त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका 'मंच' का प्रवेशांक कथाकार शिवमूर्ति के जीवन और रचनाओं पर केन्द्रित है। शिवमूर्ति द्वारा लिखे गये किसान जीवन पर आधारित उपन्यास 'आखिरी छलांग' पर प्रसिद्ध आलोचक डा. विश्वनाथ त्रिपाठी का एक मूल्यांकन इस अंक में प्रकाशित है। ब्लाग के पाठकों के लिए इस लेख के कुछ अंश यहां प्रस्तुत :-
मरण-फांस से पार जाने की 'छलांग'
....शिवमूर्ति ग्रामीण जीवन के विश्वसनीय कथाकार हैं। किसान-जीवन को अपनी रचना का विषय उन्होंने किसी साहित्यिक प्रवृत्ति या साहित्यिक आकांक्षा के तहत नहीं अपनाया है। वे ग्रामीण एवं किसान-जीवन के सहज रचनाकार हैं। उनका व्यक्तित्व, रहन-सहन बोली-बानी-सब कुछ ग्रामीण और किसानी है- एक आंतरिक ठसक के साथ। जितने विनम्र हैं, उतने ही दृढ़! यह भी लगता है, कि उन्हें अपने लेखन के प्रति आत्मविश्वास भी है। इस आत्मविश्वास का आधार रचित वस्तु की गहरी, सूक्ष्म और व्यापक जानकारी है। निजी फर्स्ट हैंड जानकारी। खेतिहर किसान परिवार से हैं और 'आखिरी छलांग' के पहलवान के बेटी की शादी के लिए वर ढूंढ़ने का जो चित्रण है, उसका भी पर्याप्त अनुभव है। उनकी रचनाओं में आत्मकथात्मकता पर्याप्त होगी। इसी से शिवमूर्ति को अपनी रचना-वस्तु और रचित पात्रों की जानकारी ही नहीं, उससे लगाव भी है। इस अर्थ में उनका साहित्य उनकी आत्माभिव्यक्ति है जो अच्छी रचना की निर्णायक शर्त है।
.....शिवमूर्ति की यह कथा उसी त्रासद 'संभावना' और 'दुष्चक्र' की करूण कथा है- 'आखिरी' छलांग। बची-खुची उर्जा से संभावना को पकड़ पाने की कोशिश है- आखिरी कोशिश! होना क्या है- तय है!
'आखिरी छलांग' नई स्थितियों से परिचित और उन पर विचार करने वाले लेखक की रचना है। इसीलिए रचना में न तो नौसिखिया पात्र हैं और न सतही रोमान। यह किसानों की स्थिति से सुपरिचित और उद्विग्न-परेशान-निराश लेखक की रचना है। इस किताब में कोई पात्र शायद ही कभी उल्लसित होता हो। बीच-बीच में किसानी जीवन के ऐतिहासिक सर्वेक्षण और पहलवान के अनुभव से हासिल निराशापूर्ण विचार आते हैं। निराशा किसान की मानो नियति है। स्थितियों का आकलन और उनसे उबरने के तरीकों का भी संकेत है। उन संकेतित रास्तों की रूकावटें मानो दुर्लंघ्य हैं। ग्रामीण जीवन की वे रूढि़यां हैं- जातिवाद, अंधविश्वास, ईर्ष्या-डाह, जो राजनीतिक - सामाजिक संघर्ष में निर्णायक बाधा डालती हैं। नतीजतन-
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''कभी-कभी पहलवान सोचते हैं कि काश उन्हें सही समय पर किसी ने आगाह कर दिया होता कि खेतीबारी से पेट भरने का आसरा छोड़कर पढ़ाई-लिखाई का भरोसा करें। मामूली चपरासी की जिंदगी भी औसत किसान की जिंदगी से बेहतर होती है- यह तब पता चल गया होता तो मिडिल, हाईस्कूल और इंटरमीडियट तीनों प्रथम श्रेणी में पास करने के बावजूद वे इस खानदानी दलदल में क्यों फंसते?''
.....शिवमूर्ति की क्षमता ऐतिहासिक स्थिति की समझ में नहीं, छोटे किसान की सीमित दुनिया के सविस्तार अंकन में है, जिस पर कि तथाकथित विकास या बढ़ोतरी का दबाव पड़ रहा है। यह अंकन रेणु या श्रीलाल शुक्ल के ढर्रे का नहीं, प्रेमचन्द के भी ढर्रे का नहीं। बीच के रास्ते पर है। मुझे 'तिरिया-चरित्तर' पर रेणु की शैली का गहरा असर दिखलाई पड़ा था।
गांव वालों विशेषत: किसान की लोक-लाज-कुल की मर्यादा होती है। बहुत समय तक साथ-साथ रहने-बसेन वालों में रीति-मरजादा बन जाती है जिसका पालन वे कुल-नारी के समान करते हैं। एक सामूहिक मरजादा गांव की होती है। मुहल्ले की होती है, जाति-बिरादरी की होती है। फिर परिवार की। ग्रामीण जीवन में व्यक्ति की मरजादा सबसे बाद में आती हैं पूंजीवाद इसे उलट देता है। खैर, यहां हम पचडे़ में नहीं पड़गें। 'आखिरी छलांग' के नायक पहलवान की गांव-जवार में मरजादा है। वे हरियाणा के पहलवान से कुश्ती मार चूके हैं। पांच-छह एकड़ के किसान भी हैं। लड़का इंजीनियरिंग में दाखिला पा चुका है। मतलब यह कि कथानायक की मरजाद न सिर्फ बरकरार है, बल्कि बढ़ती जा रही है। यह मरजाद संभावना पर आश्रित है और संभावना का आधार कर्ज है। संभावना अनिश्चित है, कर्ज निश्चित है। कर्ज कैसे चुकाया जाएगा यह भगवान भरोसे है। भगवान का ही सहारा है- यह चिर-प्रचलित मुहावरा कितना भयावह और कितनी दुर्वह स्थिति का ध्वनि-बंध है- इसे सबसे ज्यादा हमारे देश का लोक-मरजादी किसान जानता और झेलता है।
कहानी ('आखिरी छलांग' लंबी कहानी है, लघु उपन्यास नहीं- इस पर मौका मिला तो विचार करेंगे) का प्रारंभ पहलवान की बदली मानसिकता से होता है-
'पहले वे नहाने के लिए सगरे पर ही जाते थे। चाहे जितीन देर होती रहे। बिना नागा। दस-पांच मिनट गहरे नीले पानी में तैर और गहराई तक डुबकी लगाए बिना उनका नहान पूरा ही नहीं होता था। कहते थे कि जब चिखरी साहु ने गांव वालों के लिए इतना बड़ा पक्का सगरा बनवा दिया है, अपनी जिंदगी-भर की कमाईं गांव वालों के नहाने के लिए लुटा दी है, तो उसमें न नहाकर कुएं या गड़ही में नहाना सगरा और चिखुरी दोनों का अपमान है।''
गहरे नीले पानी में देर तक तैरना और सगरा बनवाने वाले के लिए कृतज्ञता-दोनों गांव के किसान की आचरण रीति है। जलाशय के गरहे नीले पानी में डुबकी लगाने और तैरने का सुख पांचतारा होटलवाजों को नहीं नसीब होता। उसके लिए अपराधी नहीं, खुला मन और खुली प्रकृति का विस्तार चाहिए। वस्तुत: ऐसे वर्णन संक्षिप्त किंतु संस्कारी पाठक के लिए मोहक होते हैं और लेखक के सौंदर्य-स्तर का पता देते हैं।
बहरहाल, अब पहलवान बदल गए हैं, कुएं पर ही नहा लेते हैं। मन सिकुड़ गया है। सहम गया है-
''पर इधर कुछ दिनों से पहलवान को एक-एक करके इतने 'झोड़' लगे कि उनकी एक ढर्रे पर चलने वाली आत्मतुष्ट दिनचर्या में खलल साफ दिखने लगा है।''
एक लक्षण और उभरा है- ''धोती तार पर लटकी है और पप्पू के बाबू नीम की छाया में खडे़ लोटे वाले हाथ को हवा में हिला-हिलाकर अकेले ही कुद बोले जा रहे हैं।''
''इधर उनमें यह नया परिवर्तन हुआ-शंकर जी को जल चढ़ाने का। लोन बकाया में पकडे़ जाने के बाद एक दिन कहीं से तीन-चार श्वेत चिकने पत्थर ले आए। नीम की जड़ के पास आठ-दस ईटों को जोड़कर छोटा-सा चबूतरा बनाया और इन पत्थरों को इसी पर स्थापित कर दिया।'
और भी कई परिवर्तन आए हैं, लंबी मूंछों को छोटा कराना शुरू किया है। मौका पाते ही पत्नी को चिपटा लेने की आदत छूट गई है।
पैंतालीस की उम्र तक ठीक थे। अब बदल गए हैं। मन ज्यादा बदल गया, शरीर से। यद्यपि शरीर भी ढीला पड़ गया है। पहलवान की जिम्मेदारियां बढ़ गई हैं। छोटे किसान के लिए जिम्मेदारियों के बढ़ जाने का मतलब आय से अधिकाधिक खर्चा बढ़ जाना। खर्चा बढ़ जाने का मतलब कर्ज बढ़ जाना इनसे चिंता तो बढ़ जाती है। लेकिन किसान टूटता नहीं। पहलवान को ट्यूबवेल का, खाद का, ट्रैक्टर से जोताई का- सबसे बड़ा खर्चा पुत्र की इंजीनियरिंग की पढ़ाई का और फिर लड़की की शादी का खर्चा जुटाना है। पहलवान इससे चितिंत है।। लेकिन टूटे नहीं। टूटते हैं वे मरजाद पर चोट आ जाने से। अमीन ने भरे बाजार खाद का कर्ज न दे पाने के लिए बेइज्जत कर दिया। गांव के आदमी को बाहर, अनचीन्हे लोगों के बीच कोई चाहे जितना बेइज्जत कर दे, कोई बात नहीं, लेकिन अपने गांव-जवार में बेइज्जत कर दे तो वह मरणाधिक यातना भोगता है। संचित लोक-लाज लुट जाती है- सारी बनी-बनाई इज्जत दारूण व्यंग्यों की चोट बन जाती है-
''वही पहलवान जो कभी ताल ठोंककर पूरे इलाके को ललकारते थे और कोई हाथ मिलाने की हिम्मत नहीं करता था, अपने से एक हाथ छोटे मरियल-से अधेड़ चपरासी द्वारा सरे बाजार राह रोककर पकड़ लिए गए थे। पहलवान के बाएं पंजे में अपना दाहिना पंजा फंसाए वह उन्हें लेकर लाले बनिया की चक्की की ओर ले चला। पहलवान उसके साथ ऐसे चल रहे थे जैसे पगहे में बंधा बकरा चिकवे के पीछे-पीछे घिसटता चला आता है। मिमियाता तक नहीं।''
......पहलवान की असहायता होरी की असहायता से भिन्न है। सिर्फ अमीन द्वारा पकडे़ जाने पर ही उनकी हालत होरी की याद दिलाती है। पहलवान छूट जाते हैं। पी.सी.एस. और उनका एक शागिर्द (कुश्ती का) ही उनकी तरफदारी करते हैं। पहलवान का सब कुछ स्वीकार तो होरी की याद दिलाता ही है। छूट जाने पर उनकी मनोव्यथा बेटी के ब्याह के बदले पैसे लेने वाले होरी की मनोव्यथा का आभास देती है-
''पहलवान को अपने शरीर में इतनी ताकत नहीं महसूस हो रही थी कि साइकिल पर बैठ पाते। पैदल ही पैर घसीटते, साइकिल का सहारा लिए हुए गांव तक पहुंचे। पहलवानिन सड़क के मोड़ पर ही इंतजार करती खड़ी थीं। पहलवान का चेहरा स्याह और सूना था। पानी पीने के पप्पू की अम्मा के आग्रह को अनसूना करके वे मड़हे में पड़ी चारपाई पर गिर पडे़ थे। पप्पू की अम्मा को उन्होंने इशारे से बता दिया कि उन्हें चुपचाप रहने दें।''
भरे बाजार, अपने प्रशंसकों के बीच कर्ज की किस्त बेबाक न कर पाने के लिए अमीन द्वारा पकड़ लिया जाना, पहलवान के लिए असहाय अपमान, नमोसी है। उनके लिए, यह उनके नाम, खानदान पर कलंक है जिसे वे मिटा नहीं सकते। बाजार का यह दृश्य कथा की सबसे महत्वपूर्ण केन्द्रीय घटना है। इसी से पहलवान की मानसिकता में परिवर्तन आया है। जिम्मेदारियां बढ़ गईं, शरीर ढीला पड़ गया और उमर के ठीक उतार पर यह तोड़ देने वाली घटना हुई। अपने पर भरोसा घटा। शंकर जी पर बढ़ा। सो चिकने पत्थर ले आए।
.......इस कथा के गठन में शिवमूर्ति का शिल्प विशेष विचारणीय है। शिवमूर्ति ने शिल्प का विकास किया है। 'आखिरी छलांग' में पहलवान का चुप रहा जाना, जिसे आलोचक मौन कहते हैं, सिद्ध नुस्खे का काम करता, वह अकथित रहकर व्यंजित करता है। साहित्य शब्दों की लीला है। किन्तु सच यह है कि शब्द सबसे कम प्रभावी साधन हैं अभिव्यक्ति के। शब्द से अधिक प्रभावी देह-भाषा-उसमें भी आंखों की भाषा होती है, और सबसे अधिक प्रभावी और व्यंजक मौन होता है, यद्यपि इस प्रभाव का नेपथ्य या पृष्ठभूमि शब्दों द्वारा व्यक्त स्थितियों का संदर्भ ही तैयार करता है। 'मौन' का शिल्प साधक रचनाकार ही साध पाते हैं। 'आखिरी छलांग' मे शिवमूर्ति के शिल्प की सिद्धि में मौन का उपयोग दृष्टव्य है- कथा को कथानक में रूपायित करने में इसका उपयोग कारगर है। जिसे शिल्प या कारीगरी कहते हैं वह भी मूलत: जीवन-आचरण का ही रचनात्मक अनुकरण है। शिल्प भी जीवन-उद्धरण है। उसे जीवन से ही सीखा जाता है वह शून्य-प्रसूत नहीं। मतलब यह की जीवन में जैसा होता वैसा उन्हीं स्थितियों में रचना में भी दिखाया जाता है और वह रचनात्मक शिल्प कहलाता है।
दुर्वह मानसिक स्थिति कहीं नहीं जाती-कही नहीं जा सकती। मनुष्य उसे शब्दों में बांध नहीं सकता। उसे कहकर आत्मीय को कष्ट नहीं देना चाहता है। जिस व्यक्ति को वह प्रसंग अप्रिय है उसे सामने नहीं लाना चाहता। और यह कि बिना कहे उसे दोनों साथ-साथ झेल रहें हैं। सहभागी हैं। इस सहभागिता से अकथनीय दु:ख और अकथनीय सुख दोनों असीम तो हो जाते हैं किन्तु सहभागिता का बोध एक लोकोत्तर सार्थकता भी प्रदान करता है। सुख की सहभागिता का अप्रतिम उदाहरण निराला का यह प्रेम गीत है-
जैसे हम हैं वैसे ही रहें।
लिए हाथ एक दूसरे का
अतिशय सुख के सागर में बहें।
पुरानी कविता में दु:ख के बाहक मौन के उदाहरण कम नहीं।
'आखिरी छलांग' के कथा-नायक पहलवान बेटी की सादी के लिए वर ढूंढ़ने गए। बेटी के लिए वर ढूंढने का जो कथा- विवरण शिवमूर्ति ने दिया वह विलक्षण है। उसकी संवाद योजना क्लासिक है। गांव का सीधा-साधा आदमी अंदर से कितना ताड़ने वाला होता है, ठान ले तो कितनी उद्घाटक, निद्रानाशक और मारक भाषा बोल सकता है- इसे जानने के लिए शिवमूर्ति की रचना का यह अंश पढ़ा जाना चाहिए। समकालीन कथाकारों ने इस भाषा का उपयोग करना यों भी छोड़ रखा है, किसान-जीवन पर न लिखकर। किसान-जीवन पर लिखने वाले भी प्राय: इस भाषा का व्यवहार करने की स्थिति-योजना नहीं कर पाते। इसी भाषा का उपयोग तुलसी की रचनाओं में हुआ है। गद्य में और कहीं-कहीं पद्य में निराला के यहां। 'बिल्लेसर बकरिहा' और 'कुल्ली भाट' याद कीजिए। प्रेमचंद के पात्र ऐसी निद्रा-नाशिनी भाषा नहीं बोलते।
लौटते हैं 'मौन' पर। पहलवान ने खीझकर, कुढ़कर बचन-बाण से लड़के के पिता और मां को बींध तो दिया लेकिन घर तो निराश ही लौटना पड़ा। बचन-बाण का प्रयोग तो निराशा का परिणाम था। पत्नी आशा और निरशा के झूले में झूल रही थी। दांपत्य जीवन कितनी मार्मिकताओं से होता है। पति-पत्नी के बीच का संबंध कितनी पर्तों में लिपटा होता है। वे अपने उत्तरदायित्वों के पूरा होने-न हो पाने, अपनी क्षमताओं-अक्षमताओं के साथ-साथ कैसा भोगते हैं- यह अगम-अकथ है। 'भोगना' शब्द का प्रयाग मैं जान-बूझकर कर रहा हूं। एक-दूसरे को शरीर से भोगना और पति-पत्नी का पारिवारिक समस्याएं भोगना- इनमें प्रगाढ़ता समान होती है। शरीर-भोगना अन्यत्र भी हो सकता है। पारिवारिकता को भोगना परिवार में ही होता है। उसी प्रगाढ़ एकमेकता का ही एक प्रकरण है इस मौन (न पूछने) में-
''घर पहुंचते-पहुंचते खवाई-पियाई का समय निकल गया था... पहलवान डर रहे थे कि अब किसी भी समय पत्नी लड़के वाले का प्रसंग छेडे़गी, लेकिन पत्नी ने ऐसा नहीं किया। वे तीर्थ और उनके परिवार का हाल-चाल लेती रहीं.... वे जानती थीं कि कोई उम्मीद की बात होती तो पहलवान से बिना बताए घड़ी भर भी न रहा जाता।''
न पूछने-कहने से मन का बोझ कम नहीं होता। अंदर-अंदर गूंजता रहता है। लेकिन पूछने से जो बेदना उत्तर देने वाले को होगी और पूछने पर जो वेदना उत्तर पाने वाले को होगी उसे दोनों बचाते रहते हैं। असह्य यंत्रणा की ऐसी मन: स्थिति में चुप से काम लेने का कौशल कथाकार शानी को आता था। इस दृष्टि से उनकी कहानी 'एक नाव के यात्री' विशिष्ट उल्लेखनीय है। मौन का उपयोग इस कहानी में और भी कई स्थलों पर हुआ है।
....कहते हैं परिचय के बिना प्रेम नहीं होता। शिवमूर्ति को किसान-जीवन के पशुधन की गहरी पहचान और जानकारी है, संबंधों की, उपयोगिता की। स्वस्थ-पुष्ट बछडे़ की पहचान-
''बड़ी-बड़ी चमकती काली आंखें। नुकीली गठीली काली मोटी जड़ वाली बित्ते भर की सींग। पुट्ठों पर चर्बी की मोटी परत। गले के नीचे लहराती ललरी। मोटे घने वालों वाली काली लंबी पूंछ। कंधे पर आकार ग्रहण करती डील और नीचे लटकता वृहद गुलाबी अंडकोष।''
बछडे़ का यह शरीर-वर्णन किशोरी के नख-शिख वर्णन को मात करता है। जो लोग कहानी में कविता की पहचान करते हैं, वे देखें।पशु का ऐसा नख-शिख वर्णन कथा-साहित्य में मैंने अन्यत्र नहीं पढ़ा है।
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नख-शिख ही नहीं, पशु-मनोविज्ञान और पशु के साथ किसान के जिस मानवीय संबंध की बात की गईं है- वह। बछड़ा बिकने के पहले खूंटे से खोला गया। उसके बाद-''खूंटे से मुक्त होने की खुशी से बछड़ा चार-छह कदम तो तेजी से चला लेकिन जब पीछे से गाय के होकड़ने की आवाज आईं तो उसे कुछ गड़बड़ होने का अंदेशा हुआ। उसने पैर रोप दिए। खींचने पर एक कदम आगे बढ़ाता फिर अड़ जाता... पहले वह पेशाब के बहाने रूका फिर गोबर के बहाने।''
जब यह सब हो रहा था तो पहलवान लेटे ही रह गए। बछड़ा दूर चला जाय (ले जाया जा चुके, दिखलाईं न पडे़) तो उठें।
इस निष्चेष्टा में पहलवान की व्यथा पुंजीभूत है। व्यथा की मानसिक अंधड़ इस निष्चेष्टा में रूपांतरति है जैसे ऊर्जा जड़ पिंड में समाहित हो गईं हो। शिवमूर्ति ने यह शिल्प-सिद्धि अर्जित कर ली।
.......शिवमूर्ति ऐसे रचनाकार हैं जिनको गांव के किसानों-छोटे किसानों के जीवन, उनकी समस्याओं की केवल जानकारी भर नहीं, वे उनके दुख-सुख से तादात्म्य हैं- लेखक के रूप में। व्यक्ति के रूप में तो वे खुद छोटे किसान के ही कुल के हैं। इसलिए 'आखिरी छलांग' में इतनी विश्वसनीयता है कि वह कथा रपट भी लगती है। उसमें, इसीलिए भरपूर नाटकीयता है। इस रचना की भाषा अपने-आप में एक सिद्धि है।
विचारधारा से खुलापन तो है लेकिन कथानक में ढीलापन भी है। कथा-वस्तु के किसी स्त्रोत से एक और प्रकरण फोड़कर निकाल लेने का शिल्प तो है लेकिन कभी-कभी लगता है कि ग्राम-जीवन का टटकापन लाने के लिए स्थितियों को गांज दिया गया है। स्थितियां इतनी हैं कि 'आखिरी छलांग' को और अधिक स्पेस मिलना चाहिए था।........
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