Tuesday, August 20, 2013

पुरस्कार की आकांक्षा

रचना प्रक्रिया तथा रचना के आलम्बों पर लिखी जा रही पुस्तक 'समय ही असली स्रष्टा है का एक अंश  -शिवमूर्ति 

पिछले दिनो हर साल की तरह सरकारी साहित्यिक पुरस्कारों की घोषणा हुई। पुरस्कृत लोगों का नाम पढक़र लोग पूछने लगे कि ए लोग कौन हैं? दो एक नाम छोडक़र कभी किसी का नाम सुना नही गया। जबकि परिचय में बताया गया है कि किसी ने दस किताबें लिखी हैं किसी ने बीस। जिन्हें मुख्य धारा के लेखक कवि कहा जाता है, चाहे माक्र्सवादी हों चाहे कलावादी या कोई और वादी, उनमें क्षोभ व्याप्त है- भाई, यह क्या हो रहा है। पिछली बार भी ऐसा ही हुआ था। पब्लिक मनी अपात्रों में क्यों बाँटी जा रही है?
    पुरस्कार देने के जो नियम कायदे उन्होंने बनाए हैं, उनके रहते कोई भी स्वाभिमानी लेखक कवि पुरस्कृत कैसे हो सकता है? कुछ अपवाद जानें दे तो पुरस्कार पाने के लिए लेखक को बाकायदा दरख्वास्त देनी पड़ेगी। अपनी किताब सबमिट करना पड़ेगा। भिखारी भिक्षा मांगता है। गरीब छात्र वजीफा मांगता है। बेरोजगार नौकरी मांगता है। यहाँ तक तो ठीक है। लेकिन पुरस्कार भी चिरौरी करने से मिले। उसके लिए भी दरख्वास्त लगानी पड़े। लाइन लगानी पड़े। यह तो ठीक नही भाई। अप्रैल 2012 में तदभव की गोष्ठी में डा. नामवर सिंह लखनऊ में कह गये कि साहित्यकार सत्ता की चेरी या दासी होता है। तो जो अपने को चेरी या दासी मानते हों वे इनाम इकराम माँगे। वे दरख्वास्त लगावे। मैने तो आज तक न अपनी कोई किताब कहीं 'सबमिटÓ की या दरख्वास्त लगाया न आगे कभी ऐसा करना चाहूँगा। मैं इस काम को साहित्यकार की गरिमा का हनन मानता हूँ। पुरस्कार के लिये किसी से अपने नाम की संस्तुति करने की चिरौरी करना तो डूब मरने जैसा है। वे तो चाहते ही हैं साहित्यकार उनके दरबार में आवै, लाइन लगावैं। आड़े ओंटे विरुदावली भी गावैं और हम उन्हें उपकृत करके जनता में गुणग्राहक कहावैं। जो दरख्वास्त लगा कर ले रहे हैं उन्हें लेने दीजिए। ऐसा तो सनातन से होता आया है।
    एक राजा थे। जैसा कि ज्यादातर राजा होते थे, वे पढ़े-लिखे नही थे। तो उनका मन हुआ कि अपने दरबार में बुलाकर विद्वानों का आदर सम्मान किया जाय। तमगा पुरस्कार दिया जाय। राजा को तो काव्य और शास्त्र का कुछ ज्ञान था नहीं, उन्होंने अपने मंत्री से कहा कि विद्वानों की खोज कराओं। उन्हें दरबार में लाओ। उनसे शास्त्रार्थ काव्य पाठ या पूजा पाठ, जो रिवाज हो कराओ। पुरस्कृत कराओ और प्रजा में इसका जमकर प्रचार कराओ ताकि प्रजा को पता चले कि उनका राजा भी काव्य शास्त्र का  पारखी है। उसके दरबार में भी कवियों लेखकों की कदर होती है।
    मंत्री को आमदनी का नया फ्रंट खुलता दिखायी दिया। वह प्रसन्न हुआ। उसने अपने पी.ए. से कहा कि जाकर कहीं से तीन चार लेखक माने विद्वान कबी गायक पंडित पकड़ लाओ।
    -उनका क्राइटेरिया क्या रहेगा सर। कैसे पहचानूँगा?
    -अरे लम्बी दाढ़ी, बेतरतीब बाल। बिना खाने के टूटा शरीर। बगल में पोथी पत्तरा। माथे पर चन्दन टीका। एक दमड़ी रोज की दिहाड़ी मिलेगी। रहना खाना फिरी। 
    पी.ए. को अपने गॉव की याद आयी। राज्य में सूखा पड़ा था। भोजन के बिना सभी का शरीर टूटा हुआ। जब पेट के ही लाले पड़े हैं तो दाढ़ी बाल सँवारने कटाने का किसे होश। पी.ए. ने सोचा कि अपने ही निरक्षर चाचा ताऊ को ले चलूँ। कुछ दिन पेट भर भोजन कर ले। पोथी पत्तरा और चंदन टीका का इन्तजाम करने में कितना वक्त लगता है।
    मंत्री ने राजा को चार विद्वानों के आने की खबर दे दी। राजा ने कहा किसी दिन फुरसत में उनसे मिलूँगा। तब तक सबको पाठ में लगा दो।
    विद्वानों के रहने खाने का प्रबन्ध हो गया। पाठ करने के लिए एक बड़े हाल में गद्दी की व्यवस्था हो गयी। रामायण महाभारत की पोथियाँ देकर कहा गया कि पाठ शुरु करिए।
    लेकिन कुछ आता-जाता होता तब न पाठ करते। जमकर खाते और मोटी पोथी सिर के नीचे दबा कर सोते।
    एक दिन राजा को याद पड़ा। मंत्री से बोला-चलो, कल विद्वानों का दर्शन कर लिया जाय।
    मंत्री भी भूल गया था। उसने विद्वानों के पास खबर भेजवायी कि कल राजा साहब पाठ सुनने आ रहे हैं। सुनकर विद्वानों की हालत खराब हो गयी। पता चल गया कि वे सब निरक्षर मूर्ख हैं तो क्या पता सर कलम करवा दें। देखा कि कहीं से भाग सकें तो भाग जायें। लेकिन हर जगह फाटक। पहरेदार। द्वारपाल।
    सबेरे राजा के आने के पहले मंत्री ने सोचा कि एक बार वह खुद चलकर सारी व्यवस्था देख ले। हाल के बाहर पहुँचा तो अंदर से आती आवाज कान में पड़ी। खिडक़ी से झाँककर देखा तो चारो विद्वान आपस में सिर जोड़े बैठे हुये थे। एक काँपती आवाज में कह रहा था राजा पुछिहैं तो काउ कहब? दूसरा उतने ही भयभीत स्वर में कह रहा था- जौन तोर हाल तौन मोर हाल। तीसरा ंिचंता व्यक्त कर रहा था- ई अंधेर कै दिन चले? चौथा धीरज रखने की बात कह रहा था- जै दिन चले तै दिन खाब, नाहीं अपने घरे जाब।
    मंत्री अंदर घुसा तो चारो खड़े हो गये। हाथ जोडक़र रोने लगे कि हजूर प्राण की माफी दिया जाय। हम विद्वान नहीं, निरक्षर भट्टाचार्य हैं।
    -अभी तो तुम लोग आपस में शास्त्रार्थ जैसा कुछ कर रहे थे।
    -नहीं हुजूर। शास्त्रार्थ तो हमारे बाप दादों ने भी नहीं किया कभी। हम क्या करेंगे? हम तो अपना दुखड़ा रो रहे थे। यह कहा रहा था कि लिखना पढऩा तो कुछ आता नहीं। कल राजा कुछ पूँछ लिए तो क्या बताऊँगा। मैं कह रहा था कि जो तेरा हाल हैं वही मेरा हाल है। यह तीसरा कह रहा था कि विद्वान न होते हुए विद्वानों का चोला पहन कर जो हम लोग इतने दिन से पूड़ी मलाई चाभ रहे हैं, यह अंधेर कितने दिन चलेगी? और यह चौथा कह रहा था कि जितने दिन अंधेर चलेगी, खायेंगे नहीं तो अपने घर चले जायेंगे।
    मंत्री सोच में पड़ गया। राजा आने ही वाला था। अब तो कुछ हो भी नही सकता था। उसने उन चारों से कहा कि तुम लोग जो कह रहे थे, इसी को जरा गा कर सुनाओ। सबने कोशिश किया। दो चार बार में राग खुल गयी। मंत्री बोला - तुम लोग अपनी अपनी जगह बैठ कर रामायण की पोथी खोल कर अपनी अपनी लाइन गाते रहना। आगे मैं देख लूँगा।
    राजा आये। विद्वानों को प्रणाम किया। विद्वतगण अविराम पाठ में लीन थे। पहले तो राजा ने इस पाठ का मतलब पूछने से खुद को रोका। पूछते ही सबको पता चल जायेगा कि राजा मूर्ख है। इसे साहित्य की समझ नहीं है। लेकिन फिर नहीं रहा गया। कहा-पाठ का मतलब भी बताते चलिए।
    मंत्री ने व्याख्या किया कि राजन। ए पहले विद्वान रामायण के उस स्थल पर पहुंचे हैं जब भगवान राम को वन में पहुंचा कर उनके सारथी सुमंत खाली रथ लेकर अयोध्या लौट रहे हैं। राजा दशरथ ने कहा था कि राम को जंगल घुमा कर वापस लेते आना लेकिन राम लौटने को तैयार नहीं हुए। अब सुमंत सोच रहे है कि राजा पुछिहैं तो काउ कहब? यानी राजा पूँछेंगे कि राम को वापस क्यो नहीं लाये तो क्या कहूँगा?
    -अरे। इतने संक्षेप में इतनी बड़ी कथा। राजा पाठकर्ता की विद्वता का कायल हो गया। आगे बढ़ा।
    -यह दूसरे विद्वान क्या कह रहे हैं?
    यह ऋष्यमूक पर्वत पर राम और सुग्रीव के मिलन का प्रसंग बाँच रहे हैं, राजन। उस समय सीता को रावण ने अशोक वाटिका में और सुग्रीव की पत्नी को बालि ने जबरदस्ती अपने महल में रख लिया था। तो सुग्रीव कह रहे है कि हे रामचन्द्र जी! न तुम्हारी पत्नी तुम्हारे पास न हमारी पत्नी हमारे पास। जौन तोर हाल तौन मोर हाल। जो दशा तुम्हारी वही दशा हमारी।
    -बहुत सही, बहुत सही। और ए तीसरे विद्वान...
    -ए रामायण के उस प्रसंग पर पहुँचे हैं जब सीता को अशोक वाटिका में रखकर रावण अपने महल में गया। रावण की पटरानी मंदोदरी रावण से कह रही है कि सीता का हरण करके बहुत बड़ी अंधेर किया है आपने, नाथ। यह अंधेर कितने दिन चलेगी? जल्दी ही इसका खामियाजा भोगना पड़ेगा।
    -और ए चौथे विद्वान।
    -रावण कहता है कि जितने दिन अंधेर चलेगी चलायेंगे वरना भगवान राम के हाथें मर कर अपने असली घर, माने स्वर्गलोक चले जायेंगे।
    सुनकर राजा गदगद हो गया। बोला-मंत्री जी, ए लोग तो सचमुच बहुत बड़े विद्वान है। मेरा दावा है कि आस पास के किसी राजा के राज्य में ऐसे विद्वान नहीं मिलेंगे।
    -हुजूर, छ: महीने तक पूरे राज्य में खोजवाया था, एक एक गाँव...
    -इन्हें इनके वजन के बराबर असर्फियों से तौल दो और अगले वर्ष पुरस्कृत करने के लिए फिर ऐसे ही विद्वानों की खोज में चारो दिशाओं में सैनिकों को अभी से भेज दो।
    -एप्लिकेशन मांग लेते है जहाँपनाह। उससे सेलेक्शन में आसानी होगी। उसी में वे लोग यह भी बताएँ कि वे पुरस्कार के अधिकारी किस प्रकार है। हम लोगों को इतनी फुरसत कहां है कि बैठकर उनकी किताबे पढ़े।
    -राइट। राइट। मुँह फैलाकर राजा बोला।
    तब से एप्लिकेशन देने का सिस्टम चल पड़ा जो आज तक चला आ रहा है।
    पब्लिक मनी सुपात्रों में जाय, इसके लिए आवाज उठाना अच्छी बात है। लेकिन आवाज उठाने के लिए तो अन्य बहुत से ज्यादा जरूरी पब्लिक इन्टरेस्ट के मुद्दे आप का इन्तजार कर रहे हैं। उनसे जुडि़ए। लम्बी मार कबीर की चित से देहु उतारि। जब जनहित के बहुत जरूरी जरूरी मुद्दे आप चित से उतार चुके हैं तो पुरस्कार का मुद्दा चित पर चढ़ाने का क्या मतलब?

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