Wednesday, October 12, 2011

कथाकार शिवमूर्ति से सुशील सिद्धार्थ की बातचीत


हमारा होना स्त्री के होने से जुड़ा है
कथाकार शिवमूर्ति से सुशील सिद्धार्थ की बातचीत

आपके संस्मरणात्मक आलेख 'मैं और मेरा समय' को पढ़ने से कोई भी जान सकता है कि आपकी शुरूआती जि़न्दगी कितनी बीहड़ और बेढब रही है। अभाव, दुख, असुरक्षा और स्थानीय सामन्ती आतंक-- क्या-क्या नहीं सहा आपने! हुत स्वाभाविक और सम्भव था कि आपका लेखन विष और कटुता से भर जाता है। .....फिर भी आप इससे उबरें।
      पहली बात तो यह कि शायद ही किसी लेखक का उद्‌देश्य लेखन के माध्यम से विष परोसने का रहता हो। जहाँ तक कठिनाइयों में जीवन गुजारने की बात है, हमारे आस-पास के नब्बे प्रतिशत लोगों का जीवन इन्हीं परिस्थितियों में बीत रहा था। इसलिए  तो यह बात मन में ही नहीं आती थी कि हम कठिनाई या आतंक के साये में जी रहे हैं। उन परिस्थितियों से उबरने के लिए मैंने दर्जीगीरी सीखने या मजमा लगाने का तरीका अपनाया दूसरे लोगों ने दूसरे तरीके अपनाये होंगे। यह तो अब पता चल रहा है उन परिस्थितियों से उबर कर..... दूर से देखने और वर्तमान से तुलना करने पर, कि वह जिन्दगी बीड़ थी।..... अभी तक मैंने अपनी व्यक्तिगत जिन्दगी की कटुता या तल्ख़ी को कहानियों का विषय बनाया भी नहीं है। पता नहीं क्यों नहीं बनाया! हो सकता है आगे के लेखमें वह सब रूप बदल कर आये।
एक यथार्थ वह था जो आपके शुरूआती जीवन के आसपास था। एक अथार्थ आपका वर्तमान है। बदलते यथार्थ के साथ आपका नज़रिया किस तरह बदल रहा है?
       यथार्थ जैसा रहेगा, वैसा ही दिखाई देगा। हमको भी और आप सबको भी। और वह जैसा होगा, उसी तरह रचना में आयेगा। मेरा नजरिया किसी पूर्वनिर्धारित सोच या विचारधारा से नियन्त्रित नहीं होता। जीवन को उसकी सघनता और निश्छलता में जीते हुए ही मेरे रचनात्मक सरोकार आकार ग्रहण करते हैं। पहले का यथार्थ यह था कि 'कसाईबाड़ा' की हरिजन स्त्री सनीचरी धोखे/जबरदस्ती से मार दी जाती थी.....उसकी खेती-बारी हड़प ली जाती थी। आज का यथार्थ 'तर्पण' में है। सनीचरी जैसे चरित्रों की अगली पीढ़ी रजपतिया के साथ जबरदस्ती का प्रयास होता है तो गाँव के सारे दलित इकट्‌ठा हो जाते हैं। सिर्फ इकट्‌ठा नहीं, बल्कि उस लड़ाई में वे संकट का समाना करते हैं। वे लड़ाई जीतने के लिए हर चीज़ का सहारा लेते हैं। उसमें उचित या अनुचित का सवाल भी इतना प्रासंगिक नहीं लगता। उनके लिए र वह सहारा उचित है जो उनके संघर्ष को धार दे सके। पहले थोड़ा अमूर्तन भी था। अब टोले का विभाजन दो प्रतिद्वन्द्वियों के रूप में सानमे खड़ा है। जातियों के समीकरण पहली कतार में गये हैं। 1980 से 2000 तक जो परिवर्तन आया वह मेरी रचनाओं में साफ दिखता है। .....मैं 'तर्पण' को ध्यान में रखकर कह रहा हूँ। इससे आगे का यथार्थ भी मेरी रचनाओं में रहा है..... और उससे आप मेरा नजरिया समझ सकते हैं। 'भरतनाट्‌यम' के लिखे जाने का समय एक दूसरी तरह की समझदारी का था। तब यह स्वर नहीं उठता था कि जो दुख-दर्द घेरे है, उसके आँकडे़ क्या हैं! कारण क्या है! पैदावार और लागत का जो अनमेल अनुपात है उसके पीछे कैसे-कैसे षडयन्त्र हैं! यानी परदे के पीछे चल रहा खेल क्या है? .....आज इन सब पर नजर जा रही है। दुखी-दलित लोग संगठन बना रहे हैं। एका बनाकर सामने रहे हैं।
तब तो गाँव के यथार्थ को परखना आसान हो रहा है।
      जी नहीं। यथार्थ को उसके यथासम्भव  आयामों में पकड़ना हमेशा कठिन काम रहा है। गाँव  पर लिखना कठिन होता जा रहा है। जितना नजदीक जाइये, उतना ही यह अनुभव गहराता है कि जो सोचा था वह कितना सतही है कल्पना ने जितना देखा था, यह तो उससे कहीं अधिक भयावह है। तब डर लगता है कि इतने सन्त्रास..... इतनी भयावहता को वे पाठक/आलोचक कैसे समझ पाएँगे जो इस दुनिया से सीधे नहीं जुडे़ हैं। यकीन मानिए.....कई बार जो यथार्थ है उसे रचना में लाते समय हल्का करना पड़ता है।
'तिरिया चरित्तर' का यथार्थ जाने कितनी बिडम्बनाओं और अमानवीयताओं से घिर गया है!
      बिलकुल सही कहा आपने। जीवन में, प्रेम में पंच, सरपंच, पंचायत, बिरादरी, धर्म, समप्रदाय का इतना दखल होता जा रहा है कि शिक्षा या सभ्यता के सारे दावे खोखले जर आते हैं। आज ऐसे समाचार अपवाद नहीं रहे कि एक प्रेमी जोडे़ के साथ कैसा कबीलाई बर्ताव हुआ। या किसी लड़की पर कैसे वहशियाना आरोप मढे़ गये। कई घटनाओं में तो माँ-बाप की भी सहमति हो जाती है कि लड़का/लड़की को काट डालो। कई बार पिता के हाथों लड़का/लड़की को फाँसी दिलवाई जाती है। पंचों में वहशीपन दिख रहा है। फैनेटिज्म या नासमझी पहले से कहीं ज्यादा है। यह विकास है? इन सच्चाइयों को परखना हो तो ऐसी जिन्दगी के बीच में आना पडे़गा।
 
आप जिस विकास या सभ्यता पर तरस खा रहे हैं, उसका एक रूप स्त्रियों से जुडे़ सवालों में देखा जा सकता है।
     क्यों नहीं। हमारा समाज स्त्रियों के प्रति ज्यादा न्यायसंगत या मानवीय नहीं रहा है। इसलिए मैं बसे ज्यादा इस बात में भरोसा रखता हूँ कि खुद स्त्रियों द्वारा... लड़कियों द्वारा जो जागरूकता रही है, वह ज्यादा महत्वपूर्ण या आशापूर्ण है। अब इस स्त्री-यथार्थ के भी कई पहलू हैं। स्त्रियाँ जितनी सचेत हो रही हैं, प्रतिहिंन्सा में पुरूष बर्चस्व उतना ही असहिष्णु हो रहा है। प्रतिक्रिया में पुरूष उत्पीड़न के नये-नये हरबा हथियार आजमा रहे हैं। यानी स्त्रियों के जागरूक होने पर जो होना चाहिए था, विडम्बना यह कि उसका उलटा हो रहा है।
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लेकिन स्त्री-विमर्श के अगुवा तो बड़ी-बड़ी बातें ऐसे कर हरे हैं जैसे अब जानने के लिए कुछ बचा ही नहीं?
      स्त्री-विमर्श का क्षेत्र बहुत व्यापक है। स्त्री विमर्श की जिन्हें सबसे ज्यादा जरूरत है वे हैं किसान, मजदूर, स्त्रियाँ। चाहे गाँव में रह रही हों या शहर में, लेकिन खुद उनमें उतनी जागरूकता नहीं है, उनके बीच से कोई लेखिका नहीं है और जो शहरी बेल्ट की लेखिकाएँ हैं, उन्हें उन नब्बे प्रतिशत की जानकारी नहीं है। अपवाद स्वरूप चित्रा जी, मैत्रेयी जी जैसी कुछ लेखिकाएँ हैं जा उनके सरोकार से खुद को जोड़ती हैं।
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फिर भी, पहले वाले प्रश्न का यह जरूरी पहलू है कि स्त्री-विमर्श के लिए सबसे ज्यादा जान खपाने वाले - राजेन्द्र यादव शहरी बेल्ट की लेखिकाओं को ही बार-बार रेखांकित कर रहे हैं।
      यादव जी ने वह दुनिया देखी ही नहीं है, मैं जिसकी बात कर रहा हूँ। उनको शायद अवसर ही नहीं मिला।
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लेकिन, जो स्त्री दलित विमर्श पर घड़ियाली आँसू बहा रहे हैं, उनके लिए आप क्या कहना चाह रहे हैं?
     घड़ियाली आँसू तो घड़ियाली ही होता है। ब वह किसी शिकार को जबड़े में दबोचता है तो दबाव से उसकी आँखों से पानी निकलने लगता है। आपका उसे आँसू समझना ड़ियाल के पक्ष में जाता है।
 
स्त्रियों की दुनिया से जितना वास्ता आपका पड़ता रहा है, उतना बहुत कम लेखकों को नसीब होगा। ऐसा आपके साक्षात्कारों और अन्य लेखन से पता चलता है। आपके जीवन में कई तरह की स्त्रियाँ आई हैं। व्यक्तित और लेखक के तौर पर आपके लिए स्त्री का अर्थ क्या है।
     यह सही है कि मेरी जिन्दगी में बहुत-सी स्त्रियाँ आई हैं, विविध प्रकार की। विविध क्षेत्रों की। पढ़ी-लिखी तो बहुत कम, अनपढ़ अधिक। लेकिन और कौन आयेगा हमारे जीवन में? हमारा होना ही स्त्री के होने से जुड़ा है। हमारी नाल ही स्त्री से जुड़ी है। वह हो तो हम कहाँ हों! अगर किसी के जीवन का रस आधी राह में ही नहीं सूख जाता है तो निश्चय ही उसके पीछे कोई स्त्री होगी। जवानी में विधुर हुए बहुत कम लोग बुढ़ापा देख पाते हैं।
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बुढ़ापे तक साथ मिलने के बाद भी बहुत से लोग प्रेम-प्रीति का सही मतलब ही नहीं जानते।
     कैसे जानेंगे पार्टनर! ज्यादातर लोग पचीस-तीस फीट तक की बोरिंग वाले हैण्डपम्प का पानी जीवन भर पीते रह जाते हैं। कभी 'इंडिया मार्का' हैण्डपम्प से सवा सौ डेढ़ सौ फीट की गहराई से निकला हुआ पानी पीकर देखें, तब अन्तर का पता चलेगा। यानी मन में उतरिए- गहराई तक। तभी अमृतपान कर सकेंगे। ऐसे लोग भी कम नहीं है। अभी मैने डाo विश्वनाथ त्रिपाठी की पुस्तक पढ़ी- 'नंगातलाई का गाँव' उससे पता चलता है कि पंडित जी के जी में आईं स्त्रियों में कितनी विविधता और गहराई है। यह पुस्तक मेरी पत्नी ने पढ़ी है। फिर पंडित जी से फोन पर कहा- आप कितने भाग्यशाली हैं कि उन्हें याद रख पाये और वे कितनी भाग्यशाली हैं कि याद रह ईं
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दरअसल मैं  आपके भाग्य और दूसरे पक्ष के भाग्य के बारे में जानना चाहता था।
       मैं आपका आशय, आपका संकेत समझ रहा हूँ। 'मैं और मेरा समय' में ही मैंने जाति से बेड़िनी और पेशे से बेश्या अपनी मित्र शिवकुमारी के सम्बन्ध में लिखते हुए कहा है कि कुलटा, भ्रष्टा या पतिता कही जाने वाली स्त्रियों को देखने की मेरी दृष्टि में जो परिष्कार हुआ है, वह शिवकुमारी के सान्निध्य के अभाव में कभी नहीं हो सकता था। इतनी स्त्रियाँ मिलीं जीवन में लेकिन जिन्हें कुलटा या पतिता कहते हैं, ऐसी एक भी स्त्री से अभी तक मेरा परिचय नहीं हुआ। अन्दर उतर कर देखिए तो एक से एक नायाब मोती की चकाचौंध आपको विस्मय-विमूढ़ कर जाती है। मैं पहले भी कई जगह कह चुका हूँ, किसी की प्रेयसी होना भी जरूरी है किसी की पत्नी होने के साथ-साथ। यही बात पुरूष के लिए भी। जो इन दोनो रूपों को जी सका, उसी का जीवन पूर्ण है।
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तो क्या आपका जीवन पूर्ण है?
    (एक मौन के बाद).....और जहाँ तक लेखन में इनके आने की बात है, मेरी लगभग सारी कहानियाँ नायिका प्रधान हैं। चाहे 'तिरिया चरित्तर' हो या 'सिरी उपमा जोग' 'कसाई बाड़ा हो', 'केशर कस्तूरी' हो, 'अकालदण्ड' हो। मेरे उपन्यास 'तर्पण' की मुख्य पात्र भी लड़की है। और अकारण नहीं कि यह सभी मजदूर दलित या पिछड़ी स्त्रियाँ हैं।
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आपने कई जगह अपनी पत्नी (सरिता जी) की प्रशंसा की है। कुछ सरिता जी के बारे में।
      सरिता जी तो हमारी 'पितु मातु सहायक स्वामि सखा सब कुछ' हैं। उनके ही ठोकने पीटने से मैं एक जमाने में बेरोजगार से बा-रोजगर हुआ था। उन्हीं के पीछे पड़ने से लेखक बना रह गया। वे लेखन के लिए जरूरी कच्चे माल- कथानक संवाद और गीत- की सबसे बड़ी खान हैं, स्टोर हैं। एक राज की बात बताऊँ, लेखन की मेज पर बैठाने के लिए वे कभी-कभीण्डा भी उठा लेती हैं, इस उम्र में भी। और वे मेरी रचनाओं की पहली श्रोता/पाठक भी प्राय: होती हैं।
 
पाठकों की बात अच्छी गई। बहुत सारे लेखक पाठकों का रोना रोते हैं या उन पर कई तरह के ठीकरे फोड़ते रहते हैं। आपके अनुभव क्या हैं?
     मेरे अनुभव बहुत ही अच्छे हैं। मेरी रचनाओं से कितने पाठक जुड़ते हैं, यह बताने की जरूरत नहीं है। लेकिन ऐसा भी नहीं कि मेरे ऊपर पाठकीय अपेक्षाओं का दबाव रहता हो। जो विषय जिस रूप में हांट करता है उद्वेलित करता है, उसी को उठाता हूँ कोशिश करता हूँ कि विषय या समस्या स्पष्ट हो जाय। फिर निष्पति का ध्यान देता हूँ। उसी में कुछ अच्छा कुछ खराब बन जाता है। यह अपेक्षा नहीं करता कि हर बार पाठक प्रशंसा ही करेंगे। जैसे, जिन्होंने 'केशर कस्तूरी', 'सिरी उपमा जोग', 'भरत नाट्‌यम' वगैरह को सराहा, उन्हीं ने 'त्रिशूल' पर आपत्ति की। उन्हें जातिवाद की गन्ध आई। लेकिन बहुत सारे लोगों ने कहा कि यह हुई कोई बात! अब तक औरतों का रोना गाना लिखते रहे, अब ढँग की चीज़ लिखी है। दोनों ही तरह के पाठक सही लगते हैं, जब वर्गीय स्थिति पर नजर डालते हैं।
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और घोडे़ पर बैठी मक्खी यानी आलोचक के बारे में आप की राय?
     मेरी रचनाएँ आलोचकों द्वारा सामान्यत: पसन्द की जाती रही हैं। 'तिरिया चरित्तर' के सम्बन्ध में नामवर जी ने कहा था कि इसे उपन्यास क्यों नहीं बनाया? और खिलकर आता। इसी कहानी पर परमानन्द जी ने गोरखपुर में एक हंगामेदार गोष्ठी करवायी थी।..... लेकिन कई बार लगता है कि आलोचकों को दिल और दिमाग़ दोनों का प्रयोग करना चाहिए। कई बार आलोचक शरीर की लम्बाई तो नाप लेते हैं। लेकिन वाणी में जो भावना प्रकट होती है, आँखों में जो स्नेह चमकता है, उन बारीक तन्तुओं को बेकार समझकर छोड़ देते हैं। जबकि उन्हीं बारीक तन्तुओं में बडे़ सन्देश छिपे रहते हैं। यदि आलोचक अपने फन का उस्ताद होगा तो रचना के साथ उसका वही व्यवहार होगा जो पेड़-पौधों के साथ माली का होता है। जबकि हिन्दी में ज्यादातर आलोचक लकड़हारे की भूमिका में नजर आते हैं। बगली छाँटने की बजाय फुनगी ही छाँट देते हैं। कुछ तो शाही लकड़हारा कहलाने में गर्व का अनुभव करते हैं। पहुँचे हुए आलोचक भी साहित्येतर कारकों से प्रभावित होकर मुँह खोल रहे हैं.....और उपहास के पात्र बन रहे हैं।
 
एक बारीक तन्तु यह भी है कि आपके यहाँ संघर्ष करते पात्र नैतिकता की नयी तस्वीर भी बनाते हैं।
       सही है। लड़ाई ड़नी है तो सब चलेगा। जिस समाज में सौगन्ध लेकर झूठ बोलना परम्परा हो वहाँ सच कितना बेबस हो सकता है! दबे कुचले मारे पीटे जाते लोगों के लिए अहिंसा का क्या अर्थ है? 'हे दयानिधि' गाते हज़ारों साल गुज़रे। दयानिधि को दया नहीं आई। अनकी 'दया ब्रिगेड' काल बनकर टूटती रही है। अब इनके छल कपट के हथियारों से दलित भी लड़ रहे हैं तो बुरा क्या है। उन्हीं के हथियार से उनको परास्त करने का प्रयास बुरा नहीं है। बचपन में कोर्स में एक कविता पढ़ी थी 'अछूत की ' वियोगी हरि की-
            'हाय हमने भी कुलीनों की तरह
            जन्म पाया प्यार से पाले गये।
            किन्तु हे प्रभु! भूल क्या हमसे हुई
            कीट से भी नीचतम माने गये।।
            जो दयानिधि कुछ तुम्हें आये दया
            तो अछूतों की उमड़ती आह सुन।
            असर होवे यह कि हिन्दुस्तान में
            पाँव जम जाये परस्पर प्यार का।।''
      आज देख रहा हूँ ऐसी कविताओं का यथार्थ। किसी की शरण में जाकर अन्याय और शोषण से मुक्ति पाना सम्भव नहीं है। साधन की शुचिता जैसा गाँधीवादी दृष्टिकोण गाँधी जी द्वारा ही प्रयोग करने पर ही असर दिखा सकता है।
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शायद यथार्थ के गहरे विश्लेषण से यह बात निकल रही है।..... और इसीलिए आप गाँव के जीवन पर ही लिखते रहे हैं।
      जिस गाँव से मैं परिचित हूँ, वहाँ का जीवन इतना दारूण है कि शहर की को समस्या ही नहीं लगती। और अब तो... क्या कहूँ! मजूर किसान एका करके समस्याओं से जूझना चाहते हैं मगर क्या करें! अभी पश्चिम बंगाल में जो घटनाएँ घटी हैं, नक्सलवाड़ी से नन्दीग्राम तक की जो यात्रा है, सत्ता का दमन और बाज़ार का जो सर्वग्रासी रूप है, उससे मुझे फिर से सोचने की दृष्टि दी है। देखिये, किसान मजदूर का मजबूत एका कैसे हो सकता है! आर्थिक रूप से वे इतने विषम हैं कि कोई भी लम्बी लड़ाई उनके वश में नहीं है। ऐसे हालात हैं कि वे अपने आप मर रहे हैं। मरता हुआ आदमी क्या लडे़गा!
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आप एक तरह से लोकतन्त्र पर टिप्पणी कर रहे हैं।
      मैं भूख तन्त्र को देख रहा हूँ। सत्ता किसान-मजदूर को आसानी से घुटने टेकने पर विवश कर रही है। प्रजातान्त्रिक शासनप्रणाली में 'कल्याणकारी राज्य' की संकल्पना की गयी है। वही आज पूँजीपतियों के एजेन्ट या दलाल की भूमिका में उतर आई है। मैं तो राष्ट्रीय फलक पर देख रहा हूँ। पिछले साल में किसी भी सरकार ने भूमि की समस्या हल करने का ईमानदार प्रयास नहीं किया।.... और अब जो किसान के पास है, उस पर भी डकैती डाल रही है। जब सरकार ही किसी का उच्छेद करने में जुट जाय तो कौन बचायेगा? यह सरकारी आतंकवाद है। अफसोस, कि इस आवंकवाद पर लगाम लगाने का कारगर तरीका प्रजातान्त्रिक शासन प्रणाली में हम अभी तक विकसित नहीं कर पाये हैं।
इस तरह सोचते हुय तो लगता होगा कि अभी लिखा ही क्या है, इस जीवन पर!
     मैं दस प्रतिशत ही लिख पाऊँगा। अगले दो दशक गाँव पर लिखता रहूँ भी जाने कितना बचा रहेगा। यह मेरी प्राथमिकता है तो और कुछ सोचने का मौका ही नहीं मिल पाता।
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इतने सन्दर्भ सम्पन्न होने के कारण ही आपको लम्बी कहानी या लघु उपन्यास का शिल्प अच्छा लगता है।
     यह भी एक कारण हो सकता है। जो कहानी की पारम्परिक मान्यता है, उससे थोड़ा बाहर मेरी रचनाएँ आती हैं। और लम्बी कहानी होते-होते लघु उपन्यास तक पहुँचती हैं। 'अकाल दण्ड' छोटी लिखना चाहता था, बड़ी हो गई। एक वजह यह भी है कि मुझे उपन्यास लिखने का अवकाश जीवन ने नहीं दिया, इसलिए उपन्यास के विषय लम्बी कहानी में प्रकट हुए। फिर भी बहुत सारी बातें रह जाती हैं हो सकता है कि रिटायरमेन्ट के बाद इन बातों को लिखने का मौका मिले।
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'मैं और मेरा समय' में जैसा गद्य लिखा था आपने वैसा गद्य भी दुबारा नहीं लिखा। वर्णन की वह शैली बहुत पसन्द की गई थी।
    मुझे भी लगता है कि वह शैली लिखने पढ़ने वाले दोनों को बाँधती है। साथ ही लेखक को बहुत गहराई तक अपने आपको टटोलने का अवसर देती है मेरा अगला उपन्यास इसी शैली में लिखा जा रहा है।
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आपकी शैली तो विशिष्ठ है ही, आपकी भाषा भी अलग से पहचानी जाती है। भाषा को यह शक्ति कहाँ से मिलती है?
     भाषा की ताकत मैं लोकजीवन और लोकगीतों से बटोरता हूँ। लोकगीतों में लगभग बहुत कम पढे़ लोग, कम से कम शब्दों में अपनी बात कहते रहते हैं। मैं प्रचलित मुहावरों की शक्ति सँजोता रहता हूँ। मैं अपनी कहानियों में इस शक्ति को विस्तार देता हूँ मेरी कहानियों में लोकगीतों के अंश आते रहते हैं। रेणु को पढ़कर यह सच्चाई आप जान सकते हैं। देखिये इन शब्दों में कितनी मार्मिकता है-
                'सजनी वहि देसवा पै गाज गिरै।
                जौने देसवा के किसनवा राम भिखारी होय गये।।
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तो क्या लोकजीवन में केवल दुख गरीबी और सदन ही है!
      ऐसा नहीं है। 'नया ज्ञानोदय' के इसी अंक में जो मेरा उपन्यास 'आखिरी छलाँग' प्रकाशित हो रहा है, उसमें भी लोकरंग की छाप आप देख सकते हैं ग्रामीण जीवन इतनी विपरीत परिस्थितियों में बचा रह गया है तो इसका कारण भी उसकी आत्मा में बसी त्सवधर्मिता, उल्लास और गीत संगीत है।
जब अभिव्यक्तित की इतनी शक्ति है लोकजीवन में, तब गाँव से उपजे या उससे जुडे़ लेखक इससे क्यों विमुख हो रहे हैं?
      बात यह है कि जो गाँव में पैदा हुआ है, वहाँ की समस्याएँ झेलता भोगता है- वह कोशिश करके उस दुख तकलीफ की जिन्दगी से भागने का प्रयास करता है। जो भाग जाता है उसके लिए गाँव अतीत बन जाता है। इसलिए गाँव पर लिखते समय वह स्मृतिजीवी ही हो सकता है जो उसके लेखन की धार को कुन्द करेगा। और जो गाँव में ही पड़ा रह जाता है, वह उन्हीं समस्याओं का सामना करता है, उनमें डूब जाता है, तब उसके पास इतना वकाश ही नहीं रहता कि उन पर लिखने की सोचे।
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आपसी दृष्टि में ऐसे कौन लेखक हैं, जिन्होंने गाँ की जिन्दगी को प्रामिकता दी है?
     हैं, कई महत्वपूर्ण लोग हैं। प्रेमचन्द, रेणु, शिवप्रसाद सिंह, मार्कण्डेय... मगर मैं कुछ दूसरी तरह से सोचता हूँ। वास्विकताओं में तो रेणु भी पूरी तरह से नहीं उतरे। गाँव की जिन्दगी की रंगीनी, ध्वनि रूप, कौतूहल सब है। बच्चा साँप देखेगा, चिकनापन, लपलपाती जीभ... सम्मोहित हो जायेगा। मगर जहर? जहर की समझदारी भी होनी चाहिए। प्रेमचन्द के यहाँ भी खेती केर्चे, लागत, नफे मुनाफे का अर्थशास्त्र कहाँ है? सामान्यताओं का बढ़िया चित्रण है। जमीदारों का शोषण, किसानों का संघर्ष... पढ़ने को मिला क्या? मैं तरस गया। बहुत कुछ देखने को लिखने को था, उनके पास- जो रह गया।
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यह तो बहुत पुराने नाम हो गए..... इसके बाद!
    बाद के लोगों में मधुकर सिंह, संजीव, रामधारी सिंह दिवाकर, चन्द्रकिशोर जायसवाल, मैत्रेयी पुष्पा, पुन्नी सिंह, महेश कटारे आदि का नाम लेना चाहूँगा।
यह नाम फिर एकाध पीढ़ी पुराने हो चले हैं। जो युवतर पीढ़ी है, इसमें से कुछ का नाम लीजिए।
   आपका यह प्रश्न मुझे भी कभी-कभी चिन्तित करता है। कैलाश बनवासी, अरविन्द कुमार सिंह, सुभाषचन्द कुशवाहा, राकेश कुमार सिंह, गौरीनाथ जैसे लेखकों की कहानियाँ ध्यान आकर्षित करती हैं लेकिन... शैली और शिल्प की दृष्टि से अत्यन्त क्षमता लेकर आये एक दो नये लेखकों ने जरूर गाँव को अपना वर्ण्य वि बनाया है, लेकिन जिसे सरोकार कहते हैं वह तिरोहित नजर आता है। कैरियर की होड़ ने भी उन्हें उधर से नजर फेरने को मजबूर किया होगा। यह विश्वास करने का मन नहीं होता कि गाँव उनके मन से उतर गया होगा। जैसे खेत-खलिहान में बीज छिपे रहते हैं अनुकूल-मौसम आते ही अंकुरित हो उठते हैं। ऐसे ही अंकुरण के लिए कमर कसती नयी, फसल होगी जरूर। आने वाली होगी।
कमर कसने की जरूरत भी है। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के बाद तो गाँव की जिन्दगी पर जाने कैसी-कैसी छायाएँ मँडरा रही हैं!
   सही है। भूमि, जल, वनस्पति, बीज वगैरह के खिलाफ जो साजिशें चल रही हैं, वे सब भूमंडलीकरण में आती हैं। किसान को तो विलुप्तप्राय जीवों की श्रेणी में डाल देना चाहिए। परिवार के परिवार गायब हो रहे हैं। किसी भी गाँव में चले जाइये। गाँव छोड़कर जाते हुए दो-चार किसानों के खाली घर आपको मिल जाएँगे। खंडहर बचे हैं। इस विलुप्तीकरण पर किसी की दृष्टि नहीं है। तब ईस्ट इंडिया कम्पनी ने मारा था, गिरिमिटिया प्रथा ने मारा था, अब भूमंडलीकरण मार रहा है।
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इन स्थितियों का सामना करने के लिए तो लेखक संगठनों को नयी भूमिका में उतरना चाहिए। आप किस लेखक संगठन से जुडे़ हैं?
    सभी से एक उदाहरण दूँगा। बचपन में नाना के यहाँ जाता था। एक ही घर था, उसी में सारे मामा रहते थे। अब सारे मामा अलग हो गये हैं। अब पूछने पर बताना पड़ता है कि हम किस मामा के यहाँ गये थे। वही हाल लेखक संगठनों का है। पाँच छह संगठन हो गये चाहता हूँ बारी बारी से हर मामा के यहाँ जाऊँ। विचारधारा सभी की प्रगतिशील है।
 
फिर भी, क्या ऐसा नहीं लगता कि लेखक संगठनों की भूमिका क्षीण हो रही है? ऐसा इसलिए पूछ रहा हूँ कि संगठनों की तरफ से इधर कथा सम्मेलन आदि के आयोजन कम हो रहे हैं। ज्यादातर प्रयास व्यक्तिगत जैसे हो रहे हैं। जैसे कथाकुम्भ (कोलकाता), संगमन और कथाक्रम आदि। इन सबसे आप भी जुडे़ हैं?
    जैसे व्यक्तित बूढ़ा होता है, संगठन भी  बूढे़ होते हैं। मानसिकता बूढ़ी होती है। इसी का प्रभाव होगा। सम्मेलनों की भूमिका निश्चय ही उत्प्रेरक का काम करती है। नयी और पुरानी पीढ़ी को मिलने का संवाद करने का अवसर प्राप्त होता है इसके लिए विभिन्न संगठन/संस्थाएँ प्रयास करतीं, हर महीने कहीं कहीं इस तरह के आयोजन चलते रहते तो निश्चय ही यह बहुत उत्साहवर्धक होता। लोगों को अभी तक पुरानेथाकुम्भ की याद है। हाल में हुए कथाकुम्भ में भी कई पीढ़ियों को एक साथ मिलने का मौका मिला। संगमन और कथाक्रम के आयोजनों के द्वारा भी व्यक्तिगत रूप से इस तरह के संवाद कायम करने का प्रयास किया जा रहा है।
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संगठन की जिम्मेदारी लेखक की ओर मोड़ते हुए पूछा जा सकता कि क्या लेखक को एक्टिविस्ट होना चाहिए?
     लेखक जिस विषय को या समाज को अपनी रचना का कथ्य बनाता है उसके बारे में लेखक की 'फर्स्ट हैंड' जानकारी होनी चाहिए। उसकी समस्याएँ, उसका संघर्ष लेखक की अपनी समस्या, अपना संघर्ष हो जाना चाहिए। ऐसा तभी हो सकता है जब लेखक उसके साथ एक्टिविस्ट के रूप में जुडे़। इस नजरिये से उसका एक्टिविस्ट होना आवश्यक है। हिन्दी में ऐसा कम हो पा रहा है। इसका कारण यह है कि ज्यादातर लेखक अंशकालिक लेखक हैं। उन्हें आजीविका के लिए कहीं कहीं नौकरी-चाकरी करने की मजबूरी है।
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तो क्या इसी मजबूरी के कारण हिन्दी में ऐसी रचना नहीं रही जो दुनिया को हिला दे? या नोबेल पुरस्कार के लायक मानी जाय!
     एक कहावत है कि चटनी रोटी पर पहलवानी नहीं होती। या हड्‌डी पर कबड्‌डी नहीं खेली जाती। लेखन की उच्चता के लिए विषय की गहराई में डूबने का अवकाश और एकान्त चाहिए। हिन्दी का लेखक लेखन के सहारे जिन्दा नहीं रह सकता। उसे पेट के लिए कुछ कुछ करना पड़ता है। उसी से समय चुरा र वह लेखन करता है। ऐसी स्थिति में वह अपने लेखन को ज्यादा समय दे नहीं सकता। जितना विदेश के वे पूर्णकालिक लेखक देते हैं, जिनकी ओर आपका संकेत है।... अपनी बात करूँ, तो यही 'आखिरी छलाँग' आखिरकार सत्रह दिन में लिखना पड़ा। सत्तर दिन में लिखा जाता तो जाहिर है, बात कुछ और बनती।
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शायद इसीलिए 'आखिरी छलाँग' की पांडुलिपि देते हुए आपने कहा था कि इसके शिल्प पर आप अधिक ध्यान नहीं दे पाये हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि कथ्य के पक्ष पर आपका इतना ध्यान रहता है कि कला पक्ष की ओर से आप थोड़ा उदासीन हो जाते हैं। आपकी दृष्टि में क्या ज्यादा महत्त्वपूर्ण है!
      कथ्य और शिल्प दोनों महत्वपूर्ण हैं। एक आत्मा है तो दूसरा शरीर। कथ्य रूपी आत्मा हो तो शिल्प मुर्दे को सजाने का उपक्रम बनकर रह जाएगा। लेकिन शिल्प पर ध्यान दिया जाय और अनगढ़ रूप में चीज सामने आये, यह भी मेरी नजर में क्षम्य नहीं है। रस परिपाक में शिल्प का महत्वपूर्ण योगदान होता है।
अब आखिरी सवाल। आप भविष्य में क्या-क्या लिखने की तैयारी कर हरे हैं!
      लिखने को तो बहुत कुछ सोचा है। तीन उपन्यास अधूरे पडे़ हैं। सभी गाँव की जिन्दगी पर हैं एक आत्मकथात्मक उपन्यास है। मेरे विचार से गाँव पर तो इतना लिखने को है कि कई लोग लिखें तो भी पूरा हो। ऐसे समझ लीजिए कि 'सब धरती कागद करूँ लेखनि सब बनराय। सात समुद की मसि करूँ गुरू गुन लिखा जाय' वाली निहाद है।... लेकिन क्या लिख सकूँगा...? अभी से क्या बाताएँ क्या हमारे दिल में है!

               

Saturday, October 1, 2011

'पगडंडिया'

'पगडंडिया'
उपन्या का अंश


       इतने सुन्दर लड़के का ऐसा दागी नाम- चोरवा। 
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      दो एक बार उस टोले के लड़कों से सुना था- छत्रधारी सिंह के घर कहीं से एक गोबर-सानी करने वाली औरत आयी है। उसके साथ उसका ग्यारह बारह साल का बेटा भी है। उसी को सब चोरवा कह कर बुलाते हैं। 
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     मेरा घर गाँव के पूरबी छोर पर था और छत्रधारी सिंह का बीच गाँव में। मुझे उधर जाने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी। पहली बार चोरवा नाम सुन कर मेरे मन में एक साँवले बदमाश लड़के की छवि बनी थी। फिर लड़कों ने बताया- चोरवा बहुत कम बोलता है। मुश्किल से मुस्कराता है। उसकी माँ बहुत सुन्दर है। गोरी है। 
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       फिर बताया- गुल्ली डंडा के खेल में उसे कोई हरा नहीं सकता। ऐसा सधा निशाना लगाता है कि डंडे की चोट खाकर गुल्ली उड़ती है तो बीघे भर दूर जाकर गिरती है। 
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       - तो ऐसे गुणी लड़के का नाम चोरवा क्यों पड़ा? क्या कोई माँ अपने बेटे का ऐसा नाम रख सकती है? जरूर यह उस टोले के चाई लड़कों की करामात होगी। पेट से निकलते देर नहीं हुई कि गाँव भर के लोगों के बारे में किस्से गढ़ना शुरू कर देते हैं। खुद की उमर दस साल और किस्से गढ़ेंगे बीस साल की लड़कियों के बारे में। सही बात कैसे पता चले?
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        आखिर एक दिन उससे मिलने का मौका मिला। वह छत्रधारी सिंह के दोनों बैलों को नहलाने के लिए नदी पर ले जा रहा था। मेरे पड़ोसी लड़के बेंचू ने उँगली उठा कर बताया- वही है चोरवा। 
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       मैंने दालान से अपनी कच्छी और अगौंछा लिया और नदी की ओर दौड़ चला। 
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       उसने एक बैल को किनारे चरने के लिए छोड़ दिया था और दूसरे को कमर भर पानी में खड़ा करके धो रहा था। मैं भी चोरवा के पास ही पानी में उतरा और तैर-तैर कर नहाने लगा। 
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       वह रह-रह कर उड़ती नजर से मुझे देख लेता फिर अपने काम में लग जाता। पहले को नहलाकर वह दूसरे को लाया। फिर दोनों को एक ही पगहे में नाध कर नदी पार तैरा दिया। वह खुद नहाने लगा तो मैं तैरते हुए उसके पास आ गया। पूछा- छत्रधारी सिंह के घर रहते हो। उसने स्वीकार में सिर हिलाया।
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       - क्या नाम है?
          वह कुछ बोला नहीं। डुबकी लगा लिया। उतराया तो मैंने फिर पूछा।
       - सब जानते हैं। तुम्हें नहीं पता।
       - वह नहीं। असली नाम?
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       उसने फिर डुबकी लगा लिया। इस बार वह मुझसे आठ दस हाथ दूर नदी की मध्य धारा में उतराया और तैरता हुआ उस पार चला गया। बैलों को वापस नदी में तैराता हुआ आया तो मुझसे काफी दूर नीचे की ओर किनारे लगा। दौड़ते हुए आकर अपने कपड़े और लाठी उठाया और उसी तेजी से बैलों के पास जाकर उन्हें हाँकते हुए गाँव की ओर बढ़ चला। 
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     वह सच मुच सुन्दर था। गोरा छरहरा। घनी काली बरौनियों वाली आँखें। चमकते सफेद दाँत। लड़कियों की तरह पतले लाल होंठ। चेहरे पर न खुशी न गम। न बेगानापन न घुल मिल जाने की लालसा।
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       मैं पानी से बाहर आकर दूर जाते चोरवा की पीठ देखता रहा। उसने मुझे मोह लिया था। ऐसे लड़के से दोस्ती होनी चाहिए। 
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       स्कूल आते जाते समय उस टोले के लड़कों से चोरवा की खबर मिलती रहती थी। ठाकुर टोले के लड़के अक्सर उसे देख कर चिढ़ाते-
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       - चोर चोर चोरवा। खिसिया निपोरवा
        चोरवा कै माई बियान दुइ घोड़वा।
         एकये पे हम चढ़ी, एकये पे चोरवा।
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       ठाकुर टोले में जसवंत और कुलवंत जुड़वा भाई नये-नये बदमाश निकल रहे थे। पता चलता कि वे दोनों ही उसे ज्यादा चिढ़ाते हैं। उसकी माँ के साथ दत्रधारी सिंह का नाम जोड़कर गन्दी बातें करते हैं।
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       उस दिन बिहारी ने बताया, जसवंत चोरवा को सुना कर कह रहा था,- छत्रधरी बाबा के उखाडे़ कुछ नहीं उखडे़गा। तगड़ा भाई चाहिए तो अपनी अम्मा को धन्नू घंटहा के पास भेज। फिर धन्नू के विशाल घंट (फोते) का दानों हाथ से आकार बनाते हुए दानों भाई हँसने लगे।
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        - चोरवा ने क्या कहा?
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       - वह रूका ही नहीं उन लोगों के पास। चलता चला गया। चोरवा की माँ की सुन्दरता की चर्चा मेरी माँ भी एक बार पड़ोस की चाची से कर रही थीं। मेरा मन कर रहा था कि एक बार उसकी माँ को देखूँ। वह गाँव के दक्षिण इमली के पेड़ के नीचे गोबर पाथने आती थीं। मैं एक रविवार इमली तोड़ने के बहाने गया। 
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      - हे बेटवा एहर ढेला ना मारो। मूंड़ मा लागिजाई। बहुत मीठी आवाज थी उसकी माँ की। चोरवा को अपनी माँ का रंग, रूप, दाँत और सुतवा नाक विरासत में मिले थे। 
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       ऐसी सुन्दर और मिठबोली चोरवा की माँ का सम्बन्ध जिसने मुझे भी बेटा कहा था, छत्रधारी जैसे ठूठ या धन्नू बाबा जैसे बदबूदार दाँतों वाले बूढे़ से जोड़ने की कल्पना कितनी गन्दी थी। जसवंत और कुलवंत दोनों मुझसे बित्ता भर बडे़ थे। चिढ़ाने की यह बात मेरे सामने हुई भी नहीं थी। चोरवा से मेरी नजदीकी भी नहीं थी। इसलिए उन दोनों भाइयों पर मन ही मन गुस्सा करने के अलावा मैं कुछ नहीं कर सकता था। 
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       मेरे गाँव में झाबर दशहरे के बहुत पहले शुरू हो जाती थी। चोरवा के जिम्मे इतना काम रहता था कि दिन में खेले जाने वाले किसी खेल में तो वह कभी कभार ही शामिल होने का मौका निकाल पाता था, लेकिन झाबर शुरू होने तक वह गाय बैलों को चारा पनी देकर फुरसत पा जाता तो आठ नौ बजे तक खेलने आ जाता था। मेरे पास भी झाबर खेलने के लिए दीपावली तक का समय था। इस वर्ष मैं आठवीं में था। आठवीं की परीक्षा बोर्ड से हीती थी इसलिए आठवीं के छात्रों को दीपावली के बाद रात में पढ़ायी करने के लिए स्कूल में बुलाया जाता था ताकि ज्यादा से ज्यादा बच्चे पास हों और ज्यादा से ज्यादा प्रथम श्रेणी ले आये। जिस स्कूल में प्रथम श्रेणी में पास होने वाले बच्चों की संख्या ज्यादा होती उसका क्षेत्र में बहुत नाम होता था। मेरे दादा कहत थे- मर्द मरै नाम का नामर्द मरै रोटी का।.... तो मैं चाहता था कि रात की पढ़ाई शुरू होने से पहले पन्द्रह बीस दिन झाबर खेलने को मिल जाए। झाबर के लिए खिलाड़ियों की कमी नहीं रहती थी। वैसे कम खिलाड़ी होने से भी बहुत फरक नहीं पड़ता। इस लिहाज से झाबर का खेल मुझे सारे खेलों का राजा लगाता है। न इसमें खिलाड़ियों की सीमा का कोई बन्धन होता है न समय की सीमा का। चाहे सिर्फ दो खिलाड़ी खेलें चाहे सारा गाँव खेले। दिन हो या रात। उजियारी रात हो तो ठीक लेकिन अँधियारी रात का भी अपना अलग मजा। सिर्फ परछाई की तरह दिख रहे खिलाड़ी की खेत में भौतिक स्थिति देखकर आपको निर्णय लेना पड़ता है कि वह आपके पक्ष का है या विपक्ष का। उस पर टूट पड़ना है या उसका साथ देना है। न किसी फील्ड की जरूरत न क्रिकेट, हाकी, वालीबाल के बल्ला, स्टिक, गेंद या नेट जैसे खर्चीले सामान की। सिर्फ और सिर्फ एक अदद जुता हुआ खेत चाहिए। 
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       चोरवा में गजब की फुर्ती थी। दौड़ते-दौड़ते अचानक दायें बायें, यहाँ तक कि पीछे भी मुड़ जाता था। दौड़ इतनी तेज थी कि जिस पर टूट पड़ता उसे पाँच छ: कदम तक जाते-जाते गिरा लेता। बाहरी गोल में रहता तो ट्रिक से ही पकड़ में आ सकता न कि दौड़ा कर। जिस गोल में रहता उसकी जीत निश्चित थी। इसलिए उसे सब अपनी गोल में लेना चाहते थे।
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       कुलवंत और जसवंत इस साल झाबर खेलने एक दो बार ही आये थे लेकिन जिस दिन आ जाते, लड़ झगड़ कर खेल खत्म कर जाते। पिछले साल तो अक्सर आ जाते थे, जबतक कि एक रात अँधेरे में एक गिट्‌टी आकर जसवंत की कनपटी पर लग नहीं गयी। वह बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा था। कान से खून निकल आया था। उस दिन के बाद फिर उस साल दोनों नहीं आये। इस साल भी उस दिन हार जाने के बाद दोनों ने झगड़ा शुरू किया। दोनों को चोरवा ने ही अकेले दौड़ा कर बारी-बारी पकड़ा था। दोनों मिल कर भी उससे भिड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पर रहे थे इसलिए उस पर बेईमानी का आरोप लगाकर गाली-गलौज करके अपमानित करना चाहते थे। चोरवा झगड़ा बचाना चाहता था इसलिए बोला- जाइये मैं नहीं खेलूँगा। 
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       - वह जाकर मेड़ पर बैठ गया। 
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       दूरी बढ़ गयी तो जसवंत की आवाज और तेज हो गयी- तू चोर। तेरा बाप चोर। तेरी माँ दाढ़ी बाबा की रखैल। 
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     - खबरदार आगे एक भी गाली निकली तो। दोनों का खोपड़ा खरबूजे की तरह फोड़ दूँगा। चोरवा गरज कर खड़ा हो गया। चोरवा की गर्जना से मैं खुश हुआ। अभी गुस्से में लगा दे एक एक लाठी तो हमेशा के लिए गरह कटे कटे।  मैने हिम्मत करके कहा- जब हार बरदास्त नहीं होती तो खेलने क्यों आते हो
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       - मैं गाँव का लम्मरदार हूँ। जीतने के लिए खेलता हूँ कि हारने के लिए बे? मेरे ही खेत में खेलोगे मुझे ही हराओगे? 
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         पलिहर छूटे खेतों में जसवंत के खेत बडे़ थे। दौड़ने के लिए पर्याप्त जगह मिल जाती थी। उसके खेतों के आस-पास कोई पेड़ न होने से रात फरियाने पर अंधेरे में भी जरूरत भर का दिखने लगता था। उँचास पर होने के कारण उसके खेतों में जुताई पहले होती थी। इसलिए झाबर खेलने के लिए सबसे उपयुक्त थे। लेकिन हारने की पूर्व शर्त के साथ भला कौन खेलना चाहेगा मैंने कहा- नहीं खेलेंगे तुम्हारे खेत में। बहुत सारे खेत हैं उसमें खेलेंगे। 
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       तभी थोड़ी दूर से आवाज आयी- चोरवा ने खड़ी चूची का दूध पिया है जसवंत लम्मरदार। तुम लतरी का दूध पीकर उससे कैसे जीत पाओगे? जीतने की इतनी टान थी तो अपनी अम्मा से कहते, पहलौठी पैदा करतीं। 
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         यह गिरधारी शुकुल की आवाज थी। गिरधारी शुकुल का खेत पास में था जिसमें भुट्‌टा बोया गया था। लड़के झाबर खेलते-खेलते अंधेरे का फायदा उठा कर भुट्‌टे पर हाथ साफ करें, इसलिए रखवाली के लिए आकर अपनी मेड़ पर बैठ जाते थे। गाँव भर में छोटे बड़े सबसे मजाक करने के लिए प्रसिद्ध थे।
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         लेकिन जो जसवंत अभी चोरवा की माँ के चरित्र पर उंगली उठा कर मजा ले रहा था वही अपनी माँ के स्तनों को लतरी कहे जाने से ऐसा चिढ़ा कि जोर से चिल्लाया- तुम बीच में क्यों बोलते हो पंडित साले?
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        बाप रे! चलीस वर्ष के प्रतिष्ठित ब्राह्‌मण को पन्द्रह वर्ष के जसवन्तवा ने साले कह दिया। सारे लड़के सन्न रह गये। 
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          - अच्छा लम्मरदार। सबेरे आकर तुम्हारे बाप से साले बहनोई के इस रिस्ते का खुलासा पूछेंगे?
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        अब सारी बात बड़ों के पास पहुँचेगी और सब को अपने-अपने घर डाँट-मार पडे़गी। सबसे पहले जसवंत, कुलवंत खिसके फिर बाकी लड़के। 
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         मैं चोरवा के पास चला आया। उसका हाथ अपने हाथ में लेकर कहा- अब जब भी ये दोनों तुम्हें घेरेंगे, मैं भी इनका मुकाबला करने में तुम्हारा साथ दूँगा। 
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         वह थोड़ी देर तक कुछ सोचता रहा फिर बोला- इनको तो में अकेले ही ओलार दूँ। (यानी लाठी के वार से जमीन पर बिछा दूँ।) लेकिन फिर इस गाँव में रहूँगा कैसे? माँ कहती है कि यह हमारे बोलने का नहीं, चुप रह कर दिन काट लेने का समय है। इसलिए इन लोगों की मार गारी को आशीर्वाद मान कर सह जाने को कहती है। मेरे बप्पा जेल से छूट कर आ जाये तब देखना....
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        - तुम्हारे बप्पा जेल में क्यों हैं?
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        वह चुप रह गया। धीरे से अपना हाथ मेरे हाथों से छुड़ाया और चल पड़ा। उस वर्ष फिर झाबर नहीं हुई।
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      मार्च आधा बीत गया था। होली के बाद ही बोर्ड की परीक्षाएँ शुरू होने वाली थी इसलिए अब रविवार की रात को भी स्कूल जाना होता था। रात को खाने के लिए रोटियाँ लेकर सब बच्चे पाँच छ: बजे तक स्कूल पहुँच जाते थे। गणित और अँग्रेजी के अध्यापक रात में बारी-बारी क्लास लेते थे। उन दिनों मिट्‌टी के तेल की किल्लत हो गयी थी इसलिए तेल बचाने के लिए अँग्रेजी के मास्टर साहब अँधेरे में क्लास लेते थे। फील्ड में चारपाई बिछाकर लेट जाते और ग्रामर पढ़ाते। अंधेरे में ही वे पढ़ाने के बाद प्रश्न पूछते और लड़के उत्तर देते। अंधेरे का पढ़ा जल्दी भूलता नहीं है। 
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       उस दिन मैं गाँव के दक्षिणी सिरे से निकल पक्की सड़क की ओर बढ़ रहा था। खेतों के बीच थोड़ी दूर पर किसी के गुनगुनाने की आवाज सुना पड़ी। शब्द नहीं, केवल धुन। सूरज डूबने में थोड़ी देर थी। मैं आवाज की ओर मुड़ गया। देखा, चोरवा था, छत्रधारी सिंह के चने के खेत की मेड़ पर बैठा गुनगुना रहा था। शाम के झुटपुटे में हरे चने चोरी से उखड़ जाते हैं। इसलिए उसकी रखवाली के लिए भेजा गया था। मैंने पास पहुँच कर पुकारा- चोरे भाई। 
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        वह चौंका और मुझे देखकर मुस्कराते हुए खड़ा हो गया। पूछा- कहाँ जा रहे हो?
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       - स्कूल। रात की पढ़ाई के लिए।
       - ऊँचे दर्जे में रातों दिन पढ़ना पड़ता है न?
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     - आठवीं का पर्चा बोर्ड से बन कर आता है। कठिन-कठिन सवाल पूँछते हैं। शहर में जाकर इम्तहान देना होता है। इसलिए पढ़ना तो पड़ता है।
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       बहुत अच्छा है भइया। बिहारी बता रहा था कि तुम पढ़ने में तेज हो मौका मिला है तो खूब मन लगा कर पढ़ डालो। मुझे तो दर्जा एक दो की पढ़ाई ही बहुत कठिन लगती थी। कटच्छर में और सात और नौ के पहाड़े में अटक जाता था।
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         - अच्छा, अपने घर स्कूल जाते थे?
        - हाँ दूसरी पास करके तीसरी में गया था, तभी... वह कहीं खो गया। मैंने कहा चलता हूँ। 
        - थोड़ी देर रूको। तुम्हारे साथ रहने का मन कर रहा है। आओ होरहा भूनते हैं। खाकर जाना। 
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      - ठीक है। मैंने स्वीकार में सिर हिलाया।चोरवा ने हरा चना उखाड़ा और हम लोग सड़क के दूसरी तरफ आ गये। इस पर महुआ ढाख वगैरह का जंगल था। पतझड़ शुरू हो गया था। सूखी पत्तियों की मोटी तह चारों तरफ बिछी थी। एक महुए के पेड़ के नीचे पत्तियाँ बटोर कर जगह बनायी गयी। चोरवा ने कमर से माचिस निकाल कर पत्तियों में आग लगाया। फिर एक हरी कनखीदार लम्बी ढाख की टहनी के सिरे पर हरे चने के पौधों को फँसा कर भूनने लगा। सूरज डूबते-डूबते होरहा तैयार हो गया। आग को पत्तीदार टहनी से बुझा कर हम दोनों हाथ मुँह काला करते हुए गरम भुने हरे चने का स्वाद लेने लगे। 
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      - अच्छा एक बात बताइये भइया। बिना स्कूल गये पढ़ाई नहीं की जा सकती? मेरा भी पढ़ने का बहुत मन करता है लेकिन छत्रधरिया स्कूल जाने नहीं देगा।
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      - घर पर भी पढ़ा जा सकता है। कोई बताने वाला होना चाहिए कि जो समझ में न आवे, वह बता दे।
      - अच्छा दरोगा बनने के लिए कितना पढ़ना पड़ता है?
      - यह तो पता नहीं। तुम दरोगा बनना चाहते हो क्या?
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     अंधेरा हो रहा था इसलिए उसका चेहरा या स्वीकार में हिलता सिर तो साफ-साफ नहीं दिखा लेकिन हुँकारी सुनाई पड़ी। 

       - क्यों? दारोगा तो बहुत बदमाश होते हैं। 
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      - मैं छत्रधारी के दरोगा बेटे को गोली मारना चाहता हूँ। उसने मेरे बप्पा को फर्जी केस में फँसा कर जेल भेजा है। मेरी पान की गुमटी गायब करा दिया है। मेरी माँ को डरा धमका कर यहाँ गोबर पथवाने के लिए लाया है। जब आता है तब बिना बात के मुझे पीटता है। दरोगा को सरकार पिस्तौल देती है। उससे सारे बदमाशों को एक ही दिन में उड़ा सकते हैं। 
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      - मेरे बप्पा कहते हैं कि पुलिस की नौकरी और कसाई का पेशा एक जैसा होता है। गरीबों बेगुनाहों की इतनी हाय लगती है कि खानदान बरबाद हो जाता है। बच्चे लोफड़ आवारा निकल जाते हैं।
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      - तो तुम क्या बनना चाहते हो?
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      - मुझे तो फौज में भरती होना है  इसीलिए तो लम्बाई बढ़ाने के लिए रोज पेड़ की डाल से लटकता हूँ। हवाई जहाज से उड़कर जाओ- सू ऊँ ऊँ..... और दुश्मन पर बम बरसाकर वापस। 

      - कौन दुश्मन?
      - देश के दुश्मन। चीन, पाकिस्तान।
      - उनसे हमारी क्या दुश्मनी है?
      - वे हमारी जमीन हड़पना चाहते हैं। 
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      - लेकिन हमारे तुम्हारे पास जमीन है कहाँ ? सारी जमीन पर तो छत्रधारी सिंह जैसे लोगों का कब्जा है। 
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        - यह जमीन नहीं भाई। देश की जमीन। भारत माता की जमीन। अगर उनसे सरहद पर नहीं लड़ेंगे तो वे अंदर घुस कर सब कुछ लूट लेंगे। 
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        - हमारे पास क्या है जो लूटेंगे। सारा माल तो छत्रधारी सिंह और उनका दरोगा बेटा लूट-लूट कर घर में भर रहा है। वे लोग आकर लूट लें तो अच्छा ही है। 
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        - तुम अभी नहीं समझ पाओगे। तबाही मच जायेगी। वह गीत नहीं सुने हो, मैं ऊँचे स्वर में गाने लगा- अपनी आजादी को हम हरगिज मिटा सकते नहीं। सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका सकते नहीं। और सुनो- जब घायह हुआ हिमालय, खतरे में पड़ी आजादी। दस-दस को एक ने मारा, फिर अपनी लाश बिछा दी। सबसे कीमती चीज है आजादी।  इसके लिए जान की भी कुर्बानी देनी पडे़ तो देना होगा। समझे?
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       - लेकिन भइया मेरी आजादी तो इसी दरोगवा ने खतम किया है। कहीं भाग नहीं सकते। कहता है भागे तो आकाश-पाताल से खोज निकालूँगा और दुबारा भाग न सको इसलिए दोनों आँखें सूजा लाल करके छेद दूँगा। मुझे तो मौका मिले तो इसी के घर पर गोले बरवाऊँ। 
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        मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि उसे कैसे समझाऊँ? बोला- तुम्हारी बात भी ठीक है। हमारी बात भी ठीक है। दुश्मन दोनों जगह हैं। देश के अन्दर भी और देश के बारह भी। दोनों से आजादी को खतरा है और दोनों से लड़ना है। लेकिन जब देश के दुश्मन को मारोगे तो नाम होगा, इनाम मिलेगा। और निजी दुश्मन को मारोगे तो जेल मिलेगी।
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       - लेकिन कलेजा तो असली दुश्मन को मारने से ही ठंडा होगा। जिसको देखा नहीं, पहचानता नहीं उस पर गोले बरसाने का क्या मतलब?
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       होरहे की आग पूरी तरह ठंडी पड़ गयी थी। अँधेरे में हाथ से टटोल-टटोल कर हम लोग एक-एक दाना मुँह में डाल रहे थे। मुझे देर हो रही थी। मन में कहीं चोरवा को अपनी बातों से परास्त न कर पाने की झुँझलाहट थी। फिर बोलना शुरू किया- देखो सात-आठ तक भी पढ़ लिए होते तो जान जाते कि दुनिया में सबसे गहरा प्रेम है- देश प्रेम। इसके सामने माँ का, बाप का, पत्नी का, पुत्र का किसी का भी प्रेम नहीं ठहरता। जब पढ़ोगे कि- 'शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले' और 'जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुर्बानी', तो फौज में भर्ती होने के लिए खुद ब खुद निकल पड़ोगे। जब पढ़ोगे कि फूल कहता है- 'मुझे तोड़ लेना बन माली, उस पथ पर देना तुम फेंक। मातृभूमि पर शीश चढाने जिस पथ जाते बीर अनेक', तो उस पथ पर चलने से खुद को रोक न पाओगे। अगर किसी दिन तुम हमारे हिन्दी वाले मास्टर साहब का भाषण सुन लेते.....।
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       - भइया आप ज्यादा पढे़ लिखे हो तो ठीक ही कहते होगे लेकिन परेड के मैदान  में जहाँ मेरी पान की दुकान थी, मजूरों के एक नेता भाषण दे रहे थे तो कह रहे थे कि जान लुटाने, मूड़  कटाने, लाश बिछाने के लिए वही लोग ललकारते हैं, वही लोग गाना गवाते हैं, पिक्चर बनवाते हैं जो अपनी जान देने से डरते हैं। वही लोग देश का माल अपनी तिजोरी में भरते हैं। छत्रधारी वगैरह का धन उनके सामने कुच्छ नहीं हैं  ये लोग तो झूठै ऐंठते रहते हैं करैत सांप की तरह। नेता जी शहरी अमीरों की बात कर रहे थे। कह रहे थे कि- मजा लूटते हैं वे और जान लुटाते हैं हम। माल लूटते हैं वे और लाश बिछाते हैं हम। भाई, जो माल लूटे वही जान भी लुटावे! जो हमारा माल लूटेगा, हमारी आजादी लूटेगा हम उसकी जान लूटेंगे। 
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     - अच्छा छोड़ो। देर हो गयी। चलता हूँ। मेरा इम्तहान हो जाय फिर मैं रोज शाम को एक घंटे तुम्हें पढ़ाऊँगा। सारे कटच्छर और जोड़, घटाव, गुणा, भाग में दो महीने में एकदम पक्के हो जाओगे। 
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       वह खुश हो गया। खड़ा होते हुए बोला- बहुत अच्छा भइया। लेकिन एक बात का डर लग रहा है। 

      - क्या?
      - पढ़ने लिखने से मेरा दिमाग भी उल्टा-पुल्टा न सोचने लगे?
       लगा कि वह अँधेरे में मुस्करा रहा है।
       मैन हँसते हुए कहा- मजाक कर रहे हो?
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      - नहीं भइया। आपका गाना सुन कर मेरे मन में क्या आ रहा है बताऊँ? आ रहा है कि जिन दस-दस को मारा था और फिर अपनी जान लुटा दी थी उन ग्यारहों के बाल बच्चों का क्या हुआ होगा? उनकी भी पढ़ाई तो नहीं छूट गयी होगी?
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       तुम ऐसा उल्टा पुल्टा क्यों सोचते हो?
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      - हमारी पान की दूकान पर एक बुढ़ऊ बीड़ी खरीदने आते थे। वे बप्पा से बताते थे कि फौज में जान गँवाने वाले अपने सिपाही बेटे की पेंशन बनवाने के लिए तीन साल से दौड़ रहे हैं। कभी कहते हैं यह कागज लाओ, कभी कहते हैं वह कागज। मैं सोचता हूँ कि वे जान लुटाने वाले अपने बेटे के बच्चों की फीस भर पाये होंगे कि नहीं? 
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      तब क्या पता था कि ऐसे अनोखे ढंग से सोचने वाले चोरवा को नियति किस-किस घाट का पानी पिलाने वाली है।









कहानी ऐसे मिली