मैं पहले भी कह चुका हूं कि आलोचक की भूमिका माली की होती है, न कि लकड़हारे की। उसे बगीचे के पौधों की काट-छांट का अधिकार है, न कि उनका सिर कलम करने का। किंतु आज के अधिकांश आलोचक माली की नहीं, लकड़हारे की भूमिका अदा कर रहे हैं। .....और इस प्रकार कहानी की दिशा को भटकाने को अंजाम देते जा रहे हैं...
प्रेमचंद के बाद छठें और सातवें दशक में हिंदी कहानी में परिणामात्मकता और गुणात्मकता की दृष्टि से जो उपलब्धि हुई थी, उसकी तुलना आठवें और नौवें दशक की कहानियों की संख्या में भले ही बढ़ोत्तरी हुई है परंतु गुणात्मकता की दृष्टि से बाद की कहानियों को निर्विवाद रूप से आगे माना जा सके, ऐसी स्थिति शायद नहीं है। जहां शिल्प की दृष्टि से निश्चय ही आठवें और नौवें दशक की कहानियां कुछ आगे बढ़ी दिखाई देती हैं, वहीं अपनी संपूर्ण प्रभान्विति में आगे बढ़ी हुई कहानियों का प्रतिशत घटा है।
आज की हिंदी कहानी पढ़ने पर, विश्लेषण करने पर इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि हिंदी कहानी सामयिक परिवर्तनों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने की क्षमता अपने में पैदा नहीं कर पा रही है। जबकि उसे समसामयिक समस्याओं और चुनौतियों से दो कदम आगे बढ़ कर उसका निरूपण करते हुए यथासंभव उस चुनौती भरे अंधेरे रास्ते पर प्रकाश की कोई किरण डालना चाहिए था। प्रेमचंद ने जिसे राजनीति से संबंध की तुलना करते समय दो कदम आगे बढ़ कर चलने और जलने वाली मशाल की संज्ञा दी थी, क्या यह कहानी आज अपनी उस संज्ञा को सार्थक कर पा रही है? उत्तर शायद हम नकारात्मक ही दे पाएं!
आज मानव वैविध्यपूर्ण जीवन जी रहा है। जिंदगी में इतनी विभिन्नता है कि कहानी के बहुत से विषय हो सकते हैं। आदमी कितना परेशान है? रोज हत्याएं, आत्महत्याएं हो रही हैं। यानी रोज-रोज आदमी का मोह जिंदगी से टूट रहा है। वह मानसिकता कितनी दारुण, कितनी त्रासद है, जो जीवन जैसी अमूल्य वस्तु को रोज-रोज हमें त्यागने को मजबूर कर रही है। वह प्रतिशोध कितना भयानक है, जो बेहिचक अपनों की जान लेने पर उतारू है। कहां हैं ऐसी तरस खाने वाली मानसिकता को प्रथम पुरुष की अभिव्यक्ति देने वाली कहानियां? नहीं हैं तो क्यों नहीं हैं? आज हमें गांव के किसान-मजदूर, कारखाने के श्रमिक, कार्यालय के लिपिक, घूसखोर अफसर की वह प्रथम पुरुष के चित्रण जैसी उपलब्धि कहानियों में नहीं मिल पा रही है, जो मिल रही है, उसकी संवेदना आज की कहानियों से दस कदम पीछे की, बासी पड़ती गई संवेदनाओं की है।
जहां तक आज की कहानी की दिशा का प्रश्न है, मेरी नजर में कहानी उस दिशा में, उस परिमाण में नहीं रची गई, जिस दिशा में उसे रचा जाना चाहिए था। यह दिशा है- ग्रामीण क्षेत्र की समस्याओं, परेशानियों, व्यवस्थाओं एवं स्थितियों पर लिखी जाने वाली कहानियों का। अस्सी प्रतिशत ग्रामीण परिक्षेत्र की जनता के हिस्से में आज की कहानियों का मात्र पांच प्रतिशत ही आ रहा है और वह भी सीधे उनके बीच से नहीं। आज हमारे पास कितने कथा लेखक ऐसे हैं, जिनकी मूल आजीविका कृषि है। शायद ही कोई हो। आज का लेखक कोई अध्यापक है, कोई सरकारी कर्मचारी है और कोई व्यापारी है। लेकिन दिन में हल चलाने या ट्कैक्टर चलाने वाले या तबेला चलाने वाले और रात में कहानी लिखने वाले कितने लेखक हैं हमारे बीच? ऐसी स्थिति में खेतीबारी की, गांव की समस्याओं की प्रामाणिक रचना कैसे आयेगी हमारे बीच? ताजी-ताजी first hand information और धारदार संवेदना की। इसलिए हम कह सकते हैं, प्रगति, जो बहुआयामी होनी चाहिए थी, वह सीमित दिशा की ओर ही हो रही है। जो प्रतिनिधि दिशा कहानी को मिलनी चाहिए थी, वह नहीं मिल पा रही है।
जैसा कि हमने आलेख के प्रारंभ में जिक्र किया है, कहानियां बढ़ी हैं, पत्र-पत्रिकाओं की संख्या में वृद्धि हुई है। निश्चय ही कहानी लेखकों, रचनाकारों की संख्या में पहले की अपेक्षा अप्रत्याशित अभिवृद्धि हुई है और यदि प्रत्येक कथालेखक अधिक नहीं, विश्व स्तर की मात्र एक या दो कहानियां ही देता तो आज हमारे पास विश्व स्तर की हजारों उत्कृष्ट कहानियां होतीं। हम सभी मानेंगे कि ऐसा नहीं है। यह पूरे हिंदी कथा जगत के सामने एक चुनौती है। हम विश्व में न जाकर अड़ोस-पड़ोस को ही देखें। हमारे पड़ोस की भाषाएं बांगला, मराठी तक में उपलब्ध स्तरीय कहानियों का प्रतिशत हमसे अधिक है। स्तरीय कहानियों की संख्या अत्यंत न्यून होने का कारण क्या है, गौरतलब विषय है, सोचने-विचारने का विषय है।
जहां तक मेरा विचार है- आज लेखकों में अनुभव की कमी है। हम जहां, जिस वातावरण, जिस परिवेश में जी रहे हैं, उसमें जनसामान्य से जुड़ने का अवसर, दूसरे की समस्याओं में भागीदारी का अवसर कम है। यदा-कदा मिल भी जाय तो शायद ही कोई जुड़ना चाहे। कभी-कभी फैशन के तहत हमारा आग्रह होता है कि हम संघर्ष की, शोषण की, हड़ताल की, आंदोलन की, क्रांति, तख्ता पलट की कहानी लिखेंगे और जिंदगी जीते हैं- समझौते की, गद्दारी की, चुगली और टुच्चई की। तो जब हमारे पास गद्दारी और टुच्चई के वास्तविक अनुभव हैं तो हमें इसी को अपनी कहानी का विषय बनाना चाहिए। ऐसा न होने से विषय में हमारा अनुभव बहुत उथला होगा। इसमें कोई संदेह नहीं। फलस्वरूप कहानी वह मानक स्थापित नहीं कर पाती, जिसकी हमसे उम्मीद की जाती है। फैशन के तहत परोसी गई इन कहानियों में वो आकर्षण नहीं रहता, जो अनुभव से आता। जो चीज वास्तव में परोसी जाती है, कहानी नहीं, कहानी की लाश होती है, जिसमें जीवंतता खोजने के असफल प्रयास के बाद कहानी को या पत्रिका को पाठक उठाकर, झल्लाकर फेंक देता है।
एक अन्य कारण अपने यहां लेखकों का होलटाइमर न होना भी है। आज की जिंदगी की, पेट की समस्याएं हल करने में हमारा इतना समय निकल जाता है कि हम अपनी पूरी क्षमता अपने लेखन में प्रकट करने की स्थिति में नहीं आ पाते। एक बहुत बड़ा योगदान हमारे लेखक संघों ने भी कहानियों को स्तरीयता न प्राप्त करने की दिशा में दिया है। हम सभी देख रहे हैं कि अपने-अपने संघो से जुड़े लेखकों की औसत कहानी को भी दशक की उपलब्धि के रूप में संघबद्ध आलोचकों द्वारा प्रस्तुत किया जाता रहा है और उसमें ऐसे-ऐसे गुण देखे जाते रहे हैं, जो संभवतः उस कहानी के लेखक के मस्तिष्क में भी न आये रहे होंगे। इससे लेखन के क्षेत्र में कदम रखने वाली नयी पीढ़ी उसी औसत लेखन को अपना आदर्श मानती और दिग्भ्रमित होती है।
हमारे गांव में एक पंडित जी थे। जब 'बरदेखुआ' (शादी के लिए लड़का देखने वाले) गांव में आते थे तो लोग उन पंडित जी को बुला लेते थे। उनका काम था- शादी योग्य लड़के के गुणों का बखान। उस लड़के की माली हालत व पुरानी खानदानी इज्जत का सुंदर खाका खींचना। फीस थी- बरदेखुओं के साथ दिव्य भोजन और शादी पक्की हो जाने के बाद अंगोछा, धोती-कुर्ता आदि के साथ विदाई। जनम के काने, रंग के काले, अंगूठा छाप लड़के के गुणों का वे ऐसा शानदार बखान कर सकते थे कि सुनने वाले अपने भले-चंगे लड़के की आंख फोड़ कर उसे काना करने पर तुल जायें। यही काम कमोबेश आज के लेखक संगठनों में घुसे पंडितजी लोग (आलोचकगण) अपने-अपने यजमानों की 'कानी' कहानियों को लेकर कर रहे हैं। अब आलोचकों की भूमिका सबसे पीछे हो गई है।
एक बात और ध्यान देने की है। कुछ समय पहले तक हमारे जो आलोचक बंधु कहानियों के ढेर से प्रगतिवादी या जनवादी कहानियां छांटने में पसीने-पसीने होते थे, अब वे सभी 'स्वजनवादी कहानियां' खोजने लगे हैं। 'स्वजनों' द्वारा लिखी गयी कहानियां। वही पठनीय रह गयी हैं। उन्हें ही पढ़ना है। उन्हीं पर बोलना है। बाकी सारा संसार मिथ्या है। यह प्रवृत्ति भी कहानी की दिशा अवरुद्ध करने में आज महत्वपूर्ण योगदान दे रही है। साथ ही कहानी के समक्ष मौजूद खतरनाक चुनौतियों में से एक प्रमुख चुनौती है।
हमारी बहस केवल सैद्धांतिक समस्याओं और चुनौतियों पर ही ध्यान केंद्रित करने से पूरी नहीं होगी। व्यावहारिक पहलू पर सोचते हुए जब हम चुनौतियों की बात करते हैं तो यह पाते हैं कि हमारा लेखन व्यापक पाठक वर्ग से जुड़ नहीं पा रहा है। हमारा पाठकीय घेरा बढ़ने की बजाय दिनोदिन संकुचित होता जा रहा है। हमें इस विंदु पर भी विचार करना होगा कि क्या हमारी रचनाएं व्यापक पाठक वर्ग के पास पहुंच रही हैं?
जहां पाठकीय अभिरुचि में आता सस्तापन हमारी पत्रिकाओं की प्रसार संख्या को संकुचित कर रहा है, वहीं प्रकाशित पुस्तकों का आसमान पर चढ़ता मूल्य इसे पुस्तकालयों की आलमारियों में सुरक्षित रखता जा रहा है। यदि वास्तव में हमें अपना पाठक वर्ग को विशाल बनाना है तो ऐसा उपाय भी हमें करना होगा, जिससे हम अपनी रचना उचित मूल्य में पाठक तक पहुंचा सकें। लेखकों के संगठन बहुत सुविधा पूर्वक यह कार्य कर सकते थे/हैं। विभिन्न संगठन आपस में federation के member के तौर पर जुड़कर प्रसार व्यवस्था का कामयाब नेटवर्क पूरे देश में खड़ा कर सकते हैं। सहकारिता संगठन खड़े कर सकते हैं। दक्षिण की भाषाओं से हमें इसके सफल प्रयोग का उदाहरण भी उपलब्ध है, किंतु ऐसा नहीं हो सका है। जमशेदपुर में एक लेखक सम्मेलन में (1990) यह मुद्दा प्रमुखता के साथ उठाया गया था और इस बात की जरूरत महसूस की गई कि अलग से केवल इसी समस्या पर विचार करने के लिए सम्मेलन और गोष्ठियां आयोजित की जांय तथा किसी ठोस निर्णयात्मक समाधान पर पहुंचा जाय, क्योंकि इस व्यावहारिक समस्या का महत्व साहित्य की अन्य सैद्धांतिक समस्याओं से कमतर नहीं है।
दूसरी बात- व्यापक पाठक वर्ग को अपील करने वाली, उसमें पसंद की जाने वाली रचना तभी सामने आयेगी, जब हम जनसामान्य से जुड़ी विषयवस्तु को उसमें डूब कर, उसे आत्मसात कर अपने लेखन का विषय बनायें। हमारे लेखन का सच्चा आकलनकर्ता व अंतिम निर्णायक अंततः पाठक ही है। 'रेणु' को आलोचकों ने कभी उनका प्राप्य नहीं दिया, इसके बावजूद यह पाठक वर्ग ही था, जिसने रेणु को 'रेणु' बना दिया। हमें याद रखना होगा कि हम पाठकों के लिए लिख रहे हैं, आलोचकों के लिए नहीं।
'हंस' (1990) में एक लंबी बहस चली- 'न लिखने के कारण'। कहीं तो हम सामूहिक रूप से महसूस कर रहे हैं कि नहीं लिखा जा रहा है। चाहे यह सोच रहे हों कि परिमाण में नहीं लिखा जा रहा है। चाहे यह कि स्तरीयता नहीं मिल पा रही है। क्या है ऐसा सोचने का कारण? क्यों बंजर जैसा नजर आने लगा है हमारा साहित्यिक परिक्षेत्र। हम अपनी उर्वर परंपरा में उसी के अनुरूप उर्वर भविष्य जोड़ने में असमर्थता क्यों महसूस कर रहे हैं। इसके कारणों को सैद्धांतिक धरातल पर नहीं, शुद्ध व्यावहारिक स्तर पर आकर सोचना आज अनिवार्य हो रहा है। न केवल सोचना, बल्कि उसका समुचित उपाय, कारगर समाधान ढूंढने की इस चुनौती को मुक्त कंठ से स्वीकरना होगा। इसकी वास्तविकता से आंखें चुराकर हम नहीं बच सकते। हमें ऐसा समाधान ढूंढना होगा, ऐसा रास्ता जो हमारी परंपरा को, हमारे उर्वर अतीत को न केवल बचाये बल्कि उसके कद को ऊंचा करे।
(14-15 अप्रैल 1990 को उत्तर प्रदेश के जिला आजमगढ़ में एक गोष्ठी में व्यक्त किए गए विचार। इसी गोष्ठी से 'कथाक्रम' की शुरुआत हुई थी। यह आलेख एकेडमिक रचना नहीं है। एक पाठक, नवलिखुआ लेखक का अपने सहपाठकों/सहलेखकों के साथ हुआ वार्तालाप है। इसी इसी रूप में लें तथा प्रतिक्रियां दें। -शिवमूर्ति)
प्रेमचंद के बाद छठें और सातवें दशक में हिंदी कहानी में परिणामात्मकता और गुणात्मकता की दृष्टि से जो उपलब्धि हुई थी, उसकी तुलना आठवें और नौवें दशक की कहानियों की संख्या में भले ही बढ़ोत्तरी हुई है परंतु गुणात्मकता की दृष्टि से बाद की कहानियों को निर्विवाद रूप से आगे माना जा सके, ऐसी स्थिति शायद नहीं है। जहां शिल्प की दृष्टि से निश्चय ही आठवें और नौवें दशक की कहानियां कुछ आगे बढ़ी दिखाई देती हैं, वहीं अपनी संपूर्ण प्रभान्विति में आगे बढ़ी हुई कहानियों का प्रतिशत घटा है।
आज की हिंदी कहानी पढ़ने पर, विश्लेषण करने पर इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि हिंदी कहानी सामयिक परिवर्तनों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने की क्षमता अपने में पैदा नहीं कर पा रही है। जबकि उसे समसामयिक समस्याओं और चुनौतियों से दो कदम आगे बढ़ कर उसका निरूपण करते हुए यथासंभव उस चुनौती भरे अंधेरे रास्ते पर प्रकाश की कोई किरण डालना चाहिए था। प्रेमचंद ने जिसे राजनीति से संबंध की तुलना करते समय दो कदम आगे बढ़ कर चलने और जलने वाली मशाल की संज्ञा दी थी, क्या यह कहानी आज अपनी उस संज्ञा को सार्थक कर पा रही है? उत्तर शायद हम नकारात्मक ही दे पाएं!
आज मानव वैविध्यपूर्ण जीवन जी रहा है। जिंदगी में इतनी विभिन्नता है कि कहानी के बहुत से विषय हो सकते हैं। आदमी कितना परेशान है? रोज हत्याएं, आत्महत्याएं हो रही हैं। यानी रोज-रोज आदमी का मोह जिंदगी से टूट रहा है। वह मानसिकता कितनी दारुण, कितनी त्रासद है, जो जीवन जैसी अमूल्य वस्तु को रोज-रोज हमें त्यागने को मजबूर कर रही है। वह प्रतिशोध कितना भयानक है, जो बेहिचक अपनों की जान लेने पर उतारू है। कहां हैं ऐसी तरस खाने वाली मानसिकता को प्रथम पुरुष की अभिव्यक्ति देने वाली कहानियां? नहीं हैं तो क्यों नहीं हैं? आज हमें गांव के किसान-मजदूर, कारखाने के श्रमिक, कार्यालय के लिपिक, घूसखोर अफसर की वह प्रथम पुरुष के चित्रण जैसी उपलब्धि कहानियों में नहीं मिल पा रही है, जो मिल रही है, उसकी संवेदना आज की कहानियों से दस कदम पीछे की, बासी पड़ती गई संवेदनाओं की है।
जहां तक आज की कहानी की दिशा का प्रश्न है, मेरी नजर में कहानी उस दिशा में, उस परिमाण में नहीं रची गई, जिस दिशा में उसे रचा जाना चाहिए था। यह दिशा है- ग्रामीण क्षेत्र की समस्याओं, परेशानियों, व्यवस्थाओं एवं स्थितियों पर लिखी जाने वाली कहानियों का। अस्सी प्रतिशत ग्रामीण परिक्षेत्र की जनता के हिस्से में आज की कहानियों का मात्र पांच प्रतिशत ही आ रहा है और वह भी सीधे उनके बीच से नहीं। आज हमारे पास कितने कथा लेखक ऐसे हैं, जिनकी मूल आजीविका कृषि है। शायद ही कोई हो। आज का लेखक कोई अध्यापक है, कोई सरकारी कर्मचारी है और कोई व्यापारी है। लेकिन दिन में हल चलाने या ट्कैक्टर चलाने वाले या तबेला चलाने वाले और रात में कहानी लिखने वाले कितने लेखक हैं हमारे बीच? ऐसी स्थिति में खेतीबारी की, गांव की समस्याओं की प्रामाणिक रचना कैसे आयेगी हमारे बीच? ताजी-ताजी first hand information और धारदार संवेदना की। इसलिए हम कह सकते हैं, प्रगति, जो बहुआयामी होनी चाहिए थी, वह सीमित दिशा की ओर ही हो रही है। जो प्रतिनिधि दिशा कहानी को मिलनी चाहिए थी, वह नहीं मिल पा रही है।
जैसा कि हमने आलेख के प्रारंभ में जिक्र किया है, कहानियां बढ़ी हैं, पत्र-पत्रिकाओं की संख्या में वृद्धि हुई है। निश्चय ही कहानी लेखकों, रचनाकारों की संख्या में पहले की अपेक्षा अप्रत्याशित अभिवृद्धि हुई है और यदि प्रत्येक कथालेखक अधिक नहीं, विश्व स्तर की मात्र एक या दो कहानियां ही देता तो आज हमारे पास विश्व स्तर की हजारों उत्कृष्ट कहानियां होतीं। हम सभी मानेंगे कि ऐसा नहीं है। यह पूरे हिंदी कथा जगत के सामने एक चुनौती है। हम विश्व में न जाकर अड़ोस-पड़ोस को ही देखें। हमारे पड़ोस की भाषाएं बांगला, मराठी तक में उपलब्ध स्तरीय कहानियों का प्रतिशत हमसे अधिक है। स्तरीय कहानियों की संख्या अत्यंत न्यून होने का कारण क्या है, गौरतलब विषय है, सोचने-विचारने का विषय है।
जहां तक मेरा विचार है- आज लेखकों में अनुभव की कमी है। हम जहां, जिस वातावरण, जिस परिवेश में जी रहे हैं, उसमें जनसामान्य से जुड़ने का अवसर, दूसरे की समस्याओं में भागीदारी का अवसर कम है। यदा-कदा मिल भी जाय तो शायद ही कोई जुड़ना चाहे। कभी-कभी फैशन के तहत हमारा आग्रह होता है कि हम संघर्ष की, शोषण की, हड़ताल की, आंदोलन की, क्रांति, तख्ता पलट की कहानी लिखेंगे और जिंदगी जीते हैं- समझौते की, गद्दारी की, चुगली और टुच्चई की। तो जब हमारे पास गद्दारी और टुच्चई के वास्तविक अनुभव हैं तो हमें इसी को अपनी कहानी का विषय बनाना चाहिए। ऐसा न होने से विषय में हमारा अनुभव बहुत उथला होगा। इसमें कोई संदेह नहीं। फलस्वरूप कहानी वह मानक स्थापित नहीं कर पाती, जिसकी हमसे उम्मीद की जाती है। फैशन के तहत परोसी गई इन कहानियों में वो आकर्षण नहीं रहता, जो अनुभव से आता। जो चीज वास्तव में परोसी जाती है, कहानी नहीं, कहानी की लाश होती है, जिसमें जीवंतता खोजने के असफल प्रयास के बाद कहानी को या पत्रिका को पाठक उठाकर, झल्लाकर फेंक देता है।
एक अन्य कारण अपने यहां लेखकों का होलटाइमर न होना भी है। आज की जिंदगी की, पेट की समस्याएं हल करने में हमारा इतना समय निकल जाता है कि हम अपनी पूरी क्षमता अपने लेखन में प्रकट करने की स्थिति में नहीं आ पाते। एक बहुत बड़ा योगदान हमारे लेखक संघों ने भी कहानियों को स्तरीयता न प्राप्त करने की दिशा में दिया है। हम सभी देख रहे हैं कि अपने-अपने संघो से जुड़े लेखकों की औसत कहानी को भी दशक की उपलब्धि के रूप में संघबद्ध आलोचकों द्वारा प्रस्तुत किया जाता रहा है और उसमें ऐसे-ऐसे गुण देखे जाते रहे हैं, जो संभवतः उस कहानी के लेखक के मस्तिष्क में भी न आये रहे होंगे। इससे लेखन के क्षेत्र में कदम रखने वाली नयी पीढ़ी उसी औसत लेखन को अपना आदर्श मानती और दिग्भ्रमित होती है।
हमारे गांव में एक पंडित जी थे। जब 'बरदेखुआ' (शादी के लिए लड़का देखने वाले) गांव में आते थे तो लोग उन पंडित जी को बुला लेते थे। उनका काम था- शादी योग्य लड़के के गुणों का बखान। उस लड़के की माली हालत व पुरानी खानदानी इज्जत का सुंदर खाका खींचना। फीस थी- बरदेखुओं के साथ दिव्य भोजन और शादी पक्की हो जाने के बाद अंगोछा, धोती-कुर्ता आदि के साथ विदाई। जनम के काने, रंग के काले, अंगूठा छाप लड़के के गुणों का वे ऐसा शानदार बखान कर सकते थे कि सुनने वाले अपने भले-चंगे लड़के की आंख फोड़ कर उसे काना करने पर तुल जायें। यही काम कमोबेश आज के लेखक संगठनों में घुसे पंडितजी लोग (आलोचकगण) अपने-अपने यजमानों की 'कानी' कहानियों को लेकर कर रहे हैं। अब आलोचकों की भूमिका सबसे पीछे हो गई है।
एक बात और ध्यान देने की है। कुछ समय पहले तक हमारे जो आलोचक बंधु कहानियों के ढेर से प्रगतिवादी या जनवादी कहानियां छांटने में पसीने-पसीने होते थे, अब वे सभी 'स्वजनवादी कहानियां' खोजने लगे हैं। 'स्वजनों' द्वारा लिखी गयी कहानियां। वही पठनीय रह गयी हैं। उन्हें ही पढ़ना है। उन्हीं पर बोलना है। बाकी सारा संसार मिथ्या है। यह प्रवृत्ति भी कहानी की दिशा अवरुद्ध करने में आज महत्वपूर्ण योगदान दे रही है। साथ ही कहानी के समक्ष मौजूद खतरनाक चुनौतियों में से एक प्रमुख चुनौती है।
हमारी बहस केवल सैद्धांतिक समस्याओं और चुनौतियों पर ही ध्यान केंद्रित करने से पूरी नहीं होगी। व्यावहारिक पहलू पर सोचते हुए जब हम चुनौतियों की बात करते हैं तो यह पाते हैं कि हमारा लेखन व्यापक पाठक वर्ग से जुड़ नहीं पा रहा है। हमारा पाठकीय घेरा बढ़ने की बजाय दिनोदिन संकुचित होता जा रहा है। हमें इस विंदु पर भी विचार करना होगा कि क्या हमारी रचनाएं व्यापक पाठक वर्ग के पास पहुंच रही हैं?
जहां पाठकीय अभिरुचि में आता सस्तापन हमारी पत्रिकाओं की प्रसार संख्या को संकुचित कर रहा है, वहीं प्रकाशित पुस्तकों का आसमान पर चढ़ता मूल्य इसे पुस्तकालयों की आलमारियों में सुरक्षित रखता जा रहा है। यदि वास्तव में हमें अपना पाठक वर्ग को विशाल बनाना है तो ऐसा उपाय भी हमें करना होगा, जिससे हम अपनी रचना उचित मूल्य में पाठक तक पहुंचा सकें। लेखकों के संगठन बहुत सुविधा पूर्वक यह कार्य कर सकते थे/हैं। विभिन्न संगठन आपस में federation के member के तौर पर जुड़कर प्रसार व्यवस्था का कामयाब नेटवर्क पूरे देश में खड़ा कर सकते हैं। सहकारिता संगठन खड़े कर सकते हैं। दक्षिण की भाषाओं से हमें इसके सफल प्रयोग का उदाहरण भी उपलब्ध है, किंतु ऐसा नहीं हो सका है। जमशेदपुर में एक लेखक सम्मेलन में (1990) यह मुद्दा प्रमुखता के साथ उठाया गया था और इस बात की जरूरत महसूस की गई कि अलग से केवल इसी समस्या पर विचार करने के लिए सम्मेलन और गोष्ठियां आयोजित की जांय तथा किसी ठोस निर्णयात्मक समाधान पर पहुंचा जाय, क्योंकि इस व्यावहारिक समस्या का महत्व साहित्य की अन्य सैद्धांतिक समस्याओं से कमतर नहीं है।
दूसरी बात- व्यापक पाठक वर्ग को अपील करने वाली, उसमें पसंद की जाने वाली रचना तभी सामने आयेगी, जब हम जनसामान्य से जुड़ी विषयवस्तु को उसमें डूब कर, उसे आत्मसात कर अपने लेखन का विषय बनायें। हमारे लेखन का सच्चा आकलनकर्ता व अंतिम निर्णायक अंततः पाठक ही है। 'रेणु' को आलोचकों ने कभी उनका प्राप्य नहीं दिया, इसके बावजूद यह पाठक वर्ग ही था, जिसने रेणु को 'रेणु' बना दिया। हमें याद रखना होगा कि हम पाठकों के लिए लिख रहे हैं, आलोचकों के लिए नहीं।
'हंस' (1990) में एक लंबी बहस चली- 'न लिखने के कारण'। कहीं तो हम सामूहिक रूप से महसूस कर रहे हैं कि नहीं लिखा जा रहा है। चाहे यह सोच रहे हों कि परिमाण में नहीं लिखा जा रहा है। चाहे यह कि स्तरीयता नहीं मिल पा रही है। क्या है ऐसा सोचने का कारण? क्यों बंजर जैसा नजर आने लगा है हमारा साहित्यिक परिक्षेत्र। हम अपनी उर्वर परंपरा में उसी के अनुरूप उर्वर भविष्य जोड़ने में असमर्थता क्यों महसूस कर रहे हैं। इसके कारणों को सैद्धांतिक धरातल पर नहीं, शुद्ध व्यावहारिक स्तर पर आकर सोचना आज अनिवार्य हो रहा है। न केवल सोचना, बल्कि उसका समुचित उपाय, कारगर समाधान ढूंढने की इस चुनौती को मुक्त कंठ से स्वीकरना होगा। इसकी वास्तविकता से आंखें चुराकर हम नहीं बच सकते। हमें ऐसा समाधान ढूंढना होगा, ऐसा रास्ता जो हमारी परंपरा को, हमारे उर्वर अतीत को न केवल बचाये बल्कि उसके कद को ऊंचा करे।
(14-15 अप्रैल 1990 को उत्तर प्रदेश के जिला आजमगढ़ में एक गोष्ठी में व्यक्त किए गए विचार। इसी गोष्ठी से 'कथाक्रम' की शुरुआत हुई थी। यह आलेख एकेडमिक रचना नहीं है। एक पाठक, नवलिखुआ लेखक का अपने सहपाठकों/सहलेखकों के साथ हुआ वार्तालाप है। इसी इसी रूप में लें तथा प्रतिक्रियां दें। -शिवमूर्ति)