Tuesday, September 20, 2011

तर्पण (उपन्यास) का एक अंश





                उपन्यास
          तर्पण






प्रस्तुत हैं पुस्तक के ब्लर्ब के कुछ अंश :-

तर्पण भारतीय समाज में सहस्राब्दियों से शोषित,दलित और उत्पीड़ित समुदाय के प्रतिरोध एवं परिवर्तन की कथा है। इसमें एक तरफ कई-कई हजार वर्षों के दुःख, अभाव और अत्याचार का सनातन यथार्थ है तो दूसरी तरफ दलितों के स्वप्न, संघर्ष और मुक्ति चेतना की नई वास्तविकता। तर्पण में न तो दलित जीवन के चित्रण में भोगे गये यथार्थ की अतिशय भावुकता और अहंकार है, न ही अनुभव का अभाव। उत्कृष्ट रचनाशीलता के समस्त जरूरी उपकरणों से सम्पन्न तर्पण दलित यथार्थ को अचूक दृष्टिसम्पन्नता के साथ अभिव्यक्त करता है।

गाँव में ब्राह्मण युवक चन्दर युवती रजपत्ती से बलात्कार की कोशिश करता है। रजपत्ती के साथ की अन्य स्त्रियों के विरोध के कारण वह सफल नहीं हो पाता। उसे भागना पड़ता है। लेकिन दलित, बलात्कार किये जाने की रिपोर्ट लिखते हैं। ‘झूठी रिपोर्ट’ के इस अर्द्धसत्य के जरिए शिवमूर्ति हिन्दू समाज की वर्णाश्रम व्यवस्था के घोर विखंडन का महासत्य प्रकट करते हैं। इस पृष्ठभूमि पर इतनी बेधकता, दक्षता और ईमान के साथ अन्य कोई रचना दुर्लभ है।

समकालीन कथा साहित्य में शिवमूर्ति ग्रामीण वास्तविकता के सर्वाधिक समर्थ और विश्वनीय लेखकों में है। तर्पण इनकी क्षमताओं का शिखर है। रजपत्ती, भाईजी, मालकिन, धरमू पंडित जैसे अनेक चरित्रों के साथ अवध का एक गाँव अपनी पूरी सामाजिक, भौगोलिक संरचना के साथ यहाँ उपस्थित है। गाँव के लोग-बाग, प्रकृति, रीति-रिवाज, बोली-बानी-सब कुछ-शिवमूर्ति के जादू से जीवित-जाग्रत हो उठे हैं। इसे इस तरह भी कह सकते हैं कि उत्तर भारत का गँवई अवध यहाँ धड़क रहा है।

संक्षेप में कहें तो तर्पण ऐसी औपन्यासिक कृति है जिसमें मनु की सामाजिक व्यवस्था का अमोघ संधान किया गया है। एक भारी उथल-पुथल से भरा यह उपन्यास भारतीय समय और राजनीति में दलितों की नई करवट का सचेत, समर्थ और सफल आख्यान है।



 शिवमूर्ति का उपन्यास 'तर्पण ' भारतरीय समाज में सहस्त्राब्दियों से शोषित, दलित और उत्पीड़ित समुदाय के प्रतिरोध एवं परिवर्तन की कथा है। यह उपन्यास सम्पूर्ण रूप में तद्‌भव नामक साहित्यिक पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। पुन: पुस्तक रूप में राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। ब्लाग के पाठकों के लिए इस उपन्यास के कुछ अंश प्रस्तुत हैं:-
  

दो बड़े बड़े गन्ने कन्धे पर रखे और कोंछ में पाँच किलो धान की मजदूरी सँभाले चलती हुई रजपत्ती का पैर इलाके के नम्बरी मेंड़कटा’ नत्थूसिंह की मेंड़ पर दो बार फिसला। कोंछ के उभार और वजन के चलते गर्भवती स्त्री की नकल करते हुए वह दो बार मुस्कराई।
आज की मजदूरी के अलावा चौधराइन ने उसे दो बड़े गन्ने घेलवा में पकड़ा दिए। जब से इलाके में मजदूरी बढ़ाने का आन्दोलन हुआ, खेतिहर मजदूरों को किसान खुश रखना चाहते हैं। पता नहीं किस बात पर नाराज होकर कब काम का ‘बाईकाट’ कर दें।

इस गाँव के ठाकुरों-बाभनों को अब मनमाफिक मजदूर कम मिलते हैं। पन्द्रह-सोलह घरों की चमरौटी में दो तीन घर ही इनकी मजदूरी करते हैं। बाकी औरतें ज्यादातर आसपास के गाँवों में मध्यवर्ती जाति के किसानों के खेत में काम करना पसन्द करती हैं और पुरुष शहर जाकर दिहाड़ी करना। चौधराइन औरतों को खुश रखना जानती हैं। कभी गन्ना, आलू या शकरकंद का ‘घेलवा’ देकर, कभी अपने टी. वी. में ‘महाभारत’ या ‘जै हनुमान’ दिखाकर।

लेकिन धरमू पंडित के गन्ने की बात ही और है। लाल छालवाला। मोटाई में भी दुगना। बड़े-बड़े रस भरे पोरोंवाला। नाखून से भी खुरच दो तो रस की बूँदें चू पड़ें। फैजाबाद के सरकारी फारम से बीज मँगाकर बोया है धरमू ने। परभुआ कहता, ‘‘बुलबुल गन्ना। गल्ला बनाने के लिए छिलके का सिरा दाँत से खींचो तो पेड़ी तक छिलता चला जाता है।’’

रजपतिया ने मेंड़ के बगल में लहराते सरसराते धरमू पंडित के गन्ने पर हसरत की नजर डाली। उसके मन में कई दिन से पाप बसा है-धरमू पंडित के गन्ने की चोरी करने का। गन्ना तो असली यही होता है। हरी छालवाली तो ‘ऊख’ है। आज ही उसका यह पाप फलित हो सकता था, अगर थोड़ा-सा अँधेरा हो गया होता।
सूरज भगवान लाली फेंककर डूबने जा रहे हैं।
एक तरफ बुलबुल गन्ने की सरसराती झूमती फसल। दूसरी तरफ पीली-पीली फूली लाही (अगैती सरसों) का विस्तार। बीच के खेत में बित्ते-बित्ते भर के सिर हिलाते मटर के पोल्ले। इन कोमल पोल्लों के स्वाद की बराबरी भला कोई और साग कर सकता है ? चाहे चने का ही क्यों न हो। ऐसी ही अचानक लगनेवाली ‘गौं’ के लिए वह नमक और हरी मिर्च आँचल के खूँट में बाँध कर चलती है।

नरम पोल्ले सिर हिलाकर खोंटने का न्यौता दे रहे हैं।
लाही के खेत में घुटने मोड़े सिर छिपाए देर से इन्तजार करता धरमू पंडित का बेटा चन्दर रह रहकर ऊँट की तरह गर्दन उठाकर देखता है। दूर खेतों की मेंड़ पर चली आ रही है रजपतिया। अब पहुँची उसके खेतों की मेंड़ पर अभी अगर वह उसके खेत से ‘कड़कड़ा’ कर दो गन्ने तोड़ ले तो रँगे हाथ पकड़ने का कितना बढ़िया ‘चानस’ हाथ लग जाए। फिर ना-नुकुर करने की हिम्मत नहीं पड़ सकती। पर आज तो यह पहले से ही दो गन्ने कन्धे पर लादे हुए है।

अगर थोड़ा-सा अँधेरा उतर आया होता...।
इस साल धान की लगवाही से ही पीछा करता आ रहा है रजपतिया का। पिछले साल का पीछा करना बेकार गया था। अगले साल तक अपनी ससुराल चली जाएगी। कितनी जल्दी रहती है इन लोगों को अपनी बेटियाँ ससुराल भेजने की। साल दो साल भी गाँव में ‘खेलने-खाने’ के लिए नहीं छोड़ते।
रजपतिया ने आस-पास देखा। कहीं कोई नहीं। सूरज भगवान डूब गए हैं।
वह मटर के खेत में उतरकर झुकी और ‘हबर-हबर’ नोचने लगी। बस पाँच मिनट का मौका चाहिए।

पहला कौर भी मुँह में नहीं गया था कि अधीर चन्दर अचानक जमदूत की तरह ‘परगट’ हुआ। देखकर खून सूख गया। गाँव के बबुआनों के लड़कों की मंशा तो वह बारह-तेरह साल की उमर से ही भाँपती आई है। और यह चन्दरवा। इसका चरित्तर तो अब तक दो तीन बच्चों की माँ बन चुकी गाँव की लड़कियाँ तक से बखानती आ रही हैं जब वह इन बातों का मतलब भी ठीक से समझने लायक नहीं हुई थी। कसकर दुरदुराना पड़ेगा।
चन्दर की आँखों में शैतान उतर आया है। वह शैतानी हँसी हँसता है-‘‘आज आई है पकड़ में। तभी मैं कहूँ कि कौन रोज मेरी मटर का सत्यानाश कर रहा है। घंटे भर से अगोर रहा हूँ।’’
‘‘अभी तो मैंने ठीक से खेत में पैर भी नहीं रखा। एक कौर भी मुँह से गया हो तो कहो। उसने मुँह फैला दिया-‘‘आँ ! देखो ।’’ उसकी धुकधुकी तेज होती जा रही थी।
‘‘और यह जो गठरी बाँध रखी है कोंछ में, सो।’’
‘‘यह तो मजूरी है।’’

‘‘मजूरी कि पोल्ले ? जरा देखूँ तो।’’ वह आगे बढ़ा।
‘‘खबरदार।’’ वह पिछड़ते हुए गुर्रायी, ‘‘दूर ही रहना। मैं खुद दिखाती हूँ।’’
खबरदार ? खबरदार बोलना कब सीख गईं इन ‘नान्हों’ की छोकरियाँ ? इतनी हिम्मत।
और रजपतिया का कोंछ खुलने से पहले चन्दर का हाथ बदमाशी के लिए चल गया। इस चले हुए हाथ को बीच में ही झटक कर वह गरजी-‘‘हरामजादे।’’ और पीछे हटने लगी।
झटके हुए हाथ की अँगूठी की नोक आँचल से अरझी तो आँचल फट गया। धान खेत में गिरने लगा। वह आँचल सँभालती इसके पहले ही चन्दर ने लपककर उसे कन्धों से पकड़ा और पैर में लंगी मार दिया। वह सँभल न पाई। गिर गई और ऊपर झुक आए चन्दर के बाल पकड़कर खींचती हुई चिल्लाई-‘‘अरे माई रे। गोहार लागा। धरमुआ कै पुतवा उधिरान बा रे।’’
‘‘का भवा रे ? कौन है रे ?’’ लाही के खेत के उस पार की मेंड़ पर घास छीलती परेमा की माई चिल्लाते हुए दौड़ी-‘‘आई गए। जाई न पावै। पहुँचि गए।’’

सुनकर रजपतिया को बल मिल गया। छुड़ाने की कोशिश कर रहे चन्दर के बालों को उसने और कसकर पकड़ लिया।
‘‘कौन हे रे, का भवा ?’’ परेमा की माँ पास आ गई। उसने चन्दर के बाल छोड़ दिए। वह उठकर खड़ा हुआ तो रजपतिया भी उठी। कपड़े ठीक करते हुए वह बताने लगी-‘‘इहैं मेहरंडा धरमुआ कै पुतवा। कैलासिया (चन्दर की बहन) कै भतरा। अन्नासै मारै लाग।’’
‘‘क्या कहा ? धरमुआ ? बहिन की गाली भी। नुकसान भी करेगी, चोरी भी करेगी और ऐसी बेपर्दगी वाली गाली भी। जबान में लगाम नहीं। साली चमाइन।’’
उसने नीचे पड़े गन्ने की अगोढ़ी तोड़कर गद्द-गद्द दो तीन अगोढ़ी रजपतिया की पीठ पर जमा दिया।

रजपतिया चिल्लाई। परेमा की माई ने लपककर रजपतिया को अपनी आड़ में लिया और सरापने लगी-‘‘अरे तुम लोगों की आँख का पानी एकदमै मर गया है ? आँख में ‘फूली’ पड़ गई है ? बिटिया-बहिन की पहचान नहीं रह गई है तो कैलसिया को काहे नहीं पकड़ लेता घरवै में। भतार के घर से गदही होकर लौटी है। पाँच साल से किसी के फुलाए नहीं फूल रही है।’’
‘खबरदार ! जो आगे फिर ‘जद्दबद्द’ निकाला। पहले अपनी करतूत नहीं देखती। बिगहा भर मटर हफ्ते भर से बूँची कर डाला। फारमी गन्ना एकदम ‘खंखड़’ हो गया। उस पर झूठ-मूठ हल्ला मचाती हो।’’

सिवार में चारों तरफ से का भवा ? का भवा ? की आवाजें पास आती जा रही हैं। मिस्त्री बहू हाथ में खुरपा लिये दौड़ती हुई सबसे आगे पहुँची और चन्दर को देखकर बिना बताये सारा माजरा समझ गई। ललकारने लगी-‘‘पकड़-पकड़ ! भगाने न पावै। ‘पोतवा’ पकड़ि के ऐंठ दे। हमेशा-हमेशा का ‘गरह’ कट जाय।’’
तीनों लपकीं तो लड़का डर गया। पकड़ में आ गया तो बच नहीं पाएगा। खुरपा...! वह पीछे हटा। फिर मुड़कर भाग खड़ा हुआ।
रजपतिया ने बताया, ‘‘जाने कहाँ से निकला और बोलब न चालब, सोझै मारै लाग। कहा हमार गन्ना तोरी हो। हमार मटर नोची हो। तलासी लेब। जब कि ई गन्ना चौधरी के घर से मिला है। देखने से ही पता चल जाता है कि इसके खेत का नहीं है।’’

‘‘ई हैजा काटा बौराई गवा है। जवान जहान बहिन-बिटिया को आड़-ओड़ में पाकर तलासी लेगा ? हाथ पकड़ेगा ? इसकी तरवार बहक गई है। इसको किसी की लाज-लिहाज नहीं है। डर, भय नहीं है। सारा गाँव इसकी करनी से गंधा रहा है और कोई इसे रोकने-छेंकनेवाला नहीं है।’’ मिस्त्री बहू गरज-गरियाकर बात को पूरे गाँव में फैला देना चाहती है। पाँच साल पहले उसकी ननद के साथ घटी घटना इसी रजपतिया की माई के चलते गाँव भर में फैली थी। अब उसे मौका मिला है तो वह क्यों दबने दे बात को ?
खेत में गिरा आधा-तीहा धान बटोरकर सब के साथ चली रजपतिया। इतना ‘कौवारोर’ सुनकर वह आतंकित हो गई है। मिस्त्री बहू बताती जा रही है-‘‘इहै चन्दरवा। अकेली लड़की देखकर गिरा दिया। वह तो कहो हम पहुँच गए। खुरपा लपलपा के धमकाया-छोड़ दे, नहीं काट लेंगे, तब भागा।’’

दुआर पर जुट आई भीड़ को हटाकर रजपतिया की माँ बेटी को अन्दर करके दरवाजा बन्द कर लेती है। अभी रजपतिया का बाप नहीं लौटा शहर से दिहाड़ी कमाकर। इस बीच वह जान लेना चाहती है कि असली मामला क्या है ?
‘‘सच-सच बताना। झूठ एक रत्ती नहीं।’’ पियार को गाँव में घुसते ही खबर मिलती है। सुनकर सन्न रह जाता है। जैसे पूरे शरीर का खून सूख गया हो। उसे तुरन्त अपनी बड़ी बेटी सूरसती की याद आती है। दस साल हो गए उसे कुएँ में कूदकर जान दिये हुए। आज तक पता नहीं चल पाया कि किसने उसका सत्यानाश किया था। और आज फिर...।’
बाहर अँधेरा है। साइकिल खड़ी करके वह अन्दर जाता है। रजपतिया धान कूट रही है। वह हवा में कुछ सूँघने की कोशिश करता है। फिर सीधे रजपतिया के सामने जाकर खड़ा हो जाता है। उसे आया जानकर रजपतिया की माँ भी आ जाती है।
‘‘क्या हुआ रे ? सही सही बोल।’’

‘‘उहै चन्दरवा। अन्नासै ढकेल दिहिस। मारे लाग।’’
‘‘ढकेल दिया ? मारने लगा ?’’ बबुआनों, सवर्णों के लड़कों द्वारा नान्हों, दलितों की जवान बहू-बेटियों का रास्ता साँझ के झुटपुटे में, निर्जन खेत-बाग में रोक लेने, ढकेल देने का क्या मतलब होता है, यह उसे खूब मालूम है। इससे अधिक न कोई बाप पूछ सकता है, न कोई बेटी बता सकती है। लगा उसके तन-बदन में धीरे धीरे अंगार भर रहा है। अधेड़ देह उत्तेजना से काँपने लगी है। अभी मिल जाए साला तो बोटी-बोटी कर डाले। फिर चाहे फाँसी लगे, चाहे दामुल।

वह बाहर की ओर लपकता है। रजपतिया की माँ पीछे से आवाज देती है-‘‘जरा सुनिए। पहले कान नहीं टोइएगा। कऊआ ही खदेड़िएगा। मैं कहती हूँ पूरी बात सुनकर जाइए।’’
‘‘क्या है पूरी बात ? क्या बाकी है सुनने को ?’’
‘‘अकेली नहीं थी बिटिया। परेमा की माँ थी। मिस्त्री बहू थी। उसने धक्का दिया लेकिन इसने भी तो उसका मुँह नोच लिया। बाल उखाड़ लिया। तीनों ने मिलकर खदेड़ा तो भागते भागा। जो तुम सोच रहे हो वैसी कोई बात नहीं हुई। फिर गलती तो इसी की है। जब हम लोग उनकी मजूरी का ‘बाईकाट’ किए हैं तो इसे उसके खेत में साग नोचने की क्या जरूरत थी ?’’
‘‘तो क्यों घुसी यह उसके खेत में ? किसने भेजा ? हरामजादी तेरी ही जीभ कब्जे में नहीं रहती। बहुत चटोरी हो गई है। क्यों भेजा लड़की को ?’’

पियारे उसका बाल पकड़ कर धमाधम चार-पाँच घूँसे पीठ पर लगाता है। पत्नी चिल्लाने लगती है-एकदम्मै सनक गया है ई आदमी तो। कहाँ का गुस्सा कहाँ उतार रहा है। अगर लड़की ने एक कौर साग नोच ही लिया तो क्या वह कसाई जान ले लेगा ? जवान जहान लड़की पर हाथ उठा देगा ?
ठीक बात। अभी चलकर वह धरमू पंडित से पूछता है लाठी लेकर दनदनाता हुआ वह धरमू के घर की ओर लपकता है। दालान से चारा मशीन चलने की आवाज आ रही है। पियारे झाँककर देखता है। ढिबरी भभक रही है। उनका नेपाली नौकर मशीन चला रहा है। नैपालिन चरी लगा रही है।
कम मजदूरी देने के चलते गाँव के चमारों द्वारा-पाँच साल पहले हलवाही बन्द करने के बाद धरमू कहीं से यह नेपाली जो़ड़ा खोज कर लाए हैं। बस इसे हल जोतना नहीं आता।
तभी धरमू हाथ में लालटेन लिये घर से बाहर निकलते हैं। पियारे दनदनाता हुआ उनके सामने पहुँचता है, ‘‘महाराज, आप ही के पास आए हैं। बता दीजिए कि इस गाँव में रहें कि निकल जाएँ ? आप लोगों की नजर में गरीब-गुरबा की कोई इज्जत नहीं है ?’’

धरमू को पियारे का पैलगी प्रणाम न करना बहुत अखरा लेकिन जाहिर नहीं होने दिया। अब तो यह आम रिवाज होता जा रहा है। वे शांत स्वर में बोलते हैं, ‘‘कुछ बताओगे भी, बात क्या है ? तुम तो लगता है फौजदारी करने आए हो।’’
‘‘बात ही ऐसी है महाराज ! जानकर अनजान मत बनिए। आपके चन्दर महाराज ने मेरी बेटी को अकेली पाकर सिवार में पकड़ लिया। बेइज्जत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सारे गाँव में हल्ला है।’’
‘‘देखो, हल्ला की मत कहो। इस गाँव में उड़ने को पइया तो लोग सूप उड़ा देते हैं। लेकिन सुना मैंने भी है कि किसी को उन्होंने साग नोचते या गन्ना तोड़ते पकड़ा है। अभी घर नहीं लौटे। लौटते हैं तो पूछता हूँ। लौण्डे-लपाड़े हैं। गलती किए हैं तो मैं समझा दूँगा।’’

‘‘लौण्डे-लपाड़े ? तीस के ऊपर पहुँच गए हैं। बियाह हुआ होता तो पाँच बच्चों के बाप होते।’’
‘‘ठीक है, लेकिन तुम भी तो सयानी बेटी के बाप हो पियारे। तुम्हें भी आँख, कान खोलकर रखना चाहिए। लौंडिया जवान हो गई तो बिदाई करके कंटक साफ करो। घर में बैठाने का क्या मतलब ?’’
पंडिताइन पता नहीं कब आकर पंडित के पीछे खड़ी हो गई थीं। सामने आते हुए बोलीं, ‘‘जवान बेटी को बिदा कर देगा तो उसकी कमाई कैसे खाएगा ? उतान होकर गली-गली अठिलाती घूमती है। गाँव भर के लड़कों को बरबाद कर रही है। वह तुमको नजर नहीं आता ? जहाँ गुड़ रहेगा वहाँ चिउँटा जाबै करेंगे। एक बार चमाइन का राज क्या आया, सारे चमार, पासी खोपड़ी पर मूतने लगे। इतनी हिम्मत कि लाठी लेकर घर पर ओरहन देने चढ़ आए।’’

‘‘तै चल अन्दर। हम कहते हैं चल।’’ धरमू पत्नी पर बिफरे।
पियारे भी गरम हो गया, ‘‘किसी गुमान में मत भूलिए। पंडिताइन। अब हम ऊ चमार नहीं हैं कि कान, पूँछ दबाकर सब सह, सुन लेंगे। चिउँटे को गुड़ का मजा लेना महँगा कर देंगे।’’
धरमू पियारे को बुलाकर आगे ले गए और तसल्ली देने लगे, ‘‘छोटा हो चाहे बड़ा। इज्जत सबकी बराबर है। इस कुल-कलंकी को आने दो आज। बिना दस लात लगाये घर में घुसने नहीं दूँगा। फिर आवाज दबाकर बोले-‘‘अब इस बात को बढ़ाने में कोई रस नहीं निकलेगा पियारे। समझदारी से काम लो।’’

थोड़ी देर तक दुविधा में खड़ा रहने के बाद पियारे लौट पड़ा। धरमू ने पंडिताइन को अन्दर ठेलते हुए हड़काया-‘‘पैदा किया है ऐसा कुल कलंकी और आग में पानी के बजाय खर डालना सीख कर आई हो बाप के घर से। अभी सारी चमरौटी आकर घेरेगी तो दाँत चियार दोगी।’’
‘‘कुल कलंकी हुआ है तुम्हारे लच्छन लेकर। जैसे बाप अभी तक दुआर-दुआर छुछुआते घूमता है वही तो बेटा भी सीखेगा।’’
‘‘चल अन्दर।’’ धरमू दहाड़े, ‘‘ज्यादा गचर-गचर किया तो अभी मारे जूतन के...कूकूरि...।’’
आधी रात तक आने के बाद पियारे को लगता है कि पंडित ने मीठी बातों से उसे उल्लू बना दिया। बिना कुछ किये घर लौटा आ रहा है। लगता है वह कुछ हारकर, कुछ गँवाकर लौट रहा है।
लेकिन क्या करे ? क्या कर सकता है ?
शहरों की वह नहीं जानता लेकिन गाँव में जवान बेटी का बाप होना, वह भी छोटी मेहनतकश जाति वालों के लिए महा मुश्किल। कितना धीरज, कितनी समवायी चाहिए, यह वह आदमी बिल्कुल नहीं समझ सकता जो किसी बेटी का बाप नहीं है।

वह चाहता था कि इस समय उसे किसी से मिलना न पड़े। किसी को कुछ बताना न पड़े। बिना खाए-पिए मुँह ढँककर मड़हे में सो जाना चाहता था। लेकिन दरवाजे पर तो पूरी चमरौटी इकट्ठी है। ढिबरी की मद्धिम रोशनी में उनकी परछाइयाँ हिलडुल रही हैं।

उसकी अनुपस्थिति में ही सब एकमत हो गए हैं कि थाने में रिपोर्ट लिखानी जरूरी है। मिस्त्री की बहन के साथ हुई घटना के चार-पाँच साल बाद फिर ऐसी वारदात हुई है। आसपास के चार-छह गाँव की बिरादरी में इस गाँव की बड़ी इज्जत है। भले ही मजदूरी बढ़ाने का झगड़ा दूसरे गाँव में शुरू हुआ लेकिन उसे सबसे पहले लागू करने को मजबूर किया था हमी लोगों ने। तब से कहीं कोई टेढ़ा मामला फँसता है तो बिरादरी के लोग यहीं सलाह-मशविरा लेने के लिए आते हैं।..एक दो रोज में बात चारों तरफ फैलेगी। एक आदमी की नहीं, पूरी जाति की बदनामी और बेइज्जती का मामला है।

पियारे बारी-बारी सबका मुँह देखता है। थाना, पुलिस में बात ले जाने का मतलब है दस गारी और सौ दो सौ का खर्चा। दस दिन का अकाज ऊपर से। नतीजा कुछ नहीं।
वह लोगों को समझाने की कोशिश करता है-लेकिन थाने पर लिखाएँगे क्या ? उसने धक्का दिया। और बदले में तीनों औरतों ने गरियाते हुए खदेड़ दिया। वह जान लेकर भागते भागा। इसमें लिखाने के लिए क्या है ?
लेकिन नौजवान तबका कुछ सुनने को तैयार नहीं।
-हम कहते हैं अगर दोनों औरतें न पहुँचतीं तब क्या होता ? क्या बचा था होने के लिए ?
-क्या हमें चेतने के लिए सब कुछ हो जाना जरूरी है ?
पियारे मानता है कि लड़के गलत नहीं कह रहे हैं। आज से नहीं होश सँभालवने के बाद से ही वह देख रहा है कि बड़ी जातियों के लोग उनकी इज्जत पर हाथ डालने में रत्ती भर भी संकोच नहीं करते। बल्कि इसे उनके मान-सम्मान पर चोट करने के लिए हथियार के रूप में इस्तेमाल करते हैं। ज्यादातर मामलों में उनके घर के मुखिया को भी इसमें कुछ नाजायज नहीं दिखाई पड़ता। आज ही किस तरह मालकिन उल्टे उसकी बेटी पर तोहमत लगाने लगीं।

वह खुद भी जाति-बिरादरी के मामलों में हमेशा आगे-आगे चलता रहा है क्या बोले ?
‘‘जैसी सबकी मर्जी। वैसे मैं तो खुद ही धरमू को दस बात सुना आया। लड़का मिल गया होता तो बिना मुँड़ फोड़े न लौटता। पंडित चिरौरी करने लगा कि लड़का है। गलती कर बैठा। अगला जब अपनी गलती मान रहा है...’’
‘‘गलती मान रहा है तो भरी पंचायत में माफी माँगे।’’
‘‘कहाँ रहते हो ? वह बाभन होकर तुम्हारी पंचायत में माफी माँगने आवेगा।’’ मिस्त्री का बी.ए. में पढ़नेवाला लड़का विक्रम कहता है, ‘‘दो दिन की मोहलत पा गया तो आपस में ही लड़ा देगा। फिर करते रहिए पंचायत। कसम तो खाई थी सबने पंचायत में कि इस गाँव के किसी ठाकुर, बाभन की हलवाही नहीं करेंगे। फिर कैसे धरमू ने फोड़ लिया बग्गड़ को। दो जने ठाकुरों की हलवाही करने लगे। बिना थाना पुलिस किए, ये ठीक नहीं हो सकते।’’


उपन्यास तर्पण का एक अन्य अंश
     

  रजपत्ती डाक्टरी कराकर गाँव लौट आई है। उसकी हम उम्र सहेलियाँ जानना चाहती हैं कि कैसे हुई डाक्टरी? रापपत्ती मुँह से नहीं बोलती। बस हाथ की तीनों उंगलियाँ दिखाकर 'फिक्क' से हँस देती है।
      इजलास के बरामदे में हथकड़ी में जकडे़ बेटे को देखते ही मालकिन का दिल 'धक्क' से हो जाता हो जाता है। आँखों से झार-झार आँसू बहने लगते हैं। हथकड़ी लगी रहती है उनके बेटे को? इस बात को अब तक उनसे छिपाया क्यों गया? वे देर तक थूक घोंटने की कोशिश करती हैं। लेकिन गला तो एकदम सूख गया है। बेटे के सिर पर हाथ फेरते हुए उनके हाथ काँप रहे हैं।
      रिमांड की पेशी के बाद नीम के चबूतरे पर बैठाकर वे बेटे को घर से बनाकर लाया गया चावल-उड़द का 'फरा' और 'रिकवछ' खिलाती हैं। आँचल से उसका मुँह पोंछती हैं। चौदह-पन्द्रह दिन में ही चेहरा कितना उतर गया है। आज जमानत हो जाए तो वे बेटे  को लेकर पहले बड़े हनुमान जी को लड्‌डू चढ़ाने जाएँगी।
      यह तो उन्हें बाद में पता लगा कि घर का खाना खिलाने के लिए सिपाहियों को पचास रूपये देने पडे़ थे। क्यों भला? अपना ही खाना खाने के लिए? गजब कानून बना रखा है सरकार ने, जेब भरने के लिए।
आज पुकार के पहले ही चन्दर के मामा खोखन बाबू को ढूँढकर ले आए। भाई जी ने एक दिन पहले ही पेशकार से खोखन बाबू का वकालतनामा लगाने की जानकारी कर ली थी। उन्होंने भी सिद्दीकी वकील साहब का वकालतनामा लगवा दिया। सिद्दीकी वकील साहब गरजने-तड़कनेवाली बहस नहीं करते। बस मुस्कराते हुए धीमे से असली 'प्वाइंट' रख देते हैं। आज भी उन्होंने आनरेबल कोर्ट से सिर्फ इतना अर्ज किया कि लड़की माइनर है। उम्र निर्धारण के लिए उसका एक्सरे होना निहायत जरूरी है। सदर अस्पताल की एक्सरे मशीन हफ्ते भर से खराब पड़ी है। एक्सरे रिपोर्ट आने तक मोहलत लाजिमी है। बस इसी बात पर तारीख पड़ गई । खोखन बाबू को तो खाँसने तक का मौका नहीं मिल पाया।
       बिलबिला गए धरमू। मन हुआ कि वकील को फीस के नाम पर कानी कौड़ी भी न दें। पेशकार को पाँच रूपये देना खलने लगा। मालकिन तो वहीं बरामदे में बैठकर रोने लगीं।
मुन्ना बहुत खुश है। यह है बड़ा वकील रखने का फायदा। पाँच मिनट भी नहीं लगा। पैसा खर्च होता है, कोई बात नहीं। पैसा तो हाथ का मैल है। वह भाई जी से कहता है- इसी तरह अगर चार-पाँच पेशी और पड़ जाती......।''
       ''पडे़गी-पडेंगी। देखते जाओ।'' भाई जी झूमते हुए कहते हैं।
       ''सिर्फ पेशी ही बढ़वानी है कि अपील भी खारिज करानी है?''
      '' सिद्दीकी बाबू का मुंशी पेंसिल से कान खोदते हुए पूछता है।
       ''अरे तब क्या बात है।'' मुन्ना के मुँह से निकल जाता है।
       ''लेकिन तब तुम्हें भी पीछे-पीछे हाईकोर्ट तक दौड़ना होगा।''
       ''दौडेंगे। सौ बार दौडे़गे। आप खारिज तो करवाओ।''
      मुन्ना को कोर्ट कचेहरी की बहुत सारी बातों की जानकारी होती जा रही है। हाईकोर्ट में तो सुनवाई के लिए अपील मेच्योर होने में ही ग्यारह दिन लग जाते है। तब तो कम से कम दो महीना जेल में रहना पक्का हो जाएगा।
       आज सी.ओ. साहब तफतीस के लिए गाँव आ रहे हैं। रजपत्ती और मौके के गवाहों का बयान होगा।
      सी.ओ. साहब ने तो तीन दिन पहले ही सबको अपने आँफिस में बयान के लिए बुलवाया था। लेकिन भाई जी किसी को जाने नही दिए। सबको समझा दिया कि तफतीस में जितनी देर होगी उतना ही चन्दर का अन्दर रहना 'पक्का' होगा। शाम को मुन्ना के साथ गए और लिखकर दिला दिया कि धरमू अपने नाते रिश्तेदारों के साथ लाठी-बन्दूक लेकर शाम तक उसका घर घेरे रहे। बाहर निकलने ही नहीं दिया। कैसे आते हुजूर? पुलिस सुरक्षा दी जाए।
       चिमरौटी के बीचों-बीच जो बिस्वा भर खाली जमीन है, वहीं नीम के पेड़ के नीचे बैरागी बाबा का टोले का इकलौता तख्त माँगकर उस पर एक पुरानी कमरी बिछाई गई है। कमरी इसलिए कि बैरागी बाबा के अनुसार कमरी ही ऐसा बिछौना है जो सदैव शुद्ध रहता है।
      भाई जी ने बाजार के टेंट हाउस से किराए की दो कुर्सियाँ भी मँगवा ली है। सी.ओ. साहब के ठीक सामने नँगे पैर के अँगूठे से कच्ची जमीन को कुरेदती खड़ी रजपत्ती धीरे-धीरे काँप रही है। उसे खुद पता नहीं कि उसके आँसू क्यों निकलने लगे। दुनिया जहान की आगे-पीछे की बातें गड्‌डमड्‌ड होकर उसके मन को मथ रही हैं।
         डसकी माँ उसकी गीली आँखें पोंछती है-रो मत। रो मत।
        ''डरो नहीं। डरो नहीं।'' कोई कहता है।
         सी.ओ. साहब ने 'फालतू' लोगों से हट जाने का इशारा किया है।
        ''और आगे आ जा।'' सी.ओ. साहब कहते हैं, ''क्या हुआ तेरे साथ? सच-सच बोलना।''
        रजपत्ती कुछ बोलती नहीं। सिर झुकाए खड़ी है।
      ''बताना पडे़गा। बिना बताए हम क्या जानेंगे? धर्मदत्त के बेटे चन्द्रकान्त मणि ने तेरे साथ कुछ किया था?''
         वह स्वीकार में सिर हिलाती है।
         ''क्या किया?''
         सहेब, हमार कपड़ा फारि दिए।''
        ''कपड़ा ? कौन कपड़ा?''
        ''आँचर, साहेब।''
        ''फिर?''
        ''फिर हमार दूध पकड़ि लिए।''
        ''ऐ दूध? अच्छा हाँ, दूध। फिर?''
        ''फिर 'लंगी' मार कर खेते में गिरा दिए।''
        ''ओ ∙ ∙ तब?''
         उत्तर में रजपत्ती मुँह में आँचल ठूँसकर सिसकने लगती है।
        ''सुन लीजिए हुजूर, सुन लीजिए।'' उसकी माँ कहती है।
        ''तुम चुप रहो।....फिर? फिर क्या किया? 'बुरा काम' भी किया तेरे साथ?''
        वह सिसकते हुए स्वीकार में सिर हिलाती है।
        ''तूने कुछ नहीं किया?''
        ''हम गोहार लगाए सरकार। परेमा की अम्मा घास छील रही थी। सूनी तो वही दौड़कार आई ।''
        ''कहाँ है परेमा की अम्मा?''
       विक्रम परेमा की अम्मा को समझा-बुझाकर ले आया है। क्या पता जरूरत पड़ जाए। और देखिए पड़ गई  जरूरत।
         परेमा की माँ थोड़ी दूरी पर बैठकर सब कुछ सुन रही थी। हाथ जोड़कर आगे आती है।
         ''तू वहाँ क्या कर रही थी?''
        ''साहेब घास छील रहे थे। एक गाय है। महीना भर पहले बियाई  है।''
        ''जितना पूछा जाय उतना ही बोलो।'' सी.ओ. साहब का पेशकार घुड़कता है।
        ''जहाँ यह वारदात हुई वहाँ से तु कितनी दूरी पर थी।''
       ''साहेब, दो खेत की दूरी पर रहे। गोहार तो सुनाई पड़ी, बाकी ई समझ में नाहीं आवा कि कौन कहाँ से गोहार लगावत है। काहे से कि बीच में लाही  (सरसों की अगैती किस्म) फूली थी। कुछ दिखाई नही पड़ता था। आवाज से अन्दाजा लगा तब दौडे़।''  
           ''तो वहाँ पहुँचकर क्या देखा?''
        ''देखा कि ई लड़की नीचे पड़ी छटपटा रही है। धरमू का बेटा उसके ऊपर सवार है। डाँट-डपट का कौनों उसर नहीं देखा तो बाल पकड़कर खींचा। तब छोड़ा लड़की को। लड़की की सारी मजूरी पाँच सेर धान वहीं खेत में छितरा गया। अब भी वहीं छितराया पड़ा होगा। आप चलकर देख सकते हैं। कूला भर मटर रौंदकर 'समथर' कर दिया था। आप खुदै देख सकते हैं।
         झिझक खुल गई परेमा की माँ की। बिना पूछे ही बोलती है, ''अरे सरकार, उठा तो दो गन्ना मेरी पीठ पर भी मारा तड़ातड़।''
         ''दूसरा गवाह? मिस्त्री बहू?''
          ''हाँ सरकार।'' मिस्त्री बहू खड़ी होती है-''मुझे मौके पर पहुँचने में थोड़ी देर हो गई हुजूर। घेर तो लिए थे लेकिन उठकर भागा। पकड़ में आ जाता तो हमेशा के लिए बद्धी कर देते।''
घुमा फिराकर पूछते हैं सी.ओ. साहब। लेकिन मिस्त्री बहू हर फन्दे को काट देती है। दोनों गवाहों के बयान हू-ब-हू एक जैसे। इसका मतलब घटना सही है।
''और कोई गवाही? जो मौके पर मौजूद रहा हो? नहीं?''
सी.ओ. साहब कुछ देर तक दाँत में कलम दबाकर सोचते हैं। फिर रजपत्ती की माँ से पूछते हैं, ''कितनी उमर है लड़की की?''
          ''हुजूर मुश्किल से पन्द्रह साल।''
भाई जी ने पहले ही समझा दिया है। ''माइनर बताने से बहुत फर्क पडे़गा मुकदमे पर। जरूरत पड़ने पर मेडिकल रिपोर्ट को भी चैलेन्ज किया जाएगा।
           दफा 164 का बयान कराने का आर्डर करके हाकिम उठ जाते हैं।
   

'तर्पण' का एक अन्य अंश


         अब ठाकुरों को लगता है कि चमारों के झगडे़ में मन से धरमू का साथ न देकर गलती की गई  है। शास्त्रों में कहा गया है-शूद्र उपकार ब्रम्ह हत्या। शूद्र का उपकार करने और ब्राम्हण की हत्या करने का पाप बराबर होता है। धरमू की मदद न करना चमारों की मदद करने जैसा ही हुआ। चमार 'मनबढ़' हो गए। किसी दिन ठाकुरों को भी ललकार देंगे। 'नेतवा' का तो गाँव में आना फौरन बन्द कराना होगा। आजकल पता नहीं कहाँ-कहाँ के लखेरे फटफटिया धड़धड़ाते हुए चन्दर से मिलने आते हैं। विचित्र शक्ल-सूरत, विचित्र कपड़े-लत्ते। धड़धड़ाते हुए एकाध चक्कर चमरौटी का भी लगाते हैं। रजपतिया के घर के सामने जैसे फटफटिया में कुछ बिगड़ जाता है। बड़ी देर तक फटफटिया को रोककर आसपास के लागों को घूरते हैं। उस दिन एक ने रूकरकर  रजपतिया की माँ से पूछा-
            ''रजपतिया कहाँ है रे?''
         अन्दर से आशंकित लेकिन बाहर से दबंगई  दिखाती रजपतिया की माँ ने उसी तेवर में पूछा- ''तू कौन है रे?''
           ''अपने दामाद को नहीं पहचानती?''
           ''दामाद होगा धरमू पंडित का। उन्हीं को जाकर बैल जेसी आँख दिखाना, नहीं तो मुँह नोच लूँगी।''
         अगले दिन भाड़ के सामने मालकिन से सामना हो जाता है। मालकिन के साथ चल रही औरत कहती है-इस साल कितना कम बौर आया है आम के पेड़ों में।
         मौका पाकर मालकिन रजपतिया की माँ को सुनाकर बोलती हैं- ''कैसे बौरेगा आम? घोर कलजुग तप रहा है। शूद्र-चमार का दिमाग सातवें आसमान पर है तो आसमान से चिर्री नहीं गिर रही है, यही क्या कम है?''
           ''दिमाग तो खराब है तुम्हारे दर्जन भर दमादों का, जो गोली बन्दूक लेकर गाँव दरवाजे-दरवाजे धमकाते घूम रहे हैं।'' रजपतिया की माँ मालकिन के मुँह के पास ऊँगली नचाकर कहती है।
            दूर से बात कर नीच।'' मालकिन गरजती हैं- ''खोपड़ी पर चढ़ जाएगी क्या?''
       ''नीच होगी तुम। तुम्हारे पूत-भतार। जो गली-गली कूकुर जैसे पूँछ हिलाते, सूँघते धूमते हैं ।                 
            रजपतिया की माँ हाथ फेंक-फेंककर चिल्लाना शुरू करती हैं-
            ''हम किस बात के नीच हुए रे।''
             साथ की औरत मालकिन को खींचकर ले जाती है।
         ''बहुत जहर चढ़ गया है तुम लोगों को। '' मालकिन मुडकर दाँत पीसते हुए कहती हैं- ''सारा जहर झड़वा दूँगी। बहुत जल्दी। हरामजादी।''
            इसके बाद गाँव में हवा फैलती है कि बहुत जल्दी रजपतिया का अपहरण होगा। चन्दरवा ने कसम खाई है कि जिस काम के झूठे आरोप में उसे जेल की हवा खानी पड़ी उसे सच किए बिना वह दाढ़ी मूँछ नहीं बनवाएगा। माँ के अपमान से उसके नथुने फूल पिचक रहे हैं।
        पियारे का मन करता है कि बेलगाम जबानवाली अपनी घरवाली को हीक भरकर लातों-घूसों से पीटे। बुझती आग में यह फिर खर डाल आई। वह डर गया है। उसने तय किया कि राजपतिया को उसके ननिहाल पहुँचा देगा। जब तक आग ठंडी नहीं हो जाती वहीं रहे।
चन्दर की ललकार और मंशा से अनजान नहीं हैं चमरौटी के नौजवान। खाली चन्दर ही क्यो। ठाकुरों-बाभनों के लड़के हमेशा से ऐंठ दिखाते आए हैं अकेला पाने पर घेरने के लिए कोई न कोई बहाना निकाल लेते हैं। राह बचाकर चलना पड़ता है।
          भाई जी को पलपल की खबर है। उन्होंने सबको सावधान कर दिया है-'' जैसे रेलवे स्टेशन और बस स्टेशन पर लिखा रहता है कि अपने सामान की रक्षा आप कीजिए, वैसे ही मैं कहता हूँ कि अपने जान-माल की रक्षा आप कीजिए। जब भी घर से निकलिए लाठी-डंडे के साथ निकलिए। हाथ में लाठी देखते ही अगला मुँह सँभालकर बात करने लगता है। नौजवान लोग कमर में चाकू-गुप्ती खोंसकर चलें। खाली खोंसे ही न रहें। किसी न किसी बहाने उसका प्रदर्शन भी करें।''
           उन्होनें उपने पैसे से एक दर्जन चाकू खरीदकर खास-खास नौजवानों में बाँटा है। लेकिन चाकू-छूरी से क्या होगा? उनके पास बन्दूकें हैं। उस दिन छूटकर आने पर चन्दरवा ने धाँय-धाँय दो फायर किया तो सब जान बचाकर खेत-खेतहरी में भागने लगे। दो बन्दूकें भी टोले में हो जाएँ तो.....दो नहीं चार दिलवाऊँगा। आप लोग दरखास्त तो दीजिए। इसी हरिजन बनाम सवर्ण के मुकदमे के आधार पर लायसेन्स मिल जाएगा।
           भाई जी मन ही मन सोचते हैं, बन्दूकें रहेंगी तो आगे बूथ कैप्चरिंग के काम भी आएँगी।
चन्दर की धमकी और गाँव के 'तापमान' से भाई जी भी अनजान नहीं है। इसलिए वे खुद ही कुछ दिनों तक गाँव में आने से बचे रहना चाहते हैं।
           चन्दर के जेल जाने की घटना इस गाँव के चमार रस ले-लेकर दूसरे गाँव के लोगों  को सुनाते हैं। चमारों की नाच का करिंगा (विदूषक) इसी गाँव का 'बैताली' है। वह नाच के बीच में चन्दर के जेल जाने का प्रसंग डाल देता है-
      ''ऐ लौंडिया!''
      ''क्या उस्ताद?''
      ''ठीक से नाचो वरना दरोगा जी जेल भेद देंगे। कम्बल कुटैया हो जाएगी।''
      ''कम्बल कुटैया? ऊ का चीज है उस्ताद?''
     ''अरे, कम्बल कुटैया नहीं जानती?'' करिंगा हँस-हँसकर दोहरा हो जाता है, ''किसी दिन आकर मेरे गाँव के चन्दर महाराज से पूछना। जेल से निकलने के बाद कमर झुक गई है।''
        ''कमर काहें झुक गई उस्ताद? बहुत पतली कमर थी क्या, मेरी तरह?''
        ''अरे नहीं। तुझे पता नहीं कि कम्बल ओढ़ाने के बाद क्या होता है जेल में?''
        ''क्या होता है उस्ताद?''
        '' दे दनादन महुआ क लाटा। दे दनादन।''
        ''खी खी खी...''
      दो कोस दूर की नाच की नर्तकी इस किस्से को अपनी तरह से पेश करती है। चन्दर को वहाँ कौन जानता है इसलिए उसके किस्से का यथार्थ थोड़ा जादुई  रूप परिवर्तन के साथ आता है। उसके अनुसार चन्दर नहीं धरमू पंडि़त गए हैं जेल। कौन धरमू पंडित? अरे वही बड़गाँव वाले। लम्बा तिलक लगानेवाले, पउला जैसा खड़ाऊँ पहननेवाले। जो नेपाल के राजा से दच्छिना में नेपाली हलवाहिन पाएँ हैं गोरी चिकनी।
         करिंगा आँख फाड़ता है-''आय हाय।''
         ''तो जेल जाने पर उनकी पंडिताइन कैसे रोती हैं?''
         ''कैसे लौंडिया?''
         मृदंग और झाँझ के ताल पर मछली की तरह कमर लचकाती नर्तकी गाकर बताती है :
         अरे पूत के कुकरमे धरमू गए जेहलखनवा
         गए जेहलखनवा हो गए जेहलखनवा
         मुँगरन मार परत होई हैं
         जेहलखनवा मा धरमू रोवत होई हैं
         कम्बल ओढ़ाने के बाद मुँगरे की मार पड़ती है जेल में। ऐसे ही नहीं कमर टेढ़ी हो जाती।
         ''मुँगरा क्या होता है उस्ताद?''
         ''ऐं मुँगरा नही जानती? शहराती हो क्या?''
         ''नहीं उस्ताद। प्योर देहाती हूँ।''
         ''फिर? इतनी बड़ी हो गई तूने कभी मुँगरा नहीं देखा?''
         ''नहीं उस्ताद!''
         ''कब्भी नहीं?''
          ''कब्भी नहीं, उस्ताद।''
         ''देखना चाहती हो?''
         ''नहीं उस्ताद।'' वह हँसते हुए दूर भाग जाती है।
         भाई जी अपनी बिरादरी पर नाराज हैं। जब लात-जूता पड़ता है तो भागे-भागे घूमते हैं, लेकिन संकट कटा नहीं कि फिर जस के तस। यहाँ से राजधानी तक दौड़-धूप करके उन्होंने केस का इन्क्वायरी अफसर बदलवा दिया। यानी एड़ीचोटी का जोर लगाकर धरमू ने जो कुछ कराया था उस पर पानी फेर दिया। अब सिरे से होगी सारी इन्क्वायरी। और इन्क्वायरी अफसर भी सिड्‌यूल कास्ट का होगा। मामूली बात है? लेकिन इन देहाती भुच्चों को कौन समझाए... बीस दिन से जब में बन्दूक के लायसेन्स का फार्म लेकर घूम रहे हैं। दो बार खबर भिजवाई लेकिन कोई लेने नहीं आया।
          कल खबर भिजवाई थी की आज बालमपुर से लौटते हुए वे गाँव के सामने से गुजरेंगे। हथिया ताल के भीटे पर आकर मुन्ना मिले। भीटे पर खडे़-खड़े आधा घंटा हो रहा है और मुन्ना का कहीं पता नहीं।
           वे ताल की सुन्दरता निहारने लगते हैं। किसी जमाने में सचमुच हाथी के डुबान का पानी रहा होगा। ताल को चारों तरफ से घेरे भीटे पर बँसवारी रूसहनी और बकाइन की घनी झाड़ियों का राज है। इनके बीच में लाल अंगार की तरह अभी-अभी फूलना शुरू कर रहे हैं फलास। पीछे की ओर चौथे कोने से ताल का एक भाग पूँछ की तरह थोड़ा आगे तक बढ़ गया है। ताल के पानी में पड़ता हरियाली का प्रतिबिम्ब उसे और काला तथा रहस्यमय बना रहा है।
        थोड़ी देर तक पानी को देखते रहिए तो आँखों में नींद उतर आती है। यहाँ के लेखे तो लगता  है दुनिया में केवल बन्दरों और चिड़िया चुरमुन का ही राज्य है। इनकी दुनिया में भी कोलाहल मचा हुआ है। कुछ दुर पर जोर-जोर से साइकिल चलाकर आता मुन्ना दिखाई पड़ता है। भाई जी अपने साथ आए बालमपुर के दोनों लड़कों से कहते हैं, ''अब तुम लोग जाओ।''
            दोनों लड़के अपनी साइकिलें मोड़कर चल देते हैं।
           मुन्ना सड़क से बाँस की काठ की ओर आकर साइकिल तनिक आड़ में खड़ी करता है। भाई जी के पैर छूता है। फिर बिना पूछे ही सफाई देता है-देर हो गई। माँ ने कहा कि मटर की पूडि़याँ सेक देती हूँ। लेते जाओ। पता नहीं सबेरे से भाई  जी के मुँह में कुछ गया है कि नहीं?
          सुनकर भाई  जी खुश हो जाते हैं। मुन्ना साइकिल के कैरियर से दो खानेवाला अल्यूमिनियम का कटोरदान और चार हाथ का डंडा निकालता है। देखकर भाई जी खुश हो जाते हैं।
           ''लाठी-डंडा लेकर चलना शुरू कर दिया? वेरी गुड। बेरी गुड।''
        छोनों भीटे के भीतरी भाग में चले जाते हैं। पाकड़ के पेड़ के नीचे एक साफ-सुथरी खाली जगह देखकर मुन्ना अपना अंगौछा बिछा देता हैं भाई जी हाथ-मुँह धोने तालाब की ढलान पर उतर जाते हैं। लौटकर कटोरदान खोलते हुए मुन्ना से अपना हैण्डबैग खोलने को कहते हैं- ''बैग में बन्दूक की दरखास के पाँच फार्म हैं। इसे भरकर दस्तखत कराकर दो-एक दिन में दे जाना। बाकी काम का जिम्मा मेरा। और गाँव का हाल बताओ?''
           ''सब ठंडा है। आपके आने-जाने में अब कोई खतरा नहीं दिखता।''
       हरवाहिन हाँफते हुए दरवाजे पर पहुँचती तो चन्दर अपनी दुनाली कन्धे पर टाँग चुका था। मोटरसाइकिल में किक लगाने ही वाला था। उसे आज बारह बजे वाला शो देखना है। बन्दूक की ओवर होलिंग कराने के नाम पर माँ से तीन सौ रूपये झटक चुका है।
          ''भाई जियवा आया है।'' हलवाहिन ने पास पहुँचकर सूचना दी।
          ''कहाँ है?''
          ''हथिला ताल के भीटे पर।''
       पूरा पता लगाना जरूरी है। बाबू कहते हैं नीच जाति का कभी भरोसा नहीं करना चाहिए। पता नहीं कब दगा कर दें।
          ''तू वहाँ क्या करने गई थी?''
         ''मैं माझेवाले खेत में सरसों काट रही थी। पेट में मरोड़ उठा, भीठे की ओर गई तो देखा उस पार पानी छूने बैठा था। ''
          ''अकेला था?''
          ''दूसरा तो कोई दिखा नहीं।''
          ''कितनी देर पहले?''
          ''बस अब्भी! समझो उड़कर आई हूँ।''
      चन्दर की देह से आँच निकलने लगी। वह किक मारकर तीर की तरह निकला। हलवाहिन मुस्कराई-तीर निशाने पर लगा है।
           पुडि़याँ खाते हुए भाई  जी सिर हिला रहे हैं।
        अचानक मुन्ना को याद आता है-माँ ने घुटने पर बाँधने के लिए बकाइन की पत्तियाँ मँगवाई  हैं। ''आता हूँ।'' कहकर वह डंडा लेकर बकाइन की पत्तियाँ तोड़ने भीट के पीछे के भाग में चला जाता है।
      चन्दर मोटरसाइकिल का इंजन थोड़ा पहले बन्द कर देता है। फिर बँसवारी के पास लाकर मोटरसाइकिल खड़ी करता है और बन्दूक ताने हुए भीटे की झाडि़यों में घुसता है। गुस्सा होने के बावजूद वह इतना मुर्ख नहीं है कि अपनी लायसेन्सी बन्दूक से दिन दहाड़े़ 'मर्डर' करके फाँसी चढ़ जाए लेकिन ललकारते हुए एकाध मील दौड़ाने और दो-चार हवाई फायर करने से ही धाक जम जाएगी। हमेशा-हमेशा के लिए गाँव में आना बन्द कर देगा। यह डर गया तो टोले को पस्त करने में कितना समय लगेगा?
          लेकिन साला गया कहाँ?
         पहले भाई जी की नजर पड़ी। हाथ में तनी बन्दूक देखकर उनका हलक सूख गया। आगे मौत पीछे तालाब का गहरा पानी। किधर भागें? वे उठे चन्दर की भी नजर पड़ गई। ''रूक जा स्साला! खबरदार जो भागा।'' चन्दर दहाड़ते हुए दौड़ा। निशाने से बचने के लिए भाई जी ने फौरन पाकड़ के पेड़ की आड़ ले ली। फिर तेजी से ऊपर चढ़ गए।
         बकाइन की पत्तियाँ लेकर वापस लौटता मुन्ना दहाड़ सुनकर एक झाड़ी के पीछे दुबक गया। चार कदम भी आगे होता तो अब तक वही निशाने पर होता।
           पेड़ का एक चक्कर लगाकर चन्दर इधर-उधर  देखने लगा।
           कहीं देख तो नहीं रहा? मुन्ना घबड़ाया और जमीन से मानो चिपक गया।
        चन्दर पेड़ के पत्तों में छिपे भाई जी का सन्धान करने लगा, फिर माँ-बहन की गालियाँ देते हुए ललकारा, ''उतर! उतर नीचे, साला। हरामजादा। नेता की दुम।'' और ट्रिगर दबा दिया-धाँय। आस-पास के पेड़ों से सैकड़ों पक्षी फड़फड़ा कर उडे़। कौवे काँव-काँव करते हुए गोलाई  में उड़ने लगे। वनमुर्गियाँ चीखने लगीं। पाकड़ की सैकड़ों पत्तियाँ कटकर गोल चक्कर लगाती नीचे गिरने लगीं। फिर पानी की बूँदें गिरीं।
           लगता है साले ने डर के मारे पेशाब कर दिया।
           ''उतर आ साले बच गया है तो। नहीं तो पेड़ पर चढ़कर दागूँगा।''
           पगड़ंडी के पास दालान की आड़ में खड़ी हलवाहिन ने चैन की साँस ली, गया दाढ़ीजार देश दुनिया से।
          चन्दर ने फिर पेड़ का एक चक्कर लगाया। घूमते-घूमते उसकी नजर सामने की झाड़ी से उलझी। मुन्ना को लगा, उसका पेशाब उतर आएगा। जरूर देख रहा है। भागे भी तो किधर? पीछे पानी और आगे साक्षात मृत्यु। चन्दर ने ऊपर पाकड़ की फुनगी की ओर देखा और ललकार कर फिर ट्रिगर दबा दिया।
          फिर पट्टे से कारतूस निकालने लगा।
          बन्दूक एकदम खाली? मुन्ना ने सोचा अगली गोली उसे ही छेदेगी। चन्दर की पीठ झाड़ी की ओर थी। पल भर का समय लगा होगा झाड़ी की आड़ से निकलकर डंडे का भरपूर वार चन्दर के सिर पर करने में।
          चन्दर बिना आवाज किए बैठ गया। बैठते ही मूर्छित होकर लुढ़क गया। बन्दूक पेट के नीचे दब गई।
        मुन्ना ने सबसे पहले बन्दूक खींचकर झाड़ी में फेका। फिर दबी आवाज में पुकारा, ''भाई जी, फौरन उतरिए। यह तो गया।''
          भाई जी सँभल-सँभलकर उतरे। वे अभी तक तक काँप रहे थे। साँस तेज चल रही थी। झुककर देखा। एकदम बेहोश। खून काफी बह रहा है।
        वे कमर से चाकू निकालकर काँपते हाथें से मुन्ना की ओर बढ़ाते हैं-काट ले साले की नाक। फिर मौका नहीं मिलेगा। चारों तरफ नाम हो जायेगा।''
         लेकिन मुन्ना चाकू पकड़ने को तैयार नहीं।
       ''अरे अभी तो इसने प्राण ले लिए होते हम दोनों के। पकड़। इतनी जल्दी भूल गया बहन की बेइज्जती? बुजदिल। डरपोक।'' भाई जी मुन्ना के काँपते हाथों में जबरदस्ती चाकू पकड़ाकर मुट्‌ठी बन्द कर देते हैं। मुन्ना जी कड़ा करके झुकता है।
          ''बाप रे। इतना 'चीमर' होता है नाक का माँस? कि यह चाकू ही 'मुर्दार' है।''
          खून की धार देखकर चाकू उसके हाथ से छूट जाता है। वह भागता है। पीछे-पीछे भाई जी।
        सइकिल के पैडिल पर ठीक से पैर नहीं सधता मुन्ना का। हैंडिल डगमगा रहा हैं ।धोने के बाद भी लगता है हाथ में खून लगा हुआ है-लाल-लाल। वह बाजार की शुरूआत में ही साइकिल से उतर जाता है। हर आदमी उसे घूर क्यों रहा है? फत्ते चौकीदार इस तरह कनखी से क्यों देख रहा है।
          भाई जी कहते हैं- ''साइकिल कहीं छोड़ दो और मेरे साथ शहर चले चलो।''
         वह फुस-फुसाता है, '' बप्पा को भी गाँव से हटाना होगा। पता लगते ही वे लोग उसे मार डालेंगे।''
        बैताली का लड़का बाजार में सिलाई करता है। मुन्ना उसकी दुकान के सामने साइकिल खड़ी करते हुए कहता है, ''अभी तुरन्त मुरे घर चले जाओ। बप्पा से कहना भाई जी से मिलने फौरन शहर चले आवें।''
        घंटे भर हो गए गोली चले हुए लेकिन चन्दर की फटफटिया की आवाज अभी तक नहीं आई। क्या करने लगा? सरसों के खेत में खडे़-खडे़ हलवाहिन सोचती है। चलकर देखें?
         और भीटे पर आकर चन्दर की हालत देखती है तो वह सन्पात जाती है। कपड़े लत्ते की सुध छोड़कर चिल्लाते हुए भागती है। थोड़ी देर में सारा गाँव जुट जाता है। माँ चीखते हुए बेटे के ऊपर भहरा पड़ती है। शोरगुल सुनकर चन्दर आँख खोलता  है और उठकर बैठ जाता है। लेकिन खड़े होने की कोशिश करते ही फिर गिर पड़ता है। खून से कपडे़ और जमीन तर।
        पहले तो सरकारी अस्पताल में भर्ती ही नहीं ली जाती। 'पुलिस केस' कहकर थाने का मेमो माँगा जाता है। काफी हुज्जत के बाद जनरल वार्ड के एक कोने में फर्श पर जगह मिलती है।
         मालकिन रह-रहकर बेहोश हो जाती हैं। दाँती लग जाती है। होश में आती हैं तो छाती पीटने लगती हैं। बाल छितराए हुए विलाप करती हैं।
         सहसा उठती हैं और पति का कुर्ता छाती पर पकड़कर झकझोरते हुए दहाड़ती हैं, 'मरे बेटे को नकटा करनेवाले का मूंड़ चाहिए। उठाइए बन्दूक और उतार दीजिए पचीस गोलियाँ उस हरामजादे की छाती में जिसने यह काम किया है।''
                   


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