दलित
स्मिता पर केन्द्रित शिवमूर्ति का उपन्यास तर्पण सबसे पहले तद्भव पत्रिका
में 2002 में प्रकाशित हुआ था। 2004 में यह राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली से
पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ। कहानी पत्रिका 'हंस' में अगस्त 2007 के अंक में इस पर
डॉ० सूर्यनारायण द्वारा लिखित समीक्षा प्रकाशित हुई है। ब्लाग के पाठकों के लिए उक्त समीक्षा प्रस्तुत हैः-
डॉ० सूर्यनारायण द्वारा लिखित समीक्षा प्रकाशित हुई है। ब्लाग के पाठकों के लिए उक्त समीक्षा प्रस्तुत हैः-
तर्पणः कथा साहित्य के अभिजात्य को चुनौती
डॉ. सूर्यनारायण
नामवर सिंह ने अपने एक प्रसिद्ध वक्तव्य में भारतीय उपन्यास का धरातल रेखांकित करते हुए यूरोपीय उपन्यास से इसे जिस आधार पर अलग किया है, वह यह कि यूरोपीय उपन्यासों के केन्द्र में मध्यवर्ग के जीवन संदर्भ हैं, जबकि भारतीय उपन्यास किसान, दलित एवं स्त्री जीवन की महागाथा हैं. (देखिए, अर्ली नावेल्स इन इंडिया में नामवर सिंह का आलेख; स. - मीनाक्षी मुखर्जी). हिन्दी कथा साहित्य में प्रेमचंद ने तो किसान-मजदूर, दलित और स्त्री को लेकर एक नया सौंदर्यशास्त्र ही निर्मित कर डाला- वंचितों का सौंदर्यशास्त्र, प्रेमचंद की इस विरासत को कई महत्वपूर्ण कथाकारों ने आत्मसात् और इसी प्रक्रिया में समृद्ध (भी) किया. समकालीन कथाकारों में शिवमूर्ति का नाम उसी श्रृंखला की एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में लिया जाता है. शिवमूर्ति उन कथाकारों में हैं जो हड़बड़ी में नहीं लिखते, कम लिखते हैं- पर प्रतिलिपियों की दुनिया में मौलिक लेखन की जिद को बचाए हुए हैं. शिवमूर्ति शिल्प की लघुता में कथ्य की विराटता को उतारने के अद्भुत कौशल में सिद्धहस्त कथाकार हैं. वर्षों पहले तद्भव में लंबी कहानी के रूप में छपी 'तर्पण' उनकी दूसरी औपन्यासिक कृति है.
शिवमूर्ति जी की कहानियों/उपन्यासों का मुख्य क्षेत्र दलित और स्त्री समाज की जीवन-स्थितियां, उसकी विसंगतियों और जटिलताओं का चित्रण है. कुछ वर्ष पहले कथादेश में 'मैं और मेरा समय' स्तंभ के अंतर्गत उन्होंने अपना और अपने परिवेश का जीवंत चित्रण किया था जिसे पढ़कर यह स्वत: स्पष्ट हो जाता है कि उनकी पक्षधरता दलित एवं स्त्री वर्ग के लिए क्यों है. यहीं वे प्रेमचंद के स्वाभाविक उत्तराधिकारी नजर आते हैं. मध्यवर्ग के जीवन के घिनौने पाखंड उन्हें आकर्षित नहीं करते हैं- वहां दरअसल कोई जीवन संघर्ष नहीं है, वास्तव में ग्रामीण समाज की सामाजिक संरचना, सांस्कृतिक-समाजिक मूल्यबोध, मर्यादाओं का ताना-बाना-सबकुछ इतना जटिल है कि 'आधुनिकता से लेकर उत्तर-आधुनिकता' तक की बहसों के बीच उसमें कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं आया है. कुछ भौतिक परिवर्तन जरूर हुए हैं, जिससे ऊपरी चेहरा थोड़ा बदला लग सकता है. लेकिन इसी भ्रम में इसे कोई संपूर्ण बदलाव मान ले तो यह उसकी भूल है या मतिभ्रम-कहना कठिन है. कुछ वर्ष पहले गांव की हकीकत से अनजान आभिजात्य आस्वाद के धनी कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी ने प्रेमचंद के कथा साहित्य को बासी और उबाऊ घोषित कर दिया था. पर गहरे तक जाकर देखने से लगता है कि अभी भी वहां वर्ण-व्यवस्था में कोई बुनियादी बदलाव आया होता तो प्रेमचंद के बाद शिवमूर्ति जैसे कथाकारों को प्रकारांतर से उसी अंधेरे पक्ष को उपजीव्य न बनाना पड़ता.
आर्थिक उन्नति और सामाजिक सम्मान के प्रश्न एक-दूसरे से जुडे़ हुए हैं-दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. इसीलिए कॉ. विनोद मिश्र कहा करते थे कि दलितों-पिछड़ों की एकता तथा सवर्णों की एकता में बुनियादी फर्क यह है कि सवर्ण समाज की एकता सामंती सामाजिक संरचना को अपने हित में बचाए रखने के लिए होती है, जबकि दलित-पिछडे़ समाज की एकता जातिवादी-सामंतवादी संरचना को तोड़कर अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए होती है. इसी आधार पर दलित-पिछडे़ वर्गों की एकता का चरित्र अपेक्षाकृत प्रगतिशील होता है.
'तर्पण' में भी दो केंद्रक हैं, चंदर के इर्द-गिर्द एकत्रित अपने परिवार से लेकर ठाकुर पल्टन सिंह तक का सवर्ण समाज- इसके ठीक विपरीत चंदर की हवस और जुल्म का शिकार दलित युवती रजपतिया. उसके भी चारों तरफ दलित समाज एकत्रित होता है. यह जानते हुए भी कि चंदर दुश्चरित्र है और गलती उसी की है, चंदर के पिता पं. धरमदत्त उपाध्याय उर्फ 'धरमू' न केवल उसे बचाते हैं, बल्कि दरवाजे पर शिकायत करने आए रजपतिया के पिता को भला-बुरा कहकर भगा देते हैं. पंडिताइन भी अपने प्राण से भी प्यारे-दुलारे बेटे को कुछ कहने की जगह रजपतिया को ही दुश्चरित्र घोषित करती हैं. हरिजन-दलित बेटियां तथा बहुएं ब्राहम्ण-क्षत्रिय के लिए स्वाद परिवर्तन का माध्यम होती हैं. आजादी मिलने के बाद संविधान और कानून की मोटी-मोटी किताबों में चाहे जितने अधिकार दिए गए हों, लेकिन गांव में तो इसी नत्थू सिंह, गामा सिंह, धरमू एवं चंदर पंडित का कानून चलता है. अब तक इनके हर प्रकार के अत्याचारों को अपनी कमजोर स्थितियों के चलते दलित-हरिजन सहते आए हैं. इससे चंदर जैसों का मन बढ़ा हुआ है. उल्टे चोर कोतवाल को डांटे-अपराधी स्वयं है और चोरी का झूठा इल्जाम लगता है रजपतिया पर. यदि उसने (रजपतिया ने) चंदर के खेत से मटर के साग का एक फुनगा तोड़ भी लिया हो तो भी क्या इसके बदले चंदर को उसके साथ इतना बड़ा जुल्म करने का हक है? किसने दिया यह अधिकार? परंपरागत सामाजिक व्यवस्था ने और दलित समुदाय की चुप्पी ने (जो मजबूरी के चलते है). लेकिन सत्ता परिवर्तन के बाद, विशेषकर प्रदेश में एक बार दलित समुदाय की सरकार बनने के बाद दलित समुदाय में एक आत्मविश्वास पैदा हुआ है. धरमू पंडित के दरवाजे पर चढ़कर शिकायत करने गया पियारे धरमू की पत्नी से कहता है-''किसी गुमान में मत भूलिए पंडिताइन. अब हम ऊ चमार नहीं है कि कान-पूंछ दबाकर सब सह, सुन लेंगे, चिऊंटे को गुड़ का मजा लेना महंगा कर देंगे.'' इस बदलाव से धरमू वाकिफ हैं, तभी तो वे उनके आक्रोश पर लीपना चाहते हैं. परंतु वे चाहते यही हैं कि बात आगे न बढे़. पर अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो रहे दलित समाज में इस तरह के अन्याय, जुल्म-शोषण को चुपचाप सह लेने की जगह प्रतिरोध की चेतना जन्म लें रही है. उनको यह तो मालूम है कि सशस्त्र प्रतिरोध कर समाज में सुरक्षित बच नहीं सकते. उनकी बस्ती ही रात में फूंक दी जाएगी, सोते हुए सब जल मरेंगे. इसलिए वे किसी जज्बाती और जल्दबाजी भरी कार्यवाही की जगह अपनी बिरादरी में राय-मशविरा कर, संगठित होकर कानून के सहारे यह लड़ाई लड़ने का विकल्प चुनते हैं. इसमें भी दो पीढि़यों की राय अलग-अलग है. पुरानी पीढ़ी के गनेशी बाबा या दलपति बाबा अपने अतीत के अनुभवों से जानते हैं कि थाना-कचहरी भी उन्हीं की है, जिनके पास पैसा है. न्याय-कानून सब पैसे से खरीदा जा सकता है. लेकिन राजेश, विक्रम और मुन्ना जैसे युवा पीढ़ी के नायक समझौता करने के मूड में नहीं हैं. उनके साथ भाई जी हैं, जिनकी रणनीति में इस घटना की बढ़ा-चढ़ाकर रिपोर्ट लिखना ही उचित है. नाग को नाथने का यही एकमात्र रास्ता है. उनका दलित मुख्यमंत्री द्वारा बनाए गए दलित उत्पीड़न कानून पर बहुत भरोसा है. यद्यपि पिछले 10-15 वर्षों का जो अनुभव है, वह इसके काफी विपरीत है. अपराधी सत्ता से ही संरक्षित हैं. यह लड़ाई आगे बढ़ती है- रिपोर्ट लिखवाने भाई जी के नेतृत्व में थाने जाना, वहां पुलिस की अमानवीयता, बदमाशी व घुसखोरी, थाने का डरावना वातावरण जहां जनता सुरक्षित की जगह असुरक्षित महसूस करती है, भाई जी जैसे नेता का डरना- थाने से लेकर बागीचे तक, एमएलए के टिकट पर नजर रखते हुए प्रत्येक कदम उठाना और इसी बहाने अपने राजनैतिक समीकरण ठीक करना-नेताओं की चालाकी और संघर्ष के प्रति बेईमानी को खुलकर दर्शाते हैं. प्रेमचंद ने भी गोबर और होरी के माध्यम से पुरानी और नई पीढ़ी के सोच में जो अलगाव है, उसे उजागर किया है. शिवमूर्ति उसे अधिक सावधानी से पकड़ते हैं. चंदर को मजा चखाने के लिए, अपने अपमान का बदला लेने के लिए मुन्ना कर्ज लेकर साढे़ चार हजार खर्च कर सकता है. पैसा कम पड़ने पर राजेश और विक्रम जैसे चुवक चंदा लगाकर भी यह लड़ाई निर्णायक ढंग से लड़ने का जज्बा रखते हैं, लेकिन कदम पीछे खींचना उन्हें गवारा नहीं है. पहले ही बहुत अपमान सह चुका है दलित समाज. अब वह चुप नहीं बैठेगा. दूसरी तरफ धरमू की पंडिताइन चाहे जितना पैसा लगे, लगाने को तैयार हैं बशर्ते चंदर को कुछ न हो, उसे जल्दी जमानत मिल जाए. यद्यपि पुलिस-प्रशासन परोक्षत: उन्हीं की मदद करते हैं फिर भी जमानत में देरी होने पर उन्हें लगता है कि कलयुग है, क्योंकि अन्य युगों में तो ब्राहम्ण के विरूद्ध, उसकी सर्वोच्चता को कोई चुनौती दी ही नहीं जा सकती थी. 'शूद्रों के राज्य' में ही ब्राहम्ण की कोई कद्र नहीं है. अतीतजीवियों का नई सामाजिक असिमताओं से मूल्य संघर्ष और उसमें परिवर्तनकामी चेतना को पतनशील चेतना के रूप में रेखांकित करना-सवर्ण समाज का टिपिकल चरित्र है. वह अपने आभिजात्य/झूठी शान की रक्षा के लिए हलवाहा/नौकर सब रखता है लेकिन अपना मूल चरित्र नहीं छोड़ सकता. हलवाहिन से लेकर नौकरानी तक से पंडित का सहस संवाद और प्रेमाचार पंडिताइन से भी छिपा नहीं है. वे चंदर पर उसी की छाया देखती हैं. दलित सुमुदाय भी अपने केस को मजबूत बनाने के लिए एमएलए के प्रभाव का इस्तेमाल कर पुलिस विभाग को प्रभावित करता है, जिसे डीफ्यूज करने के लिए धरमू पंडित को बहुत पैसा भी खर्च करना पड़ता है और दौड़-भाग भी करनी पड़ती है. अंतत: दो माह जेल काटने के बाद छूटकर आया खलनायक चंदर नायकत्व का ताना-बाना धारण करता है. उसके आतंक से पूरी हरिजन बस्ती डर जाती है. सभी लोग खेतों-झाड़ियों में छिपे हैं. शुरू में डरपोक एवं दीन-हीन दिखने वाला पिता पियारे अंत में आक्रामक हो जाता है. चंदर की नाक काटने का इल्जाम अपने ऊपर लेता है-उसे न कानून का डर है, न जेल का. जो पियारे शुरू में इन सबसे बचना चाहता है-असमंजस का शिकार है, वह अंत में इतनी दृढ़ता का परिचय देता है-सिर्फ इसलिए कि वह प्रतिरोध का पाखंड नहीं करना चाहता है- भाई जी की तरह. अपमान सहते-सहते उसकी चेतना वज्र की तरह कठोर हो गई है. बेटी के अपमान का बदला लेने के लिए यदि बूढ़ा-शक्तिहीन पियारे चंदर की हत्या नहीं कर सकता तो मन में कई बार हत्या का संकल्प ले चुका पियारे हत्या का नैतिक दायित्व अपने ऊपर लेकर अपने दुष्कर्मों (प्रतिरोध न करना) का प्रायश्चित और तर्पण करता है. 'तर्पण' की उदात्तता का शिखर यहां आकर खिलता है कि वह न सिर्फ अपने बल्कि अपने पुरखों के लिए प्रायश्चित और तर्पण करता है बल्कि न्याय और नैतिकता को सत्य के किसी गहरे तल से धरातल पर ले आता है. सादगी की दृढ़ता अधिक मजबूत होती है. पर अंतत: एक प्रश्न अनुत्तरित रह जाता है- रजपतिया तो इस बदले की लड़ाई में उपयोग की गई, उसके कंधे पर बंदूक रखकर चलाई गई, पर स्वयं उसके मान-सम्मान का क्या हुआ? क्या यह इसका अपना संघर्ष था?
शिवमूर्ति के चित्रण, भाषा, परिवेश पात्र-संरचना एवं उनके समाजशास्त्र-सबमें गंवईपन है, इसीलिए उसमें ताजगी है. एक अंखरापन है. गांव की सोंधी सुगंध है. गांव की गालियां, ग्रामीण बोलचाल की शैली, पोशाक-पहनावा, रहन-सहन का स्तर, खान-पान-सबका सजीव चित्रण कर शिवमूर्ति अपनी पीढ़ी के कथाकारों में सबसे अलग खड़े दिखाई देते हैं. अपनी अकुंठ कथा संरचना और शैली के कारण शिवमूर्ति मध्यवर्गीय कथा-साहित्य के अभिजात्य को चुनौती देते हैं.
डॉ. सूर्यनारायण
संपर्क: हिन्दी विभाग, इलाहाबाद विश्वविधालय,
संपर्क: हिन्दी विभाग, इलाहाबाद विश्वविधालय,
इलाहाबाद- 211002
मो. 8005091300