Sunday, May 17, 2015

जुल्मी

    'जुल्मी' मेरी शुरूआती कहानियों में से एक है लेकिन कब लिखी गयी, ठीक-ठीक याद नहीं। एक अन्य शुरूआती कहानी 'उड़ि जाओ पंछी' खोजते हुए पुरानी फाइल में यह मिल गयी। आज पढ़ते हुए यह बहुत बचकानी लगती है, लेकिन कहां से चलते हुए यहां तक पहुंचे, इसे जानने का यह उपयुक्त श्रोत है। कथा प्रत्रिका 'निकट' ने इसे अपने जनवरी 14 के अंक में प्रकाशित किया है। अब ब्लाग के पाठकों के लिए यहां प्रस्तुत है- 

जुल्मी

                                                                'शिवमूर्ति'
नहर की नाली पर घास छीलते हुए कोइली की नजर सामने दिख रहे अपने दुआर पर गयी। 
यह कौन है सफेद कपड़ों वाला? साइकिल लेकर पैदल चलता हुआ। दुआर वाले नीम के पेड़ की ओर बढ़ रहा है। उसके बप्पा ओसारे से निकल कर उसकी ओर जा रहे हैं। सायकिल खड़ी करके वह शायद बप्पा के पैर छूने के लिए झुका। 
उसकी नजरें वहीं जम गयीं। 
अब बप्पा ओसारे से खटिया निकाल कर नीम के पेड़ की छाया में ला रहे हैं। वह आदमी खटिया पर बैठ रहा है। 
बप्पा घर के अंदर गये। 
थोड़ी देर में अंदर से माँ निकली और उस आदमी को पंखा झलने लगी। वह शायद माँ का पैर छूने के लिये झुका। बप्पा बाल्टी लेकर कुएं की ओर जा रहे हैं।
कौन है यह आदमी? मेहमान।
इतना स्वागत तो मेहमान-खास मेहमान का ही होता है। और उसका जी 'धक' से रह गया। कहीं कामापुर वाला उसका भोला भंडारी तो नहीं। 
इतने दिन बल्कि इतने वर्षों बाद। सोचते ही उसके हाथ पैर कांपने लगे। तलुवे सुन्न होने लगे। पसीने-पसीने उसने मेड़ की टेक ले ली। 
इतने दिनों बाद सुध आयी? क्या जरूरत थी? वह मायके में ही उम्र काट देती। कौन यहां लडऩे के लिये कोई भौजाई बैठी है जो दिन काटना पहाड़ हो जायेगा। वह माँ से साफ-साफ कह देगी- नहीं जाऊँगी। जीते जी उनकी ड्योढ़ी नहीं लाघूँगी। आधी जवानी तो कट ही गयी। बाकी भी कट जायेगी। 
आंखे मुंदने लगीं। खुरपा हाथ से छूट गया। वह आंसुओं की बाढ़ में डूबती चली गयी। 
आठ साल बीत गये जब बिना अनवार के वह रोते हुये ससुराल से मायके आयी थी। उसका एकलौता भाई पेड़ से गिर कर बेहाश था और अस्पताल में भर्ती था। मां और बाबू जी उसके साथ अस्पताल में थे। घर पर दस-साल की छोटी बहन भर थी। बाप ने पड़ोसी के बेटे से उसकी ससुराल संदेश भेजा था- घर पर जानवरों को संभालने वाला कोई नहीं है। समधी भाई, इसी लड़के के साथ तुरंत बिदायी कर दें। या खुद पहुंचा जायें। 
पर ससुर ने इंकार कर दिया- आज कैसे भेज सकते हैं? कल घर में कथा-पूजन है। इसके बाद लिवा जायें। 
उसके पति ने अपने पिता से कहा भी- क्या पता ऊपर वाला कल तक की मोहलत न दें। आज जाने पर भाई का मुंह देख लेगी दादा। 
सास ने आकर ससुर को समझाया-जाने दीजिए। जब से सुना है, बहू का रोते-रोते बुरा हाल है। कहीं कुछ हो हवा गया तो अपजस लगेगा कि बहिन को भाई का मुंह भी नहीं देखने दिये हम लोग। 
पर नहीं माने बुढ़ऊ। पड़ोसी लड़का लौट पड़ा। 
उसने आँगन में पति के कुरते की टोंक पकड़ी-क्या कहते हो? बोलो!
पति 'महासिधवा'। बोला- बाबू की मरजी के खिलाफ मैं कैसे बोल सकता हूँ? वे घर के मालिक हैं। वह बाहर आकर ससुर के पैरों पर गिर पड़ी- बाबू। इतने 'कठकरेजी' मत बनिये। एक ही तो भाई है मेरा। 
-देखो बहू। तुम्हें जाना है तो जाओ। लेकिन जैसे बिना 'पठये' जा रही हो वैसे ही बिना 'आनने' का इंतजार किये लौट आना।
इतनी इजाजत भी बहुत थी। बस तैयार होने में जितनी देर लगे। पर वह लड़का तो जा चुका। 
उसने फिर पति से बिनती की-पाँच कोस जमीन है और सिर्फ घड़ी भर दिन बाकी है। अँधेरा हो जायेगा। चलिए छोड़ आइये। 
-बाबू जी गुस्सा होंगे। 
-किस माटी से सिरजा है आप लोगों को विधाता ने? मेरा भाई 'मरन सेज' पर है और आप लागों के मन में तनिक भी 'दरद-दरेग' नहीं उठता। 
वे फुसफुसाये थे- तुम 'पक्की' पकड़ कर चलना। मैं पीछे से नब्बू इक्केवान को भेजता हूँ। लेकिन यह बात बाबू जी न जानने पावें कभी। 
और ऊपर वाले की ऐसी मरजी कि नब्बू इक्केवान ही वापसी में संदेश ले गया- अपने दुलारे भइया का साला नहीं रहा। रीढ़ की हड्डी टूट गयी थी। नाक से भी खून निकला था। अगले शनीचर को तेरही है।
भाई की तेरही में आये बुढ़ऊ (ससुर)। दाढ़ी, मूँछ, सिर मुंड़वाया लेकिन मन के गुस्से को नहीं निकाल सके। बिना बिदायी की बात किये लौट गये। दुख की घड़ी में बिदायी के बारे में मायके में भी किसी ने नहीं सोचा। 
लेकिन कई महीने बाद जब सास ने बहू की बिदायी के लिये जाने को याद दिलाया तो बुढ़ऊ ने साफ-साफ सुना दिया- मैंने तो जाते समय ही कह दिया था, जैसे अपने पैरों गयी है वैसे ही लौटना भी होगा। मैं आनने नहीं जाने वाला। 
तब तक बुढ़ऊ को बेटे द्वारा नब्बू के इक्के से बहू को भेजने की बात पता चल गयी थी इसलिए कुछ दूर पर बैठे बेटे को सुना कर कहा था-इनसे मेहरिया का मुंह देखे बगैर न रहा जाता हो तो जैसे अपने भाड़े किराये से भेजा है वैसे ही जाकर लिवा लावें। लेकिन जाने के पहले अपना चूल्हा चौका अलग करते जायें। 
-तो क्या वे जिन्दगी भर अपनी बेटी को मायेकें में बैठाये रहेंगे? आप नहीं लायेंगे तो उनको दूसरा घर वर खोजने से कैसे रोकेंगे?
-कौन रोकता है? खोजें। उनको बीसों लड़के मिलेंगे हमको बीसों लड़कियाँ। पर इस घर में आना है तो खुद आवे। कोई लिवाने न जायेगा। 
यह बातें एक बार बाजार में मिलने पर नब्बू ने ही बतायी थी। उसकी माँ से फिर कहा था- काकी, आप ही एक जबान कह दें कि बेटी को उसकी ससुराल पहुँचा दो तो पहुँचा दूँगा। भाड़ा किराया भी न लूँगा। पर कोई कहे तो। 
हम अपने मुँह से आपको कैसे कह दें भइया? उनके घर में कोई मर्द मानुष न होता तो दूसरी बात थी। भला बेटी भी कभी माँ बाप पर भारी होती है। पर बहू की शोभा तो उसकी ससुराल में ही है। बुढ़ऊ नहीं आना चाहते न सही। एक बार नाऊ से, नहीं कूकुर से संदेश भेजवा दें कि उनकी बहू उनके घर भेजवा दो तो देखिये हम साड़ी-पिछौरी, कूंडा-दौरी और गठरी-मोटरी के साथ भेजवाते हैं या नहीं? इतना मान-गुमान भी ठीक नहीं। भगवान बड़े-बड़ों का गुमान तोड़ देते हैं। भाई का मुँह देखने के लिये आकर कौन सा गुनाह कर दिया मेरी बेटी ने। न आती तो जनम भर का पछतावा बना रहता। भगवान ने हम लोगों की जिंदगी में हमेशा-हमेशा के लिए अँधेरा भर दिया। उस घड़ी में बहू का आना उन्हें बुरा भी लगा हो तो हमारा दु:ख देख कर उन्हें माफ कर देना चाहिये था।
जमाई को अलग से समझाना- उनकी 'बियही' है। सात फेरा डाल कर अपनाया है। खेलने खाने की उमर में इतना 'बियोग' ठीक नहीं। 
समधिन से कहना- हम मूरख आदमी ठहरे। किस विधि से समझायें? पाँच-पाँच साल बीत गये। जवान जहान अहिबाती बेटी रांड की तरह दिन काट रही है। यह देखा नहीं जाता। गले के नीचे कौर नहीं उतरता। बुढ़ऊ तो लगता है खटिया पकड़ लेंगे। एक ओर बेटे के जाने का दुख दूसरी ओर बेटी के न जाने का। अकेले में पता नहीं क्या-क्या बुदबुदाते रहते हैं। 
शुरू में उसने खुद भी कम कोशिश नहीं की अपने 'मरद' और ससुर की मति पलटने की। अपनी सखी से कहकर ओझा से मुर्गे की बलि दिलवायी थी। माँ से कह कर सत्य नारायण की कथा करवायी थी। अगर बिना 'प्रसाद' लिये चले आने के कारण सत्य नारायण स्वामी नाराज हुये हैं तो कथा से प्रसन्न हो जायेंगे और जैसे कन्या कलावती के 'दिन बहुरे' वैसे ही उसके भी 'बहुर' जायेंगे। 
लेकिन उधर से कोई संदेश नहीं आया।
लोगों ने समझाना शुरू किया- सौ बेटियों में एक बेटी है आपकी। सुदर, स्वस्थ, कमासुत, लम्बी-तगड़ी, मेहनती। कब तक उन मूर्खों के आस में घर में बैठाए रहिएगा। इतने दिन हो गये। 'मनई' की चाहत होती तो इस तरह मुँह फेरे रहते? 'खेह डारिये' उन पर। बिदा कर दीजिए किसी खाते-पीते घर में। राज करे। नहीं तो कहीं ऊँचे नीचे पैर पड़ गया, दाग लग गया तो सात पुस्त तक नहीं छूटेगा। उनका तो बेटा है। कुछ कर भी गुजरा तो भोज-भात देकर बरी हो जायेगा।
माँ को समझाने की भला क्या जरूरत थी। उसने बप्पा की नाक में दम करना शुरू किया- बेटी को घर में बैठाये-बैठाये बूढ़ी कर डालना है क्या? कितनी तेजी से उसके बाल पक और झड़ रहे हैं, मालूम है। कल को हम दोनों की आँख मुॅद गयी तो उसेे किस कुएँ तालाब की शरण मिलेगी? उठाइये अपनी लाठी पनही। जाइये, पता लगाइये। बहुत लड़के मिलेंगे। 
बेटी को भी समझाया- क्या रखा है उस रिश्ते में। सोने जैसी जवानी गला कर रांगा कर रही हो, किसके लिये? लेकिन नहीं मानी बेटी- नहीं माई नहीं! मुझे दूसरे दुआर की लालसा नहीं है। तेरी ड्योढी पर ही जिंदगी काट दूँगी और तेरे जाने के बाद आग लगा कर 'भसम' हो जाऊँगी। 
थोड़े दिन पहले उसे नब्बू की मार्फत ही पता चला था कि बाप बेटे में उसे आनने को लेकर तकरार हुई है। नब्बू का कहना था कि अगर 'भात' खा लिये होते तो वे खुद ही लिवाने आ जाते। इस इलाके में दूल्हा तभी ससुराल आना जाना शुरू करता है जब एक बार उसे औपचारिक रूप से ससुराल से बुलावा आता है। उसके साथ दो एक नजदीकी रिश्तेदार आते हैं। सबको यथाशक्ति कोई नेग दिया जाता है- गाय, भैस, घड़ी, अँगूठी या साइकिल। इसे भात खाने की रस्म कहते हैं। बिना भात खाये ससुराल जाने वालों की बड़ी जग-हंसाई होती है। 
और वही हो गया। बिना भात खाये ही उसे उसके 'भोला भंडारी' को ससुराल आना पड़ा। उसने अपनी देह में नयी ताकत, नयी गुदगुदी का एहसास किया। उसने देखा, नीम के पेड़ के नीचे दो और चारपाइयाँ बिछ गयी हैं। चार-पाँच लोग आ गये हैं। बड़ी लानत मलामत हो रही होगी उसके आदमी की। उसे पति का भोला गंभीर जवान चेहरा याद आया। दो कछी धोती, नंगे बदन। गले में काले धागे में लटकी पीतल की ताबीज। पतली नरम रोयें वाली तनिक भूरी मूंछे। यही रूप पिछले आठ सालों से लगातार उसके मन पर छाया रहा है। 
-बहुत सिधवा है। एक भी बात का जवाब नहीं दे पा रहा होगा। 
सुहागरात में उसके अंदर आते ही वह खटिया से उठकर खड़ी हो गयी थी। कोने में मिट्टी के तेल की ढिबरी जल रही थी। रिश्ते की बुआओं और जेठानियों ने जब उन्हें अंदर ठेलते हुये कहा था- लेव। संभालो अपना धन और बाहर से जंजीर लगा कर चली गयी थीं तो वे आकर उसके बगल में खड़े हो गये थे। कंधे पर हाथ रखते हुए कहा था- खड़ी क्यों हो गयी। बैठो। 
बाँह थाम कर उन्होंने उसे खटिया पर बैठाया था। फिर खुद बैठे थे। वह लेटने को तैयार नहीं हुई तो खुद भी बैठे रह गये थे। रह-रह कर उसे अंकवार में भरते। उसका घूँघट खोलने का प्रयास करते और उसे काँपती पाकर छोड़ देते- जाड़ा लग रहा है क्या? अभी तो अगहन का महीना है।
मुँह देखे बिना ही एक जोड़ी पायल टेंट से निकाल कर 'मुँह-देखायी' में दिया था। अपने हाथ से पहनाया था। गोड़हरों के ऊपर। सच, इन पैरों को अपने हाथ से छुआ था उन्होंने। अपनी गोद में रखा था। वह छुअन कैसे भूल सकती थी। उसने हाथ बढ़ाकर पैर में पड़ी पायलों को सहलाया। 
कुल तीन ही बार का तो साथ रहा- दो साल के दौरान। पहली बार दो रातों का? दूसरी बार पन्द्रह और तीसरी बार दो महीने का, पर वे दिन कैसे मन पर आज तक छाये हुये हैं। 
खिलवाड़ी भी कम नहीं थे। पहली होली उसकी ससुराल में ही पड़ी थी। दिन में पिछवाड़े वाले आंगन में खूब भिगोया था और रात में 'फगुआ' सुनकर लौटे तो हरी-हरी गोलियां लाये थे। अपने हाथ से खिलाया था। मुझे क्या पता की भांग है। नशा करेगी। मीठी लगी। खाती गयी। थोड़ी देर में सिर चक्कर काटने लगा। बोलना कुछ चाहूँ और मुँह से निकले कुछ। बिना बात के हँसी छूटे। सास को पकड़ कर बार बार भींचू और गले लगाकर हँसू। 
सास ने उन्हें डॉटा- क्या खिला दिया तूने बहू को रे? सास ने गुड़ निकाल कर दिया- खा ले। नशा उतर जायेगा। पर उन्होंने गुड़ नहीं खाने दिया। ले लिया। माँ से कहा- इसे बाहर ठंडी चांदनी में घुमा देता हूँ। उतर जायेगी। 
बाहर लाकर उन्होंने उसे गोद में उठा लिया और थोड़ी दूर स्थित खलिहान में लाये थे। मड़ाई किये जाने वाले गेहूँ की पयार पर ही वह रात कटी थी। भूसे की सेज। उसे लगा वह आसमान में उड़ रही है। सारी रात उड़ती रही थी। 
भोर में सास के किवाड़ खोलने की चरमराहट सुनकर वह भागी आयी थी और सास की मीठी झिड़की खाकर अंदर भाग गयी थी। बालों में भूसा ही भूसा। कहाँ नहीं था भूसा। 
वैसे तो उसे चिढ़ाते थे- ढाई मन की धोबन। और उस रात कितनी आसानी से गोद में उठाकर भागे थे। 'बौरा' गये थे। 
-बुआ। दादी बुला रही है। 
 उसकी तन्द्रा टूटी। पड़ोसी की छह साल की बेटी सामने खड़ी थी। 
-काहें रे? 
-मेहमान आये हैं। रोटी बनानी है।
उसने लड़की को गोद में भर लिया और बार-बार उसका मुँह चूमने लगी। आँचल से उसकी आँख और मुँह पोंछा। छीली हुई घास खाँची में भरते हुये उसके पैर एक बार फिर काँपने लगे। आँखे धुँधलाने लगी। इस बार गुस्से और माख से। ये इतने 'लजकोंकर' क्यों हैं कि अपने परानी की हाल खबर लेने में आठ साल लगा दिये। ऐसे ही नहीं चली जायेगी वह। चार आदमी बैठाकर 'पद' करायेगी। उमड़ती जवानी माटी कर डाला। अपनी भी मेरी भी। 
घास की खांची उसने सिर पर रखा और लड़की को गोद में लेकर चली। अरे, खुरपा तो भूली ही जा रही है। उसके दुआर पर मेला जैसा लग गया है। पास पड़ोस के बीसों आदमी घेरे हैं। कैसे उन्हें देख पायेगी?
-लड़की थोड़ी समझदार होती तो उसी से पूछती। उसने लोगों की भीड़ के बीच एक झलक पाने की कोशिश की। पास से गुजरते हुए तो नजर उठ न पायेगी। उसे लगा कि पीठ की जो एक हल्की झलक मिली है वह उन्हीं की है। बहुत 'दुर्बल' हो गये हैं। सास ठीक से रोटी पानी न कर पाती होंगी। उसे तरस आने लगा। एक गीत की पंक्ति याद आयी-
घरवा मा खाया सामी सूखी भउरिया 
अउत्या हमरे नइहरे 
घिउ खिचरिया तोहैं खियउतिउं 
अउत्या हमरे नैहरे। 
सूखी 'भउरी' खा कर दुबराये हुए 'स्वामी' मेरे नैहर आओ। घी, खिचड़ी खिला कर तुम्हें फिर 'तैयार' कर लूँगी।
 आज आये हैं 'घी-खिचड़ी' खाने। समझो 'भात' खाने आये हैं। बाबू से कहूँगी भात खाने के नेग में भुअरी भैंस भी हंकवा दें साथ-साथ, बिदायी में। 
दुआर के नजदीक पहुँच कर उसने सिर का आंचल माथे पर खींच लिया। भीड़ के बगल से गुजरते हुये उसकी नजरे भले झुकी हैं पर 'वे' तो देख ही रहे होंगे। गोद की लड़की को देखकर पता नहीं क्या क्या सोच डालें भोले बाबा? वह लजा गयी। लड़की को वहीं उतारा और सिर की खाँची ओसारे में पटक कर आँचल से आँख-मुँह का पानी पसीना पोछते हुये आँगन में भाग गयी। कोने में खटोला बिछा था। वह उसी पर ढ़ह गयी। 
खटोले के बगल में पीढ़े पर बैठकर माँ ने उसका माथा सहलाना शुरू किया तो आँसुओं की बाढ़ नये सिरे से उमड़ आयी। 
माँ घबरा गयी- क्या हुआ रे? रोती काहे है? 
-तनिक दम लेकर नहा ले बेटी। ढंग के कपड़े पहल ले। रसोई करनी होगी। 
माँ मेहमान के बारे में कोई बात नहीं करती। क्यों नहीं बताती?
खाना बनाकर, ढंक कर वह रसोई से बाहर आ गयी- माँ, तू जाकर परस। 
-क्यों? तू क्यों नहीं परसती? 
-नहीं। कह कर उसने सामने की कोठरी में घुसकर किवांड़ बंद कर लिये। 
खाना खाने के लिये बाबू जी के साथ आँगन में बैठे मेहमान की एक झलक लेने के लिये दबे पाँव आकर उसने किंवाड़ की झिरी में आँख लगाया और 'झटका' खा गयी।
-यह कौन? खिचड़ी मूछों और झुके कंधो वाला। उसे दूसरे ढंग की झुरझुरी छूटी। वह मुड़ी और 'मूड़ोमूड़' करके खटिया पर पड़ गयी। 
मेहमान को खिलाकर माँ ने उसकी कोठरी के किवांड़ खटखटाये- खोल। आ तू भी खा ले। 
किंवाड़ खोलकर वह फिर लेट गयी- मुझे भूख नहीं है माँ।
-क्या हुआ? धूप लग गयी क्या? सिर दबा दूँ?
-नहीं यह बता, यह मेहमान कौन है? किसलिये आया है?
-कैसा लगा?
-क्या? उसकी शंका ने फन काढ़ लिये।
-बेटी कब तक हम लोग तुझे घर में बैठाये रहेंगे? बाप का अकेला बेटा है। औरत दो साल पहले मर गयी। कुल तीन 'परानी' हैं। आदमी की 'चाहत' रहेगी। सुखी रहेगी।
-मेरी रोटी इतनी भारी हो गयी माँ?
-सो बात नहीं बेटी। लेकिन हम बूढ़े-बूढ़ी कितने दिन के मेहमान हैं? हमारे आंख मूँदने के बाद तेरी कैसे कटेगी? और जब तक तू मेरी ड्योढ़ी छेंक कर बैठी रहेगी- मैं क्या चैन से मर सकूँगी। 
-अपने चैन के लिये तू अपने हाथ से फाँसी लगा दे माँ पर किसी और के लिये दुबारा घर से न निकाल। तू कहे और बप्पा की हेठी न हो तो मैं अकेले ही अपनी ससुराल चली जाऊँ।
-उन लोगों ने इसका भी मौका नहीं छोड़ा बेटी। तेरी 'गद्दी' संभालने कोई और आ चुकी है।
उसकी चीख निकलते-निकलते बची।
-हाँ बिटिया। छ: महीने हुये। उसके बाद ही तेरे बप्पा ने दौड़ धूप शुरू की तेरे लिए।
माँ ने पास पड़ोस की सहेलियों को बुलवा लिया- पास बैठ लो बेटी। उसका मन बहल जाय।
सहेलियों ने मजाक शुरू किया। साथ-साथ कंघी-चोटी।
-बहुत सेवा करनी पड़ेगी तुझे। भर कातिक जोते गये बैल की तरह टूटे हुये हैं जीजा जी।
-अरे ए छह महीने में 'तैयार' कर लेगी।
-तीन ही महीने में।
सामूहिक हँसी। चुहल।
-इस बार उसे आँचल के टोंक में ठीक से बाँध कर रखना। और जाते ही सबसे पहले सास-ससुर को कब्जे में करना।
उसे देखने के लिये मेहमान आँगन में आया तो उसकी पलकें बंद थीं और सांस तेज।
उसके मानस पर एक दो बार खिचड़ी बालों का अक्स उभरा लेकिन हर बार जल्दी ही उस पर नरम भूरे बालों की पतली मूँछों का रूप हावी हो गया।
ससुरू भेजा डोलिया कहरवां
हम गवनवा अउबै ना।
ससुर जी, हम गौने लायक हो गये हैं। जल्दी डोली कहार भेजिए।
डोली कहार तो आये लेकिन वहां से नहीं जहां से इंतजार था।
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चैत नवरात्रि के पहले मंगल को लगने वाला गूदर बाबा का मेला इलाके का मशहूर मेला है। आसपास के दस-पंद्रह कोस के ग्रामीण यहां लपसी, सोहारी चढ़ाने आते हैं। खासकर महिलाएँ। गूदर बाबा कौन थे? कब थे? कुछ पता नहीं। पर धीर-धीरे उन्होंने लोक मानस में महादेव का स्थान ले दिया है। 
पीर, डीह, और देवी-देवताओं की हैसियत उनके भक्तों की हैसियत के अनुसार ही घटती-बढ़ती है। गूदर बाबा लपसी, सोहारी के भोग से ही प्रसन्न हो जाते हैं। लपसी माने हलुआ का जनता संस्करण। आटा, गुड़ और पानी का अवलेह। सोहारी माने पूड़ी। जनता का पकवान। यही पकवान पाकर गूदर बाबा कुछ भी देने को तैयार हो जाते हैं।  
घर गृहस्थी चलाने की धुरी हैं औरतें। सोहारी, लपसी चढ़ाने का काम भी उन्हीं को। इसलिए इस मेले में औरतों और बच्चों की बहुतायत रहती है। पति, बेटे या बाप, सहयोगी के रूप में शामिल होते हैं। साइकिल के कैरियर या सिर पर जलौनी लकड़ी और आटा, गुड़, तेल की गठरी या छोटे बच्चों को कंधे पर लादने, संभालने के लिये। रंग-बिरंगी साड़िय़ों कपड़ों में लदी फंदी औरतों का गीत गाता हुआ झुंड एक के पीछे एक। चारों ओर से गूदर बाबा के धाम की ओर प्रस्थान करता हुआ। 
-मांग। क्या 'मांगन' माँगती है?
-बैल बीमार है बाबा। पति गंजेड़ी हो गया है। दूसरी औरत से 'अरझ' गया है या भविष्य सॅवारने वाले सपने। बेटा चाहिये बाबा। गोद नहीं भरी अभी तक। अगले जनम में भी मानुष जोनि मिले। सुअर कौआ होकर न जन्मना पड़े। 
कौन है जिसके पास कोई दुख न हो। कोई सपना न हो। पूरा इलाका उमड़ पड़ता है। कितनों की मनोकामना बाबा लगे हाथ पूरी कर देते हैं। नया मचनाहा साथी दे देते हैं। वे माँ-बाप, गाँव-देश का मोह छोड़कर यही से सीधे कलकत्ता, बम्बई, दिल्ली, लुधियाना की गाड़ी पकड़ लेते हैं। पार करें गूदर बाबा।
कोईली अपने दोनों बच्चों और पति के साथ भोर में गूदर बाबा के मेले के लिये निकली। गूदर बाबा का धाम उसके घर से तीन कोस पड़ता है। सबेरे पहुँचिये तो 'कराही' चढ़ाने में भीड़ का सामना नहीं करना पड़ता। दोपहर से भीड़ बढ़ जाती है। एक बड़ी गठरी पति के सिर पर। तीन साल की बेटी उसकी गोद में और तेल की शीशी हाथ में। आठ साल का बेटा कभी पैदल कभी बाप के कंधों पर। 
थान के चारों तरफ कई बीघे में आम और महुए का बाग फैला है। हर गाँव का मेला अलग-अलग पेड़ के नीचे डेरा डालता है। चार-चार पाँच-पाँच के समूह में जमीन खोद कर चूल्हे बन जाते हैं। कड़ाही चढ़ जाती है। तेल, घी, और गुड़ की महक! धुँआ। पूरा क्षेत्र महकने लगता है।
थान पर टिकरी चढ़ाकर उसने दोनों बच्चों का माथा टेकाया। पति को माथा टेकने के लिये कहा। फिर खुद सिर को आँचल से ढक, आँचल का खूँट दाँत से पकड़, माथा टेक कर माँगन माँगा। -इसी तरह कल्यान से रखो बाबा। अगले जन्म में भी यही पति यही बच्चे मिलें, सात जनम तक। लौटकर पति, बेटे को खिलाकर वह बेटी को गोद में डालकर 'परसाद' पाने बैठी। पति, बेटे को लेकर पिपिहरी भोंगारा खरीदने चले गये। 
अचानक दिल्लू बुआ प्रकट हुई।
-का हो धेरिया। कब से खोज रहे हैं? 
उसने उठकर जूठे हाथों आँचल का खूँट पकड़ा और बुआ के पैर छूकर तीन बार माथे से लगाया। 
दिल्लू बुआ उसे बहुत मानती थीं। उसकी पहली ससुराल कामापुर के पड़ोस में ब्याही हैं। जब वह गौने नहीं गयी थी बच्ची ही थीं तो अपनी ससुराल से लौटने पर दिल्लू बुआ उसकी सास के झूठे किस्से सुनाकर उसे चिढ़ाया करती थीं। उनकी एक बात उसे अभी तक याद है। बताया कि कोइली की सास की इतनी लम्बी पूँछ है कि उससे वह एक ही जगह बैठे-बैठे सारे घर में झाड़ू लगा देती है। और भी कई बातें...
-लगता है सब निबटा दिया? 
-हाँ बुआ! आप भी परसाद लीजिए।
-अभी नहीं। अभी हमारी टिकरी नहीं चढ़ी। 
बहुत दिन, दस-बारह साल बाद मिली थी बुआ। उसका हाल-चाल पूछती, अपना बताती रही। उसके खा लेने के बाद बोलीं- चल तुझे एक 'पहचानी' से मिला लाऊँ।
-किससे बुआ?
खुद ही देख और पहचान।
-पराना बुआ आयी हैं क्या?
पराना बुआ गवने गयीं तो कभी लौटकर मायके नहीं आयी। ससुराल वालों ने कभी बिदा ही नहीं किया। यहीं कहीं ब्याही गयी हैं। अब तो बूढ़ी हो गयी होंगी। बहुत पुरानी बात हो गयी। लेकिन उसके मायके में उनकी चर्चा होती रहती थी क्योंकि जब भी पराना बुआ को मायके का कोई आदमी मिलता वे एक-एक आदमी, रूख, बिरिछ, ताल, तलायी तक का हाल पूछती थीं। इस मेले में उनसे मिलने की संभावना बनती थी।
-चल, उठ।
कोइली ने अपनी कड़ाही, झोला बगल की औरत को सौंपा और बुआ के पीछे-पीछे चल पड़ी। बुआ उसे लेकर मेले के बाहर आयी और थोड़ी दूर के एक पेड़ की ओर ऊँगली उठा कर कहा- उस पेड़ के नीचे जा। 
उसने देखा, पेड़ के एक तरफ दो लद्दू घोड़े बंधे थे। एक तरफ एक खुली बैलगाड़ी खड़ी थी। उसके सामने दो सफेद ऊँचे बैल बोरे पर रखा भूसा खा रहे थे।
वहाँ तो कुछ दिखता नहीं बुआ। बताओ ना, कौन?
-तू अंदाज लगा।
-आप तो बुझौवल बुझाने लगीं। आप भी आइये। उसने बुआ का हाथ पकड़ कर साथ ले लिया। 
बैलगाड़ी की आड़ में एक आदमी खड़ा था। अकेला। कुरता-धोती। गले में मटमैला गमछा।
पास पहुँच कर बुआ ने उसकी गोद से बेटी को ले लिया। अब दोनों आमने सामने थे।
कामापुर वाला उसका भोला भंडारी।
दोनों ने भर नजर एक दूसरे को देखा फिर आदमी आगे बढ़ा। उसके ठीक सामने। दोनों की नजरें धुँधला गयीं। वे एक दूसरे के गले लग गये।
फिर कोइली ने कारन करके रोना शुरू किया। सुर ताल में रोना। रोना गाना, उलाहना साथ-साथ।
कौने कसुरवा ना, जुन्मी कौने कसुरवा ना।
देहला चित से तू उतारी, जुल्मी कौन कसुरवा ना। 
(ऐ जुल्मी! क्या था मेरा कसूर जो इस तरह चित से उतार दिया?)
दिल्लू बुआ ने आकर दोनों को अलग किया। दोनों ने अपने-अपने आंसू पोंछे और खर्च हो चुके पिछले पन्द्रह बरस की जिंदगी का हिसाब करने लगे।
-:0:-

2/325, विकास खंड,
गोमती नगर, लखनऊ
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 shivmurtishabad@gmail.com 


Saturday, February 28, 2015

मेरी पुस्तक 'सृजन का रसायन' पर एक टिप्पणी



चीन में दूसरा दिन


चीन में दूसरा दिन
                                                                'शिवमूर्ति'
     कल की थकान इतनी ज्यादा थी कि सोये तो ऐसे सोये कि सबेरे 6 बजे वेेकअप काल की घंटी बजी तो लगा सपने में बज रही है। पत्नी ने उठते ही उबलने के लिए केतली में पानी रख दिया। कल रेस्टोरेंट से एक स्प्राइट की दो लीटर वाली खाली बोतल लायी हैं। उबला हुआ पानी ठंडा करके इसी में भर कर रास्ते में पीने के लिए साथ ले चलेंगी। कल बस का ड्राइबर एक डालर में 750 एमएल की दो बोतलें दे रहा था। यही रेट बाहर भी होगा। यानी 61 रूपये में डेढ़ लीटर पानी। मेरी मानसिकता वाले व्यकित के लिए यह बहुत मंहगा लग रहा है। दरिद्र मानसिकता मरते दम तक साथ नहीं छोड़ने वाली।
चीन  की दीवार के बेस कैम्प पैर

चीन  की दीवार पर 
      रास्ते में पड़ने वाली नग तराशने की एक फैक्टरी और मोती बनाने वाली एक इकार्इ को देखते हुए आज चीन की दीवार देखने जाना है। चीन की दीवार के लिए मेरे मन में दुर्निवार आकर्षण है। किशोरावस्था में एक पत्रिका में उसके बारे में पढ़ा था- चिन नाम के बादशाह ने 221 र्इ. पूर्व मंगोल आक्रमण से देश को बचाने के लिए इस दीवार का निर्माण शुरू कराया था। फिर अगले, फिर अगले राजा, इसका निर्माण कार्य निरन्तर कराते रहे अगले हजार बारह सौ साल तक। तब नहीं सोचा था कि कभी इसे साक्षात अपनी आखों से देख सकूगा। कहते हैं यह ग्यारहवी शताब्दी तक बनती रही। 6 हजार किमी से ज्यादा लम्बी। यानी पचास साठ पीढि़यां पैदा होती रहीं, बनाती रहीं और मरती रहीं। इस बीच राजवंश बदल गये लेकिन निर्माण नहीं रूका। एक अपने यहां का इतिहास है कि एक ने बनाया तो दूसरे ने तोड़ा और लूटा। बनवाया भी कुछ तो पुल और सड़क नहीं, महल या मंदिर बनवाया। हमारे यहां आदमी के हाथ में परलोक रूपी ऐसा झुनझुना पकड़ा दिया गया कि पैदा होने से मरने तक उसी को बजाने में मंगन रहो। ब्रहम सत्यं जगत मिथ्या। जो सच है, नजरों के सामने है उसे मिथ्या मानते रहे और जो मिथ्या है, काल्पनिक है उसे सच। मिथ्या सच के सिर पर इस तरह चढ़कर बैठ गया कि सच का दम घुट गया। वह आज तक मिथ्या के चंगुल से मुक्त नहीं हो पाया। 
       नास्ता करके 8:30 बजे बस में सवार हो जाना है। कल की चिल्लपों का असर यह हुआ कि आज नास्ते की गुणवत्ता सुधर गयी। उसमें कार्नफ्लेस, दूध, केला, आमलेट और अंगूर तथा संतरे का जूस शामिल हो गया। नास्ता करते करते गाइड सिन्डी अपनी झंडी लिए हाजिर हो गयी।
       पत्नी जल्दी-जल्दी नास्ता करके बस की खोज में निकल गयीं। पिछली सारी विदेश यात्राओं के दौरान मैंने देखा कि वे बस में सबसे आगे की सीट हथियाती हैं। मैं पूछता हूँ- सबसे आगे बैठने की इतनी ललक क्यों? बगल से भी सब कुछ दिखायी देता है। आगे बैठने पर तो आपका ज्यादा समय सामने सड़क निहारने में चला जाता है। फिर, दूसरे लोग भी तो आगे की सीट पर बैठने की इच्छा रखते होंगे। उन्हें भी मौका मिलना चाहिए। पर वे नहीं मानती। उनका तर्क है कि जो पहले आये वह अपनी मनपसंद सीट पर बैठे। अमेरिका यात्रा में 'स्टेचू आफ लिबर्टी देखने जाने के दौरान बोट के दाहिने हाथ की सीट पर बैठने को लेकर उनकी एक लम्बी चौड़ी लकदक गुजराती महिला से लड़ार्इ हो गयी। दरअसल बोट पर सवार होने के दौरान टूर मैनेजर मिस्टर सावक ने ब्रीफ कर दिया कि फोटोग्राफी के लिहाज से खुली बोट के दाहिने भाग के किनारे की सीटें उपयुक्त रहेंगी। बस सब दाहिने किनारे की ओर भागे। मैं तो दूसरे लोगों के हाव भाव, कपड़े लत्ते, रोब रूतबा देख कर किनारा कर लेता हूँ लेकिन यही चीजें उन्हें भड़का देती हैं। कुछ गलत देखती हैं या उन्हें लगता है कि कोर्इ उन्हें दबा रहा है या धौंस में लेने की कोशिश कर रहा है तो हत्थे से उखड़ जाती हैं।
          मोती बनाने वाली इकार्इ का शो रूम दस हजार वर्ग फीट से कम क्या होगा। मोती जड़े गहनों के शो केस, मालायें, अंगूठियां, नेकलेस और भी जाने क्या क्या। करोड़ो का माल। प्रवेश द्वार पर ही बडे़ बड़े जार रखे थे। पानी भरे इन जारों की पेंदी में बड़ी बड़ी सीपियां, बुलबुले छोड़ती हुर्इ। एक आदमी एक बाल्टी लेकर आया और इनमें से 10-12 सीपियां निकाल कर बाल्टी में डाल लिया। फिर एक लड़की आर्इ। उसने आवाज देकर सबको पास बुलाया और मोती निर्माण की प्रक्रिया बताने लगी। एक सीप को उठा कर उसका मुँह चाकू से फैलाया और उसके पेट में सिथत अंडे की सफेदी जैसी तरल बूंद को दिखाते हुए बताया- यही बूंद निर्माण की प्रक्रिया से गुजर रहा मोती है। उसने कर्इ सीपियों को फाड़कर निर्माण के अलग-अलग स्टेज दिखाये फिर फाड़ी गर्इ सीपियों को उसी बाल्टी में फेक कर सबको लेकर हाल में चल गयी। मैं उन फाड़कर फेंकी गयी सीपियों को देखता रहा। अभी कुछ क्षण पहले तक उनमें जीवन था। अब वे कटी फटी दशा में कूड़े के ढेर की तरह पड़ी थीं। मैं सिहर गया। क्या सिर्फ हम पर्यटकों को निर्माण की प्रक्रिया दिखाने के लिए इन्हें फाड़ कर फेंक दिया गया। आठ दस अर्धनिर्मित मोती फेंक दिए। इतना नुकशान। यह सच नहीं हो सकता। पर सीपियों की जान चली गयी यह तो प्रत्यक्ष था। मैंने मन को समझाया- जरूर कुछ नजर का धोखा होगा। 
      वहां से चलकर हम नग बनाने वाली एक फैक्टरी में आये। सैकड़ों शो केस। बिजली की रोशनी में जगमगाते। सैकड़ों लाफिंग बुद्धा। एक किनारे लगी हल्के हरे पत्थर की चटटाने। मुझे एक कोने में एक साधारण सी मेज पर बडे़ खरबूजे के आकार की गोल हरी आकृति ने आकृष्ट किया। इस गोले में चारों तरफ एक डेढ़ सेमी व्यास के दस बारह छेद बने थे। इन छेदों से गोले के अंदर बना एक और गोला दिख रहा था। पहले से पूरी तरह स्वतंत्र और आसानी से चलायमान। उसकी सतह पर भी उसी तरह छेद थे और उन छेदों के अन्दर एक अन्य गोला दिख रहा था। एक के अंदर एक कुल चार गोले और सभी निर्बाध गतिशील। मैं आष्चर्य में पड़ गया। कैसे कारीगर ने एक बडे़ पत्थर को तराश कर इस तरह एक के अंदर एक गोले बनाए? लेकिन शिल्पी कौन है, यह कहीं दर्ज नहीं था। सेल्सगर्ल ने बताया कि देहात के कारीगर बना कर दे जाते हैं बिकने पर उन्हें इसका मूल्य दे दिया जायेगा। पता नहीं यह कब बिकेगा और कब इसका कितना मूल्य उस बेचारे को मिल पायेगा। सेल्सगर्ल ने कहा कि हो सकता है महीने भर में बिक जाये। हो सकता है साल भर लग जाये। 
      मामूली से दिखने वाले पत्थरों की आभा तराशने से निखर गयी थी। वे निर्जीव माडलों के गले में शोभायमान थे, हजार, डेढ़ हजार डालर के प्राइस टैग के साथ। चीन में अब विदेशी कम्पनियों को भी निर्माण का लायसेंस दिया जा रहा है। यह विदेषी कम्पनी ही थी। पहले ऐसा नहीं होता था। 
          यहां से चीन की दीवार करीब बीस किमी दूर है। थोड़ी दूर चलते ही पहाड़ की चोटी पर उसकी झलक दिखने लगी। दूर तक किसी डै्रगन की तरह ही बलखाती पसरी हुर्इ। खड़ी चढ़ार्इ वाले नुकीले ऊँचे पहाड़ों के सिर पर चढ़ कर बैठी थी यह। जैसे जैसे पास पहुंचते गये रोमांच बढ़ता गया। हमारी बस जिस सड़क से होकर गुजर रही थी उसके दोनों ओर पहाड़ की श्रृंखला फैली थी और उन पर चढ़ी दिख रही थी यह दीवार। इस पर भी, उस पर भी। बेस तक पहुंच कर बस रूकी। हम नीचे उतरे। देखा ठीक बायीं तरफ के पहाड़ पर चींटी की तरह नीचे से ऊपर चोटी की ओर बीस फीट की चौड़ार्इ में खड़ी चढ़ार्इ की सीढि़यों पर रेंगती भीड़। बाप रे! इतनी खड़ी चढ़ार्इ पर कैसे इतनी ऊँची चौड़ी दीवार बना दिया इन लोगों ने। वह भी ढ़ार्इ हजार साल पहले। कैसे चढ़ाये होंगे निर्माण सामग्री। आगे टिकट घर के पास से बायीं तरफ भी एक दीवार जा रही थी। गाइड ने बताया कि यह अपेक्षाकृत कम चढ़ार्इ वाली है। इस पर वह जो तीसरा ब्लाक दिख रहा है वहाँ तक तो यूरोपियन ही चढ़ पाते हैं। एशियार्इ मूल के लोग दूसरे ब्लाक तक चढ़ते हैं। चढ़ने को तो आप में से भी कुछ लोग हो सकता है चढ़ जायें लेकिन वापस लौटना कठिन हो जायेगा। जांघे भर आयेंगी। पैर कांपने लगेंगे। चढ़ने से ज्यादा उतरना पहाड़ हो जायेगा। जिन्हें हार्ट की समस्या हो या हार्इ ब्लड प्रेसर हो, बेहतर होगा वे जोखिम न उठायें। 
         पत्नी को यह सुनकर अच्छा नहीं लगा कि केवल यूरोपियन ही इतने सक्षम माने जा रहे हैं जो तीसरे ब्लाक तक चढ़ सकते हैं। उन्होंने मेरा हाथ दबाते हुए कहा- मैं भी तीसरे ब्लाक तक चढ़ूंगी। 
         -तुम मंगोलिया तक क्यों नहीं चली जातीं, तीसरा चौथा सब पार करते हुए। मैंने नाराजगी दिखायी- ब्लड पे्रशर की दवा खाती हो और आगे-आगे कूदती रहती हो। 
        -कूदूंगी, कूदूंगी। मुझे डराओ नहीं। खाने पीने का झोला और पानी लिए हुए, मेरा हाथ छोड़ वे तीन चार कदम आगे बढ़ गयीं। कैमरा और वीडियो संभालते हुए मैं। पीछे पीछे चला। दाहिने हाथ की चढ़ार्इ वास्तव में बायें की तुलना में समतल थी। हमने यही राह पकड़ी। 
        क्या तो दमदार पत्थरों को काट कर बनायी गयी है यह दीवार। दीवार भी और सड़क भी। वह भी सीढ़ीदार। किनारे किनारे पत्थर की ही रेलिंग। 4-5 इंच से लेकर 8-10 इंच तक के स्टेप। डेढ़-दो सौ सीढ़ी के बाद बगल में विश्राम के लिए बनाया गया कमरा और करीब पौन किमी पर एक बड़ा ब्लाक या हाल जिसमें सौ डेढ़ सौ सैनिक आसानी से विश्राम कर सकते हैं। (सही दूरी और नाप अब आप गूगल पर देख सकते हैं।) रेलिंग पकड़ कर चढ़ने उतरने वाले ज्यादा रहते हैं इसलिए रेलिंग से सटी सीढि़यां कहीं कहीं घिस गयी हैं। बाकी अंगद के पांव की तरह जस की तस। कभी इन पर घुड़सवार पहरेदार सैनिक चला करते थे। बिना इन पर चढे़ इनकी भव्यता और भयावहता का अनुमान लगाना संभव नहीं। कुछ उतरे आ रहे हैं, कुछ चढ़े जा रहे हैं, कुछ आसपास की रेलिंग पर अपना नाम अंकित करने पर लगे हैं। रूकते रूकाते लाग डाट में हम दो ब्लाक तक चढ़ गये। थकान आ गयी। मैं एक समतल रेलिंग के पत्थर पर बैठ गया। फोटोग्राफी, वीडियोग्राफी करने लगा। पत्नी कुछ देर तक पोज देती रहीं फिर धीरे धीरे चढ़ कर पचास साठ सीढ़ी ऊपर गयीं। मैंने सावधान किया- मदद के लिए पुकारोगी तो नहीं आ सकूँगा। लौट आओ। 
         -अकेली स्त्री को मददगारों की क्या कमी। कहकर वे हंसी और आगे बढ़ने लगीं। अगले मोड़ पर आंखों से ओझल हो गयीं। तेज गुस्सा आया। लेकिन क्या फायदा जब गुस्सा झेलने वाला ही कोर्इ नहीं है। सोचा मैं भी चलूं पर हिम्मत न हुर्इ। कहीं ऊपर ही न रह जाऊं। अंतत: करीब आधे घंटे बाद वे वापस लौटती दिखीं। साथ में दो अन्य विदेशी पहनावे वाली महिलायें। पता चला वे दोनों हरियाणा मूल की हैं और तीस पैंतीस साल से कनाडा में बस गयी हैं। वापसी में सचमुच पैर कांप रहे थें। बेस पर बने एक प्लेटफार्म पर खडे़ होकर लोग फोटो खिंचा रहे थे, यादगार के लिए। किसी भी झुंड में किसी के भी साथ। नाम, पता, फोन नम्बर लिखा दीजिए। पैसा जमा कर दीजिए। फोटो आप के पते पर पहुंच जायेगा। हमने भी फोटो खिंचार्इ। बस में पहुंचने वाले हम दोनों अंतिम यात्री थे। 
        यहां से चल कर एक विशाल रेस्टोरेंट में खाना खाने के लिए रूके। बाहर टूरिस्ट बसों की लाइन लगी थी। कर्इ मंजिल का रेस्टोरेंट। हर मंजिल पर 60-70 बड़ी मेजें। खाने के साथ बियर मुफ्त थी। पानी नहीं मिलेगा। स्प्राइट, कोकाकोला या बियर। हर प्रकार का खाना। हर प्रकार के खाने वाले। एशियार्इ, यूरोपियन, अफ्रीकन। विभिन्न पहनावे, विभिन्न बोलियां।
        यहां से हम समर पैलेस देखने गये। चीन के सम्राट की गर्मी के महीने की अराम गाह। लम्बी चौड़ी कुनमिंग लेक के किनारे लागिविटी हिल पर बना पैलेस। कर्इ सारे भवन। बारहवीं सदी में बना। यूरोपियन फौजों ने रौंदा जलाया। फिर बना। गर्मी के महीने में राजा 'फारबिडेन सिटी का महल छोड़कर अपनी सारी रानियों और 'कान्क्यूबाइन माने रखैलों के साथ यहां आ जाता था। यहां के कुछ महल बहुत खास हैं, जैसे- लांगिविटी पैलेस, ट्रानिक्वलिटी पैलेस, वीगर पैलेस। इनके मूल चीनी नाम तो जो होंगे सो होंगे। हिन्दी अनुवाद में हम दीर्घायु भवन कह सकते हैं जिसमें रहने से आयु बढ़ जाती है। बुढ़ापे को दूर भगाने का इंतजाम। प्रशानित भवन, चिन्ता उद्विग्नता या भय को दूर भगाने वाला। और पौरूष भवन, जिसमें रहने से पौरूष बढे़ या कम से कम जितना पौरूष बचा रह गया हो वह कायम रहे। भार्इ, पुरूष तभी तक पुरूष है जब तक उसका पौरूष बरकरार हैं। पौरूष गया तो वह कूडे़दान में फेंकने की चीज हो गया। मैंने एक बार टी.वी. पर देखा था, एक युवा शेरनी गुर्रा गुर्रा कर बूढे़ शेर को भगा रही थी। बेचारा कैसे पूंछ दबाए, अपमान के बोझ से सिर झुकाए, थके कदमों से चला जा रहा था। हारे हुए राजा की तरह पड़ रहे थे उसके कदम। विशाल कुनमिंग झील में एक भी चिडि़या नहीं थी। किनारे आठ दस पाली हुर्इ बत्तखें डक्क डक्क कर रहीं थीं।
            वहां से लौटते हुए हम ओलमिपक स्टेडियम पर रूके। यहीं पर 2008 के ओलमिपक खेल हुए थे। लगभग एक किमी लम्बे रास्ते पर ऊंचे ऊंचे खम्बों पर नियान लाइट चमक रही थी। विशाल स्पाती ढांचा बीच मैदान में खड़ा था। हजारों पर्यटक टहल रहे थे। देर तक फोटोग्राफी करने के बाद हम डिनर के लिए उत्सव होटल आये। सवेरे जियांग के लिए बारह बजे की फ्लाइट पकड़नी थी इसलिए इत्मीनान से उठे। नहाये धोए नास्ता किये। 9:30 पर होटल से निकले। आज सिन्डी से विदार्इ का दिन था। वह हम लोगों को लेकर एअरपोर्ट पर आयी। पैक्ड लंच दिया। चेक इन कराया और कहा सुना माफ की स्टाइल में किसी सम्भावित भूल के लिए सारी कह कर विदा ली। लेकिन उसकी आंखों में कोर्इ तरलता नहीं दिखी। सब कुछ रस्मी रस्मी। बार बार मिलने और बिछुड़ने की प्रक्रिया में ऐसा हो ही जाता होगा। 
          पत्नी द्वारा पर्स में सेब काटने के लिए छिपाकर रखा गया छोटा चाकू सिक्यूरिटी चेक में निकलवाया गया तो दुखी हो गयीं। मान लिया कि उसे लगेज में न डाल कर बेवकूफी किया। करीब फर्लांग भर आगे आ गयी थीं तो सिक्यूरिटी चेक की लड़की ने पीछे से आकर उनका पर्स खींचा। अब क्या गड़बड़ हो गयी? लेकिन कोर्इ गड़बड़ नहीं थी। वह सिक्यूरिटी चेक के दौरान छूट गया कैमरे का कवर देने आयी थी। बाप रे! इतनी दूर तक दौड़कर कवर देने आयी। और इतनी भीड़ में कैसे पहचाना कि यह कवर हमने छोड़ा था? थैक्यू भी उसी ने कहा। हम तो मूक खडे़ रह गये। 
          चाइनीज एअर होस्टेस देखकर एक बार फिर मन मुदित हुआ। साढे़ पांच फीट से कोर्इ कम नहीं। गोरी नहीं गुलाबी। ऊंची नासिका और ऊंची सैंडिल वाली। कहां से छांट छांट कर भर्ती किया है इन चीनियों ने भार्इ। प्लेन सम पर आया तो हमने अपना पैक्ड लंच खोला। चावल और रायता। साथ में भरवां पराठा। फिर फ्लाइट का लंच भी आ गया। कुछ खाया कुछ छोड़ा। 
          जियांग एअरपोर्ट पर सोफिया अपनी सौम्य मुस्कराहट के साथ मौजूद थी। सिन्डी 40 की थी लेकिन यह तीस से ज्यादा नहीं होगी। भोली सूरत, बिना मेकअप का चेहरा और राख के रंग वाली पैंट सर्ट पहने मझोले कद की धीमे धीमे मुस्कराकर (और शायद बहुत हल्की सी तुतलाहट के साथ) बोलने वाली सोफिया ने मुग्ध किया। न कोर्इ र्इगो, न कोर्इ आडम्बर, न कोर्इ दिखावा। बातचीत से पढ़ी लिखी लगी। बस के चलने के साथ उसने जिआंग शहर का परिचय देना शुरू किया। बताया की पहले जियांग ही चीन की राजधानी था। पेकिंग, जिंयाग ल्हासा, काठमांडू और दिल्ली एक सीधी रेखा में हैं। यहां 26 सम्राटों की कब्रें हैं। यहां की जमीन बहुत उपजाऊ है। यहां चावल की तुलना में गेहूँ ज्यादा पैदा होता है जिससे 108 प्रकार के व्यंजन बनाये जाते हैं। यह इलाका ब्यूटीफुल लेडीज और बहादुर सिपाही पैदा करने के लिए जाना जाता है। हर बहादुर सिपाही को एक ब्यूटीफुल वाइफ चाहिए ही चाहिए। ब्यूटीफूल पर उसका खास जोर था। उसने बताया कि शहर में दो मार्केट हैं। 'र्इस्ट एन्ड और 'वेस्ट एन्ड। एक शापिंग के लिए और दूसरा 'ब्यूटीफुल लेडीज को देखने के लिए। उसने बताया कि आस पास के इलाके में जो लोग पैसे वाले हो जाते हैं वे पहले मार्केट में जाकर ब्यूटीफुल लेडीज या गर्ल पसंद करते हैं। उससे उसकी च्वाइस पूछते हैं। वह कहती है कि मुझे फला अपार्टमेंट का फलां मंजिल का फ्लैट पसंद है। वह पैसे वाला उस फ्लैट को खरीद कर उसकी चाभी उस 'गर्ल को थमा देता है। तब वह उस पैसे वाले के साथ चली जाती है। चाहे 'वाइफ के रूप में या 'मिस्ट्रेस के रूप में। सुन कर बड़ा अच्छा लगा। क्या व्यवस्था है। यहीं रह जाने का मन हो रहा है। मैंने पत्नी की ओर देखा। वे बोलीं- रह जाइये। ऐसी जगह फिर न मिलेगी। 
         क्या तो मधु की तरह मीटी आवाज और सपना दिखाने वाली आंखे हैं सोफिया की? नाक कान एकदम सादे। न कोर्इ छेद न कोर्इ आभूषण। मुझे लगा कि यदि इसको गलती से आभूषण पहना दिए गये तो इसकी सुन्दरता घट जायेगी। रात का डिनर 'दिल्ली दरबार नाम के रेस्टोरेंट में था। वहां ले जाने के लिए मिस्टर राक नाम का एक अन्य गाइड आया। रास्ते में उसने बताया कि जिस इलाके में कल आपको ले चलेंगे वहां एक जगह ऐसी है जहां आज भी शादी के पहले वर वधू एक दूसरे को नहीं देखते। उनके मां बाप ही यह रिस्ता पसंद और तय करते हैं। जैसा कि कुछ समय पहले आपके इंडिया में होता था। उसने बताया कि यहां के पुरूष अपनी सित्रयों के पैर को बांधने के लिए एक खास तरह की पैकिंग का इस्तेमाल करते हैं। यह मान्यता है कि स्त्री के पैरों को बांध कर रखने से ही कोर्इ पुरूष उस स्त्री को काबू में रख सकता है अन्यथा स्त्री को काबू में रखना बहुत कठिन। वह किसी के काबू में रहने वाली शै ही नहीं है। एक ही उपाय है कि उसके पैरों को बांध कर रखो। जो लड़की अपने पैरों में यह बंधन नहीं स्वीकारती उसकी शादी होना मुशिकल। कौन पसंद करने का जोखिम लेगा ऐसी बन्धनहीन स्त्री को। और भी बहुत सी लन्तरानियां सुनार्इ उसने रेस्टोरेंट पहुंचने तक। पता नहीं कितनी सच कितनी झूठ। उसकी आवाज उसके शरीर की तरह ही मोटी और भौय भांय करने वाली थी। इसलिए बहुत कुछ समझने से रह गया। लेकिन जिस वजह से मैंने बीच में उसकी चर्चा छेड़ी उसका कारण दूसरा है। पता चला कि यह राक सोफिया का मंगेतर है। हे भगवान! तेरा करिश्मा तू ही जाने। कहां भों भों करके बोलने वाला यह मोटा बेडौल राक और कहां कोयल सी कूकने वाली चिकनी तन्वंगी सोफिया।
        मेरे सहकर्मी मोहम्मद अहद एक शेर सुनाते थे-
        जाख की चोंच में अंगूर, खुदा की कुदरत
        पहलुए हूर में लंगूर खुदा की कुदरत।

        जाख का मतलब पूछने पर उन्होंने बताया था- कौआ।
        अब आज आगे और कुछ न लिखा जायेगा। 

लू शुन के देश में


चीन यात्रा का यह संस्मरण वर्तमान साहित्य के  फरवरी २०१५ अंक में प्रकाशित हुआ है ब्लॉग के पाठकों के लिए यहाँ प्रस्तुत 

लू शुन के देश में


शिवमूर्ति
    जब बचपन में पढ़ता था-
इस पार हमारा भारत है, उस पार चीन जापान देश।
मध्यस्थ खड़ा है दोनों के एशिया खंड का यह नगेश।।
    तो सोचता था कि बडे़ होकर किसी दिन इस नगेश हिमालय पर चढ़ कर उस पार बसे चीनियों का जनजीवन देखूँगा। जैसे-जैसे बड़ा होता गया, चीनियों के बारे में जानने की उत्कंठा बढ़ती गयी। बडे़ बूढे़ कहते थे कि हमारे देश से ही बौद्ध धर्म चीन, जापान, थाईलैण्ड आदि देशों में गया है। दर्जा 6 में था तभी सन् 62 में भारत चीन युद्ध हुआ। तब से कभी-कभी लगाया जाने वाला नारा- ’हिन्दी चीनी भाई भाई’ बंद हो गया। और बड़ा हुआ तो, चीनी यात्रियों फाहियान और हवेनसाॅग के बारे में पढ़ा। बाद में चेयरमैन माओ और चीन की महान दीवार आकर्षण का केन्द्र बने। 
    लू शुन को पढ़ा तो चीन के प्रति नजदीकी महसूस होने लगी। थियानमान चैक पर बीते दिनो हुआ छात्रों का नरसंहार चीन की छवि उसके प्रतीक फॅुफकारते ड्रैगन जैसा भयकारी बनाने लगा। सोचा, इस बार यथासंभव चीन को भीतर से देखने समझने की कोशिश की जाय।
    विगत वर्षाें में जो लोग अमेरिका यूरोप या साउथ अफ्रीका आदि की यात्रा में साथी बने थे उनका मन टटोला। लेकिन चीन की यात्रा के लिए किसी ने भी उत्सुकता नहीं दिखायी। लोगों का कहना था कि चलना ही होगा तो सिंगापुर, थाईलैंड, मकाऊ या हाॅगकाॅग चलेंगे। चीन में क्या है? अंत में हम पति पत्नी ने अकेले जाने का मन बनाया। दिल्ली से हम चाइना ईस्टर्न एअरलाइन्स की उड़ान संख्या 564 से 9 व 10 मई की रात्रि में
चीन के अंतिम बादशाह पू ई 
2ः30 बजे संघाई के लिए उड़े। चीनी आदमी की कल्पना करने पर मेरे दिमाग में अबतक पाँच सवा पाँच फीट की स्थूल आकृति ही उभरती थी लेकिन फ्लाइट में जो युवा चीनी अभिवादन और सार सॅभाल करते मिले उनमें से कोई भी पौने छः-छः फीट से कम नहीं था। लम्बे छरहरे सुदर्शन। स्थूलता का नामोनिशान नहीं। और एअर होस्टेस कोई भी साढे़ 5 फीट से कम नहीं। तन्वंगी और गोरी नहीं, गुलाबी। नासिका भी चपटी नहीं ऊॅची। कहाॅ से ले आये चीनी लोग इन्हें छाॅटकर। अपने जीन्स में भी क्रान्ति कर डाला क्या? बाद में चीन घूमते हुए लगा कि सचमुच चीनियों की औसत ऊँचाई बहुत बढ़ गयी है। मैं तो चीन के पारम्परिक गाँवों में भी गया। इक्का दुक्का बूढे़ पुरानो को छोड़कर कहीं भी नाटे आदमी नहीं दिखे।
 
    विमान के उड़ते ही लोगों को जल्दी जल्दी लाइट बुझाकर सो जाने की हड़बड़ी थी। लेकिन मेरी नींद तो उड़ चुकी थी। अगर मैं दस साढे़ दस बजे, हद से हद ग्यारह बजे तक सो न जाऊँ तो मेरी नींद गयी। अब जागरण ही करना होना। अच्छा है, मैंने सोचा। दिल्ली से चलते समय चित्रकार मित्र लाल रत्नाकर ने चीन से गिफ्ट के रूप में अपने लिए तीन चीजें लाने के लिए कहा है, जिन्हें मैंने कागज के एक टुकड़े पर नोट कर लिया था। अब सिर के ऊपर लगी रीडिंग लाईट जलाकर मंैने उसे डायरी में नोट किया। पहली चीज, चाइनीज ब्लैक इंक। बताया कि इसका कोई जवाब नहीं। पेंटिग में प्रयोग की जाती है। दूसरी, सैबल हेयर (गिलहरी की पूँछ के बाल) से बना पेंटिंग ब्रश जो खास चीन में ही मिलता है और तीसरी, कोई चाइनीज पेंटिंग जो यादगार बना जाय। लिखकर मंैने भी लाइट बंद कर दी। खिड़कियाॅ पहले ही बंद थीं। नीम अंधेरे में सारे यात्री बेखबर बेखौफ सो रहे थे। विमान मानों आकाश में स्थिर हो गया था। मेरी सीट खिड़की के पार दाहिनी तरफ थी। कुछ देर आॅखे बंद करने के बाद मैंने धीरे से खिड़की का ढक्कन थोड़ा सा उठाया। पूरब में लोहा लगने लगा था। बचपन में पिताजी भोर में उठाते थे- उठो, लोहा लग गया। मतलब पूर्वी क्षितिज पर ऊषा की लाली फैलनी शुरू हो गयी। किसानों के हल बैल लेकर खेत मे जाने का समय हो गया। गृहणियों के जाँत पीसने का समय हो गया। विद्यार्थियों की पढ़ाई का समय हो गया। ऋषियों मुनियों के स्नान ध्यान का समय हो गया। तब उठाये से नहीं उठता था। बहुत दिनों बाद आज लोहा लगना देख रहा था। धीरे-धीरे सारा पूर्वी आकाश लाल हो गया। हम लोग हिमालय पार कर रहे होंगे।
    थोड़ी देर में जाग हो गयी। चाय, जूस़... नास्ता सर्व होने लगा। 11 बजे हम शंघाई उतरेंगे। वहाँ से प्लेन चेंज करके 12ः30 बजे चलेंगे तो 3ः30 बजे वीजिंग पहंुचंेगे। संघाई के बारे में कहते है कि न्यूर्याक से भी बड़ा और शानदार है। इस टूर में चीन के उत्तरी मध्य और पूर्वी तीनों क्षेत्रों को देखने की योजना है। शहर के साथ गाँव भी घूमने का मन बनाया है। इसके लिए आखिर के दो दिन खासतौर पर रखा है, जब बाकी साथी मकाऊ या हाॅगकाॅग के लिये उड़ जायेंगे, हम पति पत्नी चीन के सुदूर स्थित गाॅवों के भ्रमण पर जायेंगे। मेरा विश्वास है कि वहाॅ के किसानों का जीवन अभी भी उसी तरह का होगा जैसा हमारे यहाॅ भारत में है। और भारत में भी क्या उत्तर दक्षिण पूरब, हर जगह एक सा है? इतनी विविधता तो वहाॅ भी होगी । 
    वीजिंग हवाई अड्डे पर उतर कर हम होटल के लिए चले। लगभग पचास मिनट की यात्रा। इस यात्रा के दौरान मैं सड़क के दोनो तरफ नजर दौड़ाता रहा कि हमारे मुल्क का कोई पेड़ पालव दिखायी पड़ जाये लेकिन अपने परिचय का कोई न मिला। न नीम, न जामुन, न महुआ, न इमली। पीपल, पाकड़, बरगद भी नहीं। हाॅ आम के तीन चार छोटे कद के पेड़ जरूर दिखे जो सड़क से दूरी बनाए एक जगह खडे़ थे। इस बीच एक नदी भी मिली। पर बालू के किनारों वाली नहींे। कीचड़ मिट्टी में लिथड़ी। पानी घटा हुआ था। यानी बगुलों के लिए मछली के शिकार का उत्तम योग। लेकिन यहाँ तो एक भी बगुला न था। आसमान में भी नहीं। ध्यान दिया तो पाया कि किसी भी प्रजाति की चिड़िया नहीं दिख रही है। बाद में हमारी लोकल चाइनीज गाइड सिन्डी ने बताया- यह कहते हुए मुझे बड़ी शर्म महसूस हो रही है कि हमारे देश की सारी चिड़िया हमारे पूर्वजों के पेट में चली गयीं। अब हम उन्हें देखने, उनकी बोली सुनने के लिए तरसते हैं। अपने बच्चों को किताबों में उनके चित्र दिखाते हैं। अगर आपको हमारे देश में कहीं कोई चिड़िया दिख जाय तो समझिए अपनी जान जोखिम में डाल कर वह चीन में रह रही है। 
    सिन्डी ने सही कहा था। आगे की अपनी यात्रा में मुझे जियांग के एक बडे़ और फूलों से लदे पार्क में केवल एक गौरैया फुदकती दिखी और पूरब का वेनिस कहलाने वाले ‘वाटर विलेज’ जाने के रास्ते में एक कत्थई कौआ। दोनो ही अकेले। सिन्डी ने एक दिन बताया कि उनके यहाॅ तलाक का प्रतिशत 35 से 40 तक है। मैने सोचा कि यह गौरैया या कौआ भी कहीं तलाक शुदा तो नहीं है। नहीं, ए विधुर या विधवा होंगे। इनका जोड़ीदार किसी चीनी द्वारा उदरस्थ कर लिया गया होगा। तितलियाँ भी नहीं दिखी। इतने फूल खिलने का क्या मतलब कि जिनके लिए ए खिले हैं वे ही नहीं हैं इनका रसपान करने के लिए।
    हमारे होटल का नाम है- डे इन ज्वाइस्ट। लेकिन कमरे में न हेयर ड्रायर है न प्रेस। न चाय के लिए दूध या चीनी। पत्नी किसी भी होटल में पहुंचने पर पहले हेयर ड्रायर खोजती हैं फिर बाथरूप देखती हैं। उन्होंने सारी सम्भावित जगहें खोज डालीं। हेयर ड्रायर न मिला। उनका मुँह लटक गया। मिनरल वाटर की बोतल तक नहींे है। सिर्फ पानी गर्म करने वाली केतली भर है। बेड टी देने का यहाँ रिवाज ही नहीं है। तब इसका नाम ज्वाइस्ट कैसे हुआ?
कमरा और बाथरूम तो बड़ा था लेकिन नहाने के लिए बनाया गया शीशे का केबिन इतना छोटा कि उसमें खडे़ होने के बाद झुकना मुश्किल । कैसे होटल में इन्तजाम किया है इन लोगों ने । मेरी आदत पीढे़ पर इत्मीनान से बैठ कर नहाने की है। खडे़-खडे़ नहाना भी कोई नहाना हुआ। यह तो उसी तरह मजबूरी में निबटाना हुआ जैसे भूतकाल में कभी समयाभाव या स्थानाभाव के चलते एकाध आनंददायक काम खडे़ खडे़ निपटा लिए जाते थे। नहाने में वैसा दुर्निवार आकर्षण मेरा कभी नहीं रहा कि किसी भी तरह निपटाने की चाहत जगे। थोड़ी ठंड भी थी इसलिए शाम का स्नान मैने मुल्तवी कर दिया। 
    सबेरे नास्ते में न दूध था न कार्नफ्लैक्स। न मेवे न शहद न फल। सेब के कुछ टुकड़े रखे गये थे। मक्खन की क्वालिटी भी बहुत मामूली। छाछ से निकाले गये कच्चे मक्खन की तरह। बिना गर्मी के ही गला जा रहा था। अंडा केवल उबले रूप में था। उसके भुजिया आमलेट जैसे रूप नदारत थे। योरोप और अमेरिका में मिलने वाले नास्ते की तुलना में यह नास्ता एकदम सूखी बासी रोटी जैसा था। अपनी आदत के मुताबिक मैने थोड़ा शोर शराबा शुरू किया। एक दो समर्थक तैयार किए। मैनेजर आया। ‘सारी’ बोला। केला, सेब, कार्नफ्लेक्स और दूध का इंतजाम हुआ। 
रिसेप्शन के हाल में हमारी लोकल गाइड सिन्डी हाथ में एक झंडी लिए अवतरित हुईं। उसने दोनों हाथ जोड़कर बौद्ध ढंग से सिर झुकाते हुए स्वागत किया- नी हाउ!  यानी चीन में आपका स्वागत और अभिवादन है। नी हाउ कहकर किसी का स्वागत अभिवादन करते हैं चीन में। यदि सामने वाला आप से कुछ रूष्ट भी है तो नी हाउ कहते ही वह सामान्य हो जायेगा, ऐसा बताया। स्वागत के साथ ही उसने अपना परिचय दिया। तेज तेज नहीं बल्कि जल्दी जल्दी बोलने वाली बाला सिन्डी चालीस के आस पास की होंगी। गोरा रंग, चैड़ा चेहरा। बाबकट। पौने पाॅंच फीट की लम्बाई ‘प’ को ‘च’ बोलने वाली।  जैसे पेन को चेन। डालर को शालर या चालर। उसने बताया कि उच्चारण की अपनी सीमा के कारण जिस भाषा में बात करेगी उसे इंगलिश नहीं चिंगलिश कह सकते हैं। बताया कि यद्यपि उसने अमेरिका से इंगलिश स्पीकिंग का कोर्स किया है पर लाख कोशिश के बावजूद ‘च’ से पिंड छुड़ाने में कामयाब नहीं हो पायी, सो बियर विद मी। 
सिन्डी ने बताया की उसका चीनी नाम तो कुछ और है लेकिन उसकी अमेरिकन टीचर ने उसका नाम रख दिया सिन्डी और उसने गुरूदक्षिणा के रूप में ‘सिन्डी’ स्वीकार कर लिया। सिन्डी का मतलब होता है लिली। इसलिए आप इंडियन लोग मुझे लिली भी कह सकते हैं। जब उसे बताया गया कि गुरू दक्षिणा में शिष्य गुरू को भेंट या मोमेंटो देता है न कि गुरू से लेता है। यह तो चीनी ही होंगे जो उल्टे गुरू से दक्षिणा लेते होंगे, जैसे तुमने लिया। उसे पूरी बात समझने मंे थोड़ी देर लगी लेकिन जब समझी तो जोर से हॅसी और बोली- हम चीनी लोग देने में कम लेने में ज्यादा यकीन करते हैं। 
    सिन्डी ने सावधान किया- चीन में आपकी यात्रा निरापद बीते और कोई दुर्घटना न घटे इसके लिए जरूरी है कि हमेशा कुछ सावधानियाँ बरतें। यद्यपि हमारे यहाँ कम्यूनिस्ट पार्टी का शासन है और रेड लाइट एरिया बंद कर दिया गया है। कसीनोे भी नहीं है लेकिन मैं यह कहते हुए शर्मिन्दा हूँ कि हमारे देश में  जेबकतरे, ठग और नकली नोट के करोबारी बहुत सक्रिय हैं। अपना पासपोर्ट होटल के रिसेप्शन पर या अपने कमरे के लाकर में रख कर ही चलें अन्यथा पर्स छिन जाने या जेब कट जाने पर पासपोर्ट के अभाव में परेशानी हो जायेगी। पर्स में ज्यादा धन न रखें और चंेज लेकर चले। किसी वस्तु के खरीदने पर उतना ही धन पर्स से बाहर निकाले जितनी कीमत देने के लिए जरूरी है। बडे़ नोट का प्रदर्शन हरगिज मत करें। अनजान व्यक्ति से मनी एक्सचेंज न करें वरना वे फेक करेंसी पकड़ा देंगे या किसी ऐसे मुल्क की करेंसी दे देंगे जिसकी मौद्रिक कीमत घटी हुई होगी जैसे आजकल ‘रियाल‘ है। वापसी के नोट ठीक से जाॅच लें। महिलाये अपनी चेन ढक कर चलें। गले में डाले ही नहीं तो सबसे अच्छा है। अपने पर्स और मोबाइल पर सदैव नजर रखें। वर्ना ए चीजें पलक झपकते गायब हो सकतीं हैं। और अंत में, होटल का एक कार्ड तथा पानी की छोटी बोतल सदैव साथ रखें। 
    बाप रे! इतने खतरे। इतनी सावधानी। 
    (यह और बात है कि इतना सावधान किये जाने के बावजूद आगे हम लुटे भी और नकली करेंसी के शिकार भी हुए) 
    पूरी तरह सावधान होकर, गर्म कपड़े पहन कर, जूता मोजा डाट कर हम थियानमान चैक लिए बस में बैठे। सिन्डी ने हाथ में ली हुई झंडी को हिलाते हुए कमांड दिया- आलवेज फालो मी। फालो माई फ्लैग। अपने झुंड से बिछड़ जायें तो पुलिस के पास जायें और होटल का कार्ड दिखायें। 
    घटाएँ तो सबेरे से घिरी थीं, बस के चलते ही बरसात शुरू हो गयी। बाप रे! छाता लेने की तो याद ही न रही। बहुत कम लोग ही छाता लेकर चले थे। बस के रूकते ही बरसाती और छाता बेचने वाली महिलाओं ने बस को घेर लिया। वही छाता पहले दो से तीन डालर में दिया फिर एक डालर यानी 60-62 रूपये में और अंत में 5 युवान यानी 50 रूपये तक में। बस से उतरने से लेकर छाता खरीदने तक आधा भीग गये। 
    पता नहीं क्या कारण था कि थियानमान चैक पर आज अपार जन-समूह उमड़ पड़ा था। देहात से आये बच्चे महिलायें। कन्धे से कन्धा छिल रहा था। गनीमत थी कि सब लाइन में थे। लम्बी लम्बी लाइनें। आधे लोग बिना छाते के और छकाछक बरसता पानी। कहते हैं इस चैक पर पाँच लाख लोग समा सकते हैं। सचमुच बहुत बड़ा। बड़ी देर बाद हम लोग स्मारक के सामने से गुजर पाये। कई वर्ष पहले यहाँ हुए भीषण नरसंहार का दृश्य आँखों में समोते रहे फिर उस स्मारक से होकर गुजरे जहाँ चेयरमैन माओ का शव सुरक्षित रखा गया है।
    पुलिस यहाॅ चाक चैबन्द दिखी। हमारे समूह के एक वृद्ध दम्पति भीड़ में छिटक कर अलग हो गये। तेज हवा ने उनके छाते की कमाचियां उलट दीं। वह उन्हें भीगने से बचाने लायक न रहा। वे एक किनारे खडे़ काॅपने लगे। किसी से कोई बात करना या मदद लेना संभव न था। भाषा का संकट था। तब पुलिस आयी। उनके होटल का कार्ड देखकर, टैक्सी का इन्तजाम किया । पचास युवान यानी 500/- में टैक्सी वोले ने उन्हें एक किमी दूर होटल तक पहुंचाया। 
    चीन में सारी चीजें भारत से मंहगी हैं। फिर चीन में बनी चीजें विदेशों में इतनी सस्ती कैसे बिकती हैं? दो वर्ष पहले में टोरंटो के एक माल में घूम रहा था। सारी चीजों पर मेड इन चाइना दर्ज था। रिबन, पर्स या गुड़िया से लेकर सूटकेस तक पर। पूछने पर दुकानदार ने कहा- हम कुछ नहीं बनाते। सिर्फ बेचते हैं। पूरा बाजार, पूरा कनाडा चाइनीज माल से पटा पड़ा है। 
    चाइना का माल ही नहीं चाइना का आदमी भी। अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान मैं प्रसिद्ध अमेरिकी कथाकार जैक लण्डन का स्मारक देखने सान फ्रान्सिस्को गया। वहाॅ का एक बड़ा हिस्सा चाइना बाजार ही है जिसकी दुकानों पर लगे साइन बोर्ड में सबसे ऊपर चीनी (मंदारिन) भाषा के बडे़ बडे़ अक्षर विराजमान थे और उनके नीचे छोटे कद के अँग्रेजी अक्षर। पता चला कि सान फ्रान्सिस्को शहर की मेयर एक चाइनीज लेडी थीं। कोइ बता रहा था कि चीन की सरकार अपने निर्यातकों को भारी मात्रा में सब्सिडी देती है जिससे चीनी माल पूरी दुनिया में सस्ता बिकने के बावजूद चीनी निर्माताओं को घाटा नहीं होता। मेरी समझ में यह समीकरण अभी तक नहीं आया।
    थियानमान चैक पर जिस चीज ने सबसे ज्यादा ध्यान आकर्षित किया वह थे फूलों से बने करीब पचीस तीस फीट लम्बे तथा 5-6 फीट चैड़ाई वाले वर्गाकर स्तम्भ और मैदान के किनारे किनारे रंग बिरंगे फूलों के बार्डर। ताजे खिले फूलों की अल्पना। सचमुच सुरूचिपूर्ण सजावट। भीगती और ठंड से काॅपती देंह के अंदर मन पुलकित होता रहा। 
    यहाॅ से लंच के लिए गये उत्सव रेस्टोरेंट। रास्ते में हम ऐसी सड़क से गुजरे जिसके एक तरफ अपेक्षाकृत बडे़, साफ सुथरे, रंग रोगन युक्त दुमंजिले मकान या फ्लैट थे और दूसरी ओर पुराने पारम्परिक एक मंजिले बुझे रंग रोगन वाले। सिन्डी ने ध्यानकर्षित करते हुए बताया कि चाइना को यहाँ से देखिए। चीन में अब आपके इंडिया की तरह संयुक्त परिवार की अवधारणा नहीं रह गयी है। सड़क के इस तरफ इन बडे़ घरों में युवा पीढ़ी रहती है और दूसरी तरफ के पुराने घरों में बूढ़ी पीढ़ी। बूढ़ों को बातचीत के लिए साथी चाहिए और युुवाओं केे इन बूढ़ों की पुरानी यादों को सुनने के लिए न धैर्य है न इसकी जरूरत। इसलिए दोनों को ही एक दूसरे के साथ रहना पसन्द नहीं है। कभी कभार छुट्टी में बच्चे बूढे़ माॅ बाप के पास या माॅ बाप बच्चों के पास मिलने चले गये, इतना ही काफी है। सड़क के दोनों ओर जीवन जीने की रफ्तार अलग है। युवा चीनी अपने पड़ोसियों तक को नहीं जानता। वह बैंक बैलेंस बढ़ाने में जुटा रहता है। मैं खुद अपने सामने वाले फ्लैट के पड़ोसी को नहीं जानती। मैं और मेरा पति सबेर 7ः30-8ः00 बजे घर छोड़ देते हैं और आठ साढे़ आठ तक थके थकाए घर लौटते हैं। पड़ोसी को कब और क्यों जाने? पड़ोसी को तो छोड़िए, इसी एकल परिवार की अवधारणा तथा दोनों लोगों के कामकाजी होने के चलते हम अपने बच्चे को ही नहीं जान पाये। चैदह साल की उम्र में ही वह विगड़ गया। ड्रग एडिक्ट हो गया। हम उसे अच्छी शिक्षा देकर सुधारना चाहते हैं लेकिन वह हम लोगों से कोई लगाव ही नहीं रखता। उसे हास्टल में रखने को मजबूर हैं लेकिन हम पति पत्नी बारी बारी उसके हास्टल का खर्च उठाते हैं। ऐसी व्यवस्था कर दिए है कि मेरे व मेरे हस्वैंड के एकाउन्ट से उसके हास्टल की फीस आटोमेटिकली डिपाजिट होती रहती है।
    -बारी-बारी, अलग-अलग एकाउन्ट से फीस जमा करने की बात समझ में नहीं आयी।
    सिन्डी ने समझाया- ऐसा है, हमारे यहाॅ पति पत्नी अपना अलग एकाउन्ट रखते हैं। अपनी कमाई अपने एकाउन्ट में। हमारे यहाॅ तलाक की दर बहुत अधिक है। कब किसका तलाक हो जाय, कहना मुश्किल। इसिलए हर व्यक्ति अपनी कमाई अपने पास रखता है। परिवार में होने वाला खर्च आधा आधा बांट लिया जाता है।
    सब लोग थोड़ी देर तक चुप रह गये। फिर सिन्डी ने ही बात आगे बढ़ाई- मेरे बच्चे के बिगड़ने का एक कारण सिंगल चाइल्ड फेमिली का होना भी है। परिवार में दो या तीन बच्चे होते तो उनका सोसलाइजेशन ज्यादा अच्छे ढंग से होता लेकिन तब हम दूसरा बच्चा पैदा नहीं कर सकते थे। 
    -क्यों?
    -क्योंकि चीन में कुछ समय पहले तक एक ही बच्चा पैदा करने का कानून था। वर्ष 2008 के पहले अगर आप दूसरा बच्चा पैदा करना चाहते तो आपको सरकारी खजाने में में 8 से 20 हजार युवान जमा करने पड़ते। आम आदमी के लिए यह सौदा मंहगा पड़ता था। ऐसा सौदा चंद अमीर लोग ही कर सकते थे। कुछ पैसे वालेे लोग तो सिर्फ अगला बच्चा पैदा करने के लिए कुछ समय के लिए विदेश चले जाते थे। अब यह कानून बन गया है कि यदि आपका पहला बच्चा गर्ल चाइल्ड है और सात साल का हो गया है तो आप दूसरा बच्चा पैदा कर सकते हैं। 
    -गर्ल चाइल्ड वाले ही क्यांे?
    - चीन पारम्परिक रूप से किसानों का देश रहा है जहाँ पिता की जगह खेती का काम करने के लिए लड़के की जरूरत महसूस की जाती रही है। इसी के चलते लड़का प्राप्त करने की प्रबल इच्छा चीन में आज भी बरकरार है। इसी के चलते चीन में लड़का और लड़की का अनुपात 3ः2 हो गया है। इस अनुपात ने अपना जीवन साथी चुनने के काम में लड़कियों की स्थिति लड़कों की तुलना में बेहतर कर दी है। यहाॅं की लड़कियाँ अपने लिए वर का चुनाव करने में दिल से नहीं दिमाग से काम लेती हैं। वे अपने भावी पति में दस गुणों का होना आवश्यक मानती हैं। यथा- वह कम से कम 1.75 मीटर लम्बा हो। वह ठीक ठाक पढ़ा लिखा हो। वह मैनेजीरियल नौकरी में हो। वह बीड़ी, सिगरेट, शराब न पीता हो। वह पत्नी की माॅ का भी भरण पोषण व सम्मान करने को राजी हो। उसकी कोई स्वीट हार्ट यानी प्रेमिका न हो। वह वेतन का पैसा परिवार पर खर्च करने का वचन दे। वह बच्चों को उच्च शिक्षा देने के लिए कृत संकल्प हो।
    लेकिन यह तो कुल आठ ही शर्तें हुईं। बाकी दो क्या थीं, बहुत याद करने पर भी मुझे याद नहीं आ रही है। 
    सिन्डी ने बताया कि सुन्दर लड़की चीनी युवक की सबसे बड़ी चाहत होती है। लड़की के पीछे वे लाइन लगाये रहते हैं। उसको पाने के लिए कोई भी शर्त मानने को तैयार रहते हैं। भले बाद में वे इन शर्ताें को भूलने लगें। 
    उसने बताया कि चीनी आदमी पूरी तरह वर्तमान मंे जीता है। जब चीनी आदमी के पास पैसा आता है तो वह पहले गाड़ी बदलता ह,ै फिर बीबी बदलता है, फिर मकान बदलता है। 
    -और, चीनी औरत के पास पैसा आता है तो?
    -तो उसका जोर मर्द बदलने पर चाहे उतना ज्यादा न रहे पर वह एक हार्ड बाॅस जरूर बन जाती है। तब सारा घर का काम हस्वैंड के जिम्मे आ जाता है। खासकर कुकिंग, क्लीनिंग एन्ड डिश वाशिंग। 
    -और वाइफ के जिम्मे?
    -सिर्फ मेकअप, आफिस, शापिंग एंड स्लीपिंग।
    बस में बैठी हिन्दुस्तानी ‘वाइफें’ खुलकर मुस्करायी। एकाध ने अपने हस्बैंड के चेहरे की ओर भी देखा। 
    उत्सव रेस्टोरेंट का खाना अच्छा था। चावल की क्वालिटी उतनी अच्छी भले नहीं थी लेकिन खूब सफेद, रीझा हुआ और मीठा था। तन्दूरी रोटी, मूँग की दाल, आलू मटर की सब्जी, पापड़, दही, अचार और सलाद। चिकन करी और फ्राइड फिश का तो जवाब नहीं। अंत में सफेद रसगुल्ला और आइसक्रीम। बस पीने के लिए पानी नहीं था। पानी की जगह हर टेबल पर दो लीटर की पैक्ड कोका कोला तथा स्प्राइट की चार पाॅच बोतलें और डिस्पोजेबल गिलास। पानी की जगह इसी को पीजिए और जितना चाहे पीजिए। बस पानी मत माॅगिए। मिनरल वाटर लेंगे तो उसका पैसा अलग लगेगा। खाना जितना मर्जी खाइये। 
    उत्सव रेस्टेरोरेंट का मारवाड़ी मालिक 35-36 वर्षीय दीपक है। दीपक हर टेबल पर पहुंचकर पूछ रहा था- कुछ और चाहिए?  खाना कैसा बना है? कोई कमी? और क्या इम्प्रूव कर सकते हैं? उसका उत्साह और मिलनसारिता देखकर लग रहा था कि जल्दी ही यह अरबपति हो जायेगा। करोड़पति तो वह हो ही गया है। 
    दीपक अपने पंजाबी दोस्त के साथ ग्यारह साल पहले कलकत्ते से बीजिंग आया था। एक दो साल भटकने समझने के बाद दोनों ने चीनी लड़कियों से विवाह किया फिर इस दुकान को उन्हीं के नाम से किराये पर लेकर होटल खोला। तीन साल पहले इसे खरीद लिया। दोनो मित्र मिलकर इसे चला रहे हैं। दोनों के ससुराली जन इसे चलाने में सहयोग करते हैं। दीपक के साले बैरे का काम करते हैं। यह रेस्टोरेंट दिन में एक बजे से रात 9ः00 बजे तक खुलता है। अब उसका पंजाबी खत्री मित्र अलग रेस्टोरेंट खोलने जा रहा है।
     दीपक की पतली पीली सुन्दर चीनी पत्नी एक दम भारतीय गृहणी की तरह मुस्कराना और शरमाना सीख गयी है। दीपक की 6-7 वर्ष की बेटी एकदम मारवाड़ी बच्ची लग रही थी, स्वस्थ और गदबदी। रंगरूप सब पिता का। 
    लंच लेकर हम ’टेंपल आफ हेवन’ देखने गये। यह एक बहुत ऊंचे व लम्बे चैडे़ आधार पर बनाया गया स्तूप है जिसमें अपेक्षा कृत कम चैड़ाई और ऊँचाई का प्रवेश द्वार बना है। अंदर कोई मूर्ति नहीं है। खाली स्थान। गाइड ने बताया कि पहले यहाॅ केवल सम्राट ही पूजा करता था। आमजन को पूजा करने का अधिकार नहीं था। अंतिम सम्राट जिन्होंने यहाॅ पूजा की उनका नाम ‘पु इ’ था। पू इ माॅचू राजवंश का अंतिम शासक थे जो मात्र दो वर्ष की उम्र में 1908 में गद्दी पर बैठे । इनका जीवन बडे़ उतार चढ़ाव में बीता। चढ़ाव क्या, उतार ही उतार में। यद्यपि इनके पास तीन हजार रानियाॅ और रखैलें थी लेकिन कोई संतान नहीं थी। कुछ दिन तक ए जापान के कब्जे में रहे फिर द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान रूस द्वारा बंदी बना लिए गये। चीन के रिपब्लिक बनने पर रूस ने इन्हें चीन के हवाले कर दिया। चीन की जेल में इन्होंने कैदी नम्बर 981 के रूप में कई वर्ष बिताए। जेल में ये माली का काम करते थे। सन् 1959 में चीन की आजादी की दसवीं वर्षगाॅठ के अवसर पर इन्हें मुक्त किया गया। वृद्ध और अशक्त हो जाने पर इनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं था तो तत्कालीन प्रधानमंत्री चाउ एन लाई ने इनकी सेवा के लिए एक नर्श की व्यवस्था करा दी थी। यह दारूण कथा सुनकर मन अजीब सा हो गया। कितना बदकिस्मत बादशाह था। बिलकुल मुगल खानदान के अंतिम वंशज बहादुर शाह जफर की तरह। 
    यहाॅ से होटल लौटे तो सूरज डूबने की तैयारी कर रहा था। सात बजे डिनर के लिए होटल की लाबी में पहुँचना था। थक कर चूर थे। अगर अभी ऊपर कमरे में गये और विस्तर पर पड़ गये तो क्या पता डिनर के लिए नीचे उतरने की हिम्मत भी रहे या नहीं। होटल के बगल से एक गली अंदर की पुरानी बस्ती में जाती दिख रही थी। पत्नी ने कहा कि चलिए शहरी चीन का दूसरा चेहरा देख आया जाय। 
    गली में थोड़ा आगे बढ़ते ही पुराने लखनऊ या बनारस की तंग गलियों का नजारा दिखने लगा। वहीं खपरैल या टीन की छत। कहीं कहीं प्लास्टिक सीट की ढलवाॅ छत जिसके ऊपर दीवार की सीध में ठीक ऊपर ईंट या पत्थर रख कर उसे आॅधी में उड़ने से बचाने का जुगाड़ किया गया था। छोटे छोटे एक मंजिले दुमंजिले घर। घर या दड़बे। छत तक पहुंचने के लिए लकड़ी की सीढ़ियाॅ। मोटी मोटी भौंहो और होंठों वाले रोते मचलते मोटे गदबदे गोरे गंदे बच्चे।     धूसर कपड़ों में लिपटी पीले काले दाॅतों वाली घरेलू काम निबटाती औरतें। अंगीठी या चूल्हे से उठता धुॅआ। गन्दगी और कूड़ा। बेतरतीब खड़ी साइकिलें, ठेले, दौड़ती भागती कुड़कुड़ करतीं पालतू मुर्गियाॅं। बस कुत्ते नहीं थे। कुत्ते कहीं नहीं दिखे। कुत्ते भी शायद चीनी पूर्वजों के पेट में जा चुके हैं। एकाध जगह घर के बाहर टाट या प्लास्टिक के पर्दे भी दिखे। एकाध जगह, जहाॅ तक मैं समझ सका, उठौवा पाखाना भी। या यह मेरा भ्रम होगा। किसी से पूछने जानने का कोई जारिया नहीं था। भाषा का संकट। लोग हम अजनबियों को अजीब नजरों से देख रहे थे। खासकर औरतें। अंधेरा होने लगा था। गली में बिजली के खंभे दूर दूर पर थे और उन पर जलती रोशनी बहुत मंद थी। गाइड सिन्डी की हिदायत याद आयी- अपना पर्स और मोबाइल सॅभालकर.. लगता है हम लोग धीर धीरे एकाध किमी तक अंदर चले गये थे। पत्नी तो अभी जाने क्या क्या देख लेना चाहती थीं। आगे ही आगे बढ़ी जा रही थी। किसी स्त्री से अपनी देहाती अवधी में कुछ पूंछ भी लेती और भौचक चेहरा देकर खुद ही झेंप कर आगे बढ़ जाती। मैंने आवाज देकर उन्हें रोका। फिर ठेले साइकिलों, कोयले, चैलियों के ढ़ेर और बर्तन भाड़ों से बचते बचाते होटल लौटे। 
पानी में भीगने तथा कई किमी तक दिन भर चलने के कारण बहुत थकान थी। मोजे धीरे-धीरे जूते के अंदर ही सूख गये थे। लगभग यही हाल जर्सी का था। हमने डिनर के बाद ही कमरे में जाने का निश्चय कया। डिनर बहुत फकीरी था। रोटी त्रिभुज चतुर्भुज जैसी व चीमड़ थी। सूखी सब्जी मंे क्या क्या था पता नहीं चल सका सिवा आलू और लोबिया जैसी पतली फली के। चावल खिचड़ी जैसा गीला। लेकिन भूख बहुत तेज थी। कुछ ज्यादा ही खा गये। कमरे में जाकर किसी तरह जूते मोजे उतारे और लुढ़क गये। सबेरे चीन की दीवार देखने जाना था। इसके लिए जल्दी उठना था। नींद बहुत गाढ़ी आयी लेकिन इसी बीच चीन के अंतिम सम्राट पु इ सपने में आये। दुबले पतले लम्बे संम्राट खाकी हाफ पैंट और सफेद सैंडो बनियान पहने थे। उनके सिर पर मुकुट बंधा था। वे नंगे पैर थे और थोड़ा झुक कर हजारे से जेलर के गमले में लगे फूलों की सिंचाई कर रहे थे। दूर से उनका चेहरा मुझे अपने बड़के मौसिया जैसा लगा । मैं उनका हाल चाल पूछने के लिए आगे बढ़ने ही वाला था कि फोन की घंटी घनघनाने लगी । यह सबेरे छः बजे की ‘वेक-अप’ काल थी जो थोड़ी देर तक मुझे सपने का हिस्सा ही लगती रही । 

Tuesday, December 30, 2014

संवेद पत्रिका का संयुक्तांक 73,74,75/feb-april,  2014 मेरी रचना प्रक्रिया पर केन्द्रित है उसका मुखपृष्ट. इसे आप www.notnul.com पर पढ़ सकते हैं.  

पिछले दिनों हिन्द पाकेट बुक्स नई दिल्ली से ओमा शर्मा द्वारा सम्पादित साक्षात्कारों की किताब आई है जिसमे मेरा साक्षात्कार भी शामिल है. उसी किताब का मुखपृष्ट.


Sunday, August 10, 2014

सृजन प्रकिया तथा संस्मरण के सहमेल से लिखी गयी मेरी पुस्तक - सृजन का रसायन, अभी अभी राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित हुई हैं. प्रस्तुत हैं उसी का एक अंश

दादा : प्रिंस से सन्यासी तक

एक ही जिंदगी में कई जिंदगी जिए दादा। पहले सात साल गाँव की गली, बाग, बन में नंगे घूमते खेलते। फिर तेरह-चौदह साल की उम्र तक शहर में प्रिंस की तरह डिनर, लंच, ब्रेक फास्ट लेते, तीनों शो सिनेमा देखते (तब तीन शो ही चलते थे) और स्कूल की कडक़ यूनिफार्म में टाई लगा कर जूता पटकते स्कूल आते-जाते। फिर स्वर्ग से धक्का देकर निकाले गये पुण्यहत तापस की तरह वापस गाँव आकर ऊसर जंगल में भेड़ चराते हुए। और अंत में...
                मैं पिताजी को दादा कहता हूँ और बड़े पिताजी को बडक़े दादा। इस तरह दादी तो हुईं बाबा की पत्नी। उन्हें अइया भी कहते हैं हमारे यहाँ। और दादा लोग हुए दादी के बेटे।
                माँ बताती थी कि बाबा के हाथों एक खून हो गया था, या वहाँ के जमींदार ने बाबा के हाथों एक खून करा दिया था। वे पकड़े जाने के डर से रातो-रात कहीं भाग गये थे। दादी ने एक रात बैलगाड़ी में गृहस्थी का सामान लादा और भाग कर इस गाँव में आ गईं। तब दादा-दादी की गोद में थे।
                बाबा चार-पाँच साल बाद अमरनेर में उतराये। वे रेलवे में फिटर हो गये थे। एक बार छिपते-छिपाते आये तो दादा को पढ़ाने के लिए अपने साथ ले गये।
                अमरनेर में बाबा ने दादा का प्यार का नाम रखा- प्रिंस। बगल की खोली में रहने वाले फिटर का बेटा जार्ज दादा का हमजोली था। दादा उसके साथ स्कूल जाने लगे। उसकी माँ प्रिंस को भी स्कूल का ड्रेस पहनने में मदद कर देती थी। जार्ज का चाचा सिनेमा हाल में गेट कीपर था। स्कूल के बाद दोनों लडक़े जब चाहते सिनेमा हाल में घुस जाते। छुट्टी के दिन तीनो शो सिनेमा देखते। स्कूल आते-जाते देखी गयी फि ल्मों की हाथ और मुँह चलाकर नकल करते। (वह गूँगी फिल्मों का जमाना था।) अँग्रेज फोर मैन का बेटा था डगलस। दादा उसके साथ पिंग-पौंग खेलते थे। उन दिनों खेले जाने वाले जिन अंग्रेजी खेलों का नाम दादा बताते थे, उनमें से मुझे बस इसी खेल का नाम याद रह गया है, अपने अजूबे उच्चारण के कारण।
                अमरनेर में बिताए अपने जीवन के सात सालों के बारे में बताते हुए दादा मुझे किसी और लोक में पहुँचा देते। बिजली की रोशनी में नहाई अलौकिक दुनिया जहाँ ब्रेड-मक्खन था, पर्दे पर नाचती मुस्कराती अप्सरायें थीं। पिंग-पौंग था, सिगनल था, झंडी थी। इंजन था, सीटी थी, शंटिग थी। बाद में शंटिग शब्द पिताजी के लिए अत्यन्त भयावह साबित हुआ। इतना कि इसने उनके मौज-मजे में गुजर रहे अबोध बचपन में तूफान ला दिया। बीच समंदर में उनकी कस्ती पलट दी।
                अमरनेर में बाबा के दूर के रिस्ते के एक भाई रहते थे। उनकी ड्यूटी स्टेशन पर रेल के डिब्बों की शंटिग कराने की थी। एक दिन शंटिग कराने के दौरान वे इंजन से कट गये। उनकी युवा पत्नी नि:संतान थीं। बाबा ने उन्हें तात्कालिक रूप से संरक्षण दिया। अपने घर में रखा। बाद में वे कहीं और जाने को तैयार नहीं हुईं। दादा को नहलाने-धुलाने उनकी-देखभाल करने में लग गयीं। अंतत: साल बीतते न बीतते बाबा की पत्नी का दर्जा ले लिया। फिर साल डेढ़ साल बीते अब उन्हें अपने बीच दादा की उपस्थिति खलने लगी। उन पर किया जाने वाला पढ़ाई-लिखाई का खर्च नाजायज लगने लगा। वे बाबा को इस बात के लिए तैयार करने लगीं कि दादा को गाँव भेज दिया जाय। वहाँ रहकर खेती-बारी के गुन सीखें। आखिर गुजारा तो वहीं होना है। जवान हो रहे हैं। खाने-पीने, देंह बनाने का यही समय है। देहात में घी, दूध खायेंगे तो देंह में ताकत आयेगी। वही जिंदगी भर काम आयेगी। पाँच किताब पढ़ लिए। इतना कामभर का बहुत है। ज्यादा पढेंग़े तो नजर अलग कमजोर हो जायेगी।
                बाबा कुछ दिनों तक हाँ-हूँ करके टालते रहे। तब उन्होंने दादा की शिकायत करना शुरू किया। कभी उनकी बात न मानने का आरोप लगा देतीं कभी कुछ चुरा लेने का। कभी दादा पर हाथ चला देतीं। उन्हें कलुआकह देतीं। बाबा से शिकायत करने का मौका तलाशती रहतीं।
                साल बीतते न बीतते बाबा को भी दादा में बुराइयाँ नजर आने लगीं। वे बाबा के गुस्से का शिकार होने लगे। अब स्कूल के बाद दादा का ज्यादातर समय घर से बाहर दोस्तों के साथ गुजरने लगा। कभी-कभी दोस्तों के घर ही सो जाते।
                बाबा का गाँव जाने का कार्यक्रम बना। इस बार परदेशिन अइया (हम उन्हें इसी नाम से पुकारते थे। दादा को गाँव ले जाने के लिए बाबा को तैयार करने में सफल हो गयीं। दादा इस साल सातवी में थे। सालाना इम्तहान होने वाले थे।  दादा ने बाबा से चिरौरी की कि इम्तहान दे लेने दें। मिडि़ल पास हो गये तो कहीं भी नौकरी मिल जायेगी। अपनी बात अकेले में कहने के लिए वे बाबा के कारखाने गये। कहा कि वे इंजन के नीचे गिरने वाले अधजले कोयले बिन बेंचकर अपना खर्च निकाल लेंगे। लेकिन सुनवायी नहीं हुई।
                दादा कहते थे कि काका (उनके पिता) बहुत समझदार थे लेकिन उस समय उनकी अकल पर पर्दा पड़ गया था। शहर की निशानी के तौर पर अपना स्कूली बस्ता लेकर, जूता-मोजा पहनकर दादा गाँव लौट आये। यह बस्ता बचपन में मैने भी देखा था। मँड़हे में, दादा की खटिया के सिरहाने, छूहे में गड़ी खूटी में टँगा रहता था। जब मैंने इसे देखा तब दादा इसमें गुजराती भाषा की एक मोटी किताब, कलम, दवात और सादी कापी रखते थे। टोले के कई लोग परदेश में थे। उनकी पत्नियाँ अक्सर चि_ी लिखवाने आती थीं। दादा बस्ते से कापी, कलम, दवात निकालते और शाम को लालटेन की रोशनी में उनकी चि_ियाँ लिखा करते। लिखाने के दौरान उन स्त्रियों का सारा दु:ख, अभाव और विरह की पीड़ा आँखों के आगे मूर्त हो जाती। लिखाते-लिखाते वे सीधे अपने पति को सम्बोधित करने लगतीं- आप तो सब कुछ अपनी आँख से देख कर गये थे। वहाँ जाते ही सब भूल गये। आप के लेखे हम सब मर गये। किराये-भाड़े के लिए जो 100 रू कर्ज लेकर गये उसको भी चुकाने की याद नहीं रही। टकासी की दर से सालभर का साढ़े सैतीस रूपया बियाज बनता है, यह तो पता होगा। इस साल उस बियाजपर छियाजलग जायेगी। जो पचास रूपल्ली भेजे उससे तो चारो परानी को मरने  भर का जहर भी न मिलेगा कि खाकर सूत जायें।
                बेबसी और वेदना का ऐसा ज्वार उमड़ता कि रोने लगतीं। आसुओं की बाढ़ आ जाती। देह थरथराने लगती। हिचकी बँध जाती।
                कुछ देर बाद शिकवा शिकायत का ज्वार घटता तो उन्हें लगता कि ज्यादा कह-सुन दिया है। आगे सुधार करतीं। -ऐसा कौन है दुनिया में जो किसी न किसी का कर्जी (कर्जदार) नहीं है। चाँद और सूरज तक कर्जी हैं। आज तक अदा नहीं कर पाये। इसी के चलते जब महाजन लीलता (निगलता) है तो कहते हैं गरहन (ग्रहण) लगा है, लिख दीजिए कि रिन, कर्जा तो भगवान जिंदगी भर के लिए दे दिए हैं। उसकी चिंता में अपनी देंह न गलाइयेगा। मौका मिले तो एक बार आकर सब को देख दिखा जाइयेगा। नन्हकवा अब परे-परे चलने लगा है। एकदम आप ही की तरह मुस्काता है।
                फिर मति पलटती। कहतीं- बॉच कर सुनाइये।
                सुनकर उन्हें लगता कि जितना दु:ख वे चि_ी की मार्फत भेजना चाहती थीं उसका चौथाई भी उसमें नहीं अँट सका। तब दादा समझाते- इतना बहुत है। बाकी का दु:ख अगली चि_ी में भेज दिया जायेगा।
                चि_ी बैरंग जाती थी। यानी बिना टिकट लिफाफे की। लिफाफा खरीदने भर का पैसा ही कहाँ रहता था। लिखे कागज को ही मोडक़र लेई से चिपका दिया जाता। उसे बस्ते में रख कर ले जाने और लाल डिब्बे में डालने का काम मेरे जिम्मे रहता।
                चि_ी लिखाने के दौरान जग्गू बहू और मनी बहू का रोना मुझे अभी तक याद है। दोनों स्त्रियाँ कब की दुनिया छोड़ चुकी हैं। रोने कलपने और वियोग में बीता यौवन और अभाव असुरक्षा में बीता बुढ़ापा। गँवई स्त्री के यौवन की दीप्ति, उसकी सुगन्ध की अवधि कितनी अल्प होती है। उनके जीवन में रात बीस घंटे की और दिन सिर्फ चार घंटे का क्यों होता है?
                जिंदगी भर दिल्ली में रिक्सा चलाने वाले जग्गू आखिरी बार निमोनिया से बीमार पड़े तो घर लौट आये। दुआर पर धूप में चारपायी डालकर तेल मालिस कराते रहे। न कोई दवा न दारू। उन्हें देखने गया। साँस तेल चल रही थी। आँखें कभी खुलतीं कभी बंद होतीं। बोले- शिवमूरत भाय। लागत बा अबकी न बचब। (लगता है इस बार नहीं बचेंगे) मरने में उन्हें सात-आठ दिन लग गये।
                अस्सी के करीब पहुँच रहे मनी यादव कोयलरी कमा कर गाँव लौट आये हैं। उस दिन वरिष्ट कथाकार राजेन्द्र राव मेरे गाँव गये तो उन्हें मनी यादव से मिलाने भी ले गये। मनी मँड़हे में चूल्हा जला कर बारह बजे दिन में अपनी रोटी सेंक रहे थे।
                -अरे, खुद सेंक रहे हैं। बहुएँ कहाँ हैं?
                तीन बहुएँ हैं। सबने उन्हें अलग कर दिया है। पत्नी को मरे बीसों बरस गुजर गये।
                दादा के चेलों में सबसे युवा मनी ही थे। दादा के पास रोज रात में रामायण सुनने आते थे। याद है, एक बार सीता हरण का प्रसंग सुनकर दादा से कहा- काहें दूनौ जने चले गये हिरना मारने?
                -सीता हुकुम दइ दिंही।
                (सीता ने आदेश दे दिया था)
                -मेहरारू कै केतनी बुद्धी? लछिमन का मानै का नाहीं चाहत रहा।
                (औरत की बुद्धि ही कितनी! लक्ष्मण को मानना नहीं चाहिए था।)
                -अब तो जौन होई का रहा, होइगा।
                (अब तो जो होना था हो गया)
                रामायण सुनने से ज्यादा उनकी रुचि मंत्र सिद्ध करने में रहती थी। टोना झारने का मंत्र, साँप का मंत्र, बिच्छू का मंत्र, आग और पानी को बाँधने को मंत्र। स्त्री को वश में करने और गड़ा धन प्राप्त करने का मंत्र। इतने मंत्र सिंद्ध हो जाये तो जिंदगी में हासिल करने के लिए बचेगा ही क्या? उस समय की उम्मीद और उल्लास से चमकती हुई आँखो की दीप्ति पूरी तरह बुझ गयी थी। वहाँ था नैराश्य, हताशा, और सब कुछ हार जाने का भाव।
                दादा के बस्ते में गुजराती भाषा की जो किताब थी उसका अक्षर बेड़ाहोता था और उन अक्षरों में सिरपाई भी नहीं लगती थी। एक बार मैंने दादा से पूछा- वहां के लोग अपने को सीधा खड़ा क्यों नहीं कर देते? दादा हँस दिए। बोले - वहाँ का यही चलन है।
                - और सिरपाई क्यों नहीं लगाते?
                - वे लोग अपने अक्षरों को बाँध कर नहीं रखना चाहते। कहते हैं, बाँध कर रखने से विद्या माई बँध जाती हैं।
                दादा का बस्ता बहुत दिनों तक रहा। मुकदमे बाजी के दौरान जब उसमे खसरा खतौनी की नकलें और मिसिल रखी जाने लगी तो उसे घर के अंदर टाँगा जाने लगा। तब मुझे उसे छूने की मनाही हो गयी। बाद में जब दादा भगतई के रास्ते पर आगे बढ़ गये तो उसमें ब्रहमानंद भजन माला, मोहन माहिनी और बफ्फत की सायरी जैसी पुस्तकें रखी जाने लगीं। फिर दादा पूरी तरह गृहत्यागी हो गये और यह बस्ता हमारी स्मृति से बेदखल हो गया। क्या पता घर के पुराने जंग खाये बक्सों या किसी टिन टब्बर के पेट में यह अभी भी दबा पड़ा हो। 


उसी किताब का एक अन्य अंश : - 
लेखक : योगी भी भोगी भी
                लेखक की भूमिका योगी और भोगी की साथ-साथ होती है। सबसे सम्पृक्त और सबसे संवेदित। भोगी नहीं होगा तो अंदर तक धँसेगा कैसे? और योगी नहीं होगा, साधक नहीं होगा, एकाग्र नहीं होगा, अपनी चित वृत्तियाँ को चारो तरफ से भीतर की ओर मोड़ नहीं सकेगा, दूरी बना कर नहीं रख सकेगा तो नि:संग होकर लिखेगा कैसे?
                कथा कहानी के लेखक को आँकड़ेबाज तो नहीं ही होना चाहिए, विशेषज्ञ भी नहीं होना चाहिए। विशेषज्ञता सहजबोध की दुश्मन है। आलोचक तो विशेषज्ञता या विद्वता अफोर्डकर सकता है, लेखक नहीं। वह जानकार भर हो, इतना काफी है। विशेषज्ञता उसके लेखकके सिर पर चढक़र बैठ जायेगी। तब लेखक नहीं विशेषज्ञ बोलेगा (लिखेगा)। जैसे किसी पुजारी की डील या देंह पर देवता या भूत सवार हो जाता है। तब सवारी की जबान से सवारी नहीं, उस पर सवार देवता या भूत बोलने लगता है। लेखक को किसी की सवारी नहीं बनना चाहिए। उसे सावधान रहना चाहिए कि कोई उसपर सवारी न गाँठ सके।
                लिखना आज भी अच्छा काम माना जाता है। पहले तो यह विशिष्ट माना जाता था। आदर सम्मान पाने लायक माना जाता था। लेखक कवि स्वयं को सामान्य जन की तुलना में तनिक विशिष्ट मानते थे। पाठक भी मानते थे। वक्त के साथ इस धारणा में परिवर्तन हुआ। अब सभी मानते है कि लेखक भी अन्य लोगों की तरह सामान्य प्राणी है। लेकिन लेखन अभी भी बुरा काम नहीं माना जाता कुछ लोग इसे बैठे ठाले का मान लें यह दूसरी बात है। स्वयं ऐसे लेखक के परिवारीजन भी जिन्हें लेखक की अकर्मण्यता या अराजकता का दुष्परिणाम भोगना पड़ता है, लेखन कर्म को खराब नहीं मानते।
                जहाँ इतिहास राजे रजवाड़ों की लड़ाई षडयंत्र और हार जीत का रोजनामचा रहा है, वहाँ साहित्य आम जन जीवन उसके सुख दुख, हर्ष विषाद और संघर्ष का रोजनामचा है। जिस काल और समाज के सम्बन्ध में इतिहास मौन रहता है उसके बारे में साहित्य बताता है। इसका एक उदाहरण मृच्छकटिकम नाटक है। उसको पढक़र हम जान लेते हैं कि उस समय बौद्धों पर कितना संकट था। राजा का साला मूर्ख होते हुए भी कितना शक्तिशाली और निरंकुश होता था। उस समाज में गणिकाओं की क्या हैसियत थी।
                हमारे समाज में लेखक की क्या हैसियत है? क्या लेखन से क्रांति हो सकती है। क्रान्तिकारी परिवर्तन के लिए बहुत सारे कारकों का सक्रिय होना आवश्यक होता है लेकिन यह निर्विवाद है कि लेखक पाठक की मानसिकता का निर्माण करता है। अगर लेखक अपने समाज के आमजन की आशा आकांक्षा और सपनों से जुड़ा है तो वह अपने पाठक से तादात्म्य बनायेगा। उसकी सोच को प्रभावित करेगा। उसका कल्चर करेगा। कल्चर करने की बात मैंने पहले भी एक उदाहरण देकर स्प्ष्ट किया है। मान लीजिए कि आपको अपने खेत में पहली-पहली बार देहरादून के बासमती धान की पैदावार लेनी है। तो केवल बीज के भरोसे आप ऐसा नहीं कर सकते। यदि आप अपने खेत में पैदा हुए धान के चावल में वह खुशबू और स्वाद पाना चाहते हैं जो देहरादून के खेत में पैदा धान के चावल में होता है तो आपको बीज के साथ साथ देहरादून के उस खेत की मिट्टी भी लानी पड़ेगी जिसमें वह धान बोया जाता रहा है। उस मिट्टी को अपने खेत में डालकर पानी पलेवा करके महीने दो महीने के लिए छोडऩा पड़ेगा ताकि उस मिट्टी के साथ आये बैक्टीरिया आपके खेत में फैलकर उसका कल्चर कर सकें। यही स्थिति लेखन के साथ भी होती है। आपकी रचना आपके पाठक का मनोनुकूल कल्चर करती है। आपकी विचारधारा से पाठक प्रभावित होता है। तादात्म्य स्थापित करता है। इस प्रकार परोक्ष रूप से साहित्य क्रांति की जमीन तैयार कर सकता है।
                यह प्रश्न अक्सर पूछा जाता है कि लेखक क्यों लिखता है? जहां तक मेरा मामला है, मै आमजन की बेहतरी की कामना से लिखता हूँ। मै लेखन का उद्देश्य हर प्रकार के शोषण, अन्याय, असमानता, अभाव और उत्पीडऩ से मुक्ति मानता हूँं। इनके खात्मेे की जमीन तैयार करना ही अपने लेखन का मुख्य सरोकार मानता हूँ।
                सामाजिक परिवर्तन में लेखक की भूमिका कितनी भी नगण्य क्यों न हो लेकिन वह गांव के सिवाने पर भूंकने वाला कुत्ता तो हरगिज नहीं है, जैसा कि डॉ. काशीनाथ सिंह ने तद्भव के आयोजन में पिछले दिनों कहा था। यदि किसी लेखक द्वारा सत्ता की चेरी या कुत्ते की भूमिका स्वीकारी या निभाई भी गयी हो तो उसे अपवाद ही माना जाना चाहिए। मेरे विचार से लेखक की भूमिका इस गैर बराबरी की खाई को पाटने की होनी चाहिए, चाहे वह चिडिय़ा द्वारा समुद्र पाटने के लिए किये जाने वाला प्रयास भर ही क्यों न हो।
                एक अन्य प्रश्न जो अक्सर पूछा जाता है, वह है विचारधारा का प्रश्न। सृजनात्मक लेखन में विचारधारा की स्थिति कहां और कितनी होनी चाहिए? अभी पिछले दिनों मैंने एक आयोजन में अपनी कहानी का पाठ किया, पाठ के बाद एक श्रोता मिले। उन्होंने विस्तार से मुझे मेरी कहानी में मौजूद सैद्धांतिकी से अवगत कराया। फिर उन सिद्धान्तों के बारे में अवगत कराया जो कहानी में अनुपस्थित थे लेकिन जिन्हे कहानी में होना आवश्यक था। अपनी बात के क्रम में उन्होंने अंग्रेजी के कई एक्सक्लूसिव शब्दों की सहायता ली। फिर जानना चाहा कि मेरे पल्ले कुछ पड़ा कि नहीं। मैंने ईमानदारी से इंकार में सिर हिलाया और कहानी सुनाने के बाद मिली श्रोताओं की प्रतिक्रिया से जो उत्साहवर्धन हुआ था वह थोड़ा कुंठित हो गया। उस समय मुझे अपने गांव के पंचम काका की याद आयी। इसी तरह बचपन में मैं तब कुंठित महसूस करता था जब पंचम काका के कटबइठी सवालों से पाला पड़ता था।
                पंचम काका के जिम्मे जीवन भर जानवरों की चरवाही का काम रहा। गर्मी की छुट्टी में मैं भी महीने भर जानवर चराने जाता था। तब मैं दर्जा दो या तीन में रहा होऊंगा। पंचम काका शायद एक या डेढ़ साल स्कूल गये होंगे। फिर नहीं गये। मान लिया कि जरूरत भर का पढ़ लिए हैं। वे फटाफट काम निबटाने में यकीन करते थे। इसलिए जो बच्चे चार-चार, पांच-पांच साल तक पढ़ते ही चले जा रहे थे उनके बारे में मानते थे कि ससुरे खेतीबारी के काम से जान बचाने के लिए कई-कई साल पढ़ते ही चले जा रहे हैं। तब वे इम्तहान लेते थे। उनके प्रश्न गजब के होते थे। जैसे पूछते-पहाड़ा आता है?
                -आता है।
                -कै तक?
                -दस तक।
                -अच्छा बताओ, कै नवां मुह चुम्मी क चुम्मा?
                तब न चुम्मी चुम्मा समझने की मेरी उम्र थी न उसका महत्व जानता था। सात का पहाड़ा याद था लेकिन हिन्दी में 63 की दोनों गिनतियों की स्थिति चुम्मी-चुम्मा वाली है इसपर कभी ध्यान ही नहीं गया था। उनके इम्तहान में मै अक्सर फेल होता था। हिन्दी साहित्य में आज भी कुछ लोग पंचम काका की भूमिका निभा रहे हैं और सिर्फ चरवाही के बल पर प्रासंगिक बने हुए है।
                विचारधारा रचना का प्राण है लेकिन यह प्राण शरीर में कहां रहता है? क्या उसकी प्लेसिंग किसी एक स्थान पर सीमित होती है? वह तो पूरे शरीर में व्याप्त है। ऐसे ही विचारधारा भी पूरी रचना में व्याप्त रहती है। वह अलग से दिखायी दे तो यह रचनाकार की असफलता है। उसकी तासीर महसूस होनी चाहिए, वह दिखनी नहीं चाहिए। जैसे शरबत में चीनी की मिठास महसूस होती है वह दिखती नहीं। जब तक चीनी दिखती रहेगी, वह मिठास पैदा नहीं कर सकती।

                एक और बात। कहानी निबन्ध नहीं है। निबन्ध में सब कुछ लेखक बोलता है लेकिन कथा में बोलने के लिए जब उसने पात्रों की पूरी फौज खड़ी कर दी तो फिर लेखक को बीच मे बोलने की जरूरत क्यों पड़े? इसका मतलब उसने गूंगे पात्र खड़ेे किए। उनके मुंह में जुबान नहीं दिया। वे कठपुतली पात्र है तभी तो लेखक को उनके पीछे खड़े होकर प्राम्पिंट करनी पड़ रही है। यह कथाकार की असफलता है। 

कहानी ऐसे मिली