Monday, September 24, 2012

केशर-कस्तूरी

 केशर-कस्तूरी 
यह कहानी वर्तमान साहित्य के अगस्त   १९९० के अंक में प्रकाशित हुई थी फिर राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित मेरे कहानी संग्रह 'केशर कस्तूरी' में संकलित हुई। ब्लाग के पाठकों के लिए यहाँ प्रस्तुत :-

      ''पापा, आपके ए.सी. साहब आए हैं।'' बेबी ने कमरे में घुसतें हुए सूचित किया। मैं चौक गया। पूछा- ''कहाँ हैं?''
      ''बाहर सड़क पर। जीप में ही बैठे हैं?''
      ''अरे सुनो जी। जरा शीशा-कंघी देना तो। और पैजामा भी।''
    मैंने कलम और रजिस्टर फेंकते हुए आवाज लगार्इ और उलटकर बिस्तर से नीचे उतर आया। अरे, मेरी चप्पलें कौन ले गया, यहाँ से?
    सोचा था, आज पूरे दिन लगकर कहानी पूरी कर डालूँगा। बहुत दिनों से इसका लिखना टलता आ रहा है। सबेरे ही बच्चों को बुलाकर सचेत कर दिया था, कोर्इ मिलने आए तो कह देना, पापा नहीं है।
    ''लेकिन पापा। आज ही के लिए तो आपने वादा किया था मेरे कपडे़ लाने का।'' केशर ने याद दिलाया था।
    ''अब कपडे़ दूसरे दिन बेटा।''
    ''लेकिन कल ही तो मेरी सहेली की शादी है। सिलने तक का समय नहीं है। आप महीने भर से टालते आ रहे हैं।''
    ''कुछ भी हो, आज मेरा लिखने का मूड बन चुका है। आज तो किसी सूरत मे नहीं। नहाने तक के लिए नहीं उठना है। दरअसल मूड की बात है न। एक बार मूड उखड़ा तो महीने भर की छुट्टी हो जाएगी।...कान खोलकर सुन लें सब लोग। आज मैं घर में नहीं हूँ। किसी सूरत में नहीं।''
    और घंटा भर भी नहीं बीता था कि यह आफत। पूरा दिन चौपट हो जाएगा। जल्दी-जल्दी पैजामा डालकर बाहर आया। सामने ही सड़क है। लेकिन यहाँ तो कोर्इ जीप दिखती नहीं। सामने से आती केशर ने कहा, ''पापा। आप बाहर क्यों निकल आए? मैंने तो आपके साहब से कह दिया कि पापा कहीं गए हैं।''
    ''अरे। ऐसा क्यों कह दिया? किधर गए?''
    ''बोले, डाकबंगले चल रहा हूँ। लौटें तो भेज देना।''
    अभी अर्दली नहीं आया था। लौटकर बेबी से कहा, ''दौड़कर ड्राइवर को बुला लाओ।''
    पत्नी से कहा, ''तीन-चार कप चाय तैयार करके थर्मस में रखो। थोड़ा बिस्कुट वगैरह भी।''
    कपड़े बदलते हुए मैं सोचने लगा-इतने सबेरे-सबेरे क्यों आ टपके जनाब? बिना किसी पूर्व सूचना के।
    ''लेकिन पापा,''केशर ने थर्मस धोते हुए कहा, ''जब मैंने कह दिया कि पापा घर में नहीं हैं तो परेशान होने की क्या जरूरत है? मान लीजिए कि आप वापस लौटे ही नहीं। चुपचाप बैठकर कहानी पूरी कीजिए। फिर पता नहीं, कब मूड बने?''
    ''तुम नहीं समझोगी बेटी। यह नौकरी है। ऐसे में अगर मैं घर में बैठा भी रहूँ तो क्या लिखने में मन लग सकता है?''
    डाकबंगले पर भी कोर्इ जीप नहीं थी। चौकीदार ने बताया कि यहाँ तो कोर्इ आया ही नहीं। दफ्तर गया। वहाँ भी नहीं थे। फिर घर लौटा। केशर को बुलाकर पूछा, ''तुमने कैसे जाना कि आने वाले हमारे ए.सी. थे।''
    ''पापा !'' केशर सोफे पर बैठते हुए बोली, ''मैं ही हूँ आपकी ए.सी. साहब। मेरे काम के लिए आप घर में नहीं हैं और अपने साहब का हुकुम बजाने के लिए... हम लोग आप पर मुकदमा चलाएँगे।''
    मुझे बहुत तेज गुस्सा आया। ऐसा मजाक! मेरी सगी बेटी होती तो हो सकता है, मैं हाथ भी उठा देता। पत्नी पर बरस पड़ा, ''तुमने भी नहीं बताया। मैं कहाँ-कहाँ भटकता फिरा।''
    ''मुझे भी तो नहीं पता था।'' पत्नी ने मुस्कराते हुए कहा, अब चलिए, लिखिये बैठकर।''
    ''अब क्या लिखूँगा, खाक।''
    केशर हँसते हुए चाय का कप ले आर्इ।
    ''मुझे माफ कर दीजिए पापा। लेकिन जब उठ गए हैं तो मार्केटिंग ही कर आइए।'' केशर के सामने देर तक गुस्सा टिक भी तो नहीं कसता। रोते हुए को भी हँसा देती है। जब से आर्इ है, उसकी चुहल और हँसी से उजाला छाया रहता है। इतने गहरे मजाक की बात सोचना, उसी के वश की बात थी। सचमुच, कल ही उसकी पक्की सहेली की शादी है और मैं एक दिन पहले भी उसके लिए कपड़ें लाने में टाल-मटोल कर रहा था। सराकर अन्याय। और क्या ही नायाब तरीका निकाला उसने इस अन्याय को व्यक्त करने का।
    केशर मेरे साढू भार्इ की बेटी है। पत्नी की बीमारी में देखभाल के लिए पिछले साल आर्इ थी। आने के थोडे़ दिन बाद ही वह कालोनी की हमजोली लड़कियों से लेकर आंटियों तक में समान रूप से लोकप्रिय हो गर्इ। हर एक के लिए उसके पास कोर्इ-न-कोर्इ स्पेशल देहाती नुस्खा था। बालों को लम्बा और चमकीला बनाने का नुस्खा, बिवार्इ ठीक करने का नुस्खा, समलबार्इ से छुटकारा पाने का नुस्खा। कालोनी का हर अब उसका अपना घर है। हर घर का कोर्इ-न-कोर्इ काम उसके अभाव में रूका रहता है।... जब भी आफिस से थोड़ा पहले या दोपहर में लौटता हूँ ड्राइंगरूम को कालोनी की लड़कियों से भरा पाता हूँ। कभी गाना हो रहा है, कभी नाचना। सैकड़ों गीत, लोकगीत याद हैं उसे। जो चाहे, जितना चाहे सीखे।
    हँसोड़ इतनी कि पत्नी कभी-कभी उसकी हँसी से आतंकित हो उठती है। उदास होने या बिसूरने की बात पर भी हँसी। कभी-कभी तो हँसी के लिए पत्नी की मार खाने के दौरान भी मुँह में दुपट्टा ठूँसकर हँसती रहती है। हँसी से दुलकती देह! हारकर पत्नी भी डाँटना-मारना छोड़ हँसने लगती है।
    हँसमुख और व्यावहारिक होने के साथ-साथ केशर के हिस्से में अपूर्व सुंदरता भी आर्इ है। घर से लेकर पास-पड़ोस तक की बच्चियों पर उसकी सुंदरता का जादू छाया हुआ है। लड़कियाँ उसके बाल, दाँत, आँख, होंठ और हँसी की तुलना अलग-अलग अभिनेत्रियों से करती हैं।
    केशर में सेवा-भावना भी गजब की है। जब से इस घर में आर्इ है, पत्नी ने आराम-ही-आराम किया है। आने के साथ बहुत कम समय में ही उसने इस घर का गणित समझ लिया और पत्नी को सारी जिम्मेदारियों और उलझनों से मुक्त कर दिया। अब स्कूल जाने वाले बच्चे अपने ड्रेस और टिफिन के लिए केशर के नाम की गुहार लगाते हैं। महरी और धोबिन अपना हिसाब केशर से लिखवाती हैं। मुझे कब क्या पहनना है? कौन-सा कपड़ा धुला है, कौन-सा लांड्री गया है, इसका निर्णय और जानकारी का माध्यम केशर हो गर्इ है। नमक-चीनी से लेकर कपड़े-लत्ते तक के चुनाव पव उसकी मरजी चलती है। पूरे घर पर इस समय उसी का 'राज' चल रहा है। छह महीने की सेवा से पत्नी पूरी तौर पर स्वस्थ हो गर्इ और केशर के वापस जाने की बात आर्इ तो उदास हो गर्इ कि मेरे लिए बहुत दुख छोड़कर  जाएगी यह। इसके जाने के बाद कौन सँभालेगा इस घर को। लेकिन केशर ने एक बार फिर अपने ढंग से पत्नी को सारे दुखों से उबार लिया। उसने पत्नी से कहा,''मुझे-सिलार्इ-कढ़ार्इ के स्कूल में भर्ती करा दीजिए मौसी। साल भर की गुलामी का पटटा पक्का हो जाएगा।'' केशर ने पहले से पता कर लिया था कि कालोनी के पीछे ही कोर्इ महिला यह ट्रेनिंग स्कूल चलाती है। नया बैच भर्ती हो रहा था। केशर ने भी दाखिला ले लिया।    
    इस बीच पत्नी के हाथ-पैर दबाकर, मेंहदी-महावर लगाकर, वह उनसे कभी डोलची तो कभी सैंडल, कभी पायल तो कभी बिछिया, कभी साड़ी तो कभी शाल प्राप्त करती रही। पत्नी कहती है कि कोर्इ चीज माँगने से पहले केशर अपनी बात अपने व्यवहार से पूरी तरह मोह लेती है। माहौल बना लेती है। जादू चला देती है। एक पैसे की चीज माँगने से पहले माहौल ऐसा बनाएगी कि आदमी दस रूपए की चीज भी खुसी-खुसी देने को तैयार हो जाए। लड़के के जन्मदिन तथा रक्षाबंधन के त्योहार पर नेग के तौर पर वह मुझसे भी घड़ी, सिलार्इ मशीन और एक लोहे का संदूक मय ताले के देने के लिए बचनबद्ध कर चुकी है।....
    केशर की ट्रेनिंग जब लगभग पूरी हो गर्इ है। एक-डेढ़ महीने में उसका गौना होने वाला है। तिथि निर्धारित होते ही इसे वापस गाँव भेज देना है। ऐसे में गुड्डी की शादी के अवसर पर उसने अपने लिए एक अतिरिक्त साड़ी-ब्लाउज का जुगाड़ लगा लिया।
    गुड्डी पड़ोस में रहने वाले ए.डी.एम. की बेटी है। उसकी शादी किसी आर्इ.ए.एस. लड़के से हो रही है। शहर की शादियों में अब गारी गाने का रिवाज फैशन से बाहर हो गया। लेकिन केशर ने गुड्डी की मम्मी को राजी कर लिया है। इस शादी में वह 'मार्डन' गारी गाएगी। देखती है, कैसे नहीं पसंद आती लोगों को।गुड्डी जान छिड़कती है केशर पर। खुद आकर पत्नी से चिरौरी कर गर्इ है कि शादी के दिनों में केशर को उसी के पास रहने दिया जाय।
    ''अब बैठे-बैठे क्या बिसूर रहे है?'' पत्नी ने आकर कहा, ''जाइए, ला दीजिए न उसकी साड़ी-कपड़े।''
    ''हाँ-हाँ जाता हूँ।'' मैंने चाय का खाली कप उन्हें पकड़ाया, ''केशर बेटे। चलो, तुम भी तैयार हो जाओ। अपनी पसंद से ले लेना।''
    आहा ! तैयार होकर निकली केशर तो आँखें जुड़ा गर्इ। यह रूप !
    मेरी अपनी लड़कियाँ इतनी सुंदर होतीं तो शादी के लिए कम-से-कम पापड़ बेलने पड़ते। इस सोच के साथ ही एक कचोट भी मन में उभरी। केशर के बप्पा ने इसकी शादी दर्जा आठ पास करते ही कर दी,. एक हार्इ स्कूल में पढ़ने वाले लड़के के साथ। यह शादी भी वे तीन साल पहले कर रहे थे, जिस साल केशर ने दर्जा पाँच पास किया था। लेकिन हम लोगों के मना करने और केशर को आगे पढ़ाने के लिए दबाव डालने के कारण तीन साल के लिए टाल दिये थे। लेकिन दर्जा आठ से आगे पढ़ाने के लिए वे किसी तरह राजी नहीं हुए। इस मामले में उनका तर्क था कि तीन मील दूर के स्कूल में सयानी लड़की को अकेले पढ़ने भेजना निरापद नहीं है। गाँव में जातीय विद्वेष दिनों-दिन इतना प्रबल हो रहा है कि कभी भी कुछ अघटनीय घट सकता है। शादी के बारे में भी उनका अपना मौलिक तर्क था। उनके अनुसार, बाल-विवाह प्रथा में मात्र इतना अंतर आया था कि पहले जहाँ शादियाँ सात-साठ साल की उमर में हो जाती थीं, अब पंद्रह-सोलह साल की उमर में हो रही हैं। जिस लड़के का बाप बहुत टालता है, उसकी शादी भी हाईस्कूल पास करते-करते हो जाती है। ऐसे में बेटी को कुँवारी रखने पर बाद में लड़के कहाँ मिलेंगे? और कुँवारी रखने का उददेश्य भी क्या है? लड़की के भाग्य में होगा तो वही लड़का पढ़-लिखकर कहीं हिल्ले से लग जाएगा। नहीं तो अच्छा घर-वर देखकर कर रहे हैं। डेढ़ एकड़ खेती है। बड़ा भार्इ कानपुर में कमाता है। मँझला खेती-बाड़ी देखता है। सास-ससुर जिंदा हैं। गाय-भैंस है। शाम तक दो रोटी मिलेगी। और क्या चाहिए?
    अपनी औकात देखते हुए केशर के बप्पा का तर्क ठीक ही था। उनकी भी माली हालत ऐसी थी कि साल भर खींच-खाँचकर रोटी चल जाती थी। मोटा खाना मोटा पहनना। लेकिन इधर मैंने सुना कि लड़के ने पढ़ार्इ छोड़ दी। इंटर में फेल होने के बाद पिछले दिनों चंड़ीगढ़ भाग गया। किसी कारखाने में काम कर रहा है। यह सुनकर मैं थोड़ा चिंतित हो गया हूँ। पहले जब केशर ने शहर नहीं देखा था, यहाँ के खान-पान रहन-सहन से अवगत नहीं थी तो दूसरी बात थी लेकिन एक बार सुख-सुविधा की सारी चीजें देख-भोग लेने के बाद उस देहात में बेरोजगार पति के साथ दिन काटना पडे़गा इतनी सुंदर सुघड़ बेटी को तो उसके मन पर क्या बीतेगी? मैंने पत्नी से इसकी चर्चा की। बताया कि खोजने पर शहर में छोटी-मोटी नौकरी करने वाले लड़के मिल सकते हैं। उनमें से किसी के साथ केशर का पुनर्विवाह...। कोर्इ भी लड़का केशर को पाकर धन्य हो जाएगा।
    ''क्या-क्या सोचते रहते हैं आप?'' पत्नी ने एकबारगी घुड़क दिया, ''उस लड़के में क्या खोट है? यही न कि कम कमाता है। केवल इतनी बात पर कोर्इ लड़की अपने बियाहे आदमी को छोड़ देगी? अभी तो वे दोनों एक-दूसरे से मिल भी नहीं पाए हैं। केशर सुनेगी तो क्या सोचेगी? हम लोगों की शादी हुर्इ तब तक तो आप स्कूल जाना भी नहीं शुरू किए थे। मेरे गौने के बाद भी बहुत दिनों तक बेकार मारे-मारे घूमे थे। उस समय के आपके घर की माली हालत तो केशर की ससुराल से भी गर्इ-गुजरी थी। तब कोर्इ मुझसे दूसरी शादी के लिए कहता तो मुझे अच्छा लगता?''
    ''अच्छा तो जरूर लगता।'' मैंने मुस्कराकर कहा था।
    ''हटिए। फालतू खीस निकालते हैं।'' पत्नी ने बिदककर कहा, ''अभी उसकी छोटी बहनों की शादी होनी है। आप उसे यहाँ फिर से ब्याह देंगे तो वहाँ बिरादरी के आगे इसके बप्पा क्या मुँह दिखाएँगे? उस वर को छोड़ने का कौन-सा कारण बताएँगे? बेरोजगारी या कम कमार्इ तो वहाँ कोर्इ कारण माना नहीं जाएगा। बिरादरी में सब नौकरी ही तो कर नहीं रहे हैं। आप जैसे दो-चार लोग भले पढ़-लिखकर ढंग से लग गए हैं । बाकी तो जैसे भी हो, वहीं गुजर-बसर कर रहे हैं।...फिर कोर्इ नौकरी-चाकरी वाला लड़का मिल भी जाए तो इसके बप्पा फिर से शादी में होने वाला दस-पाँच हजार का खर्च कहाँ से और क्यों करेंगे? इतना पैसा जुटाएँगे तो वे सयानी होती दूसरी लड़की के हाथ पीले करने की सोचेंगे। आपको भी कर्इ लड़कियों को निपटाना है। जिस दिन शुरू करोगे, समझ में आ जाएगा।''
    शायद उसे भय था कि केशर के सम्भावित पुनर्विवाह में होने वाले खर्च को मैं भावुकता में आकर अपने जिम्मे लेने का निर्णय न ले लूँ, इसलिए अपनी लड़कियों की शादी की समस्या याद दिलाकर वह सामने से हट कर किचन में व्यस्त हो गर्इ और मुददे से मेरा ध्यान बँटाने के लिए बेबी को मेरे पास सवाल पूछने के लिए भेज दिया था।
    गौने के लिए गाँव भेजते समय पत्नी ने केशर को यथासम्भव पर्याप्त सामान दिया। कर्इ सामान केशर समय-समय पर पहले ही हासिल कर चुकी थी। सिलार्इ मशीन, घड़ी और ससुराल ले जाने के लिए लोहे का बड़ा बक्सा मैंने खुद खरीद दिया था। छोटे-मोटे प्रयोग की कर्इ चीजें कालोनी की उसकी सहेलियों ने दीं। विदार्इ के समय घंटे भर तो उसे अपनी सहेलियों से गले मिलने और रोने में लगा था। जीप चली तो सबके गले रूँधे थे। उसकी सहेलियाँ, मेरी बेटियां, पत्नी सब सिसक रहे थे। विदा करके अंदर आया तो घर काटने दौड़ता था। आज मेरा आँगन सूना करके उड़ गर्इ मेरी मैना। उसके खिलंदड़ेपन और खिलखिलाहट की प्रतिध्वनियाँ बहुत दिनों तक मन में गूँजती रही थीं। लेकिन कुछ ऐसा संयोग रहा कि मैं उसके गौने में नहीं जा सका। पत्नी और बच्चे ही गए। पत्नी ने लौटकर बताया कि विदार्इ के समय आपके 'आखर' के साथ बहुत दूर तक, बहुत देर तक रोती चली गर्इ थी आपकी लाडली बेटी।
    जाते समय मेरे घर से ही वह ढेर सारे लिफाफे, अंतर्देशीय खरीदकर ले गर्इ थी। अक्सर पत्नी के नाम, लड़कियों के नाम और पड़ोस की सहेलियों के नाम उसके पत्र आते रहते थे, जिससे पता चलता था कि वह अपनी ससुराल में है। अपने बारे में वह कम ही लिखती थी। उसकी रूचि दूसरों का कुशल समाचार जानने में अधिक थी।
    केशर से भेंट का मौका मिला था डेढ़ साल बाद। मेरे एक सहकर्मी मित्र अपनी लड़की की शादी के लिए एक लड़का देखने मेरे साढू भार्इ के गाँव जा रहे थे। मेरी पत्नी ने ही उन्हें इस लड़के के बारे में बताया था। मित्र ने इस आधार पर मुझे भी साथ ले लिया कि परिचय का बारीक सूत्र भी बातचीत को निर्णायक बनाने में सहायक होगा।
    हम लोग पहुँचे तो दरवाजे पर पहले केशर ही मिली। देखते ही मुदित हो गर्इ। हम लोगों का बैग हाथ से ले लिया। बैठने के लिल चारपार्इ ले आर्इ। फिर लगी कालोनी के एक-एक आदमी, यहाँ तक कि गाय, भैंस, कुत्ते, बिल्ली तक का हाल पूछने। मैं आदमियों से सम्बंधित बहुत सारी जानकारी से ही अनभिज्ञ था, कुत्ते -बिल्लियों की तो बात ही क्या। बहुत सारी जानकारी देने में असमर्थ रहा।
    तब तक उसकी माँ आ गर्इ। लगी डाँटने कि पानी-दाना देने की याद नहीं है। दुनिया-जहान का किस्सा लेकर बैठ गर्इ।
    केशर पानी लाने चली गर्इ और मैं खोजने लगा कि वह पहले वाली केशर कहाँ है? आवाज की खनक तो बरकरार है, लेकिन वह चपलता, चंचलता! दैहिक आभा क्षीण है। मुख मलीन! कैशोर्य की अकाल मृत्यु हो रही है। मँड़र्इ के एक कोने में पत्नी द्वारा दी गर्इ पलास्टिक की डोलची पड़ी थी। उसका टँगना कर्इ बार धागे से सिला गया था। एक तरफ शैम्पू की एक खाली शीशी पड़ी थी। केशर नंगे पाँव इधर-उधर डोल रही थी।
    शाम को मेरे मित्र केशर के बप्पा को लेकर लड़के के बाप से बात करने चले गए। केशर खाना बनाने लगी। मैं चारपार्इ पर लेटे-लेटे केशर की माँ से हाच-चाल पूछने लगा।
    पता चला कि अभी दस दिन पहले केशर अपनी ससुराल से आर्इ है। उसके घर अलगौझा हो गया है। बँटवारे में आधा एकड़ खेत, एक बैल, सत्ताइस सौ रूपए का कर्ज और बूढ़ी सास मिली है। लगता है, केशर के दोनों जेठों के मन में पहले से ही बर्इमानी थी। अलगौझा से पहले बडे़ जेठ ने अपनी दोनों लड़कियों की शादी कर दी। मँझले ने गया-जगन्नाथ जी का दर्शन करके बिरादरी को इफराती भोज दिया। फिर इन तीनों के खर्च से हुए कर्ज को तीन तिहाए बाँटकर अलग कर दिया। बडे़ जेठ बीस साल से कानपुर में 'परमामिंट' नौकरी कहते हैं। वहीं निजी मकान बना लिया है। लेकिन गाँव आए, कर्ज लेकर शादी की और हिस्से में कर्ज बाँट गए। अपनी कमार्इ की एक कौड़ी का हिसाब नहीं दिया। एक-एक बैल दोनों छोटे भाइयों को दिया और खुद भैंस लेकर कानपुर चले गए। मँझले भार्इ के मन में भी पहले से ही मैल था। केशर के आदमी को किताब-कापी खरीदने के लिए पैसा नहीं देते थे। पढ़ार्इ के समय जान-बूझकर खेती के काम में बझाए रहते थे। इधर खेत के बँटवारे में भी बेर्इमानी कर लिये। माँ-बाप तक के बँटवारे में बेर्इमानी हुर्इ है। बाप अभी तगड़ा है हल-कुदाल चला लेता है। उसे मँझले भार्इ ने अपने हिस्से में ले लिया और माँ जो दमे की मरीज और जर्जर है, छोटे भार्इ के हिस्से में पड़ी है। छोटे भार्इ ने लाख चिरौरी किया कि वह परदेश रहता है, बाप को उसके हिस्से में आने दिया जाए। जोतार्इ-बोआर्इ करेगा, लेकिन सुनवार्इ नहीं हुर्इ। सास गाय-गोरू चराने लायक भी नहीं है। दस कदम चलती है तो पहर भर हाँफती है। बड़ी मजबूरी हो तो किसी तरह रोटी सेंकती है।
    केशर का आदमी चंडीगढ़ में मकान पुतार्इ का काम कर रहा था। पच्चीस-तीस रूपए रोज मिल जाते थे। लेकिन दो महीना पहले सीढ़ी से गिर गया। पीठ के बल ! रीढ़ की हडडी में र्इट से चोट लग गर्इ। महीना भर चारपार्इ पर पड़ा रहा। दवार्इ में बड़ा पैसा लगा। डाक्टर ने भारी काम करने से मना कर दिया। और इसी बीच भाइयों ने बँटवारा कर लिया। केशर का आदमी पहले बडे़ सुधवा स्वभाव का था। लेकिन इधर बहुत चिड़चिड़ा हो गया है। कर्जे की चिंता है। बात-बात पर लड़नें लगता है। एक बट्टी साबुन खरीदना भी उसे फालतू का खर्च लगता है। कहता है, ''साहब-सूबा के घर रहने क्यों गर्इ? खर्चा करने की बीमारी साथ लेकर आर्इ हो। केशर के मौसिया, केशर की देह में सोच का परेवश हो गया है। देह देखिए, कितनी गल गर्इ है।''
    मन में आया, उन्हें बताऊँ कि एक बार मेरे मन में केशर के पुनर्विवाह की बात आर्इ थी। लेकिन उसकी चर्चा करने की कोर्इ तुक नहीं थी। मैं गहरे अवसाद में डूब गया।
    सबेरे नींद खुली तो अँधेरा हल्का हो रहा था। केशर दुआर पर झाडू दे रही थी। दिशा-मैदान से निवृत्त हो लौटा तो वह चूल्हे के लिए लकड़ी ले जा रही थी। मेरे दातून करते-करते उसने छोटी बहिन को लोटा देकर जल्दी से दूध लाने भेज दिया और चूल्हा सुलगाने लगी। उसकी जल्दबाजी से पता चल गया कि उसे मेरी शीघ्र वापसी की जानकारी है और वह चाय-नाश्ता कराने के बाद ही मुझे जाने देगी। कल से केशर से स्थिर होकर बात करने का अवसर ही नहीं मिल। अब वह अंदर आँगन में कुछ कर रही थी। बर्तन खनक रहे थे। मैं अंदर चला गया। वह चाय देने के लिए गिलास धो रही थी। मैंने कहा, 'क्यों, सबेरे-सबेरे इतने काम में लगी है मेरी बेटी? मैं चलूँगा अब।''
    ''इतनी जल्दी क्यों है पापा? चाय बन रही है। पीजिए, फिर नाश्ता कीजिये। आज रूकिए, कल जाइएगा।''
    ''नहीं बेटा। जाना तो जरूरी है। अभी निकल गया तो पहली बस मिल जाएगी।''
    केशर आँचल से हाथ पौंछते हुए खड़ी हो गर्इ। हँसते हुए बोली, ''बिना चाय पिए तो आप दुबारा बाथरूम भी नहीं जा पाएँगे, पापा। आपका सारा दिन बरबाद हो जाएगा।''
    ''अच्छा केवल चाय पिलाओ और जल्दी।''
    फिर मैंने जेब से सौ रूपए का नोट निकालकर उसकी ओर बढ़ाया, '' यह रखो! मिठार्इ खाने के लिए।''
    लेकिन स्वभाव के विपरीत उसके हाथ नहीं उठे। आँखें नीची हो गर्इं। पता नहीं, कैसे मैं सोच रहा था कि वह पहले की तरह कहेगी, 'सौ रूपए में आजकल क्या होता है पापा? साबुन, शैम्पू, तेल-कंधी, सैंडल और पता नहीं क्या-क्या, पूरी एक-सौ-एक चीजें लेनी हैं।'
    ''क्या बात है बेटी? और कोर्इ चीज चाहिए तो बोलो।''
    उसकी आँखों से भरभराकर आँसू निकले और टप-टप जमीन पर गिरने लगे। सिर झुक गया और दाहिने पैर का अँगूठा आँगन के कच्चे फर्श को कुरेदने लगा।
    ''अरे-अरे। रोती क्यों है पगली? बोल न, क्या तकलीफ है? नि:संकोच बोल, तेरा पापा इतना कंजूस नहीं है।''
    मैंने उसकी ठुड्डी पकड़कर चेहरा ऊपर उठा दिया, ''बोल न मेरी पुतरी।'' केशर ने आँचल से पूरा चेहरा ढँक लिया और सिसकते हुए बोली, ''उनको कोर्इ चपरासी-ओपरासी की नौकरी दिला दीजिए पापा।'' और हिचक-हिचककर रोने लगी। मैं सन्न रह गया। एकाएक कुछ बोल नहीं सका। इस बीच वह गिलास लेकर, आँखें पोंछती, तेजी से चूल्हे के पास चली गर्इ।
    चाय का गिलास पकड़ाते हुए उसकी आँखे गीली और झुकी हुर्इ थीं। मैंने कहा, ''तुम उनकी मार्कशीट और सर्टीफिकेट भेज देना। मैं कुछ-न-कुछ जरूर करूँगा।''
    और सौ रूपये का नोट जबरन उसकी मुटठी में दबा दिया था। विदा करते समय उसने अपनी माँ के पीछे सटकर खड़े-खडे़ हाथ जोड़कर नमस्ते किया था। उसकी आँखों में आशा की ज्योति टिमटिमा रही थी।
    दो दिन के साथ में मेरे मित्र भी केशर के वर्तमान से कमोबेश परिचित हो गए थे। इसलिए उन्होंने एम.ए. करके कम्पटीशन की तैयारी करने वाले तथा दहेज में पचीसों हजार रूपए पाने का सपना पालने वाले उस लड़के को विचारार्थ लड़कों की अपनी सूची से निकाल देना ही बेहतर समझा। उनके अनुसार, छोटी नौकरी करने वाले लड़के से लड़की ब्याहना डिप्टी कलेक्टरी का सपना सँजोए बेरोजगार लड़के की तुलना में ज्यादा व्यावहारिक था।
    एक महीने बाद केशर का पत्र मिला। साथ में, दामाद की सर्टीफिकेट और मार्कशीट। हार्इ स्कूल में तृतीय श्रेणी थी। इंटर में दो विषयों में फेल। लेकिन 'फोर्थ-क्लास' में तो लग ही सकता है। मेरे विभाग में भी पाँच-छह जगहें सम्भावित थीं। मैंने पता लगाया। पता चला कि वे सभी उच्चाधिकारियों के केंडिडेट्स के लिए अलिखित रूप से रिर्जव हो चुकी हैं।  उम्मीदवार किसी अधिकारी के घर चार साल के बर्तन मल रहे थे, किसी के घर छह साल से। मैं ढीला पड़ गया। केशर को लिख दिया कि प्रयास कर रहा हूँ। घबराना नहीं।
    महीने भर बाद फिर उसका पत्र आया। मेरे जिले में सीजनल अमीनों की भर्ती हो रही थी रिक्तियां काफी थीं। कुछ अधिकारी परिचित भी थे लेकिन अफवाह यह फैली थी कि कुछ दलाल छूटे हुए हैं। ले-देकर 'सेट' कर रहे हैं। इंटरव्यू वगैरह धोखा है। बहरहाल, मैंने लड़के को बुलाकर इंटरव्यू दिला दिया। लेकिन जैसा कि पहले से ही आशंका थी, उसका चुनाव नहीं हो सका। तीन-चार दिन रूककर लड़का लौट गया। मन दु:खी  हो गया।
    सीजनल वाटरमैन का एक पद तो मेरे अपने आफिस में भी था, जिसकी नियुक्ति मुझे ही करनी थी। लेकिन इतने नजदीकी रिश्तेदार को अपने ही कार्यालय में वाटरमैन लगाना किसी   दृष्टि से उचित नही लग रहा था।
    पाँच-छह महीने के बाद एक दिन फिर केशर का पत्र आया। उसने पत्नी से गुड्डी का पता माँगा था। उसे पता था कि गुडडी की शादी आर्इ. ए. एस. लड़के से हुर्इ है। जिसके हाथ में सैकड़ों नौकरियाँ रहती हैं। शायद गुड़डी से वह अपने पति के लिए कोर्इ नौकरी दिलाने की विनती करना चाहती थी। लेकिन गुडडी के पापा का ट्रांसफर उसी साल देहरादून के लिए हो गया था। अब पता नहीं कहाँ हैं? वही बता सकते थे उनके बेटी-दमाद इस समय कहाँ पोस्टेड हैं? केशर के इस पत्र का उत्तर उसे नहीं दिया जा सका। लेकिन मेरे हृदय-पटल पर एक बार फिर उसका आँचल से मुँह ढँककर फफकना कौंध गया।
      सचमुच केशर के लिए कुछ-न-कुछ करना है। मैं कर्इ दिनों बेचैन रहा। फिर एक-दो जगह बात चलार्इ लेकिन निष्फल और समय के साथ वह सम्वेदना फिर कुंद पड़ती चली गर्इ।
    पहली बार केशर मेरे घर आर्इ, तब सिर्फ दस-ग्यारह साल की थी। इसी साल उसने दर्जा पाँच पास किया था और इतनी कम उम्र में गाँव पर पूरे घर का खाना बना लेती थी। पत्नी को डिलिवरी होने वाली थी। और उनकी सहायता के लिए किसी स्त्री का होना आवश्यक था। केशर की गर्मी की छुट्टियाँ थीं। किसी और के उपलब्ध न होने के कारण पत्नी ने केशर को बुला लिया था। वह पहली बार गाँव से बाहर निकली थी। शहर की चीजें आँखें फाड़कर देखती। चलते हुए टेबुलफैन के सामने खड़ी हो, मुँह खोलकर हवा को पेट में भरने और जीभ को ठंडा करने का प्रयास करते हुए आनंदित होती थी। बिजली से पानी गरम हो जाना, बिना धुआँ-धक्कड के गैस के चूल्हे पर खाना पक जाना, सीटी मारने, भाप उगलने वाला कुकर, बिना मेहनत के टोंटी घुमाते ही बाल्टी भर देने वाला नल। सब उसे अजगुत-अजगुत लगते और चार-पाँच दिन में ही उसने घर के बच्चों को एक करिश्मा कर के दिखाया । तेजी से चलते टेबुलफैन के ब्लेड के ज्वाइंट पर वह उँगली दबाती और चलता हुआ पंखा रूक जाता। बच्चों को बताती कि मंतर के जोर से उसने पंखे की बिजली को बाँध दिया है। बच्चे हैरत से देखते। पहली बार उसे सेंडिल और मोजे मिले तो उन्हें पहनकर पैर पटकते हुए सारे दिन कालोनी में घूमती फिरी। स्कूल खुले तो युनिफार्म पहनकर स्कूल जाते बच्चों को देखती रह जाती। गाँव के अभाव, नियंत्रण और आर्थिक संयम में पला बचपन यहाँ की स्वतंत्रता और सहज उपलब्धि देखकर आनंदित था। जल्दी ही जादू-मंतर, गँवर्इ विश्वास और मान्यताओं का हौवा खड़ा करके बच्चों के दिल-दिमाग पर उसने कब्जा  कर लिया। मेरी बेटियों के कान तो छिदे थे लेकन नाक नहीं छिदवार्इ गर्इ थी। एक दिन सबने जिद किया कि वे नाक भी छिदवाएँगे। बाद में पता चला, केशर ने सबको यह कहकर डरा दिया था कि जिस लड़की का नाक-कान दोनों नहीं छिदा होगा, वह अगर मर गर्इ तो उसके नाक-कान यमराज के दूत खम्भे में बांधकर लोहे की लाल छड़ से छेदेंगे।
    अपनी बुद्धि-कौशल से वह हमजोलियों की तमाम चीजें शर्त में जीत रही थी। हर बात पर शर्त। घंटी बजाने वाला आगंतुक ड्राइवर है या अर्दली?  आज शाम बिजली गुल होगी कि नहीं? इन बातों पर वह उन्हीं चीजों की शर्त लगाती जो उसके पास नहीं होती थी। और शर्त भी एकतरफा। जैसे, यदि बिजली गुल हुर्इ तो वह हारने वाले की पेन ले लगी। लेकिन नहीं गुल हुर्इ तो? वह नहीं लेगी, बस। यह नहीं कि अपनी पेन दे देगी। क्योंकि उसके पास पेन है ही नहीं। और जो चीजें उसके पास आ जातीं, उन्हें वह शर्त से बाहर करती जाती। इस तरह मात्र डेढ़-दो महीने की अल्प अवधि में उसने जाने कितनी गुड़िया, पेन, पेंसिल, रबर, कटर, कॉपी, कलरबक्स, हेयरपिन, क्लिप वगैरह बटोर लिये थे और एक बार जो चीज उसकी हो गर्इ, उसके खोने या दूसरे हाथ में पड़ने का तो सवाल ही नहीं था।
    पत्नी कहती, ''पूरी 'गिरथिन' (गृहस्थिन) होगी यह लड़की। चुन-चुनकर अपना घर भरेगी। जहाँ से जो पाएगी, हड़पेगी।''
    ''हड़पेगी क्या खाक,'' मैं उसे चिढाता, ''इसकी शादी में टूटी चारपार्इ और बूढी गाय दी जाएगी दहेज में।''
    ''मैं आपकी जीप ले जाऊँगी मौसाजी।'' वह कहती।
    सबसे ज्यादा सम्मान वह जीप के ड्राइवर को देती थी। सबेरे उसके आते ही चाय ले जाकर उसे देती, फिर पूछती, ''चाचा, आज हमें जीप मा घुमइबा?''
    ''हाँ बिटिया, काहे नहीं घुमाएँगे। तुम जब-जब चाय पिलाओगी, हम घुमाएँगे।'
    केशर नाम का चुनाव भी उसने खुद किया। पहले उसका नाम था- केश कुमारी। पुकारने के लिए संक्षिप्त नाम 'केशा' प्रयोग में आता था। एक दिन किसी आगंतुक ने उससे नाम पूछा और 'केशा' के बजाय 'केशर' सुन लिया। तारीफ कर दी ''वाह कितना सुंदर नाम है।- केशर-कस्तूरी। रूप और गंध दोनों एक साथ। किसने रखा इतना अर्थवान नाम इस बाल सुंदरी का?'' आगंतुक ने उसका मुखड़ा दोनों हथेलियों में थामकर पूछा।
    तत्काल 'केशा' ने 'केशर' को पकड़ लिया। खड़ी बोली तो पंद्रह-बीस दिन में ही बोलने लगी थी।
    कॉलोनी में रहते हुए अल्प समय में ही वह अधिकारियों के छोटे-बडे़ ओहदे, उनके अधिकारों और सुविधाओं से अपनी बाल-बुद्धि के अनुरूप अवगत हो गर्इ । एक बार एक ट्रेनी डिप्टी कलेक्टर लड़की घर पर मिलने आर्इ। केशर को पता चला तो वह अविश्वास के साथ  बड़ी देर तक पर्दे की आड़ से उसे ताकती रही। फिर जैसे अपना संदेह मिटाने के लिए पास जाकर नमस्ते किया और पूछा, ''आप 'डिप्टी साहेब' हैं?''
    ''जी हाँ। और आप कौन साहब हैं?''
    ''हम केशर  हैं।'' और शरमाकर भाग गर्इ थी।
    उसी दिन शाम को उसने मुझसे कहा था, '' मौसाजी, हमारे बप्पा से कहिए, हमें और आगे पढ़ा दें।''
    ''क्यों? क्या बप्पा ने पढ़ार्इ बंद करवा दिया है?''
    ''हाँ कहते हैं, अब बियाह होगा।''
    ''नहीं, नहीं। तुम पढ़ने जरूर जाओगी। हम तुम्हारे बप्पा से कह देंगे।''
    केशर की इस प्रबल इच्छा-शक्ति और मेरी मध्यस्थता का ही परिणाम था कि उसका विवाह टल गया और शिक्षा काल तीन वर्ष के लिए बढ़ गया।
    मेरे घर से लौटते हुए, शर्तों में जीती हुर्इ अपनी तमाम चीजों के साथ केशर अपने साथ दर्जा छह की किताबें-कापियाँ तथा पीठ पर लटकाने वाला किरमिच का एक नीला बैग भी ले गर्इ थी।

    और आज फिर केशर से मुलाकात होगी- दो साल बाद।
    मित्र के आग्रह पर मुझे फिर केशर के मायके जाना पड़ रहा है। वह लड़का, जिसे वे दो साल पहले देखकर मन-ही-मन खारिज कर चुके थे, इस साल अपर सबार्डिनेट सर्विसेज के लिए चुन लिया गया था। मित्र को पता चला तो आतुर हो गए। बिना एक दिन की भी देर किए, वे मुझे साथ लेकर चल दिए। इस बार यह रिश्ता वे किसी भी कीमत पर पक्का कर लेना चाहते थे।
    केशर की माँ से पता चला कि केशर अपनी ससुराल में है। उसका पति पास के एक भठ्ठे पर इसी दशहरे से मुंशीगीरी करता है। केशर को लड़़की पैदा हुर्इ थी जो दो महीने की होकर पिछले हफ्ते गुजर गर्इ थी। उसके बप्पा अगले दिन उसकी विदार्इ कराने जा रहे थें । उन्होंने मुझसे भी साथ चलने का आग्रह किया। केशर को देखने की इच्छा थी लेकिन उसके सामने पड़ने में थोड़ी झिझक लग रही थी। कुछ अपराध-बोध आड़े आ रहा था। लेकिन शाम को पता चला कि दहेज की रकम घटवाने के लिए मित्र को लड़के के बाप के दरवाजे पर अभी एक दिन और जमना पडे़गा तो मैं भी केशर की ससुराल जाने को तैयार हो गया।
      हम दोनों दो साइकिलों पर चले। पता नहीं क्यों, मन बार-बार पीछे लौट रहा था। नहर-डहर और घुमाव वाले ऊँचे-नीचे रास्ते पर आगे-पीछे चलते हुए मैंने अपने आप को गुनगुनाते हुए पाया। बहुत पहले किसी नारीकंठ से सुने गए गीत की एक ही पंक्ति, बार-बार।
    .....भइया आए बहिनी बोलावन, सुनु सखिया।
    (सुनती है सखी। बहन की विदार्इ कराने भइया आ गए हैं।)
    इस पंक्ति में ऐसा कुछ नहीं लगता जो उदास करे। लेकिन जाने क्यों , जब-जब मैंने इसे गुनगुनाया है, मेरी आँखें भर आर्इ हैं। ....राह बार-बार धुँधला रही है।
    हम लोग पहुँचे तो घंटा भर दिन शेष था। पुराने खपरैल घर का पिछला हिस्सा केशर को बँटवारे में मिला था। इलिए पिछवाडे़ पश्चिम तरफ 'मोहार' (द्वार) फोड़ा गया था। सबसे आगे एक मटमैला हड्डहा बैल जाडे़ से रोंए फुलाए खड़ा था। उसके बाद पुआल का ऊँचा ढेर। ढेर की आड़ लेकर धूप सेंकती बैठी थी केशर की बूढ़ी, अशक्त और लगभग अंधी सास। बगल में एक चारपार्इ खड़ी थी। जमीन पर बिछे पुआल के एक सिरे पर डेढ़-दो हाथ लम्बी, तेल और मैल से चीकट एक काली कथरी सूख रही थी। कथरी से बूढ़ी तक ढार्इ-तीन गज लम्बे क्षेत्र में मक्खियाँ भिनक रही थीं। सांय-सांय करके हाँफती बूढ़ी, रह-रहकर खाँसती और बलगम का एक लोंदा बगल में लुढ़का देती। हर लोंदे पर मक्खियों का काला गोला जमा था।
    आसपास रेह फुलार्इ थी, जिसमें मिले धान के दानों को एक गिलहरी ढूँढ-ढूँढकर फोड़ रही थी और रह-रहकर चटचटा देती थी। हम लोगों को देखकर वह नीम के पेड़ पर चढ़ गर्इ।
    हम लोगों ने साइकिल खड़ी करके बूढ़ी को अभिवादन किया और पास खड़ी चारपार्इ बिछाकर बैठ गए मक्खियाँ एक बार जोर से भिनभिनार्इं, फिर अपनी-अपनी जगह जम गर्इं। सामने ओसारे में कुछ अर्धनग्न बच्चे भागने कूदने वाला कोर्इ खेल खेलते हुए ठंड से लड़ रहे थे। मात्र गंदी बनियान पहने एक सबसे छोटा बच्चा आँसू, नाक और राल चुआता बैठा हुचक-हुचककर रो रहा था।
     बूढ़ी हम लोगों को पहचान न सकी तो पूछा, ''कहाँ घर पडे़?''
    केशर के बप्पा ने बताया तो बूढ़ी संकोच में पड़ गर्इ। घुटने तक मुड़ी धोती को खींचकर पैर ढाँपने लगी। घर-परिवार का हालचाल पूछा। फिर नातिन को याद करके रोने लगी। खेलते बच्चों ने आकर घेर लिया। मैंने देखा, बूढ़ी वही स्वेटर पहने थी, जिसे चार साल पहले पत्नी ने केशर को दिया था।
    तब तक केशर पड़ोस से कलछुल में आग लेकर लौटी।
    हम लोगों को पहचाना तो घूँघट उठा दिया। आग ओसारे के चूल्हे में रखकर मेरे पैरों से लिपट गर्इ। फिर तो जो कारन करके और हिचक-हिचककर रोना शुरू किया उसने कि उसकी 'पिहिक' से कलेजा दहलने लगा।....
    ''अरे या मोरे पापा। हमरी सुधिया भुलाया मोरे पापा।''
    झर-झर झरते आँसू से मोजा भीगने लगा। विलाप की कातरता ने अड़ोस-पड़ोस की औरतों को खींच लिया। भीड़ बढ़ने लगी। लगा, जैसे विलाप करती केशर ताना मार रही थी कि मेरे बप्पा तो गरीब थे, असमर्थ थे लेकिन आपको तो ऊपर वाले ने समर्थ बना दिया था। आप तो मेरे लिए कुछ कर सकते थे। जितने दिन मौका मिला, आपकी सगी लड़की से बढ़कर मैंने आपकी सेवा की थी। देना नहीं था तो 'माँग-माँग' किस मुँह से कहा था। एक बार मुँह खोलकर माँग लिया तो केशर के घर का रास्ता ही भूल गए।
    मेरी आँखे धारोधार बहने लगीं। सचमुच, इस बेटी के लिए लगकर कुछ किया जा सकता था जो नहीं किया गया। बल्कि अपने साथ रखकर, आराम और साधन सम्पन्नता की दुनिया से परिचय कराकर इसके दु:ख को और दूना कर दिया मैंने। यह वह केशर नहीं थी जो पहले थी। यह तो उसका कंकाल मात्र थी। इस कनकनाती ठंड में मात्र नायलान की घिसी मटमैली साड़ी और सूती ब्लाउज में काँपतीं हुई।
    मैं बेचैन हो गया। किन शब्दों में धीरज बँधाकर चुप कराऊँ।
    ''मेरी पुतरी रे। केशर बेटी रे। चुप हो जा रे।'' मेरे बाद उसने बाप के पैर पकड़ लिये।
    इकठ्ठा औरतों ने मुझसे मेरा परिचय पूछा। फिर बतलाया कि बहू अक्सर आपको याद करती है।....आपने ही उसे सिलार्इ मशीन दी है? आप ही के पास रहकर सिलार्इ भी सीखी है न?
    संयत होकर केशर ने परिवार के अड़ोस-पड़ोस के एक-एक सदस्य की कुशल क्षेम पूछा। फिर एक मउनी  में लार्इ-गुड़ और लोटे में पानी लार्इ। लड़कों के झुंड को उसने एक मद्धिम झिड़की से भगा दिया। हम लोग लार्इ चबाने लगे।
    दो छोटी-छोटी लड़कियों ने फिर आकर घेरा और मउनी में रखे गुड़ को एकटक घूरने लगीं।
    केशर के बप्पा ने उन्हें थोड़ा-थोड़ा लार्इ-गुड़ देते हुए बताया, ''केशर की जेठानी की लड़कियाँ हैं।''
    लइया-गुड़ को एक ही झोंक में मुँह के हवाले करके दोनों ने फिर मउनी पर नजर टिका दी और खटिया की पाटी पकड़कर कूदने-झूमने लगीं।
    बूढ़ी के पास पुआल पर बैठी केशर ने बुलाया, ''ए गुड़िया, इधर आओ।'' फिर उठकर दोनों को बाँहों के घेरे में पीछे ले गर्इ और समझाने लगी।
    ''वहाँ नहीं खडे़ होते बिटिया। जानती हो, कौन हैं?''
    ''हाँ। मार्इ कहत रही, नाना हैं।'' बड़ी ने कहा।
    ''नाहीं बिटिया। उ साहेब हैं। आओ, हम तुम्हें घर से दूसरी मउनी में लार्इ-गुड़ देते हैं।'' और दोनों को लेकर अंदर चली गर्इ।
    अँधेरा होने लगा था। केशर ने ओसारे में अलाव जला दिया। बूढ़ी के साथ हम दोनों अलाव तापने लगे। वह बैल को चारा देने और चूल्हे-पानी में लग गर्इ। हम लोग बूढ़ी से हाल-चाल लेने लगे। बूढ़ी ने हाँफ-हाँफकर जो कुछ बताया, उसका सार यह था उनकी पतोहू बड़ी मरदाना औरत है। बेटा तो जब से भठ्ठे पर रहने लगा है, हफ्ते-हफ्ते पर एक दिन के लिए घर आता है। खेती-बारी का भारी मेहनत वाला काम भी नहीं कर पाता। पतोहू अकेले दम पर घर-गृरस्थी का सारा काज सँभालती है। इसी जंजाल के चलते छीमी जैसी बेटिया निमोनिया से मर गर्इ। इसी की सेवा से जिंदा हूँ भइया, नहीं तो इस जाडे़ में उठ जाती। दिन भर घर के 'भरम जाल' से जूझने के बाद आधी-आधी रात तक सिलार्इ में आँख फोड़ती है। गाँव देश में इतना काम ही कहाँ मिलता है। जो चार-छह रूपए का काम कभी मिला भी तो उसमें आधा उधार। किसी तरह नोन-तेल भर का निकालती है तो देखकर जेठ-जेठानी की आंखे फूटती हैं। जेठ अक्सर लड़ता है। झूठ-मूठ कलंक लगाता है कि सिलार्इ तो बहाना है दुनिया भर के लुच्चे शोहदे, छोटे-बड़ों के लौंडे-लपाडे़ अँधेरा होते ही दुआर पर मँडराने लगते हैं। इसका आदमी तो भठ्ठे पर जाकर आँख की ओट हो जाता है। मैं खानदान की पगड़ी उछलते नहीं देख सकता। किस-किससे रार मोल लेता फिरूँ? बहुत-बहुत सिलार्इ-कढ़ार्इ वाली देखा है। र्इ धंधा करना है तो बाजार में जाकर दुकान खोले। जेठानी अलग राह चलते कुफार बोलती है। चंदन जैसी लड़की इन लोगों की नजर में बबूल का काठ हो गर्इ है। इसका आदमी पहले एकदम गऊ था लेकिन कुफार सुनते अब वह भी कभी-कभार सनक जाता है। किसी-किसी दिन आधी रात में आकर दरवाजा खोलवाता है।
    हम लोग चुपचाप सुनते रहे।
    थोड़ी देर बाद केशर के बप्पा ने कहा, '' हम लोग केशर की विदार्इ कराने आए हैं बूढ़ी। जगह बदल जाएगी तो बिटिया के मन में पैठी, बेटी की मौत की गाँठ कुछ फटेगी।''
    बूढ़ी चुप हो गर्इ। कुछ देर चुप ही रही। फिर बोली, ''अपनी बिटिया से ही कहिए। वही मालकिन है घर की।''
    थोड़ी देर बाद केशर ने खाना लगा दिया। खाने में उसने आज मटर की पूरियाँ बनार्इ थीं तो इसे अभी तक याद है मेरी पसंद।
    केशर के बप्पा ने खाते-खाते बात चलार्इ, ''हम लोग तुम्हारी विदार्इ कराने आए हैं बेटी। नातिन की मौत सुनने के बाद तुम्हारी माँ अक्सर रोती रहती है।''
    केशर तुरंत कुछ नहीं बोली। चुपचाप पूरियाँ सेंकती रही। थोड़ी देर बाद उसके बप्पा ने फिर अपनी बात दोहरार्इ।
    ''मेरा चलना अब कैसे हो पाएगा बप्पा? बूढ़ा बैल, बूढ़ी सास। इन्हें दाना-पानी कौन देगा?''
    ''क्यों। तुम्हारी कोर्इ ननद नहीं आ जाएगी कुछ दिनों के लिए। तीन-तीन हैं। कहो तो हम एकाध हफ्ते बाद फिर आएँ। वहाँ चलोगी, डीह-पानी बदलेगा तो मन कुछ उछाहिल होगा। दुख का जाला कुछ कट जाएगा।''
    ''दु:ख तो काटने से ही कटेगा। बप्पा।'' केशर चूल्हे की आग तेज करते हुए बोली,'' भागने से तो और पिछुआएगा।'' 
     उसके चेहरे पर आग की लाल लपट पड़ रही थी। वह समाधिस्थ-सी लग रही थी। यह केशर थी। एक निश्चित निर्द्वंद्व खिलखिलाती बेटी की भूमिका से कितनी जल्दी दुःख भोजती पुरखिन की भूमिका में उतरना पड़ा था। मैं विषादग्रस्त हो गया। आखिर बोल ही पड़ा, ''तुम्हारे लिए मैं भी कुछ नहीं कर सका बेटी। इसका मुझे बहुत अफसोस है।''
    ''अरे नहीं पापा।'' केशर ने ताजी सिंकी पूड़ी मेरी थाली में डालते हुए कहा, ''मेरी सोच में अपनी देह न गलाइएगा। जितने दिन आपकी बारी-फुलवारी में खेलना-खाना बदा था, खेले-खाए। अब मेरा हिस्सा मुझे ' अलगिया' मिल गया है। तो जैसा भी है, उसे भोगना होगा, खेना होगा। माँ-बाप जनम के साथी होते हैं पापा। 'करम-रेख' तो सभी की न्यारी है। जब जनक जैसे बाप जो राजा भी थे और 'बरम्ह-ग्यानी' भी, जिनकी इतनी औकात थी कि सौ बेटी दामादों को घर-जमार्इ रखकर उमर भर खिला सकते थे- तीन लोक के मालिक से बेटी ब्याहकर भी उमर भर उसे सुखी देखने को तरस गए तो हम गरीब लोगों की क्या औकात?''
    यह केशर नहीं, केशर के रूप में मूर्त हिंदुस्तानी नारी का हजारों-हजार पीढ़ियों से विरासत में मिला अनुभव और यथार्थ को उसके ठोस व्यावहारिक रूप में पकड़ लेने की उसकी अंत्श्चेतना बोल रही थी। इस हकीकी दर्शन को सहसा किसी किताबी तर्क से काटने का दुस्साहस सम्भव नहीं था।
    थोड़ी देर कोर्इ कुछ नहीं बोला।
    अंतत: उसके बप्पा ने अपनी आशंका से उसे सावधान कर देना चाहा, ''सुना है, तुम्हारे जेठ-जेठानी उल्टे-सीधे कलंक लागते हैं। तुम तो खुद ही समझदार हो बिटिया। जाने-अनजाने ऐसी कोर्इ बात नहीं होनी चाहिए कि...''
    पूड़ी बेलते केशर के हाथ पल भर को रूक गए। उसने सीधे-सीधे बप्पा की आँखों में ताका, ''यह क्या' कहते हैं बप्पा?''
    फिर बिलकुल ही कोर्इ कुछ नहीं बोला।
    यात्रा की थकान थी। नींद जल्दी आ गर्इ। लेकिन उतनी  ही जल्दी उचट भी गर्इ। कोर्इ रोता है कि गाता है? चारों तरफ सघन अंधकार। भयावह सन्नाटा। और बीच में अभरता यह दर्द भरा पतला नारी स्वर। मैं दबे पाँव मँड़हे से ओसारे में आ गया। आवाज केशर की थी। अंदर की कोठरी से आ रही थी। बलिया प्रवास के दौरान सुना, करूण-कवि धीरज का गीत-सीता का दर्द।
    ...सीताजी को गर्भावस्था में पुन: बनवास हो गया है। लक्ष्मण उन्हें धोखे से जंगल में छोड़ आए हैं। राजा जनक को खबर मिलती है तो अधीर हो जाते हैं। तुरंत रथ लेकर मंत्री जी को भेजते हैं- जाकर जनकपुर लिवा लाइए। कहना तुम्हारे माँ-बाप का रोते-रोते बुरा हाल है।
    लेकिन सीताजी मंत्री जी को समझा-बुझाकर वापस भेज देती हैं।
    मत रोवे मार्इ, मत रोवे बपर्इ,
    मत रोवे भइया, हजारी जी-र्इ-र्इ,
    अपने करमवा माँ 'जरनि' लिखार्इ लाए,
    का करिहै बाप महतारी जी-र्इ-र्इ।
    अब मंत्री कैसे समझाएँ कि बात केवल बेटी के दुःख-दर्द की ही नहीं है। इससे बाप की प्रतिष्ठा भी जुड़ी हैं दुख-अभाव के चलते या कैसे भी अगर बेटी का पैर कहीं ऊँच-नीच पड़ गया, कोर्इ ऐसी-वैसी बात हो गर्इ, जिससे बाप की मूँछ नीची होती हो तो...?
    क्या कहते हैं मंत्रीजी। इसके माने बप्पा हमें अभी तक समझ ही नहीं सके। बप्पा से जाकर कहिएगा-
    मोछिया तोहार बप्पा 'हेठ' न होइहै
    पगड़ी केहू ना उतारी, जी-र्इ-र्इ।
    टुटही मँड़इया मा जिनगी बितउबै,
    नही जाबै आन की दुआरी जी-र्इ-र्इ।
    भीतर जलती लालटेन के प्रकाश की पतली रेखा किवाड़ों की फाँक से बाहर आ रही है। मैं अंदर झाँकने का प्रयास करता हूँ। एक हाथ में कैंची पकडे़, सिलार्इ मशीन को आगे रखे बैठी है केशर। चेहरा सामने है। आँखें आँसुओं से भीगी। पलकें बंद। मशीन में एक अधसिला कपड़ा लगा है।
    मैं दबे पाँव वापस लौटता हूँ। निविड़ अंधकार में मेरी ऑंखें देख रही हैं- सिलार्इ मशीन के सामने बैठी गाते-गाते रोती केशर।...शर्त जीतकर छोटी-छोटी चीजें बटोरती केशर।....छत्राकार घाघरा फैलाकर नाचती केशर।...खिलखिलाती केशर।....और बाप के कंधे को थपथपाकर आश्वस्त करती केशर, कि-
    नाहीं जाबै आन की दुआरी हो बपर्इ। नहीं जाबे.....

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Sunday, September 23, 2012

जैक लंडन के देश में

                                                            जैक लंडन के देश में




यात्रा वृतांत
शिवमूर्ति



भ्रमण का नशा और वह भी दुर्गम स्थलों का, मेरे साथ बचपन से रहा है। जब बच्चा था और गाँव की सीमा ही मेरे लिए दुनिया की सीमा थी तो अपने घर से पश्चिम सड़क पार करके जंगल में चला जाता था। वहाँ एक विशाल और गहरा तालाब था। नाम था वीरनतारा। वीरनतारा के तीन तरफ झाड़ियों, लताओं और विशाल वृक्षों का घटाटोप था। उनके बीच रास्ता खोज पाना मुश्किल। अंदर घुसकर झाड़ी और पानी के संधि स्थल पर बैठ जाइये और दुनिया जहान की आँखों से ओझल हो जाने का आनंद लीजिये।
और बड़ा हुआ तो जिस-तिस के साथ बाजार, मेला, रिश्तेदारी, भोज-भात, जहाँ जाने का मौका मिला, जाता रहा। जिस साल दर्जा पांच पास किया, उस साल पड़ोस के साधू सुग्रीम दास के साथ पैदल मांगते-खाते अस्सी किलोमीटर दूर संगम नहाने चला गया। और बड़ा हुआ, रेलवे से परिचित हुआ तो कितने ही वर्ष उत्तर दक्षिण पूरब पश्चिम ट्रेन से बिना टिकट भ्रमण करता रहा। बच्चे हुए, नौकरी मिली तो उनको घुमाया, हिमालय और नेपाल के पहाड़, पूर्वोत्तर राज्य, दक्षिण, पश्चिम।
अंडमान निकोबार के बिंदु की तरह दूर तक फैले टापू, जैसे तालाब में छिछली मारने पर उसके गंतव्य बनते हैं और लद्दाख के बारे में पढ़ी गयी जानकारी बहुत सम्मोहित करते थे। वह भी देख आये। तब विदेश जाने का नंबर आया।
विदेश के दो लेखक मुझे सबसे ज्यादा सम्मोहित करते हैं। शेक्सपियर और जैक लंडन। पिछले वर्ष शेक्सपियर की धरती पर पहुंचने का अवसर मिला था। इस वर्ष अमेरिका के पर्यटन की शुरुआत जैक लंडन की कर्मस्थली सान फ्रांसिस्को से करने की योजना बनी।
बाप रे, दुबई से सान फ्रांसिस्को की साढ़े पन्द्रह घंटे की हवाई यात्रा। खाओ पिओ, सो जाओ। फिर खाओ पिओ सो जाओ। मेरे जैसा आदमी जिसको जीवन में बहुत कम हवाई यात्रा का संयोग मिला हो, निश्चय ही सोने को समय व्यर्थ गंवाना मानेगा।  इस समय में आस-पास के दृश्य देखा जाय। लेकिन दृश्य भी क्या। तीस-पैंतीस हजार फीट की ऊंचाई पर रूई के सफेद गोले जैसे बादलों के अलावा। वह थोड़ी देर बाद रात के अंधेरे में डूब गये। बस और ट्रेन में तो चलते समय शरीर थोड़ा -बहुत हिलता भी है लेकिन प्लेन में। लगता है जैसे कमरे में बैठे हों कुर्सी पर। इकोनामी क्लास की सीट। जेट लागिंग क्या चीज है यह पहली बार समझ में आया।
 इसकी तुलना में दिल्ली से दुबई तक सबेरे-सबेरे की गयी पांच घंटे की यात्रा तो जैसे पलक झपकते हो गयी थी।
दो दिसंबर 12 का सारा दिन संजीव जी के घर पर मित्रों से मिलने-जुलने, फोना-फोनी में बीत गया। शाम को 9 बजे विवेक मिश्र जी के साथ सुशील सिद्धार्थ जी आ गये। फिर पंकज शर्मा जी पाखी का नया अंक लेकर आ गये। खाते-पीते ग्यारह बज गये।
पंकज शर्मा हम लोगों के साथ हवाई अड्डे तक आ गये, यह बड़ा अच्छा हुआ। चेक इन शुरू होने और हम लोगों के भीतर प्रवेश करने तक हम लोग हिंदी से लेकर दुनिया जहान तक के साहित्य पर बात करते रहे। पंकज अच्छे आदमी हैं। सुसंस्कृत, मिट्ठभाषी और व्यावहारिक। पढ़ाई-लिखाई में तो अव्वल हैं ही।
इमिरेट्स एयरलाइन की एयरहोस्टेस के सिर पर घड़ा रखने की गेंड़ुली जैसी लाल पगड़ी ने मरजीना की याद दिला दी। चोरों के सरदार को चाकू मारने के पहले नृत्य के दौरान पहनी गयी पगड़ी। पर सुंदरता में तो भाई जार्डन एयरवेज की होस्टेसेज का कोई मुकाबला नहीं। पिछले बरस देखी गयीं उनकी सूरतें आँखों में बसी हुई हैं।
कस्टम क्लियरेंस पर लंदन के हीथ्रो हवाई अड्डे जैसी ही भीड़। हम हिंदुस्तानी इधर से उधर लाइन तोड़ने और आगे निकल जाने के जुगाड़ में लगे रहे। इतनी पुरानी और प्रिय आदत इतनी जल्दी परायी धरती पर उतरते ही कैसे छोड़ दें? अपेक्षाकृत जल्दी ही उन लोगों ने सबको निपटा दिया।
एयरपोर्ट के लाउंज में बैठकर साथी यात्रियों के निपटने का इंतजार करने के बाद बाहर आकर बस में बैठे तो पता चला कि पत्नी तो अपना पर्स लाउंज में ही भूल आयी हंैं। बाप रे। काटो तो खून नहीं। पासपोर्ट वगैरह कई जरूरी कागजात उसी में थे। आधे घंटे के करीब हो गये थे। अब कहाँ मिलेगा। लेकिन मैं गया। पर्स बेचारा कुर्सी पर अकेला बैठा हमारा इंतजार कर रहा था। आस-पास की भीड़ ने उसकी तरफ आँख उठाकर देखना भी गंवारा नहीं किया था। इंडियन्स तो बहुत दिख रहे थे। क्या हो गया इन लोगों को इस धरती पर उतरते ही? अपनी मूल प्रवृति ही भूल गये? जान में जान आयी।
होटल बेस्ट-वेस्टर्न का रूम काफी बड़ा और सजा-बजा था। बेडशीट और रजाई-तकिया की सफेदी के क्या कहने। बस, काफी कोशिश करने के बाद भी हम पति-पत्नी को उस मशीन से काफी बनाना नहीं आया। उसकी कमी देर तक गरम पानी से नहाकर पूरी की गयी। फिर छोटे से फ्रिज में धरी खाने-पीने की चीजों को यथासंभव बारी-बारी से निपटाया गया।
जो सिम तीन हजार रुपये सिक्यूरिटी के जमा करके लखनऊ से लेकर चले थे, वह एक्टिवेट ही नहीं हो पाया। यहाँ के दोनों सर्विस कनेक्शन उसे स्वीकार ही नहीं कर रहे हैं। टूर मैनेजर के फोन से अपनी कुशल-क्षेम का एसएमएस घर पर दिया। टूर मैनेजर का नाम है शावक। 60 के हुए, अभी शावक ही हैं। दो दिन में ही महसूस हुआ कि फोन साथ न रहने का भी अपना आनंद है। मजबूरी में ही सही इस आनंद का आनंद लेते रहे। अच्छा शहर है। ज्यादातर मकान बस दोमंजिले। सड़कें चौड़ी और साफ। आबादी बहुत कम और हरियाली बहुत ज्यादा। रात में खाना खाने के बाद देर तक घूमते रहे। सान फ्रांसिस्को और भारत के समय में साढ़े ग्यारह घंटे का अंतर है। जब भारत में लोग आफिस जाने के लिए निकलने को हुए तो हम सो गये।
नाश्ता दिव्य था। इतनी चीजें, क्या खायें, क्या छोड़ें? नाश्ते के बाद निकले खाड़ी देखने। सान फ्रांसिस्को की खाड़ी मशहूर है। जैक लंडन ने 13 साल की उम्र में एक छोटी सी जहाज छीनकर डकैती (पाइरेसी) करना शुरू कर दिया था। वाह, जैक लंडन का घर भी देखना है। ओकलैंड यहीं कहीं होना चाहिए।
पानी रात भर बरसा था, तेज हवा चल रही थी। सर्दी बढ़ गयी थी। बाप रे। इतनी ठंड के बारे में तो चेताया नहीं गया था। आसमान में काले-भूरे बादल दौड़ रहे थे। कभी-कभी हल्की झीसी भी पड़ने लगती थी। सबसे पहले भागकर स्वेटर, पुल ओवर वगैरह खरीदा गया। टोपी खरीदी गयी।
रेस्टोरेंट में बड़े-बड़े केकड़े भुन रहे थे। सेल्समैन उनकी बाहें फैलाकर ग्राहकों को आकृष्ट कर रहे थे। एक-एक बाह सवा-सवा फीट की। वजन होगा 4-5 किलो तक। देखकर ही डर लग रहा था।
टिकट लेकर क्रूज में बैठे। यह क्रूज गोल्डेन गेट ब्रिज तक घुमाने ले जाता है। सिंगल स्पान सस्पेंशन पर बना यह ब्रिज सान फ्रांसिस्को की पहचान है। पास में ही एक अन्य ब्रिज है-बे ब्रिज। एक तीसरा बन रहा है। 2030 तक बनकर तैयार होगा और दो द्वीपों को मिलायेगा। रास्ते में एक छोटा सा आईलैंड ध्यान आकर्षित करता है। इसके ऊपर जेल बनी हुई है, जिसमें पहले स्पेन के कैदी रहा करते थे। इनमें मूल अमेरिकन, जिन्हें रेड इंडियन कहते हैं, ज्यादा थे। क्या जमकर शिकार किया गया यहाँ रेड इंडियन्स का। अब नाम मात्र को ही बचे हैं। इस जेल को अब म्यूजियम बना दिया गया है।
लंच के बाद हम शहर देखने निकले। हमारी गाइड थी तीस बत्तीस वर्ष की दुबली-पतली लंबी हंसमुख लड़की एनी-डा। उसने बताया कि इंडियन्स के लिए मैं अनीता हूं, अंग्रेजी-दाँ के लिए एनी-डा। स्पेनिश लोगों के लिए कुछ और बताया। बताया कि उसका भाई भी गाइड है। नाम है सैम, भारतीयों के लिए श्याम, बंसी बजाने वाला। उसने हिंदी, पंजाबी, कन्नड़, अंग्रेजी और स्पेनिश में कई गाने सुनाकर सबको मोह लिया। बताया कि मेरे पिता बंगलूर से थे और माँ कैलीफोर्निया की। उसका पति अल्जीरियन है। कई धुनें सुनाकर बताया कि किन-किन हिंदी फिल्मों में स्पेनिश और अन्य यूरोपीय भाषाओं की धुनें चुरायी गयी हैं। बंगलूर से आयी दो कन्नड़ बहनों को उसने कन्नड़ का एक गीत सुनाकर प्रसन्न कर दिया। एक पेड़ दिखाते हुए उसने बताया कि इसका नाम है रेड वुड ट्री। लंबाई होती है 112 मीटर तक और उम्र होती है दो हजार साल। मकानों को दिखाते हुए बताया कि यहाँ 20 फीट चौड़ाई और 40 फीट लंबाई में बने एक मकान की कीमत है तीन से चार मिलियन डालर। और ऐसा नहीं कि आप ने खरीद लिया तो लगे मंजिल पर मंजिल बनाने। एकदम नहीं। जो बना है बस वही रहेगा। परिवर्तन नहीं कर सकते। मिलिटरी एरिया में ले जाकर उसने इन्सपिरेशन प्वाइंट या लव प्वाइंट दिखाया। साइकिल चालकों की ओर ध्यान आकर्षित होने पर उसने बताया कि इस शहर में 50 हजार बाइकर्स अर्थात साइकिल चलाने वाले हैं। हर फ्राईडे को बाइकर्स की मीटिंग होती है। सेहत बचाकर रखना है तो साइकिल चलाना ही होगा। साइकिल का नाम आते ही चाइना का नाम आ गया। उसने बताया कि यहाँ की आबादी के 30 प्रतिशत चाइनीज हैं। 15 फीसदी स्पेनिश, 15 फीसदी इटैलियन, पांच फीसदी अन्य एशियाई। बताया कि पास के आईलैंड की मेयर जीन क्वाल चाइनीज लड़की है। यहाँ की प्रथम भाषा अंग्रेजी और द्वितीय भाषा चाइनीज है।
जैक लंडन के बारे में पूछने पर उसे आश्चर्य और खुशी दोनों हुई। बताया कि वह सामने जो बस्ती है, वही है ओकलैंड। वही है जैक लंडन का घर और स्मारक। उसने बताया कि मैं भी ओकलैंड में ही रहती हूं। कहा कि जबसे मैं गाइड का काम  कर रही हूं, आप पहले एशियाई और पांचवें विश्व पर्यटक हैं, जिन्होंने जैक लंडन के बारे में पूछा है। ड्यूटी के बाद मैं आप को वहाँ ले जा सकती हूं।
जैक लंडन स्क्वेयर जाकर मन तृप्त हो गया। करीब एक दशक पहले इस स्क्वेयर पर चीमा मानुमेंट की स्थापना हुई है। काँसे की 18 फीट ऊंची आड़े उड़ते ईगल के धुले हुए पंख की पृष्ठभूमि में नारी मूर्ति। अद्भुत, अद्भुत। कितना संभालकर, संजोकर रखा है इस देश के लोगों ने अपने प्रिय लेखक की यादगार को। मन करता था इस मनोरम स्थल पर बैठे ही रहें। 

Thursday, September 13, 2012

भरतनाट्‌यम

यह  कहानी पत्रिका 'सारिका' के अगस्त १९८२ के अंक मे प्रकाशित हुई थी और मेरे कहानी संग्रह 'केसरकस्तूरी' मे संग्रहीत है । ब्लॉग के पाठकों के लिये यहाँ प्रस्तुत --
भरतनाट्‌यम

     ''भी भी तुझे भिनसार नहीं हुआ है क्या रे?'' बाप का क्रोध और घृणा से चिलचिलाता हुआ स्वर कानों में पड़ता है तो मैं झट से चादर फेंककर ठ बैठता हूं। बस एक मिनट की देर हो गर्इ। सोच ही रहा था कि अब उठूं, अब उठूं। पर उससे कोर्इ फर्क नहीं पड़ना था। डांट खाने का यह मौका बचा लेता तो वे कोर्इ और मौका ढूंढ़ निकालते, बल्कि डांटने का एक चांस खो देने की चिढ़ उन्हें और भी आक्रामक बना जाती। जिसने गाली-फटकार सुनाने की कसम ही खा ली हो, उससे कब तक भागा जा सकता है? उन्हें तो मेरे उठने, बैठने, देखने, चलने, यहां तक कि आंखों की पलकें उठाने-गिराने के ढंग तक में खराबी नजर आने लगी है.... ''साला, चलता कैसे है, शोहदों की तरह! चलता है तो चलता है, साथ में सारी देह क्यों ऐंठे डालता है, दरिद्रता के लच्छन हैं ये, घोर दरिद्रता के। मांगी भीख भी मिल जाए इस हरामखोर को तो इसकी पेशाब से मूंछ मुंड़ा दूंगा... और देखता कैसे है? शनिचरहा! इसकी पुतली पर शनीचर वास करता है। सोने पर नजर डालेगा तो मिट्‌टी कर देगा। ससुर, जम्हार्इ ही लेता रहेगा या चारपार्इ भी छोडे़गा? देख लेना, यह चारपार्इ भी दो महीने से ज्यादा नहीं चलेगी।''
         मैं झट चारपार्इ से नीचे उतरकर बिस्तर समेटता हूँ। चारपार्इ हटाने में जरा-सी देर होते ही वे चीखने लगेंगे, ''तोड़ डाल! धूप में न टूटे तो मिट्‌टी का तेल डालकर फूंक दे।'' अंदर दरवाजे में मेरी पत्नी जांत चला रही है। शायद काफी देर से लगी है। तीन-चार किलो आटा मेड़री के गिर्द इकट्‌ठा हो गया है। चेहरे पर पसीने की धाराएं बह रही हैं। ब्लाउज पसीने से तर है और आंचल नीचे सरक गया है। वह सिर उठाकर मुझे देखती है। स्वच्छ, चमकती हुर्इ बड़ी-बड़ी आंखें। उसके स्वस्थ, सुडौल और युवा शरीर को देखकर मेरे मन में कुछ होने लगता है, पर मैं आगे बढ़ जाता हूं। जब से जाड़ा कुछ कम हुआ, मैंने पत्नी के साथ सोना बंद कर दिया है। ओसारे में अकेले सोने लगा हूं। जब से पत्नी को तीसरी लड़की पैदा हुर्इ, बाप की बड़बड़ाहट ने लाज और मर्यादा की सारी सीमाएं तोड़ दीं। एक घंटा दिन रहते ही चरखा शुरू कर देते हैं, '' साला, शाम होते ही मेहरारू की टांगों में घुस जाता है। चार साल में तीन पिल्लियां निकाल दीं। खबरदार! अगर चौथी बार मूस भी पैदा हो गया तो बिना खेत-बारी में हिस्सा दिए अलग कर दूंगा।''
         लगातार तीन-तीन बच्चियों को जन्म देने के बाद भी पत्नी की शारीरिक भूख भले ही कम न हुर्इ हो, पर मेरी भूख जरूर कम हो गर्इ है। अब तो हफ्ते-दस दिन में एकाध घंटे का मौका ही काफी है। फिर भी, जाडे़-भर बाप की गालियां और ताने सहते हुए मुझे घर में यानी पत्नी के साथ सोना पड़ा था, क्योंकि ओढ़ने की समस्या थी। दोनों बड़ी लड़कियां अपनी दादी के पास सोती थीं और हम दोनों के हिस्से में एक रजार्इ पड़ी थी, जिसमें इस साल एक तीसरा जीव भी हिस्सेदार बन गया था। यद्यपि पत्नी ने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की थी कि बाप के तानों और गालियों की परवाह किए बगैर मैं उसके साथ ही रात में सोता रहूं किंतु मेरी हया पूरी तरह मरी नहीं थी और जाड़ा कुछ कम होते ही मैंने एक सेकंड-हैंड कंबल खरीदकर ओसारे में सोना शुरू कर दिया था। सोचा था, इससे बाप की गालियां कम हो जाएंगी। जी हां! बाप ही कहना ठीक लगता है। लगता है 'बाप' नहीं, 'बाघ' कह रहा हूं। दोनों ही के नाम पर मेरे आगे लाल-लाल आंखें कौंध जाती हैं। 'पिताजी' संबोधन उनके लिए ठीक नहीं बैठता। मेरे खयाल में 'पिताजी' बहुत ही पालतू, सीधा-सादा जीव होता होगा, जो प्राय: शहरों में पाया जाता होगा या फिर प्राइमरी अथवा मिडिल स्कूल का चोटी-धोतीधारी 'गुरूजी' होता होगा।
        चारपार्इ रखकर बाहर आते हुए एक बार फिर पत्नी पर नजर डालता हूं। उसकी आंखों की चमक सही नहीं जाती। महीनों हो गए हैं उससे सहवास को। उसके असाधारण स्वास्थ्य से अपनी तुलना करने पर हीन भावना उभरती है। सारी उमर किताबों में गुजार दी। थोड़ा भी ध्यान देता तो कम-से-कम देह-मुंह से तो देखने लायक रहता। बाहर मंड़हे में पिताजी बड़बड़ाए जा रहे थे। (चलिए, एकाध बार पिताजी भी कह लेता हूं।) उनके बड़बड़ाने का तात्पर्य यह था कि बड़ा भार्इ एक घंटे रात रहते ही खेत में जा चुका है और यह साला डिप्टी कलक्टर की तरह दोपहर को चारपार्इ तोड़कर उठता है। बीच-बीच में वे मां के साथ यौन-संबंध स्थापित करने की धमकी भी देते जाते हैं। मैं उनकी बातों की परवाह किए बगैर शौच के लिए नहर की तरफ बढ़ जाता हूं। दिल में कुछ हौल मारने लगता है। मैं लाख बेरोजगार होऊं, लेकिन पिताजी की तरह बदनाम तो नहीं हूं, मेरे चरित्र पर कोर्इ उंगली तो नहीं उठा सकता। उनके हमजोली उनके बारे में बताते हैं। बहुत कुछ सुनने को मिलता है। चोरी-चकारी के मामले में ये बदनाम हुए थे। औरतों के पीछे हाथ-पैर ये तुड़वाए थे और आज बूढे़ होने पर मड़हे में शंकर भगवान, हनुमानजी और काली मार्इ के कैलेंडर टांगकर, शंख-घंटा बटोरकर, कंठीमाला लटकाकर और चंदन-टीका लगाकर महंत बन गए हैं। मेरी नजर में तो जितनी कुमार्गी और ढोंगी पुरानी पीढ़ी रही है, उसकी चौथार्इ भी नर्इ पीढ़ी नहीं है। फिर भी लोग नर्इ पीढ़ी को मुफ्त में....
        रास्ते में गड़ही के किनारे मां गोबर पाथ रही है। एक नजर मेरी तरफ डालती है, निर्विकार, निर्लिप्त और फिर सिर नीचा करके हाथ चलाने लगती है। अरसा हो गया मां से कोर्इ बात किए हुए। जब से मैं सेक्रेटेरिएट की क्लर्की से निकाला गया, उसने बोलना ही बंद कर दिया है। मुझे बड़ी पीड़ा होती है। कभी-कभी तो रोना आ जाता है। अपनी सगी मां सिर्फ इसलिए मौन साधकर बेटे को जला रही है, क्योंकि उसका बेटा, जिसे उसने पेट काटकर, एक-एक पैसा जोड़कर चौदह वर्ष तक पढ़ाया, बेकार बैठा हुआ है। आशा रही होगी कि उसका पैसा मय सूद के वापस आएगा, लेकिन मूल भी डूबता देखकर यह असहिष्णु और आक्रामक हो उठी है। इसकी अभिव्यकित वह मेरे प्रति मौन व उपेक्षा प्रदर्शित करके तथा मेरी पत्नी के प्रति उसके बाप और भार्इ से उसका यौन-संबंध जोड़कर करती रहती है। उसका विश्वास है कि पहले मैं बड़ा ही लायक और भाग्यवान था, पर जब से मेरी कुलच्छनी पत्नी इस घर में बहू बनकर आर्इ, इस घर में शनीचर की पैठारी हो गर्इ। मैं मां को बेहद प्यार करता हूं। पिताजी के अत्याचार और तानाशाही तले वे तिल-तिल करके जली हैं। मेरे पास हजार रूपए होते तो मैं उनके पैरों पर रखकर आज ही मना लेता पर...मुझे देखकर वे अपना हाथ गोबर पर और जोर-जोर से पटकने लगती हैं। लगता है, यह हाथ गोबर पर नहीं, मेरे गालों पर पड़ रहा है-थप्प, थप्प! और मेरे चेहरे पर गोबर छोप उठा है।
      नहर में ही स्नान करके मैं वापस आता हूं। तब तक पिताजी पूजा पर बैठ चुके हैं। पांच मिनट के हनुमानचालीसा और दो-चार इधर-उधर के दोहे-सोरठों के सहारे वे पता नहीं कैसे दो घंटे काट देते हैं? मैं तार पर अपना गीला जांघिया डालने लगता हूं, तभी मेरी बड़ी लड़की आकर बताती है, ''रोटी बन गर्इ है।'' मैं अंदर जाने लगता हूं तो पिताजी टोकते हैं, ''दूध बच्चों के काम भर का ही होता है। जीभ को कंटरोल में रखने की आदत डालो।'' जब से भैंस बियार्इ है, शायद ही कभी मैंने अपने मुंह से दूध मांगा हो और बिना मांगे कौन कहे, मांगने पर भी उसके मिलने के कोर्इ लच्छन नहीं हैं। एक बार खाना खाते समय पत्नी ने जाने कैसे एक गिलास दूध लाकर बगल में रख दि था। मुझे पता नहीं था कि इसे वह भाभी और मां की चोरी से दे रही है, लेकिन आखिरकार भाभी ने उसे देख ही लिया था। इसकी सूचना उन्होंने तुरंत मां को दी थी। मां ने आकर गिलास तो नहीं छीना, लेकिन झुककर, ऐन अच्छी तरह गिलास में झांककर उन्होंने तसल्ली कर ली थी कि भाभी का अभियोग रार्इ-रत्ती सच था। मुझे इतना मलाल हुआ कि दिल में आया, दूध का गिलास उठाकर आंगन में फेंक दूं। निश्चय ही यह मां और भाभी के मुंह पर तमाचा मारने जैसी बात होती, पर मैं भी क्या कम घटिया हूं! पावभर दूध का लालच कर गया था। और उसके बाद पत्नी को हफ्तों नहीं, महीनों भाभी और मां के ताने सुनने पड़े थे- 'सांड़ बनाना चाहती है भतार को। तीन-तीन बेटियां बियाने के बाद भी गर्मी कम नहीं हुर्इ है, पलटन तैयार करने की कसम खाकर आर्इ है मायके से। इस हरजार्इ की कोख में लड़का  फल सकता है भला!''....  पर मेरी पत्नी अब भी कभी-कभी मौका पाकर, सबके लेट जाने के बाद रात में गरम दूध का गिलास मुझे दे जाती है। इसमें सहज स्नेह कम और एक निहित स्वार्थ अधिक होता है। विचित्र स्वार्थ!
        सबको पता है कि भैंस दोनों जून में मिलाकर पांच सेर दूध देती है, जिसमें से एक तोला भी बेचा नहीं जाता। बेचने की जरूरत भी नहीं है। खेती में कम-से-कम इतना तो पैदा हो ही जाता है कि पूरे परिवार के खाने-पीने के लिए पर्याप्त हो सके। बच्चों की जरूरत का हवाला देना भी बेमानी है, क्योंकि इस घर में सिर्फ भाभीजी के दोनों लड़कों को ही यह छूट है कि वे जब जितना चाहें दूध पी सकते हैं। मेरी बच्चियों को खाना खाते समय जो मिल गया, सो मिल गया।
        कपडे़-लत्ते देने के मामले में भी यही पक्षपात होता है...और बच्चों में भी कोर्इ अवचेतन शक्ति अवश्य निहित होती है, जिससे वे बिना बताए आसपास के वातावरण की अनुकूलता-प्रतिकूलता का अनुमान लगा लेते हैं। मैंने कर्इ बार देखा है, जब अमर और विनोद आंगन में दूध पी रहे होते हैं, मेरी बच्चियां भाभीजी के गिर्द खड़ी होकर चुपचाप हरसरत-भरी नजरों से खाली होते गिलासों को टुकुर-टुकुर ताकती रहती हैं, पर कभी भूलकर भी हठ नहीं करतीं कि वे भी अमर और विनोद की तरह दूध पीएंगी। उनमें इतनी दीनता कहां से आ गर्इ? उनमें बाल-सुलभ जिद क्यों नहीं है? जन्म लेते ही इतनी प्रौढ़ता कैसे आ गर्इ? ज्यादा दिनों की बात नहीं हुर्इ, मैं ताखे पर कोर्इ किताब ढूंढ रहा था, अमर और विनोद दूध पीने के बाद जूठा गिलास आंगर में रखकर बाहर निकल गए थे, तभी मेरी ढार्इ साल की मंझली लड़की डरी-डरी-सी चौकन्नी नजरों से आसपास देखती हुर्इ आंगन में आर्इ और एक गिलास उठाकर मुंह से लगा लिया, पर गिलास में सिर्फ फेन शेष था, जिसे उसने उंगली से चाटना शुरू कर दिया। उसके चेहरे पर गहराया हुआ आत्मतोष उभर रहा था, तभी बाहर से हरहराती हुर्इ भाभी आंगन में आर्इं। गुस्से से पैर पटकती हुर्इ बाहर जाकर दोनों लड़कों को पीटने लगीं, ''हरामजादो! पीना नहीं होता तो पूरा गिलास क्यों भरा लेते हो? कंजडि़यों को पिलाने के लिए?''
        रसोर्इ में जाकर पीढे़ पर बैठ जाता हूं। भाभी मुझे देखते ही किसी काल्पनिक व्यक्ति या परिस्थिति के विरूद्ध भुनभुनाने लगती हैं। सिंकी हुर्इ रोटी को कठौते में इतनी जोर से पटकती हैं, जैसे कठौता-कठौता न हो, सात दुश्मनों का सिर हो। मैं जानता हूं, भाभी की कल्पना का यह सिर मेरे अलावा किसी और का नहीं हो सकता। उनके चेहरे पर गुस्सा है। भाभी के चुचके चेहरे पर गुस्सा आता है तो उनकी कुरूपता और भी बढ़ जाती है। बचपन में डाइन या चुड़ैल की जो कल्पना करता था, भाभी उसी का साक्षात प्रतिरूप नजर आती हैं। शायद यह गुस्सा खाना बनाते-बनाते तंग आ जाने के कारण है। कोर्इ और कार्य होता तो अब तक यह कभी का मेरी पत्नी के जिम्मे पड़ चुका होता। लेकिन भंडार का मामला। इसकी चाभी सौंपने का मतलब है, पूरी गृहस्थी का चार्ज सौंप देना, जो संभव नहीं है। भाभी एक थाली में कुछ रोटियां और शाम का बना साग रखकर मेरे आगे सरका देती हैं। ठंडे साग को गरम कर दिया होता तो एकाध रोटी और खार्इ जा सकती थी।
        बगल की कोठरी में पत्नी बड़ी लड़की को डांट रही है। मैंने कभी इन लड़कियों पर अपना प्यार प्रकट नहीं किया। सच तो यह है कि चौबीस साल की उम्र में तीन बच्चों का बाप हो गया हूं, यह सोचकर ही रोना आता है। दिल में आता है, मंड़हे में पूजा कर रहे बाप का शंख-घडि़याल उठाकर गड़ही में फेंक दूं। आखिर क्या अधिकार था उन्हें पांच साल की उम्र में मेरी शादी करने का? कभी-कभार पत्नी के सामने अपनी नसबंदी कराने का प्रस्ताव रखता हूं तो वह इतनी गमगीन हो जाती है, जैसे मैं उसका गला काटने का प्रस्ताव रख रहा होऊं। मेरी कमर के गिर्द लिपटी उसकी बांहें सुन्न पड़ जाती हैं। उसकी नजर में बैल बधिया करना और आदमी की नसबंदी करना एक ही बात है।
        उसे कितनी बार समझा चुका हूं कि दोनों में बहुत फर्क है। नसबंदी के बाद भी सब कुछ पहले जैसा ही होगा, सिर्फ बच्चे नहीं होंगे। वह आश्वस्त नहीं होती और पलटकर दूसरा तर्क करती है, '' कोर्इ लड़का तो होना चहिए, बेटियों से क्या होगा?'' यह तर्क मुझे भी वजनदार लगता है, लेकिन लड़का आएगा कब? वह कहती है, ''क्या पता इस बार...'' क्या घर, बाहर, हर जगह मैं फालतू माना जाने लगा हूं। मेरी बेटियां मुझे ''बाबू' (पिताजी) कहकर नहीं बुलातीं। बडे़ भार्इ साहब को वे 'बाबू' कहती हैं, क्योंकि बाजार से कोर्इ चीज लाने पर वे घर के सभी बच्चों में उसे बराबर-बराबर बांट देते हैं। इस उदारता के लिए उन्हें भाभी जी का प्रबल बिरोध सहना पड़ता है, पर उन्हें कोर्इ कुछ कहे, परवाह नहीं। सबेरे खेतों में जाते हैं तो एक घंटा रात बीते ही वापस आते हैं। दोपहरी खेत में गडे़ माचे पर ही काट देते हैं। कभी किसी फसल की रखवाली का समय हुआ तो दो-चार रातें भी माचे पर ही कट जाती हैं। हद दर्जे के शांत और मितभाषी। कभी किसी बात पर मेरी उनसे तकरार हुर्इ हो, याद नहीँ पड़ता। मैं घर से पूरी तरह विरक्त नहीं हो गया हूं, इसके पीछे उनकी भलमनसाहत का बहुत बड़ा हाथ है। इतने लंबे-चौडे़ डील-डौल वाले भार्इ साहब की यह परमहंसी मुद्रा आश्चर्य में डाल देती है।
        मैं आंगन में बैठकर हाथ-मुंह धोने लगता हूं। तभी रूक- रूककर रोती हुर्इ बड़ी बेटी, पत्नी के हाथ का भरपूर झापड़ खाकर चिल्लाते हुए एक हाथ में तख्ती-बस्ता और दूसरे हाथ में मिट्‌टी की दवात पकड़े बाहर की ओर भागती है। मैं बिना उसका कोर्इ नोटिस लिए मुंह पोंछता हुआ पत्नी की कोठरी में घुस जाता हूं। शायद मैं एकांत चाहता भी था। पत्नी अपना बक्सा खोलकर उसके सामने बैठी है। कुछ निकाल अथवा रख रही है। मुझे देखकर खड़ी हो जाती है। मौन, बड़ी-बड़ी आंखों से ताकने लगती है। जितनी उसकी जबान चुप है, आंखें उतनी ही मुखर। कुछ गुस्सा या खीज है, फिर भी कितनी स्निग्ध, कितनी आकर्षक! दिल में प्यार उमड़ पड़ता है। आगे बढ़कर बाहुपाश में घेर लेता हूं। वह पिघल जाती है। सिर मेरी छाती से टिका देती है। नतसिर। उसकी पीठ थपथपाते हुए पूछता हूं, ''शहर जा रहा हूं, कुछ मंगाना है?''
            ''बेटी के लिए किताब लेते आइएगा।''
            ''और! अपने लिए कुछ?''
            ''मेरे लिए क्या!'' वह अलग हो जाती है।
        मैं पिताजी के पीछे-पीछे मंड़हे में घुसते हुए कहता हूं, ''लाइए!'' पिताजी मुड़कर मेरी तरफ भरपूर नजरों से घूरते हैं। फिर टेंट से रूपए की थैली निकालने लगते हैं। उनकी नजर सामने कुएं पर लगी है, जहां मां पानी भर रही है। पिताजी नोट गिनते हैं- पूरे एक हजार। जब मां बाल्टी लेकर कुएं से चल पड़ती है तो नोटों को मेरे हाथ में रखते हैं और हाथ जोड़कर कहते हैं, ''इसके बाद भी अगर मेरा पिंड छोड़ दोगे तो समझूंगा, तुमने गयाजी में मेरा जीते-जी पिंडदान कर दिया।'' मैं बिना कुछ बोले रूपए लेकर चल पड़ता हूं। पीछे से पिताजी हिदायत देते हैं, ''वाजिब जगह पर खर्च करने से चूकना नहीं। दलाल को हर तरह से खुश कर लेना।''
         रास्ते में मां मिलती है, भरी हुर्इ बाल्टी लेकर, माथे पर ताजा सिंदूर लगाए हुए। मुझे टोकती है, ''जा रहे हो?'' इसका यह मतलब बिलकुल नहीं कि मां मेरे प्रति सहज हो गर्इ है। यह टोकना, माथे में सिंदूर लगाकर रास्ते में पानी से भरी बाल्टी लेकर मिलना, सब पिताजी द्वारा जुटाए गए सगुन हैं, मेरी यात्रा सफल बनाने के लिए। पिताजी ने इसी तरह मेरी जाने कितनी यात्राएं सफल बनाने के लिए सगुन का इंतजाम किया है, लेकिन....
        खेतों को पार करके सड़क पर आ जाता हूं और टैक्सी या बस की राह देखते हुए बस-अड्डे की तरफ बढ़ता हूं। आज मैं अपने नाम से सस्ते गल्ले की दुकान का लाइसेंस लेने शहर जा रहा हूं। सारा काम हो चुका है, सिर्फ अफसर के दस्तखत होने बाकी हैं, लेकिन इसी जरा-से काम के लिए बीस-इक्कीस दिन से दौड़-दौड़कर शहर जाना पड़ रहा है। अब जाकर समझ में आया है कि मैं अपनी ही गलती से परेशान हो रहा हूं, दलाल ने मुझ पर तरस खाकर समझाया था, ''मुफ्त में दस्तखत नहीं होते, मिस्टर! माना कि तुम अनइम्प्लायड ग्रैजुएट हो। तुम्हें प्रेफरेंस मिलना चाहिए, लेकिन इसी लाइसेंस के लिए समुझ बनिया डेढ़ हजार देने को तैयार है। साहब निरबंसिया तो हैं नहीं। अभी दो बहनों की शादी करनी है....बुरा न मानना। नाम तुम्हारा जरूर ज्ञान है, लेकिन अकल-ज्ञान का सारा रास्ता तुमने बंद कर रखा है।''
         ठीक कहा था दलाल ने। मेरे ज्ञान के रास्ते सचमुच बंद हैं। वह आठ सौ पर उतर आया था, लेकिन मुझे वे भी अधिक लगे थे। आज मिलने का वादा करके लौट आया था। पिताजी को बताया तो लगे गालियां देने, ''तुम्हें कभी अकल आ ही नहीं सकती ससुर के नाती। इस तरह के बिचकर्इ सबको नसीब होते हैं?...गदहे को भी चौदह साल पढ़ाया जाता तो आदमी बन जाता, लेकिन तू....''
        मुझे अपनी गलती समझ में आ गर्इ है। आज गलती नहीं करूंगा। बस या टैक्सी मिलने की उम्मीद न देखकर मैं इक्का पकड़ता हूं। धूप खुलकर निकल आर्इ है। रबी की फसल कट गर्इ है और सड़क के दोनों तरफ वीरान खेत फैले हैं। गेहूं की पीली खूंटियों-से पीले, महत्वाकांक्षाहीन! मेरे मन की तरह रीते और उदास!
         ''गुरूजी, नमस्कार!'' हाथ प्रत्युत्तर में जुड़ गए हैं, जी जुड़ गया है। लड़कों का साइकिल पर शहर से लौटता हुआ झुंड! पहचान लेता हूं। अपने पढ़ाए हुए लड़कों को कौन नहीं पहचानेगा! तीन-चार साल पहले जो चेहरे यतीमी लगते थे, शहर की हवा लगते ही चिकना गए हैं। जाते-जाते एक लड़का चिल्लाकर सूचित करता है, ''पंडितजी सस्पेंड हैं, गुरूजी!'' पंडितजी यानी प्रिंसिपल साहब। सस्पेंड! जरूर कोर्इ रूपए-पैसे का मामला होगा। पूरे विद्यालय को पता था कि मेरी प्रिंसिपल साहब से नहीं पटती। लड़के ने यह सूचना निश्चय ही मुझे खुशखबरी के तौर पर दी है।
        मेरा मन अतीत में लौट जाना चाहता है। ग्रैजुएट होने के बाद साल-भर भटकने पर भी मैं कहीं खप न सका तो घर वालों का धीरज छूटने लगा था। पिताजी आए दिन समझाते (गालियां देना तब शुरू नहीं किया था) कि इस तरह बेकार घूमना बेइज्जती की बात है... और जब मेरे प्रयासों से निराश हो गए तो स्वयं 'स्थानीय प्राइवेट हार्इ स्कूल' के मैनेजर-अध्यक्ष आदि के पीछे-पीछे घूमने लगे। आखिरकार मैं गणित अध्यापक हो गया। दस्तखत करने वाली तनख्वाह डेढ़ सौ और मिलने वाली पचहत्तर रूपए। 'मिलने वाली' से पांच रूपए प्रतिमाह अनिवार्य रूप से बिल्डिंग फंड में कट जाते थे।
        पिताजी को बहुत खुशी हुर्इ थी। रिश्तेदारों तथा पड़ोसियों को महीनों घेर-घेरकर बताते रहे थे कि ''देर से ही सही, लड़के को उसकी पढ़ार्इ-लिखार्इ के लिहाज से अच्छी जगह मिल गर्इ। तनख्वाह घट ही सही, लेकिन आगे बढ़ने का 'चानस' है। बी. एड. कर ले तो प्रिंसिपल तक हो सकता है।'' तनख्वाह मिलती कितनी है, इसे वे बड़ी सफार्इ से गोल कर जाते थे। कोर्इ बहुत कुरेदता तो तनिक अप्रकृतस्थ होकर कहते, ''दाल रोटी भर को मिल ही जाता है। और क्या रूपया गाड़कर रखना है? असल चीज है विद्यादान।''
         पर यह विद्यादान मैं अधिक दिनों तक नहीं कर सका। डेढ़ सौ पर दस्तखत करके सत्तर रूपए लेना अंदरूनी मामला था। इंटरवल में मैनेजर और अध्यक्ष के बेटे-बेटियों को नि:शुल्क ट्‌यूशन पढ़ाना तथा आठ पीरियड में से एक का भी 'वैकेंट' न रहना भी बहुत बुरा नहीं लगता था पर कुछ ऐसी स्थितियाँ भी आती थीं, जिन्हें झेल पाना असह्य हो उठता था। मैनेजर या अध्यक्ष के घर कोर्इ उत्सव होता तो स्कूल के अध्यापकों को वहां व्यवस्था संभालने के लिए पहुंचना होता था। वहां आए आगंतुकों में से कोर्इ यह जानना पसंद नहीं करता था कि आप एक हार्इ स्कूल के तथाकथित सम्मानित गुरूजन हैं। वैसे हर अध्यापक अपनी तरफ से यह प्रयास करता था कि उसकी स्थिति वहां काम कर रहे मजदूरों-कहारों से एक डिग्री ऊपर, उन पर निगरानी कर रहे सुपरवाइजरों जैसी मानी जाए, पर इस प्रयास में वे प्राय: असफल रहते थे। ऐसे मौकों पर विद्यालय के बच्चे भी दर्शक अथवा आमंत्रित के रूप में उपस्थित रहते थे। वे प्रत्येक क्रिया-कलाप और संवाद गौर से देखते-सुनते तथा अपने भाग्यविधाताओं के भाग्य के पेंदे तक पहुंच जाते थे। छठी-सातवीं कक्षा के बच्चे भी अच्छी तरह समझने लगे कि हम सब किराए के टट्‌टू हैं। उसमें भी कोढ़ में खाज हो गर्इ थी, स्कूल के मास्टरों की पार्टीबंदी। सवर्ण और निचली जातियों के आधार पर दो गुट बन गए थे। निम्नवर्ग वाले अपने-आपको 'दलित-पैंथर्स' के ग्रुप का मनाते थे और चूंकि 'दलित' शब्द से उन्हें एलर्जी थी तथा 'दलित' जितना दलित मानने में थोड़ा अपमान-सा भी लगता था, इसलिए 'दलित' की बजाय 'एंग्री' शब्द का इस्तेमाल करते थे। टीचर्स रूम की बहसों में खुलकर एक-दूसरे पर कीचड़ उछाला जाता। हरिजन मास्टर साहब तर्क करने में अद्वितीय थे। जाने कहां से सामग्री इकट्‌ठी कर और लियोनार्ड बूली, मैक्समूलर, गिल्गमेश, ओल्ड टेस्टामंट, हिब्रू, ऊर, मीडियन, जरथुष्ट्र आदि शब्दों का भयंकर प्रयोग करके अंत में यह सिद्ध कर देते थे कि मूल ब्राहमण जाति तो कब की विलुप्त हो चुकी है। भारत के मौजूदा ब्राहमण तो सिकंदर के साथ यूनान से आए भिश्तियों की औलाद हैं।
          इसके प्रत्युत्तर में मिश्रा जी मूंछों में मंद-मंद मुस्कराते हुए तर्क देते कि कायदे से तो हरिजन मास्टर साहब 'दलित पैंथर्स' के सदस्य ही नहीं हो सकते। क्योंकि यद्यपि उस समय तक उनका (मिश्रा जी का) जन्म नहीं हो सका था पर परवर्ती सूचनाओं से यह सिद्ध होता है कि हरिजन मास्टर साहब का जन्म उनके पिता की मृत्यु    के पूरे एक साल-भर बाद हुआ था। तुलसीदास आदि के जन्म का हवाला देने के बावजूद हरिजन मास्टर साहब की यह बात मानने के लिए कोर्इ तैयार नहीं होता था कि पैदा होने में वे थोड़ा लेट हो गए थे। मिश्रा जी के इस तर्क का उनके पास कोर्इ जवाब नहीं बन पाता था कि जो आदमी स्कूल में छह घंटे नहीं टिक पाता, वह वहाँ बारह महीने कैसे टिका रह गया? इम्पासिबल।
            फिर तो महाभारत ही शुरू हो जाता।
         और तब अपने ऑफिस से निकलते प्रिंसिपल साहब! उनका ऑफिस कहीं दूर नहीं था। रेवेन्यू रेकार्ड में बीस फीट लंबा दालाननुमा जो कमरा पंचायत-घर के रूप में दर्ज था, उसी के 14 फीट के हिस्से को टीचर्स रूम और पांच फीट के हिस्से को प्रिंसिपल ऑफिस बना दिया गया था। बीच में एक फुट मोटी और साढे़ तीन फीट ऊंची कच्ची र्इंटों की दीवार। बीच के दरवाजे में कोर्इ पर्दा या किवाड़ नहीं था। सिर्फ मानसिक अलगाव किया गया था। और एक तरफ की हर गतिविधि का अवलोकन दूसरी तरफ खडे़ होकर ही नहीं, लेटे-लेटे भी सुविधापूर्वक किया जा सकता था। प्रिंसिपल ऑफिस में या तो एक चारपार्इ पड़ सकती थी या एक कुर्सी-मेज। प्रिंसिपल साहब ने चारपार्इ को वरीयता दी थी।
          प्रिंसिपल साहब इसलिए नहीं निकलते थे कि दोनों गुटों में सुलह करा दें। उन्हें तो मजबूरन निकलना पड़ता था, क्योंकि शोर के कारण उनका पोस्ते के छिलके का नशा फिसलने लगता था। उनकी दशा 'चकित चकत्ता चौंकि-चौंकि उठै बार-बार' वाली हो जाती थी। कुछ देर तक वे प्रिंसिपल ऑफिस और टीचर्स रूम के संधि-द्वार पर खडे़ रहते। एक-एक चेहरे को बारी-बारी से घूरते। फिर खंखारकर थूकते। तब तक लोग बनावटी लिहाज से शांत होने लगते । वे वापस जाकर फिर औंधे मुंह चारपार्इ पर गिर पड़ते। हरिजन मास्टर साहब बताते थे कि जब प्रिंसिपल साहब इस औंधी मुद्रा में पडे़ होते हैं तो उनके मुंह से प्रति घंटे सौ से दो सौ ग्राम तक राल निकलकर तकिया में जज्ब होती रहती है। यही कारण है कि गर्मी में तकिया तर रहता है, और ठंडक पहुंचता है।
         उस समय तक 'सिद्धांत' शब्द से मेरा मोह टूटा नहीं था। अन्य मास्टर लोग भी अपनें आपको कम सिद्धांतवादी नहीं मानते थे। अंतर यह था कि जहां और लोग सिद्धांत को 'शोकेस' में रखते थे, मैं कभी-कभी उसका 'रफ यूज' करने लगता था। जिस घटना के कारण मुझे विद्यालय छोड़ना पड़ा, उस समय भी यही हुआ था। घटना सत्रावसान के दिन की है। विद्यालय में छठे, सातवें और नौवें दर्जे का रिजल्ट सुनाया जा चुका था। कुछ स्पेशल केस से संबंधित लड़के, जिनमें कुछ दो-चार नंबरों से फेल हो रहे थे और कुछ, जो निर्धारित गुरू-दक्षिणा की रकम अभी तक नहीं दे सके थे, रोक लिए गए थे। प्रिंसिपल साहब देर तक उन्हें उनके सीरियस केस के बारे में और गुरू-दक्षिणा की महिमा के बारे में समझाते रहे थे कि वे नहीं चाहते कि उनके हाथों किसी का भविष्य अंधकारमय हो जाए। उनके तो जीवन का मंत्र ही है- तमसो मा ज्योतिर्गमय, लेकिन छात्रों को भी गुरू का ध्यान रखना होगा। वे कोर्इ उंगली-अंगूठा तो मांग नहीं रहे हैं....
           सारी गुरू दक्षिणा वसूलते और हिसाब-किताब करते शाम के चार बज गए। कुल सात सौ बयालीस रूपए चढे़ थे, जैसा कि प्रिंसिपल साहब ने घोषित किया, किंतु 'एंग्री पैंथर्स' के सदस्यों ने आरोप लगाया कि घोषित राशि मूल राशि से काफी कम है, किंतु गुरू-दक्षिणा के लिए वहां कोर्इ कमेटी गठित नहीं थी, इसलिए काफी बकझक के बाद घोषित राशि ही मूल राशि मान ली गर्इ। तब प्रिंसिपल साहब ने घोषणा की कि इसमें से बयालीस रूपए वे संयुक्त हिंदू परिवार की प्राचीन परंपरा के अनुसार ज्येष्ठांश के रूप में अपने पास रख लेते हैं। शेष सात सौ रूपए बांटने के लिए उन्होंने मुझे आमंत्रित किया। मैंने दोपहर में एक लड़के को कहते सुन लिया था, ''साले, इसी 'पास करार्इ' वाले रूपए से एकाध कुर्ता-पैजामा बनवा लेंगे। फिर उसी को साल भर रेतेंगे।'' मेरा मुंह कड़वा हो चुका था। अत: मैंने घोषणा कर दी, ''चूंकि अधिकांश रूपया जबरदस्ती बसूला गया है और इसमें से तिरस्कार और अपमान की बू आ रही है, इसलिए यह रूपया मैं छुऊंगा भी नहीं, हिस्सा लेना तो दूर रहा।''
          मेरी घोषणा से प्रिंसिपल साहब की मुद्रा परमहंसी हो गर्इ। उन्होंने कोर्इ दुख नहीं प्रकट किया। खुशी हुर्इ होगी तो उसे भी दबा गए। धीर भाव से नोटों को नाक तक ले जाकर सूंघा, आश्वस्त हुए कि कोर्इ बू नहीं आ रही है और घोषणा की कि ऐसी स्थिति में त्यागी गर्इ इस समस्त राशि पर श्रेष्ठ ब्राहमण का हक होता है। अत: उनके हिस्से का रूपया मैं लेता हूं।
         इस घोषणा से शेष ब्राहमण, एंग्री पैंथर्स और अन्य सवर्ण सभी भड़क उठे। आरोप-प्रत्यारोप के मध्य चाक -डस्टर फेंके जाने लगे। जो दो-चार लड़के अभी तक विद्यालय में रूके हुए थे, वे खिड़की के रास्ते कंकर -पत्थर सप्लार्इ करके गुरूजनों की मदद करने लगे। कुहराम मच गया।
        दूसरे दिन प्रचार हो गया कि गुरू-दक्षिणा का रूपया हड़पने का प्रयास करने के फलस्वरूप अध्यापकों ने मेरी जमकर पिटार्इ की है और लोगों ने अध्यापकों को आचार-संहिता बताना शुरू कर दिया।
         जून में जब मैनेजमेंट की मीटिंग में मुझसे इस संबंध में स्पष्टीकरण मांगा गया तो मैंने उत्तर में इस्तीफा भेज दिया। पिताजी को मेरे इस्तीफे का पता चला तो लगे गालियां देने, ''साला, लाट साहब बनना चाहता है। दाने-दाने को न तरस गया तो कहना!'' 
        गालियों के प्रति मैं बचपन से ही उदासीन था। गाली से ज्यादा तरजीर पीटे जाने को देता रहा हूं, जिसकी संभावना अब नहीं के बराबर थी।
      शहर पहुंचकर इक्का रूकता है तो मेरी तंद्रा टूटती है। मैं उतरकर सप्लार्इ ऑफिस पहुंचता हूं। दलाल गोपीचंद प्रांगण में ही मिल जाता है। मेरी नमस्ते का बड़ी उदासीनता से जवाब देता है, लेकिन जब कोने में ले जाकर मैं उसे आठ सौ रूपए देता हूं तो उसकी उदासीनता गायब हो जाती है। वह हरकत में आ जाता है। मुझे ले जाकर जबरदस्ती चाय पिलाता है और फिर बाहर प्रतीक्षा करने को कहकर दफ्तर के अंदर चला जाता है। मैं एक खाली बेंच पर पसर जाता हूं। आंखों में पुराने दृश्य घूमने लगते हैं।
         मास्टरी छोड़ने के बाद घर में मेरी रही-सही साख भी समाप्त हो गर्इ थी। हर सदस्य मुझसे पहले से अधिक दूर हो गया। पिताजी ने साबुन, तेल, स्याही और कागज तक का पैसा देना बंद कर दिया। मुझे अपने कपडे़ साबुन की बजाय रेह से धोने पड़ते। दर्जा आठ तक तौ मैं वैसे ही रेह से कपड़े धोता रहा था, लेकिन ग्रैजुएट हो जाने के बाद भी आठ आने का साबुन न खरीद पाने की मजबूरी मुझे कभी-कभी अंदर से तोड़ने लगती। कमीज मेरे पास, जब से मैंने कमीज पहनना सीखा, तब से हमेशा एक ही रही है। पहले तो कभी-कभी ऐसा भी होता था कि पुरानी कमीज के पूरी तरह फट जाने और नर्इ कमीज के सिलकर तैयार होने के बीच तीन-चार दिन का अंतर पड़ जाता था। ये तीन-चार दिन बिना कमीज के ही निकल जाते थे। बनियान को हमेशा कमीज के बराबर का दर्जा मिलता आया था और एक ही साथ कमीज और बनियान दोनों पहनकर फाड़ने की मूर्खता हमारे यहां आज भी कोर्इ नहीं करता। हां, डिग्री कालेज में नाम लिखाने तक हवार्इ चप्पल पहनने की आदत पड़ गर्इ थी। इन दिनों जबकि पुरानी चप्पल के टूटे पट्‌टे बार-बार सिलवाते-सिलवाते सड़ गए थे और जेब में एक भी पैसा नहीं था। नंगे पैर पोस्ट-ऑफिस अथवा बाजार जाने में कुछ झेंप लगने लगी थी। यद्यपि इस झेंप के लिए कभी-कभी में स्वयं को कोसता भी था। मुझे कभी-कभी लगता कि ये सारे अभाव मुझे जबरदस्ती महानता की तरफ ढकेलकर ले जा रहे हैं। मैं महान लोगों की जीवनी पढ़ने लगा। पढ़ते-पढ़ते हिसाब लगाता कि इनमें से कितने लोग मेरी गांव में पैदा हुए थे और कितनों का बचपन अभाव में बीता था तो यह संख्या काफी अधिक होती। तब मेरा हृदय नर्इ आशा और विश्वास से भर जाता। ऐसे समय जबकि मैं मानसिक रूप से व्यग्र रहता, पत्नी से सहवास को भी व्याकुल रहता। पत्नी मेरी मुफलिसी से पूरी-पूरी असंतुष्ट थी, फिर भी बिना किसी खास एतराज के खुद को मेरे लिए प्रस्तुत करती रहती थी, लेकिन जब-जब मेरी नजर उसके फटे और मैले-कुचैले कपड़ो पर पड़ती, मैं अपराध-बोध से गड़ जाता। उसे चुपचाप भाभीजी के ताने सुनते देखता तो लगता, पूरे घर को अभी, इसी वक्त आग लगा दूं। मां का रूख उस समय तक इतना आक्रामक नहीं हुआ था, न उसके प्रति, न मेरे प्रति, लेकिन धीरे-धीरे आत्मनिर्भरता की अनिवार्यता मेरी समझ में आने लगी थी।
       इसी बीच इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में अध्ययनरत मेरा एक दोस्त एक दिन 'क्लर्क्स ग्रेड परीक्षा' का आवेदन-पत्र लेकर आया। वह ओवरएज हो चुका था। मुझसे कहा कि भरना चाहूं तो भर दूं, फीस वह दे देगा। मैंने फार्म भर दिया। बाद में कर्इ जगह और कर्इ माध्यमों से पूछताछ करने पर यू.पी.एस.सी. तथा प्रांतीय लोक-सेवा आयोग के कार्यो और उद्देश्यों के संबंध में जानकारी प्राप्त हुर्इ। यह मेरी ही नहीं, मेरी तरह उन हजारों-हजार ग्रामीण स्नातकों की नियति है, जो बिना शहर का मुंह देखे, जंगल या गांव के बाजार में स्थित डिग्री कालेजों में डिग्री प्राप्त करते हैं। आगे की कड़ी के रूप में वे केवल बी.एड., एल.टी. या एल-एल.बी. का नाम ही जान पाते हैं। शिक्षा और रोजगार के बीच की कड़ी यू.पी.एस.सी. के बारे में जानकारी देने वाला वहां कोर्इ नहीं है।
         मैनें परीक्षा दी और चुन लिया गया। सालों बाद ज्वाइनिंग लेटर मिला तो लगा, राजगद्दी का परवाना आया है। सोचा था, किसी को भी नहीं बताऊंगा। बहुत तंग किया है घर वालों ने। चुपचाप बिना बताए इनकी दुनिया से दूर चला जाऊंगा, लेकिन जब से पोस्टमैन रजिस्ट्री दे गया, पिताजी ने पूछते-पूछते कान बहरे कर दिए, ''ससुरा बताता भी नहीं कि कैसा कागज-पत्तर है? कुछ बोले भी कि कहां से आया है, क्या लिखा है?''
         मैंने बताया तो उनका मुंह खुशी से खुला-का-खुला रह गया। पान की पीक दाढ़ी तक बह निकली। संक्षेप में उन्होंने उस नौकरी में मिलने वाली तनख्वाह, काम के प्रकार (अर्थात कलम पकड़नी पडे़गी या कुदाल) तथा ऊपरी आमदनी के बारे में पूछा ओर सिर पर पगड़ी लपेटकर गांव वालों को खबर देने निकल गए। मैं पलक झपकते सबका दुलारा हो गया। होनहार हो गया। मां ने अपने हाथ से परोसकर खाना खिलाया। भाभी ने खाने के साथ दूध का गिलास देकर और पत्नी ने रात में सारे शरीर की मालिश करके और बीसों उंगलियां चटकाकर अपनी प्रसन्नता व्यक्त की। उस रात उसने मेरी कमर को इतने जोर से अपनी भुजाओं में कसकर दबाया था कि याद करने पर आज भी दर्द होने लगता है। बडे़ भैया ने यद्यपि अपनी खुशी का कोर्इ स्थूल प्रमाण नहीं दिया, लेकिन उस रात माचे से उनके गाने की आवाज बहुत देर तक आती रही थी।    
          पिताजी को कोर्इ न मिलता तो अपने आप ही बड़बड़ाते, ''बचपन से ही इसके राजयोग थे। अयोध्याजी के पंडा महाराज ने हाथ देखते ही कहा था, लड़का ओहदेदार होगा। स्कूल का मुंह नहीं देखा था, तभी पूरा 'हनुमानचालीसा' जबानी याद कर लिया था...छटांक-छटांक देशी घी दाल में डालकर पिलाया है जी। गांव में और किसी लड़के को सरकार ने रजिस्ट्री भेजकर बुलाया कभी! राजकाज चलाना सबके वश की बात नहीं होती।''
          जाते समय पिताजी ने महीने-भर के खर्च के लिए चार सौ रूपए दिए थे। दो सूती कमीजें और पैंट सिला दिया था। मां ने अचार, सत्तू, देशी घी, चबेना, गुड़, आलू-प्याज आदि बांध दिया था। बडे़ भैया वह सारा गट्‌ठर ढोकर बस-अड्डे तक लाए थे। बडे़ खुश थे, पर पैर नहीं छूने दिया। सिर्फ इतना कहा था, ''चिट्‌ठी जल्दी देना।'' और मैं बडे़ हौसले से केंद्रीय सचिवालय की नौकरी के लिए दिल्ली चल पड़ा था।
          सचिवालय की दुनिया में आने के बाद मैंने पहली बार महसूस किया कि गांव को मैं कितना प्यार करता हूं। गांव मेरे रोम-रोम में बस गया है, यह गांव छोड़ने के बाद जाना। मुझे दफ्तर में भी गांव के ताल, भीटें, बाग, ऊसर-बंजर, ढकुलाही, बंसवारी और रूसहनी की याद सताती, जैसे जंगली तोता पिंजडे़ में बंद हो गया हो। मैं अपने गांव के एक ग्वाले के साथ उसके मालिक के तबेले में रहता था। शाम को वह दूध देने निकल जाता तो मैं कभी-कभी रोने लगता।
          जैसे-जैसे मैं अपने शहरी सहयोगियों से घुसला-मिलता गया, मुझे उनसे विरक्ति होती गर्इ। सचिवालय मुझे ऐसा चिडि़याघर नजर आता, जहां एक ही किस्म की चिडि़यां कैद की गर्इ हों, जिन्हें चेहरे से पहचानना संभव न हो। मैं इन लोगों को चेहरे से नहीं, बल्कि इनके कपड़ों से पहानता था। लोग गांव के लोगों को कूपमंडूक कहते हैं, पर मुझे तो अपने दफ्तर में भी कम कपमंडूक नजर नहीं आए। दिल्ली में रहते हुए भी उनमें से अधिकांश ने कभी कुतुबमीनार, राजघाट या शांतिवन नहीं देखा था। सबकी दुनिया नितांत सीमित थी, दफ्तर और परिवार, बीच में कुछ नहीं। कोर्इ गाजियाबाद से भागता आता तो कोर्इ शाहदरा और सोनीपत से। महीने के मध्य से ही उधार मांगने का क्रम शुरू हो जाता। बहुतों को तो यह भी नहीं पता था कि चने का पेड़ बड़ा होता है या अरहर का।
          अनुशासन और व्यवस्था के नाम पर सब अपने बास के हाथ की कठपुतली बने रहते थे। जिसको वह अपने केबिन में बुलवाता, उसके दिल की धड़कन बढ़ जाती। अंदर घुसने से पहले अंदर के वातावरण की गंध पाने के लिए चपरासी को बीड़ी आफर करने लगता। बास का बात-व्यवहार का तरीका था भी बहुत भयावह। यहां बास की गुडबुक में होना इस बात पर निर्भर नहीं था कि आप कितने हार्ड-वर्कर हैं बल्कि इस बात पर कि आप कितनी चापलूसी कर लेते हैं, उससे कितना ज्यादा डरते और कितनी कम बातें करते हैं। उसके जायज-नजायज गुस्से को कितनी सहजता से 'सुखे-दुखे समे कृत्या' के भाव से सिर झुकाकर स्वीकार करते हैं।
           शुरू-शुरू में तो मुझे यह चाटुकारिता और अकारण भय-प्रदर्शन निहायत नागवार लगा, किंतु धीरे-धीरे समझौतावादी होने की कोशिश करने लगा। झूठ-मूठ भय-प्रदर्शन तो कोर्इ मेरा गला काटने पर उतारू हो, तब भी नहीं कर सकता। हां, एक-दो बार छोटी-मोटी भेंट लेकर बॉस  के बंगले पर जरूर गया। मुझे उम्मीद थी कि अपने अंत:करण की आवाज के विरूद्ध की जाने वाली इस नीचता से मेरे मन में जो मलाल आया है, उसे बॉस अपनी स्वागत मुसकान से दूर कर देगा। संबंध नार्मल हो जाएंगे, लेकिन बॉस तो मेरी उपस्थिति में भी मेरी बजाय अपने कुत्ते से बात करने में रूचि लेता था। मूझसे कभी बोलता भी तो यही कि अभी तुम्हारा काम संतोषजनक नहीं है। मत भूलो कि तुम प्रोबेशन पर हो और तुम्हारी नौकरी मेरे रिमार्क पर निर्भर है। मुझे लगता कि यह तो साफ-साफ धमकी दे रहा है, अकारण। कुत्ते की तरह पूंछ हिलाने पर उतारू भी हुआ तो उसका यह नतीजा। मन खट्‌टा हो गया। बॉस के बंगले पर जाना ही बंद कर दिया। वह इंतजार करता रहा कि मेरा रवैया सुधरेगा, लेकिन कुत्ते की पूंछ भी कभी सीधी हुर्इ है! एक दिन किसी मामूली भूल पर उसने मुझे अपने केबिन में बुलाकर जोर से डांट दिया। मैंने चुप रहने का निश्चय किया था, लेकिन बॉस ने इसे मेरी कायरता समझा और कुछ ऐसा भाव प्रदर्शित करने लगा कि अगर मैं केबिन से निकलकर तुरंत ही भाग नहीं गया तो वह जूते उतारकर मुझे पीटना शुरू कर देगा। मैं इस हद तक सह सकने के लिए अपने आपको तैयार नहीं कर सका, इसलिए जब गुस्से में जूते पटकता हुआ वह मेरे मुंह के पास अपना मुंह लाकर चिल्लाया, 'गेट आ-उ-ट...' तो मेरे अंदर सोया गंवार भड़क उठा। मैंने उसकी तोता-टाइप नाक पर कसकर एक घूंसा जमाया...भच्च!तल-तल करके उसके नाक-मुंह से खून बहने लगा। वह चिल्लाया। लोग इकट्‌ठा हो गए... और एक लंबी पूछताछ और स्पष्टीकरणों की औपचारिकता के बाद मुझे एक महीने का अग्रिम वेतन देकर नौकरी से निकाल दिया गया।
           घर वाले मेरे आकस्मिक आगमन पर किंचित चकित हुए और फिर स्वागत में जुट गए। मां ने शिकायत की कि दुबला हो गया हूं। भाभी ने खीर खिलार्इ। बड़ी बेटी ने सौ तक गिनती सुनार्इ। गांव में घूमने निकला तो गांव की औरतें किंचित संभ्रम, किंचित कुतूहल और किंचित आदर का पुट देकर कानाफूसी करने लगीं, ''दिल्ली में नौकरी पार्इ है गौरमिंट के दफ्तर में।'' रात में पत्नी ने नौ बजते-बजते ही काम समाप्त करके कोठरी में सेज सजा दी और दिलोजान से समर्पित हुर्इ। चरम बिंदु पर पहुंचते-पहुंचते उसने किंचित लाज और मान-भरे स्वर में कहा, ''इस बार मुझे भी ले चलिए अपने साथ। कब तक यहां सडूंगी। आज तक मैंने कभी शहर नहीं देखा है।'' मैं रस-भंग नहीं करना चाहता था। चुंबनों की बौछार से उसका मुंह बंद कर दिया।
           हिम्मत नहीं पड़ रही थी कि पिताजी को सारी बातें बताऊ। लेकिन पिताजी की नजरें तो गीध से भी तेज हैं। दूसरे दिन से ही पूछने लगे, ''कितने दिन की छुट्टी लेकर आए हो?'' तीसरे दिन मैंने शाम को खेतों में भार्इ साहब को डरते-डरते सारी बात बता दी। उनके चेहरे पर कोर्इ परिवर्तन नहीं आया। उन्होंने कहा, ''मैं चना उखाड़कर लाता हूं, तुम माचे से माचिस लाओ तो होरहा भूना जाए।''
          चौथे दिन ही घर, पड़ोस और फिर पूरे गांव की नजरों में नालायक हो गया। औरतें परस्पर बातें करने लगीं, ''गौरमिंट ने निकाल बाहर किया। कहा, चसमा-ठोंका लगाने वाला लड़का नहीं चाहिए। क्या पता, कब पूरा आन्हर हो जाए।'' पिताजी ने बिना एक दिन की भी मोहलत दिए गालियां देना शुरू कर दिया, ''मेहरा, साला! आवारा, लोफर! जोरू के बगैर नहीं रह सकता था तो मैंने कौन उसे गिरवी रख लिया था। ले जाता साथ में बनरी नचाने के लिए उसे भी।'' और अंत में, गाली देते हुए भविष्यवाणी की थी, ''साले तरार्इ में गुह गोड़ोगे और चमाइन फांसोगे। आखिर हो तो मेरे ही बेटे।'' सच, यह जानकर कि उन्हीं का बेटा हूं, बड़ी राहत मिली थी। स्कूल की मास्टरी छोड़ी थी तो इन्होंने घोषणा कर दी थी कि मैं इनका बेटा हो ही नहीं सकता, क्योंकि इनका बेटा इतना बुद्धू नहीं हो सकता। आज की घोषणा से सारा मलाल मिट गया। वैसे असली बाप का या हरामी का बेटा होने की बात मेरी नजर में कोर्इ खास अहमियत नहीं रखती। दुनिया में आना ही था। इनकी कोशिश से आते या किसी और की!
           पिताजी हमेशा दो मुंहे सांप रहे हैं। उनका एक मुंह खुलता, जब आस-पास कोर्इ पराया नहीं होता। उस मुंह से वे लगातार मेरी बुरार्इ करते। दूसरा मुंह खुलता, जब पास में कोर्इ परिचित या रिश्तेदार बैठा होता। यह मुंह मेरी बुराइयों को इतनी खूबी से अच्छाइयों में परिवर्तित कर देता कि सुनकर खुद मुझे आश्चर्य होता, ''मैं तो भर्इ बस, एक बात जानता हूं। जान जाए तो जाए, शान न जाने पाए। मेरे बेटे ने वही प्रत्यक्ष करके दिखा दिया। क्या नाम...वह इसका साहब ससुर। जाति का बनिया था। उसकी डांट-डपट तो मेरा बेटा सहने से रहा। दे दिया कसकर एक लात पेट में। फच्च-से मुंह से खून फेंक दिया। तीन दिन तक अस्पताल में होश ही नहीं आ रहा था। यह इस्तीफा देने लगा तो उस साहब के ऊपर वाले साहब ने कहा, ''तुम रहो ज्ञान, मैं इस साहब को ही निकाल बाहर करता हूं,' लेकिन मेरे बेटे ने भी चालीस सेर का जवाब दिया, 'इसको निकालोगे तो इसके बच्चे भूखों मर जाएंगे साहब! मेरा क्या, गांव में मूंछ ऐंठकर खेती करूंगा और भाले में तेल लगाकर घूमूंगा।'' फिर विषय की गंभीरता को थोड़ा हल्का करने के लिए पश्चाताप-भरे स्वर में कहते, ''ससुरा, शहर में जाकर मूंछें साफ कर आया, यही बेजा किया। शहर में रहकर तो आदमी सचमुच हिजड़ा बन जाता है। अच्छा ही हुआ...'' लेकिन उस बाहरी आदमी के हटते ही वह मुंह बंद हो जाता और अकेला होते ही वे फिर गालियां देना शुरू कर देते।
          आज सोचता हूं तो पश्चाताप होता है अपनी करनी पर, लेकिन गुस्सा आता है उन शिक्षाशास्त्रियों पर, जो आज भी स्कूलों-कालेजों में महाराणा प्रताप, शिवाजी, चंद्रशेखर आजाद, भगतसिंह और नेताजी को पढ़ाते हैं, बच्चे के कच्चे मन पर राणा और आजाद की नुकीली मुंछें और गज-भर की छाती, भगतसिंह का टोप और नेताजी की सैनिक छवि इतनी गहरार्इ तक घुस जाती है कि प्रौढ़ होने पर आज के गर्हित यथार्थ जीवन के साथ स्वयं को समायोजित करने के दौरान उसे भीषण मानसिक यंत्रणा से गुजरना पड़ता है। कभी-कभी तो इसी कशमकश में वह मेरी तरह टूट जाता है। माना कि समाज को बदलना कठिन है, पर टेक्स्ट बुक्स को बदलना तो मुश्किल नहीं! क्यों नहीं आज के बच्चों को ब्रूटस, कार्नेलिया, जयचंद, विभीषण, आम्भि आदि सामंतयुगीन चारणों तथा अन्य विश्वासघातियों, अवसरवादियों और चाटुकारों के चरित्र पढ़ाए जाते, जो उनके यथार्थ जीवन की समस्याओं को हल करने में सहायक हो सकें? यथार्थ को बदलना कठिन है, लेकिन आदर्श बदलने में क्या लगता है!
            दिल्ली में काटे गए चंद महीनों तथा घर में मिलने वाले तिरस्कार  ने पैसे के प्रति मेरा  दृष्टिकोण बदल दिया। मैंने निश्चय किया कि मुझे पैसा कमाना है। कर्इ योजनाएं तथा फ्राड दिमाग में आते रहे, जाते रहे। संयोग से इसी बीच गांव के पुराने सस्ते गल्ले के लाइसेंसी का लाइसेंस रद्द हुआ तो पिताजी ने मुझसे भी अप्लार्इ करवा दिया।
           लगा कि कोर्इ जोर-जोर से झिंझोड़ रहा है। आंख खुली तो सामने गोपीचंद खड़ा था। लाइसेन्स का पेपर देते हुए बोला, ''नए हो, इसलिए साफ-साफ बता रहा हूं। अकेले चीनी के ब्लैक में ही हर महीने तीन हजार की बचत है। मौके पर 'नामा' ही काम आता है। किसी दिन साहब से जाकर 'परसनली' मिल लो। सारी बात साफ-साफ रहे तो ठीक रहता है। अपने इलाके के दरोगा, बी.डी.ओ. तथा और भी जो दो-चार मुहलगे कुत्ते हों, उन्हें दो-चार किलो देकर पटाए रहो, बस! सीधी-सी बात है, जिसके काटने का डर हो, उसका मुंह बंद कर दो। साला काटेगा किधर से?.... साल-भर में बिल्डिंग खड़ी हो जाएगी।''
            वह उठता है तो मैं भी उठकर बाहर की तरफ चल पड़ता हूं। बहुत ठोकर खाने के बाद आज किनारा मिला है। आदर्शवाद के चलते अब तक जीवन के हर क्षेत्र में 'मिसफिट' होता रहा हूं। अब जाकर अक्ल आर्इ है रास्ते पर। मैं पैर की ठोकर मारकर सारे आदर्शवाद को चूर-चूर कर देना चाहता हूं...बिल्डिंग! साल-भर में! मुझे अभी से अपने कच्चे मकान की जगह तिमंजिली बिल्डिंग नजर आने लगी है- पीली-पीली! बालकनी में शायद मेरी पत्नी खड़ी है....
         पत्नी की याद आते ही उसकी बड़ी-बड़ी आंखें याद आती हैं। सुबह चलते समय पूछा था, ''क्या-क्या मंगाना है शहर से अपने लिए?'' तो बोली थी, ''मेरे लिए क्या?'' आजकल वह ऐसे ही बोलती है। एक समय वह भी था, जब नर्इ-नर्इ ब्याह कर आर्इ थी तो रात में बड़ी महत्वपूर्ण जगह से मेरा हाथ हटाते हुए शिकायत करती थी, ''प्यार इतना जताते हो, लेकिन एक चोली (ब्रेजियर) तक लाकर नहीं दे सकते।'' पर मैं भी ऐसा बेहया था कि सालों तक फरमाइश सुनने के बाद भी उसे एक चोली लाकर नहीं दे सका। उसे फुसलाने के लिए तर्क करता कि चोली की जरूरत उन्हें होती है जिनकी छातियां लत्ता होकर लटकने लगती हैं। तुम्हें उसकी क्या जरूरत है? मेरी प्रशंसा गलत नहीं है। तीन-तीन बच्चे होने के बावजूद आज भी उसके स्तन तनिक भी श्रीहीन अथवा नतमुख नहीं हुए हैं। कभी-कभी तो उसके और अपने स्वास्थ्य की तुलना से मुझे खुद शर्म-सी आने लगती है। वह तो इस अंतर को अब जरूरत से ज्यादा महत्व देने लगी है। उसके अनुसार तीनों की तीनों लड़कियाँ होने का एकमात्र जिम्मेदार मेरा उससे उन्नीस स्वास्थ्य है। इसके मामले में उसका गणित एकदम सीधा है। उसके अनुसार यदि पति तगड़ा है तो लड़का होगा, पत्नी तगड़ी है तो लड़की। इसे वह भार्इ साहब का उदाहरण देकर बखूबी सिद्ध कर देती है। मुझे चोरी से दूध पिलाने का उद्देश्य भी यही है कि अधिक स्वस्थ होकर मैं उसे एक बेटा दे सकूं। मैं उसे एक्स और वार्इ क्रोमोसोम्स तथा सेक्स क्रोमोसोम के तेर्इसवें जोडे़ के बारे में बताना चाहता हूं तो वह समझती है कि मैं बेवकूफ बना रहा हूं। बेटा पैदा करके घर भर की नजरों में चढ़ जाने की उसकी कामना इतनी तीव्र है, इसका पता मुझे कभी न लगता, अगर उस दिन...
         उस दिन मां और पिताजी गंगास्नान के लिए गए हुए थे। भाभी एक हफ्ते पहले भार्इ साहब से लड़कर मायके चली गर्इ थीं। मैं इसी लाइसेंस के चक्कर में शहर जाने निकला तो दस बजने वाले थे। उस समय भार्इ साहब मंड़हे में बैठे खांची बुन रहे थे। दो घंटे तक अड्डे पर सवारी का इंतजार करने के बाद दिल में पता नहीं क्या आया कि मैं वापस लौट पड़ा। दरअसल आज घर सूना पाकर में उन्मुक्त होकर पत्नी को पा लेना चाहता था। महीनों बाहर सोने के कारण शरीर सुस्त और भारी हो रहा था। उम्मीद थी कि अब तक भार्इ साहब खा-पीकर खेत पर चले गए होंगे। सूना आंगन होगा, बंद किवाड़। इतना निरापद एकांत कभी-कभी ही मिलता है। जाते समय मैंने पत्नी की आंखो में एक खास चमक देखी थी, जैसे शिकार पर नजर जमाए बिल्ली की आंखों में उतर आती है, नीली-नीली! सज-संवर भी रही थी सवेरे से ही। शायद चार-छह दिन पहले ही ऋतुमती हुर्इ थी। मैं बेताब होने लगा।
           मंड़हे में खांची अधूरी पड़ी थी। भार्इ साहब नहीं थे, आश्वस्त हुआ। एडवेंचर का आनंद लेते हुए आहिस्ते-आहिस्ते आंगन में जाकर पत्नी की कोठरी के बंद किवाड़ों के आगे खड़ा हो गया और सोचने लगा कि किस तरह उसे चौंकाऊं, तभी किवाड़ खुले और भार्इ साहब पसीना पोंछते हुए बाहर निकले। मुझे सामने पाकर हतप्रभ हुए और आंख चुराकर बगल से बाहर निकल गए। कोठरी के अंदर से बाहर आते हुए मेरी पत्नी की नजर मुझ पर पड़ी तो वह पथरा गर्इ। मैंने स्पष्ट देखा, उसके गालों पर और अधरों के नीचे दांत काटने के निशान थे। कपड़े अस्त-व्यस्त थे। सांस तेज थी। देखते-देखते मुझे उसकी आंखों का पानी बदलता नजर आया। अब वह मुझे घूर रही थी। मेरी समझ में नही आया कि मुझे क्या करना चाहिए। मैं बाहर निकल गया और रात देर तक परती खेतों में टहलता रहा। कर्इ दिनों बाद पत्नी ने स्वीकार किया, ''उनकी कोर्इ गलती नहीं है। मैं ही उनका हाथ पकड़कर मंड़हे से लिवा लार्इ थी, बेटा पाने के लिए।''
            इस तरह के छिटपुट यौन-संबंधो को मैं गंभीरता से नहीं लेता। इसे मेरा दमित पुंसत्व कहिए या लिबरल आउटलुक। मैं पाप-पुण्य, जायज-नाजायज, पवित्र-अपवित्र और सतीत्व-असतीत्व के मानदंडों से भी सहमत नहीं हूं। मांगकर रोटी खा ली या कामतुष्टि पा ली, एक ही बात है। प्राचीन काल की नियोग प्रथा को मैं आज के युग में भी उतना ही उपयोगी मानता हूं। मैं भयभीत हुआ था तो सिर्फ इस बात से कि इन दिनों मैं जिस हताशा और निपट एकाकीपन की अंधेरी गुफा में फंसा हूं, वहां पत्नी ही एकमात्र ऐसा आलंब है, जिसके आंचल में मुंह छिपा लेने पर घड़ी-दो घड़ी सुकून मिल जाता है। यह आलंब भी छूट गया तो झेल नहीं पाऊँगा। पैर उखड़ जाएंगे और मैं डूब जाऊंगा।
          दो सौ रूपए जेब में हैं। मैं बाजार से पत्नी के लिए दो ब्रेजियर, नायलान के दो ब्लाउज, पाउडर और क्रीम की डिबिया,. रिबन, साबुन,  लिपस्टिक, नेलपालिश, हेयर आयल और एक साड़ी खरीदता हूं। बेटी की 'प्रवेशिका' और 'पहाड़ा' लेता हूं। एक डिब्बे में मिठार्इ बंधवाता हूं और इक्का पकड़कर वापस लौट पड़ता हूं। सारे रास्ते निश्चय करता आता हूं कि आदर्शवाद का मैल अपने मन से रगड़-रगड़कर छुड़ा दूंगा। हर महीने तीन-चौथार्इ चीनी ब्लैक करूंगा। और पत्नी को गहनों तथा कपड़ों से लाद दूंगा। कदर पाने के लिए कदर करनी होगी। आज तक उसने शहर नहीं देखा, सनीमा नहीं देखा, रेलगाड़ी पर नहीं चढ़ी, उसका पायल टूटा पड़ा है, फोंकी की कील नहीं है, सब कुछ बनवाऊंगा, सब कुछ पहनाऊंगा। सब कुछ दिखाऊंगा।
        अड्डे पर इक्के से उतरकर आगे बढ़ता हूं। तभी कोर्इ नाम लेकर पुकारता है। गांव के टीड़ी सिंह हैं। मैं राम-राम करता हूं। वे लाइसेंस के बारे में पूछते हैं। मैं बताता हूं, ''मिल गया।'' वे मेरे गले से लग जाते हैं, ''बस, आज तो बिना पिए छोड़ नहीं सकता। ऐसा मौका फिर कब मिलेगा?'' वे मुझे जबर्दस्ती 'देशी' के ठेके के अंदर खींच ले जाते हैं। मैंने आज तक कभी शराब नहीं पी, पर आज दिल कह रहा है- देख भी लूं, कैसी लगती है? पहला घूंट अंदर जाता है तो मुंह कड़वा हो जाता है, कै हो जाएगी, पर नहीं, कै नहीं होने दूंगा। आज इसकी तासीर देखूँगा।
          थोड़ी ही देर में मुझे उसका असर स्पष्ट होने लगता है। मैं ठेकेदार से एक पौवा और लेकर पैंट की जेब में डाल लेता हूं- आज रात पत्नी को भी पिलाऊंगा, अपने हाथ से। टीड़ी सिंह दुकान में अंदर ही बेंच पर पसर गए हैं। मैं घर की तरफ चल पड़ता हूं।
           मंड़हे में जलती हुर्इ लालटेन दूर से ही दिखार्इ देती है। पिताजी संध्या कर रहे होंगे। पिताजी की याद आते ही गुस्सा आने लगता है। मैं यहां से चिल्लाकर बता देना चाहता हूं कि आज से मेरी चारपार्इ पत्नी की कोठरी में बिछेगी। उसे अपने हाथों दुल्हन की तरह सजाऊंगा और कल शहर ले जाकर एक ग्रुप फोटो खिंचवाऊंगा। चार-पाच साल से साथ है, लेकिन अभी तक उसकी एक फोटो तक मेरे पास नहीं है।
          ऐं, मेरे घर के सामने इतनी भीड़ क्यों है? कौन हैं ये लोग? कुएं के गौंखे में जल रही ढिबरी की रोशनी से दीवार पर उनकी लहीम-सहीम परछाइयां रेंग रही हैं। नजदीक पहुंचने पर खुसर-पुसर की आवाज सुनार्इ पड़ती है। मैं आतंकित होता हूं। तभी कोर्इ औरत आगे आकर बताती है, ''तेरी मेहरारू तो भाग गर्इ कलकत्ता, खलील दर्जी के साथ।''
          ऐं! सरूर गायब। पूर्ण चैतन्य। आखों में खलील का छोटी छोटी दाढ़ी वाला बलिष्ठ चेहरा और पत्नी का सबेरे खुला हुआ बक्सा घूम जाता है। अभी तक कभी ध्यान ही नहीं गया। खलील का आवागमन इधर काफी बढ़ गया था। पहले ब्लाउज-फ्राक की नाप लेने कभी-कभी आता था, पर इधर तो पिताजी को गांजा पिलाने के बहाने लगभग रोज ही आगे लगा था। आज पता चला कि उसका असली मकसद क्या था।
         मुझे देखकर लोग अतिरिक्त रूप से उत्साहित हो गए हैं। वे इस उम्मीद में हैं कि अब मैं कुछ बोलूंगा, कुछ करूंगा। उन्हें कुछ अप्रत्याशित देखने और सुनने को मिलेगा। मुझे चुप देखकर उन लोगों का धीरज जवाब देता जा रहा है।
          मैं मंड़हे में घुसता हूं। पिताजी रौद्र रूप् में बैठे हैं। मैं बताता हूं, ''लाइसेंस मिल गया।'' लेकिन वे कुछ सुनने के लिए नहीं, कुछ कहने के लिए बेताब हो रहे हैं।'' दांत पीसते हुए कहते हैं, ''क्यों रे कुत्ते! नाक कटवा ली न!''
            'अब कुछ होगा' की संभावना से लोग मंड़हे को घेर लेते हैं, '' नाक है आपके?'' मैं पिताजी की आंखों में आंखें डालकर निर्भय और शांत प्रश्न करता हूं।
          ''नाक नहीं है रे मेरे! मेरे नाक नहीं है!'' वे चौंचियाते हुए लपककर मेरे मुंर पर झापड़ मारते हैं। देर से ही सही, लेकिन कुछ शुरू तो हुआ, लोगों को तसल्ली होती है।
           ''पता नहीं, मेरे तो नहीं है।''
           ''हिजडे़, जनखे! बूत नहीं था तो मुझसे कहा होता। मुझे भी नामर्द समझ लिया था क्या?''
           पहली बार पिताजी के आगे चीखता हूं, ''मैंने आपको मना किया था क्या?'' वे बुझ जाते हैं पस्त! शांत!
          मैं बाहर निकलकर खेत में गडे़ माचे की तरफ बढ़ने लगता हूं। भार्इ साहब लोगों से अपने-अपने घर जाने का अनुरोध कर रहे हैं। लोग खिसक रहे हैं, निराश मन! क्या कुछ देखने की उम्मीद लेकर आए थे, लेकिन...
      मैं माचे पर लेट जाता हूं....चली गर्इ, चलो, जहां भी रहे, सुखी  रहे....लेकिन भागना ही था तो एक दिन पहले भाग जाती। मैं टूटने से बच जाता....घूस देने से...पथभ्रष्ट होने से....पता मालूम होता तो ये ब्रेजियर,. ब्लाउज वगैरह पार्सल कर देता...लिखता कि बेटा होने पर खबर करे। मैं खिलौने लेकर आऊंगा। हवा कुछ ठंडी और तेज है। नींद नहीं आ रही है। दूर कहीं सियार रो रहे हैं....खेत से पके हुए खरबूजों की गंध आ रही है। कर्इ दिनों से सोच रहा था। आज फुरसत मिली है। भरपेट खरबूजे खाऊंगा।
         मैं माचे से उतरकर खरबूजे के खेत की तरफ चल पड़ता हूं....ऐं! पैर लड़खड़ा क्यों रहे हैं?...शरीर इतना हल्का-हल्का-सा क्यों लग रहा है? विचार अस्त-व्यस्त क्यों हैं?....आदमी में पागलपन की शुरूआत कैसे होती होगी?.....मेरे कपड़े क्या हुए?.....मैं नंगा कैसे हो गया?
           मैं खेत के बीचोबीच खड़ा हूं। कुछ गाने का दिल कर रहा है....इस भरी दुनिया में कोर्इ भी....बेटियां तीन हैं, बेटे का सहारा न हुआ.....
            न....न.....न.....! सिर्फ गाने से काम नहीं चलने का। और मैं खरबूजे के खेत में भरतनाट्‌यम शुरू कर देता हूं।


कहानी ऐसे मिली