Sunday, August 7, 2022

मसाईमारा के जंगल (Masaimara Ke Jangal)

 

मसाईमारा के जंगल

शिवमूर्ति

    जंगल के प्रति मेरा आकर्षण बचपन से रहा है। शायद इसका कारण बचपन में सुनी गयी वे कहानियां और गीत हैं जिनमें जंगल बार-बार आता है। किसी राजकुमार को देश निकाला होता था तो वह जंगल की राह पकड़ता था। राम और पॉडव जंगल-जगल भटके थे। कोई राजा अपनी रानी से नाराज हो जाता था तो या तो वह महल के बाहर कउआ हकनी बन कर गुजारा करती थी या जंगल में चली जाती थी।

एक बन गइली, दूसरे बन गइली, तिसरे बन ना!

मिले गोरू चरवहवा तिसरे बन ना!!

    तीसरे वन में जाते-जाते चरवाहे मिल जाते थे। वे रानी के दुख से दुखी होते थे। भूखी प्यासी रानी को दूध पिलाते थे।

        मां करूण स्वर में गातीं थीं- बन का निकरि गये रघुराई। तो मन द्रवित हो जाता था। मामा के घर जाते समय रास्ते में लम्बी बबुराही मिलती थी। मन करता था कि यहीं बबूलों की छांव में जिन्दगी गुजार दें।

        रामचरित मानस में राजा प्रतापभानु के जंगल में भटक जाने की क्षेपक कथा है। षिकार करते-करते राजा गहन वन में भटक कर भूख-प्यास से व्याकुल हो जाते हैं।

        तुलसीदास जी ने ऐसे ही घने जंगल के बारे में लिखा है- सूझि परइ नहिं पंथ। यह सब जंगल देखने को प्रेरित करते थे।

        दर्जा तीन में धु्रव की कहानी पढ़ी। ध्रुव की तरह अटल पद प्राप्त करने के लिए मैंने और मेरे सहपाठी रामसुख सिंह ने जंगल में जाकर तपस्या करने का निष्चय किया। चार बजे स्कूल की छुट्टी हुयी तो हम दोनों लोग कंधे पर बस्ता टांगे सड़क पकड़ कर उत्तर की ओर चले। चलते-चलते अंधेरा होने लगा तो रामसुख सिंह रुक गये। बोले- मुझे मां की याद आ रही है। मेरे बिना मेरी मां रो-रो कर मर जायेगी।

        मां की याद मुझे भी आ रही थी। अंधेरे के चलते डर भी लगने लगा था। हम लौट पडे़। जंगल देखने की मेरी इच्छा अतृप्त रह गयी।

        मेरे घर के पश्चिम सड़क पार जंगल था। (काफी कुछ अब भी बचा है।) सगरे के उत्तर और महामाई के विशाल बटवृक्षों से लेकर गोंसाई की मठिया के दक्षिण तक। इसी के बीच बीरनतारा नाम का ताल है। ताल के चारो तरफ रुसहनी, बंसवारी, अमराई और कटीली झाडि़यों का घटाटोप। बचपन में जब शिकार कथाएं पढ़ता तो कल्पना करता कि कहानी का शेर इन्हीं झाड़ियों में छिपा बैठा है।

        मेरे पड़ोसी बिलगू इन्हीं झाड़ियों में अपनी प्रेमिका से मिलने जाते थे। एक बार मैंने भी उनका संदेश उस तक पहुंचाया था- बिलगू भइया बकाइन के पेड़ के नीचे तुम्हारा इन्तजार कर रहे हैं।

        -करने दो। उसने बनावटी गुस्से से कहा था। फिर तुरंत ही बरजा था- किसी और से न कह देना। और चल पड़ी थीं। वह इस दुनिया से बहुत जल्दी चली गयीं लेकिन जब तक रहीं मेरा एहसान मानती रहीं। वह बकाइन का पेड़ आज भी ताल के उत्तर-पश्चिम भीटे पर खड़ा है।

        बिलगू भइया की शादी नहीं हुई थी। खोजते-खोजते एक युवती पटी। उसे भगा लाये। भगा क्या लाये वह खुद ही भाग आयी। सावन का महीना था। मेरी मां घर के सामने के खेत में धान निरा रहीं थीं। वह पूरब से, खेतों के बीच से आयी और मेंड पर रुक कर मेरी मां से पूछा- भगत का घर कौन है?

        -यही सामने। कहां से आ रही हो?

        लेकिन वह कुछ बोली नहीं। चल पड़ी।

        यह कौन है जो मेरे घर का पता पूछ रही है और मुझे पहचानती नहीं। वे उसके पीछे-पीछे चलीं। दुआर पर आकर दोनों लोग आमने-सामने हुयीं। वह बोली- हमें यहीं आने के लिए उन्होंने कहा है।

        तब तक दादा, शंकर भगवान को चढ़ाने के लिए लोटे में जल लेकर आये। देख कर पूछा- बिलगू की मेहमान हो? उसने स्वीकार में सिर हिलाया।

        दादा ने मां से कहा- माई के घर में छिपा लो। कोई देख न ले। पानी दाना दे दो। भूखी-प्यासी होगी।

        उस लड़की के भाई को बिलगू पर सन्देह हो गया था। वह एक दो लोगों के साथ समय-कुसमय बिलगू के धर के चक्कर लगाता कि यहां होगी तो दिशा मैदान के लिए सुबह शाम निकलेगी ही। लेकिन पता नहीं लगा सका। वह तो मेरी अइया के खाली घर में छिपी थी। महीने भर छिपी रही। देर रात बिलगू मिठाई और पान-सुपारी लेकर उसके पास आते और भोर होते ही निकल जाते।

        मैं ही दोनों जून उसके लिये खाने की थाली लेकर जाता। बाद में जब और समझदार हुआ तथा खजुराहो की नारी मूर्तियों से परिचित हुआ तो जाना कि वह तो साक्षात खजुराहो की ही नारी थी। वही आंखें, वही मुस्कान, वैसे ही पयोधर, वैसी ही कटि, वैसे ही नितम्ब। मामला ठंडा होने के बाद बिलगू उसे अपने घर ले गये। भात पांत दिया। सुख से रहने लगे। तबतक युवती के भाई को पता चल गया। उसने कहा- बिलगू ने मेरी इज्जत पर डाका डाला है। मेरी मरजी के बगैर मेरी बहन को भगा लाये हैं इसिलए बहन को इनके घर नहीं रहने दूंगा। और जहां जाना चाहेगी विदा कर दूंगा।

        बिलगू घबराये। रात दिन का पहरा बैठा दिया लेकिन सब बेकार। दोनों लोगों के बीच किसी तीसरे जीव के आने के पहले ही एक दिन अचानक वह गायब हो गयी। बिलगू बावलों की तरह उसे चारो तरफ खोजने लगे। उसकी चर्चा होते ही रो पड़ते। राम जी क्या रोये होंगे सीताहरण के बाद, जैसा बिलगू रोते थे।

        यह बिलगू को दूसरा झटका था। पहला झटका पांच छः साल पहले लगा था जब एक ठग ने उनसे मोटी रकम लेकर एक कमसिन लड़के को लड़की के कपडे़ पहना कर उनके साथ विदा कर दिया था। उस धोखे का उल्लेख मैंने अपनी कहानी ‘तिरिया चरित्तर‘ में किया है। महीने डेढ़ महीने की दौड़ धूप के बाद उन्होंने पता लगाया कि वह कस्बे के एक मुहल्ले में गयी है। उन्होंने मुझसे कहा- शिवमूरत भाय, मेरी मदद करिए। मुझे उसके घर के पास ले गये और बोले- इस समय वह घर में अकेली होगी। तुम जाकर उसे बताओ कि मैं यहां खड़ा हूं। आकर मुझसे मिले। और अगर आने को तैयार न हो तो यह पूछ लेना कि तुम अपने मन से यहां आयी हो या जबरदस्ती लाया गया है।

        -और अगर वहां कोई दूसरा मिल जाय और पूछे कि यहां क्यों घूम रहे हो?

        -तो कह देना कि यहां पढ़ते हैं। किराये का कमरा खोज रहे हैं।

        उस साल से मैं नाइन्थ में पढ़ने के लिए कस्बे में जाने लगा था। मैं गया। आस-पास सन्नाटा था। मैंने बंद किवाड़ की सांकल खट-खटायी।

        वही निकली। मैंने कहा- भौजी...

        -कैसी भउजी रे? उसकी आंखों से लपट निकलने लगी- तू कौन है?

        भाग जा नहीं तो काट कर गभड़िया नाले में फेंक दिया जायेगा।

        खजुराहो की नारी का ऐसा रूप! पहचान का कोई चिन्ह नहीं। मैं दहल गया। मुड़कर भागा। मेरे पीछे धड़ाम से दरवाजा बंद हो गया।

        सुन कर बिलगू उदास हो गये। थोड़ी देर तक चुप रह गये फिर कहा- अच्छा जाकर उससे कहो कि मेरे गहने तो वापस कर दे। लेकिन दुबारा जाने की मेरी हिम्मत नहीं पड़ी। दुबारा गया लेकिन तीन साल बाद जब इन्टर की वार्षिक परीक्षा देने के लिए मुझे सचमुच कमरे की जरूरत पड़ी। मैं कमरा खोजते-खोजते उसके दरवाजे पर पहुंचा तो वह...

        मेरे साथ यही गड़बड़ है। कहां की बात कहां पहुंच जाती है।

        तो मेरे गांव के इस जंगल ने भी मेरे मन में जंगल के प्रति आकर्षण पैदा किया होगा। मसाईमारा जंगल के रोमांच के बारे में मैं पहले भी पढ़ चुका था। इसलिए जब इसकी यात्रा का संयोग बना तो मैं तुरंत तैयार हो गया।

        मसाईमारा का जंगल केन्या के दक्षिण पश्चिम में 1510 कि.मी. के क्षेत्र में फैला है और यदि तंजानिया के सेरेन्गेटि नेशनल पार्क का क्षेत्रफल भी मिला दिया जाय जो आपस में जुड़ा है तो इस भूभाग पर फैले इस जंगल का क्षेत्रफल करीब पचीस हजार वर्ग कि.मी. हो जाता है।

        केन्या के पहले हम दक्षिण अफ्रीका के भ्रमण पर थे। वहां जोहान्सवर्ग के एअर पोर्ट से हमें केन्या एअरवेज की फ्लाइट से नैरोबी के लिए उड़ना था। जोहान्सवर्ग में चेक-इन के बाद लाउंज में बैठे थे तो काले मूल की घुघराले बालों और चिकने चेहरे वाली पचास-पचपन की एक हंसमुख महिला मेरी पत्‍नी की बगल की खाली कुर्सी पर आकर बैठी और उनसे पूछा- इंडियन?

        फिर पत्‍नी के लम्बे बालो को हाथ में लेकर तनिक खींचते और मुस्कराते हुए पूछा- आर दीज रियल? 

        -आफ कोर्स। 

        -हवाट अ वंडर। वह खिलखिलायी। Once I was in Delhi.

        जोहान्सवर्ग से 31 मई 2013 को सबेरे 10ः55 की फ्लाइट से हम नैरोबी के लिए उड़े।

        नैरोबी एअर पोर्ट जोहान्सवर्ग की तुलना में बहुत छोटा है। लखनऊ के अमौसी हवाई अड्डे जैसा। बाहर हमारे स्वागत के लिए कत्थई रंग की मोटे स्टील बाडी की लम्बी सफारी कारें थीं। इनमें बैठकर हम 21 की.मी. दूर होटल इन्टरनेशनल की ओर चले। सड़क पर जाम इतना कि कानपुर के रामादेवी या बनारस के गोदौलिया चौराहे को मात करे।

        सड़क की हालत जर्जर थी, दोनों तरफ के मकानों में एकाध बहुत अच्छे, एकाध बहुत जर्जर, ट्रैफिक का नियम न मानने वाली भीड़। कपडे़ लत्ते की गुणवत्ता से अभाव का अभास। एक सफेद दाढ़ी वाले बूढे़ सरदार जी हाथ में छोटा सा टिन का टिफिन झुलाते थके मादे सड़क की पटरी के किनारे-किराने चलते हुए ड्यूटी से लौट रहे थे। एअरपोर्ट से 03:30 बजे चले थे और 06:00 बजे होटल पहुंचे। होटल छावनी बना हुआ था। सुरक्षा कर्मियों की भीड़, सघन जांच, भय का माहौल। एक-दो दिन पहले वहां आतंकी हमला हुआ था।

        एक खास बात। इस होटल में डिनर तो बहुत शानदार था। वेज, नानवेज, सी फूड, फल, आइसक्रीम आदि लेकिन खाने के साथ पीने के लिए पानी देने का रिवाज नहीं है। पानी पीना है तो खरीद कर पीजिए। होटल के कमरे में भी प्रति व्यक्ति आधे लीटर पानी की बोतल मिली। बाथटब में पांच सौ लीटर पानी का प्रयोग करिए, टायलेट में करिए। कोई सीमा नहीं। लेकिन पीने के लिए...

        नैरोबी से रिजर्वफारेस्ट के ऑफिस की दूरी 260 की.मी. है। नास्ता करके हम मसाईमारा रिजर्व फारेस्ट के लिए सबेरे 07:00 बजे निकले। और रास्ते में दो जगह चाय पीते हुए 01:30 पहुंचे। सात बड़ी सफारी गाड़ियों में 31 या 32 लोग। ज्यादातर दक्षिण भारत से आये डाक्टर जिन्‍हें किसी दवा कंपनी ने स्पांसर किया था। एक डाक्टर दम्पत्ति लखनऊ के, एक हल्द्वानी के, एक दक्षिण के बैंक मैनेजर।

        मेरे सफारी वाहन का नम्बर था- KAV208V तथा ड्राइवर का नाम स्टीफेन। वह सफेद घुंघराले बालों, काले रंग चिकने चमकते चेहरे और गठीले शरीर का पचास वर्षीय मृद्भाषी व्यक्ति था। उसने अपना परिचय दिया। बताया कि वह नैरोबी से 160 की.मी. उत्तर का रहने वाला है और ‘कि कु यु‘ मूल का है। वह सफारी ट्रेल्स नाम की ट्रान्सपोर्ट कम्पनी का ड्रायवर है। इस कम्पनी का मालिक 35 वर्ष का राजे नाम का मोना सिख है। कम्पनी के पास 70 सफारी हैं और मसाईमारा जंगल की यात्रा कराने के लिए प्रयोग में आती हैं। उसने यह भी बताया कि दो शब्दों का मतलब जान लेने से यहां आपका काम चल जायेगा। एक है- ‘KARIBU’ जिसका मतलब ‘WELCOM’ और दूसरा है- ‘SAVA SAVA’ मतलब ‘OK’। स्टीफेन ड्राइबर के साथ-साथ गाइड का काम भी कर रहा था। उसने बताया कि केन्या के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग मूल की जातियां निवास करती हैं। इस दक्षिणी हिस्से में मसाई जाति रहती है जो पशुपालन पर निर्भर है क्योंकि पानी न बरसने या कम बरसने के कारण खेती पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। जिसके पास जितना ज्यादा जानवर वह उतना बड़ा आदमी।

        नैरोबी से शुरूआत का 120 कि.मी. का रास्ता ऊंची-नीची पहाड़ियों के बीच से होकर जाता है। सड़क पक्की और सर्पिल है। पेड़ हरे-भरे और ऊंचे हैं। फिर मैदानी क्षेत्र आ जाता है। पेड़ और झाड़ियां छोटी होती जाती हैं। आगे 50-60 कि.मी. का क्षेत्र अर्ध रेगिस्तान है। छोटे बाजारों में लाल पीले रंग की चेक या छींट की ओढ़नी ओढे़ मसाई स्त्रियां और उसी चेक के कपडे़ को गॉती की तरह गले में बांधे घुटनों तक लटकाते मसाई पुरूष। मसाई लोग लम्बे, पतले, काले, घुंघराले बाल और बलिष्ट शरीर वाले थे। राह में मिलने वाले मकान लगभग सभी एक मंजिले, धूसर, बिना प्लास्टर की दिवारें, ज्यादातर टिन की छाजन वाले। गरीबी मुंह बाये खड़ी थी। और आगे बढ़ने पर छोटे-छोटे नाले और भरके मिलने शुरू हुए। गायों और भेड़ों के झुंड। एक एक झुंड में तीन चार सौ गायें। कच्ची सड़क आने के बाद हिरनों के झुंड, जेब्रा और बाइल्ड बीस्ट के झुंड भी। एक बार डिस्कबरी चैनल पर तंजानिया की किसी चौड़ी नदी को पार करते हजारो की संख्या में बाइल्ड बीस्ट का झुंड देखा था। बताया गया था कि अच्छे चारे और पानी की तलास में ए जानवर हर साल कई हजार कि.मी. की यात्रा करते हैं। उन्हें यहां आज साक्षात देख रहा था। सब चरने-खाने में मस्त थे।

        कहीं-कहीं खेत मिल रहे थे। एक खेत में मक्का बोया गया था। एक खेत में बोये गेहूं में बालियां निकल आयी थीं। डेढ़-दो फीट ऊंचे पौधे।

        -ए सिंचाई कैसे करते हैं?

स्टीफेन

        स्टीफेन ने बताया कि ज्यादातर फसल वर्षा पर निर्भर रहती है।

        आगे एक जगह स्प्रिंकल विधि से सिंचाई होती दिखी। खेत के पास पटरी पर एक गाड़ी खड़ी थी जिसका आगे का आधा भाग बैठने के लिए और पीछे का आधा भाग सामान रखने के लिए बनाया गया था। एक आदमी पीठ पर छिड़काव की मशीन लादे किसी दवा या फर्टिलाइजर का छिड़काव कर रहा था। खेत में सब्जी जैसी कोई फसल खड़ी थी। मक्का बहुतायत में था। ऊंचाई में चार फीट तक। खेत ज्यादातर वर्तुलाकार थे। फिर तो सिंचाई में और भी समस्या होती होगी। मक्के के पौधों की पत्तियां गहरे हरे रंग की थीं। मन किया कि उतर कर नजदीक से मिट्टी की गुणवत्ता भी परखी जाय। मैंने स्टीफेन को एक उंगली दिखायी। वह समझ नहीं सका। मैंने उसके कान में मुंह सटा कर कहा- वांट टू मेक वाटर।... टु यूरिनेट। योरप और अमेरिका की यात्रा में ड्रायवर बीच रास्ते में गाड़ी नहीं रोकते इसलिए मैं सशंकित था कि पता नहीं ड्रायवर की क्या प्रतिक्रिया होगी। लेकिन स्टीफेन मुस्कराया, बोला- वेट, वेट।

        फिर बोला- So you want to demarcate your own terittory as lions do.

        - Yes-Yes मैंने कहा और सब हंसने लगे।

        स्टीफेन ने सफारी पटरी पर उतार कर खड़ी कर दी। मैं उतर कर मक्के के खेत की मेड़ तक गया और अपना काम करने लगा।

        मक्के के पौधे पंक्ति में बोये गये थे। एक पंक्ति से दूसरी की दूरी डेढ़ फीट और एक पौधे से दूसरे की दूरी एक फीट थी। मिट्टी काली थी। उसे पलटने वाले मेस्टन हल से जोता गया था लेकिन उसमें पाटा नहीं दिया गया था। पल्टी गयी मिट्टी ज्यों की त्यों पड़ी थी। यह खेत भी वर्तुलाकार था। अर्थात या तो बरसात हो या इसमे स्प्रिंकल विधि से सिंचाई की जाय।

        आगे जब-जब मुझे जरूरत महसूस हुयी, मैंने यही कहा कि I want to demarcate my deritory और कभी उसने गाड़ी रोकी तो कभी खतरा बताकर कहा- Wait, Hold on – Hold on.

        अंततः मसाईमारा रिजर्व फारेस्ट का विशाल प्रवेश द्वार आया। मसाई औरतों और लड़कियों ने जंगली जड़ीबूटी के पैकेट बेचने के लिए गाड़ी को घेर लिया। क्या तो लम्बी-चौड़ी, विशाला स्त्रियां।

        स्टीफेन ने बताया कि पूरे जंगल क्षेत्र को पांच छः हिस्सों में बांटा गया है। एक समय में एक ही हिस्से को 5-6 साल के लिए पर्यटकों के लिए खोला जाता है। शेष जंगल में मनुष्य का प्रवेश बंद रहता है। इस प्रकार एक शेर, बाघ या अन्य जीवों को 15-20 वर्ष के अपने जीवन काल में 4-5 साल से ज्यादा मनुष्य को देखने का दुःख नहीं उठाना पड़ता। केवल हाथी ही है जिसे दुबारा मुनष्य का सामना करने का दुख उठाना पड़ता है।

        जंगल में 5-6 कि.मी. धंसने के बाद आया- होटल सेन्टिनेल। फूस और लकड़ी से छाया हुआ। लगभग सौ कुर्सियों की क्षमता और करीब पचीस फीट ऊंची छत वाला डाइनिंग हाल। फूस का ही स्वागत कक्ष, किचन, बार और पीछे थोड़ा नीचे उतर कर बनाया गया स्वीमिंग पूल। सारी सुविधा शहरी होटल की तरह। एक खास बात और। इस जंगल में बिजली की लाइन नहीं दी गयी है। न बिजली न टेलीफोन। (अब तो खैर मोबाइल फोन का अविष्कार हो गया है।) ताकि जानवरों के पर्यावरण को हानि न पहुंचे। स्वीमिंग पूल का पानी गरम करने और प्रकाश की व्यवस्था के लिए सौर ऊर्जा और पवनचक्की से बिजली पैदा की जाती है। हम सात बते नैरोबी से चले थे अैर साढे़ ग्यारह बजे होटल पहुंचे। काटेज बुक कराये। होटल से जंगल की ओर दो-ढाई फीट चौड़ा, पत्थरों से बना रास्ता जाता है। इसी रास्ते पर करीब एक कि.मी. की लम्बाई में 20’x20’ के क्षेत्रफल की टेंट लगाकर करीब 40 आवास बने हैं जिन्हें काटेज कहा जाता है। प्रत्येक काटेज में तीन डबल बेड वाला एक बड़ा बेडरूम, लैट्रिन, बाथरूम, वाशबेसिन, चाय, काफी बनाने का सामान कप प्लेट बर्तन बगैरह। सफेद झक चादरें। टेंट की दीवार पर टंगी पेंटिंगें। स्टूल, टेबल, कुर्सियां, मच्छरदानी। जरूरत की सारी चीजें। काटेज की चाभी और साथ में हमारी अटैंचियां लेकर जो आदमी काटेज तक आया उसने अपना नाम LIALO SILANTO – EMPOPONGI ARCA MASAI बताया। बताया नहीं बल्कि खुद मेरी डायरी में लिख दिया। उम्र 38 वर्ष कक्षा 8 पास। four Year Service. मुस्कराकर धीमे बोलने वाले LIALO ने वेतन पूछने पर कहा- It is secret, Sir. उसने गरम ठंडे पानी और चायपत्ती, चीनी, दूध आदि की उपलब्धता तथा हीटर का आपरेशन समझाया।

        एक घंटे बाद भोजन के लिए निकलना था। इस बीच चाय पीकर गर्म पानी से स्नान किया गया।

        भारतीय पर्यटकों के लिए आमिष-निरामिष दोनों प्रकार के भोजन की व्यवस्था थी। दोनों प्रकार का स्टार्टर, मांस, चिकन, अंडे, दारू, सूप, जूस, चावल-दाल गेहूं की रोटियां, सब्जियां, दही, फल, अचार, सलाद। जो मन करे जितना मन करे खाइये पीजिए लेकिन पानी नहीं मिलेगा। पानी दिन भर में एक लीटर ही मिलेगा। आधा-आधा लीटर की दो बोतल। ज्यादा चाहिए तो खरीदिए। मैंने भी दो सौ पचास सिलिंग में एक बोतल खरीदी। अगले दिन बाजार में वही बोतल 100 सिलिंग में मिली।

लंच लेकर, थोड़ी देर विश्राम किया गया फिर शाम साढे़ तीन बजे जंगल भ्रमण के लिए निकले। गेट से बाहर आकर बायीं तरफ का रास्ता पकड़ा गया। थोड़ी दूर पर वन विभाग का बैरियर था। यहां गाड़ी का नम्बर, पर्यटकों का नाम पता नोट किया गया। बैरियर के बगल में मृत हाथियो के अस्थिपंजर का ऊंचा टीला था। आगे बढे़ तो सड़क के किनारे एक पंक्ति में मृत जंगली भैसों के सिर रखे हुए थे। सैकड़ों सिर।

        मेरी सफारी में सांवला तमिल पति, गोरी चिट्टी सिन्धी पत्नी और उनकी छः वर्ष की बेटी आराधना तथा एक बंगाली दम्पत्ति व उनका बीस वर्षीय बेटा कार्तिक थे। तमिल दम्पत्ति बम्बई से आये थे। आराधना हमेशा हंसती रहने वाली और बेहद मृदुल स्वर व स्वभाव की लड़की। तमिल, सिन्धी, मराठी, गुजराती, हिन्दी व अंग्रेजी धारा प्रवाह बोलने वाली। अपने पिता से तमिल में, मां से सिन्धी में, मेरी पत्नी से हिंदी में और सेन परिवार तथा ड्राइबर से अंग्रेजी में बोल रही थी। सेन पिता-पुत्र अत्यन्त मित भाषी। उनकी कमी पूरी कर रही थीं महारूपसी मिसेज सेन। हाथ में लिए छोटे गोल शीषे में बार-बार अपना रूप देखतीं और ड्राइवर पर सवालों की झड़ी लगाती रहतीं। सवाल का जवाब देने के पहले ड्राइवर हर बार उनकी ओर देखता। लेकिन फिर उसने देखना और जवाब देना दोनों बंद कर दिया।

        बोला- Let me drive Madam. इतने सदमे में चली गयीं कि फिर घंटे भर तक कुछ नहीं बोलीं।

        घने जंगल का क्षेत्र खत्म होने के बाद झाड़ियां आयीं। फिर घास का मैदान शुरू हुआ। पहले हिरनों का चरता हुआ झुंड दिखा। चार-पांच सौ तो रहे ही होंगे। फिर जेब्रा- चालीस-पचास का झुंड। फिर वाइल्ड बीस्ट- सौ के लगभग। दूर-दूर तक फैले हुए। इन्हीं के बीच में डेढ़ दो हजार की संख्या में पालतू भेड़ों और गायों का रेवड़। इनके साथ एक-दो मसाई युवक, भाले लिए हुए। शेर, बाघ जानते हैं कि इन जानवरों को आदमी ने पाला है, वह इनका रक्षक है और इनका शिकार करना उन्हें मंहगा पडे़गा। इसलिए अपवाद को छोड़ दें तो वे इनका शिकार नहीं करते। और जो करता है उसे ए मसाई युवक समूह में घेर कर अपने भाले से मार डालते हैं। या वह अपराधी शिकारी जानवर ही भाग कर, छिप कर अपनी जान बचाने की कोशिश करता है। स्टीफेन ने बताया कि शेर, बाघ, चीते, शिकारी जानवर कम बुद्धिमान नहीं होते। संकट भाप कर चार-छः महीने के लिए वह क्षेत्र ही छोड़ देते हैं।

        आगे जंगली भैंसो का झुंड मिला। ऊंचे पेड़ों की छाया में नाले से ऊंचाई पर, कुछ बैठे कुछ चरते हुए। उत्सुकता से सफारी गाड़ियों को देखते। पन्द्रह-बीस दिन के नवजात शिशुओं को लेकर उनकी माताएं झुंड से सुरक्षित दूरी बना कर अलग चर रही थीं, कि उनका लाल कहीं इन उछलते कूदते, लड़ते मदमत्त भैंसो के नीचे कुचल न जाय। इसी तरह हाथी के छोटे बच्चे या तो अपनी मां के आगे-आगे चल रहे थे या मां के पिछले पैरों से सटे बगल-बगल। अकेले विचरण करने वाले नर हाथी एक दूसरे से बीघे दो बीघे की दूरी बनाए अकेले खडे़ झूम रहे थे। फोटो खिंचाने के लिए ये हाथी भी कम लालायित नहीं दिख रहे थे। सूंड उठा कर चिग्घाड़ना और कभी-कभी दो चार कदम आगे बढ़ आना। फोटो खिंचाने के लिए कम शौकीन नर हिरण भी नहीं थे। वे भी चरना छोड़कर झुंड से आगे निकल कर पोज देते थे। जिराफ तो दूर से चल कर गाड़ी के पास तक आ जाते थे। जेब्रा जरूर अपने काम यानी चरने या रतिक्रिया में व्यस्त रहते थे। वाइल्ड बीस्ट का मुखिया या तो हू-हू की आवाज निकालता हुआ अगले पैर से जमीन खूंदने में लग जाता था या झुंड को लेकर दूर चला जाता था। अद्भुत दृश्‍य था। दो-ढाई वर्ग कि.मी. के क्षेत्र में सारे जानवर बिना किसी भय के अपनी मौज में विचर रहे थे। एक पेड़ की बीस पचीस फीट ऊंची डाल से लटका भुसनू मधुमक्खियों का एक छत्ता भी दिखा।

       दूर तक फैले घास के मैदान में इंडियन मिलिटरी रंग की सफारी गाड़ियां या सफेद वैन दौड़ रही थीं। दर्जन भर गाड़ियां। स्टीफेन ने तनिक रूक कर जायजा लिया कि किधर चलना फलप्रद होगा। यानी किधर शेर या बाघ के दर्शन हो सकते हैं। 

करीब एक  कि.मी. दूर चार पांच गाड़ियां रूकी थीं और कुछ उधर जा रही थीं। स्टीफेन ने भी उधर ही गाड़ी बढ़ायी। पास जाकर देखा, कच्ची सड़क से 8-10 मीटर दूर एक डेढ़-दो फीट ऊंचे ढूह पर बाघ के चार बच्चे पिछला हिस्सा जमीन पर रखे अगले दो पैरों के सहारे धड़ संभाले बैठे पास आती गाड़ियों को कौतुहल से देख रहे थे। थोड़ी ही देर में उनके चारों ओर गाड़ियां ही गाड़ियां लग गयीं। फ्लेश चमकने लगे। बच्चे (आदमियों के) खुशी से चीखने लगे। बाघ के बच्चों की नजर दूर पहाड़ी की ओर थी। उधर दूरबीन से देखने पर पता चला कि एक बाघ पहाड़ी से उतर कर घास के बीच से चलता हुआ इधर ही आ रहा है। कुछ गाड़ियां उधर बढ़ गयीं। बच्चे अविचलित अपनी जगह पर थे। जैसे मां बाप ने कह रखा हो कि इस जगह से हिलना नहीं।

       बाघ कच्ची सड़क के समानान्तर सड़क से दो ढाई सौ फीट की दूरी बना कर आ रहा था। कुछ देर बाद घास के बीच से बाघ की घरवाली प्रकट हुयी। उसने खडे़ होकर अंगड़ाई ली। पूंछ लपलपायी और लपक कर बाघ का मूंह चूम लिया। फ्लैश लाइट और गाड़ियों को कोई तवज्जो न देते हुए दोनों मस्त चाल से अपने बच्चों की ओर बढे़। बच्चे भी उनकी ओर बढे़। पास पहुंचकर बच्चों ने मां बाप का मुंह चूम कर और दुम हिलाकर उनका स्वागत किया। मां बाप ने भी उन्हें थोड़ा-थोड़ा चाट कर अपना प्यार जताया। आस-पास उमड़ी गाड़ियों की भीड़ उनके लेखे वहां थी ही नहीं। वे सड़क के समान्तर आगे बढ़ते रहे फिर एक जगह सड़क पार करने लगे। आगे पिता बीच में पंक्तिबद्ध चारो बच्चे और पीछे उनकी मां। वे उधर ही जा रहे थे जिधर भैंसों का झुंड देखा गया था और नाला था।

सब अपने कैमरों में अनगिनत फोटो लेकर और वीडियो बनाकर तृप्त थे। सूरज डूबने की तैयारी कर रहा था। गाड़ियां वापस चल पड़ीं।
वापसी में देखा, घासों के बीच एक छोटे तालाब के किनारे एक मोया (अकेल विचरण करने वाला) हाथी पानी पी रहा था। बीच-बीच में थोड़ा पानी सूंड़ से पीछे फेंक रहा था। तालाब के दूसरे किनारे पर पन्द्रह बीस दिन के बच्चे वाली एक जंगली भैंस ऐसी जगह तजवीज कर रही थी जहां से वह अपने बच्चे को पानी पीने के लिए नीचे उतारे कि उसका बच्चा कीचड़ में न फंस जाय। उन दोनों की मदद के लिए वहां तीसरा कोई न था। 
सूरज लाल किरने बिखेरने लगा। जंगल के सारे जानवर चलायमान थे। वहां जायेंगे जहां इन्हें रात बितानी होगी। लेकिन एक छोटी सी झाड़ी के नीचे करीब दो फीट लम्बा और डेढ़ फीट ऊंचा, दाढ़ी वाला चितकबरा हिरन (ही होगा) खड़ा जुगाली कर रहा था आंखें मिचमिचा रहा था और किसी भी तरफ नहीं देख रहा था। समाधिस्थ! नितान्त अकेला- मन और प्रवृत्ति से। यह किसी झुंड का सदस्य नहीं होगा। लगता है यह आज की रात इसी झाड़ी के नीचे बिताने वाला है।

अंधेरा उतरने लगा। झिल्ली की झंकार शुरू हो गयी।

चिड़िया इस जंगल में बहुत कम दिखीं। भैंसों की भौंह से किलनी नोचकर खाने वाली ही दिखीं। कहीं-कहीं इक्की दुक्की क्रेन। एक गिद्ध का घोंसला दिखायी दिया था एक ऊंचे पेड़ की अधसूखी डाल पर। करीब आधे घंटे घने जंगल में हिचकोले खाने के बाद हमारी सफारी होटल के प्रांगण में पहुंची।

बिना बिजली के कनेक्षन वाले इस होटल से काटेज तक जाने वाला रास्ता गोबर गैस या सौरऊर्जा से जलने वाले मद्धिम बल्व की रोशनी से आलोकित हो रहा था। हम अपना कैमरा, पानी, दाने आदि का बैग संभाले काटेज की ओर बढे़।

सबेरे छः बजे डाइनिंग हाल में आकर चाय पीना है। और साढे छः बजे जंगल दर्शन के लिए निकल पड़ना है।

इस काटेज में रात्रि गुजारने का अनुभव अनोखा है। चारो तरफ कटीली झाड़ियां, अंधकार और झिल्ली की लगातार झनकार। थकान के बावजूद नींद कई बार टूटी।

सबेरे चाय पीकर हम गाड़ी में बैठे। आज मुख्य गेट से दाहिने हाथ की सड़क पर चल रहे हैं। अभी सूरज निकल ही रहा था लेकिन हिरनों के झुंड चरने के काम में लग गये थे। सामने के सड़क किनारे के पेड़ पर बया जैसी छोटी चिड़ियों ने डाल से लटकने वाले घोसले बनाये थे। हमारे यहां के बया के घोसले दो मंजिले और दो द्वार वाले 16 से 18 इंच तक लम्बे होते हैं। ए घोसले एक ही द्वार वाले और करीब 8 इंच लम्बे थे। सहसा एक बाज ने झपट्टा मारा और उड़ते हुए गौरैया के जोडे़ से एक को दबोच लिया। लाकर बीच सड़क पर रखा और चोंच से नोचने छेदने लगा। जोड़े की दूसरी चिड़िया बाज के सिर पर उड़ती हुई चीं चीं कर रही थी। हमारी गाड़ी आगे बढ़ी तो बाज अपने शिकार को पंजे में दबोच कर पेड़ की डाल पर बैठ गया और उसके पंख नोच-नोच कर गिराने लगा। गाड़ी रुक गयी। लोग उसका वीडियों बनाने लगे। शिकार का जोड़ीदार बाज के सिर पर उड़ते हुए चीं चीं करने के अलावा कुछ न कर सका। हम भी कुछ न कर सके। उतर कर ढेला मारते तो भी उस ऊंचाई तक न पहुंचता। ‘च्च-च्च‘ करते आगे बढ़ गये।

बहुत दूर पहाड़ी की तलहटी में चार-पांच हाथी दिखे। फिर कुछ नहीं। चलते रहे, चलते रहे। बायीं तरफ छोटी पीली घासों वाली विस्तृत घाटी थी। थोड़ा आगे तीन चार गाड़ियां जाकर एक जगह रुक रही थीं। हमारे ड्राइवर ने भी उधर ही गाड़ी मोड़ी। कैमरे को लांग शाट के लिए तैयार करके दूरबीन में देखा तो दूर घास में कोई छोटा जानवर दिखायी पड़ा। उसका आगे का दाहिना पैर जख्मी था। वह उचक-उचक कर चल रहा था। मुड़-मुड़ कर गाड़ियों की ओर देख रहा था और थोड़ी दूर चलने के बाद बैठकर दम मार रहा था। अंततः एक झाड़ी में घुसकर अदृश्‍य हो गया।

एक छिछला, लगभग सूख चला तालाब था। उसकी तली में बहुत कम पानी। एक प्राणी (शायद हाइना) पानी तक पहुंचने के प्रयास में कीचड़ में फंसा जा रहा था। मुड़ मुड़कर हमारी गाड़ियों की तरफ भी देख लेता था। हमारे और उसके बीच में नाला था। कैमरे में उसकी छवि कैद करके हम शेर की तलाश में आगे बढे़। करीब आधे घंटे चलते रहे, जब तक सामने से आती गाड़ी के ड्राइवर ने यह सूचना नहीं दी कि आगे बायीं तरफ ढूंह पर एक शेर लेटा हुआ है।

हमारे पहुंचने के पहले वहां तीन गाड़ियां पहुंच चुकी थीं। शेर भीमकाय था। सड़क की ओर उसकी पूंछ थी। लोगों ने शोर करके उसे उठाना चाहा। उसने एक बार सिर उठाकर देखा भी लेकिन फिर पसर गया। देर तक नहीं उठा तो गाड़ियां आगे बढ़ीं। मेरी पत्नी ने मेरे माध्यम से ड्राइवर से कहा मैं इसे उठा दूंगी। गाड़ी थोड़ा बैक करिए। गाड़ी बैक की गयी। पत्नी ऊपर की छत खुलवा कर छत की टिन हाथ से पीटते हुए लूहा-लूहा कीं। उन्हें गांव में सियार लोहकारने का अभ्यास था। वह फलीभूत हुआ। शेर उठ बैठा। गाड़ी की ओर देखा फिर खड़ा हुआ और ढूंह से नीचे उतर कर झाड़ियों में अदृश्‍य हो गया। इस बीच कैमरों को कई शाट मिल गये। लोग कृतार्थ हुए। पत्नी के शुक्रगुजार हुए और आगे बढ़े।

चार-पांच हाथियों का झुंड सड़क पार कर रहा था। उनके साथ दो बच्चे भी थे। हम रुक गये। पास जाने पर बच्चों की सुरक्षा के लिए वे क्रोधित भी हो सकते थे।

फिर चार-पांच कि.मी. चले तो सड़क के किनारे फैली तीन-चार फीट ऊंची पीली घास के बीच में चार-पांच बाघों की झलक दिखी। एक बाघ का आधा धड़ घास में और सिर वाला हिस्सा बाहर सड़क की पटरी पर था। वह आंख बंद किए लेटा था। हमारी गाड़ी का पहिया उसके सिर से दो मीटर दूर रुका लेकिन आंख मुलमुलाने के अलावा उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। ऐसा तो नहीं होना चाहिए। इतने शोर शराबे के बावजूद ए इतने शांत बल्कि कहिए इतने सुस्त क्यों हैं? हम शेर की दहाड़ सुनने को क्यों तरस गये। इनसे ज्यादा तो चिड़िया घर के शेर-बाघ दहाड़ते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि पर्यटकों को ए जानवर सुगमता से दिखें, इसके लिए रात में इन्हें नशे का इन्जेक्‍शन लगा दिया गया हो। पास के मैदान में चार-पांच सौ हिरनों का एक झुंड चर रहा था लेकिन इन बाघों का उनसे कोई लेना देना नहीं लगता था। क्यो?

एक दो गाड़ियां घास में घुसकर उन बाघों के बिल्कुल पास गयीं तो इतना हुआ कि वे चार-छः कदम चलकर फिर बैठ गये।
       दस बज गये थे। हम वापस हुए। नास्ता करते समय बताया गया कि यहां से आधे घंटे के रास्ते पर मसाई लोगों का गांव है। जो लोग उनसे मिलना चाहें चल सकते हैं। लंच के समय तक वापस आ जायेंगे। यह भी बताया गया कि उनका नृत्य देखने और घरों को अंदर बाहर से देखने के लिए उन्हें प्रति व्यक्ति बीस डालर देना होगा। इसे उनकी मदद मान सकते हैं।

हम कुछ लोग एक गाड़ी में गये। जंगल के बीच खुले मैदान में दस-बारह झोपड़ियों का गांव था। चारों तरफ कांटेदार सूखी झाड़ियों का एक घेरा बनाया गया था। एक प्रवेश द्वार था। मैंने गांव के मुखिया के लड़के से पूछा कि आप लोग प्रति व्यक्ति बीस डालर देने का ही दबाव क्यों बनाते हैं? हम पांच डालर देना चाहते हैं तो पांच ही लीजिए।

    एक बार तो वह झुकने के लिए तैयार दिखा पर हमारे बीच के कुछ लोग इतने उतावले थे कि उन्हें यह सौदेबाजी नागवार गुजर रही थी। यह देखकर वह लड़का भी बीस डालर के लिए अड़ गया। वह भी एडवांस। वह अच्छी अंग्रेजी बोल रहा था और उसके हाव-भाव पेशेवराना लग रहे थे। शायद इस राशि में हमारे ड्राइवर का भी कुछ हिस्सा हो। हर जगह नेगेटिव सोचने की आदत जो है मेरी। पत्नी ही मेरा विरोध करने लगीं। बोलीं- इतना पैसा खर्च करके यहां तक आ गये और अब बीस डालर देने में आपकी फट रही है।... क्या करते, दिया।

 मुझे तो वहां कुछ खास देखने लायक नहीं लगा। आस.पास बबूल के पेड़ थे। झोपड़ियों के छत की ऊंचाई सिर के बराबर, पतली टहनियों से बनी छत और दीवारें, दीवार व छत पर मिट्टी का लेप। दो फीट चौड़ा और पांच फीट ऊंचा लकड़ी का किंवाड़। 15*10 फीट की जगह में मिट्टी ऊंची करके बनाया गया बिस्तर और बगल में रसोई-चूल्हा। चंद एल्यूनियम के बर्तन, पतीला। धुंआ निकलने के लिए एक 1*1 का रोशन दान। एक बडे़ पतीले में आठ-दस लीटर दूध गरम हो रहा था। मोटी साढ़ी पड़ी थी। मुखिया के लड़के ने बताया कि हम मांस के लिए जो जानवर काटते हैं उसका खून भी दूध में मिलाकर पी जाते हैं। बहरहाल गरम हो रहे दूध में खून की मिलावट नहीं थी। रात में उजाला कैसे करते हैं यह पूछना भूल गया। अंदर ढिबरी या लालटेन जैसा कुछ नजर नहीं आया।
  
बाहर बबूल के पेड़ के नीचे उनकी औरतें और बच्चे बैठे थे। मुखिया के लड़के ने अपनी पत्नी से मिलवाया। बीस बरस की लड़की। अभी मां नहीं बनी। वह बैठी मुस्करा व शरमा रही थी। उसके दांत चमकीले थे चोटी में लाल रिबन था। बाल एक फीट लम्बे थे। कान में कोई आभूषण था पर सोने या चांदी का नहीं। कपड़े घुटने तक ही थे। मुखिया के बेटे डेविड ने बताया अभी उसके एक ही पत्‍नी है जब कि उसके पिता के पास चार पत्निया । बारह गाय देने पर एक पत्नी मिल सकती है।

    -क्या वह भी मोर दैन वन पत्नी रखेगा?
   
    -श्योर-श्योर। वह शरमाते हुए मुस्कराया।

    मसाई युवकों ने उछलने कूदने और हः हः हः करके गाने वाला अपना नृत्य दिखाया। एक खास छड़ी को पत्थर पर रगड़ कर आग पैदा करने की विधि का प्रदर्शन किया।

    यह पूछने पर कि पढ़ाई कहां तक किया है? बताया कि दर्जा पांच तक सामने के उस स्कूल में और उसके बाद आठ तक तीन कि.मी. दूर के स्कूल में।

    -उसके बाद?

    -उसके बाद नहीं। उसके बाद पढ़ने के लिए नैरोबी जाना पड़ेगा। हम लोग अपना गांव छोड़कर वहां नहीं जाना चाहते।

-क्यों?

    - Too much people there. we feel good here in my forest with my cows. ok, ok.

    -इतनी अच्छी अंग्रेजी कैसे बोल लेते हैं? अंग्रेजी किस क्लास में पढ़ाई जाती है?

    - बिगनिंग। शुरू से।

    - कोई मसाई भाषा भी है?

    - बोलने की है, लिखने की नहीं, लिखते अंग्रेजी में हैं।

    - हम लोगों ने बीस-बीस डालर दिए हैं। इसकी रसीद तो दो।

    - नो रसीद।

    - इसे कहां खर्च करोगे?

    - अपनी दवा में। पढ़ाई में।

    यह वाक्य रटा रटाया लगा। ठगे जाने का भाव भी मन में आया। बीस डालर बहुत होते हैं। फिर इसी गांव में लेकर ए लोग क्यों आये? होटल वालों का नहीं तो कम से कम ड्राइबर का कुछ लोभ-लाभ तो जरूर निहित होगा इसमें।

    लौटे होटल। लंच लिया। गीला चावल, मूंग की पतली दाल। पापड़, दही, कस्टर्ड, मछली, मुर्गा आदि-आदि।

    चार बजे फिर निकले जंगल दर्शन के लिए। इस बार एक नयी राह पर। बहुत दूर निकल आने पर जंगली भैंसो का झुंड मिला। गाड़ी देखते ही चरना छोड़कर सिर उठा कर देखने लगते हैं और लगातार देखते रहते हैं, दूर तक। माताएं अपने लेरुओं के साथ थोड़ा अलग ही थीं। गाड़ी देखकर सशंकित। आगे उल्टे तवे जैसा वर्तुल कत्थई मिट्टी का करीब एक कि.मी. क्षेत्रफल वाला घास का मैदान मिला। बीच में दो तीन इंच और किनारों पर दो ढाई फीट ऊंची घास के बीच डेढ़-दो सौ हिरनों का झुंड चर रहा था। सफारी के गुजरने की उन पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हो रही थी। अचानक ऊंची पीली घास से एक शेरनी अपने सबसे नजदीक चर रहे हिरन की दिशा में तीर की तरह झपटी। नजदीक के सारे हिरन भागे। लक्षित हिरन को भी पता चल गया। तब उसकी लम्बी छलांग और हवा में उछाल दर्शनीय था। सौ-डेढ़ सौ मीटर की दौड़ के बाद ही शेरनी को पता चल गया कि शिकार उसकी पकड़ में नहीं आने वाला। वह रुक गयी। अगले ही पल लक्षित हिरन भी रुक गया। शेरनी सुस्त कदमों से वापस मुड़ी और चंद कदम चलकर दूसरी दिशा में मुंह करके लेट गयी। बीतरागी होना शायद इसे ही कहते हैं। लक्षित हिरन अपनी जगह पर चरने लगा। सारा कार्य व्यापार जस का तस। जैसे कुछ घटित ही नहीं हुआ।

    शाम होने वाली थी। शेरनी का यह प्रयास (शायद अन्तिम) निश्‍फल गया। तो क्या उसे आज उपवास करना होगा? उसके छोटे-छोटे बच्चे तो न होंगे? हमारे साथ की तीनों गाड़ियों के पर्यटक शेरनी के इस असफल शिकार के प्रयास को कैमरे में कैद करके खुश थे। सब हिरन के बच जाने से खुश थे। शेरनी की असफलता उसकी अकेली थी।

    हम लोग वृत्ताकार रास्ते से वापस हुए। एक छोटी नदी पर बने लकड़ी के पुल को पार किए। फिर घने जंगल को पार करके घास के मैदान में आये। ढाई-तीन फीट की ऊंचाई वाले एक समतल टीले पर एक बाघिन अपने तीन बच्चों के साथ बैठी थी। बच्चे आपस में खेल रहे थे। पहले उनके पास हमारी गाड़ी आकर रुकी फिर अलग-अलग दिशाओं से तीन गाड़ियां आ गयीं। सब फोटो खींचने लगे। वहीं खडे़-खडे़ एक गाड़ी का पिछला पहिया पंचर हो गया। अब क्या हो? बच्चों वाली बाघिन के पास गाड़ी से नीचे उतरने का मतलब था अपने प्राण से हाथ धोना। ड्राइबर उस गाड़ी को स्टार्ट करके धीरे-धीरे करीब दौ सौ मीटर आगे लाया। फिर बाकी की तीन गाड़ियों ने उसको घेर लिया। तब ड्राइबर ने जल्दी-जल्दी पहिया बदला। इस बीच बाघिन उठी और हल्के-हल्के पूंछ उठाती गिराती बच्चों को लेकर ढलान पर उतर गयी।

    रास्ते में एक मोया (अकेले विचरण करने वाला) हाथी सड़क से दूर घने जंगल की ओर जाता हुआ दिखा। गाड़ी की आवाज सुनकर वह रुका और मुड़कर हमें देखने लगा। हमने भी गाड़ी रोकी और उसका फोटो खींचने लगे। यह देखकर वह हमारी गाड़ी की ओर बढ़ने लगा। काफी करीब आकर रुका और कान फटफटाने और झूमने लगा। जैसे कह रहा हो- खींजो जितनी फोटो खींचना चाहो। हमारी गाड़ी आगे बढ़ी तो वह भी मुड़कर जंगल की ओर चल पड़ा। यानी फोटो खिंचाने की साध उसे वापस खींच लायी थी।

    सूरज की किरणें लाल होने लगीं। आसमान में उड़ती चिड़िया अपने बसेरे की ओर जाने लगीं। अंधेरा उतरते-उतरते हम भी होटल लौटे। एक डाक्टर साहब ने शाम को अपनी काटेज में बियर पीने के लिए आमंत्रित किया था। डा. V.S. HOSMATH ने। उनके साथ थोड़ी बियर ली। उन्हें थोड़ा अजीब लग रहा था कि अपना पैसा खर्च करके घूमने आये हैं। उन्हें ऐसा इसलिए लग रहा था कि इस टूर में ज्यादातर डाक्टर थे और सभी को किसी न किसी दवा कम्पनी ने स्पांसर किया था।

    आज डिनर का इन्तजाम स्वीमिंग पूल के गिर्द था। वहीं दो स्थलों पर लकड़ी का अलाव जलाया गया। शाम को ठंड उतर आयी थी। इतने दिन में सब एक दूसरे से परिचित हो गये थे। फोन नं. लेने देने का काम चल रहा था।

    आज शाकाहारी और मांसाहारी दोनों प्रकार के कई प्रकार के व्यंजनों का इंतजाम था। शराब थी, जूस था, स्वीट डिस थीं। एक दो लोग बहक भी गये थे। हल्द्वानी के डाक्टर ने साहब जो अपनी उम्र 79 बता चुके थे, गिलास अपने सिर के ऊपर घुमाते हुए कुछ ठुमके भी लगाये। बाद में एक स्थानीय सहायक उन्हें सहारा देकर उनके काटेज तक ले गया क्योंकि उनकी दुबली-पतली, सीधी पत्नी ने उन्हें संभालने में असमर्थता जाहिर कर दिया था। बच्चों को छोड़ दें तो यहां ज्यादातर पचास के आसपास की उम्र के लोग थे। फिर भी मुझे लगता है कि अगर यह भारतीय न होकर यूरोपियन मूल के होते तो जाते-जाते चार-छः नये जोडे़ तो बन ही जाते।

    आज वापसी थी। सबेरे चार बजे उठे और तैयार होकर समान सहित 6 बजे डाइनिंग हाल में आ गये। मोबाइल, कैमरा चार्ज किया। नास्ता किया और सात बजे अपने-अपने वाहन में बैठ गये। आज सोमवार था और यहां प्राइमरी स्कूल शायद सबेरे आठ बजे से शुरू होता था। रास्ते में स्कूल जाते बच्चे दिखे जो अपने हाथ में एक-एक लकड़ी लिए थे। जलौनी लकड़ी। स्टीफेन ने बताया कि यहां स्कूल में ‘मिड-डे-मील’ दिया जाता है। हर बच्चे को चूल्हे में जलाने के लिए एक-एक लकड़ी घर से लाने का निर्देश है। तो यहां भी भारत की तरह मिड डे मील दिया जाता है। बस भारत के बच्चों को घर से लकड़ी लाने की बंदिश नहीं है।

    भैंसों, हिरनों और वाइल्ड बीस्ट का इलाका खत्म हुआ। फिर भेड़ों और गायों का। बीच में अर्धमरुस्थलीय धरती आयी। मैंने एक जगह गाड़ी रुकवाकर अपनी बाउन्डरी का डिमारकेशन किया फिर आगे बढ़कर चाय पी गयी। अब पक्की सड़क और हरियाली का पहाड़ी साम्राज्य आया।

    तमिल सिन्धी जोड़े को होटल इन्टरनेशनल पर उतरना था। उन्हें उतारा गया। फोन करने का वायदा किया गया (जो कभी पूरा नहीं होता।) और बच्ची आराधना की बाय-बाय लेकर हम नैरोबी एअरपोर्ट आ गये। स्टीफेन को गले लगाकर और भूल-चूक की माफी का आग्रह करते हुए विदा लिया।

    अभी चेक-इन में समय था। एक किनारे बेंच पर बैठ कर इत्मीनान से भुने चने, गेहूं, बहुरी, अरहर, मूंगफली और मखाने के काकटेल का लंच लिया गया। भरपेट पानी पिया गया। डकार आ गयी।

    तब बैगेज ड्राप किया गया। आटोमेटिंग मशीन से बोर्डिंग पास निकाला गया और अंदर प्रवेश किए।

    फ्लाइट में डिनर में अरहर की गाढ़ी दाल और लम्बे सफेद चावल का भात मिला। साथ में पाव, मरसा का साग और मक्खन की टिकिया, सलाद। चावल दाल देखकर ही चोला मगन हो गया। हिवस्की, वाइन, बियर जो चाहें। मौका था, मैंने थोड़ी बियर भी चखी।

    बगल की सीट पर बैठी साउथ सूडान की 180 से.मी. लम्बी (जैसा कि उसने बताया था) युवती बहुत बातूनी और मिलनसार निकली। वह फरवरी से अप्रैल 13 तक किसी ट्रेनिंग के सिलसिले में नयी दिल्ली रह चुकी थी। उसने कहा- इंडियंस आर गुड पीपल। उसने बताया कि उसके देश में एक आदमी चार पांच शादी करता है। उसे यह पसंद नहीं। इंडियन्स उसे इसलिए भी पसंद हैं कि They have only one wife and the same for life long. thats very very good. मुझे बहुत अच्छा लगा। फिर उसने मेरी पत्नी की ओर इशारा करते हुए पूछा कि क्या यही शुरू से आपकी पत्‍नी हैं?

    -जी हां, मुझे मौका ही नहीं मिला।

    मेरा मजाक समझ कर वह जोर से हंसी फिर कहा- नो-नो। यू पीपुल आर रियली गुड।

    युवती के शरीर से एक खास तरह की गन्ध आ रही थी। वह आदिम गन्ध थी, सेंट की नहीं। आज भी कभी-कभी आती है पर यह नहीं तय कर पाया हूं कि उसे खुशबू के खाते में डाल सकता हूं या नहीं?

    वह युवती दो घंटे बाद उतर गयी। दो बजे रात के लगभग हमारा विमान बम्बई के एअरपोर्ट पर उतरा। सबेरे हम कथाकार धीरेन्द्र अस्थाना के घर पहुंचे। उनकी पत्नी ललिता जी ने सड़क तक आकर मुक्त हृदय से स्वागत किया और अपने आवास पर ले गयी। उन लोगों की आत्मीयता ने मुग्ध कर लिया।

    जाते समय मधुकांकरिया जी की खातिरदारी मिली थी। लौटते समय धीरेन्द्र जी और ललिता जी की। दोनों तरफ से झोली भरी।

    केन्या गरीब देश है। जंगल में अभी भी लोग तालाब या नदी का पानी पीते हैं। लेकिन उसने अपने पर्यावारण को बचाकर रखा है। जंगली जानवरो को बचा कर रखा है। इसका मतलब वे मानते है कि इस दुनिया पर केवल मनुष्यों का ही अधिकार नहीं है। यह दुनिया केवल मनुष्य की लिप्सा शान्ति का अखाड़ा नहीं है। इसमें हर जीव-जन्तु, जलचर, थलचर, नभचर की हिस्सेदारी है।
    

    गरीबी और अभाव के मामले में तो सारी दुनिया एक जैसी ही है। और जिन्होंने कोलोनियल साम्राज्य का फायदा उठाया, मारा-काटा-लूटा, ज्यादातर सम्पत्ति पर अभी भी उनका ही कब्जा है। उन्हीं के महले-दुमहले आज भी उठ रहे हैं।


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