Tuesday, October 25, 2016

शिवमूर्ति के पात्रों से अंत तक घिरे रहना

पढ़ते हुए ऐसा 'ख्वाजा ओ मेरे पीर' के साथ ही नहीं, शिवमूर्ति की प्रायः
सभी रचनाओं निकटता में मेरे इसी तरह के अनुभव रहे हैं। उन्हें पढ़ते हुए
मैं अपने गांव-जहान पहुंच जाता रहा हूं। वहां के रिश्ते-नातों, खेतों,
पगडंडियों, फसलों, पशु-पक्षियों, कोल्हू-कोल्हाड़ में होते हुए एक-एक
पात्र की उपस्थिति-अनुपस्थिति को जीने लगता हूं। इसीलिए उनकी रचनाओं पर
लिखते-बतियाते समय, सच कहिए तो मेरी आलोचना-दृष्टि (यदि है, तो)
लुप्तप्राय हो जाती है। मामा के होली गीत पढ़ते समय आंखें भर आती हैं।
        ऐसा क्यों होता है मेरे साथ! मैं चार महीने का था, तभी से नाना-नानी के
साये में पला-बढ़ा, पढ़ा-लिखा और शादी-ब्याह हुआ। यह कहानी पढ़ते समय
मामा के होली गीत पर आंखें भर आने का कारण जानने के लिए मन बार-बार अपने
अतीत को झांकने-खंगालने लगता है। पिता की याद आती है। ननिहाल से एक नदी
के मध्यांतर पर मेरा गांव पड़ता था बभनवली। उस होली में मैं पांच-छह बरस
का था। नानी ने होली मनाने के लिए मुझे पिता के गांव भेज दिया था। रात भर
पुआल पर लेटे-लेटे पास-पड़ोस के हमउम्र लोगों के बीच पिता को झूम-झूम कर
होली-चैता गाते सुनता रहा था और वहीं पड़े-पड़े कब सो गया, पता नहीं चला।
उस सुबह के रंग निराले थे। दोपहर बाद भांग घोटी जाने लगी। तभी कम्हरिया
गांव के नानी के रिश्तेदार सुदामा भी आ गये थे। नाश्ता-पानी और भांग
छानने के बाद उन्होंने मुझसे धीरे से पूछा- अपनी नानी के घरे चल बा?
मैंने हामी भर दी थी। घर वालों की आंख बचा कर लद लिया था सुदामा की
साइकिल पर। और घंटे-डेढ़-घंटे में नानी के घर-गांव में। नाना भी खुश कि
मैं पहुंच गया था। त्योहार के दिन न होने से वह मेरे लिए उदास थे। गोद
में बैठा लिया। सोहारी-ठोकवा खाते-खवाते जाने कब सांझ गयी, रात हुई और
मैं नानी की चारपाई पर उसकी गोद में गहरी नींद में सो गया। सुबह उठा तो
पलंग से दालान की चौखट पर जा बैठा आंखें मिचमिचाते हुए। नानी मेरी पीठ
सहलाने लगी। मैं कुछ समझा नहीं। वह देखना चाहती थी कि मेरे शरीर पर कहीं
चोट के निशान तो नहीं! फिर उसने बताया कि रात में ढूंढते हुए तुम्हारे
बाप लोदी हरवाहे के साथ डंडा लेकर आये थे। बहुत गुस्से में थे। तुम्हे
खूब पीटा था। पिटने के बाद मैं फिर गहरी नींद में सो गया था। और सुबह कुछ
भी याद नहीं।
        (शिवमूर्ति सही कहते हैं कि लेखकों-आलोचकों ने मिल कर भगाया है पाठकों
को। 'आज के कुछ आलोचकों के क्रिया-कलाप और सोचने के तौर-तरीके देखकर यह
संदेह शेष नहीं रह जाता कि आलोचक अपने को सुपर साहित्यकार मानने लगा है।
ज्यादातर आलोचकों को यह मुगालता है कि वे लेखक निर्माता हैं। उनके गाड
फादर हैं। जबकि हकीकत इसके विपरीत है। आज के आलोचकों का पढ़ने-लिखने से
छत्तीस का रिश्ता बनता जा रहा है। व्यक्तिगत बातचीत में यह बात खुलकर
सामने आयी है कि जब उन्हें किसी कहानी के बारे में कोई बताता है तो उसे
देखते हैं और कभी-कभी तो बिना देखे (पढ़ने की कौन कहे) वह उसका नामोल्लेख
सुनी-सुनाई प्रतिक्रिया अथवा अपने आग्रह के अनुरूप कर देते हैं। क्या
आलोचक की यही जम्मेदार है?')
        वर्षों पहले इसी तरह 'केशर-कस्तूरी' पढ़ते हुए मैं उनके पात्रों में अंत
तक घिरा रहा था। तरह-तरह के सुपरिचित मनोवेग आंसुओं में ढुलकने लगे थे।
मऊनाथभंजन के गांव डुमरांव में मैंने हल्दीघाटी के रचनाकार पंडित
श्यामनारायण पांडेय को रो-रोकर 'जयहनुमान' खंडकाव्य लिखते हुए देखा था।
बार-बार वही प्रश्न घेर लेते हैं कि मैं शिवमूर्ति की कहानियां पढ़ते हुए
क्यों इतना कमजोर हो जाता हूं। इस बार जान पाया हूं कि यह रचना की शक्ति
है। यह रचना नहीं, न पटकथा है। अपनी संक्षिप्तता में उस जीवन-जगत का आईना
है, जिसमें मेरे जैसे उस किसी भी पाठक के अतीत का चेहरा झांकता है, जो
गांव से आता है और शहर में उम्र भर पराया और अजनबी बना रह जाता है। इस
तरह रचा गया है कि अपनी जादुई उपस्थिति में एक-एक पात्र अपने सुपरिचितों
में जीवंत होकर संवाद करने लगता है। लगता है कि इसमें मेरा अतीत रचा गया
है। इसमें मेरा वह सब कुछ है, जो इस तरह से पहली बार लिखा गया है। नदी के
तटों जैसे मामा-मामी के जीवन के विविध रंग उकेरते हुए शिवमूर्ति कथाक्रम
में अपनी पारंपरिक अर्थवत्ता और पाठक-सुलभ सहजता से प्रवाहित होते हैं।
        शिवमूर्ति को पढ़ते हुए सुनने का सुख मिलता है, जैसे अपने नाना-नानी की
स्मृतियों की धरोहर मिल गयी हो। कहानी में माधोपुर और शिवगढ़ के एक-एक
शब्द, एक-एक वाक्य में खूब गहरे-गहरे उतरते-तैरते हुए अपने खेत-खलिहान,
गांव-सिवानों की यात्रा कर आता हूं। अपने खटिकान, अहिरौटी, महुआबारी,
मनकी-सगड़ा से इतना शीघ्र लौटना नहीं चाह कर भी। 'मामा ........बोले-
छिनरी ने पूरा भिगो दिया। ठंड लग रही है।' सफेद बाल गुलाबी हो गये।
ससुराल की मृग लोचनी बाबा कहि-कहि जायं। आखिरी शब्दों से गुजरते हुए,
पढ़ते-पढ़ते पूरी चेतना सिहर उठती है। गोरी तोहरी नजरिया मा भाला
.......जैसे मामा का अंतिम होली गीत।  और 'रेडिएटर में पानी डालते हुए'
यात्रा रुकती नहीं है। नदी के दोनो तट जहां-के-तहां। मामी को अंतिम बार
छोड़ कर लौट रहे हैं मामा अपने गांव, अपने शून्य में। मामी की परदेस जैसी
ससुराल, जिसकी सरहदें मचान की ओट तक रह गयीं। कुछ ही घंटे पहले जिधर से
चलते समय 'जीप के परदे पर सबकी परछांइयां हिल-डुल रही थीं।'
        शिवमूर्ति अपने पाठकों को यूं ही नहीं लौट जाने देते हैं। अवसर मिलते ही
कहानी में साथ-साथ अपने समय, अपने दौर के आसपास से परिचित कराते चलते हैं
'ख्वाजा ओ मेरे पीर' में। ( 'माधोपुर से शिवगढ़ तक सड़क पास हो गयी। तो
सरकार ने आखिर मान ही लिया कि ऊसर जंगल का यह इलाका भी हिन्दुस्तान का ही
हिस्सा है। पिछले पचास वरस में कितनी दरखास्तें दी गयीं। दरखास्त देने
वाले नौजवान बूढे़ हो चले तब जाकर....चलो सुध तो आयी, वरना छ:-सात किमी0
लम्बी इस पट्‌टी पर आबादी कहाँ है। एक भी गांव अगर होता रास्ते में।
विधायक को हजार दो हजार वोट का भी लालच होता। दो जिलों की सीमा होने के
चलते भी यह हिस्सा उपेक्षित रह गया।'.........एक पतला खड़ंजा गाँव में
घुस रहा था। लगभग सारे कच्चे-पक्के घरों पर डी.टी.एच की डिस लगी थी। गाँव
के रास्ते बदल गये थे। असंख्य झोपड़ियां उग आई थीं। )  और
आगे........('अँधकार होने लगा। मामा थक गये तो एक दरवाजे पर तीन चार
चारपाइयाँ बिछायी गयीं। मर्द चारपाइयों पर और औरतें कुँए की जगत पर
बैठीं। अँधेरा घिर जाने के बाद भी कोई दिया या लालटेन नहीं जली। अँधेरे
में केवल बातचीत की आवाजें......मैंने पूछा- दिया बाती नहीं करेंगे क्या?
साँझ हो गयी। दिया बाती का रिवाज खत्म हो गया। अरे क्यों? मिटटी का तेल
ही नहीं मिलता। मील भर दूर का कोटेदार है। जब तक पता चले कि बंट रहा है,
पहुँचिए, तब तक कह देता है कि खतम हो गया। कभी मौके से पहुँच गये तो
दिनभर का अकाज करने के बाद लीटर आध लीटर देता है, वह भी दो महीने में एक
बार। तो मिट्‌टी का तेल लोग देशी घी से ज्यादा सँभाल कर खर्च करते हैं।
खाते समय जरा देर के लिए जलाते हैं फिर बुझा देते हैं। तो बच्चे पढ़ते
कैसे हैं? बिजली आती है? बिजली के खम्बे तो गड़ गये हैं। एक बार पाँच छ:
दिन के लिए आयी भी थी लेकिन तार ही चोर काट ले गये। तब? तब क्या? पढ़ने
वाले हैं ही कौन हैं? क्यों? बच्चों को स्कूल नहीं भेजते? स्कूल तो तब
जायें जब कोई पढ़ाने वाला हो। एक ही मास्टर है। उसे अपनी आटा चक्की चलाने
से ही फुरसत नहीं है। महीने में तीन-चार दिन आता है। ऐसा? तो उसकी शिकायत
नहीं किए? जब परधान को पाँच सौ रूपया महीना देता है तो शिकायत करके क्या
उखाड़ लेंगे? अरे, ठीक ही है। दूसरी आवाज आयी- क्या करेंगे पढ़ लिख कर?
नौकरी चाकरी तो कहीं मिलनी नहीं। शहर चले जाते हैं। चौदह-पन्द्रह साल की
उमर में सौ रूपया रोज दिहाड़ी कमा कर ला रहे हैं। घर का खर्चा चल रहा
है।'....... कभी-कभी पहलवान को बहुत तेज गुस्सा आता है, मन करता है कि
लाठी उठा कर सब को पीट डालें। गाँव के हिस्से की बिजली शहर के पार्कों और
सड़कों पर रात-रातभर जलाकर खत्म कर देने वालों को पीटें। गाँव के विकास
का पैसा बीच में हड़प जाने वालों को पीटें। मिलावटी खाद और नकली कीटनाशक
बेचने वालों को पीटें। फर्जी मुकदमे में फँसाने वालों को पीटें। लाठी
लेकर दौड़ते हुए जाएँ और पार्कों और सड़कों के किनारे लगे हजारों वाट के
बल्ब और ट्‌यूब तोड़-फोड़ डालें। यही बल्ब तो उनके गाँच के हिये की सारी
बिजली सोखे ले रहे हैं। 15-16 रूपये की लागत से पैदा होने वाले गेहूँ का
समर्थन मूल्य 8-10 रूपये तय करने वालों को पीटें। फिर उन्हें लगता है कि
इन सब कामों के लिए उनकी लाठी बहुत छोटी है।)
        शिवमूर्ति निजी जीवन में जितने सहज रहते हैं, अपनी रचनाओं में भी। दोनो
की स्थितियों में किंचित, कहीं कोई गांठ रह-छूट भी गयी हो तो अपने-आप खुल
जाती है। उन दिनो वह मऊनाथभंजन में हुआ करते थे। कुछ माह पहले
स्थानांतरित होकर आये थे। 'धर्मयुग' में प्रकाशित 'कसाईबाड़ा' से अभी-अभी
पाठकों की जान-पहचान हुई थी। मैं भी उस सुबह पहुंच गया था उनके आवास पर।
अचानक कुछ 'महापुरुष' हाथो में 'धर्मयुग' लिये प्रकट हुए। प्रसन्नता के
हाहाकारी अंदाज में। 'साब, बहुत अच्छी कहानी लिखी है आपने।' उनके चेहरों
पर नजर गड़ाये शिवमूर्ति खामोश। अनकहे बहुत कुछ कहते हुए। महापुरुषों के
लौट जाने के बाद बोले- 'भट्ठे वाले थे सब, बात (काम) बनाने आये थे।
इन्हें कहानी से क्या लेना-देना।' कहानियां, शिवमूर्ति नहीं, उनके गांव
सुनाते हैं। 'उनके' -हमारे गांव। जैसे- 'ख्वाजा ओ मेरे पीर में'.........
'मैं भी कईं बार गया हूँ इस रास्ते पर। मामा के गाँव माधोपुर से मामी के
गाँव शिवगढ़ तक। इस राह को भी धूप लगती थी शायद। इसलिए यह ऊसर और जंगल की
संधि पर होते हुए भी जंगल में सौ कदम घुस कर चलती थी। नाले के किनारे
किनारे झरबेरियों का जंगल और उत्तर तरफ साधू की कुटी की ओर बढ़ने पर
पीपल, पाकड़, बरगद और महुए के जहाजी पेड़ों का घटाटोप। कुटी के ठीक सामने
का तालाब जिसका पानी अषाढ़-सावन को छोड़ कर सालों साल नीला रहता था।
मछलियाँ मारने की मनाही के चलते डेढ़-डेढ़ हाथ की मछलियाँ मूछें फरकाती
किनारे तक तैरती थीं। जाड़ा शुरू होने के पहले तक लाल कमल और उसके गाढे़
हरे पत्ते आधे से ज्यादा ताल को घेरे रहते थे।महुए के एक विशालकाय पेड़
की मोटी डाल के नीचे मधुमक्खियों के कई छत्ते लटकते थे। हवा में एक मीठी
महक तैरती रहती थी। मुझे इस सड़क के निर्माण का सुपरविजन मिला तो
अतिरिक्त खुशी हुई।'
लिखते हुए कई बार बीच-बीच में लगता रहा कि शिवमूर्ति को कहें कि कहानी
को। दोनो तो इतने घुले-मिले रहते हैं आपस में। शिवमूर्ति लिखते हैं गांव
को, कि गांव उन्हें लिखता है, अलग करना सरल नहीं होता है। उनसे बार-बार
पूछता हूं कि 'आखिरी छलांग' का क्या हुआ, और खुद झेंप जाया करता हूं। मैं
होता कौन हूं, उनसे बार-बार यह प्रश्न पूछने वाला। न प्रकाशक, न समीक्षक,
न कथाकार। फिर खुद से उत्तर मिलता है, उन्हें पढ़ते रहने की ललक।
'उन्हें' यानी अपने गांव-गिरांव को। शायद, अपने अतीत से मुलाकातों की
बेचैनी। एक बार बोले- 'पूरा होने से पहले मुझे उसे ('आखिरी छलांग')
प्रकाशित होने के लिए नहीं देना चाहिए था। अब पूरी करने के लिए समय नहीं
निकाल पा रहा हूं।' रिटायर होने के बाद अब उनका गांव भी खूब आना जाना
रहता है। पहले भी उन्हें गांव भले छोड़ता-भगाता रहा हो, उन्होंने कभी
नहीं छोड़ा था। गांव की ही एक और गाथा है 'आखिरी छलांग'।
        श्लील-अश्लील के उलाहने भी सुनने को मिलते हैं। सत्तर-अस्सी के दशक में
'सारिका' में श्लीलता-अश्लीलता पर केंद्रित एक परिचर्चा में दर्ज
शिवमूर्ति की टिप्पणी प्रसंग वश भूलती नहीं है। युवती के रक्त रंजित,
निर्वस्त्र शव को घेरे भीड़ में किसी की आंखें उसकी कटी गर्दन, किसी की
पास में पड़े चाकू और किसी की आंखें उसके अंगों को घूर थीं।
श्लीलता-अश्लीलता अंदर से आती है। दृष्टि श्लील-अश्लील होती है, दृश्य
नहीं। लेकिन यह प्रश्न भी अनायास नहीं कि मामा को कलकत्ता की वेश्या की
फोड़ा-फुंसी की आपबीती सुनाना क्या कहानी के लिए सचमुच इतना अपरिहार्य
रहा है! मेरा मानना है कि रचना सार्वजनिक होते ही किंचित कुतर्क सम्मत भी
हो जाती है। 'फोड़ा-फुंसी' की अपरिहार्यता 'मातृत्व' से क्यों डर जाती
है। बौनी हो जाती है। नब्बे के दशक में आगरा के यूथ हॉस्टल में कथा-कहानी
पर देश भर से रचनाकारों का जमावड़ा हुआ था। 'मातृत्व' मूल्य निरपेक्ष
क्यों होता है, कोई और मां से बड़ा क्यों नहीं लगता है, ऐसे अनेक
प्रश्नों के साथ शिवमूर्ति की वह बात याद आती है। नई कहानी, पुरानी कहानी
के वितंडावाद पर एक छोटे से दृष्टांत में वह साफगोई से बड़ी बात कह गये
थे। 'मेरी पत्नी पाक कला पर पत्र-पत्रिकाएं पढ़ कर शहरी हुनर से चाहे
जितना लजीज व्यंजन बना लें, मुझे उसमें अपनी दादी के हाथ की नमक-रोटी
जैसी मिठास नहीं मिलती है। यही हाल नई-पुरानी कहानी का है।' शिवमूर्ति उस
मिठास से जहां निचुड़ते और आधुनिक होते हैं, किंचित अजनबी-से हो जाते
हैं, क्योंकि श्लीलता-अश्लीता के अर्थों में रचना का आभिजात्य-प्रपंच
उनका मूल स्वभाव नहीं है। उनकी कहानियों में नमक-रोटी की मिठास इतनी
पर्याप्त होती है कि अन्य तरह की पाक-प्रयोगधर्मिता (परखनली शिशु के
वात्सल्य जैसी) संभवतः आवश्यक नहीं रह जाती है। नमक-रोटी की भाषा में इसे
'छिनरपन' भी कह सकते हैं। कहानी में घुसेड़ी गयी कलकत्ता (कोलकाता) की
प्रसंगेतर पहलवानी।
        एक बात और। फणीश्वरनाथ रेणु की तरह शिवमूर्ति की भी ज्यादातर रचनाओं में
पाठक को गुदगुदाते हुए पढ़ते-पढ़ाते रहने का सुख 'ख्वाजा, ओ मेरे पीर!'
तक आते-आते मद्धिम-सा पड़ गया है।  [शनिचरी धरने पर बैठ गई है, परधानजी
के दुआरे। लीडरजी कहते हैं, ''जब तक परधानजी उसकी बेटी वापस नहीं करते,
शनिचरी अनशन करेगी, आमरण अनशन। परधानजी की दुतल्ली बिलिडंग के सदर दरवाजे
पर बोरी बिछाकर किसी मोटे प्रश्नचिन्ह-सी बैठी है शनिचरी। लीडरजी ने
गांधीजी का छोटा-सा फोटो देकर कहा है, इन्हीं का ध्यान करो। अन्यायी का
हृदय-परिवर्तन होगा या सर्वनाश। अत्याचार के खिलाफ संघर्ष तेज करने के
लिए लीडरजी ने स्कूल से छुट्‌टी ले ली है। ....एक सम्वाददाता भी पकड़ लाए
थे। सारे गाँव को जगाना शुरू कर दिया है, होशियार हो जाइए आप लोग, आपके
गाँव में शेर की खाल में गीदड़। और आप लोगों ने उसे ही परधान बना दिया,
सोचने की बात... (कसाईबाड़ा)। और.... [साला, चलता कैसे है, शोहदों की
तरह! चलता है तो चलता है, साथ में सारी देह क्यों ऐंठे डालता है,
दरिद्रता के लच्छन हैं ये, घोर दरिद्रता के। मांगी भीख भी मिल जाए इस
हरामखोर को तो इसकी पेशाब से मूंछ मुंड़ा दूंगा... और देखता कैसे है?
शनिचरहा! इसकी पुतली पर शनीचर वास करता है। सोने पर नजर डालेगा तो
मिट्‌टी कर देगा। ससुर, जम्हाई ही लेता रहेगा या चारपाई भी छोडे़गा? देख
लेना, यह चारपाई भी दो महीने से ज्यादा नहीं चलेगी... साला, शाम होते ही
मेहरारू की टांगों में घुस जाता है। चार साल में तीन पिल्लियां निकाल
दीं। खबरदार! अगर चौथी बार मूस भी पैदा हो गया तो बिना खेत-बारी में
हिस्सा दिए अलग कर दूंगा। (भरतनाट्यम)। और....[विमली ! ए
विमली!...एकदम्मै मर गर्इ का रे...जोर लगाते ही बुढ़िया को खाँसी आ जाती
है। यह हरजाई तो खटिया पर गिरते ही मर जाती है। बुढ़िया खटिया के पास
जाकर विमली को झिंझोड़ने लगी, मरघट ले चलौं का रे?......बिजली  का तेल!
माई की 'अधकपारी' के लिए बिजली का तेल मँगाया है विमली ने। कलुआ का मामा
बिजली विभाग में काम करता है, उसी से। मामा कहता है, ट्रांसफार्मर का
तेल! तेल से होकर बिजली गुजरती है तो तेल में बिजली जैसा गुन भर देती है
(तिरिया चरित्तर)।] हिंदी कथा साहित्य में गांव की 'कपट खांसी' जीवन की
विद्रूपताओं को बड़ी सहजता से पाठक को आत्मलीन कर लेती है। व्यंग्य भले
दोधारी तलवार हो, वार किसी-न-किसी ओर आरपार हो जाता है। शिवमूर्ति की
रचनाओं में प्रायः ऐसा कम मिलता है। उनकी व्यंग्योक्तियां 'रागदरबारी' की
तरह आत्मघाती नहीं होती हैं।

-जयप्रकाश त्रिपाठी
(अमर उजाला, कानपुर)
मो.नंबर- 08954886228

1 comment:

Sunil Kumar said...

आपने ने बिहार का बहुत अच्छ जानकारी दिया है. आप मेरे मार्गदर्शक हैं. आपको देखकर मैं ब्लॉगिंग शुरू किया है. आपके लेख से प्रभावित होकर मैंने बिहार की चौहद्दी से संबंधित एक लेख लिखा है. कृपया मेरे वेबसाइट विजिट करें. कोई कमी हो तो कमेंट करके जरूर बताइएगा.

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