहानी छपती है…
शिवमूर्ति : उन दिनों दो कहानियां और एक रिपोर्ट मैंने लिखी थी। पहली लिखित कहानी ‘भरतनाट्यम’ थी और दूसरी ‘कसाईबाड़ा’। रिपोर्ट ‘दिनमान’ में सन 1976 में छपी थी। सन 1977 में जब मैंने सेल्स टैक्स की नौकरी ज्वॉइन की तो ये कहानियां मैंने बलराम को दे दीं। वे लोग कानपुर में गोष्ठी वगैरा किया करते थे। बलराम ने ‘कसाईबाड़ा’ को भारतीजी को भेज दिया। धर्मयुग के लिए। भारतीजी को कहानी बहुत पसंद आयी और कहा कि मैं इसे विशेषांक में छापूंगा। उन्होंने दूसरी कहानी भी मांगी तो बलराम ने ‘भरतनाट्यम’ भी भेज दी। उन्होंने कहा कि इसमें गालियां हैं, औरत (पत्नी) के भागे जाने वाली बात पर उन्हें आपत्ति थी।
ओमा शर्मा : यानी ‘भरतनाट्यम’ पहले धर्मयुग को भेजी गयी थी…
शिवमूर्ति : हां। उन्होंने कहा कि हमारी पत्रिका पारिवारिक है। उन्हें समाजिक सरोकारों वाली ‘कसाईबाड़ा’ जैसी कहानी चाहिए थी, यौन संबंधों वाली नहीं। तभी बलराम ‘सारिका’ में चले गए थे। उन्होंने कहा कि अब ये ‘सारिका’ में छापी जाएगी। तब यह और लम्बी थी मगर कन्हैयालाल नंदनजी ने उसके कुछ हिस्सों को सम्पादित कर दिया। कोई सात-आठ पेज कम किए। जो कम किए वो कौन से थे यह मुझे नहीं पता क्योंकि मेरे पास तो उसकी प्रति थी नहीं। तो आप समझ लीजिए कि जो छपी है वहीं मूल है।
ओमा शर्मा : चलिए ‘भरतनाटय्म’ से ही शुरू करते हैं। यह बहुत आत्मकथात्मक कहानी है।
शिवमूर्ति : हाँ, बहुत हद तक। तब जीने-खाने का कोई ठिकाना नहीं था। अनुभव तो और पुराने थे। मन में आता था कि क्या हमें जीने का हक नहीं है। जब कुछ नहीं है तो सोचा चलो नरेश डाकू के साथ ही कुछ करते हैं। मैं उसके पास गया भी। उसने कहा कि भैय्या तुम ये काम नहीं कर पाओगे। तु्म जो पढ़ लिख रहे हो, वही ठीक है। पहले इस कहानी का अन्त दूसरा था – खरबूजे के खेत में नाचने का न होकर पगडंडी और सड़क के कौने पर आए एक आदमी को चाकू की नौंक पर लूटने-मारने का। उसके पास मानो बाकी सारे विकल्प खत्म हो गए हैं और बस अपराध का रास्ता बचा रह गया है…।
ओमा शर्मा : लेकिन उस चरित्र को तो लायसेंस मिल जाता है?
शिवमूर्ति : यह तो कहानी में बाद में किया गया जब मेरा इधर सलैक्शन हो गया था। मूलरूप में लिखी कहानी में ऐसा नहीं था। तब नायक को रहजनी करता दिखाया गया था।उस के अन्त के साथ मेरी निजी मान्यता थी मगर फिर यही लगा कि लोगों को वह पसंद नहीं आएगा?
ओमा शर्मा : आपको ‘भरतनाट्यम’ नृत्य जैसी कला का पता था तब?
शिवमूर्ति : हां,पता था। तब तक मेरे तीन बेटियां हो चुकी थीं जैसा कि उस चरित्र के हैं। जिन दिनों यह कहानी लिखी मैं बेरोजगार था। मगर आप यह देखिए कि उसमें मैंने सैक्स क्रोमोजोम के तेइसवें जोड़े के बारे में लिखा है। उसकी पत्नी फिर भी मानती है कि पुरुष तगड़ा होगा तो बेटा होगा। वह चरित्र इसीलिए और कशमकश में रहता है कि वह क्या करे। वह युवक समस्याओं से घिरा पड़ा है। उसमें आयी कुछ घटनाएं वास्तव में मेरे जीवन से जुड़ी हैं। आपका सवाल क्या था?
ओमा शर्मा : शीर्षक के बारे में था। कहानी जहां एक बेहद कड़वे यथार्थ के बारे में चलती रहती है उसके मुकाबले अन्त एकदम कलात्मक है।
शिवमूर्ति : नहीं। यह उस चरित्र की निराशा का नाम है। उसकी पत्नी भाग गयी है। उसने पहली बार पी भी ली है। गर्मी का महीना है। वह होश में है नहीं। होता तो शायद आत्महत्या कर लेता। वह बदहवास है। भरतनाट्यम तो सैटायर की तरह आया है।
ओमा शर्मा : पठनीय ही नहीं, गहरे डिटेचमैंट से लिखी कहानी है। बहुत काम किया गया होगा इस पर?
शिवमूर्ति : बताया तो कि पहले इसका अन्त कुछ और था बाद में कुछ और हुआ। छोटी भी की गयी।
ओमा शर्मा : नहीं, बात छोटे करने या अन्त बदलने की नहीं है…।
शिवमूर्ति : पहले उसके जरायम पेशे में जाने वाली बात वास्तविक भले लगे, बहुत ठीक नहीं है। देखिए बेरोजगारी-दरिद्रता में भी एक उदात्तता होती है। भाग गयी पत्नी को भी वह गाली नहीं दे रहा है बल्कि सोच रहा कि यदि उसे बेटा हो जाए तो वह खिलौने लेकर जाएगा। आप इस बिन्दु पर भी सोचिए।
ओमा शर्मा : इन दोनों बिन्दुओं में तो गहरा विरोधाभास है। वह इस उदात्तपन में होता तो बदहवास होकर खेत में ऊट-पटांग होकर क्यों भटकता? उसका उदात्तपना नेचुरल है या उसकी छटपटाहट?
शिवमूर्ति : दोनों नेचुरल हैं। वह अपनी सोच में उदात्त है। वह बेरोजगार है। पिता से प्रताड़ित है। व्यवस्था से प्रताड़ित है। लड़का पैदा नहीं कर पा रहा है। पत्नी भाग जाती है। ये सारे घाव झेलते-झेलते वह अन्दर से असंतुलित हो गया है। निर्जन में नृत्य उसकी छटपटाहट को दिखाता है
ओमा शर्मा : यानी उसका उदात्तपन प्राकृतिक नहीं है।
शिवमूर्ति : हो सकता है।
ओमा शर्मा : मुझे लगता है आपने कहानी में दूसरी चीजें उसके मेलोड्रामा को बढ़ाने के लिए डाली हैं?
शिवमूर्ति : जैसे?
ओमा शर्मा : पत्नी के सन्दर्भ में …बड़े भाई के साथ उसके शारीरिक सम्बंध…
शिवमूर्ति : हो सकता है। चूँकि यह पहली कहानी थी इसलिए इस बारे में ज्यादा नहीं सोचा होगा। पात्र के दर्द को ज्यादा मुखर करने के लिए हो सकता है यह जरूरी लगा हो।
ओमा शर्मा : कहानी में एक वाक्य आता है : यथार्थ को बदलना कठिन है लेकिन आदर्श बदलने में क्या जाता है। जीवन का यह व्यावहारिक सत्य जो कहानी में पकड़ा गया है, आपके जीवन का भी कमोवेश सत्य लगता है?
शिवमूर्ति : जी हां। यह मेरे जीवन का भी सत्य है। अपने सर्वाइवल के लिए कुछ गलत भी जीवन में शामिल रहता है। कुछ नैगेटिव, कुछ पॉजिटिव रहते हैं। कुछ झूठ बोलकर, थोड़ा धक्का देकर भी हम चीजों को प्राप्त करते हैं। कहानी में वह कहता है कि मिट्टी के तेल का लायसेंस लेने के लिए उसे आज घूस देना पड़ा। क्या यही उसे यही पढ़ाया गया था? उसे तो पढ़ाया गया था कि कैसे राणा प्रताप की लम्बी चौड़ी मूंछे थीं, शिवाजी कितने बहादुर थे, सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र को अपना बेटा बेचना पड़ा मगर तब भी वे सत्य पर कायम रहे। क्या वह भी अपना हश्र हरिश्चंद्र जैसा होने दे या जो हो रहा है उसमें शामिल होकर जिन्दा बचा रहे? वह कहता है कि शुरू से ही उसे यदि जयचन्द के छल-कपट के बारे में पढ़ाया गया होता तो घूस देने के बाद जो वह अपना मन मसोस रहा है, नहीं मसोसता। तब वह खुशी-खुशी वह काम करता। स्कूल में सिखाते कुछ हैं जबकि जीवन में कुछ और ही होता है। इस कारण लोग टूट जाते हैं।
ओमा शर्मा : एक रूप में यह एक गिल्ट को सेलिब्रेट करने की कहानी है। आदर्श छोड़ने के बाद व्यावहारिकता की कोई सीमा होती है क्या?
शिवमूर्ति : वह दुविधा में पड़ा है। आज ही वह आदर्श से हटा है और आज ही उसकी पत्नी भाग गयी है। इसलिए वह द्वंद में है। इधर आदर्श से समझौता किया है और उधर जीवन की लड़ाई हार गया है। उसके पास कुछ भी नहीं रह गया है।
ओमा शर्मा : आप इस बात के हिमायती हैं कि जीवन में आदर्शों को ज्यादा सहेजकर-पुचकारकर रखने की जरूरत नहीं है?
शिवमूर्ति : इससे आपका अभिप्राय?
ओमा शर्मा : वह यानी आदर्श अहमियत रखता है तो उसके लिए एक जिद्द की तरह डटे रहना, कोई निजी परेशानी होने की स्थिति में भी उस पर अडिग रहना…
शिवमूर्ति : मैं मध्यमार्गी हूं। आदर्श आवश्यकता है लेकिन सिर्फ आदर्श नहीं। गलत गलत है। जीवन न केवल आदर्श से चलता है न गलत से।वामिक जौनपुरी की एक पँक्ति है– आहन (लोहा) नहीं कि जैसे चाहे मोड़ दीजिए; पत्थर हूँ ,झुक तो सकता नहीं, तोड़ दीजिए। एकदम पत्थर होने से काम नहीं चलेगा। टूटने का विकल्प कोई विरला ही अपनाता है। ज्यादातर लोग लोहा बनना पसंद करते हैं। लोहे की कीमत भी पत्थर से ज्यादा इसीलिए मानी जाती है कि वह जरूरत भर मुड़ सकता है।जैसे सौ प्रतिशत खरा सोना किसी काम का नहीं जब तक कि आप उसमें सुहागा न मिला दें। तभी वह गहने बनाने लायक होता है।जीवन का सत्य इसी के आसपास है।
ओमा शर्मा : जीरो से सौ के बीच दो सीमान्त हैं जिनके बीच आपको खड़े होना है, आदर्शों से विचलन करने उन्हें तिलांजली देने में कितना समय लगेगा?
शिवमूर्ति : जिस समाज से आप अपने चरित्र उठाते हैं यदि आप उन्हें आदर्शवादी दिखा दें तो यह तो गलत होगा। बेमानी होगा। अपनी स्वीकार्यता में आप उनसे कुछ छूट ले सकते हैं। बहुत ज्यादा आदर्शीकृत होते ही वे पाठकों में अस्वीकार्य और अविश्वनीय रह जाएंगे। सिद्धान्तों से जीवन नहीं बना है, जीवन से सिद्धान्त बने हैं। जैसे हाइड्रोजन-ऑक्सीजन के खास अनुपात से पानी बनता है लेकिन पानी के गुण उन दोनों गैसों से भी अलग हो जाते हैं। जिसे सृजन कहते हैं वह उस अनुपात का ही प्राप्य है। जैसे मुर्गी अण्डे को सेंती है तभी अण्डे के अंदर का पदार्थ जीवन में बदलता है..उसी तरह सृजन की प्रक्रिया है…
ओमा शर्मा : नुक्ताचीं नहीं… कहानी की बुनावट के स्तर पर नायक की पत्नी का उसके बड़े भाई के साथ जो संबंध दिखाया है, उसका कोई दृष्टांत आपके सामने था?
शिवमूर्ति : एक नहीं कई थे। बेटा पाने के लिए कई बार स्त्रियां अपने ससुर का उपयोग कर लेती हैं, मामियां अपने भानजों का। बहुत होता है। सेक्स को लेकर जो टैबूज हम बना लेते हैं, ग्रामीण जीवन में उतने नहीं हैं। वहां गिल्ट भी नहीं है। स्त्रियां पंचायत तक में कह देती हैं कि मैं पति से गर्भ नहीं धारण कर सकती तो क्या मुझे मां बनने के सुख से वंचित रह जाना चाहिए? ऐसे जीवंत उदाहरण मेरे सामने रहे हैं। उन पर मैंने लिखा भी है मगर उसको अन्तिम रूप देने से डर जाता हूं। मैं ऐसी स्त्रियों के बारे में जानता हूं जो बेबाक कहती हैं कि यदि उसका पति मर गया है या उन्हें बेटा नहीं दे सकता है तो वे कहती हैं कि वे येन-केन प्राकरेण बेटा क्यों पैदा नहीं कर सकती हैं? हमारे ग्रामीण-पिछड़े इलाकों में जहां बेटा होना समाजिक जरूरत है, यह बहुत सहज वाजिब स्थिति है।
ओमा शर्मा : आपकी स्त्रियां अमूमन इस तरह की चरित्रहीनता की तरफ अग्रसर नहीं होती हैं जैसा इस कहानी में हुआ है।
शिवमूर्ति : यहां भी नहीं हुआ है बल्कि बेटा न पैदा करने के लांछन से बचने के लिए उसने यह पहल की है। मेरी पत्नी ने अपनी एक सहेली का किस्सा बताया था जिसके बच्चा नहीं होता था । सहेली की सहेली ने बताया कि वह उसके पति को ‘टैस्ट’ करेगी…कि समस्या कहां है। आज कोई शहरी पाठक को यह अजीब लग सकता है मगर गांव-देहात की कुछ स्त्रियों में अपनी तरह से समस्या सुलझाने की कूवत होती है।
ओमा शर्मा : कहानी में पिता-पुत्र का द्वंद भी समांतर चलता है। बेरोजगारी और व्यवस्था की दमघोंटू स्थितियां अपनी तरह से मार कर रही हैं। कहानी में आपका मंतव्य क्या था?
शिवमूर्ति : पहली कहानी थी तो लेखकीय मंतव्य जैसा क्या होता? जो मेरे पास था कह दिया।
ओमा शर्मा : कहानी के पिता-पुत्र की और आपकी स्थितियों में काफी साम्य-सा दिखता है?
शिवमूर्ति : ऐसा भले आपको लगे मगर वास्तव में वह गढ़ा ज्यादा गया है – कॉन्ट्रास्ट पैदा करने के लिए। किसी भी एक वास्तविक जीवन से आप कहानी का कॉन्ट्रास्ट नहीं पैदा कर सकते हैं। जैसे ‘तिरिया चरित्तर’ की विमली थी, एक नहीं तीन-चार अलग जीवनों को लेकर बनायी गयी है।
ओमा शर्मा : इस पर पाठकीय प्रतिक्रियाएं क्या रही थीं?
शिवमूर्ति : कुछ लोगों को पसंद आयी मगर कुछ लोगों ने कहा कि मैंने इतने अच्छे भाई को गंदला कर दिया, इतनी अच्छी पत्नी थी उसे भृष्ट कर दिया, पिता को भी घ्रणित दिखाया। मैंने किसी के साथ न्याय नहीं किया है। कुछ लोगों ने सराहा कि बेरोजगारी और गरीबी से जन्मी सामाजिक स्थितियों को अच्छे ढंग से कहानी में बताया गया है। लेकिन असहमतियों की तादाद कहीं ज्यादा थी। जो सहमत थे वो भी कहानी के अतिरेक से असहमत थे।लेकिन लोगों का असहमत होना पता नहीं क्यों मुझे सुख देता था।
ओमा शर्मा : चर्चा में खूब रही थी…
शिवमूर्ति : चर्चा में तो खैर रही ही। संजीव जैसे लेखक तो यह कहते हैं कि ऐसी बढ़िया कहानी मैं इस जीवन में दूसरी नहीं लिख पाऊंगा।
ओमा शर्मा : इस सब के मद्देनजर क्या तब ऐसा महसूस हुआ कि एक लेखक के तौर पर आइ हैव एराइव्ड?
शिवमूर्ति : मैं अपने ऊपर कम भरोसा करता हूँ। मैं कितना ही अच्छा लिख लूं मगर दो चार लोगों ने भी कह दिया कि क्या कूड़ा लिखा है तो मैं डूब जाता हूं। सोचता हूं कि आगे से उनकी बातों का ध्यान रखूंगा लेकिन जब लिखता हूं तो वह सब थुक्का-फजीहत एक तरफ धरी रह जाती है ओर मैं अपनी वाली ही कर बैठता हूँ। मेरे साथ यही सब चलता रहता है।
ओमा शर्मा : लेकिन शुरू की ये कहानियां एक-दूसरे से काफी भिन्न हैं। एक लगभग राजनैतिक कहानी है जबकि दूसरी एकदम पर्सनल-पारिवारिक। दोनों कहानियों की पाठकीय स्वीकृति ने आपके आत्मबल को बढ़ाया होगा?
शिवमूर्ति : यह सच है। दोनों पर खूब प्रतिक्रियाएं आईं। ‘कसाईबाड़ा’ पर तो धर्मयुग में साल भर से ऊपर पत्र छपते रहे। बम्बई के पृथ्वी थिएटर में उसके मंचन हुए। मनहर चौहान उसे लेकर देश के दूसरे हिस्सों में भी गए।
ओमा शर्मा : ‘कसाईबाड़ा’ की स्थितियों से आप वाकिफ रहे होंगे?
शिवमूर्ति : हां। तब इमर्जेंसी का दौर था। हर सरकारी मुलाजिम को नसबंदी के केस देने होते थे। कोई प्रधान किसी दरोगा को नसबंदी का केस दिला दे तो फिर वह उससे जो चाहे काम करवा लेता था। लोगों की तनख्वाहें रुकी रहती थीं। गांव में कोई सरकारी गाड़ी आ जाए तो सन्नाटा छा जाता था। लोग घरों को छोड़ खेतों में भाग जाते थे। औरतें मोर्चा निकालने लगी थीं। एक बार तो औरतों ने एक कानूनगो को जकड़ लिया और बोलीं कि ऐंठ दे दाड़ीजार का पोता। हवा थी कि यह सब इंदिरा गांधी करा रही है। वे सोचती थीं कि इंदिरा गांधी को खुद पति का सुख पूरा नहीं मिला तो वह किसी औरत को सुखी नहीं देखना चाहती है। बाकी गांव की चीजें तो गांव में सनातन से चली ही आ रहीं हैं। उस औरत की जो इज्जत थी वह चली गयी लड़की के रूप में और जो दौलत थी वह चली गयी खेत के रूप में।
ओमा शर्मा : ‘कसाईवाड़ा’ की स्थितियां अभी भी बरकरार हैं…।
शिवमूर्ति : हां। काफी हद तक। एक आदमी है- लाल बिहारी ‘मृतक’।वह जिन्दा है मगर उसे मृतक घोषित कर दिया। कितने लोग हैं जिनकी जमीन पर दूसरों ने कब्जा कर रखा है, खतौनी में नाम चढ़वा लिया है। सत्तर से ऊपर की उमर है, शहर का मुंह नहीं देखा है। कचहरी-वकील का मुंह नहीं देखा है। वे कैसे मुकदमा लड़ें जिनकी सुनवाइयां बरसों चलती हैं? ऐसे हजारों केस हैं। गांव अभी भी कसाईवाड़ा बने हुए हैं। शोषण के टूल्स और ज्यादा शार्प हो गए हैं।
ओमा शर्मा : ‘कसाईबाड़ा’ के मंचन भी आपने देखे होगें। इसके रूपांतरण से संतुष्ट रहे?
शिवमूर्ति : देखिए नाटक वाले किसी कहानी को अपनी तरह से कंसीव करते हैं। थोड़ी बहुत छूट उन्हें लेनी होती है। जैसे पिछ्ले दिनों आजमगढ़ में हुआ तो उन्होंने वहां का एक लोकगीत डाल दिया। कहानी में इतनी जल्दी दृश्य परिवर्तन होते हैं कि नाट्यांतरण में दिक्कतें आती हैं… तो उन्हें उसे अपने हिसाब से उसे संयोजित करना पड़ता है।
ओमा शर्मा : बुनावट में बहुत सान्द्र कहानी है ‘कसाईबाड़ा’।
शिवमूर्ति : इसे मैंने थोड़ा लम्बे रूप में लिखा था लेकिन बाद में खुद ही छोटा किया। मैं अपने फाइनल ड्राफ्ट में कहानी को छोटा करता हूं। उसके एक-एक पैरा और वाक्य की जांच करता हूं कि क्या ये कथा के लिए जरूरी है। लिखने में चाहे कितनी भी मेहनत-मशक्कत की गयी हो लेकिन अन्तिम रूप को मैं पठनीयता के लिहाज से बहुत निरपेक्ष होकर संपादित करता हूं।
ओमा शर्मा : ‘अकालदंड’ भी व्यवस्था की कहानी है। उसमें आयी अकाल भी स्थितियां आपकी देखी हुई थीं?
शिवमूर्ति : हमारे यहां सन 65-66 में और 67-68 में लगातार अकाल पड़ा था। उस समय मिर्जापुर में बिजली के खंबे गड़ रहे थे। मेरे पिताजी चूंकि घर पर कम रहते थे तो उन दिनों मैं भी वहां दिहाड़ी करने अपने एक पड़ोसी के साथ चला गया था। तब मैंने ये दारुण स्थितियां देखी थीं। आप किसी को एक रोटी दे दीजिए, खाना दे दीजिए और जो मर्जी काम करवा लीजिए। उन दिनों सूखा पर ठाकुर प्रसाद सिंह का एक लेख ‘धर्मयुग’ में आया था। उसकी दो पक्तियां मुझे आज भी याद है : केहि विधि दरसन पाऊं मैया तोहरी सकरी दुअरिया; मैया के दुआरे एक भूखा पुकारे, देहु अन्न घर जाऊं, मैया तोहरी संकरी दुअरिया। लोग पूजा पाठ करते थे कि पानी बरसे। तो मैंने अकाल की वह छाया वहाँ देखी थी।
ओमा शर्मा : यह कहानी कब लिखी थी।
शिवमूर्ति : सन सतहत्तर में बलराम ने मुझसे कहा कि वे ‘भूमिका’ नाम की एक पत्रिका शुरू कर रहे हैं इसके लिए कोई कहानी दो। छोटी।
ओमा शर्मा : लेकिन ये तो छोटी कहानी नहीं है।
शिवमूर्ति : नहीं, पहले यह छोटी थी। चार पेज की। बाद में बड़ी हुई।
ओमा शर्मा : तो आप की पहली प्रकाशित कहानी ‘अकालदंड’ हुई।
शिवमूर्ति : नहीं चौथी। बाद में यादव जी ने ताना मारा कि एक ‘तिरिया चरित्तर’ लिखकर बैठे रहोगे, कोई और कहानी दो …तो फिर उसे मैंने लम्बा करके लिखा। लेकिन उसका आदि और अन्त वही है।
ओमा शर्मा : यह दुबारा कब छपी?
शिवमूर्ति : सन 1991 में ‘हंस’ में।
ओमा शर्मा : यानी यह दो रूपों में दो जगह प्रकाशित हुई…
शिवमूर्ति : हां। कुछ लोगों को उसका छोटा वाला रूप बहुत अच्छा लगा। कुछ हद तक मुझे भी लगता है कि विस्तार के कारण उसका असर कम हो गया है। ‘तिरिया चरित्तर’ भी दो रूपों में लिखी। पहले यह उपन्यास का हिस्सा थी। मेरे पास चरित्र रहते हैं, उनकी स्थितियां बदल जाती हैं। मऊ में उत्तमचंद जैसे लेखक थे, अब्दुल बिस्मिलाह भी थे। उन्होंने एक पत्रिका शुरू की ‘कदम’ नाम से और मुझसे कहानी मांगी तो मैंने लिखे उपन्यास से निकालकर वह छोटी सी कहानी उन्हें दे दी। उसका नाम रखा था ‘खरीद-फरोख्त’। (पाठक इसे परिशिष्ट–एक में पढ़ सकतें हैं।)
ओमा शर्मा : उस पर थोड़ी देर में बात करेंगे। अभी ‘अकालदंड’ पर बात करते हैं। यह एक व्यवस्था विरोध की कहानी है लेकिन जब आपने इसे लिखा तब व्यवस्था की बहुत समझ तो नहीं रही होगी आपको?
शिवमूर्ति : ज्यादा समझ नहीं थी लेकिन जितनी थी वही कहानी में आयी है।
ओमा शर्मा : ये भी है कि जिन लोगों के बीच आप रहते थे उनकी ज्यादतियों- चालाकियों को आप अरसे से देख रहे थे।
शिवमूर्ति : बिल्कुल। एक लेबर की तरह मैंने उनके बीच काम किया था। गांव में रहने वाला दस साल का बच्चा भी वहां के हालात काफी समझ लेता है।
ओमा शर्मा : भट्टे वालों के संदर्भ में हिन्दी में किसी और लेखक की कहानी मुझे नहीं दिखी। आपको इसका अनुभव कैसे मिला?
शिवमूर्ति : भट्टा मेरे जीवन में बहुत पहले से था। हमारे घर से एक कोस दूर एक भट्टा था जिसे वर्माजी चलाते थे। हमारे गांव के लोग वहां मजदूरी करने जाते थे और बताते थे कि वर्माजी बड़े अच्छे आदमी हैं। लोगों की मदद करते हैं। मुझे एक फार्म भरने के लिए 27-28 रुपए चाहिए थे।मैं प्याज बेचने बाजार गया था। वह बिकी नहीं तो मैं उनके पास चला गया और वहां के माहौल को देखता रहा। कोई ट्रक आ रहा है। कोई औरत मिट्टी ढो रही है। कोई बच्चा मदद कर रहा है। नैन-मटक्का भी हो रहा था। बाद में जब मैं सेल्स टैक्स में आ गया तो पूर्वांचल के जिस इलाके में तैनाती थी वहाँ के एक-एक जिले में 200-300 भट्टे हुआ करते थे जिनसे टैक्स आता था। उसकी हमें जांच करनी होती थी। ज्यादातर भट्टे वाले नम्बर दो नंबर का काम करते हैं।
ओमा शर्मा : भट्टों पर लगने वाले सेल्स टैक्स का रेट क्या था?
शिवमूर्ति : आठ परसेंट। आप ये देखिए सोने-गहने पर यह एक परसेंट है और ईंटों पर आठ। हम यह कहते हैं कि जहां गांव के लोगों को रोजगार मिलता है, जो असंगठित हैं उनसे सरकार इतना ज्यादा टैक्स वसूलती हैं और संगठित शहर के सर्राफों से इतना कम। यह अन्याय नहीं है तो क्या है?
ओमा शर्मा : आप भट्टे के अनुभवों की बात कर रहे थे…
शिवमूर्ति : हां, तो ऐसे ही मैं एक बार भट्टे की जांच करने गया था। वहां गया तो एक आदमी मड़ई में लेटा कुछ गा रहा था। वहाँ भट्टे के नम्बर दो वाले कागज तो नहीं मिले लेकिन जो गीत मिला मैंने सोचा वह भी कम काम की चीज नहीं है…टुटही मडहिया के हम हैं राजा, करीला गुजारा थोरे मा; तोर मन लागे न लागे पतरकी मोर मन लागल बा तोरे मा…मैंने सोचा हम किस वाहियात बहीखाते को ढूंढने आये थे ओर हमें तो मोती मिल गया। मैंने तुरंत छोटे से कागज पर उसे नोट कर लिया। थोड़ी देर बाद हम उसके पास गए तो पूछा कि तुम कौन हो तो बोला हम तो साहब जा रहे थे, धूप के कारण सुस्ताने लग गए। हमने कहा कोई बात नहीं पर जो तुम गा रहे थे वह तो पूरा सुना दो। उसने कहा कि वह तो यूं ही मुंह से निकल गया, हम कोई गवैए थोड़े हैं। एक दूसरे भट्टे पर गए तो एक ट्रक आया था। पास की झोंपड़ी से एक लड़की निकली और ट्रक के मडगार्ड पर पैर रखकर ड्राइवर को धमकाते हुए बोली ‘अब आए हो सरऊ’। वह ड्राइवर उतरा और उसे लेकर दूसरी तरफ चला गया। यह बिम्ब मेरे भीतर रह गया। दूसरा बिम्ब हमारे घर काम करने वाली तेरह साल की लड़की का था जिसे ससुराल जाने पर उसके जेठ ने भोगा था। तीसरा बिम्ब…हमारी रिश्ते की ममेरी बहन थी जिसे अवैध गर्भ ठहर गया था। उसकी पंचायत हुई थी। लड़की ने उस लड़के के बारे में बताया मगर पंचों ने उसे नहीं माना क्योंकि लड़के के पिता ने पंचों को खरीद लिया था। तो पंचायती अन्याय की बात मेरे मन में वहां से रह गयी।एक बार मेरे मन में आया भी था कि उस बाल विधवा के जरिए बिसराम की पोल खुलवा दूं मगर फिर यही लगा कि पंचों के अन्याय को दिखाना जरूरी है।
ओमा शर्मा : व्यवस्था द्वारा लोगों को लूटने-खसोटने की प्रवृत्ति का प्रतिरोध किसी तड़प की तरह आपके भीतर मौजूद रहता है?
शिवमूर्ति : हां। क्योंकि मैंने अपने आसपास यही होते देखा है।
ओमा शर्मा : ‘अकालदंड’ का अंत चौंकाता है। बोबिटिंग से बहुत पहले ऐसा सोचना आम बात नहीं थी। यह पाठकों को चौंकाने के लिए था या इसका भी कोई आधार था–प्रतिरोध के रूप में?
शिवमूर्ति : ऐसा अनुभव तो नहीं देखा-सुना था लेकिन कुछ महिलाओं को कहते सुना जरूर था…कि फलाने का नाती ज्यादा उधिराया हो तो दातें काट ले… हंसिया से काट ले। मुझे लगा यह प्रतिरोध का रूप हो सकता है…
ओमा शर्मा : इस कहानी में आपकी नायिका अपनी यौन शुचिता पर अडिग रहती है जबकि प्रलोभन उसके पास भी है। यहां खासी आदर्शवादी स्थिति है।
शिवमूर्ति : देखिए, यह निर्भर करता है कि आप क्या रेखांकित करना चाहते हैं। कॉन्ट्रास्ट बनाने के लिए आपको अलग-अलग शेड्स लगाने होते हैं। एक जैसे शेड्स से कॉन्ट्रास्ट नहीं बनता है।
ओमा शर्मा : यानी आपके यहां न यथार्थ ऊपर हैं न आदर्श,महत्वपूर्ण है कहानी कला की जरूरत !
शिवमूर्ति : कहानी का लेखन एक आर्ट हैं। आर्ट के अलावा यह एक क्राफ्ट भी है। उसके लिए आपको ऐसे मोड़ों की जरूरत पड़ती है।
ओमा शर्मा : आपके ज्यादातर चरित्र बड़े सयाने किस्म के हैं। उनकी कई सतहें हैं। सीधा-सादा कोई नहीं है?
शिवमूर्ति : सीधे-सादे चरित्रों से कहानी क्या निकलेगी, ड्रामा क्या निकलेगा। पाठक को उनकी जरूरत नहीं है।
ओमा शर्मा : तो जिस आमजन की आप कहानियां लिखते हैं वह सीधा-सादा नहीं है?
शिवमूर्ति : आमजन सीधा-सादा नहीं है। आमजन शोषित है लेकिन कोई जरूरी नहीं है कि हर शोषित व्यक्ति सीधा -सादा हो। उसी तरह व्यवस्था शोषक हो सकती है लेकिन उसके पुर्जे आदर्शवादी हो सकते हैं। नैक्सेलाइट और पुलिस बलों की भिडंत होती है। दोनों एक दूसरे के दुश्मन हैं जबकि दोनों शोषित वर्ग से हैं। पुलिस बल में किसी टाटा-बिड़ला का बच्चा नहीं होता है। वहां सर्वहारा ही सर्वहारा को काट रहा है। एक तगड़ा रिक्शे वाला कमजोर रिक्शे वाले का हिस्सा मार लेता है…तो, जीवन की कई परतें होती हैं।
ओमा शर्मा : आपकी ज्यादातर कहानियां व्यवस्था के वीभत्स रूप को दिखाती हैं जबकि आप स्वयं उसका हिस्सा रहे हैं।
शिवमूर्ति : नहीं, मेरे दिमाग में यह था। पहले मैं सोचता तो कि कुछ दिनों बाद मैं नौकरी ही छोड़ दूंगा। मैंने मुड़कर नहीं देखा और व्यवस्था के विरोध में लिखता रहा। आप ये देखिए कि जैसे-जैसे मेरी समझ बढ़ी है व्यवस्था के विरोध का स्वरूप और मुखर होता गया है। मैंने जो लिखना चाहा, लिखा। व्यवस्था का हिस्सा होने के बावजूद मैं झिझका नहीं। कभी-कभी आदमी नादानी या रोमांस में ऐसा कर लेता है। डर ने मुझे नहीं रोका है।
ओमा शर्मा : लेकिन व्यवस्था के भीतर से आपको कोई कहानी नहीं मिली?
शिवमूर्ति : हां, कई बार प्रश्न आया है। यहां से मिला है… जैसे जमीन या वसूली आदि की बात है, हमने विभागीय अनुभव से लिखा है। सिपाही, दरोगा आए हैं। विभाग की कुछ चीजें आयी है।
ओमा शर्मा : विभाग की मार्फत व्यवसायों के भीतर जाने की जो बातें रहीं होगी, किस तरह शोषण होता है, वे नहीं आयी हैं?
शिवमूर्ति : मेरी प्राथमिकता गांव और किसान मजदूर के जीवन को दर्ज करने की रही है। मेरे पात्र चूंकि शोषित और दलित रहे हैं इसलिए उन्हीं पर लिखना अच्छा लगा।मैंने कोई तैंतीस साल विभाग में नौकरी की है लेकिन मैंने कभी अपने को उससे जुड़ा महसूस नहीं किया।
ओमा शर्मा : खास आर्थिक-समाजिक स्थितियों की कहानियां हैं आपके पास – भूख, गरीबी, शोषण, अत्याचार। समय बदलेगा, समाज बदलेगा, आर्थिक-समाजिक समपन्नता आ जाने के बाद क्या बचेगा इन कहानियों में?
शिवमूर्ति : बहुत अच्छा हो कि यह यूटोपिया साकार हो जाए। गरीबी दूर हो जाए। शोषण मिट जाए। जातिवाद नष्ट हो जाए। तब ये कहानियां इतना तो बताएंगी कि कभी हमारे समाज में कभी ऐसा भी होता था।
ओमा शर्मा : ‘तिरिया चरित्तर’ की बात करते हैं। शुरू से आखिर तक कहानी अतिरेकों पर टिकी लगती है। इसके चरित्र बड़े काले-सफेद किस्म के हैं। कोई एकदम अच्छा है, कोई बुरा।
शिवमूर्ति : देखिए, कंट्रास्ट तो रहेगा। मैं एक उदाहरण देता हूं जैसे नौटंकी होती है। उसमें पात्र गा-गाकर बोलते हैं। वास्तव में तो जीवन में हम गाकर नहीं बोलते हैं। पाठक के मानस में चीजों को प्रभावी ढंग से संप्रेषित करने के लिए कुछ युक्तियां कुछ चटख रंग तो लगाने ही पड़ते हैं। जीवन में नाटकीयता भी होती है, चटख रंग भी होते हैं लेकिन धूसर ज्यादा होता है। रचना में लाने के लिए, रेखांकित करने के लिए चटख रंग ज्यादा काम देते हैं। जैसे कहा गया है कि कुत्ता आदमी को काट ले यह कहानी नहीं है, आदमी कुत्ते को काट ले यह कहानी का बिंदु हो सकता है। लेकिन जिसे हम अतिरेक कहते हैं वह खाने में नमक की तरह ही रहना चाहिए। ज्यादा अतिरेक, ज्यादा नमक की तरह नुकसानदेह हो सकता है।
ओमा शर्मा : लेकिन जिन सरोकारों से आपका वास्ता रहता है – गरीबी, संघर्ष और शोषण – उनके रेखांकन के लिए इतना लेखकीय आत्मविश्वास रहे कि चटख रंगों के बगैर भी उनकी अनिवार्यता कम नहीं होगी।
शिवमूर्ति : देखिए कहानी के दो तत्व विचारणीय होते हैं – एक कला और दूसरा क्राफ्ट।नाटकीयता या चटख उसके क्राफ्ट में इस्तेमाल होते हैं। पात्रों के संवाद या प्लॉट में। रचना में आर्ट भी होना चाहिए और उसे स्पष्ट रखने वाला क्राफ्ट भी। कथ्य को प्रभावी बनाने के लिए जो कुछ कर सकते हों करना चाहिए। इसमें विश्वास या अविश्वास कोई मुद्दा नहीं होता है।
ओमा शर्मा : लेकिन ‘तिरिया चरित्तर’ को देखें तो लगता है उसे आपने एक नाटक के रूप में लिखा है। उसका अन्त इस वाक्य से होता है : बीसों सिर एक साथ सहमति में हिलते हैं। क्या ऐसी कोई सोच थी?
शिवमूर्ति : देखिए, हर लेखक कहानी को अपने ढंग से कंसीव करता है। कुछ उसे बिम्ब के रूप में कंसीव करते हैं तो कुछ शाब्दिक वर्णन के तौर पर। स्थितियों को रेखांकित करने वालों के यहां वर्णनात्मकता ज्यादा मिलती है। मैं कहानी को दृश्य के रूप में ही कंसीव करता हूं। जैसे ‘तर्पण’ में रजपतिया गन्नों को कन्धे पर रखकर शाम के वक्त खेत की मेंड़ पर चली जा रही है। ‘कसाईबाड़ा’ में सुरजी धरने पर बैठ गई है। कभी-कभी कहानी मेरे पास कई संवादों के रूप में आती है। इस पर कोई नाटक या फिल्म बनेगी ऐसा मन में नहीं होता है। मेरे मानस में ही वह इस तरह उतरती है।
ओमा शर्मा : कितने समय में लिख ली गयी थी ‘तिरिया चरित्तर’?
शिवमूर्ति : देखिए, पहले तो यह बहुत छोटी थी। दो ढाई पेज की। बाद में जब यादवजी ने कहानी मांगी तो मैं इस पर और सोचने लगा। दिसम्बर 86 में इसकी घटनाएं तय कर दीं। उसके अगले महीने यानी जनवरी में पहला ड्राफ्ट और फरवरी में दूसरा ड्राफ्ट कर दिया। और मार्च – जबकि उस समय विभागीय काम का भी दबाव रहता है – में मैंने इसे फाइनल करके भेज दिया।
ओमा शर्मा : प्रकाशन के पहले किसी को पढ़ाया था?
शिवमूर्ति : इसका मौका नहीं मिला। अलबत्ता उन दिनों जयप्रकाश धूमकेतु हमारे पास आए थे तो मैंने उन्हें रात को पढ़ने को दे दी कि जरा बताओ कैसी है। उन्होंने कहा कि कहानी बहुत अच्छी है और भेजने लायक है। इसके शु्रू के ड्राफ्ट की संजीवजी से चर्चा हुई थी। वे इसकी यौनात्मक शब्दावली से खुश नहीं थे।
ओमा शर्मा : अपनी पत्नी को भी दिखाते हैं?
शिवमूर्ति : हां। उनसे तो चर्चा होती ही रहती है। वे अपनी स्पष्ट राय देती हैं। कभी बहुत जरूरी मोड़ सुझा देती हैं। बल्कि लोकगीतों के जो भी सन्दर्भ मेरे यहां हैं, ज्यादातर उनकी मार्फत आए हैं। मेरी कहानियों की पृष्टभूमि और उनकी-मेरी पृष्टभूमि एक होने के कारण वे प्रमाणिक ढंग से राय दे सकती हैं। उनकी बातों को मैं तवज्जो देता हूं।
ओमा शर्मा : मैं सोचता हूं कि पत्नी का एक-मुश्त समर्थन कदाचित लेखक की बर्बादी में बड़ा काम करता है, खासकर जब आपको वह पाठकीय गिनी-पिग के बजाय अपनी पीठ थपथपाने को मुहैया हो।
शिवमूर्ति : मैं कह सकता हूं कि हमारे साथ ऐसा नहीं है। मामा-मामी का किस्सा उन्हें पता है मगर ‘ख्वाजा, ओ मेरे पीर!’ उन्होंने अभी तक नहीं पढ़ी है।
ओमा शर्मा : आपने ग्रामीण स्त्रियों की स्थितियों को किसी कारगर घुसपैठिए की दक्षता से दर्ज किया है। उनके संवाद उनकी मानसिकता को ही नहीं, पूरे निरूपण में बड़ी कुशलता से आते हैं। इसमें पत्नी का कुछ योगदान है या यह आपका ही है?
शिवमूर्ति : संवाद तो पत्नी नहीं देती है। गीत वगैरा कोई मिलता है तो हमें बताती है कि देखिए आपके किसी काम आ जाए।पात्रों की मानसिकता के निरूपण की चर्चा हम उनसे करते हैं जिस पर वे अपनी राय देती हैं तो उन चीजों को रचने में मुझे दिक्कत नहीं होती है।
ओमा शर्मा : लोक की चीजें आपके यहां मुसलसल आती रही हैं । क्या यह किसी नैतिक जिम्मेवारी के तहत आता है…ताकि लोक में पसरी चीजों को एक उम्र मिल जाए…
शिवमूर्ति : हां। इसके दो कारण हैं। एक तो ये कि वे बरसों से जीवन की आजमायी चीजें हैं। अपने भीतर गहरे सत्य लिए होती हैं। दूसरे, उनको संरक्षित करने से ज्यादा मुझे अपनी बात की प्रभावोत्पादकता के लिए वे बड़ी उपयोगी लगती हैं। जो बात संवाद के जरिए कहने में चार-छह पक्तियां लग जाती हैं, हो सकता है वह मात्र एक पंक्ति में ही संप्रेषित हो जाए। जैसे ‘ख्वाजा, ओ मेरे पीर!’ के आखिर में जो गीत आया है – सब दिन बसंत जग थिर न रहे – मैं सोचता हूँ वह पाठक के भीतर उतर जाता है।
ओमा शर्मा : उपयोग में लाए गए लोकगीतों में अपने कथ्य के अनुसार काट छांट भी कर लेते हैं?
शिवमूर्ति : हां। करना पड़ता है मगर ज्यादा नहीं। लोक की चीजें भी कोई रिजिड नहीं होती हैं । उनमें भी देश-काल के अनुसार परिवर्तन जरूरी होता है। लोक इतने लोकतन्त्र की छूट भी देता है।
ओमा शर्मा : आपने व्यवस्था को तो अपने दायरे में अक्सर लिया है मगर हमारे समाज में जो कुरीतियां हैं उनको आपकी कहानियां स्पर्शरेखिक ढंग से ही छूती हैं।
शिवमूर्ति : इसे जरा और स्पष्ट करें।
ओमा शर्मा : जैसे ‘ख्वाजा…’ के सन्दर्भ में कहूं कि जब नायक मामा के गांव जाता है तो वहां अंधेरा है। वह कहता है कि तो फिर बच्चे कैसे पढ़ते हैं? स्कूल नहीं जाते? उसे बताया जाता है कि स्कूल में मास्टर ही नहीं आते हैं क्योंकि वे प्रधान को पैसे दे देते हैं। यानी स्कूली तन्त्र का जो कुचक्र है उसको आपने इशारे भर पकड़ कर छोड़ दिया है।
शिवमूर्ति : देखिए, मामा की इस कहानी में उसकी जगह थी ही नहीं लेकिन ये समस्या इतनी ज्वलंत है कि इसने अपने आप कहानी में थोड़ी जगह बना ली। इन मुद्दों पर जब कोई कहानी लिखी जाएगी तब ये चीजें विस्तार से आएंगी।
ओमा शर्मा : राजनैतिक और समाजिक स्तर पर जो खेल खेला जाता है वह तो आपकी चिंता के दायरे में रहता है लेकिन नैतिक स्तर पर हमारे आचरण में जो कुरीतियां समा गयी हैं वे नहीं आती हैं – अच्छे शिक्षकों की कितनी कमी है, शिक्षा किस कदर व्यावसायीकृत हुई है वगैरा…।
शिवमूर्ति : यह मैंने अपने ‘मैं और मेरा समय’ में लिखा है।
ओमा शर्मा : ‘केशर कस्तूरी’ आपके जीवन के बहुत करीब की कहानी है…
शिवमूर्ति : जी हां। उसका नाम भी केशर है। उसकी शादी जहां हुई, पति बेरोजगार था। उसने बड़ी अनुमय से कहा था कि पापाजी इनको कोई नौकरी दिलवा दीजिए। उसके चेहरे का भाव हम आज तक नहीं भूले हैं। ऐसी मजबूरी, लाचारी से सिक्त ! एक समय इस लड़की का आत्मविश्वास आसमान छू्ता रहता था। हर काम में निपुण, हर किसी से मिलकर चलने वाली लड़की। उसके हालात देखकर हमने सोचा उसे बुला लेते हैं और कहीं दूसरी जगह उसका रिश्ता कर देते हैं। आप देखिए… उस तंग नाजुक हालत में भी उसकी सोच कितनी प्रबल थी। उसने साफ मना कर दिया… कि क्या बेरोजगार आदमी इन्सान नहीं होता है? क्या नौकरी से ही किसी इन्सान की परख होती है? आज नहीं तो कल नौकरी मिल जाएगी। नहीं भी मिली तो कुछ और कर लिया जाएगा। और आपको बता दूँ कि आज उसके पास तीन ट्रक हैं। दिल्ली में एकता विहार में उसके पास घर है। यह कहानी एक तरह से मेरा पश्चाताप था।
ओमा शर्मा : कहानी अन्त में नियतिवाद में चली जाती है।
शिवमूर्ति : नहीं ऐसा नहीं है। जब कोई रास्ता नहीं दिखता हो तो अधिकांश लोग भाग्य को कोसने लगते हैं। लेकिन वह उसमें भी एक उम्मीद पालती है। जो उपाय उसके पास है वह उसी के सहारे अपनी परिस्थिति का अनुकूलन करती है और अपने पिता पर आश्रित होने से भी मना कर देती है। यह नियतिवाद होना नहीं जीवन में गहरी आस्था रखना हुआ।
ओमा शर्मा : इस कहानी के अन्त में आपने उसकी जेठानी के मार्फत उसके चरित्र पर जो शंका डलवायी है, वह एक अतिरेक के तौर पर, कुछ और नाटकीय करने की नीयत से आयी है जैसे वह सब एक लोकगीत के जुमले को फिट करने के लिए वह गढ़ा गया हो?
शिवमूर्ति : हां, अतिरेक-सा तो हुआ है। लेकिन मैंने यह देखा है कि जहां कोई महिला कुछ अच्छा या कुछ नया करने चलती है, आत्मविश्वास में रहती है तो यह उसके आसपास की महिलाओं में गहरी ईष्या जग जाती है।
ओमा शर्मा : अब उपन्यासों पर आते हैं। पहले ‘त्रिशूल’। यह सन 1993 में आया था। इसका संदर्भ बाबरी मस्जिद है मगर उसे ध्वस्त करने का प्रसंग उपन्यास में नहीं है। ऐसा क्यों?
शिवमूर्ति : असल में मैंने उसे उस घटना से पहले ही लिख लिया था मगर प्रकाशन के लिए पड़ा था। वास्तव में इसके केंद्र में बाबरी मस्जिद विध्वंस नहीं है। मंडल आयोग की सिफारिश को लागू करने की वजह से समाज में जो हलचल मची उसी को धीमा करने के लिए रथयात्रा और अयोध्या आंदोलन की सृष्टि हुई थी। मुझे उस मुठभेड़ को पकड़ना था। यानी हिन्दू और मुस्लिमों के बीच तथा अगड़े और पिछड़ों के बीच राजनैतिक उद्देश्य के तहत जो आलोड़न चल रहा था, जो खाई पैदा की जा रही थी, यही इसका वर्ण्य विषय था और है।
ओमा शर्मा : मस्जिद गिराने का संदर्भ भी नहीं दिया आपने?
शिवमूर्ति : मस्जिद तो बाद में गिरी। उपन्यास इसके पहले लिखा जा चुका था जिसमें मस्जिद पर मंडराता खतरा स्पष्ट है- उपन्यास में ‘मैं’ पूछता है- तो क्या आपकी पार्टी सत्ता में आएगी तो सचमुच मुसलमानों को देश निकाला दे देगी? मस्जिद नेस्तनाबूद कर देगी? तो शास्त्री जी कहते हैं- बिल्कुल कर देगी। आपने हमारे नेता का एलान नहीं सुना? अपनी मस्जिद ये कटुए साले जहां चाहें उठाकर ले जाएं। अपनी मैया की ‘उसमें’ डाल लें ले जाकर। और नहीं डालते तो हम डाल देंगे…।मस्जिद गिरने के बाद तो सन्नाटा ही छा गया।
ओमा शर्मा : वह सन्नाटा था या दंगे !
शिवमूर्ति : दंगे तो उस परिघटना की स्थूल परिणति थी। समाजिक स्तर पर उथल-पुथल तब ज्यादा हुयी थी जब भाजपा द्वारा येन-केन मुलायम सरकार को हटाने के लिए इसे मुद्दे का तरह इस्तेमाल किया गया था। मैंने उस झंझावात को पकड़ना चाहा है।
ओमा शर्मा : समाजिक उथल-पुथल को आपने निजी सम्बंधों की मार्फत पकड़ा…
शिवमूर्ति : यदि राजनैतिक वातावरण इतना कलुषित नहीं हुआ होता तो पड़ोस के घर-परिवार में काम करने वाले महमूद के साथ वह सब नहीं होता जो उसके साथ अन्तत: हुआ।
ओमा शर्मा : उपन्यास अपने पूर्वाध में समाज की गांठों का उसकी बुनावट का उम्दा आख्यान रचता है लेकिन उत्तरार्ध में तो यह महमूद की रिहाई की कथा बनकर रह जाता है।
शिवमूर्ति : उसमें पाले गायक भी तो आए हैं जो अवर्ण-सवर्ण के बीच चलते द्वंद में मार दिए जाते हैं।
ओमा शर्मा : कमंडल की राजनीति के प्रभावतले मंडल की राजनैतिक स्थितियों को आपने एक प्रक्षेपक की तरह इस्तेमाल किया है।
शिवमूर्ति : मुझे लगा दोनों ही अहम है। दोनों ही एक दूसरे से गुंथी हुई हैं।
ओमा शर्मा : जातिवाद और सांप्रदायिकता एक दूसरे से गुंथी हुई हैं?
शिवमूर्ति : दोनों में ही समाज के एक वर्ग की दूसरे में असुरक्षा महसूस होती है। उस समय दोनों एक साथ सामाजिक कलुष पैदा कर रही थीं। मंडल की राजनीति ने जिन पिछड़े वर्गों का रुझान अपनी तरफ किया उसी को काउंटर करने के लिए भाजपा ने सांप्रदायिक पैंतरा चला। घृणा दोनों से ही फैल रही थी।
ओमा शर्मा : देखिए, उपन्यास का नाम ‘त्रिशूल’ है जो अपने आप में खास किस्म की साम्प्रदायिकता की तरफ इंगित करता है। दूसरे, उपन्यास की शुरूआत देखें। वहां नरेटर महमूद की कहानी सुनाने चला है। मंडल का संदर्भ बहुत आरोपित ढंग से आया है।
शिवमूर्ति : मेरे लिए ‘त्रिशूल’ का अर्थ उतना ही नहीं है जितना आप सोच रहे हैं। मेरे लिए समाज में तीन शूल थे। जातिवाद का, साम्प्रदायिकता का और सनातन से चली आ रही गरीबी का। आप इसे विश्व हिन्दु परिषद या धर्म के मंत्र के रूप में मत लीजिए। समाज कई स्तरों पर खंड-खंड बंटा है।
ओमा शर्मा : उपन्यास का नरेटर तो सेक्यूलर चरित्र है लेकिन उसके आसपास के चरित्रों को हास्यास्पद ढंग से ही दिखाया है।
शिवमूर्ति : इन चरित्रों को हास्यास्पद नहीं उदासीन कहिए जो कि हमारे समाज के आम आदमी होते हैं। कोई स्टेंड न लेने वाले। ‘कौन लफड़े में पड़े’ की मानसिकता वाले। महमूद की गिरफ्तारी गलत हुई है मगर मिसराजी साथ थाने जाने से इसी मानसिकता के कारण मना करते हैं। समाज के जो नेगेटिव चरित्र हैं इसीलिए इन पर हावी हो जाते हैं कि इनके रीढ़ ही नहीं होती है। हमारे समाज के जो सचरित्र हैं उनका कोई लाभ समाज को नहीं मिलता है बल्कि जो जमीन से जुड़ा है और बुध्दिजीवी नहीं है जैसे वह दूधवाला ग्वाला उसके साथ जब ये तथाकथित दबंग तत्व कुछ टैं-फैं करते हैं तो वह उन्हें पटक कर मारता है और वे भाग जाते हैं। एक वह चौकीदार है, वह भी अपनी बात साफ-साफ और हिम्मत से कहता है जबकि पढ़े-लिखे और बुद्धिजीवी कहे जाने वाले लोग पूंछ दबा लेते हैं।
ओमा शर्मा : आपने दूधनाथ जी का ‘आखरी कलाम’ पढ़ा है …वह भी इस मुद्दे पर है?
शिवमूर्ति : नहीं, हम उसे नहीं पढ़ पाए हैं।
ओमा शर्मा : जातिवाद और साम्प्रदायकिता हमारी दो प्रमुख सामाजिक बीमारियां हैं। ज्यादा बड़ा अजगर कौन सा है?
शिवमूर्ति : देखिए एक नागनाथ है तो दूसरा सांपनाथ। साम्प्रदायकिता समाज को दो भागों में विभक्त करती दिखाई देती है लेकिन बहुत सारे मामलों में वह कम मारक है। धर्म के अलावा हिन्दू और मुस्लिम एक दूसरे के प्रति सहिष्णु हैं लेकिन जाति के मामले में समाज ज्यादा असहिष्णु है। गांव के एक ठाकुर और यादव की मानसिकता के बीच एक सनातन तनाव भी है। वे कभी भी एक दूसरे का पूरी तरह विश्वास करने की स्थिति में नहीं है। छुआछूत के मामले में देखिए कि कोई सवर्ण क्या पिछड़ा भी उसके बर्तन में पानी पीने को तैयार नहीं है। हमारे गांव या उसके आसपास के कई गांवों में कोई मुसलमान नहीं है तो गांव वाले साम्प्रदायकिता के बारे में सोचते ही नहीं है जबकि जातिवाद उनकी रगों में भरा पड़ा है।
ओमा शर्मा : लेकिन हमारे यहां के बौध्दिक तबके में साम्प्रदायकिता की जिस तरह मुखालफत होती है, जातिवाद की नहीं?
शिवमूर्ति : इसलिए कि उनमें खुद जातिवाद भरा पड़ा है। यह उनकी चर्या का हिस्सा है। मैं सोचता हूं कि देर-सबेर साम्प्रदायकिता अप्रासंगिक हो भी जाए मगर जातिवाद अभी लम्बे समय तक चलेगा। यह देश का दुर्भाग्य है।
ओमा शर्मा : क्या आरक्षण की राजनीति ने इस जातिगत भेद को और तल्ख किया है?
शिवमूर्ति : आरक्षण तो एक दिखावा है। जो पढ़ लिख लेगा उसी को तो उसका लाभ मिलेगा। जो लोग निरक्षर हैं उनके लिए इसके क्या मायने हैं? क्रीमी लेअर को आरक्षण से निकाल देना चाहिए। अभी तो यह हो रहा है कि एक पीढ़ी के बाद दूसरी और दूसरी के बाद तीसरी इसका लाभ ले रही है, बिना यह सोचे कि यह लाभ उनके ही दूसरे वंचित भाई-बन्धों को मिलना चाहिए। यह तो न्याय का प्रश्न है।
ओमा शर्मा : ‘तर्पण’ आपकी सबसे संतुलित औपन्यासिक कृति हैं। मुझे यकीन है कुछ ही समय में इसे एक क्लासिक माना जाने लगेगा। इसकी चिंगारी के बारे में बताएं।
शिवमूर्ति : मैं और कमल लोचन पांडे उनके गांव जा रहे थे। रास्ते में पड़ता है मऊ। वहां हम लोग बस के इंतजार में खड़े थे। वहां तीन-चार लोग बातें कर रहे थे। वे ब्राहमण रहे होंगे जैसा उनकी बातों से लगा। कोई एक आपस में किसी को कह रहा था कि अब आप उसको सताना बंद कर दीजिए। अब हरिजन एक्ट आ गया है। आप फंस जाएंगे। उनमें से एक नौजवान किस्म का आदमी कह रहा था कि कोई भी एक्ट आ जाए, जब हमारी आन पर आएगी तो हम उसे काटे बगैर नहीं छोड़ेंगे। दूसरा समझा रहा था कि ऐसा मत करना। तुम्हारा घर बरबाद हो जाएगा। तब मेरे मन में यह बात आई कि यह एक ज्वलंत मुद्दा है। अभी भी गरीब या दलित को सताना उनके लिए सामान्य घटना है।वहां से घर लौटकर आने पर मैंने अपनी कॉपी में नोट किया कि इस विषय पर लिखना है।
ओमा शर्मा : यानी उस एक्ट के कारण आतताइयों के भीतर जो डर की भावना आई उसी ने आपको प्रेरित किया?
शिवमूर्ति : हां। क्योंकि किसी और चीज ने उनके भीतर यह डर पैदा नहीं किया था।
ओमा शर्मा : इसका जो अन्त है वह भी इस चिंगारी के साथ सोच लिया था या यह लिखने के दौरान आया?
शिवमूर्ति : नहीं। अन्त तो अन्त में ही सोचा। ‘तद्भव’ के लिए अखिलेश जी आए दिन तगादा करते थे। पहले यह और आगे जाने वाला था। और अधिक चरित्र थे लेकिन फिर मैंने उसका इरादा छोड़ दिया और एक खास मकाम पर लाकर खत्म कर दिया,
यह सोचकर कि यह जो पियारे है (लड़की का पिता) उसके अन्दर जो आग है उसको अभिव्यक्ति मिले क्योंकि यह थोड़े में बड़ा संदेश होगा…कि अब तक अन्याय सहने और उसका प्रतिरोध न करने के जुर्म की सजा भुगतने जा रहा है।
ओमा शर्मा : लेकिन उपन्यास में पियारे का जो चरित्र निरूपित हुआ है, यह उसके अनुरूप नहीं है।
शिवमूर्ति : ऐसा नहीं है। चरित्र भी तो बदलते हैं। उनमें परिवर्तन होता है। पहले वह उलझना नहीं चाहता था मगर भाईजी और दूसरों की पहल पर वह प्रतिरोध करने के लिए तैयार हो जाता है। उसे अपने लड़के की भी चिन्ता है इसलिए वह खुद जेल चला जाता है।
ओमा शर्मा : वही तो मेरा मत है। बेटे को बचाने की भावना किसी भी सिध्दान्त से बड़ी हो सकती है लेकिन लेखकीय हस्तक्षेप ने उसे वर्ग प्रतिनिधि के सदियों के शोषण के प्रतिकार के रूप में पेश किया है। यह ‘फिसल गए तो हर गंगे’ वाली बात ज्यादा लग रही है।
शिवमूर्ति : दोनों बातें हैं। फिर गांव के जो चरित्र हैं जितना बाहर होते हैं उतने ही भीतर। जितना ऊपर होते हैं, उतना ही नीचे। लेखक हर जगह नहीं पहुंच पाता है। कुछ अनकही छोड़ देना रचना के भी हित में होता है और पाठक को भी स्पेस देता है।
ओमा शर्मा : पाठक को आपने स्पेस कहां दिया है? पियारे अपने बेटे को बचाने की खातिर हिरासत में जा रहा है यह लेखक ने एक सम्भावना के तौर पर भी खुला नहीं छोड़ा है। वह तो खुले तौर पर उसकी जाति पर सदियों से किए शोषण और उसका प्रतिकार न करने के प्रायश्चित के बतौर जा रहा है…
शिवमूर्ति : आप यह क्यों नहीं सोचते की यह उद्देश्य अपने व्यक्तिगत हित को बचाने के उद्देश्य से बड़ा है। इससे उसका कद लार्जर दैन लाइफ हो गया है।
ओमा शर्मा : ‘तर्पण’ की एक अच्छी बात यह भी है यहां आपके चरित्रों में अतिरेक नहीं है। जैसे निम्न जाति के लोग मुसलमान के घर की चाय पीते समय वर्गीय शंकाओं से घिरे रहते हैं यानी वे स्वंय एक किस्म के जातिवाद में फंसे हैं। भाईजी भी किसी आदर्श की मूर्ति नहीं हैं, नेता के तौर पर वह बेदाग नहीं हैं। या स्वंय रजपतिया कोई दूध की धुली नहीं है…
शिवमूर्ति : वे पूरी कामियों के साथ है। बल्कि जो शोषित हैं वे भी अपने पैंतरों के साथ हैं। वास्तव में रेप हुआ है या नहीं , इससे उनकी स्वत्व की लड़ाई पर फर्क नहीं पड़ता है। रेप का इल्जाम झूठा सही मगर उसे करने का प्रयास तो सच्चा है।
ओमा शर्मा : मुझे सबसे दिलचस्प चरित्र लवंगी लगी। उसने जैसे जाति के प्रश्न को फिजूल कर दिया है। वह निम्न वर्ग से है लेकिन उनके गुट में शामिल नहीं है। उसके लिए रोटी का प्रश्न ज्यादा अहम है।
शिवमूर्ति : ऐसे चरित्र होते हैं। स्त्रियां होती हैं। खेत से मटर उखाड़ते पकड़ने जाने पर जो कह देंगी कि तो क्या हो गया, तुम्हारे पास था, हमारे पास नहीं था तो ले लिया। कौन सा पहाड़ टूट गया। क्या हम इसी गांव के नहीं हैं,हम इन्सान नहीं हैं? हमारे पेट नहीं हैं। उपन्यास में कुछ लड़के कहते भी हैं कि हमारे हिस्से का खेत कहां गया, हम भी तो इसी गांव के हैं। ऐसे अकाट्य तर्क। यह नए सोच का प्रस्थान बिन्दु है कि जिनके पास नहीं है वे कहें कि अब हमारे पास भी होना चाहिए।
ओमा शर्मा : दलित लेखकों की इस पर क्या प्रतिक्रिया थी?
शिवमूर्ति : उनकी कोई खास प्रतिक्रिया नहीं थी। हम उनके संपर्क में भी ज्यादा नहीं रहते हैं। लेकिन शायद ओमप्रकाश वालमीकि इस पर लिख रहे हैं।
ओमा शर्मा : यह उपन्यास दलित लेखकों के तयशुदा विद्रोही रूप से अलग है। यहां विद्रोह का तेवर भी सटल है।
शिवमूर्ति : असल में दलित लेखकों की रचनाएं भुक्तभोगी की हैसियत से ही लिखी जा रही हैं। अपने निजी दुख-दर्द से ऊपर उठकर, वृहत्तर समाज के बारे में जब कुछ लिखा जाये तभी रचना बनती है। हो सकता है आगे ऐसा हो।
ओमा शर्मा : क्या कोई कृति – कला के स्तर पर – अपने सामाजिक मंतव्यों पर खरा उतर सकती है?
शिवमूर्ति : मतलब?
ओमा शर्मा : जैसे जो शोषण रेखांकित किया गया है, वह न हो…
शिवमूर्ति : समाज में परिवर्तन एक दिन में नहीं आता है। दो पीढ़ी पूर्व तक किसी दलित स्त्री को यह उम्मीद भी न होगी कि वह किसी उच्च जाति के बर्तन छू लेगी। आज शहरों में उच्च समाज में ऐसी महिलाएं मिल जाएंगी जो उन्हें अपने घर खाना खिला देती हैं। साहित्य मनोदशा परिवर्तन में तो मदद करता ही है चाहे उसका प्रतिशत नगण्य हो। जैसा मैंने अन्यत्र कहा भी है कि साहित्य एक कल्चर की भूमिका निभाता है। यह लोगों की मानसिकता में धीमे-धीमे परिवर्तन लाएगा।
ओमा शर्मा : परिवर्तन तो तब लाएगा जब सम्बध्द लोग साहित्य को पढ़ेंगे?
शिवमूर्ति : तभी तो हमारे देश में कई सदियां एक साथ चल रहीं है। बैलगाड़ी, रेलगाड़ी और जैट सब एक साथ हैं। लेकिन सौ बरस पहले तक इसी जमीन पर लोगों को दीवारों में चुन दिया जाता था, खम्बों से बांधकर पीटा जाता था। आज वह सब तो नहीं होता है। शोषण-अत्याचार में कितना फर्क आ गया है। अब वैसी स्थितियां नहीं है।
ओमा शर्मा : वैसी स्थितियां नहीं हैं लेकिन उनके बदलनें में साहित्य की कोई भूमिका रही है?
शिवमूर्ति : मैं सोचता हूं कि दूसरी चीजों के साथ इसमें साहित्य की भी थोड़ी-बहुत भूमिका रही होगी। सन 1934 में गांधीजी ने कहा था कि जमींदारी प्रथा तोड़ने की बात हुई तो मैं पहला आदमी हूंगा जो उनके(जमींदारों) पक्ष में लडूंगा। लेकिन सन 1952 में जमींदारी को कानूनन हटा दिया गया। तो, परिवर्तन आता है। 18 साल में ही कितना बदल गया? मृत्यु बड़ी साम्यवादी चीज होती है। यह बहुत कुछ बराबर करती चलती है। संकीर्ण, पिछड़े और कट्टर लोगों के चले जाने के बाद जो नये लोग आते हैं, शायद उतने संकीर्ण, पिछड़े और कट्टर नहीं होते हैं। शिक्षा और सामाजिक वातावरण में सुधार होने से जड़ताएं और पिघलती हैं। इनमें दूसरी चीजों के अलावा साहित्य की भी भूमिका है। जितनी उसकी व्याप्ति है उतनी उसकी भूमिका होती है। आप उसकी व्याप्ति बढ़ा दीजिए तो भूमिका अपने आप बढ़ जाएगी।
ओमा शर्मा : व्याप्ति कैसे बढ़ेगी?
शिवमूर्ति : कोर्स की किताबों में सुधार लाकर। महाराणा प्रताप को हमारे यहां पढ़ाया जाता है। कुल जमा डेढ़ घंटे की लड़ाई हुई थी हल्दी-घाटी की। उसमें भील उसका सेनापति था। कोई उस भील सेनापति के बारे में जानता है? जो सकारात्मक चीजें हैं, पीछे छूटी रह जाती हैं। फैजाबाद में एक मंदिर है जिसके ट्रस्टी मुसलमान हैं। इसे कोई नहीं कहना चाहता है। कितनी रामलीलाओं में मुस्लिम भाग लेते हैं, आर्थिक सहयोग करते हैं, वह सब कहीं शुमार में ही नहीं आता है। कबीर को पैदा करने का श्रेय आप विधवा ब्राहमणी के गर्भ को देते रहेंगे तो क्या होगा…?
ओमा शर्मा : ‘आखिरी छलांग’ की बात करते हैं जो आपका अन्तिम उपन्यास है। ऐसा लगता है कि विषय के स्तर पर आपके दिल के करीब की रचना है लेकिन ट्रीटमेंट के स्तर पर यह उतना कम्पैक्ट नहीं हो सका है?
शिवमूर्ति : मैं मानता हूं यह जितना बड़ा विषय है उसका उस तरह से निर्वाह नहीं हो पाया है। यह सन 2008 में ‘नया ज्ञानोदय’ में प्रकाशित हुआ था। मैं अभी इस पर काम करना चाहता हूं। पता नहीं कैसा बनेगा। बनेगा भी या नहीं, पता नहीं। इसीलिए मैंने इसे पुस्तकाकार आने से रोका हुआ है।
ओमा शर्मा : जिस तरह उपन्यास की शुरूआत होती है, कैसे कभी पहलवान रहा वह नायक एक किसान के तौर पर अपने जीवन की लड़ाइयां हारता जा रहा है, बहुत अच्छे ढंग से आया है लेकिन अन्त में जाकर कुछ फिस्स सा हो जाता है।
शिवमूर्ति : दरअसल मुख्य कहानी तो पांडे बाबा की है जिन्होंने आत्महत्या कर ली है। आत्महत्या क्यों की उन्होंने? क्यों नहीं वे उधारी उतार सके? इन प्रश्नों से ही मैं मुठभेड़ करने में लगा हूं। देखिए, क्या होता है।
ओमा शर्मा : उपन्यास में आपने बड़ी तार्किकता से एक बात कही है कि जो कृषि उत्पाद है उनके लिए सरकार न्यूनतम मूल्य रखती है (एम एस पी –MSP- यानी मिनिमम सपोर्ट प्राइम) जबकि औधोगिक उत्पादों के लिए एम आर पी-MRP- यानी अधिकतम खुदरा मूल्य होता है। तर्क के रूप में यह किसी पाठक को प्रभावित कर सकता है लेकिन अवधारणा के स्तर पर इनके जो अर्थ हैं उसे आपने अनर्थ कर दिया है।
शिवमूर्ति : ऐसा नहीं है। आप बताए कि अनर्थ कैसे किया है फिर हम बताएंगे कि अर्थ क्या है।
ओमा शर्मा : जब हम किसी वस्तु का मिनीमम प्राइस यानी न्यूनतम कीमत रखते हैं तो इसका अभिप्राय यह है कि बाजार की शक्तियों के कारण यदि उस वस्तु की कीमत नीचे गिरती है तो यह वह कीमत होगी जिस पर सरकार उसे उत्पादक से खरीद लेगी। उधर ,दूसरी वस्तुओं की सरकार एम आर पी कर रही है तो इसका अभिप्राय है कि यदि उस वस्तु की कीमत बाजार की शक्तियों द्वारा ऊपर जाती है तब भी वह इस बिन्दु से ज्यादा नहीं होगी।
शिवमूर्ति : बहुत भोला तर्क है यह (थोड़ा हंसकर)। एम आर पी पर बिकने वाली वस्तुओं की लागत में उत्पादक उसके उत्पादन में लगी चीजों और मुनाफे के अलावा उसकी ढुलाई, स्टोरेज तथा डिस्कार्ड करने की लागत भी शामिल कर लेता है। जबकि मिनीमम सपोर्ट प्राइस क्या है? मान लीजिए सरकार गेहूं की सपोर्ट प्राइस 1000 रूपया कुंतल तय करती है। बैसाख बीत जाएगा और कोई वहां कांटा नहीं लगेगा। लगेगा तो बाट नहीं आएगा। आ गया तो कहा जाएगा कि बोरा लेकर आओ। बोरा आ गया तो कहेगा फटा है। वह भी ठीक हो गया तो कहेगा गेहूं में नमी ज्यादा है। वह सब भी हो गया तो भुगतान बाद में करेगा। जबकि उसी सरकारी खरीद केंद्र के बगल में बनिया बैठा है जो कहेगा कि 800 रुपये में बेचना है तो ये पकड़ो नकद। किसान वही करता है जबकि सरकारी केंद्र के व्यापारी को वह बनिया मिली-भगत के चलते अभी 900 रुपये में बेच देता है। दोनों ने 100-100 रुपए अलग से बना लिए।
ओमा शर्मा : यह दूसरा विषय है, बाजार की अपूर्णताओं का…
शिवमूर्ति : आगे सुनिए । दुनिया में कोई ऐसा व्यापार नहीं है जो घाटे में किया जाए। केवल किसान ही लागत मूल्य से कम पर अपना उत्पाद बेचने के लिए मजबूर किया जाता है। स्वामीनाथन कमेटी ने अपनी रिपोर्ट (2008) में साफ कहा है कि किसानों को होने वाली लागत के हिसाब से ही उनके उत्पादों की सपोर्ट कीमत तय होनी चाहिए। वह अभी तक लागू नहीं हुई है।
ओमा शर्मा : मैं इधर-उधर की बात नहीं कर रहा हूं। आपको पता है कि कृषि उत्पादों की सपोर्ट कीमत को पहले एग्रीकल्चर प्राइम कमीशन (APC) तय करता था। अब उस कमीशन का नाम कमीशन फॉर एग्रीकल्चर कॉस्ट एण्ड प्राइस (CACP) है। यानी लागत के मद्देनजर सपोर्ट कीमत तय करने की सिफारिशें करने वाला आयोग। दुर्भाग्य से हमारे यहां जो लॉबीज काम करती हैं वे कभी उसे कायदे से काम नहीं करने देती हैं। कृषि मौसम से होती है। उत्पादन एक साथ होता है। फसल के समय आपूर्ति अधिक होने के कारण, बाजार टूटता है इसलिए सरकार ने सपोर्ट कीमत तय करना शुरू किया। यानी वह कीमत जिस पर किसान सरकारी संस्थाओं को बेच सकेगा। हमारे समाज में पसरी अपूर्णताओं को आप इस अवधारणा के साथ नहीं जोड़ सकते हैं।यह ठीक नहीं है।
शिवमूर्ति : देखिए। कौन सी लागत की वह कमीशन बात करता है। सिंचित क्षेत्र में लागत अलग है और असंचित में अलग। ट्यूब्बैल की अलग है, नहर की अलग। मैं मानता हूं कि आप ये कहते हैं कि यह नहीं हो सकता है। चलिए। लेकिन तीन साल पहले मजदूर सौ रुपये में मिलता था, आज डेढ़ सौ मिलता है तो आप डेढ़ सौ की लागत लेकर सपोर्ट कीमत तय करेंगे या सौ रुपए की। सरकारी कर्मचारियों को आप महंगाई भत्ता देते हैं कि नहीं। उसकी कोई लागत भी नहीं होती है। यहां तो अपनी लागत है सौ रुपए और सपोर्ट मूल्य देते हैं पचास रुपए। वह निरंतर घाटे में नहीं जाएगा? मैं खेती से जुड़ा हुआ हूं। अपने अनुभव से कह रहा हूं कि आप उसके बीज, खाद, निराई, बुआई, कटाई, सफाई का खर्चा तो निकालिए। आप पाएंगे कि उसकी लागत भी नहीं पूरी हो रही है। उधर उद्योगों में क्या हो रहा है? पहले कर्जा लेने के लिए मशीनों की कीमतें बढ़ाइए, धन्धा फेल हो जाए यानी जब उद्योग बीमार घोषित कर दिया जाये तो बी आई एफ आर(BIFR) में चले जाइए जहां उसे सरकार अपनी निगरानी में ले लेती है। 100 रुपया है तो आप कम से कम 110 रुपया तो मिनीमम सपोर्ट मूल्य दोगे। उसे 10 रुपये का लाभ तो मिले। आप रख देते है 90 रुपए। यानी पहले से ही उसको घाटा तय है।
ओमा शर्मा : मैं आपकी इस बात से सहमत हूं कि किसानी एक घाटे का सौदा होकर रह गयी है। वह जीवन जितना मुश्किल है, उसमें जितना श्रम जाता है, उसका मुआवजा नहीं मिलता है लेकिन रचना में MSP और MRP को आपने जिस तरह तर्कों में लिया है उसके मुताबिक तो तीन संख्याओं के लघुत्तम समापावर्त्य को छोटा होना चाहिए और महत्तम-]समापवर्त्य को बड़ा।
शिवमूर्ति : हमारे कहने का मतलब है कि वह मिनिमम किस काम का जो उसको घाटे में रहने को मजबूर करे?
ओमा शर्मा : वह मिनीमम वह नहीं है जिसे आप सोच रहे हैं। आप सोच रहे है कि मिनीमम मूल्य कम से कम लागत जितना तो हो – जो नितांत ठीक मगर दूसरी बात है। मिनीमम सपोर्ट मूल्य का अर्थ यह नहीं कि उसे न्यूनतम दिया जा रहा है ! मिनीमम का अर्थ…
शिवमूर्ति: अर्थ चाहे जो हो, किसान को उसकी लागत जितना मूल्य तो मिलना चाहिए। अंधेर तो ये भी है कि सरकार जो कीमत तय करती है, जैसे गन्ने की, चीनी मिलों ने वह भी चार साल से रोक रखा है। किसान कोर्ट-कचहरी करता रहे अपने हक के लिए? उसके पास है क्या? जबकि मिलवाले हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट चले जाएंगे। उनके पास वकील हैं।
ओमा शर्मा: यह सही बात है। लेकिन हमारे किसान कुछ हद तक स्वंय उनके जाल में फंसते हैं। मेरे गांव के पास कुछ बरसों पहले एक चीनी मिल लगी। हमारे यहां की खेती बड़ी उपजाऊ है। सारे खाद्दान्न, दालें खू्ब होते हैं। सिंचाई की सुविधा के चलते तीन फसलें ले ली जाती हैं मगर अब पूरा फसल-चक्र बदल गया है। जिधर देखो उधर ईख खड़ी दिखती है जबकि गांव से कोल्हू गायब है। गन्ना काटने के हफ्तों तक मिल में भेजने का नम्बर नहीं आता है। लेकिन फिर भी चारों तरफ गन्ना दिखता है …इसलिए कि एक बार बो देने के बाद आप तीन साल को निधरक!
शिवमूर्ति: सुनिए, क्या कहते हैं मिल मालिक। वे सरकार को कहते हैं कि हमारी माली हालत ठीक नहीं है, हमारी बेलेंस-शीट देख लीजिए। वे कहते हैं कि उस तयशुदा मूल्य पर वे गन्ना ले तो लेंगे लेकिन उसका भुगतान नहीं कर पाएंगे। सरकार ज्यादा कुछ कहेगी तो वे कोर्ट चले जाएंगे। कोर्ट कहेगा कि आप डेढ़ सौ नहीं तो सौ रुपया दे दीजिए। उससे ऊपर की कोर्ट से वे और कम करा लेंगे। यह कमजोर और मजबूत आदमी की लड़ाई है। ये जंगल में शेर और हिरण की सी स्थिति है। सरकार को चिंता है कि शेर की तादाद कम न हो जाए। हिरणों की भी कोई गिनती होती है? शेरों की तरह चीनी मिल तो दो चार सौ हैं, हिरणों की तरह किसानों की कोई गिनती ही नहीं है? कुछ हिरण मर भी जाएं तो क्या फर्क पड़ता है। मिल बंद हो गयी तो देश की नाक कट जाएगी!
ओमा शर्मा : यह एक राज्य विशेष की स्थिति ज्यादा है। खास संस्कृति की उपज। महाराष्ट्र में खूब गन्ना होता है, यहां के किसानों की भी अपनी समस्याएं हैं। कर्जे के कारण आत्महत्या तक यहां होती हैं लेकिन ऐसा नहीं हुआ कि बिकी फसल की वसूली के लिए किसान हैरान-परेशान हो रहा है।
शिवमूर्ति : मैं तो जहां रहता हूं – उत्तर प्रदेश में – जो देख रहा हूं वही कह रहा हूं। किसान का गला रेतने के लिए कितने लोग बैठे हैं।
ओमा शर्मा : सेज (SEZ) और जमीन अधिग्रहण ने भी गांव-देहात में अपनी जटिलताएं पैदा कर दी हैं।
शिवमूर्ति : सेज में वही सुविधाएं होती हैं जो बंदरगाह पर होती हैं। वे इसे कहते हैं ड्राइपोर्ट। क्या फंतासी है? एक तरह का स्वर्ग है। वहाँ कोई कर लगता नहीं है , पूरी आजादी है। और जिनकी जमीन लेकर आपने सेज बनाया है वह मर रहा है। यह असमानता कितने दिन चलेगी। यह अंधेर कै दिन चलेगी? आजादी का मजा लेने वाले कहते हैं… जै दिन चलै तै दिन खाब, नाहि अपने घरे जाब । अब ईस्ट इंडिया कम्पनी तो अंधेर करके चली गयी। आपका घर तो यहां है। एक दिन आएगा जब आपको जवाब देना पड़ेगा।
ओमा शर्मा : किसानों की यह दुर्दशा केवल व्यवस्था जनित है या कुछ और भी है?
शिवमूर्ति : हमारे अंदर अभी सामंतवाद बचा है। हमारे पंडित साब और ठाकुर साब को हल की मूठ पकड़ना वर्जित है। वे रोटी खांएगे, पैदा नहीं करेंगे। सब खेत छोड़-छोड़कर भाग रहे हैं। पचास बीघे वाले घरों के बच्चे शहरों में घरेलू नौकरों की तरह काम कर रहे हैं। जमीन अधिया दे दिया है। यह भी पतन का कारण है। सोशल टैबूज भी बड़ा कारण है। जहां थोड़ी चेतना आ गयी है वहां हालात बेहतर हैं।
ओमा शर्मा : आप शुरू से ही खुद को एक किसानों के साथ जोड़कर देखते हैं जबकि आपने लम्बा अरसा शहरों में काटा है। आपके रहन-सहन में किसानों की कोई तकलीफ नहीं है। आप कार में चलते हैं। हवाई जहाज से यात्रा करते हैं। क्या हम आपको यह छूट दें कि बावजूद इसके मानसिक रूप से आप किसान हैं?
शिवमूर्ति : मूलरूप से मैं किसान ही हूं। यह सच है कि आज मेरे पास सुख-सुविधाएं हो गयी हैं लेकिन मैं नाभिनाल किसानी से जुडा़ हूं। अपने जीवन के शुरूआती महत्वपूर्ण समय – समझ लीजिए कि चौबीस बरस की उम्र तक – मैंने खेती-बारी का काम खुद किया है।मेरे हल-बैल आज भी बरकरार हैं। मेरे दिमाग में उसकी स्पष्ट छाप आज भी मौजूद है। इसलिए मुझे लगता है कि जो लोग कष्ट में हैं, अन्याय झेल रहे हैं उनकी बात को मैं साहित्य में लाऊं।
ओमा शर्मा : ‘आखिरी छलांग’ का गांव कोई बहुत पिछड़ा हुआ तो नहीं है। ट्रैक्टर-ट्यूबबैल हैं, वहां जज-डॉक्टर-प्रोफेसर हैं… इससे बदतर भी हालात हैं।
शिवमूर्ति : वही तो। जब ऐसे गांव की यह हालत है कि नहर कटने पर झूठे मुकदमे को खारिज कराने के लिए वे असहाय घूम रहे हैं तो सोचिए जहां ज्यादा पिछड़ापन है वहां क्या हालत होगी?
ओमा शर्मा : कहीं इसकी एक वजह यह तो नहीं कि आपका बचपन बहुत कष्टपूर्ण रहा जो आपके मानस पटल पर गहरे खुद गया है इसलिए आप उसके साथ गहरा जुड़ाव महसूस करते हैं?
शिवमूर्ति : कष्टपूर्ण के बजाय वह संघर्षपूर्ण ज्यादा रहा है। बहुत तरह का काम-धाम करना पड़ा। कच्ची उम्र में किसान जीवन का जंजाल झेलना पड़ा था। मगर भूखे रहने की नौबत कभी नहीं आयी। और आज भी देखता हूं कि कितने लोग उसी तरह के संघर्ष में लगे हैं। दिन-रात मेहनत के बावजूद उन्हें तन ढंकने को बित्ते भर कपड़ा नसीब नहीं। सारी दुनिया का नक्शा बदल गया। किसान वहीं का वहीं है।
ओमा शर्मा : क्या संघर्ष बचा है वहां?थोड़ा सामान्यीकृत करके ही कह रहा हूं कि…आज अधिकांश खेती ट्रैक्टर-क्रैशर से होती है। गाय-बैल आप रखते नहीं है। फसल के नाम पर ईख बो कर तीन साल खरहरी खाट पर सोते हैं…
शिवमूर्ति : और डीजल का दाम जो साल में चार दफा बढ़ता है वे उसकी अदायगी कैसे करेंगे? अपनी फसल का पैसा उसे चार साल बाद मिलता है, वह कैसे रोटी खाएगा? सब कुछ वैसा भी नहीं है जैसा आप सोचे जा रहे हैं…
ओमा शर्मा : आपके कहानी-उपन्यासों से हटकर कुछ बातें आपसे करना चाहता हूं। जैसे निर्मलजी ने एक बात अपनी डायरी में लिखी है कि मेरी ये इच्छा है कि मेरे लिखे और जीने के बीच की खाई मिट जाये। उनका तात्पर्य था कि लेखन में तो हम प्रगतिशील मूल्य और आदर्श खूब रचते हैं, मगर जीवन को अपनी सुविधा से ही जीते हैं, मानों दोनों का एक दूसरे से कोई वास्ता ही न हो। आप कुछ ऐसी इच्छा रखते हैं?
शिवमूर्ति : ये खाई जितनी कम कर सकें उतना ही अच्छा है। जैसे मैं किसी धार्मिक कर्मकांड में यकीन नहीं रखता हूं और अपने लेखन में ऐसा करता हूं। मेरे घर में काम करने वाले लड़कों में मुसलमान भी रहे, दलित भी रहे, ब्राहमण भी रहे। मेरे भीतर किसी के धर्म या जाति को लेकर कोई गांठ नहीं है। मैं किसी पूजा-स्थल पर नहीं जाता। ज्योतिष में नहीं पड़ता। अब रही बात ये कि मैं वैसा जीवन क्यों नहीं जीता जिसके बारे में लिखता हूं तो उसका जवाब यही है कि मैंने वह सब बरसों देखा-जीया है। सौभाग्य से मुझे अच्छी नौकरी मिल गयी तो मैं वहां से निकल आया। लेकिन मेरे सहपाठी, नाते-रिश्तेदार सभी तो वहीं हैं। व्यक्तिगत रूप से मेरी माली हालत ठीक हो गयी तो मैं उनसे मुंह मोड़ लूं, यह मैंने नहीं किया। अपने देश के लोगों की हालत देखकर गांधीजी ने सिर्फ एक धोती पहननी शुरू की थी। मैं उस स्तर तक नहीं जा सका लेकिन अपने समाज के लोगों के कष्ट के साथ साझा महसूस करता हूं। मैं निर्मलजी की बात से सहमत हूं।
ओमा शर्मा : सहमत तो सभी होते हैं, बस उनके क्रियान्वचन में उन चीजों में नहीं उतरते।
शिवमूर्ति : नहीं। हमारे साथ ऐसा नहीं है।
ओमा शर्मा : आपने कहा कि आप ईश्वर को नहीं मानते हैं। लेकिन जिन किसानों के साथ आप खुद को महसूस करते हैं उन लोगों के लिए तो ईश्वर को मानना वैसा ही है जैसे अपनी खेती को मानना, रोटी को मानना…।
शिवमूर्ति : यह मेरी व्यक्तिगत सोच है। ईश्वर होता तो दुनिया में इतना अन्याय हो रहा है तो कभी तो वह उसके खिलाफ आकर खड़ा होता और आतताइयों को हटाकर भगा देता? आदमी उम्मीद करता है कि मुसीबत के समय भगवान आवें। लेकिन वह कभी नहीं आता है क्योंकि वह है ही नहीं। वह तो मनुष्य की ईजाद की हुई अवधारणा है। मैं पुनर्जन्म को भी नहीं मानता। वह मुझे लस्ट का ही विस्तार लगता है।
ओमा शर्मा : आप मार्क्सवाद में यकीन रखते हैं?
शिवमूर्ति : मार्क्सवाद में ही नहीं, आदमी के दुख और अन्याय को दूर करने वाले हर दर्शन में मेरा यकीन है।
ओमा शर्मा : आपकी कहानियों में वामपंथी मिजाज दिखता है।
शिवमूर्ति : मेरी कहानियां चूंकि आर्थिक मुद्दों के आसपास होती है तो वामपंथ दिखेगा ही। आर्थिक असमानताओं को दूर करने के लिए वामपंथ काफी हद तक कारगर है।
ओमा शर्मा : लेकिन हमारे यहां वामपंथ ने जो खिचड़ी पकाई है, सत्ताधारियों द्वारा अपनाए सारे छ्ल-प्रपंच से जिस तरह वे खुद गुजरे हैं उस पर आप क्या कहेंगे?
शिवमूर्ति : यह दुर्भाग्यपूर्ण है। आदमी की संकीर्णता और स्वार्थ ने मार्क्सवाद की मूल संकल्पना का मटियामेट कर दिया है। देखिए प्रजातन्त्र से बेहतर शासन प्रणाली आदमी अभी तक इवोल्व नहीं कर पाया है। उसी तरह मार्क्सवाद से ज्यादा समता मूलक वैचारिकी का विकल्प हमें नहीं मिला है। पाँच सौ साल पहले ये दोनों ही दुनिया में नहीं थे। दुनिया को आगे और पीछे खींचने की शक्तियां एक साथ कार्यरत रहती हैं। हम उम्मीद करते हैं कि आगे कोई शासन-प्रणाली ऐसी आए जो प्रजातन्त्र की खामियों को दूर करके, मार्क्सवाद की कमियों को दूर करे, मार्क्सवाद के क्रियान्वयन की कमियों पर नियंत्रण की विधि विकसित हो।
ओमा शर्मा : यह उम्मीद है या स्वप्न?
शिवमूर्ति : स्वप्न कह लीजिए। लेकिन मैं इसे उम्मीद ही कहूंगा। नया कुछ न कुछ निकलता रहता है। आगे नहीं निकलेगा ऐसा कोई कैसे सोच सकता है?
ओमा शर्मा : एक लेखक के तौर पर क्या ऐसा नहीं लगता है कि आपका काम समाज में जो कुछ हो रहा है उसे कलागत ढंग से दर्ज करना है। जबकि आप तो अपनी कलम सिर्फ अपने जीवन के अनुभवों से या उसके पास के अनुभवों तक ही चलाकर रह जाते हैं। ऐसा क्यों?
शिवमूर्ति : ऐसा इसलिए कि जीवन में आपको प्राथमिकताएं तय करनी पड़ती हैं। क्या ज्यादा मौजूं है, जरूरी है। मुझे लगता है कि जिस जीवन में अन्याय है, असमानता है, शोषण है उसके बारे में लिखा जाना ज्यादा जरूरी है बजाय किसी दूसरी चीज के।
ओमा शर्मा : इसका मतलब है आपने अपनी कला को पहले से ही सीमित कर दिया।
शिवमूर्ति : मुझे लाइट चीजों पर लिखना व्यर्थ लगता है।
ओमा शर्मा : व्यर्थ कैसे है?
शिवमूर्ति : जिस आदमी को नौकरी मिल गयी, उसके बारे में क्या लिखा जाए। मुझे तो लोगों के संघर्ष और संत्रास पर लिखना सार्थक लगता है।
ओमा शर्मा : आपके मुताबिक मानसिक व्याधियां तो होती ही नहीं होंगी?
शिवमूर्ति : ऐसा नहीं हैं।लेकिन खाए-अघाए पेट का तनाव भूखे पेट के तनाव से अलग होता है। खा-खाकर भी लोग बीमार होते हैं और कुपोषण की वजह से भी। एक डॉक्टर को यदि किसी एक को ही अटैण्ड करने का समय है तो मैं कुपोषण से पीड़ित व्यक्ति को तवज्जो दूंगा।
ओमा शर्मा : उसको तवज्जो दीजिए लेकिन जब कुपोषण वाले को देख लिया तब तो दूसरे वाले की तरफ रुख कीजिए।
शिवमूर्ति : मुझे जिनके बारे में जितना लिखना है उसका तो अभी पासंग भी नहीं लिखा है। इस जीवन में सब कुछ कह पाउंगा यह भी नहीं कह सकता हूं। फिर दूसरी चीजों को लिखने की कैसे सोच सकता हूं।
ओमा शर्मा : जिस युग में हम रह रहे हैं उसकी ज्यादातर तब्दीलियां ग्रामीण क्षेत्र के बाहर हैं। बदलाव तो सब तरफ हुए हैं लेकिन उनका कुरुक्षेत्र गांव नहीं महानगर है। ग्रामीण क्षेत्र में तकनीकी परिवर्तन हुए हैं उनके सामाजिक परिणाम भी रहे हैं लेकिन जो दूसरा क्षेत्र है वहां संबंधों की उलटबांसी हो गयी हैं। क्या यह आपको लेखन के लिए नहीं उकसाता है?
शिवमूर्ति : मुझे इसमें यही उकसाने वाली चीज लगती है कि ग्रामीण क्षेत्र में परिवर्तन इतना कम क्यों हो रहा है। वहां बिजली नहीं जा पा रहीं है। शिक्षा चौपट हो रही है। स्वास्थ सेवाएं नहीं हैं। ये कैसा बटवारा है, मेरी यही चिन्ता रहती है।
ओमा शर्मा : कहीं ऐसा तो नहीं कि गांव-देहात ही वह इलाका है जहां आपको अपनी कला पर यकीन रहता है जबकि महानगर की जटिलताओं को दक्षता से पकड़ने में शंका रहती है।
शिवमूर्ति : जब हम उस तरफ जाना ही व्यर्थ समझते है तो शंका करने का प्रश्न कहां रहता है?
ओमा शर्मा : यह तो आपकी लेखकीय गांठ है। कोई कहे कि दाल खाना सबसे अच्छा होता है। बाकी सब व्यर्थ। लेखक यह तय कर ले कि फंला विषय सबसे उत्तम है…
शिवमूर्ति : लेखन केवल मनोरंजन नहीं है। उसकी सार्थकता होनी चाहिए।
ओमा शर्मा : जो महानगर पर लिख रहे हैं वह सार्थक नहीं है?
शिवमूर्ति : जो वहां हैं उसे देख रहे हैं और उस पर लिख रहे हैं वो ठीक है लेकिन मैं अपने को गांव को देखता हूं इसलिए उस पर लिखने को ही सार्थक मानता हूं।
ओमा शर्मा : यह लेखकीय चयन तो आपका है कि आप किस पर लिखते हैं और किस पर नहीं मगर जिस पर नहीं लिखते उसे व्यर्थ मानना…मैं इस बात पर हूं…
शिवमूर्ति : मेरे लिए यह व्यर्थ है। सबके लिए मैं थोड़े कह रहा हूं। मेरे लिए गांव की समस्या अव्वल दर्जे की है। जिन्हें शहर की समस्याएं अव्वल लगती हैं, वे उस पर लिखें। एक ही लेखक सब विषयों पर कैसे लिख सकता है? आपने अभी बच्चे को लेकर जो कहानी लिखी है, मुझे बहुत अच्छी लगी थी, वह अपने समय की व्यापक समस्या पर अव्वल दर्जे की कहानी है…
ओमा शर्मा : मेरी बात छोड़िए ।
शिवमूर्ति : वह तो मैंने संयोग से जिक्र किया। दूसरे उदाहरण भी दिए जा सकते हैं।
ओमा शर्मा : गैर-ग्रामीण विषयों के व्यर्थ होने वाली बात…
शिवमूर्ति : मैं उसे व्यर्थ न कहकर अपने लिए प्राथमिकता में कम महत्वपूर्ण मानता हूं।
ओमा शर्मा : अपनी कला के विस्तार के लिए भी आप उधर नहीं जाएंगे? कोई लेखक खास क्षेत्र या वातावरण की कहानियां लिखने की गुलामी क्यों करे?
शिवमूर्ति : गुलामी नहीं है। कन्विक्शन है। मुझे लगता है कि उनकी जो समस्याएं हैं उन पर अभी बहुत कुछ लिखना बाकी है। मेरे भीतर उनके बारे में जो है उसका दसमांश भी तो नहीं लिख पाया हूं। मैं अपनी क्षमता और रफ्तार जानता हूं इसलिए जो प्राथमिकता में है उसे ही लिखने दीजिए।
ओमा शर्मा : रफ्तार वाली बात पर मैं जानना चाहूंगा कि नौकरी के कारण इस पर कुछ अंकुश या पहरा सा रहा?
शिवमूर्ति : नौकरी की वजह से नहीं कहूंगा। मुझसे ज्यादा व्यस्त होते हुए भी कई लोगों ने कहीं ज्यादा लिखा है। मैं इसे अपना आलस्य ही कहूंगा। मेरी निजी आदत है कि जब तक किसी मसले पर ठीक से चिन्तन न कर लूं उस पर कुछ लिखना शु्रू नहीं कर पाता हूँ। व्यस्तताओं के चलते ऐसा कम मुमकिन हुआ। वैसे आलस्य तो मेरा चिर साथी रहा ही है।
ओमा शर्मा : वह खालिस आलस्य है या फिर कष्टप्रद जीवन से निकलकर सुख-सुविधाओं में रहने के आनन्द की निमग्नता !
शिवमूर्ति : वह भी हो सकता है। लेकिन मैं देखता हूं कि पिछले ढाई साल से तो मैं नौकरी से मुक्त भी हो गया हूं फिर भी मेरे लेखन की रफ्तार नहीं बढ़ी। अब न नौकरी है और न कोई घर-परिवार की समस्या फिर भी कोई फर्क नहीं आया है। कभी-कभी वैसे मुझे लेखन की एब्सर्डिटी भी महसूस होती है…कि ज्यादा लिख भी डालूंगा तो क्या हो जाएगा? इसलिए सोचता हूं वही लिखूं जिसे लिखते हुए मुझे सुख मिले। धीरे-धीरे लिखता हूं तो यह सुख लम्बा चलता है। और लेखन ही क्यों जीवन की हर चीज मैं धीमे धीमे ही करता हूं। एक कप चाय पीने में आधा घंटा लगा लूंगा। खाना सबसे देर से खाकर उठता हूं। एक कहानी का एक ड्राफ्ट करने में तीन महीने लग जाते हैं। मेरे मिजाज में यह धीमापन पता नहीं कहां से आ गया है।
ओमा शर्मा : आपकी रचनाओं के बीच खासा अन्तराल रहा है।
शिवमूर्ति : मुझे तो कभी-कभी यह भी लगता है कि मैं लेखक ही नहीं हूं। कभी लिख दिया तो लिख दिया।गाहे-बगाहे का लेखन भी कोई लेखन है?
ओमा शर्मा : ऐसी आशंकाओं से यह नहीं लगा कि लेखकीय जीवन कगार पर आ चुका है?
शिवमूर्ति : हां, कभी यह भी लगा कि कहीं मैं सृंजय तो नहीं हो गया? फिर सोचने लगता हूं कि नहीं यह मेरे साथ नहीं होगा। मैं लिखूंगा और आखिरी क्षण तक लिखूंगा। भले रफ्तार कम रहे, विट घट जाए, भले गुणवत्ता घट जाए…।
ओमा शर्मा : लेखन के अन्तरालों से निकलने के लिए क्या करते हैं…बजिद कुछ भी लिखना शु्रू करना…
शिवमूर्ति : मुझे ऐसा कुछ भी खोजने की जरूरत नहीं है। आप मेरी कॉपी देख लीजिए…कितनी अधूरी कहानियां आपको मिल जाएंगी। कितने प्लॉट दर्ज मिल जाएंगे। ‘तर्पण’ के विस्तृत नोट्स मैंने सन 1994 में बना लिए थे जबकि लिखा सन 2001 में, वह भी अखिलेश के पीछे पड़ने के कारण। कोई चीज मेरे भीतर चल रही है उस दौरान कुछ व्यवधान आ गया तो हो सकता है उसे लिखने में बरसों लग जाएं या लिखना हो भी न पाए जबकि किसी चीज पर दो दिन सोचने को मिल गए तो वह तुरन्त तैयार हो जाए…
ओमा शर्मा : मन में आयी कोई चीज यदि महत्वपूर्ण है तो व्यवधानों को एक तरफ करके क्यों नहीं उसे अंजाम देते हैं?
शिवमूर्ति : आजकल ऐसा करने लगा हूं। मैं ऊपर अपने कमरे में चला जाता हूं। फोन-वोन नीचे ही छोड़ जाता हूं। वहां चाहे मैं कुछ न करुं, किताब के पन्ने ही पलटता रहूं,…वहीं बना रहने की कोशिश करता हूं…कुछ बर्फ पिघले। चार-छ्ह घंटे बैठकर मैं रफ सा कुछ तैयार कर लेता हूं तो भी मान लेता हूं कि आज का मेरा काम हो गया। कभी-कभी उसमें मेरी रचना की शुरुआत और अन्त तक तय हो जाता है। बीच की चीजें कम-ज्यादा होती रहती हैं। कहानी के भ्रूण का पहला वाक्य बचा रह जाता है। अन्त भी वही रहता है। मेरे नोट्स आत्मसंबोधित होते हैं…कि कहानी क्या होगी, कितने चरित्र होंगे, वह किन बिन्दुओं से गुजरेगी…
ओमा शर्मा : रचने की इस प्रक्रिया में आप किसी सृजन -कला को नतमस्तक रहते हैं या किसी विचारधारा को?
शिवमूर्ति : न कला को और न विचारधारा को। कहानी में क्या होगा, पाठकों तक कैसे पहुंचेगी बस यह चिंता रहती है। विचारधारा रहती है लेकिन प्रच्छन्न।
ओमा शर्मा : और कला?
शिवमूर्ति : कला…कह सकते हैं कि ऐसा क्या करें कि यह पाठकों को बांध ले। जो बात है उसे संप्रेषित करने के लिए परफैक्शन तो जरूरी है।
ओमा शर्मा : एक बार मोटा खाका बन गया, फिर उसे जब अन्तत: लिखने बैठते हैं तो रोजाना कितना लिख पाते हैं?
शिवमूर्ति : कभी दो पेज हो जाते हैं कभी तीन पेज। कभी शुरू का लिखते वक्त आखिरी वाक्य मिल जाता है। कभी कोई बिम्ब मिल जाता है तो उसे भी लिख लेता हूं। उसे लिखकर यह भी उसके नीचे लिख लूंगा कि यह कहां इस्तेमाल होगा। कुछ सिलसिलेवार नहीं होता है। मेरी कॉपी में आगे-पीछे के सन्दर्भ घुसे पड़े मिलेंगे। अलग-अलग समय पर अलग-अलग बिम्ब आते हैं जिन्हें मैं बाद में उठा-उठाकर असेम्बल करता हूं। मैंने अन्यत्र कहा भी है कि मेरे लिए कहानी लिखना कबाड़-खाने से उसके पार्ट्स निकालकर साईकिल कसने जैसा है… गद्दी निकाली, फ्रेम निकाला, रिम निकाला, टायर निकाला और धीरे-धीरे एक-एक को जोड़ते हुए साईकिल कस दी। पता नहीं कुछ लोग, जैसा कहते हैं, एक सिटिंग में कैसे पूरी कहानी लिख लेते हैं? वे शायद जीनियस होते होंगे…।
ओमा शर्मा : चलिए इस तरह जोड़कर कहानी का एक ड्राफ्ट हो गया। अब इस पर फिर काम करेंगे या यही टाइप होने चला जाएगा। जैसे आपकी हालिया कहानी ‘ख्वाजा, ओ मेरे पीर!’ के विन्यास की बात करते हैं।
शिवमूर्ति : मामा-मामी का जीवन तो अरसे से मेरे जेहन में था। सन 2004 में जब मैंने ‘मैं और मेरा समय’ लिखा तब इस पर एक पैरा लिखा था। फिर मैंने सोचा इस पर तो कहानी लिखनी चाहिए। तो मैंने रजिस्टर के एक कौने में शीर्षक लिखा ‘मामी की कहानी’ (देखें परिशिष्ट संख्या दो)। इसे लिखा जाना था मगर कब? अखिलेश मेरे पीछे पड़े हुए थे कि कहानी दीजिए। मैंने कहा दे दूंगा मगर टालता जाता था। अखिलेश इस तरह पीछे पड़ते हैं कि करना ही पड़ता है। हर हफ्ते भी वे आपको याद दिलाने लगेंगे कि कुछ निकला, शुरू किया, क्या हुआ…कि मुझे लिखनी पड़ी। ‘तर्पण’ भी ऐसे ही लिखा गया था।
ओमा शर्मा : हिन्दी साहित्य को अखिलेश का इस अर्थ में आभारी होना चाहिए।
शिवमूर्ति : बिल्कुल। ऐसे ही रवीन्द्र कालियाजी ने मुझसे ‘आखिरी छलांग’ लिखवाया। मेरे रजिस्टर में उसके नोट्स में दर्ज है :एक कहानी कालियाजी के लिए। तब वे ‘वागर्थ’ के संपादक थे। बाद में जब ‘नया ज्ञानोदय’ में आए तो उन्होंने फिर याद दिलाना शुरु कर दिया।
ओमा शर्मा : ‘ख्वाजा…’ की बात ही करते हैं।मामी की कहानी के नाम पर आपने रजिस्टर में एक एन्ट्री डाल दी। यह लम्बी कहानी है। 20 प्रकाशित पेज। यानी हाथ के लिखे तीस पेज तो होंगे। उसका विस्तार कैसे किया?
शिवमूर्ति : कोई पांच महीने लगे। अखिलेश के बार-बार कहने पर मैंने शुरू किया था और रख दिया। उनका फिर फोन आया तो फिर शुरू कर दिया। कई बार उनको झूठ ही कह देता था कि अभी लिख रहा हूं। अगली बार वे पूछते कि कितना लिख लिया तो मैं सोचता अब क्या करूं? कब तक टालूं? इससे तो अच्छा है लिख ही डालूं। 17-18 दिन में ढांचा बनाया और फिर लिखकर कुछ मित्रों को पढ़वाया कि देखो कैसी बनी है। सबकी राय उत्साहवर्धक थी।
ओमा शर्मा : रोज के कितने पेज लिखते थे।
शिवमूर्ति : मैं इसे रोज के हिसाब से न कहकर सिटिंग के हिसाब से कहूंगा। पहले खाके के लिए 5-6 दिन की सिटिंग। दूसरे और तीसरे खाके के लिए भी उतनी। मगर दो सिटिंग्स के बीच महीनों का गैप हो जाता था।
ओमा शर्मा : दुनियादारी के कारण होता था गैप?
शिवमूर्ति : नहीं। हमारे पास कोई ऐसी दुनियादारी नहीं है।
ओमा शर्मा : तो फिर क्या अड़चन आती है?
शिवमूर्ति : उस अड़चन को मैं त्राण के रूप में लेता हूं। भाई ये काम पड़ा है तो मैं कहानी कैसे लिखूंगा ! काम निपटा लूं फिर आराम से लिखूंगा। मन लिखने से भागता रहता है। कभी लिखने की सोचकर बैठूंगा और कोई किताब उठा लूंगा और उसे यह सोचकर पढ़ना शु्रू कर दूंगा कि हो सकता है इसे पढ़ने से मेरे लिखने में मदद मिले। मेरे भीतर पता नहीं कौन शैतान छिपा बैठा है जो कहता है कि बेटा तुम्हें लिखने नहीं देंगे। तुम जो सोच रहे हो कि मरने से पहले 5-6 उपन्यास लिख जाएंगे उसे मैं होने नहीं दूंगा चाहे जितनी कोशिश कर लो।
ओमा शर्मा : आपने एक जगह लिखा है कि हमारा जो यथार्थ है, साहित्य में उसे थोड़ा हल्का करके लाना पड़ता है।
शिवमूर्ति : अगर वैसा ही लाने लगे जैसा यथार्थ है तो वह वीभत्स लगेगा, वल्गर हो जाएगा। उसकी व्यापकता के लिए उसे हल्का करना पड़ता है।
ओमा शर्मा : आपको रची जा रही रचना अहम लगती है या जिस रूप में उसे पाठकों के बीच सराहना मिले वह?
शिवमूर्ति : होना तो यही चाहिए कि जो लिखा जा रहा है अपने उत्स में वही अहम रहे लेकिन कुछ अदृश्य दबाव काम करते हैं…बेटी क्या सोचेगी, बेटा क्या सोचेगा…कि दूसरे लोग क्या सोचेंगे।
ओमा शर्मा : अपनी किसी रचना के संदर्भ में बताइए जब आपने वह लिखने से परहेज किया जो लिखना चाह रहे थे?
शिवमूर्ति : रचना की नहीं अपने जीवन की बाते हैं। कुछ प्रेम संबंध रहे हैं जिनमें देह शामिल थी…उसकी बातों को, उसके संवादों को लिख दूं तो वे साहित्य की निधि बन जाएं। लेकिन नहीं कर पाता हूं। काँख में दबाएं हुए हूं। वह तृप्ति, वह अन्तराल, वह एक दूसरे को देने का भाव, न भूतो न भविष्यति जैसा स्वत:स्फूर्त महसूस करने का जज्बा…वह आत्मगर्व …उसे अभिव्यक्त करने में संकोच होता है।
ओमा शर्मा : यह तो शारीरिकता की बातें हैं जिसे हर व्यक्ति अपनी तरह से अद्वितीय महसूस करता है। उसमें कुछ भी नया नहीं है। डी एच लॉरेंस कब का उसे लिख चुका है। वह तो चालू और लोकप्रिय किस्म के लेखकों का ईलाका है।
शिवमूर्ति : जो एक्ट आपको इतनी भावनात्मक ऊंचाई दे रहा होता है उसे लोकप्रियता में क्यों रिड्यूस कर दे रहें हैं।
ओमा शर्मा : इरोटिक लिटरेचर इसी को कहते हैं। ‘इरोटिका’ विश्वभर के ऐसे सर्वश्रेष्ठ की ही किताब है जो हर वर्ष छपती है। अलग अलग भाषाओं की अंग्रेजी में अनुदित 30-40 कहानियों का संकलन। उसमें क्या कुछ नहीं है?
शिवमूर्ति : मैंने नहीं देखी है। अगर ऐसा है तो ठीक है। मुझे लगा कहीं कुछ छूट न जाये (ठहाका)।
ओमा शर्मा : हमारे हिन्दी के कई लेखक-लेखिकाएं भी तड़के की तरह इसका खूब इस्तेमाल कर ही रहे हैं। कभी लगता है कि पूरी कहानी की कवायद उस खास बिन्दु तक पहुंचने के पराक्रम स्वरूप की गयी है…
शिवमूर्ति : तब मुझे कोई पश्चाताप नहीं है।
ओमा शर्मा : अपने वरिष्ठों में रेणु के अलावा आपके प्रिय लेखक कौन हैं?
शिवमूर्ति : प्रेमचन्द तो हैं ही।
ओमा शर्मा : समकालीनों में?
शिवमूर्ति : चन्द्रकिशोर जायसवाल हैं, संजीव हैं। दोनों के पास कई कहानियां हैं जो मुझे बहुत पसंद है।
ओमा शर्मा : संजीव कहानीकार या उपन्यासकार?
शिवमूर्ति : कहानीकार। चन्द्रकिशोरजी भी।
ओमा शर्मा : उदयप्रकाश?
शिवमूर्ति : उदयप्रकाश की शुरू की कुछ कहानियां मुझे ठीक लगी थीं। उनकी बाद की रचनाओं में क्रीम-पाउडर बढ़ा है। छौंक-बघार बढ़ी है।
ओमा शर्मा : उसके बाद के लेखकों में
शिवमूर्ति : सबकी एकाध कहानी ही ठीक लगी है। मैं नाम भूल जाता हूं।
ओमा शर्मा : नई पीढ़ी आ गयी आ गयी का शोर भी अब ठन्डा पड़ गया लगता है?
शिवमूर्ति : लेखन एक मैराथन दौड़ की तरह है। इसमें जल्दबाजी में कुछ नहीं हो सकता है। यह इन्टरनैटीय पीढ़ी है। पीछे पड़-पड़कर अपनी रचनाएं पढ़वाती है। आप इन्सटेंट सिरका बनाने चले हैं। इंन्सटेंट नूडल्स बन सकता है। सिरका के फर्मेंटेशन में टाइम लगता है।
ओमा शर्मा : निर्मलजी को आपने पढ़ा है?
शिवमूर्ति : हां। बहुत पहले। उनकी ‘परिन्दे’ मुझे आज भी हॉन्ट करती है…कैसे धीमे धीमे पकती है… एक नशा सा बुनती जाती है। फिर ‘लाल टीन की छत’ आदि।
ओमा शर्मा : अपनी पसंद की कहानियों के नाम बताइये।
शिवमूर्ति : रेणु की ‘मारे गए गुलफाम, ‘लाल पान की बेगम’ या फिर एक छोटी कहानी है ‘आजाद परिन्दे’
ओमा शर्मा : ‘आजाद परिन्दे’ तो कोई बड़े फलक की कहानी नहीं है ?
शिवमूर्ति : बड़े फलक की नहीं है लेकिन जो चीज है उसे उन्होंने कैसे खेल-खेल में कह दिया, वह अच्छा लगा। चलिए ‘आजाद परिन्दे’ की जगह ‘अच्छे आदमी’ को ले लीजिए।
ओमा शर्मा : रेणु के अलावा दूसरों की?
शिवमूर्ति : विश्वेशर की ‘बदलना’। रमेश बक्षी की ‘सबरी’, संजीव की ‘अपराध’, चन्द्रकिशोर की ‘नकबेसर कागा ले भागा’, ‘हुज्जत-कठहुज्जत’, उदय प्रकाश की ‘टेपचू’, अखिलेश की ‘चिठ्ठी’, सृंजय की ‘कामरेड का कोट’…
ओमा शर्मा : ये कहानियां आपको कथ्य के कारण याद रह गयी हैं या शिल्प के कारण?
शिवमूर्ति : कथ्य के कारण। हालांकि इनका शिल्प भी अच्छा है। मैं शिल्पवादी नहीं हूं। कहानी को शुरू से लेकर आखिर तक सीधे-सीधे कह देता हूं। कभी सोचता हूं कि यदि मेरे पास शिल्प के स्तर पर कुछ बढ़िया हो जाता तो कितना अच्छा होता।
ओमा शर्मा : दूसरी भाषाओं से कुछ?
शिवमूर्ति : जैक लन्दन की कई कहानियां। एक कुत्ते पर है, एक भेड़िए पर। हेनरी और चेखव हैं। गोर्की हैं। अंग्रेजी के कई लेखकों को अभी पढ़ा है… अमिताभ घोष, रोहिन्टन मिस्त्री और विक्रम सेठ। मुझे प्रभाषित नहीं कर सके। उनकी ज्यादातर चीजें ओवररेटिड हैं। मैं तो हैरान हूं कि अरविन्द अडिगा जैसे को बुकर दे रखा है। उससे अच्छे हमारे यहां दर्जनों हैं।
ओमा शर्मा : अपने समाज में लेखक की क्या भूमिका रही है और क्या होने जा रही है?
शिवमूर्ति : समाज की काम्य अवस्था के लिए लेखक की आवाज, उसकी उपस्थिति उपयोगी होती है।
ओमा शर्मा : लेखक से आप एक सामाजिक बदलाव की अपेक्षा रखते हैं?
शिवमूर्ति : जी हां। रखता हूं।
ओमा शर्मा : लेकिन जो बदलाव के तत्व हैं उनमें लेखन अहम होता है?
शिवमूर्ति : शामिल तो रहता ही है। वह मानस को बदलने का काम तो करता ही है। इसकी रफ्तार धीमी होती है। फिर भी परिवर्तन की अपेक्षा हम साहित्य से कर सकते हैं।
ओमा शर्मा : अपेक्षा कैसे करेंगे जब उसकी पंहुच ही वहां नहीं है जहां से परिवर्तन होना है।
शिवमूर्ति : यह तो है। आधी आबादी तो अशिक्षित है। जो पढ़ गए हैं वे कुपढ़ ज्यादा हैं। प्रतिगामी ताकतें इसीलिए हावी हो जाती हैं।
ओमा शर्मा : इसमें लेखक की जिम्मेवारी नहीं है।
शिवमूर्ति : लेखक की भी जिम्मेवारी है। उसमें धैर्य नहीं है।
ओमा शर्मा : वह रचने की बजाय कुछ ‘नया’ कर दिखाने, कुछ ऊबड़-खाबड़ शीर्षक-उपशीर्षक या चरित्रों के नाम रखकर ही कुछ तीर मारता सा महसूस करता है।
शिवमूर्ति : ठीक कह रहे हैं। बहुत सारी रचनाओं में शुरुआत में किसी विदेशी लेखक के कथन को खूंटी की तरह गाढ़ दिया जाता हैं और उसी पर लटक कर वे मान लेते हैं कि उनका लेखन खूंटी की ऊंचाई तक पहुँच गया है।
ओमा शर्मा : आपके बच्चे हिन्दी साहित्य पढ़ते हैं?
शिवमूर्ति : एक-दो पढ़ते हैं। बल्कि हमारे यहां तीसरी पीढ़ी के बच्चे ज्यादा पढ़ते हैं। मेरी एक नातिन मेरी कहानियों पर अक्सर मुझसे बहस करती है। इन बच्चों की क्षमता देखकर हैरानी होती है।
ओमा शर्मा : क्या लेखकीय आलस्य भी लेखकीय सृजन का अभिन्न अंग है?
शिवमूर्ति : सब कुछ मशीनी हो जाना भी ठीक नहीं है लेकिन एकदम आलसी हो जाना भी ठीक नहीं है। जब जिन्दगी की घड़ी लगातार चल रही है तो लेखन की भी चलती रहनी चाहिए।
ओमा शर्मा : किन लेखकों की जीवनी पढ़ी हैं?
शिवमूर्ति : जैक लन्दन की पढ़ी है। प्रेमचन्द की पढ़ी है।उग्र की पढ़ी है। ‘आवारा मसीहा’ पढ़ी है। आपके द्वारा अनूदित स्टीफन स्वाइग की पढ़ी है। रूसो और वैन गॉग की पढ़ी है। शेक्सपीयर के जीवन के कुछ हिस्से पढ़े हैं।
ओमा शर्मा : आप खुद आत्मकथा लिखने की सोचते हैं ?
शिवमूर्ति : नहीं। बहुत भीतर उतरना पड़ेगा। कुछ मिला-मिलूकर लिखूंगा भी तो एक उपन्यास बन सकता है लेकिन अभी मेरी ऐसी कोई योजना नहीं है।
ओमा शर्मा : कुछ समय पहले आपने जीवन के साठ वर्ष पूरे किए हैं। क्या आपको लगता है कि उम्र के साथ लेखकीय प्राथमिकताओं और क्षमता में शिथिलता आ जाती है?
शिवमूर्ति : शारीरिक शिथिलता तो थोड़ी आने लगती है। लेकिन लेखन के प्रति जो कमिटमेंट है, लिखने का जो आनन्द और आकर्षण है या जो उसकी सार्थकता है वह प्रश्तातीत है। कोई भी कहानी लिखने बैठता हूं तो आज भी उसकी तह तक जाने की उत्सुकता बनी रहती हैं। आज भी मैं बाएं हाथ से नहीं लिखता हूं। मैं परफैक्शन का कायल हूं। थोड़े कम से काम चला लूंगा लेकिन जो लिखना है उसके साथ समझौता नहीं।
ओमा शर्मा : आपकी लेखकीय चिन्ताएं क्या हैं?
शिवमूर्ति : मतलब?
ओमा शर्मा : जैसे किसानों के जीवन और उनकी समस्याओं के प्रति चिन्तित रहते हैं…।
शिवमूर्ति : गांव के अलावा आमजन का जीवन मेरी चिन्ता में रहता है। लोगों को रोजगार मिले, छुआछूत मिटे, असमानताएं खत्म होनी चाहिए। मैं सोचता हूं कि गरीबी रेखा की तरह अमीरी रेखा जैसा भी कुछ होना चाहिए। विषमता और अन्याय की भी सीमा होनी चाहिए। किसी को रोटी नहीं मिल रही है और किसी के पास हजार जोड़ी सैंडिलें हैं। इससे असहिष्णुता तो बढ़ेगी ही। गांव में एक आदमी गा कर सुना रहा था…काहे गोलिया चलेला दनादन्न भईया, तनि खड़ा होके सोचा एक छन्न भैया; केहूके भरल सूट केस, भांति भांति के डरेस, केहू के मरले मिले ना कफन्न भैया। तो काहे गोलिया चले न दनादन्न भैया…। वह एकदम निरक्षर था लेकिन इतना तो सब जानते हैं कि एक तरफ लूट खसोट मची है और दूसरी तरफ त्राहि-त्राहि मची हुयी है। यह कब तक चल सकेगा?
ओमा शर्मा : माओवादियों की बढ़ती उपस्थिति को आप जायज मानेंगे?
शिवमूर्ति : जो माओवादी पैदा हो रहे हैं वे क्यों हो रहे हैं? यह भी तो देखिए। कोई करोड़पति नक्सल हुआ है? जो गरीब हैं, शोषित हैं, जिन्हें व्यवस्था न्याय नहीं देती है, वे क्या करें, कहां जाए? हमीं तो ऐसे हालात पैदा कर रहे हैं जिससे माओवाद पनप रहा है।
ओमा शर्मा : कुछ देर पहले ही आपने कहा था कि लोकतंत्र से बेहतर राजनैतिक व्यवस्था अभी तक इवोल्व नहीं हुई है। हमारी राजनैतिक व्यवस्था ने लोकतंत्र चुना है जो अपनी कमियों-कमजोरियों के बावजूद बीसवीं सदी के शताधिक नव-स्वतंत्र राष्ट्रों में कामयाब मिसाल है। ऐसी व्यवस्था में हिंसा का यह माओवादी रंग कहां तक जायज बनेगा?
शिवमूर्ति : हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं केवल यह कह कर अपनी पीठ ठोकने से काम नहीं चलेगा। पुलिस एक माओवादी को पकड़ने जाती है और अपनी निरंकुश कार्यप्रणाली से सौ आदिवासियों को माओवादी बना कर लौटती है। लोकतंत्र में यदि घोर असमानताएं पनप गयी हैं, तो शासकीय हस्तक्षेप के जरिए उसे कम करने के कारगर उपाय क्यों नहीं किए जा रहे हैं। जिनके पास खोने को कुछ नहीं है वही क्यों बन्दूक उठा रहे हैं?
ओमा शर्मा : लोकतंत्र की कमियों को आप हिंसा से दूर कर सकते हैं?
शिवमूर्ति : हिंसा से नहीं उसे आप अपनी नीतियों से दूर कीजिए। देश के सारे नागरिकों को एक आँख से देखिए। क्या लोकतंत्र अपनी कमियों को दूर कर रहा है? हम लोग पाले के इधर बैठ कर बातें कर रहे हैं। उनके जीवन या उनकी समस्याओं तक हम क्यों नहीं जाते?
ओमा शर्मा : माओवादियों ने भी लगभग एक माफिया बना लिया है…।
शिवमूर्ति : हां, मैं यह जानता हूं। लेकिन जिनके पास रोटी नहीं है वे आपसे ज्यादा उन पर क्यों यकीन कर रहे हैं? कोई रो रहा है तो कोई उनके आँसू पोंछने जा रहा है। आप रोने की वजह खत्म कर देंगे तो मामला ही खत्म हो जाएगा।
ओमा शर्मा : तीन चार हजार की पगार पर काम करने वाले मोर्चे पर ड्यूटी करते कांस्टेबल – जिस पर पूरा परिवार आश्रित होता है – उसे मारकर माओवादी राज्य के साथ क्या इंतकाम ले रहे हैं?
शिवमूर्ति : दोनों तरफ से गरीब ही मर रहा है। देश के अमीर लोगों के बच्चों की पुलिस और सीआरपीएफ में भरती करवाइए और फिर देखिए क्या होता है।
ओमा शर्मा : शिवमूर्तिजी, कोई कहानी ऐसी है जिसने आपको एकदम पकड़कर लिखवा लिया हो…कि चलो मुझे लिखो, कोई टालमटोल नहीं चलेगी…
शिवमूर्ति : पहले मैं ऐसा कर लिया करता था। ‘केशर कस्तूरी’ के साथ ऐसा हुआ था।
ओमा शर्मा : एक सामान्य व्यक्ति की तरह और एक लेखक की तरह दोनों भूमिकाओं को कैसे और कितना जीते हैं?
शिवमूर्ति : दोनों की ओवर-लैपिंग होती रहती है। दैनंदिन के कार्यों के बीच लेखकीय निगाह भी सक्रिय रहती है और लिखते समय सामान्य जीवन के कार्यों की स्मृति काम आती है।
ओमा शर्मा : लेकिन लगता है आपने लेखन की बजाय जीवन को ज्यादा तवज्जो दी है?
शिवमूर्ति : कह सकते हैं। मुझ पर पारिवारिक जिम्मेवारियां बहुत रहीं। छह बेटियां थीं। उनकी पढ़ाई, उनका भविष्य… इसे लेकर मेरा दायित्व था। उनकी शादियां होनी थीं तो समय से ही होनी थीं। एक में देर करते तो दूसरी में देर हो जाती। लेखन में कुछ देर-सवेर या जिसे कहें टाइम-बाउंड कुछ नहीं होता है।
ओमा शर्मा : कहीं मन में ऐसा तो नहीं रहा कि लिख लेंगे तो क्या हो जाएगा, नहीं लिखा तो क्या नहीं हो जाएगा।
शिवमूर्ति : नहीं ऐसा भी नहीं। लिखने से मुझे निजी तौर पर संतुष्टि मिलती है जबकि पारिवारिक जिम्मेवारियों के बरक्स घर-परिवार के लोगों की खुशी भी शामिल होती है। इसलिए मुझे उनके साथ रहना पड़ा।
ओमा शर्मा : आपकी सारी रचनाएं पढ़ने के बाद एक बात मेरे जेहन में कोंधी कि आपके यहां एक से एक चालाक और सयाने पात्र हैं। क्या इसलिए कि आपका ऐसे चरित्रों के साथ ज्यादा उठना-बैठना रहता है?
शिवमूर्ति : ऐसे पात्र समाज में बहुतायत में हैं। उनसे सावधान करने के लिए भी लिखना होता है। धूसर पात्रों से रचना नहीं बनती है। चटख पात्रों से रोचकता आती है।
ओमा शर्मा : क्या अपने को भी उनके साथ खड़ा महसूस करते हैं?
शिवमूर्ति : यानी धूर्त या मक्कार…
ओमा शर्मा : मेरा आशय व्यक्तित्व के सयानेपन से है…
शिवमूर्ति : शायद। वक्त की क्या जरूरत है इस पर मैं चाहता हूं कि लद्दड़ न रहूं। खाली लेखक ही न रहूं, एक जागरूक जिम्मेदार अभिभावक भी रहूँ।
ओमा शर्मा : सुसन सोन्टैग ने एक जगह लिखा है कि लेखक में थोड़ी मूर्खता का होना– जो शायद सयानेपन के अभाव का दूसरा नाम हो– जरूरी होता है। सयाने बनकर आप जीवन तो अच्छी तरह जी लेंगे लेकिन सृजन के स्तर पर बहुत कुछ खो देंगे…।
शिवमूर्ति : सुसन सोन्टैग ने सही कहा है। इसे मूर्खता की बजाय गैर-दुनियादार होना कहेंगे। बहुत स्तर पर मैं भी वैसा ही हूं। लेकिन जब सर्वाइवल की बात आती है तो मजबूरन सयाना बनना पड़ता है।
ओमा शर्मा : आप या तो सयाने होते हैं या नहीं होते हैं…
शिवमूर्ति : नहीं, जीवन के कई क्षेत्र हैं जहां अलग-अलग जरूरत होती है। जैसे लेखन को लेकर मैं कभी महत्वाकांक्षी नहीं रहा। मैंने जितना लिखा उससे मुझे अपेक्षा से ज्यादा मिला। बल्कि अब लिखने का दवाब ज्यादा महसूस करता हूं।
ओमा शर्मा : कभी कविताएं लिखीं…।
शिवमूर्ति : दो चार लिखी होगीं। बहुत पहले। मुझे लगता है जो मैं कहता चाहता था उसके लिए कविता नहीं, कहानी सही विधा है।
ओमा शर्मा : कविताएं पढ़ते हैं?
शिवमूर्ति : हां। अदम गौंडवी मुझे बहुत प्रिय हैं। दो लाइनों में कितना कुछ कह जाते हैं। लोकगीतों को पढ़ता ही रहता हूं।
ओमा शर्मा : अदम गौंडवी तो गजलकार ज्यादा थे।
शिवमूर्ति : हमारे लिए कविता, गजल,नज्म और लोकगीत सब एक भाव हैं।
ओमा शर्मा : (ठहाका) कथा साहित्य के अलावा आपने गद्य की दूसरी विधाओं में नहीं लिखा?
शिवमूर्ति : जो कथा-साहित्य लिखना चाहता हूं उसी को लेकर आफत मची रहती है तो दूसरा कुछ कहां से लिखता।
ओमा शर्मा : नहीं, जैसे अब आप हिंदी के वरिष्ठ लेखकों की कतार में आएंगे। आपके बाद लेखन की तीन-चार पीढ़ियां तो आ ही गयी हैं। ऐसे में युवा लेखकों की रचनाओं पर कुछ समीक्षात्मक हस्तक्षेप जैसा करने का अधिकार और जिम्मेवारी तो बनती है…
शिवमूर्ति : मौखिक रूप से कर देता हूं। मैं बहुत ज्यादा आलोचनात्मक नहीं हो पाता हूं। किसी की अच्छी रचना पर उसे अच्छी कह दूंगा मगर खराब को खराब नहीं कह पाता हूं।
ओमा शर्मा : इसी को डिप्लोमैटिक होना कहते हैं।
शिवमूर्ति : अब लिखने वाले को तो मालूम होता ही कि कैसा लिखा है(खास शिवमूर्तियाना भाव )।
ओमा शर्मा : बड़ा होने के कारण एक बिरादरानेपन से… जो है वही नहीं बताना चाहिए?
शिवमूर्ति : बताना चाहिए मगर मुझे झिझक होती है। सोचता हूं कोई दूसरा बता देगा।
ओमा शर्मा : कुछ लेखक शायद इसी कारण खराब लिखते चले जाते हैं कि कोई उन्हें टोकने वाला नहीं कि कैसा कूड़ा लिखा है…बल्कि जो बेहतर लेखन की संम्भावना जगा चुके हैं इस ‘अहो-रूपम’ भाव के चलते घटिया लिखने लगते हैं।
शिवमूर्ति : अरे ऐसे लेखक भी तो होने चाहिए। कोई पूछ बैठे तो गिनाने में आसानी हो जाती है। (संयुक्त ठहाका)…नहीं तो जवाब ही न बने !
ओमा शर्मा : आपकी पिछली एक कहानी को हटा दें तो आपके समस्त लेखन में प्रेम और रोमांस एकदम नदारद है, क्यों?
शिवमूर्ति : कोयले की खदान से सोना कहां से निकलेगा। मेरी प्राथमिकताओं में जो रहा मैंने उस पर लिखा। हालांकि प्रेम मैंने किया है मगर उस पर लिख नहीं सका। प्रेम करना आसान है, उस पर लिखना मुश्किल है।
ओमा शर्मा : कभी आपकी हिम्मत छूटी है…
शिवमूर्ति : कभी नहीं हुआ। न लेखन में न जीवन में।
ओमा शर्मा : जैसे लम्बे समय तक आपने कुछ नहीं लिखा तो इस स्थिति में अवसाद जैसा कुछ लगा…
शिवमूर्ति : नहीं। मैं खुद ही नहीं लिख रहा था। मेरे पास सामग्री की कमी थोड़े थी। अवसाद तो तब होता जब लिखने बैठता और न लिख पाता।
ओमा शर्मा : जैसे नौकरी में कुछ मन चाहा नहीं हुआ तो खराब लगा?
शिवमूर्ति : ऐसा तो कई बार हुआ कि नौकरी में इधर-उधर पटका गया। लेकिन मैंने उसे भी चुनौती के रूप में लिया। दौड़-भाग की और ठीक करा लिया।
ओमा शर्मा : इसके लिए राजनैतिक संपर्कों का सहारा लिया?
शिवमूर्ति : हां, लिया।
ओमा शर्मा : तब आपको यह नहीं लगा कि इससे आप अपने लेखकीय व्यक्तित्व को अपवित्र कर रहे हैं।
शिवमूर्ति : इसमें अपवित्र जैसा क्यों लगे? शुरू के बीसियों बरस मैं खूब इधर-उधर फेंका गया। जहां भेजा गया, चला गया। आप जब ज्यादा दिनों तक यह करते हैं तो ‘लल्लू’ ठहरा दिए जाते हैं। इसे मैंने चुनौति के रूप में लिया और बड़े-बड़े शहरों में तैनातियां लीं। मुझे इसमें कुछ भी गलत नहीं लगा। बल्कि एक लेखक होने के नाते विभाग में भी अतिरिक्त इज्जत मिलती थी।
ओमा शर्मा : यह लेखकी का गलत इस्तेमाल नहीं था?
शिवमूर्ति : (हंसकर) इसमें गलत क्या है पार्टनर?
ओमा शर्मा : किन लेखकों को आप बार बार पढ़ते हैं?
शिवमूर्ति : (थोड़ा सोचकर) एक तो मैंने ज्यादा पढ़ा ही नहीं है तो मैं क्या नाम बताऊं? सही बात तो यही है। मैं अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र और राजनीति की पुस्तकें भी पढ़ता हूं। गांव-देहात पर होने वाले सर्वेज की रिपोर्ट पढ़ता हूं। सतीनाथ भादुड़ी का ‘दोढाय चरित मानस’ है। ‘मैला आंचल’ है। ‘गोदान’, ‘मुर्दाघर’, ‘धरती धन न अपना’ को फिर पढ़ना चाहता हूं। और भी बहुत कुछ…
ओमा शर्मा : आपके शौक क्या हैं?
शिवमूर्ति : यूनीबाल का पैन हो, सफेद कागज रहे।
ओमा शर्मा : शौक से मतलब है कि फुर्सत मिलने पर अपना समय किस तरह बिताना चाहते हैं?
शिवमूर्ति : तब मैं लेटा-लेटा परेशान रहता हूं कि लिख क्यों नहीं रहा…
ओमा शर्मा : सेवानिवृत्ति के बाद लिखने की दिनचर्या में कुछ परिवर्तन आया है?
शिवमूर्ति : बहुत ज्यादा तो नहीं लेकिन कोशिश में रहता हूं कि सुबह उठकर कम से कम दो घंटे लेखन को दे दूं। मैं जल्दी उठ जाता हूं। फिर भी बहुत सफल नहीं हो पाता हूं। जब कि मेरे जिम्मे वैसा कोई काम नहीं है। कभी सोचता हूं कि अलग अलग गांवों में, रिश्तेदार या मित्रों के यहां कुछ समय बिताऊं। वहां से कुछ न कुछ हासिल होगा।
ओमा शर्मा : आपका सारा लेखन लगभग आपके देखे-भाले का है। फिक्शनल फ्लाइट आपके यहां नहीं ही है…
शिवमूर्ति : मैं मानता हूं कि मेरे यहां सिर्फ यथार्थ है। सोचता हूं मेरी कल्पना शक्ति आधिक होती तो कितना अच्छा होता।
ओमा शर्मा : सांकेतिकता भी नहीं है। जो कहा गया है उसके बारे में कुछ अधखुला नहीं है…
शिवमूर्ति : ये सब फिक्शन की आर्ट हैं। मेरे पास कम है यह।
ओमा शर्मा : लेखन के लिए लेखकीय सोहबतें जरूरी मानते हैं?
शिवमूर्ति : हां। ताकि लिखने का सिलसिला बना रहे। मित्रों की मुझे बहुत जरूरत महसूस होती है।कोई मित्र नाराज हो जाए तो मुझे नींद नहीं आती है चाहे उसी की गलती रही हो।
ओमा शर्मा : लेकिन मित्रता में सयानापन तो नहीं चल पाता है।
शिवमूर्ति : सयानापन हम मित्रता में नहीं करते हैं। उनके साथ समय बिताना, खाना-पीना, बतियाना अच्छा लगता है। मित्रों के लिए दिल बहुत धड़कता है।
ओमा शर्मा : मित्रों की कौन सी चीज माफ नहीं करेंगे।
शिवमूर्ति : मित्रों के साथ मुझे सब कुछ गवारा है। सिर्फ विश्वासघात नहीं होना चाहिए।
ओमा शर्मा : आपकी क्या असुरक्षाए रहीं हैं?
शिवमूर्ति : मैं बहुत छोटा था तभी मेरे पिता साधु हो गये थे। उन्होंने घर को छोड़ दिया था। निम्नमध्यवर्गी परिवार था। घर का भार जल्दी पड़ गया मुझ पर। मुझे बहुत छुटपुट काम करने पड़ते थे। जब मैं बीए में था तब मेरी पहली बेटी पैदा हो गयी। तब मेरे पैरों तले की जमीन खिसक गयी। जैसे इन्सल्ट हो गयी हो। मैं डर गया कि इस खर्चे की पोटली को कैसे संभालूंगा। कभी सोचता कि वह बच नहीं पाएगी। बाहर से घर लौटकर जब उसे देखता तो निराश होता कि इसकी सांस अभी भी चल रही है। डेढ़ साल बाद दूसरी बेटी आ गयी। तब मैं स्कूल में पढ़ाता था। जब तीसरी बेटी आयी तब मैं रेलवे की नौकरी ज्वॉइन कर चुका था। ट्रेनिंग पर था। हम लोग मैस में खाना खाने जाने वाले थे जब यह सूचना देती चिठ्ठी मिली। मेरी भूख मर गयी। दोस्त कहता कि कोई बात नहीं मगर मैं अपने में ही धंसा जा रहा था। बेटियों के जन्म ने मुझे बड़ी असुरक्षाओं से घेर दिया।
ओमा शर्मा : लेकिन आप तब लेखक हो चुके थे जिससे उम्मीद की जाती है कि बेटा-बेटी में फर्क नहीं करेगा,छोटे परिवार का महत्व जानता होगा…
शिवमूर्ति : वो ठीक है लेकिन तब हमारी उम्र गदहपच्चीसी की थी। सब यूं ही होता चला गया। तब गर्भ निरोधकों की उपलब्धता भी तो नहीं होती थी।
ओमा शर्मा : क्यों आपकी अन्तिम बेटी कब पैदा हुई?
शिवमूर्ति : सन 1981 में हुई थी।
ओमा शर्मा : तब तक तो आप एक अच्छी प्रांतीय सेवा में आ चुके थे। आपकी बात में बहुत दम नहीं लगता है। अधिक सम्भावना ये हो कि परिवार की बढोत्तरी एक बेटा होने की जाहिर पितृसत्तात्मक उत्तर भारतीय ललक के कारण थी।
शिवमूर्ति : शायद यह भी रहा होगा। मेरी मां की यह इच्छा जरूर थी। जबकि नौकरी के इन्टरव्यू में मैंने इस मामले पर पूछे जाने पर मैंने ठोस ढंग से कहा था कि जनसंख्या हमारी प्रगति में बहुत बड़ी बाधा है। एक या दो से ज्यादा बच्चे नहीं होने चाहिए जबकि मेरे तीन बेटियां तब तक हो चुकी थीं। तब उन्होंने कहा कि आपकी बात मान ली जाती तो इस देश को रवीन्द्रनाथ ठाकुर और लालबहादुर शास्त्री नहीं मिलते क्योंकि रवीन्द्रनाथ ठाकुर अपने मां-बाप की ग्यारहवीं सन्तान थे और शास्त्री सातवीं। तब मैंने कहा कि इस देश को एक-दो ऐसी विभूतियों की कीमत पर फुटपाथ पर भूखे-बिलबिलाते करोड़ों बच्चे नहीं चाहिए। उनको मैंने जोरदार ढंग से समझाकर इंटरव्यू में अच्छे नंबर झटके थे जबकि खुद उस पर अमल नहीं कर रहा था।
ओमा शर्मा : वही तो बात है – सोच और बर्ताव में रहने वाली फाँक की…
शिवमूर्ति : वह सब गदहपच्चीसी में होता गया। और क्या कहूं (फिर शिवमूर्तियाना भाव)
ओमा शर्मा : मैं सोचता हूं कि आचरण भी लेखकीय प्रामाणिकता का ही भाग होता है।
शिवमूर्ति : उस तरह से तो फांक रहती है।
ओमा शर्मा : आप बिना टिकट रेल की यात्राएं करते रहे हैं?
शिवमूर्ति : हां। जब मैं नौंवी में पढ़ता था तभी यह आदत लग गयी थी। तब मैं सुल्तानपुर शहर में पढ़ने जाता था। जेब में पांच पैसे भी नहीं होते थे। टिकट की कौन पूछता? और यह मैं ही नहीं, सभी बच्चे ऐसे ही चलते थे। और वह भी प्रथम श्रेणी में क्योंकि वह थोड़ा खाली रहता था।
ओमा शर्मा : कभी पकड़े नहीं गए?
शिवमूर्ति : इतने बच्चे होते थे कि टीटी भी कहां तक चैक करता। कभी मजिस्ट्रेट की चैकिंग पड़ी तो उतार दिए जाते थे। ऐसे ही एक बार उतारे जाने पर मैं आठ मील पैदल चलकर घर आया था। नौकरी में आने के पांच साल तक मैं उसी तरह बिना टिकट ही चलता था। मानसिकता ऐसी हो गयी थी कि लगता ही नहीं था मैं कुछ गलत कर रहा हूं।
ओमा शर्मा : यह मानसिकता उत्तर भारतीयों की पहचान सरीखी है।
शिवमूर्ति : होगी। अब लगता है कि यह कितनी गलत है लेकिन तब नहीं लगता था। इसीलिए तो हम पिछड़े बने हुए हैं। मैं जब कुछ समय पहले विदेश गया तो देखकर हैरान रह गया कि उनके यहां नियम-कानून की क्या इज्जत है। मानवीय गरिमा कितनी अहम है। हमारे यहां तो जो जितना कानून से परे उतना ही अपने को सिकंदर महसूस करता है। एक बार तो मैं अपने बेटी-दामाद के साथ पटना से बनारस लौट रहा था। दामाद ने टिकट का जिम्मा मुझे दे दिया था। मैं टिकट खिड़की पर गया भी मगर भीड़ देखकर लौट आया। जब उनके पास टीटी आया तो उन्होंने उसे मेरी तरफ कर दिया। जब वह मेरे पास आया तो मैंने बेखोफ़ कह दिया कि कोई टिकट नहीं है। और वे जो दो सवारी हैं मेरे साथ हैं …और वह चुपचाप चला भी गया।
ओमा शर्मा : टिकट चैकिंग के दौरान कभी बाथरूम वगैरा में दुबकने की नौबत आयी?
शिवमूर्ति : एक बार ऐसा भी हुआ था …जब मैं साईकिल समेत सुलतानपुर से इलाहाबाद आता-जाता था। उस समय डर लगता था कि पकड़े गए तो साईकिल हाथ से चली जाएगी। उन दिनों वही तो मेरा हवाई जहाज थी।
ओमा शर्मा : आपके मुताबिक आपकी कौन सी रचनाओं में दीर्घकालीनता है?
शिवमूर्ति : देखिए भविष्य के बारे में कुछ कहना मुश्किल है लेकिन मुझे लगता है कि मानवीय सम्बंधों पर लिखी जाने वाली चीजें देर तक टिकती हैं। जैसे मेरी ‘सिरी उपमा जोग’, ‘ख्वाजा ओ मेरे पीर!’, या फिर ‘केशर कस्तूरी’ है…इनकी व्याप्ति शायद बनी रहे।
ओमा शर्मा : आपने कहा कि मानवीय सम्बंधों पर टिकी आपकी रचनाएं शायद ज्यादा दिनों तक बची रहेंगी।लेकिन आपका जो प्रतिनिधि और प्रामाणिक लेखन हैं किसान जीवन के संघर्ष के आसपास है। तो इन दोनों के बीच क्या घालमेल है।
शिवमूर्ति : देखिए किसी कहानी या रचना की दीर्घकालीनता एक चीज है और उसकी प्रासंगिकता दूसरी। किसान जीवन पर मैं एक दायित्व बोध के तहत लिखता हूं क्योंकि उस पर लिखना प्रासंगिक है, भले उसकी दीर्घकालीनता संदिग्ध रहे। मेरी कामना है कि मेरी रचनाओं की उपादेयता उनकी प्रासंगिकता में हो, भले ही वे दीर्घकालीन न हों।
ओमा शर्मा : आप ये मानते हैं कि उनके जीवन और संघर्ष समस्याओं पर लिखने से उसमें फर्क आ जाएगा…
शिवमूर्ति : फर्क चाहे आवे चाहे न आवे लेकिन समाज को मैं उनके बारे में बता सकूं…फर्क लाने वाले जो लोग हैं यदि उसे पढें तो शायद अपने रवैए में वे कुछ बदलाव ला सकें ऐसी उम्मीद तो मैं भरसक पालता हूं।
ओमा शर्मा : कुछ ऐसी रचनाओं के बारे में बताएं जो आपके भीतर लेखकीय हसरत जगाती हों?
शिवमूर्ति : मेरे पास दो तीन ऐसे चरित्र हैं जिन्हें मिलाकर मैं एक गाढ़ा चरित्र बनाना चाहता हूं। ‘मैं और मेरा समय’ में मैंने ऐसे ही एक चरित्र–जंगू– का जिक्र किया है। अन्याय पूर्ण सामाजिक व्यवस्था में अपनी तरह से रोबिनहुड की तरह न्याय बांटता हुआ।
ओमा शर्मा : यहां मेरा इशारा दूसरे लेखकों की रचनाओं की तरफ है।
शिवमूर्ति : अच्छा। जैसे सतीनाथ भादुड़ी का ‘दोढाय चरित मानस’ है। एक बेहद मामूली आदमी की कहानी। जैसे ‘मैला आंचल’। गोर्की का ‘वे तीन’। जैक लंदन की ‘भेड़िए’… परिवेश के बारे में जैसा रसूल हमजातोव ने ‘मेरा दागिस्तान’ में लिखा है वैसा कुछ लिख सकूं। मेरी हसरत है कि अपने क्षेत्र के लोगों के बारे में कुछ ऐसा और प्रामाणिक लिख सकूं जो वृहत्तर सरोकार रखता हो। ‘त्रिशूल’ और ‘तर्पण’ के अलावा सिर्फ ‘कसाईबाड़ा’ कहानी है जिसमें एक सामाजिक चिन्ता है। मेरे पास अभी गर्व या संतोष करने लायक ज्यादा कुछ नहीं है।
ओमा शर्मा : अपने जीवन के उत्कर्ष पलों को याद करना हो तो…
शिवमूर्ति : सबसे उत्कर्ष पल तो वही था जब मेरा सेल्स-टैक्स ऑफिसर के रूप में चयन हुआ था। उससे पहले मैं अभावों से जूझ रहा था। या फिर जिन मित्रों ने संकट की घड़ी में आकर मेरा साथ दिया…जैसे गांव में जब मजदूरों ने घर को बनाने के काम से मना कर दिया तो नन्दलाल की मां और शिवकुमारी ने कई बार मुझे सम्बल दिया …
ओमा शर्मा : लेखिकीय दुनिया के उत्कर्ष पल…
शिवमूर्ति : जब ‘कसाईबाड़ा’ धर्मयुग में छपी। धर्मवीर भारती के संपादकीय उल्लेख के साथ। उस पर मिली उनकी चिट्टी। फिर उसके मंचन…। पाठकों के अनगिनत पत्र…
ओमा शर्मा : कुछ कहानियों पर फिल्में भी बनी हैं। उनसे कितने संतुष्ट रहे?
शिवमूर्ति : देखिए फिल्म एक दृश्य माध्यम है। उसकी ताकत शब्द से ज्यादा होती है। जब किसी कहानी पर फिल्म बनती है तो उम्मीद की जाती है कि जो फिल्म का प्रभाव है वह उसके लिखित प्रभाव से कम से कम पाँच गुना ज्यादा तो होगा ही। इस नजरिए से देखूं तो ‘कसाईबाड़ा’ पर बनी फिल्म से मुझे थोड़ा संतोष मिला। लेकिन बासु चटर्जी ने जो ‘तिरिया चरित्तर’ पर फिल्म बनाई उससे तो निराश ही हुआ हालांकि बासु कहते हैं कि एन एफ डी सी ने जो बजट दिया वह इतना कम था कि उसके साथ न्याय नहीं हो सका। बासु ने अपने इन्टरव्यू में कहा भी है कि इस पर फिर से काम होना चाहिए। ‘भरतनाट्यम’ पर दूरदर्शन ने जो फिल्म बनाई वह मैंने नहीं देखी है। उन्होंने उसकी पटकथा जरूर मुझे भेजी थी जिसने मुझे निराश किया। मैं सोच सकता हूं कि फिल्म कैसी बनी होगी। तो कुल मिलाकर मेरा अनुभव बहुत संतोषप्रद नहीं रहा है।
ओमा शर्मा : आप मृत्यु के बारे में सोचते हैं?
शिवमूर्ति : हां सोचता हूं। सोचता हूं कि थोड़े दिन ही बचे हैं जीवन के…
ओमा शर्मा : और किस तरह सोचते है…किसी डर के तहत…
शिवमूर्ति : नहीं, डर जैसा तो कुछ भी नहीं। सोचता इस तरह हूं कि अब ज्यादा समय नहीं बचा है जीवन में तो बचे समय का लेखन में उपयोग कर लूं।
ओमा शर्मा : दूसरी किन कलाओं की तरफ आपका रुझान रहता है?
शिवमूर्ति : मेरा रुझान लोकगीतों और लोककलाओं की तरफ रहता है।
ओमा शर्मा : लोकगीतों में तो आपका कहना चाहिए एक वैस्टिड इंटरेस्ट है। आपकी लेखकी का हिस्सा है…
शिवमूर्ति : हां। लेकिन असल बात ये है कि मुझे उसमें आनन्द आता है। वह मुझे विस्तार देता है।
ओमा शर्मा : आप जिन लोगों और उनकी समस्याओं के बारे में सोचते हैं उनके उत्थान के लिए एक बड़ी राजनैतिक इच्छा शक्ति की दरकार होगी। अपने वर्तमान परिदृश्य में ऐसा कौन है जिसमें आपको उस इच्छा-शक्ति का गुमान होता है…
शिवमूर्ति : यह मेरा स्वप्न है। राजनेता अधिक जिम्मेदार होकर सामने आएं।
ओमा शर्मा : स्वप्न की नहीं, यथार्थ की बात पूछ रहा हूं।
शिवमूर्ति : ऐसी कोई उम्मीद मुझे नहीं दिख रही है।
ओमा शर्मा : एक अन्तिम सवाल : लेखक की कोई राजनैतिक पक्षधरता होनी चाहिए?
शिवमूर्ति : बिल्कुल होनी चाहिए। लेकिन यहाँ राजनैतिक शब्द के दायरे का विस्तार करना होगा। यहां राजनैतिक से अभिप्राय किसी पार्टी विशेष से संबंध होने से नहीं है। उसकी राजनैतिक जीवन दृष्टि होनी चाहिए यानी उसमें सबके कल्याण की भावना होनी चाहिए।
ओमा शर्मा : स्वतंत्रचेता होना पर्याप्त नहीं है लेखक के लिए…
शिवमूर्ति : स्वतंत्रचेता तो वह हो ही मगर उसके जेहन में दूसरों के भले की भावना भी रहनी चाहिए।
ओमा शर्मा : अपने पिछले साठ बरस में जो राजनैतिक पार्टियां आपने देखी-जानी हैं, उनमें हमारा लेखक किसके साथ जुड़ाव महसूस कर सकता है?
शिवमूर्ति : ऐसी कोई भी नहीं है
ओमा शर्मा : तो फिर?
शिवमूर्ति : तो फिर यही कि वह स्वतंत्रचेता होकर भले लिखे मगर लेखक को जन से विमुख नहीं होना चाहिए। जन से जुड़ाव ही मेरे लिए उसकी पर्याप्त राजनैतिक पक्षधरता है।
*********** *********** ************
No comments:
Post a Comment