दलित स्मिता पर केन्द्रित शिवमूर्ति का उपन्यास तर्पण सबसे पहले तद्भव पत्रिका में 2002 में प्रकाशित हुआ था। पुन: 2004 में यह राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली से पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ। कथा पत्रिका 'कथा देश' के फरवरी 2006 अंक में डॉ0 रामबक्ष द्वारा लिखित इस उपन्यास की समीक्षा प्रकाशित हुई है।
ब्लाग के पाठकों के लिए उक्त समीक्षा प्रस्तुत है:-
वर्ण व्यवस्था का तर्पण
डा. रामबक्ष
डा. रामबक्ष
शिवमूर्ति
आज के सम्मानित कथाकार हैं. उन्होंने लिखा है तो... यूँ ही आये-गये ढंग से
नहीं पढ़ सकते, सम्मानित लेखक स्तरीय लेखन करता है. उसकी भाषा, बिम्ब,
चरित्र, कथा-विन्यास सब कुछ स्थिर, ठहरे हुए और गम्भीर होते हैं. वे चलताऊ,
उठाईगीरे, या फुदकने वाले नहीं होते, उनकी रचना सम गति से चलती है. रचना
की एक लय बन जाती है, वह लय कहीं टूटती नहीं, लय का टूट जाना बचकानापन है,
अनाड़ीपन है, नासमझी है, उतावलापन है. ये सब सधे हुए लेखकों में नहीं होता.
'तर्पण' में भी ऐसा नहीं होता. इसमें भी कोई अकल्पनीय घटना नहीं घटती,
झटका नहीं लगता. सब काम आराम से होता है. सब अच्छा-अच्छा और साफ-साफ होता
है. होना भी चाहिए. आखिर 20-25 वर्षों से लिख रहे हैं. लिखना तो आ ही जाता
है. आना भी चाहिए. यह अपेक्षा तो रहती ही है. यदि न रहे तो शिवमूर्ति और
अन्य साधारण लेखक में फर्क ही मिट जायेगा. यह फर्क बनाये रखते हैं
शिवमूर्ति. इसलिए हम उनको गम्भीरता से पढ़ते हैं. ध्यान से सुनते हैं. उचित
स्थान देते हैं. मान देते हैं. समय देते हैं.
यहाँ एक बात कहनी
जरूरी है. कभी-कभी बडे़ लेखकों की भी लय टूट जाती है. साँस उखड़ जाती है.
प्रेमचन्द के 'गोदान' में ऐसा कई बार होता है. प्रेमचन्द को दम साधकर नयी
भूमिका बाँधनी पड़ती है. थोड़ी हड़बड़ाहट होती है और भाग-दौड़कर कथा फिर
गाड़ी पकड़ लेती है.
शिवमूर्ति की लय बनी रहती है. पात्रों की
रूप-रचना में भी कोई उखड़ापन नहीं है. उपन्यास अपनी पूरी तन्मयता,
लयात्मकता और स्तरीयता को बनाये रखते हुए अपने कथ्य की तरफ, सन्देश की तरफ
आगे बढ़ता जाता है. यह कला-साधना, शब्द-साधना संयम से आती है.
आत्मनियन्त्रण से आती है. बड़बोलापन से बचे रहना भी साधना है और शिवमूर्ति
में यह पूरे कलात्मक संयम के साथ मौजूद है.
अब इसके कथ्य पर बात
करें. यह उपन्यास वर्ण संघर्ष का उपन्यास है. लेखक मानता है कि रोटी के
लिए जो संघर्ष होता है, वह 'वर्ग-संघर्ष' है. ''यह वर्ण-संघर्ष है. इज्जत
के लिए. इज्जत की लड़ाई रोटी की लड़ाई से ज्यादा जरूरी है.'' (तर्पण,
पृ.26) लेखक की दृष्टि साफ है. इसका सन्देश स्पष्ट है. ठाकुर-ब्राहम्ण एक
पक्ष है. दलित जातियाँ दूसरा पक्ष है. दोनों एक झूठी लड़ाई लड़ते हैं और
सच्चा दर्द भुगतते हैं. 'तर्पण' की मुख्य कथा झूठी है, बनावटी है, परन्तु
'सच' भी हो सकती है. कभी भी हो सकती है. बहुत बार सच हुई भी है. होने के
बाद क्या होना है? पहले क्या हो गया था? यह महत्वपूर्ण नहीं है. जहाँ से
समस्या उठी, वहाँ 'झूठ' है, परन्तु उठने के बाद वह 'सच' हो जाती है और हम
देखते हैं कि ब्राहम्ण की नाक काटकर दम लेती है. दलित को जेल भिजवाकर ही
चुप होती है. यह कथ्य की विडम्बना है. ऐसा लेखक चाहता है या नहीं? यह विचार
का विषय हो सकता है.
जाने-अनजाने शिवमूर्ति बताते चलते हैं कि
यह संघर्ष झूठ पर आधारित है. राजपत्ती का बलात्कार तो हुआ ही नहीं. फिर भी
मुकद्दमा बलात्कार का होता है, बलात्कार के प्रयास का नहीं. पुलिस आती है
और धरमू पंडित के बेटे चन्दर को पकड़कर ले जाती है. बात यह है कि बलात्कार
हुआ तो नहीं था, परन्तु मौका लगते ही होता जरूर. मन में भा गयी थी. कई
दिनों से घात में बैठा था. सो तफशीश हुई, गवाही हुई, बहस हुई, दलीलें दीं-
सब झूठ पर झूठ. सब झूठ पर केन्द्रित था. परन्तु मुकद्दमे में रूपये असली
खर्च हुए. और इस तरह झूठ की लड़ाई शुरू हुई और कानून की लड़ाई में बदल गयी.
और न्यायालय का मामला यह है कि सारा संघर्ष जमानत मिलने, न मिलने तक है.
उसली निर्णय तो कभी होगा भी या नहीं-पता नहीं'
उपन्यास के पक्ष
और विपक्ष का कोई पात्र यह नहीं मानता है कि झूठ की लड़ाई है. दोनों पक्ष
झूठ या सच की नहीं, प्रतिष्ठा की लड़ाई लड़ रहे हैं. राजनीतिक वर्चस्व की
लड़ाई लड़ रहे हैं. वर्ण-संघर्ष कर रहे हैं. उपन्यास में आगे भी झूठ आता
है. भाई जी को झूठ-मूठ में डराने के लिए चन्दर बन्दूक से फायर करता है. भाई
जी को असली डर लगता है. मुन्ना चन्दर के सिर पर असली लट्ठ मारता है और
सच्ची-मुच्ची का नाक काट लेता है. फिर पुलिस, कानूनी और कचहरी होता है.
उपन्यास के अन्त होते-होते फिर एक झूठ आता है. पियारे को पता चलता है कि
चन्दर की नाक उसके बेटे ने काटी है तो वह झूठ कह देता है कि यह काम मैंने
किया है. सब इसे मान लेते हैं और उसे असली जेल जाना होता है. वह जेल जाता
है. न किये गये अपराध के लिए इस शहीदी भाव से वह जेल जा रहा है मानो
''पुरखों का 'तर्पण' करने के लिए 'गया-जगन्नाथजी' जा रहा है.' (तर्पण, पृ.
116) यह उपन्यास का अन्तिम वाक्य है.
उपन्यास में उसको बचाने के
अगले रास्तों का संकेत भी कर दिया गया है. यह उपन्यास इस तथ्य को उजागर
करता है, इसकी विडम्बना को उजागर करता है कि वर्ण-संघर्ष की मुख्य भूमि
पुलिस और कचहरी में है. बाकी गाँव में जो होता है, वह सब फालतू है. सच क्या
है? झूठ क्या है. न्याय क्या है? अन्याय क्या है? यह सब बेकार है.
इस वर्ण-संघर्ष में लेखक दलितों के साथ है. वह यह भी मानकर चलता है कि
पाठक भी उन्हीं के साथ है. इसलिए इनके वैयक्तिक गुण-दोष पर ध्यान न देते
हुए इनकी भूमिका को रेखांकित करते हैं, जो शिवमूर्ति की दृष्टि में
सकारात्मक है, सही है, प्रगतिशील है. व्यक्ति में थोड़ी-बहुत कमी-बेसी हो
सकती है.
बामण-राजपूत व्यक्तिशः अच्छे-बुरे हो सकते हैं, लेकिन
वे इस खेल में खल पात्र हैं. इनके दुख से लेखक खुश होता है. तथ्य की भाषा
में सोचें तो पंडितजी सच बोल रहे हैं, दलितों ने झूठ का मुकदमा खड़ा किया
है. परन्तु वर्ण-संघर्ष की दृष्टि से लेखक पियारे के पक्ष में हैं.
लेखक हालाँकी पात्रों की रचना करने नहीं बैठा है. उसे तो अपनी बात कहनी
है. परन्तु कथा में 'बात' तो पात्रों के अन्त:संघर्ष और बाह्य संघर्ष से ही
आगे बढे़गी. प्रतीक है तो क्या? जीवन तो उसमें होना ही चाहिए. निर्जीव
पात्र लेखक के मौलिक विचारों का वाहन कैसे करेगा? पात्र है, मनुष्य है तो
दुविधा भी है. संस्कार भी है. झूठ और सच का एहसास भी है. आत्मऔचित्य के
तर्कों के बिना इस कंटकाकीर्ण रास्ते पर आगे कैसे बढें? छोटी-मोटी भावात्मक
उलझन के बाद पात्र आगे बढ़ता है, घटना घटती है, कथ्य सम्प्रेषित होता हे
तो यथार्थवादी लगता है. लगना चाहिए. अन्यथा बिकेगा कैसे? यह सब कुछ उसी लय
के भीतर चलता है.
यह तो वर्ण-संघर्ष है. जन्म से जुड़ा हुआ है.
यह रूकेगा तो है नहीं. इसे तो आगे ही बढ़ना है. बढे़गा. आगे बढ़कर कहाँ
जायेगा? लेखक और पात्र दोनों ने अभी सोचा नहीं है. सिर्फ इतना ही सोचा है
कि जब दलित जातियाँ जाग गयी हैं, तो आगे भी अच्छा ही होगा. यह मानकर चलना
है. ठहरना नहीं है. पीछे लौटने का रास्ता तो वैसे ही बन्द हो चुका है. हार
नहीं माननी है. चिन्ता नहीं करनी है. जो होगा, देखा जायेगा. पात्र सोचते
हैं. संयोग से लेखक भी यही सोचता हुआ प्रतीत होता है. मुन्ना बदलने के मूड
में नहीं है तो चन्दर भी कहाँ सुधरना चाहता है? वह तो और आगे ही जायेगा.
किसी के मुड़ने की, सुधरने की, बदलने की कोई सम्भावना नहीं.
'गोदान' में प्रेमचन्द भविष्यवाणी करते हैं कि राय साहब के वर्ग की हस्ती
अब मिटने वाली है. शिवमूर्ति वैसी कोई भविष्यवाणी नहीं करते. अभी अन्धकार
है, कोलाहल है. जब होगा, जैसा होगा, भुगत लेंगे. अभी तो भाई जी के नेतृत्व
में संघर्ष करना है. उन्हें एम.एल.ए. बनाना है, ताकि अगली बार अपने आदमी को
थाने में लगा सकें.
वर्ण-संघर्ष का दम पुलिस स्टेशन और कचहरी
में आकर निकल जाता है. यहाँ तक वर्ण-संघर्ष था, अब कानूनी दाव-पेंच है.
इसके फैसले के तर्क अलग हैं. जमानत हो सकती है. नहीं भी हो सकती है. दरोगा
पकड़ सकता है. छोड़ भी सकता है. सजा हो सकती है. नहीं भी हो सकती है. सब
कुछ कर्त्ता पर निर्भर है. यह उभय-सम्भव न्यायिक संरचना दुख का मूल कारण
है. इस पर अनजाने ही ऊँगली रखते हैं शिवमूर्ति. सारा वर्ण-संघर्ष कानून की
अन्धी गली में भटक गया है. इसका अन्त नहीं. अभी तो जमानत पर बहस हुई है.
आगे सुप्रीम कोर्ट तक पहुँचते-पहुँचते जीवन समाप्त हो जायेगा. गवाह मर
जायेंगे. पात्र बिक जायेंगे. चरित्र बदल जायेगा. अर्थ निरर्थक हो जायेगा.
दम उखड़ जायेगा. अभी इतना नहीं सोचा. अभी तो बस इतना ही है. इसी पर सन्तोष
है पात्रों को. खुश है लेखक भी. कई और पेचीदगियाँ भी हैं इस कृति में.
परन्तु फिलहाल इतना ही.
- सी-1-ए, शिवशक्ति, 8, रेजीडेंसी रोड, जोधपुर
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