Sunday, August 10, 2014

सृजन प्रकिया तथा संस्मरण के सहमेल से लिखी गयी मेरी पुस्तक - सृजन का रसायन, अभी अभी राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित हुई हैं. प्रस्तुत हैं उसी का एक अंश

दादा : प्रिंस से सन्यासी तक

एक ही जिंदगी में कई जिंदगी जिए दादा। पहले सात साल गाँव की गली, बाग, बन में नंगे घूमते खेलते। फिर तेरह-चौदह साल की उम्र तक शहर में प्रिंस की तरह डिनर, लंच, ब्रेक फास्ट लेते, तीनों शो सिनेमा देखते (तब तीन शो ही चलते थे) और स्कूल की कडक़ यूनिफार्म में टाई लगा कर जूता पटकते स्कूल आते-जाते। फिर स्वर्ग से धक्का देकर निकाले गये पुण्यहत तापस की तरह वापस गाँव आकर ऊसर जंगल में भेड़ चराते हुए। और अंत में...
                मैं पिताजी को दादा कहता हूँ और बड़े पिताजी को बडक़े दादा। इस तरह दादी तो हुईं बाबा की पत्नी। उन्हें अइया भी कहते हैं हमारे यहाँ। और दादा लोग हुए दादी के बेटे।
                माँ बताती थी कि बाबा के हाथों एक खून हो गया था, या वहाँ के जमींदार ने बाबा के हाथों एक खून करा दिया था। वे पकड़े जाने के डर से रातो-रात कहीं भाग गये थे। दादी ने एक रात बैलगाड़ी में गृहस्थी का सामान लादा और भाग कर इस गाँव में आ गईं। तब दादा-दादी की गोद में थे।
                बाबा चार-पाँच साल बाद अमरनेर में उतराये। वे रेलवे में फिटर हो गये थे। एक बार छिपते-छिपाते आये तो दादा को पढ़ाने के लिए अपने साथ ले गये।
                अमरनेर में बाबा ने दादा का प्यार का नाम रखा- प्रिंस। बगल की खोली में रहने वाले फिटर का बेटा जार्ज दादा का हमजोली था। दादा उसके साथ स्कूल जाने लगे। उसकी माँ प्रिंस को भी स्कूल का ड्रेस पहनने में मदद कर देती थी। जार्ज का चाचा सिनेमा हाल में गेट कीपर था। स्कूल के बाद दोनों लडक़े जब चाहते सिनेमा हाल में घुस जाते। छुट्टी के दिन तीनो शो सिनेमा देखते। स्कूल आते-जाते देखी गयी फि ल्मों की हाथ और मुँह चलाकर नकल करते। (वह गूँगी फिल्मों का जमाना था।) अँग्रेज फोर मैन का बेटा था डगलस। दादा उसके साथ पिंग-पौंग खेलते थे। उन दिनों खेले जाने वाले जिन अंग्रेजी खेलों का नाम दादा बताते थे, उनमें से मुझे बस इसी खेल का नाम याद रह गया है, अपने अजूबे उच्चारण के कारण।
                अमरनेर में बिताए अपने जीवन के सात सालों के बारे में बताते हुए दादा मुझे किसी और लोक में पहुँचा देते। बिजली की रोशनी में नहाई अलौकिक दुनिया जहाँ ब्रेड-मक्खन था, पर्दे पर नाचती मुस्कराती अप्सरायें थीं। पिंग-पौंग था, सिगनल था, झंडी थी। इंजन था, सीटी थी, शंटिग थी। बाद में शंटिग शब्द पिताजी के लिए अत्यन्त भयावह साबित हुआ। इतना कि इसने उनके मौज-मजे में गुजर रहे अबोध बचपन में तूफान ला दिया। बीच समंदर में उनकी कस्ती पलट दी।
                अमरनेर में बाबा के दूर के रिस्ते के एक भाई रहते थे। उनकी ड्यूटी स्टेशन पर रेल के डिब्बों की शंटिग कराने की थी। एक दिन शंटिग कराने के दौरान वे इंजन से कट गये। उनकी युवा पत्नी नि:संतान थीं। बाबा ने उन्हें तात्कालिक रूप से संरक्षण दिया। अपने घर में रखा। बाद में वे कहीं और जाने को तैयार नहीं हुईं। दादा को नहलाने-धुलाने उनकी-देखभाल करने में लग गयीं। अंतत: साल बीतते न बीतते बाबा की पत्नी का दर्जा ले लिया। फिर साल डेढ़ साल बीते अब उन्हें अपने बीच दादा की उपस्थिति खलने लगी। उन पर किया जाने वाला पढ़ाई-लिखाई का खर्च नाजायज लगने लगा। वे बाबा को इस बात के लिए तैयार करने लगीं कि दादा को गाँव भेज दिया जाय। वहाँ रहकर खेती-बारी के गुन सीखें। आखिर गुजारा तो वहीं होना है। जवान हो रहे हैं। खाने-पीने, देंह बनाने का यही समय है। देहात में घी, दूध खायेंगे तो देंह में ताकत आयेगी। वही जिंदगी भर काम आयेगी। पाँच किताब पढ़ लिए। इतना कामभर का बहुत है। ज्यादा पढेंग़े तो नजर अलग कमजोर हो जायेगी।
                बाबा कुछ दिनों तक हाँ-हूँ करके टालते रहे। तब उन्होंने दादा की शिकायत करना शुरू किया। कभी उनकी बात न मानने का आरोप लगा देतीं कभी कुछ चुरा लेने का। कभी दादा पर हाथ चला देतीं। उन्हें कलुआकह देतीं। बाबा से शिकायत करने का मौका तलाशती रहतीं।
                साल बीतते न बीतते बाबा को भी दादा में बुराइयाँ नजर आने लगीं। वे बाबा के गुस्से का शिकार होने लगे। अब स्कूल के बाद दादा का ज्यादातर समय घर से बाहर दोस्तों के साथ गुजरने लगा। कभी-कभी दोस्तों के घर ही सो जाते।
                बाबा का गाँव जाने का कार्यक्रम बना। इस बार परदेशिन अइया (हम उन्हें इसी नाम से पुकारते थे। दादा को गाँव ले जाने के लिए बाबा को तैयार करने में सफल हो गयीं। दादा इस साल सातवी में थे। सालाना इम्तहान होने वाले थे।  दादा ने बाबा से चिरौरी की कि इम्तहान दे लेने दें। मिडि़ल पास हो गये तो कहीं भी नौकरी मिल जायेगी। अपनी बात अकेले में कहने के लिए वे बाबा के कारखाने गये। कहा कि वे इंजन के नीचे गिरने वाले अधजले कोयले बिन बेंचकर अपना खर्च निकाल लेंगे। लेकिन सुनवायी नहीं हुई।
                दादा कहते थे कि काका (उनके पिता) बहुत समझदार थे लेकिन उस समय उनकी अकल पर पर्दा पड़ गया था। शहर की निशानी के तौर पर अपना स्कूली बस्ता लेकर, जूता-मोजा पहनकर दादा गाँव लौट आये। यह बस्ता बचपन में मैने भी देखा था। मँड़हे में, दादा की खटिया के सिरहाने, छूहे में गड़ी खूटी में टँगा रहता था। जब मैंने इसे देखा तब दादा इसमें गुजराती भाषा की एक मोटी किताब, कलम, दवात और सादी कापी रखते थे। टोले के कई लोग परदेश में थे। उनकी पत्नियाँ अक्सर चि_ी लिखवाने आती थीं। दादा बस्ते से कापी, कलम, दवात निकालते और शाम को लालटेन की रोशनी में उनकी चि_ियाँ लिखा करते। लिखाने के दौरान उन स्त्रियों का सारा दु:ख, अभाव और विरह की पीड़ा आँखों के आगे मूर्त हो जाती। लिखाते-लिखाते वे सीधे अपने पति को सम्बोधित करने लगतीं- आप तो सब कुछ अपनी आँख से देख कर गये थे। वहाँ जाते ही सब भूल गये। आप के लेखे हम सब मर गये। किराये-भाड़े के लिए जो 100 रू कर्ज लेकर गये उसको भी चुकाने की याद नहीं रही। टकासी की दर से सालभर का साढ़े सैतीस रूपया बियाज बनता है, यह तो पता होगा। इस साल उस बियाजपर छियाजलग जायेगी। जो पचास रूपल्ली भेजे उससे तो चारो परानी को मरने  भर का जहर भी न मिलेगा कि खाकर सूत जायें।
                बेबसी और वेदना का ऐसा ज्वार उमड़ता कि रोने लगतीं। आसुओं की बाढ़ आ जाती। देह थरथराने लगती। हिचकी बँध जाती।
                कुछ देर बाद शिकवा शिकायत का ज्वार घटता तो उन्हें लगता कि ज्यादा कह-सुन दिया है। आगे सुधार करतीं। -ऐसा कौन है दुनिया में जो किसी न किसी का कर्जी (कर्जदार) नहीं है। चाँद और सूरज तक कर्जी हैं। आज तक अदा नहीं कर पाये। इसी के चलते जब महाजन लीलता (निगलता) है तो कहते हैं गरहन (ग्रहण) लगा है, लिख दीजिए कि रिन, कर्जा तो भगवान जिंदगी भर के लिए दे दिए हैं। उसकी चिंता में अपनी देंह न गलाइयेगा। मौका मिले तो एक बार आकर सब को देख दिखा जाइयेगा। नन्हकवा अब परे-परे चलने लगा है। एकदम आप ही की तरह मुस्काता है।
                फिर मति पलटती। कहतीं- बॉच कर सुनाइये।
                सुनकर उन्हें लगता कि जितना दु:ख वे चि_ी की मार्फत भेजना चाहती थीं उसका चौथाई भी उसमें नहीं अँट सका। तब दादा समझाते- इतना बहुत है। बाकी का दु:ख अगली चि_ी में भेज दिया जायेगा।
                चि_ी बैरंग जाती थी। यानी बिना टिकट लिफाफे की। लिफाफा खरीदने भर का पैसा ही कहाँ रहता था। लिखे कागज को ही मोडक़र लेई से चिपका दिया जाता। उसे बस्ते में रख कर ले जाने और लाल डिब्बे में डालने का काम मेरे जिम्मे रहता।
                चि_ी लिखाने के दौरान जग्गू बहू और मनी बहू का रोना मुझे अभी तक याद है। दोनों स्त्रियाँ कब की दुनिया छोड़ चुकी हैं। रोने कलपने और वियोग में बीता यौवन और अभाव असुरक्षा में बीता बुढ़ापा। गँवई स्त्री के यौवन की दीप्ति, उसकी सुगन्ध की अवधि कितनी अल्प होती है। उनके जीवन में रात बीस घंटे की और दिन सिर्फ चार घंटे का क्यों होता है?
                जिंदगी भर दिल्ली में रिक्सा चलाने वाले जग्गू आखिरी बार निमोनिया से बीमार पड़े तो घर लौट आये। दुआर पर धूप में चारपायी डालकर तेल मालिस कराते रहे। न कोई दवा न दारू। उन्हें देखने गया। साँस तेल चल रही थी। आँखें कभी खुलतीं कभी बंद होतीं। बोले- शिवमूरत भाय। लागत बा अबकी न बचब। (लगता है इस बार नहीं बचेंगे) मरने में उन्हें सात-आठ दिन लग गये।
                अस्सी के करीब पहुँच रहे मनी यादव कोयलरी कमा कर गाँव लौट आये हैं। उस दिन वरिष्ट कथाकार राजेन्द्र राव मेरे गाँव गये तो उन्हें मनी यादव से मिलाने भी ले गये। मनी मँड़हे में चूल्हा जला कर बारह बजे दिन में अपनी रोटी सेंक रहे थे।
                -अरे, खुद सेंक रहे हैं। बहुएँ कहाँ हैं?
                तीन बहुएँ हैं। सबने उन्हें अलग कर दिया है। पत्नी को मरे बीसों बरस गुजर गये।
                दादा के चेलों में सबसे युवा मनी ही थे। दादा के पास रोज रात में रामायण सुनने आते थे। याद है, एक बार सीता हरण का प्रसंग सुनकर दादा से कहा- काहें दूनौ जने चले गये हिरना मारने?
                -सीता हुकुम दइ दिंही।
                (सीता ने आदेश दे दिया था)
                -मेहरारू कै केतनी बुद्धी? लछिमन का मानै का नाहीं चाहत रहा।
                (औरत की बुद्धि ही कितनी! लक्ष्मण को मानना नहीं चाहिए था।)
                -अब तो जौन होई का रहा, होइगा।
                (अब तो जो होना था हो गया)
                रामायण सुनने से ज्यादा उनकी रुचि मंत्र सिद्ध करने में रहती थी। टोना झारने का मंत्र, साँप का मंत्र, बिच्छू का मंत्र, आग और पानी को बाँधने को मंत्र। स्त्री को वश में करने और गड़ा धन प्राप्त करने का मंत्र। इतने मंत्र सिंद्ध हो जाये तो जिंदगी में हासिल करने के लिए बचेगा ही क्या? उस समय की उम्मीद और उल्लास से चमकती हुई आँखो की दीप्ति पूरी तरह बुझ गयी थी। वहाँ था नैराश्य, हताशा, और सब कुछ हार जाने का भाव।
                दादा के बस्ते में गुजराती भाषा की जो किताब थी उसका अक्षर बेड़ाहोता था और उन अक्षरों में सिरपाई भी नहीं लगती थी। एक बार मैंने दादा से पूछा- वहां के लोग अपने को सीधा खड़ा क्यों नहीं कर देते? दादा हँस दिए। बोले - वहाँ का यही चलन है।
                - और सिरपाई क्यों नहीं लगाते?
                - वे लोग अपने अक्षरों को बाँध कर नहीं रखना चाहते। कहते हैं, बाँध कर रखने से विद्या माई बँध जाती हैं।
                दादा का बस्ता बहुत दिनों तक रहा। मुकदमे बाजी के दौरान जब उसमे खसरा खतौनी की नकलें और मिसिल रखी जाने लगी तो उसे घर के अंदर टाँगा जाने लगा। तब मुझे उसे छूने की मनाही हो गयी। बाद में जब दादा भगतई के रास्ते पर आगे बढ़ गये तो उसमें ब्रहमानंद भजन माला, मोहन माहिनी और बफ्फत की सायरी जैसी पुस्तकें रखी जाने लगीं। फिर दादा पूरी तरह गृहत्यागी हो गये और यह बस्ता हमारी स्मृति से बेदखल हो गया। क्या पता घर के पुराने जंग खाये बक्सों या किसी टिन टब्बर के पेट में यह अभी भी दबा पड़ा हो। 


उसी किताब का एक अन्य अंश : - 
लेखक : योगी भी भोगी भी
                लेखक की भूमिका योगी और भोगी की साथ-साथ होती है। सबसे सम्पृक्त और सबसे संवेदित। भोगी नहीं होगा तो अंदर तक धँसेगा कैसे? और योगी नहीं होगा, साधक नहीं होगा, एकाग्र नहीं होगा, अपनी चित वृत्तियाँ को चारो तरफ से भीतर की ओर मोड़ नहीं सकेगा, दूरी बना कर नहीं रख सकेगा तो नि:संग होकर लिखेगा कैसे?
                कथा कहानी के लेखक को आँकड़ेबाज तो नहीं ही होना चाहिए, विशेषज्ञ भी नहीं होना चाहिए। विशेषज्ञता सहजबोध की दुश्मन है। आलोचक तो विशेषज्ञता या विद्वता अफोर्डकर सकता है, लेखक नहीं। वह जानकार भर हो, इतना काफी है। विशेषज्ञता उसके लेखकके सिर पर चढक़र बैठ जायेगी। तब लेखक नहीं विशेषज्ञ बोलेगा (लिखेगा)। जैसे किसी पुजारी की डील या देंह पर देवता या भूत सवार हो जाता है। तब सवारी की जबान से सवारी नहीं, उस पर सवार देवता या भूत बोलने लगता है। लेखक को किसी की सवारी नहीं बनना चाहिए। उसे सावधान रहना चाहिए कि कोई उसपर सवारी न गाँठ सके।
                लिखना आज भी अच्छा काम माना जाता है। पहले तो यह विशिष्ट माना जाता था। आदर सम्मान पाने लायक माना जाता था। लेखक कवि स्वयं को सामान्य जन की तुलना में तनिक विशिष्ट मानते थे। पाठक भी मानते थे। वक्त के साथ इस धारणा में परिवर्तन हुआ। अब सभी मानते है कि लेखक भी अन्य लोगों की तरह सामान्य प्राणी है। लेकिन लेखन अभी भी बुरा काम नहीं माना जाता कुछ लोग इसे बैठे ठाले का मान लें यह दूसरी बात है। स्वयं ऐसे लेखक के परिवारीजन भी जिन्हें लेखक की अकर्मण्यता या अराजकता का दुष्परिणाम भोगना पड़ता है, लेखन कर्म को खराब नहीं मानते।
                जहाँ इतिहास राजे रजवाड़ों की लड़ाई षडयंत्र और हार जीत का रोजनामचा रहा है, वहाँ साहित्य आम जन जीवन उसके सुख दुख, हर्ष विषाद और संघर्ष का रोजनामचा है। जिस काल और समाज के सम्बन्ध में इतिहास मौन रहता है उसके बारे में साहित्य बताता है। इसका एक उदाहरण मृच्छकटिकम नाटक है। उसको पढक़र हम जान लेते हैं कि उस समय बौद्धों पर कितना संकट था। राजा का साला मूर्ख होते हुए भी कितना शक्तिशाली और निरंकुश होता था। उस समाज में गणिकाओं की क्या हैसियत थी।
                हमारे समाज में लेखक की क्या हैसियत है? क्या लेखन से क्रांति हो सकती है। क्रान्तिकारी परिवर्तन के लिए बहुत सारे कारकों का सक्रिय होना आवश्यक होता है लेकिन यह निर्विवाद है कि लेखक पाठक की मानसिकता का निर्माण करता है। अगर लेखक अपने समाज के आमजन की आशा आकांक्षा और सपनों से जुड़ा है तो वह अपने पाठक से तादात्म्य बनायेगा। उसकी सोच को प्रभावित करेगा। उसका कल्चर करेगा। कल्चर करने की बात मैंने पहले भी एक उदाहरण देकर स्प्ष्ट किया है। मान लीजिए कि आपको अपने खेत में पहली-पहली बार देहरादून के बासमती धान की पैदावार लेनी है। तो केवल बीज के भरोसे आप ऐसा नहीं कर सकते। यदि आप अपने खेत में पैदा हुए धान के चावल में वह खुशबू और स्वाद पाना चाहते हैं जो देहरादून के खेत में पैदा धान के चावल में होता है तो आपको बीज के साथ साथ देहरादून के उस खेत की मिट्टी भी लानी पड़ेगी जिसमें वह धान बोया जाता रहा है। उस मिट्टी को अपने खेत में डालकर पानी पलेवा करके महीने दो महीने के लिए छोडऩा पड़ेगा ताकि उस मिट्टी के साथ आये बैक्टीरिया आपके खेत में फैलकर उसका कल्चर कर सकें। यही स्थिति लेखन के साथ भी होती है। आपकी रचना आपके पाठक का मनोनुकूल कल्चर करती है। आपकी विचारधारा से पाठक प्रभावित होता है। तादात्म्य स्थापित करता है। इस प्रकार परोक्ष रूप से साहित्य क्रांति की जमीन तैयार कर सकता है।
                यह प्रश्न अक्सर पूछा जाता है कि लेखक क्यों लिखता है? जहां तक मेरा मामला है, मै आमजन की बेहतरी की कामना से लिखता हूँ। मै लेखन का उद्देश्य हर प्रकार के शोषण, अन्याय, असमानता, अभाव और उत्पीडऩ से मुक्ति मानता हूँं। इनके खात्मेे की जमीन तैयार करना ही अपने लेखन का मुख्य सरोकार मानता हूँ।
                सामाजिक परिवर्तन में लेखक की भूमिका कितनी भी नगण्य क्यों न हो लेकिन वह गांव के सिवाने पर भूंकने वाला कुत्ता तो हरगिज नहीं है, जैसा कि डॉ. काशीनाथ सिंह ने तद्भव के आयोजन में पिछले दिनों कहा था। यदि किसी लेखक द्वारा सत्ता की चेरी या कुत्ते की भूमिका स्वीकारी या निभाई भी गयी हो तो उसे अपवाद ही माना जाना चाहिए। मेरे विचार से लेखक की भूमिका इस गैर बराबरी की खाई को पाटने की होनी चाहिए, चाहे वह चिडिय़ा द्वारा समुद्र पाटने के लिए किये जाने वाला प्रयास भर ही क्यों न हो।
                एक अन्य प्रश्न जो अक्सर पूछा जाता है, वह है विचारधारा का प्रश्न। सृजनात्मक लेखन में विचारधारा की स्थिति कहां और कितनी होनी चाहिए? अभी पिछले दिनों मैंने एक आयोजन में अपनी कहानी का पाठ किया, पाठ के बाद एक श्रोता मिले। उन्होंने विस्तार से मुझे मेरी कहानी में मौजूद सैद्धांतिकी से अवगत कराया। फिर उन सिद्धान्तों के बारे में अवगत कराया जो कहानी में अनुपस्थित थे लेकिन जिन्हे कहानी में होना आवश्यक था। अपनी बात के क्रम में उन्होंने अंग्रेजी के कई एक्सक्लूसिव शब्दों की सहायता ली। फिर जानना चाहा कि मेरे पल्ले कुछ पड़ा कि नहीं। मैंने ईमानदारी से इंकार में सिर हिलाया और कहानी सुनाने के बाद मिली श्रोताओं की प्रतिक्रिया से जो उत्साहवर्धन हुआ था वह थोड़ा कुंठित हो गया। उस समय मुझे अपने गांव के पंचम काका की याद आयी। इसी तरह बचपन में मैं तब कुंठित महसूस करता था जब पंचम काका के कटबइठी सवालों से पाला पड़ता था।
                पंचम काका के जिम्मे जीवन भर जानवरों की चरवाही का काम रहा। गर्मी की छुट्टी में मैं भी महीने भर जानवर चराने जाता था। तब मैं दर्जा दो या तीन में रहा होऊंगा। पंचम काका शायद एक या डेढ़ साल स्कूल गये होंगे। फिर नहीं गये। मान लिया कि जरूरत भर का पढ़ लिए हैं। वे फटाफट काम निबटाने में यकीन करते थे। इसलिए जो बच्चे चार-चार, पांच-पांच साल तक पढ़ते ही चले जा रहे थे उनके बारे में मानते थे कि ससुरे खेतीबारी के काम से जान बचाने के लिए कई-कई साल पढ़ते ही चले जा रहे हैं। तब वे इम्तहान लेते थे। उनके प्रश्न गजब के होते थे। जैसे पूछते-पहाड़ा आता है?
                -आता है।
                -कै तक?
                -दस तक।
                -अच्छा बताओ, कै नवां मुह चुम्मी क चुम्मा?
                तब न चुम्मी चुम्मा समझने की मेरी उम्र थी न उसका महत्व जानता था। सात का पहाड़ा याद था लेकिन हिन्दी में 63 की दोनों गिनतियों की स्थिति चुम्मी-चुम्मा वाली है इसपर कभी ध्यान ही नहीं गया था। उनके इम्तहान में मै अक्सर फेल होता था। हिन्दी साहित्य में आज भी कुछ लोग पंचम काका की भूमिका निभा रहे हैं और सिर्फ चरवाही के बल पर प्रासंगिक बने हुए है।
                विचारधारा रचना का प्राण है लेकिन यह प्राण शरीर में कहां रहता है? क्या उसकी प्लेसिंग किसी एक स्थान पर सीमित होती है? वह तो पूरे शरीर में व्याप्त है। ऐसे ही विचारधारा भी पूरी रचना में व्याप्त रहती है। वह अलग से दिखायी दे तो यह रचनाकार की असफलता है। उसकी तासीर महसूस होनी चाहिए, वह दिखनी नहीं चाहिए। जैसे शरबत में चीनी की मिठास महसूस होती है वह दिखती नहीं। जब तक चीनी दिखती रहेगी, वह मिठास पैदा नहीं कर सकती।

                एक और बात। कहानी निबन्ध नहीं है। निबन्ध में सब कुछ लेखक बोलता है लेकिन कथा में बोलने के लिए जब उसने पात्रों की पूरी फौज खड़ी कर दी तो फिर लेखक को बीच मे बोलने की जरूरत क्यों पड़े? इसका मतलब उसने गूंगे पात्र खड़ेे किए। उनके मुंह में जुबान नहीं दिया। वे कठपुतली पात्र है तभी तो लेखक को उनके पीछे खड़े होकर प्राम्पिंट करनी पड़ रही है। यह कथाकार की असफलता है। 

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